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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - चतुस्त्रिंशोऽध्यायः


युद्धारंभः -
कारतवीर्यार्जुन संहार-


नारायण उवाच
स प्रातराह्निकं कृत्वा समालोच्य च तैः सह ।
दूतं प्रस्थापयामास कार्तवीर्याश्रमं भृगुः ॥ १ ॥
नारायण बोले-प्रातःकालीन कर्म समाप्त करके राम ने अपने लोगों के साथ मंत्रणा (सलाह) की और कार्तवीर्य के यहाँ दूत भेज दिया ॥ १ ॥

स दूतः शीघमागत्य वसन्तं राजसंसदि ।
वेष्टितं सचिवैः सार्धमुवाच नृपतीश्वरम् ॥ २ ॥
उस दूत ने शीघ्र राजसभा में आकर राजा से, जो अपने मंत्रियों के साथ घिरा बैठा था, कहा ॥ २ ॥

रामदूत उवाच
नर्मदातीरसानिध्ये न्यग्रोधाक्षयमूलके ।
स भृगुर्भ्रातृभिः सार्धं त्व तत्राऽऽगन्तुमर्हसि ॥ ३ ॥
युद्धं कुरु महाराज जातिभिर्ज्ञातिभिः सह ।
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यति महीमिति ॥ ४ ॥
रामदूत बोला-हे महाराज ! नर्मदा तट पर स्थित उस अक्षय मूल वाले वट वृक्ष के नीचे भृगु अपने भ्राताओं समेत स्थित हैं, अतः अपने जाति-बन्धुओं समेत वहाँ चल कर उनसे युद्ध करो-'वे इक्कीस बार पृथ्वी को निभूप करेंगे ॥ ३-४ ॥

इत्युक्त्वा रामदूतश्चाप्यगच्छद्‌रामसंनिधिम् ।
राजा विधाय संनाहं समरं गन्तुमुद्यतः ॥ ५ ॥
इतना कह कर राम का दूत राम के पास चला आया । उधर राजा भी कवच आदि धारण कर समर जाने को तैयार हुआ ॥ ५ ॥

गच्छन्तं समरं दृष्ट्‍वा प्राणेशं सा मनोरमा ।
तमेव वारयामास वासयामास संनिधौ ॥ ६ ॥
युद्ध के लिए जाते हुए प्राणेश को देख कर उसकी पत्नी मनोरमा ने उसे मना किया और पास बुला कर अपने वक्ष से लगा लिया ॥ ६ ॥

राजा मनोरमां दृष्ट्‍वा प्रसन्नवदनेक्षणः ।
तामुवाच सभामध्ये वाक्यं मानसिकं मुने ॥ ७ ॥
हे मुने ! मनोरमा को देख कर राजा का मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठा । उसने अपना मानसिक विचार सभामध्य में ही उससे कहना आरम्भ किया ॥ ७ ॥

कार्तवीर्यार्जुन उवाच
मामेवाह्वयते कान्ते जमदग्निसुतो महान् ।
स तिष्ठन्नर्मदातीरे रणाय भ्रतृभिः सह ॥ ८ ॥
कार्तवीर्यार्जुन बोले-हे कान्ते ! जमदग्नि का महान् पुत्र राम मुझे बुला रहा है, जो अपने भ्राताओं समेत युद्ध के लिए नर्मदा के तट पर स्थित है । ॥ ८ ॥

संप्राप्य शंकराच्छस्त्रं मन्त्रं च कवचं हरेः ।
त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कर्तुमिच्छति मेदिनीम् ॥ ९ ॥
शंकर से शस्त्र, मंत्र और कवच प्राप्त कर वह इक्कीस बार पृथ्वी को निभूप करना चाहता है ॥ ९ ॥

आन्दोलयन्ति मे प्राणा मनः संक्षुभितं मुहुः ।
शश्वत्स्फुरति वामाङ्‌गं दृष्टं स्वप्नं शृणु प्रिये ॥ १० ॥
इससे मेरे प्राण भयाकुल हो रहे हैं, मन बार-बार संक्षुब्ध हो रहा है, बायाँ अंग निरन्तर फड़क रहा है और हे प्रिये ! मैंने जो स्वप्न देखा है, तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ॥ १० ॥

तैलाभ्यङ्‌गितमात्मानपपश्य गर्दभोपरि ।
ओण्ढपुष्पस्य माल्यं च बिभ्रतं रक्तचन्दनम् ॥ ११ ॥
रक्तवस्त्रपरीधानं लोहालकारभूषितम् ।
क्रीडन्तं च हसन्तं च निर्वाणाङ्‌गारराशिना ॥ १२ ॥
सर्वाङ्ग में तेल लगाये, गधे पर बैठे अपने को देखा है और अड़हुल पुष्प की माला धारण किये, रक्त चन्दन लगाये, रक्त वस्त्र पहने, लोहे के आभूषण से भूषित, बुझे कोयलों की ढेरी पर खेलते और हँसते अपने को मैंने देखा है ॥ ११-१२ ॥

भस्माच्छन्नां च पृथिवीं जपापुष्पान्वितां सति ।
रहितं चन्द्रसूर्याभ्यां रक्तसंध्यमित्तवतं नभः ॥ १३ ॥
पृथ्वी को भस्म (स) से आज्डन और जयापुण (अड़हुल से) युक्त तथा बाजाश को चन्द्र-सू से रहित और रक्त वर्ण की संख्या से युक्त देवा ॥ १३ ॥

मुक्तकेशां च नृत्यन्तीं विधवां छिन्ननासिकाम् ।
रक्तवस्त्रपरीधानामपश्यं चाट्टहासिनीम् ॥ १४ ॥
तुले केश, नृत्य करती, छिन्न नातिका(पटीना), रक्त वस्त्र पहने और अट्टहास करती हुई विधवा स्त्रो को हेपा हे ॥ १४ ॥

सशरामग्निरहितां चितां भस्मसमन्विताम् ।
भस्मवृष्टिमसृग्वृष्टिमग्निवृष्टिमपीश्वरि ॥ १५ ॥
हे ईश्वरि ! बाणयुक्त, अग्नि रहित, तथा भस्म (रात) युक्त चिता को एवं भस्म को वर्षा, रात को वर्या और अग्नि को वर्षा को देखा है ॥ १५ ॥

पक्वतालफलाकीर्णां पृथिवीमस्थिसंयुताम् ।
अपश्यं कर्परौधं च च्छिन्नकेशनखन्वितम् ॥ १६ ॥
पकै खाड़ फल से थाच्छन्न एवं अस्थि (हड्डी) से युकाथ्यों को टेाजार नबसे युक्त तथा कपाल (खोपड़ी) के समूह को देखा है ॥ १६ ॥

पर्वतं लवणानां च राशीभूतं कपर्दकम् ।
चूर्णानां चैव तैलानामदृशं कन्दरं निशि ॥ १७ ॥
नमक के पर्वत, कौड़ी को राशि, चूर्ग और तेल की कन्दरा (गुफा) को रात (स्वप्न) में देखा है ॥ १७ ॥

अदृशं पुष्पितं वृक्षमशोककरवीरयोः ।
तालवृक्षं च फलितं तत्र चैव पतत्फलम् ॥ १८ ॥
स्वकरात्पूर्णकलशः पपात च बभञ्ज च ।
इत्यपश्यं च गगनात्संपतच्चन्द्रमण्डलम् ॥ १९ ॥
अशोक और कदेर के फूले वृक्ष, फल लगे ताड़ वृक्ष और उसके गिरते हुए फल को देखा । अपने हाथ से पूर्ण कलश गिर पड़ा और फूट गया, यह देखा । आकाश से गिरते चन्द्रमण्डल को देखा है ॥ १८-१९ ॥

अपश्यमम्बरात्सूर्यमण्डलं संपतद्‌भुवि ।
उल्कापातं धूमकेतुं ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः ॥ २० ॥
आकाश से सूर्य मण्डल को पृथ्वी पर गिरते देखा है । उल्लापात, धूमकेतु तारा और चन्द्र-सूर्य का ग्रहण देखा है ॥ २० ॥

विकृताकारपुरुषं विकटास्यं दिगम्बरम् ।
आगच्छन्तं चाग्रतस्तमपश्यं च भयानकम् ॥ २१ ॥
विकृत आकार वाला पुरुष, जो भीषण मुख, नग्न एवं भयान था, सामने से आ रहा था, ऐसा देखा है ॥ २१ ॥

बाला द्वादशवर्षीया वस्त्रभूणभूषिता ।
संरुष्टा याति मद्‌गेहादित्यपश्यमहं निशि ॥ २२ ॥
वस्त्र-पूर्वगों से भूषित, बारह वर्ष की स्त्री रुष्ट होकर मेरे घर से जा रही थी, ऐसा रात स्वप्न में मैंने देखा है ॥ २२ ॥

आज्ञां त्वं देहि राजेन्द्र तद्‌गेहनद्यानि काननम् ।
वदसि त्वं माभिति च निश्वपश्यमहं शुचा ॥ २३ ॥
और वह कह रही थी कि--'हे राजेन्द्र ! आज्ञा प्रदान करो, मैं तुम्हारे घर से वन जाना चाहती हूँ, मुझसे कहो । शोरुग्रस होर मैंने रात में गह देखा है ॥ २३ ॥

रुष्टो विप्रो मा शपते संन्यासो च तथा गुरुः ।
भित्तौ पुत्तेलिकाश्चित्रा नृत्यन्तीश्च ददर्श ह ॥ २४ ॥
रुष्ट होकर ब्राह्मण, संन्यासी और गुरु मुझे शाप दे रहे थे । और दीवाल पर चित्रित पुतलियाँ नाच रही थीं, ऐसा देखा है ॥ २४ ॥

चञ्चलानां च गृध्राणां काकानां निकरैः सदा ।
पीडितं महिषाणां च स्वमपश्यमहं निशि ॥ २५ ॥
चंचल गौधों, कौओं और भैसों के समूहों से पीड़ित अपने को मैंने रात में देखा है ॥ २५ ॥

पीडितं तैलयन्त्रैण भ्रमितं तैलकारिणा ।
दिगम्बरान्याशहस्तानपश्यमहमीश्वरि ॥ २६ ॥
हे ईश्वरि ! तेली द्वारा कोल्हू में घुमाये जाते हुए अपने को और हाथों में फां: लिए दिगम्दरों (नग्नों) को मैंने देखा है ॥ २६ ॥

नृत्यन्ति गायकाः सर्वे गानं गायन्ति मे गृहे ।
विवाहं परमानन्दमित्यपश्यमहं निशि ॥ २७ ॥
अपने घर में सभी गवैयों कों नाचते-गाते देखा है । परमानन्द पूर्ण विवाह मैंने रात में देखा है ॥ २७ ॥

रमणं कुर्वतो लोकात्केशाकेशि च कुर्वतः ।
अदृशं समरं रात्रौ काकानां च शुनामपि ॥ २८ ॥
लोग परस्पर में केश पकड़ कर रमण करते थे, तथा रात में कौवे, कुत्ते का युद्ध देखा है ॥ २८ ॥

मोटकानि च पिण्डानि श्मशानं शवसंयुतम् ।
रक्तवस्त्रं शुक्लवस्त्रमपश्यं निशि कामिनि ॥ २९ ॥
हे कामिनि ! रात में मैंने मोटक, पिण्ड, शव समेत श्मशान, रक्त वस्त्र और श्वेत वस्त्र देखा है ॥ २९ ॥

कृष्णाम्बरा कृष्णवर्णा नग्ना वै मुक्तकेशिनी ।
विधवा श्लिष्यति च मामपश्यं निशि शोभने ॥ ३० ॥
हे शोभने ! रात में काले वस्त्र वाली, काले वर्ण वाली, नग्न और केश खोले विधवा स्त्री मेरा आलिंगन कर रही थी, ऐसा मैंने देखा है ॥ ३० ॥

नापितो मुण्डते मुण्डं श्मश्रुश्रेणीं च मे प्रिये ।
वक्षःस्थलं च नखरमित्यपश्यमहं निशि ॥ ३१ ॥
है प्रिये ! नापित (नाई) दाढ़ी मूछ समेत मेरा मुण्डन कर रहा था और वक्ष: स्थल में नख-वण (घाव) रात में मैंने देखा है ॥ ३१ ॥

पादुकाचर्मरज्जूनामपश्यं राशिमुल्बणम् ।
चक्रं भ्रमन्तं भूमौ च कुलालस्येति सुन्दरि ॥ ३२ ॥
हे सुन्दरि ! पादुका, चमड़े की रस्सी की उत्कट राशि एवं भूमि पर घूमते हुए कुम्हार का चक्का मैंने देखा है ॥ ३२ ॥

वात्यया घूर्णमान च शुष्कवृक्षं तमुत्थितम् ।
पूर्णमानं कबन्धं वै चापश्यं निशि सुव्रते ॥ ३३ ॥
हे सुव्रते ! रात में वायु द्वारा घूमते हुए सूखा वृक्ष उठ कर खड़ा हो गया है, कबन्ध (सिर से अलग धड़) घूम रहा है, ऐसा मैंने देखा है ॥ ३३ ॥

ग्रथितां मुण्डमालां च चूर्णमानां च वात्यया ।
अतीव धोरदशनामप्यपश्यमहं वरे ॥ ३४ ॥
हे श्रेष्ठे ! गूंथी हुई मुण्डमाला को, जो प्रचण्ड वायु (बवन्डर) के झोंके से घूम रही थी और जिसके और दाँत विकराल थे, मैंने देखा है ॥ ३४ ॥

भूतप्रेता मुक्तकेशा वमन्तश्च हुताशनम् ।
मां भीषयन्ति सततमित्यपश्यमहं निशि ॥ ३५ ॥
रात में यह भी देखा है कि--भूत-प्रेत खुले केश रह कर अग्नि का वमन करके मुझे निरन्तर भयभीत कर रहे हैं ॥ ३५ ॥

दग्धजीवं दग्धवृक्षं व्याधिग्रस्तं नरं परम् ।
अङ्‌गहीनं च वृषलमप्यपश्यमहं निशि ॥ ३६ ॥
जले हुए जीव, जले हुए वृक्ष, परम रोगी मनुष्य और अंगहीन शूद्र को मैंने रात में देखा है ॥ ३६ ॥

गेहपर्वतवृक्षाणां सहसा पततं परम् ।
मुहुर्मुहुर्वज्रपातमप्यपश्यमहं निशि ॥ ३७ ॥
घर, पर्वत और वृक्षों के सहसा पतन और बार-बार वज्रपात भी रात में मैंने देखा है ॥ ३७ ॥

कुक्कुराणां शृगालानां रोदनं च मुहुर्मुहुः ।
गृहे गृहे च नियतमपश्यं सर्वतो निशि ॥ ३८ ॥
प्रत्येक घर में कुत्ते और स्थार के बार-बार रोदन भी देखा है, जो चारों ओर नियत होकर कर रहे थे ॥ ३८ ॥

अधःशिरस्तूर्ध्वपादं मुक्तकेशं दिगम्बरम् ।
भूमौ भ्रमन्तं गच्छन्तं चाप्यपश्यमहं नरम् ॥ ३९ ॥
रात में मैंने यह भी देखा कि कोई मनुष्य नीचे शिर, ऊपर चरण कर, खुले केश और नग्न होकर भूमि पर घूमते हुए चल रहा है ॥ ३९ ॥

विकृताकारशब्दं च ग्रामादौ देवरोदनम् ।
प्रातः श्रुत्वैवावबुद्धः क उपायो वदाधुना ॥ ४० ॥
गाँव आदि में विकृत आकार वालों का शब्द और देवों का रोदन सुनते ही मैं प्रातःकाल जगा हूँ, बताओ, इस समय इसका क्या उपाय है ॥ ४० ॥

नृपतेर्वचनं श्रुत्वा हृदयेन विदूयता ।
सगद्‌गदं च रुदती तमुवाच नृपेश्वरम् ॥ ४१ ॥
राजा की बातें सुन कर दुखी हृदय से रोती हुई मनोरमा ने गद्गद वाणी में राजा से कहा ॥ ४१ ॥

हे नाथ रमणश्रेष्ठ श्रेष्ठ सर्वमहीभृताम् ।
प्राणातिरेक प्राणेश शृणु वाक्यं शुभावहम् ॥ ४२ ॥
मनोरमा बोली-हे रमणश्रेष्ठ ! नाथ ! आप सभी राजाओं में श्रेष्ठ हैं । हे प्राणों से अधिक ! प्राणेश ! मेरी शुभ बातें सुनो ॥ ४२ ॥

नारायणांशो भगवाञ्जामदन्यो महाबली ।
सृष्टिसंहर्तुरीशस्य शिष्योऽयं जगतः प्रभोः ॥ ४३ ॥
भगवान् जामदग्न्य महाबली एवं नारायण के अंश हैं और सृष्टि का संहार करने वाले एवं जगत् के स्वामी शंकर के शिष्य हैं ॥ ४३ ॥

त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यामि महोमिति ।
प्रतिज्ञा यस्य रामस्य तेन सार्धं रणं त्यज ॥ ४४ ॥
इक्कीस बार पृथ्वी को निभूप करूँगा, ऐसी जिसकी प्रतिज्ञा है, उस राम के साथ युद्ध करने की बात छोड़ दो ॥ ४४ ॥

पापिनं रावणं जित्वा शूरं त्वमपि मन्यसे ।
स त्वया न जितो नाथ स्वपापेन पराजितः ॥ ४५ ॥
पापी रावण को जीत कर तुम भी अपने को शूर मानते हो । हे नाथ ! उसको तुमने जीता नहीं, अपितु वह अपने पाप से पराजित हुआ ॥ ४५ ॥

यो न रक्षति धर्मं च तस्य को रक्षिता भुवि ।
स नश्यति स्वयं मूढो जीवन्नपि मृतोहि सः ॥ ४६ ॥
क्योंकि जोधर्म की रक्षा नहीं करता है भूतल पर उसकी रक्षा कौन कर सकता है ? वह मूढ़ स्वयं नष्ट हो जाता है और जीवित रहते हुए भी मृतक रहता है ॥ ४६ ॥

शुभाशुभस्य सततं साक्षी धर्मस्यकर्मणः ।
आत्मारामः स्थितः स्वान्तो मूढस्त्वं नहि पश्यसि ॥ ४७ ॥
जो शुभ-अशुभ, धर्म-कर्म का साक्षी, आत्माराम और अन्तःकरण में स्थित है, मूढ़ता के कारण तुम उसे नहीं देख रहे हो ॥ ४७ ॥

पुत्रदारादिकं यद्यत्सर्वेश्वर्यं सुधर्मिणाम् ।
जलबुद्‌बुदवत्सर्वमनित्यं नश्वरं नृप ॥ ४८ ॥
हे राजन् ! सुधर्मी पुरुषों के लिए पुत्र, स्त्री आदि समस्त ऐश्वर्य जल के बुल्ले के समान अनित्य और नश्वर हैं ॥ ४८ ॥

संसारं स्वप्नसदृशं मत्वा सन्तोऽत्र भारते ।
ध्यायन्ति सततं धर्मं तपः कुर्वन्ति भक्तितः ॥ ४९ ॥
इसीलिए भारत में सन्त महात्मा लोग संसार को स्वप्नवत् मान कर निरन्तर धर्म का ध्यान करते और भक्तिपूर्वक तप करते हैं ॥ ४९ ॥

दत्तेन दत्तं यज्ज्ञानं तत्सर्वं विस्मृतं त्वया ।
अस्ति चेद्विप्रहिंसायां कुबुद्धे त्वन्मनः कथम् ॥ ५० ॥
दत्तात्रेय के दिए हुए समस्त ज्ञान को तुमने विस्मृत कर दिया, नहीं तो ब्राह्मण की हिंसारूपी कुबुद्धि में तुम्हारा मन कैसे लगता ॥ ५० ॥

सुखार्थे मृगयां गत्वा तत्रोपोष्य द्विजाश्रमे ।
भुक्त्वा मिष्टमपूर्वं च हतो विप्रो निरर्थकम् ॥ ५१ ॥
सुख के लिए मृगया (शिकार) खेलने गए थे वहाँ उपवास करने पर ब्राह्मण के आश्रम में अपूर्व मधुर भोजन किया और निरर्थक उसी ब्राह्मण को मार डाला ॥ ५१ ॥

गुरुविप्रसुराणां च यः करोति पराभवम् ।
अभीष्टदेवस्तं रुष्टो विपत्तिस्तस्य संनिधौ ॥ ५२ ॥
गुरु, ब्राह्मण, देवता का जो अपमान करता है, अभीष्ट देव उस पर रुष्ट हो जाते हैं और विपत्ति उसके समीप आ जाती है ॥ ५२ ॥

स्मरणं कुरु राजेन्द्र दत्तात्रेयपदाम्बुजम् ।
गुरौ भक्तिश्च सर्वेषां सर्वविघ्नविनाशिनी ॥ ५३ ॥
हे राजेन्द्र ! दत्तात्रेय के चरण-कमल का स्मरण करो, क्योंकि गुरु में भक्ति करने से समस्त विघ्नों का नाश होता है ॥ ५३ ॥

गुरुदेवं समभ्यर्च्य तं भृगुं शरणं व्रज ।
विप्रे देवे प्रसन्ने च क्षत्रियाणां नहि क्षतिः ॥ ५४ ॥
उन्हीं गुरुदेव की अर्चना करके भृगु की शरण में चले जाओ । ब्राह्मण और देवता के प्रसन्न होने पर क्षत्रियों की कोई हानि नहीं होती है ॥ ५४ ॥

विप्रस्य किंकरो भूपो वैश्यो भूपस्य भूमिप ।
सर्वेषां किंकराः शूद्रा ब्राह्मणस्य विशेषतः ॥ ५५ ॥
हे भूमिपाल ! राजा ब्राह्मण का सेवक होता है, वैश्य राजाका और शूद्र सबका सेवक होता है विशेष कर ब्राह्मण का ॥ ५५ ॥

अयशः शरणं शश्वत्क्षत्रियस्य च क्षत्रिये ।
महद्यशस्तच्छरणं गुरुदेवद्विजेषु च ॥ ५६ ॥
क्षत्रिय की शरण जाने से क्षत्रियों का महान् अयश होता है किन्तु गुरु, देवता और ब्राह्मणों की शरण जाने से उसे महान यश की प्राप्ति होती है ॥ ५६ ॥

ब्राह्मणं भज राजेन्द्र गरीयांसं सुरादपि ।
ब्राह्मणे परितुष्टे च संतुष्टाः सर्वदेवताः ॥ ५७ ॥
हे राजेन्द्र ! देवों से भी श्रेष्ठ ब्राह्मण होते हैं अतः उनकी सेवा करो, क्योंकि ब्राह्मण के प्रसन्न होने पर सनी देता प्रन्न हो जाते हैं ॥ ५७ ॥

इत्येवमुक्त्वा राजेन्द्रं क्रोडे कृत्वा महासती ।
मुहुर्मुहुर्मुखं दृष्टा विललाप रुरोद च ॥ ५८ ॥
इस प्रकार उस महानती ने राजेन्द्र को सब बातें बता कर उन्हें अपने अंक से लगा लिया और उनका मुख देख कर बार-बार विलाप-रोदन करने लगी ॥ ५८ ॥

क्षणं तिष्ठ महाराज पुनरेवमुवाच सा ।
स्नानं कुरु महाराज भोजयिष्यामि वाञ्छितम् ॥ ५९ ॥
उसने पुनः कहा---हे महाराज ! क्षण मात्र ठहरो, स्नान करो, मैं तुम्हें मनचाहा भोजन कराऊँगी ॥ ५९ ॥

चन्दनागुरुकस्तृरीकर्पूरैः कुडत्कुमैर्युतम् ।
अनुलेपं करिष्यामि सर्वाङ्‌गे तव सुन्दर ॥ ६० ॥
हे सुन्दर ! चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, पापुर और लभ युक्त अनुलेप (उवटन) तुम्हारे सर्वांग में लगाऊँगी ॥ ६० ॥

क्षणं सिंहासने तिष्ठ क्षणं वक्षसि मे प्रभो ।
सभायां पुष्परचिते तल्पे पश्यामि शोभनम् ॥ ६१ ॥
हे प्रभो ! क्षण मात्र सिंहासन पर बैठ गार क्षणमात्र मेरे वक्षःस्थल पर बैठो, सभा में पुष्पशय्या पर मैं तुम्हें देखना चाहती हूँ ॥ ६१ ॥

शतपुत्राधिकः प्रेम्णा सतीनां वै पतिनृप ।
निरूपितो भगवता वेदेषु हरिणा स्वयम् ॥ ६२ ॥
क्योंकि हे नृप ! पतिव्रताओं के लिए पति उसके सैपड़ों पुत्रों से प्रेम में अधिक होता है, इसे वेद में भगवान् ने स्वयं बताया है ॥ ६२ ॥

मनोरमावचः श्रुत्वा राजा परमपण्डितः ।
बोधयामास तां राज्ञीं ददौ प्रत्युत्तरं पुनः ॥ ६३ ॥
मनोरसा की वातें सुनकर उस महान् पण्डित राजा ने रानी को समझाया और पुनः प्रत्युत्तर रूप में कहा ॥ ६३ ॥

कार्तवीर्यार्जुन उवाच
शृणु कान्ते प्रवक्ष्यामि श्रुतं सर्वं त्वयेरितम् ।
शोकार्तानां च वचनं न प्रशंस्यं सभासु च ॥ ६४ ॥
कार्तवीर्यार्जुन बोले-है कान्ते ! मैंने तुम्हारी मी बातें सुन ली । शोकाकुल की बातें सभा में प्रशस्त नहीं मानी जाती हैं ॥ ६४ ॥

सुखं दुःखं भय शोकः कलहः प्रीतिरेव च ।
कर्मभोगार्हकालेन सर्वं भजति सुन्दरि ॥ ६५ ॥
कालो ददाति राजत्वं कालो मृत्युं पुनर्भवम् ।
कालः सृजति संसारं कालः संहरते पुनः ॥ ६६ ॥
हे सुंदरि ! सुख, दुःख, भा, शोक, कलह (झगड़ा) और प्रीति ये सब कार्मभोग के उचित समय पर क्योंकि काल ही राजत्व प्रदान करता है, काल ही मृत्यु और पुनर्जन्म प्रदान करता है, काल संसार का सर्जन करता है और उसका पुन: संहार भी करता है ॥ ६५-६६ ॥

करोति पालनं कालः कालरूपी जनार्दनः ।
कालस्य कालः श्रीकृष्णो विधातुर्विधिरेव च ॥ ६७ ॥
संहर्तुर्वाऽपि संहर्ता पातुः पाता च कर्मकृत् ।
स कर्मणा कर्मरूपी ददाति तपसां फलम् ॥ ६८ ॥
काल ही पालन करता है, जनार्दन काल रूपी हैं और भगवान् श्रीकृष्ण काल के बाल, विधाता के विधाता, संहर्ता के संहर्ता, पालक के पालक तथा कर्म करने वाले हैं । वहीं कर्मों के फर्म रूपी होकर तप के फल प्रदान करते हैं । हे सति ! अतः बिना कर्म के कौन किसे मार सकता है ॥ ६७-६८ ॥

कः केन हन्यते जन्तुः कर्मणा वै विना सति ।
स्रष्टा सृजति सृष्टिं च संहर्ता संहरेत्पुनः ॥ ६९ ॥
जिसकी आज्ञा से स्रष्टा सृष्टि का सर्जन करता है, संहर्ता संहार करता है, और पोलक जीवों की रक्षा करता है ॥ ६९ ॥

पाता पाति च भूतानि यस्याऽऽज्ञां परिपालयेत् ।
यस्याऽज्ञया वाति वातः संततं भयविह्वलः ॥ ७० ॥
जिसकी आज्ञा से वायु भयभीत होकर निरन्तर बहता रहता है, मृत्यु का निरन्तर संचार होता है, और सूर्य देव तपते हैं ॥ ७० ॥

शश्वत्संचरते मृत्युः सूर्यस्तपति संततम् ।
वर्षतीन्द्रो दहत्यग्निः कालो भ्रमति भीतवत् ॥ ७१ ॥
तिष्ठन्ति स्थावराः सर्वे चरन्ति सततं चराः ।
इन्द्र वर्षा करते हैं, अग्नि जलाता है, भीत होकर काल भ्रमण करता है । सभी स्थावर गण स्थित रहते हैं और चर लोग निरन्तर चलते हैं ॥ ७१.५ ॥

वृक्षाश्च पुष्पिताः काले फलिताः पल्लवान्विताः ॥ ७२ ॥
शुष्यन्ति कालतः काले वर्धन्ते च तदाज्ञया ।
कालानुसार वृक्ष फूल-फल और पल्लव से युक्त होते हैं, कालानुसार सूख जाते हैं और उसकी आज्ञा से समय पर बढ़ते हैं ॥ ७२.५ ॥

आविर्भूता तिरोभूता सृष्टिरेव यदाज्ञया ॥
तस्याऽज्ञया भवेत्सर्वं न किंचित्स्वेच्छया नृणाम् ॥ ७३ ॥
उसी को आज्ञा से सृष्टि प्रकट और अन्तहित हाती रहती है, उसो को आज्ञा से मनुष्यों का सभी कुछ होता है, स्वेच्छा से कुछ भी नहीं होता ॥ ७३ ॥

नारायणांशो भगवाञ्जामदग्न्यो महाबलः ।
त्रिः सप्तकृत्वो निर्भूपां करिष्यति महीमिति ॥ ७४ ॥
प्रतिज्ञा विफला तस्य न भवेत्तु कदाचन ।
निश्चितं तस्य वध्योऽहमिति जानामि सुव्रते ॥ ७५ ॥
भगवान परशुराम नारायणांग और महाबली हैं, इक्कीस बार पृथ्वी को निभूप करेंगे, यह प्रतिज्ञा उनकी कभी विफल नहीं हो सकती है । अतः हे सुव्रते ! मेरा वध उन्हीं के द्वारा होगा, यह सुनिश्चित जानता हूँ ॥ ७४-७५ ॥

ज्ञात्वा सर्वं भविष्यं च शरणं यामि तत्कथम् ।
प्रतिष्ठितानां चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ॥ ७६ ॥
सब भविष्य जान कर मैं उनकी शरण कैसे जा सकता हूँ, क्योंकि प्रतिष्ठितों के लिए अयश मरण से भी अधिक दुःखप्रद होता है ॥ ७६ ॥

इत्येवमुक्त्वा राजेन्द्रः समरं गन्तुमुद्यतः ।
वाद्यं च वादयामास कारयामास मङ्‌गलम् ॥ ७७ ॥
इतना कह कर वह राजेन्द्र समर जाने के लिए तैयार हो गया-वाद्य बजवाने लगा और मंगल कराने लगा ॥ ७७ ॥

शतकोटिनृपाणां च राजेन्द्राणां त्रिलक्षकम् ।
अक्षौहिणीनां शतकं महाबलपराक्रमम् ॥ ७८ ॥
अश्वानां च गजानां च पदातीनां तथैव च ।
असंख्यकं रथानां च गृहीत्वा गन्तुमुद्यतः ॥ ७९ ॥
बभूव स्तिमिता साध्वी दृष्ट्‍वा तं गमनोन्मुखम् ।
धृतवन्तं च सन्नाहमक्षयं सशरं धनुः ॥ ८० ॥
सो करोड़ राजा, तीन लाख महाराज, महाबली और पराक्रमी सैनिकों की सौ अक्षौहिणी सेना तथा हाथी, घोड़े, पैदल और रथ असंख्य थे, उन्हें लेकर चलना चाहा । इसी बीच सती मनोरमा ने मन्दहास करती हुई उन्हें रोक कर उनके अक्षय कवच और बाण समेत धनुष ले लिया ॥ ७८-८० ॥

क्रीडागारे क्षणं तस्थौ कृत्वा कान्तं स्ववक्षसि ।
पश्यन्ती तन्मुखाम्भोजं चुचुम्ब च मुहुर्मुहुः ॥ ८१ ॥
उन्हें क्रीड़ागार में ले जाकर क्षणमात्र अपने वक्ष से लगाया और उनका मुखकमल देखती हुई बार-बार चुम्बन करने लगी ॥ ८१-८२ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे चतुस्त्रिंशोध्यायः ॥ ३४ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में कार्तवीर्यार्जुनसंनाह नामक चौंतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३४ ॥

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