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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - पञ्चत्रिंशोऽध्यायः


शंकरकवचकथनम् -
शंकरकवचका कथन -


नारायण उवाच
मनोरमा प्राणनाथं क्षणं कृत्वा स्ववक्षसि ।
भविष्यं मनसा चक्रे यद्यत्स्वामिमुखाच्छ्रुतम् ॥ १ ॥
नारायण बोले--मनोरमा ने क्षणमात्र अपने प्राणेश्वर को अंग से लगा कर स्वामी के मुख से जो कुछ सुना था, उसका भावी अर्थ मन में निश्चय किया ॥ १ ॥

पुत्रांश्च पुरतः कृत्वा बान्धवांश्च स्वकिंकरान् ।
सस्मार सा हरिपदं मेने सत्यं भवेन्मुने ॥ २ ॥
हे मुने ! अनन्तर उसने अपने पुत्रों, बन्धुओं और भृत्यों (नौकरों)को अपने सामने बुलवाया और होनहार को अटल समझ कर भगवच्चरण का स्मरण करने लगी ॥ २ ॥

योगेन भित्त्वा षट्चक्रं वायुं संस्थाप्य मूर्धनि ।
ब्रह्मरन्ध्रस्थकमले सहस्रदलसंयुते ॥ ३ ॥
स्वान्तमाकृष्य विषयाज्जलबुद्‌बुदसंनिभात् ।
संस्थाप्य बध्वा ज्ञानेन लोलं ब्रह्मणि निष्कले ॥ ४ ॥
तथा योग द्वारा षट् चक्र का भेदन कर वायु को मूर्धा (ब्रह्माण्ड) में स्थापित किया और जल के बुल्ले के समान विषयों से अपने मन को हटा कर ब्रह्मरन्ध्र स्थित सहस्र दल वाले कमल में उसे लगा दिया । उसी स्थान पर निष्कल (निर्गुण) ब्रह्म में उस चंचल मन को ज्ञान द्वारा बांध कर अविचल कर दिया ॥ ३-४ ॥

त्रिविधं कर्म संन्यस्य निर्मूलमपुनर्भवम् ।
तत्र प्राणांश्च तत्याज न च प्राणाधिकं प्रियम् ॥ ५ ॥
पुनर्जन्म न हो इसलिए निर्मूल करने के लिए तीनों प्रकार के कर्मों का त्याग किया और प्राण परित्याग भी उसी स्थान में कर दिया किन्तु प्राणाधिक प्रिय का त्याग नहीं किया ॥ ५ ॥

स राजा तां मृतां दृष्ट्‍वा विललाप रुरोद च ।
संनाहं संपरित्यज्य कृत्वा वक्ष्यस्युवाच ताम् ॥ ६ ॥
उसे मृतक देख राजा विलाप और रोदन करने लगा और कवच त्याग कर उसे गोद में लेकर कहने लगा ॥ ६ ॥

राजोवाच
मनोरमे समुत्तिष्ठ न यास्यामि रणाजिरम् ।
सचेतना मां पश्येति विलपन्तं मुहुर्मुहुः ॥ ७ ॥
राजा बोले- हे मनोरमे ! उठो, मैं अब रण में नहीं जाऊँगा । चेतना प्राप्त कर मुझे देखो । इस भांति बार-बार विलाप करने लगा ॥ ७ ॥

मनोरमे समुत्तिष्ठ मया सार्धं गृहं व्रज ।
न करिष्यामि समरं भृगुणा सह भामिनि ॥ ८ ॥
हे मनोरमे ! उठो । मेरे साथ घर चलो । हे भामिनि ! मैं अब भृगु से युद्ध नहीं करूँगा ॥ ८ ॥

मनोरमे समुतिष्ठ श्रीशैलं व्रज सुन्दरि ।
तत्र क्रीडां करिष्यामि त्वया सार्धं यथा पुरा ॥ ९ ॥
हे मनोरमे ! हे सुन्दरि ! उठो, श्री शैल पर चलो और वहाँ पहले की भाँति तुम्हारे साथ क्रीड़ा करूँगा ॥ ९ ॥

मनोरमे समुत्तिष्ठ व्रज गोदावरीं प्रिये ।
जलक्रीडां करिष्यामि त्वया सार्धं यथा पुरा ॥ १० ॥
हे मनोरमे, प्रिये ! उठो, गोदावरी चलो, वहाँ पहले की भाँति तुम्हारे साथ जल-क्रीड़ा करूँगा ॥ १० ॥

मनोरमे समुत्तिष्ठ नन्दनं व्रज सुन्दरि ।
पुष्पभद्रानदीतीरे विहरिष्यामि निर्जने ॥ ११ ॥
हे मनोरमे, सुन्दरि ! उठो, नन्दन चलें; पुष्पभद्रा नदी के तट पर निर्जन स्थान में तुम्हारे साथ विहार करूँगा ॥ ११ ॥

मनोरमे समुत्तिष्ठ मलयं व्रज सुन्दरि ।
त्वया सार्धं रमिष्येऽहं तत्र चन्दनकानने ॥ १२ ॥
हे मनोरमे, सुन्दरि ! उठो, मलय चलें, वहाँ चन्दन वन में तुम्हारे साथ रमण करूँगा ॥ १२ ॥

शीतेन गन्धयुक्तेन वायुना सुरभीकृते ।
भमरध्वनिसंयुक्ते पुंस्कोकिलरुतश्रिते ॥ १३ ॥
जो शीतल, सुगन्ध वायु से सुगन्धित, भौंरों की गूंज से युक्त एवं पुरुष कोकिल की मधुर ध्वनि से संयुक्त है ॥ १३ ॥

चन्दनागुरुकस्तूरीकुंकुमालेपनं कुरु ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्‌गं पश्य मां सस्मिते सति ॥ १४ ॥
वहाँ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी और कुंकुम का लेपन करके मन्द मुसुकान करती हुई तुम चन्दनचचित मेरे सर्वांग को देखो ॥ १४ ॥

सुधातुल्य सुमधुरं वचनं रचय प्रिये ।
कुटिलभ्रूविकारं च कथं न कुरुषेऽधुना ॥ १५ ॥
हे प्रिये ! अमृत की भाँति अत्यन्त मधुर वचन बोलो । तुम इस समय अपनी भौंहों को टेढ़ी क्यों नहीं कर रही हो ॥ १५ ॥

नृपस्य रोदनं श्रुत्वा वाग्बभूवाशरीरिणी ।
स्थिरो भव महाराज कुरुषे रोदनं कथम् ॥ १६ ॥
राजा का रोदन सुन कर वहाँ आकाशवाणी हुई-हे महाराज ! (चित्त को) स्थिर करो, रोदन क्यों कर रहे हो ॥ १६ ॥

त्वं महाज्ञानिनां श्रेष्ठो दत्तात्रेयप्रसादतः ।
जलबुद्‌बुदवत्सर्वं संसारं पश्य शोभनम् ॥ १७ ॥
तुम दत्तात्रेय के प्रसाद से महाज्ञानियों में श्रेष्ठ हो, इस' सुन्दर संसार को जल के बुलबुले के समान समझो ॥ १७ ॥

कमलांशा च सा साध्वी जगाम कमलालयम् ।
त्वमेव गच्छ वैकुण्ठं रणं कृत्वा रणाजिरे ॥ १८ ॥
वह पतिव्रता कमला (लक्ष्मी) का अंश थी अतः कमला के यहाँ चली गयी और रण में तुम भी युद्ध करके वैकुण्ठ चले जाओ ॥ १८ ॥

इत्येवं वचनं श्रुत्वा जहौ शोकं नराधिपः ।
ततश्चन्दनकाष्ठेन चितां दिव्यां चकार ह ॥ १९ ॥
संस्काराग्निं कारयित्वा पुत्रद्वारा ददाह ताम् ।
नानाविधानि रत्‍नानि ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥ २० ॥
इतना सुन कर राजा ने शोक त्याग दिया और रानी के लिए चन्दन काष्ठ की दिव्य चिता बनायी । पुत्र द्वारा उसका दाह संस्कार सुसम्पन्न करा कर ब्राह्मणों को हर्ष से, अनेक भांति के रत्न प्रदान किये ॥ १९-२० ॥

नानाविधानि दानानि वस्त्राणि विविधानि च ।
मनोरमायाः पुण्येन ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥ २१ ॥
मनोरमा के पुण्यार्थ उन्होंने अनेक भाँति के वस्त्र समेत विविध भाँति के दान ब्राह्मणों को सुप्रसन्न मन से प्रदान किये ॥ २१ ॥

भुज्यतां भुज्यतां शश्वद्‌दीयतां दीयतामिति ।
शब्दो बभूव सर्वत्र कार्तवीर्याश्रमे मुने ॥ २२ ॥
कोषेषु स्वाधिकारेषु स्थितं यद्यद्धनं तदा ।
मनोरमायाः पुण्येन ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥ २३ ॥
हे मुने ! उस समय कार्तवीर्यार्जुन के आश्रम में खाओ-खाओ और हमें दो-दो ऐसा निरन्तर शब्द हो रहा था । अपने अधिकार में स्थित कोष में जितना धन था, वह मनोरमा के पुण्यार्थ ब्राह्मणों को उन्होंने दे दिया ॥ २२-२३ ॥

राजा जगाम समर हृदयेन विदूयता ।
सार्धं सैन्यसमूहैश्च वाद्यभाण्डैरसंख्यकैः ॥ २४ ॥
उपरान्त राजा ने संसप्त हृदय से असंख्य सैनिकों और वाद्यों समेत रणस्थल को यात्रा आरम्भ की ॥ २४ ॥

ददर्शामङ्‌गलं राजा पुरो वर्त्मनि वर्त्मनि ।
ययौ तथाऽपि समरं नाऽऽजगाम गृहं पुनः ॥ २५ ॥
जाते समय मार्गों में सामने उन्होंने अमंगल देखा, किन्तु उसकी उपेक्षा कर के समर के लिए चले ही गये, घर नहीं लोटे ॥ २५ ॥

मुक्तकेशीं छिन्ननासां रुदतीं च दिगम्बराम् ।
कृष्णवस्त्रपरीधानामपरां विधवामपि ॥ २६ ॥
मुखदुष्टां योनिदुष्टां व्याधियुक्तां च कुट्टिनीम् ।
पतिपुत्रविहीनां च डाकिनीं पुंश्चली तथा ॥ २७ ॥
कुम्भकारं तैलकार व्याधं सर्पोपजीविनम् ।
कुचैलमतिरूक्षाङ्‌गं नग्नं काषायवासिनम् ॥ २८ ॥
वसाविक्रयिणं चैव कन्याविक्रयिणं तथा ।
चितादग्धं शवं भस्म निर्वाणाङ्‌गारमेव च ॥ २९ ॥
सर्पक्षतं नरं सर्पगोधां च शशकं विषम् ।
श्राद्धपाकं च पिण्डं च मोटकं च तिलांस्तथा ॥ ३० ॥
देवलं वृषवाहं च शूद्रश्राद्धान्नभोजिनम् ।
शूद्रान्नपाचकं शूद्रयाजकं ग्रामयाजकम् ॥ ३ १ ॥
कुशपुत्तलिकां चैव शवदाहनकारिणम् ।
शून्यकुम्भं भग्नकुम्भं तैलं लवणमस्थि च ॥ ३२ ॥
कार्पासं कच्छपं चूर्णं कुक्कुरं शब्दकारिणम् ।
दक्षिणे च सृगालं च कुर्वन्तं भैरवं रवम् ॥ ३३ ॥
कपर्दकं च क्षौरं च च्छिन्नकेशं नखं मलम् ।
कलहं च विलापं च तथा तत्कारिणं जनम् ॥ ३४ ॥
अमङ्‌गलं वदन्तं च रुदन्तं शोककारिणम् ॥ ३५ ॥
मिथ्यासाक्ष्यप्रदातारं चौरं च नरघातिनम् ।
पुंश्चलीपतिपुत्रौ च पुंश्चल्योदनभोजिनम् ॥ ३६ ॥
देवतोगुरुविप्राणां वस्तुवित्तापहारिणम् ।
दत्तापहारिणं दस्युं हिंसकं सूचकं खलम् ॥ ३७ ॥
पितृमातृविरक्तं च द्विजाश्वत्थविधातिनम् ।
सत्यघ्नं च कृतघ्नं च स्थाप्यस्याप्यपहारिणम् ॥ ३८ ॥
विप्रमित्रद्रोहमेव क्षतं विश्वासघातकम् ।
गुरुदेवद्विजानां च निन्दकं स्वाङ्‌गघातकम् ॥ ३९ ॥
जीवानां घातकं चैव स्वाङ्‌गहीनं च निर्दयम् ।
व्रतोपवासहीनं च दीक्षाहीनं नपुंसकम् ॥ ४० ॥
गलितव्याधिगात्रं च काणं बधिरमेव च ।
पुल्कसं छिन्नलिङ्‌गं च सुरामत्तं सुरां तथा ॥ ४१ ॥
क्षिप्तं वमन्तं रुधिरं महिषं गर्दभं तथा ।
मूत्रं पुरीषं श्लेष्माणं लक्षिणं नृकपालिनम् ॥ ४२ ॥
चण्डवातं रक्तवृष्टिं वाद्यं वै वृक्षपातनम् ।
वृकं च सूकरं गृध्रं श्येनं कंकं च भल्लुकम् ॥ ४३ ॥
पाशं च शुष्ककाष्ठं च वायसं गन्धकं तथा ॥ ४४ ॥
प्रतिग्राहिब्राह्मणं च तन्त्रमन्त्रोपजीविनम् ।
वैद्यं च रक्तपुष्पं चाप्यौषधं तुषमेव च ॥ ४५ ॥
कुवार्ता मृतवार्तां च विप्रशापं च दारुणम् ।
दुर्गन्धिवातं दुःशब्दं राजाऽपश्यत्स वर्त्मनि ॥ ४६ ॥
केश खोले, छिन्न नासिका वाली, रोदन करती हुई, नग्न, काला वस्त्र पहने विधवा स्त्री तथा मुख दुष्ट, योनिदुष्ट, रोगिणी, कुट्टिनी, पतिपुत्रहीना, डाकिनी, पुंश्चली, कुम्हार, तेली, व्याध (बहेलिया), सँपेरा, मलिन वस्त्रधारी, अत्यन्त, रूक्षशरीर, नग्न, गेरुआ वस्त्रधारी, चर्बी का विक्रेता, कन्या-विक्रेता, चिता में जला हुआ शव, राख, कोयला, साँप का काटा-मनुष्य, गोह, शशक (खरगोश), विष, श्राद्ध का पाक, पिण्ड, मोटक, तिल, शुद्र के मन्दिर का पुजारी, वृषवाह (गाड़ीवान हलवाहे आदि), शूद्र के श्राद्ध का अन्न खाने वाला, शूद्र का भण्डारी, शुद्र का यज्ञ कराने वाला, गाँव-गाँव यज्ञ कराने वाला, कुश का पुतला बना कर शव का दाह करने वाला, छूछा घड़ा, फूटा घड़ा, तेल, नमक, हड्डी, कपास, कछुवा, चूर्ण, भूकता हुआ पुत्ता, दाहिनी ओर भीषण शब्द करता हुआ स्वार, कौड़ी, बाल बनवाना, छिन्न केश, नख, मल, कलह, विलाप तथा विलाप करने वाला मनुष्य, अमंगल बोलने वाला, रोने वाला, शोक करने वाला, झूठी गवाही देने वाला, चोर, मनुष्य-घातक, पुंश्चली स्त्री के पति-पुत्र, पुंश्चली का भात खाने वाला, देवता, गुरु, विप्र की वस्तु और धन का अपहरण करने वाला, दान दी हुई वस्तु का अपहरण करने वाला, दस्यु, हिंसक, चुगुलखोर, खल (दुष्ट), पिता-माता से विरक्त रहने वाला, ब्राह्मण एवं पीपल का घात्ती, सत्यनाशक, कृतघ्न, धरोहर का अपहर्ता, ब्राह्मण और मित्र से द्रोह करने वाला, आहत, विश्वासघाती, गुरु, देवता और ब्राह्मण के निन्दक, अपने अंग का नाशक, जीवों का घातक, अंगहीन, निर्दयी, व्रत और उपवास से रहित, दीक्षाहीन, नपुंसक, गलितरोग-ग्रस्त शरीर वाला, काना, बहिरा, चाण्डाल, कटे लिंग वाला, सुरापान से मत्त, मद्यविक्रेता, रुधिर वमन करने वाला, भैंसा, गधा, मूत्र, विष्ठा, कफ, रुखा, नरमुण्डधारी, प्रचण्ड वायु, रुधिर की वर्षा, वाद्य, वृक्ष का गिरना, भेड़िया, सूकर, गीध, बाज, कंक, भालू, फाँस, सूखा काष्ठ, कौआ, गन्धक, दान लेने वाला ब्राह्मण, तन्त्र-मन्त्र से जीविका चलाने वाला, वैद्य, रक्तपुष्प, औषध, भूसी, निन्दित समाचार, मृतक समाचार, भीषण ब्राह्मण-शाप, दुर्गन्धपूर्ण वायु और दुःशब्द, ये सब मार्ग में राजा ने देखे ॥ २६-४६ ॥

मनश्च कुत्सितं प्राणाः क्षुभिताश्च निरन्तरम् ।
वामाङ्‌गस्पन्दनं देहजाड्यं राज्ञो बभूव ह ॥ ४७ ॥
इससे राजा का मन म्लान हो गया, प्राण क्षुब्ध होने लगे, वामांग फड़कने लगा और देह शिथिल हो गयी ॥ ४७ ॥

तथाऽपि राजा निःशंको ददर्श समराङ्‌गणम् ।
सर्वसैन्यसमायुक्तः प्रविवेश रणाजिरम् ॥ ४८ ॥
तथापि राजा निःशंक होकर समर भूमि की ओर देखने लगा और समस्त सेनाओं समेत रणांगण में प्रविष्ट हुआ ॥ ४८ ॥

अवरुह्य रथात्तूर्णं दृष्ट्‍वा च पुरतो भृगुम् ।
ननाम दण्डवद्‌भूमौ राजेन्द्रैः सह भक्तितः ॥ ४९ ॥
वहाँ राम को सामने देख कर रथ से तुरन्त उतर पड़ा और सहसा उन्हें भूमि पर सहायक राजकुमारों समेत भक्तिपूर्वक दण्डवत्प्रणाम करने लगा ॥ ४९ ॥

आशिषं युयुजे रामः स्वर्गं याहीति वाच्छितम् ।
तेषां सह्यं तद्‌बभूवुर्दुर्लङ्‌घ्या ब्राह्मणाशिषः ॥ ५० ॥
राम ने शुभाशिष प्रदान किया कि--'अभिलषित स्वर्ग प्राप्त करो । ' यह उन लोगों के लिए सह्य हो गया क्योंकि ब्राह्मणों के आशीर्वाद अलंध्य होते हैं ॥ ५० ॥

भृगुं प्रणम्य राजेन्द्रो राजेन्द्रैः सह तत्क्षणात् ।
आरुरोह रथं तूर्णं नानायुधसमन्वितम् ॥ ५१ ॥
नानाप्रकारवाद्यं च दुन्दुभिं मुरजादिकम् ।
वादयामास सहसा ब्राह्मणेभ्यो ददौ धनम् ॥ ५२ ॥
सहायक राजकुमारों के साथ राजा उसी समय भृगु को प्रणाम कर अनेक अस्त्रों से युक्त होकर शीघ्रता से रथ पर बैठा और अनेक प्रकार के वाद्यों समेत दुन्दुभि (नगाड़ा) एवं मृदंग बजवाया और ब्राह्मणों को धन दान दिया ॥ ५१-५२ ॥

उवाच रामो राजेन्द्रं राजेन्द्राणां च संसदि ।
हितं सत्यं नीतिसारं वाक्यं वेदविदां वरः ॥ ५३ ॥
अनन्तर वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ राम ने राजाओं की उस सभा में राजा से कहा, जो हितकर, सत्य और नीति का सार भाग था ॥ ५३ ॥

परशुराम उवाच
शृणु राजेन्द्र धर्मिष्ठ चन्द्रवंशसमुद्‌भव ।
विष्णोरंशस्य शिष्यस्त्वं दत्तात्रेयस्य धीमतः ॥ ५४ ॥
परशुराम बोले-हे राजन् ! तुम धर्मात्मा, चन्द्रवंश में उत्पन्न और भगवान् विष्णु के अंश एवं विद्वान् दत्तात्रेय के शिष्य हो ॥ ५४ ॥

स्वयं विद्वांश्च वेदांश्च श्रुत्वा वेदविदो मुखात् ।
कथं दुर्बुद्धिरधुना सज्जनानां विहिंसना ॥ ५५ ॥
तथा वेदवेत्ता के मुख से वेदों को सुन कर स्वयं भी विद्वान् हो । किन्तु सम्प्रति तुम्हारी दुर्बुद्धि कैसे हो गयी सज्जनों की हिंसा की ॥ ५५ ॥

त्वं पूर्वमहनो लोभान्निरीहं ब्राह्मणं कथम् ।
ब्राह्मणी शोकसंतप्ता भर्त्रा सार्धं गता सती ॥ ५६ ॥
तुमने पहले लोभवश एक निरीह ब्राह्मण की हिंसा कैसे की, जिनसे पतिव्रता ब्राह्मणी शोक से सन्तप्त होकर पति के साथ चली गयी ॥ ५६ ॥

किं भविष्यति ते भूप परत्रैवामयोर्वधात् ।
सर्वं मिथ्यैव संसारं पद्मपत्रे यथा जलम् ॥ ५७ ॥
हे भूप ! इन दोनों के वध करने से तुम्हें लोक-परलोक में क्या लाभ होगा? कमलपत्र पर स्थित जल की भाँति समस्त संसार मिथ्या है ॥ ५७ ॥

सत्कीर्तिश्चाथ दुष्कीर्तिः कथामात्रावशेषिता ।
विडम्बना वा किमतो दुष्कीर्तेश्च सतामहो ॥ ५८ ॥
प्राणी यहाँ केवल यश-अयश का भागी होता है और (जो कुछ करता है उसकी) कथा मात्र शेष रह जाती है । अहो सज्जनों को अयश प्राप्त करने की विडम्बना से क्या लाभ ॥ ५८ ॥

क्व गता कपिला त्वं क्व क्व विवादो मुनिः कुतः ।
यत्कृतं विदुषा राज्ञा न कृतं हालिकेन तत् ॥ ५९ ॥
वह कपिला कहाँ गयी, उसके निमित्त होने वाला विवाद कहाँ और वे मुनि कहाँ चले गये । (इससे यही कहना पड़ना है कि) एक विद्वान् राजा ने जैसा अनुचित कर्म किया, वैसा एक हलवाहा भी नहीं कर सकता ॥ ५९ ॥

त्वामुषोषितमीशं हि दृष्ट्‍वा तातो हि धार्मिकः ।
पारणा कारयामास दत्तं तस्य फलं त्वया ॥ ६० ॥
तुम्हें उपवास किये देख कर मेरे धार्मिक पिता ने तुम्हें भोजन कराया, जिसका तुमने यह फल प्रदान किया ॥ ६० ॥

अधीतं विधिवद्‌दत्तं ब्राह्मणेभ्यो दिने दिने ।
जगत्ते यशसा पूर्णमयशो वार्धके कथम् ॥ ६१ ॥
तुमने स्वयं वेदाध्ययन किया है, ब्राह्मणों को प्रतिदिन धन दान किया है जिससे समस्त जगत् में तुम्हारा पूर्ण यश व्याप्त है किन्तु अब वृद्धावस्था में तुमने यह अयश क्यों प्राप्त किया ॥ ६१ ॥

दाता बलिष्ठो धर्मिष्ठो यशस्वी पुण्यवान्सुधीः ।
कार्तवीर्यार्जुनसमो न भूतो न भविष्यति ॥ ६२ ॥
क्योंकि 'दाता, बलवान्, धर्मात्मा, यशस्वी, पुण्यवान् एवं विद्वान् कार्तवीर्यार्जुन के समान मकोई हुआ और न होगा' ॥ ६२ ॥

पुरातना वदन्तीति वन्दिनो धरणीतले ।
यो विख्यातः पुराणेषु तस्य दुष्कीर्तिरीदृशी ॥ ६३ ॥
ऐसा पृथ्वीतल पर पुराने वन्दीगण गाते हैं । जो पुराणों में प्रख्यात है, उसकी ऐसी अपकीति कैसे हुई ॥ ६३ ॥

दुर्वाक्यं दुःसहं राजंस्तीक्ष्णास्त्रादपि जीविनाम् ।
संकटेऽपि सतां वक्त्राद्‌दुरुक्तिर्न विनिर्गता ॥ ६४ ॥
हे राजन् ! जीवों का कटुवचन तीक्ष्ण अस्त्र से भी दुःसह होता है, पर कितना बड़ा संकट क्यों न हो, सज्जनों के मुख से कभी भी बुरी बात नहीं निकलती है ॥ ६४ ॥

न ददामि दुरुक्तिं ते प्रकृतं कथयाम्यहम् ।
उत्तरं देहि राजेन्द्र मह्यं राजेन्द्रसंसदि ॥ ६५ ॥
मैं तुम्हें दुष्ट बचन नहीं कह रहा हूँ, केवल प्रासंगिक बात कह रहा हूँ । अतः हे राजेन्द्र ! इस राजसमा के भीतर मुझे उत्तर प्रदान करो ॥ ६५ ॥

सूर्यचन्द्रमनूनां च वंशजाः सन्ति संसदि ।
सत्यं वद सभायां च शृण्वन्तु पितरः सुराः ॥ ६६ ॥
शृण्वन्तु सर्वे राजेन्द्राः सदसद्वक्तुमीश्वराः ।
पश्यन्तो हि समं सन्तः पाक्षिकं न वदन्ति च ॥ ६७ ॥
क्योंकि इस सभा में सूर्य, चन्द्र एवं मनु के वंशज विराजमान हैं अतः सभा में सत्य-सत्य कहो, जिससे देवता, पितर लोग सुनें और सत् असत् कहने के अधिकारी राजेन्द्रगप भी सुनें । सन्त लोग सब को समान भाव से देखते हुए कभी भी पक्षपात नहीं करते हैं ॥ ६६-६७ ॥

इत्युक्त्वा रैणुकेयश्च विरराम रणस्थले ।
राजा बृहस्पतिसमः प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥ ६८ ॥
इतना कह कर उस रणभूमि में परशुराम चुप हो गए, अनन्तर बृहस्पति के समान राजा ने कहना आरम्भ किया ॥ ६८ ॥

कार्तवीर्यार्जुन उवाच
श्रृणु राम हरेरंशो हरिभक्तो जितेन्द्रियः ।
श्रुतो धर्मी मुखाद्येषां त्वं च तेषां गुरोर्गुरुः ॥ ६९ ॥
कार्तवीर्यार्जुन बोले-हे राम ! आप भगवान् के अंश, भगवद्भक्त एवं जितेन्द्रिय हैं और जिनके मुख से मैंने धर्म का श्रवण किया है, तुम उनके गुरु के गुरु हो ॥ ६९ ॥

कर्मणा ब्राह्मणो जातः करोति ब्रह्मभावनाम् ।
स्वधर्मनिरतः शुद्धस्तस्माद्‌ब्राह्मण उच्यते ॥ ७० ॥
जो कर्म से ब्राह्मण होकर उत्पन्न होता है, ब्रह्म की भावना करता है, अपने धर्म में निरन्तर लगा रहता है तथा शुद्ध है उसे 'ब्राह्मण' कहते हैं ॥ ७० ॥

अन्तर्बहिश्च मननात्कुरुते कर्मनित्यशः ।
मौनी शश्वद्वदेत्काले यो वै स मुनिरुच्यते ॥ ७१ ॥
जो सदैव बाहर भीतर मनन करते हुए कर्म करता है और सदा मौन रह कर समय पर बोलता है, उसे 'मुनि' कहा जाता है ॥ ७१ ॥

स्वर्णे लोष्टे गृहेऽरण्ये पंके सुस्निग्धचन्दने ।
समताभावना यस्य स योगी परिकीर्तितः ॥ ७२ ॥
सुवर्ण, मिट्टी, घर, वन, कीचड़ और अतिस्निग्ध चन्दन में जिसकी भावना समान रहती है, उसे 'योगी' कहा जा है ॥ ७२ ॥

सर्वजीवेषु यो विष्णुं भावयेत्समताधिया ।
हरौ करोति भक्तिं च हरिभक्तः स च स्मृतः ॥ ७३ ॥
जो समान भाव से विष्णु को सभी जीवों में देखता है और भगवान में भक्ति करता है, उसे 'हरिभक्त' कहा जाता है ॥ ७३ ॥

तपो धनं ब्राह्मणानां तपः कल्पतरुर्यथा ।
तपस्या कामधेनुश्च सततं तपसि स्पृहा ॥ ७४ ॥
ऐश्वर्ये क्षत्रियाणां च वाणिज्ये च तथा विशाम् ।
शूद्राणां विप्रसेवैव स्पृहा वेदेष्वनिन्दिता ॥ ७५ ॥
ब्राह्मणों का धन तप है, जो कल्पवृक्ष की भांति (समस्त फलदायक) होता है और तपस्या कामधेनु रूप है अतः निरन्तर तप करने की इच्छा ब्राह्मणों की, क्षत्रियों की स्पूहा ऐश्वर्य के प्रति, वैश्यों की इच्छा व्यापार के प्रति और शूद्रों की स्प हा ब्राह्मणों की सेवा के प्रति वेदों में प्रशंसीय कही गई है ॥ ७४-७५ ॥

क्षत्रियाणां च तपसि स्पृहाऽतीवाप्रशंसिता ।
ब्राह्मणानां विवादे च स्पृहाऽतीव विनिन्दिता ॥ ७६ ॥
तप करने की क्षत्रियों की इच्छा अत्यन्त अनुचित है और विवाद करने की ब्राह्मणों की स्पृहा अति निन्दित है ॥ ७६ ॥

रागी राजसिकं कार्यं कुरुते कर्मरागतः ।
रागान्धो यो राजसिकस्तेन राजा प्रकीर्तितः ॥ ७७ ॥
रागी राग (अनुराग) वश राजस कार्य करता है, और रागान्ध होकर रजोगुण में लिप्त होने के कारण 'राजा' कहलाता है ॥ ७७ ॥

रागतः कामधेनुश्च मया वै याचिता मुने ।
को दोष एव मे जातः क्षत्रियस्यानुरागिणः ॥ ७८ ॥
है मुने ! मैंने भी राग के वश होकर कामधेनु की याचना की थी । अतः मुझ अनुरागी क्षत्रिय का दोष ही क्या हुआ ॥ ७८ ॥

कुतः कस्य मुनेरस्ति कामधेनुस्त्वया विना ।
स्पृहा रणे वा भोगे वा युष्माकं च व्यतिक्रमः ॥ ७९ ॥
तथा तुमको छोड़कर किस मुनि के पास कामधेनु है । रण या भोग के प्रति तुम्हारी इच्छा व्यतिक्रम (उलटी) है । ॥ ७९ ॥

त्रिंशदक्षौहिणीं सेनां राजेन्द्राणां त्रिकोटिकाम् ।
निहत्याऽऽयान्तमेकं मां न हन्तुं सहनं मुने ॥ ८० ॥
हे मुने ! तीस अक्षौहिणी सेना और तीन करोड़ राजाओं को मार कर जो एक मुझे मारने आये उसका सहन कैसे किया जाये ॥ ८० ॥

आत्मानं हन्तुमायान्तमपि वेदाङ्‌गपारगम् ।
न दोषो हनने तस्य न तेन ब्रह्महाऽभवम् ॥ ८१ ॥
अपने को मारने के लिए कोई वेद का निष्णात विद्वान् ही क्यों न आये, तो उसके मारने में कोई दोष नहीं है, इससे हम ब्रह्मघाती नहीं हैं ॥ ८१ ॥

प्रायश्चित्तं हिंसकानां न वेदेषु निरूपितम् ।
वधः समुचितस्तेषामित्याह कमलोद्‌भवः ॥ ८२ ॥
क्योंकि हिंसकों के वध करने पर वेदों में कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है, उनका वध करना ही समुचित है, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ ८२ ॥

पित्रा ते निहता भूपा महाबलपराक्रमाः ।
इदानीं राजपुत्राश्च शिशवोऽत्र समागताः ॥ ८३ ॥
तुम्हारे पिता ने महाबलवान् और महापराक्रमी राजाओं का हनन किया है, इस समय उन्हीं के राजकुमार बच्चे ये तुम्हारे सामने आये हैं ॥ ८३ ॥

त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कृत्स्नां कर्तुं महीमिति ।
त्वया कृता प्रतिज्ञा या तस्यास्त्वं पालनं कुरु ॥ ८४ ॥
अतः तुमने भी इक्कीस बार इस समस्त पृथिवी को निभूप करने की जो प्रतिज्ञा की है, उसका पालन करो ॥ ८४ ॥

क्षत्रियाणां रणो धर्मो रणे मृत्युर्न गर्हितः ।
रणे स्पृहा ब्राह्मणानां लोके वेदे बिडम्बना ॥ ८५ ॥
क्षत्रियों का धर्म युद्ध करना है, इसलिए युद्ध में उनकी मृत्यु होना निन्दित नहीं है । और ब्राह्मणों की युद्ध विषयिगी इच्छा भी लोक वेद दोनों में विडम्बना मात्र है ॥ ८५ ॥

तपोधनानां विप्राणां वाग्बलानां युगे युगे ।
शान्तिः स्वस्त्ययनं कर्म विप्रधर्मो न संगरः ॥ ८६ ॥
इसलिए तपोधन वाले ब्राह्मणों का, जिनका वाग् बल प्रधान है, प्रत्येक युग में शान्ति समेत स्वस्त्ययन (मांगलिक) कर्म करना ही विप्र-धर्म है, युद्ध करना नहीं ॥ ८६ ॥

क्षत्रियाणां बलं युद्धं व्यापारश्च बलं विशाम् ।
भिक्षाबलं भिक्षुकाणां शूद्राणां विप्रसेवनम् ॥ ८७ ॥
हरौ भक्तिर्हरेर्दास्यं वैष्णवानां बलं हरिः ।
हिंसा बलं खलानां च तपस्या च तपस्विनाम् ॥ ८८ ॥
बलं वेषश्च वेश्यानां योषितां यौवनं बलम् ।
बलं प्रतापो भूपानां बालानां रोदनं बलम् ॥ ८९ ॥
सतां सत्यं बलं मिथ्या बलमेवासतां सदा ।
अनुगानामनुगमः स्वल्पस्वानां च संचयः ॥ ९० ॥
विद्या बलं पण्डितानां धैर्यं साहसिनां बलम् ।
शश्वत्कुकर्मशीलानां गाम्भीर्यं साहसं बलम् ॥ ९१ ॥
धनं बलं च धनिनां शुचीनां च विशेषतः ।
बलं विवेकः शान्तानां गुणिनां बलमेकता ॥ ९२ ॥
गुणो बलं च गुणिनां चौराणां चौर्यमेव च ।
प्रियवाक्यं च कापट्यमधर्मः पुंश्चलीबलम् ॥ ९३ ॥
क्षत्रियों का युद्ध बल, वैश्यों का व्यापार बल, भिक्षुक (संन्यासी) का भिक्षा बल शूद्रों का ब्राह्मण-सेवा बल, हरिदास्यों का भगवान् में भक्ति करना बल, वैष्णवों का नारायण बल, दुष्टों का हिंसा बल, तपस्वियों का तप बल, वेश्याओं का वेशभूषा बल, स्त्रियों का यौवन बल, राजाओं का प्रताप बल, बालकों का रोदन बल, सज्जनों का सत्य बल, असज्जनों का सदा मिथ्या कहना बल, अनुगामियों का अनुगमन (पीछे चलना) बल, अल्प धन वालों का संचय बल, पण्डितों का विद्या बल, साहसियों का धैर्य बल, धनिकों और विशेषकर पवित्र रहने वालों का धन बल, शान्त पुरुषों का विवेक बल, गुणियों का एकता बल, गुणीलोगों का गुण बल, चोरों का चोरी बल और पुंश्चली स्त्रियों का कपटपूर्ण प्रिय बोलना तथा अधर्म करना बल है ॥ ८७-९३ ॥

हिंसा च हिंस्रजन्तूनां सतीनां पतिसेवनम् ।
वरशापौ सुराणां च शिष्याणां गुरुसेवनम् ॥ ९४ ॥
बलं धर्मो गृहस्थानां भृत्यानां राजसेवनम् ।
बलं स्तवः स्तावकानां ब्रह्म च ब्रह्मचारिणाम् ॥ ९५ ॥
यतीनां च सदाचारो न्यासः संन्यासिनां बलम् ।
पापं बलं पातकिनामशक्तानां हरिर्बलम् ॥ ९६ ॥
हिंसक जीवों का हिसा बल, सती स्त्रियों का पति-सेवा बल, देवों का वरदान और शाप बल, शिष्यों का गुरु-सेवा बल, गृहस्थों का धर्म बल, नौकरों का राज-सेवा बल, स्तुति करने वालों का स्तुति बल, ब्रह्मचारियों का ब्रह्म बल, यतियों का सदाचार बल, संन्यासियों का त्याग बल, पातकियों मा पाप बल, असमर्थ लोगों का भगवान् बल है ॥ ९४-९६ ॥

पुण्यं बलं पुण्यवतां प्रजानां नृपतिर्बलम् ।
फलं बलं च वृक्षाणां जलजानां जलं बलम् ॥ ९७ ॥
जलं बलं च सस्यानां मत्स्यानां च जलं बलम् ।
शान्तिर्बलं च भूपानां विप्राणां च विशेषतः ॥ ९८ ॥
पुण्यात्माजों का पुण्य बल, प्रजाओं का राजा बस, वृक्षों का फल बल, जलोत्पन्नों का जल बल, सस्यों (धान्यों) का जल बल, मत्स्यों का जल बल, राजाओं और विशेषतया ब्राह्मणों का बल शान्ति है ॥ ९७-९८ ॥

विप्रः शान्तो रणोद्योगी नैव दृष्टो न च श्रुतः ।
स्थिते नारायणे देवे बभूवाद्य विपर्ययः ॥ ९९ ॥
युद्ध के लिए प्रयत्न करने वाला शान्त ब्राह्मण न कहीं देखा गया है और न सुना गया है । नारायण देव के रहते ही ऐसा विपर्यय (उलटा) हो रहा है ॥ ९९ ॥

इत्येवमुक्त्वा राजेन्द्रो विरराम रणाजिरे ।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा सद्यस्तूष्णीं बभूव ह ॥ १०० ॥
उस रणांगण में इतना कहकर बह राजा चुप हो गया और उसकी बातें सुनकर वे भी तुरन्त चुप हो गये ॥ १०० ॥

रामस्य भ्रातरः सर्वे तीक्ष्णशस्त्रासिपाणयः ।
आरेभिरे रणं कर्तुं महावीरास्तदाज्ञया ॥ १०१ ॥
अनन्तर तीक्ष्ण शस्त्र तलवार आदि हाथ में लिए राम के महावीर भ्राताओं ने उनकी आज्ञा से युद्ध करना आरम्भ कर दिया ॥ १०१ ॥

रणोन्मुखांश्च तान्तुष्ट्या मत्स्यराजो महाबलः ।
समारेभे रणं कर्तुं मङ्‌गलो मङ्‌गलालयः ॥ १०२ ॥
महाबली राजेन्द्र मत्स्यराज भी, जो मंगल एवं मंगल निवास रूप हैं, उन्हें रणोन्मुख देखकर युद्ध के लिए तैयार हो गया ॥ १०२ ॥

शरजालेन राजेन्द्रो वारयामास तानपि ।
चिच्छिदुः शरजालं च जमदग्निसुतास्तदा ॥ १०३ ॥
राजेन्द्र ने अपने बाण-जालों द्वारा उन्हें रोक दिया और जमदग्नि के पुत्रों ने भी उसी समय उसके बाण-जाल को काट दिया ॥ १०३ ॥

राजा चिक्षेप दिव्यास्त्रं शतसूर्यप्रभं मुने ।
माहेश्वरेण मुनयश्चिच्छिदुश्चैव लीलया ॥ १०४ ॥
हे मुने ! राजा ने सैकड़ों सूर्य के समान कान्तिपूर्ण दिव्यास्त्र का प्रयोग किया, जिसे मुनियों ने माहेश्वर अस्त्र द्वारा लीला की भांति काट दिया ॥ १०४ ॥

दिव्यास्त्रेणैव मुनयश्चिच्छिदुः सशरं धनुः ।
रथं च सारथिं चैव राज्ञः संनाहमेव च ॥ १०५ ॥
अनन्तर मुनियों ने दिव्यास्त्र द्वारा राजा का बाण समेत धनुष, रथ, सारथी और कवच खण्ड-खण्ड करके गिरा दिया ॥ १०५ ॥

न्यस्तशस्त्रं नृपं दृष्ट्‍वा मुनयो हर्षविह्वलाः ।
दधार शूलिनः शूल मत्स्यराजजिघांसया ॥ १०६ ॥
उस समय राजा को शस्त्र-रहित देखकर मुनिगण बहुत प्रसन्न हुए और मत्स्यराज का हनन करने के लिए उन लोगों ने शंकर का शूल प्रयोग करना चाहा ॥ १०६ ॥

शूलनिःक्षेपसमये वाग्बभूवाशरीरिणी ।
शूलं त्यजत विप्रेन्द्राः शिवस्यायर्थमेव च ॥ १०७ ॥
शिवस्य कवचं दिव्यं दत्तं दुर्वाससा पुरा ।
मत्स्यराजगलेऽस्त्येतत्सर्वावयवरक्षणम् ॥ १०८ ॥
प्राणानां च प्रदातारं कवचं याचतं नृपम् ।
तदा निक्षिप्तशूलं च जघान नृपतीश्वरम् ॥ १०९ ॥
तच्छूलं तं नृपं प्राप्य शतखण्डं गतं मुने ।
श्रुत्वैवाऽऽकाशवाणीं च शृङ्‌गी संन्यासवेषकृत् ॥ ११० ॥
ययाचे कवचं भूपं जमदग्निसुतो महान् ।
राजा ददौ च कवचं ब्रह्माण्डविजयं परम् ॥ १११ ॥
उसी बीच जब वे शूल प्रयोग कर रहे थे, आकाश वाणी हुई है विप्रेन्द्र ! शिव का यह शूल व्यर्थ नहीं जाता है अतः अभी इसका प्रयोग न करो । राजा को पहले समय में दुर्वासा ने दिव्य शिव-कवच प्रदान किया था, जो राजा के गले में बँधा है और उसके समस्त अवयव की रक्षा करता है । प्रथम राजा से उस प्राणप्रद कवच को मांग लो, पश्चात् शूल का प्रयोग करो । हे मुने ! उन लोगों ने शूल का प्रयोग कर दिया था इसलिए राजा के पास पहुँचकर वह सूल सैकड़ों खण्डों में होकर गिर गया । आकाशवाणी सुनकर जमदग्नि के पुत्र शृंगी संन्यासी ने वेष बनाकर राजा से कवच की याचना की । राजा ने ब्रह्माण्डविजय नामक वह कवच सहर्ष प्रदान किया ॥ १०७-१११ ॥

गृहीत्वा कवचं तच्च शूलेनैव जघान ह ।
पपात मत्स्यराजश्च शतचन्द्रसमाननः ।
महाबलिष्ठो गुणवांश्चन्द्रवंशसमुद्‌भवः ॥ ११२ ॥
अनन्तर कवच लेकर उन्होंने शूल का प्रयोग किया, जिससे आहत होकर मत्स्यराज गिर गया, जो सैकड़ों चन्द्रों के समान मुख, वाला, महाबली, गुणवान् एवं चन्द्रवंश में उत्पन्न था ॥ ११२ ॥

नारद उवाच
शिवस्य कवचं ब्रूहि मत्स्यराजेन यद्धृतम् ।
नारायण महाभाग श्रोतुं कौतूहलं मम ॥ ११३ ॥
नारद बोले-हे नारायण ! हे महाभाग ! मत्स्यराज ने शिव का जो कवच धारण किया था, वह मुझ बताने की कृपा करें, उसे सुनने का मुझे कौतूहल है ॥ ११३ ॥

नारायण उवाच
कवचं शृणु विप्रेन्द्र शंकरस्य महात्मनः ।
ब्रह्माण्डविजयं नाम सर्वावयवरक्षणम् ॥ ११४ ॥
पुरा दुर्वाससा दत्तं मत्स्यराजाय धीमते ।
दत्त्वा षडक्षरं मन्त्रं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ ११५ ॥
नारायण बोले- हे विप्रेन्द्र ! महात्मा शिव का ब्रह्माण्ड बिजय नामक कवच जो समस्त शरीर के अंगों की रक्षा करता है, तुम्हें बता रहा हूँ,सुनो । पहले समय में दुर्वासा ने विद्वान् मत्स्यराज को प्रथम षडक्षर मंत्र प्रदान किया था, जोसमस्त पापों का नाश करता है ॥ ११४-११५ ॥

स्थिते च कवचे देहे नास्ति मृत्युश्च जीविनाम् ।
अस्त्रे शस्त्रे जले वह्नौ सिद्धिश्चेन्नास्ति संशयः ॥ ११६ ॥
देह में कवच के रहते हुए प्राणियों की मृत्यु नहीं हो सकती है, अस्त्र, शस्त्र, जल, अग्नि भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ११६ ॥

यद्धृत्वा पठनाद्‌बाणः शिवत्वं प्राप लीलया ।
बभृव शिवतुल्यश्च यद्धृत्वा नन्दिकेश्वरः ॥ ११७ ॥
वीरश्रेष्ठो वीरभद्रो साम्बोऽभूद्धारणाद्यतः ।
त्रैलोक्यविजयी राजा हिरण्यकशिपुः स्वयम् ॥ ११८ ॥
जिसे धारण कर पाठ करने से बाणासुर ने लीला की भांति शिवत्व प्राप्त किया, नन्दिकेश्वर शिव के समान हो गये, साम्ब वीरों में श्रेष्ठ तथा महावीर हुए तथा जिसे धारण कर स्वयं राजा हिरण्यकशिपु तीनों लोकों का विजेता हुआ ॥ ११७-११८ ॥

हिरण्याक्षश्च विजयी चाभवद्धारणाद्धि सः ।
यद्धृत्वा पठनात्सिद्धो दुर्वासा विश्वपूजितः ॥ ११९ ॥
जिसके धारण से हिरण्याक्ष विजयी हुआ, जिसके पाठ करने से दुर्वासा सिद्ध और विश्वपूजित हुए ॥ ११९ ॥

जैगीषव्यो महायोगी पठनाद्धारणाद्यतः ।
यद्धृत्वा वामदेवश्च देवलः पवनः स्वयम् ।
अगस्त्यश्च पुलस्त्यश्चाप्यभवद्विश्वपूजितः ॥ १२० ॥
जिसे पढ़ने और धारण करने से जैगीषव्य महायोगी हुए तथा वामदेव, देवल, स्वयं पवन देव, अगस्त्य और पुलस्त्य विश्वपूजित हुए हैं ॥ १२० ॥

ॐ नमः शिवायेति च मस्तकं मे सदाऽवतु ।
ॐ नमः शिवायेति च स्वाहा भालं सदाऽवतु ॥ १२१ ॥
'जों नमः शिवाय' मेरे मस्तक की रक्षा करे, 'ओं नमः शिवाय स्वाहा' सदा भाल की रक्षा करे ॥ १२१ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं शिवायेति स्वाहा नेत्रे सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं क्लीं हूं शिवायेति नमो मे पातु नासिकाम् ॥ १२२ ॥
'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं शिवाय स्वाहा' नेत्र युगल की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं क्लीं हूं शिवाय नमः' मेरी नासिका की रक्षा करे ॥ १२२ ॥

ॐनमः शिवाय शान्ताय स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं हूं संहारकर्त्रे स्वाहा कर्णौ सदाऽवतु ॥ १२३ ॥
'ओं नमः शिवाय शान्ताय स्वाहा' सदा कण्ठ की रक्षा करे, 'ओं ह्रीं श्रीं हूं संहारकत्रे स्वाहा' दोनों कानों की रक्षा करे ॥ १२३ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा दन्तं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं महेशाय स्वाहा चाधरं पातु मे सदा ॥ १२४ ॥
'ओं ह्रीं श्रीं पञ्चवक्त्राय स्वाहा' सदा दाँतों की रक्षा करे, 'ओं ह्रीं महेशाय स्वाहा' सदा मेरे अधर की रक्षा करे ॥ १२४ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा केशान्सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा वक्षः सदाऽवतु ॥ १२५ ॥
'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं त्रिनेत्राय स्वाहा' सदा केशों की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं ऐं महादेवाय स्वाहा' सदा वक्षःस्थल की रक्षा करे ॥ १२५ ॥

ॐ हीं श्रीं क्लीं मे रुद्राय स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं मैं श्रीमीश्वराय स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ॥ १२६ ॥
'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं रुद्राय स्वाहा' मेरी नाभि की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं ऐं श्रीं ईश्वराय स्वाहा' मेरे पृष्ठ की रक्षा करे ॥ १२६ ॥

ॐ ह्रीं क्लीं मृत्युंजयाय स्वाहा भ्रुवौ सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रींक्लीमीशानाय स्वाहा पार्श्वं सदाऽवतु ॥ १२७ ॥
'ओं ह्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा' सदा भौंहों की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं श्रीं ह्रीं ईशानाय स्वाहा' सदा पार्श्व भाग की रक्षा करे ॥ १२७ ॥

ॐह्रीमीश्वराय स्वाहा चोदरं पातु मे सदा ।
ॐ श्रीं ह्रीं मृत्युंजयाय स्वाहा बाहू सदाऽवतु ॥ १२८ ॥
'ओं ह्रीं ईश्वराय स्वाहा' उदर की रक्षा करे । 'ओं श्रीं क्लीं मृत्युञ्जयाय स्वाहा' सदा बाहुओं की रक्षा करे ॥ १२८ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमीश्वराय स्वाहा पातु करौ मम ।
ॐ महेश्वराय रुद्राय नितम्बं पातु मे सदा ॥ १२९ ॥
'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ईश्वराय स्वाहा' मेरे हाथों की रक्षा करे । 'ओं महेश्वराय रुद्राय' नितम्ब की सदा रक्षा करे ॥ १२९ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ।
ॐ सर्वेश्वराय शर्वाय स्वाहा पादौ सदाऽवतु ॥ १३० ॥
'ओं ह्रीं श्रीं भूतनाथाय स्वाहा' चरण की रक्षा करे' । 'ओं सर्वेश्वराय सर्वाय स्वाहा' चरणों की रक्षा करे ॥ १३० ॥

प्राच्यां मां पातु भूतेश आग्नेय्यां पातु शंकरः ।
दक्षिणे पातु मां रुद्रो नर्ऋत्यां स्थाणुरेव च ॥ १३१ ॥
पूर्व दिशा में भूतेश, अग्निकोण में शंकर, दक्षिण में रुद्र, और नै ईत्व में स्थाणु मेरी रक्षा करें ॥ १३१ ॥

पश्चिमे खण्डपरशुर्वायव्यां चन्द्रशेखरः ।
उत्तरे गिरिशः पातु चैशान्यामीश्वरः स्वयम् ॥ १ ३२ ॥
पश्चिम में खण्डपरशु, वायव्य में चन्द्रशेखर, उत्तर में गिरीश, ईशान में स्वयं ईश्वर रक्षा करें ॥ १३२ ॥

ऊर्ध्वे मृडः सदा पातु चाधो मृत्युंजयः स्वयम् ।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे सदा ॥ १३३ ॥
पिनाकी पातु मां प्रीत्या भक्तं वै भक्तवत्सलः ।
इति ते कथितं वत्स कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ १ ३४ ॥
ऊपर की ओर मृड, नीचे स्वयं मृत्युञ्जय और जल, स्थल, अन्तरिक्ष, शयन, जागरण में मुझ भक्त की भक्तवत्सल पिनाकी प्रेम से रक्षा करें । हे वत्स ! इस भौति मैंने तुम्हें परम अद्भुत कवच बता दिया ॥ १३३-१३४ ॥

दशलक्षजपेनैव सिद्धिर्भवति निश्चितम् ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो रुद्रतुल्यो भवेद्ध्रुवम् ॥ १३५ ॥
दश लाख जप करने से इसकी निश्चित सिद्धि होती है । यादे सिद्धकवच हो जाये तो निश्चित ही रुद्र के समान हो जाता है ॥ १३५ ॥

तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित् ।
कवचं काण्वशाखोक्तमतिगोप्यं सुदुर्लभम् ॥ १३६ ॥
स्नेहवश मैंने यह कवच तुम्हें बता दिया है, किसी से कहना नहीं । काण्वशाखोक्त यह कवच अति गोप्य और अति दुर्लभ है ॥ १३६ ॥

अश्वमेधसहस्राणि राजसूयशतानि च ।
सर्वाणि कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १३७ ॥
सहस्र अश्वमेघ, सौ राजसूय आदि सभी यज्ञ इस कवच की सोलहवीं कला के भी समान नहीं हैं ॥ १३७ ॥

कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
सर्वज्ञः सर्वसिद्धेशो मनोयायी भवेद्ध्रुवम् ॥ १३८ ॥
इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त, सर्वज्ञाता, समस्त सिद्धियों का ईश तथा मन के समान वेगगामी होता है ॥ १३८ ॥

इदं कवचमज्ञात्वा भजेद्यः शंकरप्रभुम् ।
शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ १३९ ॥
इस कवच को बिना जाने जो प्रभु शंकर की सेवा करता है, सौ लाख जप करने पर भी उसका मंत्र सिद्धिप्रद नहीं होता है ॥ १३९ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे शंकरकवचकथनं
नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद - नारायण-संवाद में शंकरकवचकथन नामक पैंतीसर्वां अध्याय समाप्त ॥ ३५ ॥

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