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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः भृगुः स्वप्नम् -
भृगुका स्वप्न- नारायण उवाच शिवं प्रणम्य स य भृगुर्दुर्गां कालीं मुदाऽन्वितः । गत्वा पुष्करतीर्थं च मन्त्रसिद्धिं चकार ह ॥ १ ॥ नारायण बोले-भूगु ने सप्रेम शिव, दुर्गा और काली को प्रणाम करके पुष्कर तीर्थ में जाकर मन्त्र सिद्ध करना आरम्भ किया ॥ १ ॥ स बभूव निराहारो मासं भक्तिसमन्वितः । ध्यायन्कृष्णपवाम्भोजं वायुरोधं चकार सः ॥ २ ॥ वे भक्तिपूर्वक एक मास तक निराहार रहे--केवल भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमल का ध्यान करते हुए उन्होंने अपनी श्वास-गति रोक ली ॥ २ ॥ ददर्श चक्षुरुन्मील्य गगनं तेजसाऽऽवृतम् । दिशो दश द्योतयन्तं सभाच्छन्नदिवाकरम् ॥ ३ ॥ तेजोमण्डलमध्यस्थं रत्नयानं ददर्श ह । ददर्श तत्र पुरुषमत्यन्तं सुन्दरं वरम् ॥ ४ ॥ ईषद्धास्यप्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् । प्रणम्य दण्डवन्मूर्ध्ना वरं वव्रे तमीश्वरम् ॥ ५ ॥ त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यामि महीमिति । पादारविंदे सुदृढां तां भक्तिमनपायिनीम् ॥ ६ ॥ दास्यं सुदुर्लभं शश्वत्त्वत्पादाब्जेजे च देहि मे । कृष्णस्तस्मै वरं दत्त्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥ ७ ॥ अनन्तर आँखें खुलने पर उन्हें आकाश तेज से आच्छन्न दिखायी पड़ा । वहां दशो दिशाओं को प्रदीप्त करते हुए तथा सूर्य को आच्छादित किये तेजोमण्डल के मध्य में एक रत्न का यान (विमान) दिखायी पड़ा और उसमें अत्यन्त सुन्दर एवं श्रेष्ठ एक पुरुष दिखायी पड़ा, जो मन्दहास समेत प्रसन्न मुख एवं भक्तों पर अनुग्रह करनेवाला था । उस ईश्वर को शिर से दण्डवत्प्रणाम करके उससे वर की याचना की कि--'मैं इक्कीस बार इस पृथिवी को नि:क्षत्रिय करूं, आपके चरण कमल में अति दृढ़ एवं अविनाशिनी भक्ति प्राप्त हो तथा अपने चरणकमल का निरन्तर अतिदुर्लभ दास्य भाव मुझे प्रदान करने की कृपा करें । ' भगवान् कृष्ण ने उन्हें वर प्रदान किया और उसी स्थान पर अन्तहित हो गये ॥ ३-७ ॥ भृगुः प्रणम्य भवनं तज्जगाम परात्परम् । पस्पन्द दक्षिणाङ्गं च परं मङ्गच्चसूचकम् ॥ ८ ॥ वाच्छाप्रतीतिजननं सुस्वप्नं च ददर्श ह । मनः प्रसन्नं स्फीतं च तद्बभूव दिवानिशम् ॥ संभाष्य स्वजनं सर्वं गृहे तस्थौ मुवाऽन्वितः ॥ ९ ॥ भूग भी उस परात्पर भगवान् को प्रणाम कर अपने घर चले आये । परम मंगल सूचक उनका दक्षिणांग फड़कने लगा । मनोरथ सिद्ध होने का सुस्वप्न मी देखा । और तभी से दिन रात मन से प्रसन्न एवं स्फूर्तियुक्त रहने लगा । अपने परिवार के लोगों से समस्त वृत्तान्त बताकर घर में आनन्द चित्त से रहने लगे ॥ ८-९ ॥ स्वशिष्यान्पितृशिष्याश्च भ्रातृवर्गांश्चबान्धवान् । आनीयाऽऽनीयविविधान् मन्त्रांश्च स चकार ह ॥ १० ॥ अनन्तर अपने शिष्यों, पिता के शिष्यों, भ्राताओं और बन्धुवर्गों को बुला-बुलाकर विविध भांति के मंत्रों की शिक्षा देने लगे ॥ १० ॥ पौर्वापर्यं स्ववृत्तान्तं तानेवोक्त्वा शुभक्षणे । तैरेव सार्धं बलवान्बभूव गमनोन्मुखः ॥ ११ ॥ शुभ क्षण में उन सबसे अपना समस्त वृत्तान्त कहते हुए उन सबों के साथ (युद्धार्थ) चलने की तैयारी की ॥ ११ ॥ ददर्श मङ्गलं रामः शुश्राव जयसूचकम् । बुबुधे मनसा सवं स्यजयं वैरिसंक्षयम् ॥ १२ ॥ उस समय राम ने विजयसूचक शब्द सुना और मंगल दर्शन किया । जिससे उन्होंने मन में निश्चय किया कि मेरा विजय होगा और शत्रुओं का नाश होगा ॥ १२ ॥ यात्राकाले च पुरतः शुश्राव सहसा मुनिः । हरिशब्दं शङ्खरवं घण्टादुंदुभिवादनम् ॥ १३ ॥ आकाशवाणीसंगीतं जयस्ते भवितेति च । नवेङ्गितं च कल्याणं मेघशब्दं जयावहम् ॥ १४ ॥ यात्रासमय मुनि ने अपने सामने सहसा घोड़े का शब्द, शंख-शब्द तथा घण्टा और नगाड़े की ध्वनि सुनी एवं आकाशवाणी का संगीत भी सुना कि-'तुम्हारा विजय होगा । ' कल्याणात्मक नूतन चेष्टायें और विजयसूचक घन-गर्जन हुआ ॥ १३-१४ ॥ चकार यात्रां भगवाच्छ्रुत्वैवं विविधं शुभम् । ददर्शं पुरतो विप्रवह्निदैवज्ञभिक्षुकान् ॥ १५ ॥ ज्वलत्प्रदीपं दधतीं पतिपुत्रवतीं सतीम् । पुरो ददर्श स्मेरास्यां नानाभूषणभूषिताम् ॥ १६ ॥ भगवान् परशुराम ने इस प्रकार के विविध शुभ नादों को सुनते हुए (युद्ध) यात्रा आरम्भ की । उसी समय सामने ब्राह्मण, वह्नि, दैवज्ञ (ज्योतिषी), संन्यासी तथा प्रज्वलित दीपक हाथ में लिए पतिपुत्रवती पतिव्रता स्त्री का दर्शन किया, जो मन्दहास करती हुई प्रन मुख एवं अनेक भाँति के भूषणों से भूषित थी ॥ १५-१६ ॥ शिवं शिवां पूर्णकुम्भं चाषं च नकुलं तथा । गच्छन्ददर्श रामश्च यात्रामङ्गलसूचकम् ॥ १७ ॥ यात्रा करते हुए राम ने स्यार, शिवा (सियारिन), पूर्ण कलश, नीलकंठ और नकुल (नेवला) इन मंगल सूचकों को देखा ॥ १७ ॥ कृष्णसारं गजं सिंहं तुरङ्गं गण्डकं द्विपम् । चमरीं राजहंसं च चक्रवाकं शुकं पिकम् ॥ १८ ॥ मयूरं खञ्जनं चैव शङ्खचिल्ल चकोरकम् । पारावतं बलाकं च कारण्डं चातकं चटम् ॥ १९ ॥ सौदामनीं शक्रचापं सूर्यं सूर्यप्रभां शुभाम् । सद्योमांसं सजीवं च मत्स्ये शंखं सुवर्णकम् ॥ २० ॥ माणिक्यं रजतं मुक्तां मणीन्द्रं च प्रवालकम् । दधि लाजाच्छुक्लधान्यं शुक्लपुष्पं च कुङ्कुमम् ॥ २१ ॥ पर्णं पताकां छत्रं च दर्पणं श्वेतचामरम् । धेनुं वत्सप्रयुक्तां च रथस्थं भूमिपं तथा ॥ २२ ॥ दुग्धमाज्यं तथा पूगममृतं पायसं तथा । शालग्रामं पक्वफलं स्वस्तिकं शर्करां मधु ॥ २३ ॥ मार्जारं च वृषेन्द्रं च मेषं पर्वतमूषिकम् । मेघाच्छन्नस्य च रवेरुदयं चन्द्रमण्डलम् ॥ २४ ॥ कस्तूरीं व्यजनं तोयं हरिद्रां तीर्थमृत्तिकाम् । सिद्धार्थ सर्षपं दूर्वां विप्रबालं च बालिकाम् ॥ २५ ॥ मृगं वेश्यां षट्पदं च कर्पूरं पीतवाससम् । गोमूत्रं गोपुरीषं च गोधूलिं गोपदाङ्कितम् ॥ २६ ॥ गोष्ठं गवां वर्त्म रम्यां गोशालां गोगतिं शुभाम् । भूषणं देवमूर्तिं च ज्वलदग्निं महोत्सवम् ॥ २७ ॥ ताम्रं व स्फटिकं वन्द्यं सिन्दुरं माल्यचन्दनम् । गन्धं व हीरकं रत्नं ददर्शं दक्षिणे शुभम् ॥ २८ ॥ पुनः कृष्ण मृग, गज, frह, घोड़े, गण्डा, चमरी गौ, राजहंस, चक्रवाक, तोता, कोयल, मोर, खञ्जन पक्षो, शंखचिल्ल चकोर कबूतर, बगु, हारिल, पपीहा, गौरैया, विद्युत्, इन्द्रधनुष सूर्य और सूर्य की शुभ कांति, नवीन मांस, जीव मत्स्य, शंख, सुवर्ण, माणिक्य, रजत (चांदी), मोती, मणोन्द्र, प्रवाल (मुंगा), दही, धान का लावा, शुक्ल धान्य, श्वेत पुष्प, कुंकुम, पलाश, पताका, छत्र, दर्पण, श्वेत चामर, सवत्सा गौ, रथ पर स्थित राजा, दुग्ध, घृत, सुगड़ो, अमृत, खोर, शालग्राम, पके फल, स्वस्तिक, शकर, मधु, बिल्ली, सांड़, भेडा, पर्वतीय चहा, मेघाच्छन्न सूर्य का उदय, चन्द्रमण्डल, कस्तूरी, पंखा, जल, हरदी, तीर्थ की मिट्टो, राई, सरसों, दूर्वा, ब्राह्मण बालक और बालिका, मृग, वेश्या, भौंरा, कपूर, पोताम्बर, गोमूत्र, गोबर, गो का चरणचिह्न, गोधूलि, गोओं के रहने का स्थान, उनके मार्ग, गोशाला, गौओं की शुभ गति, भूषण, देवमूर्ति, प्रज्वलित अग्नि, महोत्सव, ताँबा, स्फटिक, वन्दनीय सिन्दूर, माला, चन्दन, गन्ध, हीरा और रत्व दाहिनी ओर देखा ॥ १८-२८ ॥ सुगन्धिवायोराघ्राणं प्राप विप्राशिषं शुभाम् ॥ २९ ॥ सुगन्धित वायु का सूंघना तथा ब्राह्मणों का शुभाशीर्वाद उन्हें प्राप्त हुआ ॥ २९ ॥ इत्येवं मङ्गलं ज्ञात्वा प्रययौ स मुदाऽन्वितः । अस्तं गते दिनकरे नर्मदातीरसंनिधौ ॥ ३० ॥ तत्राक्षयवटं दिव्यं ददर्श सुमनोहरम् । अत्यूर्ध्वं विस्तृतमतिपुण्याश्रमपदं परम् ॥ ३१ ॥ इस प्रकार मंगल समय जानकर परशुराम ने प्रसन्नता पूर्वक यात्रा की । सूर्य के अस्त होते-होते नर्मदा तट पर पहुंचकर वहाँ उस दिव्य एवं अति मनोहर अक्षयवट वृक्ष को देखा, जो अति ऊँचा, विस्तृत (चौड़ा) एवं आश्रम के समीप था ॥ ३०-३१ ॥ पौलस्त्यतपसः स्थानं सुगन्धिमरुदन्वितम् । कार्तवीर्यार्जुनाभ्याशे तत्र तस्थौ गणैः सह ॥ ३२ ॥ सुष्वाप पुष्पशय्यायां किंकरैः परिसेवितः । निद्रां ययौ परिश्रान्तः परमानन्दसंयुतः ॥ ३३ ॥ वह पौलस्त्य का तपः-स्थान था, जहाँ सदैव सुगन्धित वायु चलता रहता था । ऐसे कार्तवीर्यार्जुन के समीप वाले स्थान में अपने गणों समेत उन्होंने निवास किया । पुष्प-शय्या पर शयन किया और किंकर लोग उनकी सेवा कर रहे थे । अधिक शान्त होने के कारण वे परम आनन्द से निद्रामग्न हो गये ॥ ३२-३३ ॥ निशातीते च स भृगुश्चारु स्वप्नं ददर्श ह । न चिन्तितं यन्मनसा वायुपित्तकफं विना ॥ ३४ ॥ रात्रि के अन्तिम प्रहर में उन्होंने बिना कफ, वायु, पित्त के प्रकोप के, सुन्दर स्वप्न देखा, जिसे कभी सोचा भी नहीं था ॥ ३४ ॥ गजाश्वशैलप्रासादगोवृक्षफलितेषु च । आरुह्यमाणमात्मानं रुदन्तं कृमिभक्षितम् ॥ ३५ ॥ आरुह्यमाणमात्मानं नौकायां चन्दनोक्षितम् । धृतवन्तं पुष्पमालां शोभितं पीतवाससा ॥ ३६ ॥ विष्मूत्रोक्षितसर्वाङ्गं वसापूयसमन्वितम् । वीणां वरां वादयन्तमात्मानं च ददर्श ह ॥ ३७ ॥ स्वप्न में गज, घोड़े, पर्वत, प्रासाद, गौ और फल समेत वृक्ष पर चढ़ते हुए, रोदन करते हुए एवं कीड़ों द्वारा खाये जाते हुए अपने को देखा । नौका पर बैठे अपने को देखा तथा चन्दन-चचित सांग, पुष्पमाला धारण किये, पीताम्बर भूषित, विष्ठा, मूत्र समेत चर्बी और पीव सर्वांग में लगाये तथा सुन्दर वीणा बजाते हुए देखा ॥ ३५-३७ ॥ विस्तीर्णपद्मपत्रैश्च स्वं ददर्श सरित्तटे । दध्याज्यमधुसंयुक्तं भुक्तवन्तं च पायसम् ॥ ३८ ॥ नदी के तट पर विस्तृत कमल पत्तों पर दही, घी और मधु समेत खीर खाते हए अपने को देखा ॥ ३८ ॥ भुक्तवन्तं च ताम्बूलं लभन्तं ब्राह्मणाशिवम् । फलपुष्पप्रदीपं च पश्यन्तं स्वं ददर्श ह ॥ ३९ ॥ ताम्बूल खाते एवं ब्राह्मणों से आशीर्वाद ग्रहण करते तथा फल, पुष्प, प्रदीप देखते अपने को देखा ॥ ३९ ॥ परिपक्वफलं क्षीरमुष्णान्नं शर्करान्वितम् । स्वस्तिकं भुक्तवन्तं त्वं ददर्श च पुनः पुनः ॥ ४० ॥ परिपक्व फल, क्षीर शक्कर समेत उष्ण (गरम) अन्न और स्वस्तिक (बरा) खाते अपने को बार-बार देखा ॥ ४० ॥ जलोकसा वृश्चिकेन मीनेन भुजगेन च । भक्षितं भीतमात्मानं पलायन्तं ददर्श सः ॥ ४१ ॥ जोंक, बिच्छू, मछली, और सर्प से डंसे जाते एवं भीत होकर भागते हुए अपने को देखा ॥ ४१ ॥ ततो ददर्श चाऽऽत्मानं मण्डलं चन्द्रसूर्ययोः । पतिपुत्रवतीं नारीं पश्यन्तं सस्मितं द्विजम् ॥ ४२ ॥ सुवेषया कन्यकया सस्मितेन द्विजेन च । ददर्श श्लिष्टमात्मानं तुष्टेन परितुष्टया ॥ ४३ ॥ पुनः उस ब्राह्मण ने अपने समेत चन्द्र सूर्य का मण्डल और मन्दहाम करती हुई पति-पुत्रवती स्त्री को देखते एवं मुसकराते हुए द्विज को देखा । सजी-धजी एवं सन्तुष्ट कन्या और सन्तुष्ट एवं मुसकराते हुए ब्राह्मण द्वारा अपने को आलिंगित देखा ॥ ४२-४३ ॥ फलितं पुष्पितं वृक्षं देवताप्रतिमां नृपम् । गजस्थं च रथस्थं च पश्यन्तं स्वं ददर्श सः ॥ ४४ ॥ फूल-फल समेत वृक्ष, देवता की मति, राजा और गज एवं रथ पर बठे अपने को देखा ॥ ४४ ॥ पीतवस्त्रपरिधानां रत्नालंकारभूषिताम् । विशन्तीं ब्राह्मणीं गेहं पश्यन्तं स्वं ददर्श सः ॥ ४५ ॥ पीताम्बर पहने, रत्नों के भूषणों से भूषित होकर घर में प्रवेश करती हुई ब्राह्मणी को देखते अपने को देखा ॥ ४५ ॥ शंखं च स्फटिकं श्वेतमालां मुक्तां च चन्दनम् । सुवर्णं रजतं रत्नं पश्यन्तं स्वं ददर्श सः ॥ ४६ ॥ शंख, स्फटिक, श्वेतमाला, मुक्ता, चन्दन, सुवर्ण, चाँदी और रत्न देखते अपने को देखा ॥ ४६ ॥ गजं वृषं च सर्पं च श्वेतं च श्वेतचामरम् । नीलोत्पलं दर्पणं च भार्गवो वै ददर्श सः ॥ ४७ ॥ गज, वृष (बैल), सर्प, श्वेत, श्वेतचामर, नीलकमल, और दर्पण भार्गव ने देखे ॥ ४७ ॥ रथस्थं नवरत्नाढ्यं मालतीमाल्यभूषितम् । रत्नसिंहासनस्थं स्वं भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ४८ ॥ राम ने स्वप्न में रथपर बैठे, नुतन रत्नों से भूषित, मालती माला से सुशोभित और रत्न सिंहासन पर स्थित अपने को देखा ॥ ४८ ॥ पद्मश्रेणीं पूर्णकुम्भं दधिलाजान्घृतं मधु । पर्णच्छत्रं छत्रिणं च भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ४९ ॥ कमल-पंक्तियाँ, पूर्णघट, दही, लावा, घृत, मधु, पत्ते का छत्र तथा अपने को छत्र लगाये देखा ॥ ४९ ॥ बकपङ्क्तिं हसपङ्क्तिं कन्यापङ्क्तिं व्रतान्विताम् । पूजयन्तीं धट शुभ्रं भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ५० ॥ बगुला की पंक्ति, हंसों की पंक्ति तथा व्रत करनेवाली कन्याओं की पंक्ति को, जो शुभ्र कलश की पूजा कर रही थीं, राम ने स्वप्न में देखा ॥ ५० ॥ मण्डपस्थं द्विजगणं पूजयन्तं हरं हरिम् । जयोऽस्त्वित्युक्तवन्तं तं भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ५१ ॥ मण्डप में बैठे एवं विष्णु और शिव को पूजते हुए ब्राह्मणों को, जो कह रहे थे कि-'तुम्हारा विजय हो,' स्वप्न में देखा ॥ ५१ ॥ सुधावृष्टिं पर्णवृष्टिं फलवृष्टिं च शाश्वतीम् । पुष्पचन्दनवृष्टिं च भृगुः स्वप्ने ददर्शसः ॥ ५२ ॥ सुवावृष्टि, पत्ते की वर्षा, निरन्तर फल की वर्षा एवं पुष्प-चन्दन की वर्षा स्वप्न में उन्होंने देखी ॥ ५२ ॥ सद्योमांसं जीवमत्स्य मयूरं श्वेतखञ्जनम् । सरोवरं च तीर्थानि भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ५३ ॥ तुरन्त का मांस, जीवित मत्स्य, मोर, श्वेत खञ्जन पक्षी, सरोवर एवं तीर्थ गम ने स्वप्न में देखे ॥ ५३ ॥ पारावतं शुकं चाषं शङ्खं चिल्लं च चातकम् । व्याघ्रं सिंहं च सुरभीं भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ५४ ॥ कबूतर, तोते, नीलकण्ठ, श्वेत चील्ह पक्षी, पपीहा, बाघ, सिंह और गौ को स्वप्न में देखा ॥ ५४ ॥ गोरोचनां हरिद्रां च शुक्लधान्याचलं वरम् । ज्वलदग्निं तथा दूर्वां भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ५५ ॥ गोरोचना, हरिद्रा, चावल का पर्वत, प्रज्वलित अग्नि एवं दूर्वा को स्वप्न में भृगु ने देखा ॥ ५५ ॥ देवालयसमूहं च शिवलिङ्गं च पूजितम् । अर्चितां मृण्मयीं शैवां भृगुः स्वप्ने ददर्श सः ॥ ५६ ॥ देव-मन्दिरों के समूह, पूजित शिवलिंग, दुर्गा की मिट्टी की पूजित मूर्ति को स्वप्न में देखा ॥ ५६ ॥ यवगोधूमचूर्णानां भक्ष्याणि विविधानि च । भृगुर्ददर्श स्वप्ने च बुभुजे च पुनः पुनः ॥ ५७ ॥ जवा, गेहूँ के आंटे के बने अनेक भांति के भक्ष्य पदार्थ और उन्हें बार-बार खाते अपने कोस्वप्न में भृगु ने देखा ॥ ५७ ॥ दिव्यवस्त्रपरिधानो रत्नभूषणभूषितः । अगम्यागमनं स्वप्ने चकार भृगुनन्दनः ॥ ५८ ॥ ददर्श नर्तकीं वेश्यां रुधिरं च सुरां पपौ । रुधिरोक्षितसर्वाङ्गः स्वप्ने चैव भृगुनन्दनः ॥ ५९ ॥ भृगुनन्दन राम ने स्वप्न में दिव्य वस्त्र पहने एवं रत्नों के भूषणों से भूषित हो अगम्या स्त्री के साथ संभोग किया स्वप्न में नृत्य करती वेश्या को देखा तथा रुधिर और मद्य का पान किया और रुधिर से भीगा अपना सर्वांग देखा ॥ ५८-५९ ॥ पक्षिणां पीतवर्णानां मानुषाणां च नारद । मांसानि बुभुजे रामो हृष्टः स्वप्नेऽरुणोदये ॥ ६० ॥ हे नारद ! राम ने स्वप्न में अरुणोदय समय पीले रंग के पक्षी और मनुष्यों का मांस सुप्रसन्न होकर खाया ॥ ६० ॥ अकस्मान्निगडैर्बद्धं क्षतं शस्त्रेण स्वं पुनः । दृष्ट्वा च बुबुधे प्रातः समुत्तस्थौ हरिं स्मरन् ॥ ६१ ॥ पुनः अकस्मात् बेड़ी से आबद्ध होकर शस्त्र से अपने को क्षत देखा । ऐसा स्वप्न देखते हुए प्रातःकाल भगवान् का स्मरण करते हुए वे उठ बैठे ॥ ६१ अतीव हृष्टः स्वप्नेन प्रातःकृत्यं चकार सः । मनसा बुबुधे सर्वं विजेष्यामि रिपुं ध्रुवम् ॥ ६२ ॥ स्वप्न से अति हर्षित होकर उन्होंने प्रातःकाल का नित्यकर्म समाप्त किया और मन में निश्चित बोध किया कि--मैं शत्रु को निश्चित जीतूंगा ॥ ६२ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण के तीसरे गणपति-खण्ड में नारद-नारायण-संवाद में तैतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३३ ॥ |