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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - षट्त्रिंशोऽध्यायः


भृगुकार्तवीर्ययुद्धवर्णनम् -
भृगुकार्त्तवीर्य युद्धवर्णन -


नारायण उवाच
मत्स्यराजे निपतिते राजा युद्धविशारदः ।
राजेन्द्रान्प्रेषयामास युद्धशास्त्रविशारदान् ॥ १ ॥
बृहद्वलं सोमदत्तं विदर्भं मिथिलेश्वरम् ।
निषधाधिपतिं चैव मगधाधिपतिं तथा ॥ २ ॥
आययुः समरे योद्धुं जामदग्न्यं महारथाः ।
त्रितयाक्षौहिणीभिश्च सेनाभिः सह नारद ॥ ३ ॥
नारायण बोले-हे नारद ! मत्स्यराज के मारे जाने पर युद्धनिपुण रांजा ने युद्धशास्त्र में पारंगत राजेन्द्रों-- बृहद्वल, सोमदत्त, विदर्भ, मिथिलेश्वर, निषिधेश्वर तथा मगधेश्वर को भेजा । नारद ! तीन अक्षौहिणी सेना लेकर उन लोगों ने जमदग्नि-पुत्र के साथ युद्ध करने के लिए आये ॥ १-३ ॥

रामस्य भ्रातरः सर्वे वीरास्तीक्ष्णास्त्रपाणयः ।
वारयामासुरस्त्रैश्च तानेव रणमूर्धनि ॥ ४ ॥
तीक्ष्ण अस्त्र हाथों में लिए राम के सभी वीर भ्राताओं ने रणक्षेत्र में अपने अस्त्रों द्वारा उन्हें रोक दिया ॥ ४ ॥

ते वीराः शरजालेन दिव्यास्त्रेण प्रयत्‍नतः ।
वारयामासुरेकैकं भ्रातृवर्गान्भृगोस्तथा ॥ ५ ॥
उन वीरों ने भी बाण-समूह और दिव्य अस्त्रों द्वारा भृगु के भ्राताओं को क्रमश: एक-एक करके रोक दिया ॥ ५ ॥

आययौ समरे शीघ्रं दृष्ट्‍वा तांश्च पराजितान् ।
पिनाकहस्तः स भृगुर्ज्वलदग्निशिखोपमः ॥ ६ ॥
भ्राताओं को पराजित देखकर भूगु स्वयं हाथ में पिनाक धनुष लिए प्रज्वलित अग्नि-शिखा की भांति देदीप्यमान होते हुए रणभूमि में आ गये ॥ ६ ॥

चिक्षेप नागपाशं च जामदग्न्यो महाबलः ।
चिच्छेद तं गारुडेन सोमदत्तो महाबलः ॥ ७ ॥
अनन्तर महाबली राम ने नागपाश का प्रयोग किया । महाबलवान् सोमदत्त ने उसे गरुडास्त्र से काट दिया ॥ ७ ॥

भृगुः शंकरशूलेन सोमदत्तं जघान ह ।
बृहद्‌बलं च गदया विदर्भं मुष्टिभिस्तथा ॥ ८ ॥
मैथिलं मुद्‌गरेणैव शक्त्या वै नैषधं तथा ।
मागधं चरणोद्घातैरस्त्रजालेन सैनिकान् ॥ ९ ॥
अनन्तर भृगु ने शंकर-शूल द्वारा सोमदत्त का हनन कर दिया । उसी भाँति गदा से बृहद्बल का, मुष्टियों से विदर्भ का, मुद्गर से मैथिल का, शक्ति से नैषध का, चरण-प्रहार से मगधेश्वर का तथा अस्त्रों के समूह से सैनिकों का वध किया ॥ ८-९ ॥

निहत्य निखिलान्भूपान्संहाराग्निसमो रणे ।
दुद्राव कार्तवीर्यं च जामदग्न्यो महाबलः ॥ १० ॥
रण में संहाराग्नि की भाँति महाबली राम ने समस्त भूपों को मार कर कार्तवीर्य की और दौड़े ॥ १० ॥

दृष्ट्‍वा तं योद्धुमायान्तं राजानश्च महारथाः ।
आययुः समरं कर्तुं कार्तवीर्यं निवार्य च ॥ ११ ॥
महाराथी राजाओं ने भृगु को युद्ध करने के लिए आते हुए देख कर कार्तवीर्य को हटाकर स्वयं युद्ध करना आरम्भ किया ॥ ११ ॥

कान्यकुब्जाश्च शतशः सौराष्ट्राः शतशस्तथा ।
राष्ट्रीयाः शतशश्चैव वीरेन्द्राः शतशस्तथा ॥ १२ ॥
सौम्या वाङ्‌गाश्च शतशो महाराष्ट्रास्तथा दश ।
तथा गुर्जरजातीयाः कलिङ्‌गाः शतशस्तथा ॥ १३ ॥
उनमें सौ कान्यकुब्ज, सौ सौराष्ट्र, सौ राष्ट्रीय, सौ वीरेन्द्र (प्रधानवीर) सौ सौम्य, सौ बंगाल के, दस सौ महाराष्ट्र के, सौ गुजरात एवं कलिंग देश के राजा थे ॥ १२-१३ ॥

कृत्वा ते शरजालं च भृगुं चिच्छिदुरेव च ।
तं छित्वाऽभ्युत्थितो रामो नीहारमिव भास्करः ॥ १४ ॥
उन लोगों ने बाणों का जाल बनाकर परशुराम को छाप लिया, किन्तु राम उसे काट कर, कुहासे को काटकर निकलते हुए सूर्य की भांति ऊपर उठ गये ॥ १४ ॥

त्रिरात्रं युयुधे रामस्तैः सार्धं समराजिरे ।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनां तथा चिच्छेद पर्शुना ॥ १५ ॥
रम्भास्तम्भसमूहं च यथा खड्गेन लीलया ।
छित्त्वा सेनां भूपवर्गं जघान शिवशूलतः ॥ १६ ॥
समरांगण में राम ने उन राजाओं के साथ तीन रात्रि तक युद्ध किया-फरसे से बारह अक्षौहिणी सेना को काट डाला । कदली के स्तम्भ-समूह को खड्ग से काटने की भांति उन्होंने सैनिकों को लीलापूर्वक काटने के उपरान्त शिवशूल द्वारा राजाओं के समूह को मार डाला ॥ १५-१६ ॥

सर्वांस्तान्निहतान्दृष्ट्‍वा सूर्यवंशसमुद्‌भवः ।
आजगाम सुचन्द्रश्च लक्षराजेन्द्रसंयुतः ॥ १७ ॥
उन सबको निहत देखकर राजा सुचन्द्र, जो सूर्यवंश में उत्पन्न था, एक लाख राजाओं को साथ लेकर वहाँ युद्ध करने के लिए आ गया ॥ १७ ॥

द्वादशाक्षौहिणीभिश्च सेनाभिः सह संयुगे ।
कोपेन युयुधे रामं सिंहं सिंहो यथा रणे ॥ १८ ॥
युद्ध में राजा के साथ बारह अक्षौहिणी सेना थी । सिंह के ऊपर सिंह के आक्रमण करने की भाँति राम ने उस रण में क्रुद्ध होकर युद्ध किया ॥ १८ ॥

भृगुः शंकरशूलेन नृपलक्षं निहत्य च ।
द्वादशाक्षौहिणीं सेनामहन्वै पर्शुना बली ॥ १२ ॥
बलवान् भृगु ने शंकर के शूल से राजा के एक लाख राजाओं को मारकर उनकी बारह अक्षौहिणी सेना को भी फरसे से काटकर गिरा दिया ॥ १९ ॥

निहत्य सर्वाः सेनाश्च सुचन्द्रं युयुधे बली ।
नागास्त्रं प्रेरयामास निर्हृतं तं भृगुः स्वयम् ॥ २० ॥
नागपाशं च चिच्छेद गारुडेन नृपेश्वरः ।
जहास च भृगुं राजा समरे च पुनः पुनः ॥ २१ ॥
सेनाओं को मारने के अनन्तर उन्होंने सुचन्द्र से युद्ध करना आरम्भ किया । बली भृगु ने स्वयं उसके ऊपर नागास्त्र का प्रयोग किया, जिसे उस नृपेश्वर ने गारुड अस्त्र से काट दिया । और उस युद्ध में वह राजा भृगु का बार-बार उपहास करने लगा ॥ २०-२१ ॥

भृगुर्नारायणास्त्रं च चिक्षेप रणमूर्धनि ।
अस्तं ययौ तं निहन्तुं शतसूर्यसमप्रभम् ॥ २२ ॥
यह देखकर भृगु ने रणस्थल में उस पर नारायणास्त्र का प्रयोग किया, जो सैकड़ों सूर्य के समान कान्ति पूर्ण था ॥ २२ ॥

दृष्ट्‍वाऽस्त्रं नृपशार्दूलश्चावरुह्य रथात्क्षणात् ।
न्यस्तशस्त्रः प्राणमच्च स्तुत्वा नारायणं शिवम् ॥ २३ ॥
वह राजसिंह उस अस्त्र को आते हुए देख कर उसी क्षण से रथ से उतरकर भूमिपर खड़ा हो गया और शस्त्ररहित होकर नारायण और शिव की स्तुतिपूर्वक उसने उसे प्रणाम किया ॥ २३ ॥

तमेव प्रणतं त्यक्त्वा ययौ नारायणान्तिकम् ।
अस्त्रराजो भगवतो रामः संप्राप विस्मयम् ॥ २४ ॥
उसे प्रणत देख कर वह अस्त्रराज राजा को छोड़ कर नारायण के समीप चला गया । इसे देख राम को अति आश्चर्य हुआ ॥ २४ ॥

भृगुः शक्तिं च मुसलं तोमरं पट्टिशं तथा ।
गवां पशुं च कोपेन चिक्षिपे तज्जिघांसया ॥ २५ ॥
जग्राह काली तान्सर्वान्सुचन्द्रस्यन्दनस्थिता ।
चिक्षेप शिवशूलं स नृपमाल्यं बभूव सः ॥ २६ ॥
अनन्तर भृगु ने क्रुद्ध होकर उसका हनन करने के लिए शक्ति, मूसल, तोमर, पट्टिश, गदा और फरसे का प्रयोग किया, किन्तु सुचन्द्र के रथ पर स्थित काली ने उन सबको पकड़ लिया । राम ने शिव-शूल का प्रयोग किया, वह राजा के पास पहुँच कर उनके कण्ठ की माला हो गया ॥ २५-२६ ॥

ददर्श पुरतो रामो भद्रकालीं जगत्प्रसूम् ।
वहन्तीं मुण्डमालां च विकटास्यां भयंकरीम् ॥ २७ ॥
अनन्तर राम ने जगज्जननी काली को देखा, जो मुण्डमाला धारण किये विकट मुख एवं भीषण रूप वाली थीं ॥ २७ ॥

विहाय शस्त्रमस्त्रं च पिनाकं च भृगुस्तदा ।
तुष्टाव तां महामायां भक्तिनम्रात्मकंधरः ॥ २८ ॥
भृगु ने तुरन्त शस्त्र, अस्त्र और पिनाक को अलग रख कर भक्ति से कन्धे झुकाये हुए, उस महामाया की स्तुति करना आरम्भ किया ॥ २८ ॥

परशुराम उवाच
नमः शंकरकान्तायै सारायै ते नमो नमः ।
नमो दुर्गतिनाशिन्यै मायायै ते नमो नमः ॥ २९ ॥
परशुराम बोले--शंकर की कान्ता को नमस्कार है, सारभाग रूप को बार-बार नमस्कार है, दुर्गतिनाशिनी को नमस्कार है, महामाया को बार-बार नमस्कार है ॥ २९ ॥

नमो नमो जगद्धात्र्यै जगत्कत्र्यै नमो नमः ।
नमोऽस्तु ते जगन्मात्रे कारणार्थं नमो नमः ॥ ३० ॥
जगत् की धात्री को नमस्कार है, जगत् का निर्माण करने वाली को नमस्कार है । जगत् की माता को नमस्कार है और कारण रूप आपको बार-बार नमस्कार है ॥ ३० ॥

प्रसीद जगतां मातः सृष्टिसंहारकारिणि ।
त्वत्पादौ शरणं यामि प्रतिज्ञां सार्थिकां कुरु ॥ ३१ ॥
हे सृष्टि का संहार करने वाली जगत् की माता ! प्रसन्न हो जाओ, मैं तुम्हारे चरण की शरण में हूँ, मेरी प्रतिज्ञा सफल करो ॥ ३१ ॥

त्वयि मे विमुखायाञ्च को मां रक्षितुमीश्वरः ।
त्वं प्रसन्ना भव शुभे मां भक्तं भक्तवत्सले ॥ ३२ ॥
तुम्हारे विमुख रहने पर मुझे रक्षित रखने में कौन समर्थ हो सकता है । अतहे: शुभे ! हे भक्तवत्सले ! मुझ भक्त पर तुम प्रसन्न हो जाओ ॥ ३२ ॥

युष्माभिः शिवलोके च मह्यं दत्तो वरः पुरा ।
तं वरं सफलं कर्तुं त्वमर्हसि वरानने ॥ ३३ ॥
हे वरानने ! पूर्व समय तुम लोगों ने शिवलोक में मुझे वरदान दिया था, उसे सफल करने की कृपा करो ॥ ३३ ॥

रैणुकेयस्तवं श्रुत्वा प्रसन्नाऽभवदम्बिका ।
मा भैरित्येवमुक्त्वा तु तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३४ ॥
उपरान्त रेणुका-पुत्र राम की ऐसी स्तुति सुन कर अम्बिका देवी प्रसन्न हो गयीं । 'मत डरों' ऐसी आकाशवाणी हुई और वे उसी स्थान पर अन्तहित हो गयीं ॥ ३४ ॥

एतद्‌भूगुकृतं स्तोत्रं भक्तियुक्तश्च यः पठेत् ।
महाभयात्समुत्तीर्णः स भवेदेव लीलया ॥ ३५ ॥
भृगुरचित इस स्तोत्र का जो भक्तिपूर्वक पाठ करेगा वह महान् भय से लीला पूर्वक पार हो जायगा ॥ ३५ ॥

स पूजितश्च त्रैलोक्ये तत्रैव विजयी भवेत् ।
ज्ञातिश्रेष्ठो भवेच्चैव वैरिपक्षविमर्दकः ॥ ३६ ॥
वह तीनों लोक में पूजित एवं विजयी होगा, ज्ञानियों में श्रेष्ठ और शत्रुदल का मर्दन करेगा ॥ ३६ ॥

एतस्मिन्नंतरे ब्रह्मा भृगुं धर्मभृतां वरम् ।
आगत्य कथयामास रहस्यं राममेव च ॥ ३७ ॥
इसी बीच धार्मिक श्रेष्ठ भग के समीप ब्रह्मा आये और उनसे समस्त रहस्य बताया ॥ ३७ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु राम महाभाग रहस्यं पूर्वमेव च ।
सुचन्द्रजयहेतुं च प्रतिज्ञासार्थकाय च ॥ ३८ ॥
दशाक्षरो महाविद्या दत्ता दुर्वाससा पुरा ।
सुचन्द्रायैव कवचं भद्रकाल्या सुदुर्लभम् ॥ ३९ ॥
ब्रह्मा बोले---हे महाभाग ! हे राम ! मैं तुम्हें पहले का एक रहस्य बता रहा हूँ, जो सुचन्द्र को जीतने का कारण है एवं प्रतिज्ञा को सफल करेगा, सुनो । पूर्वकाल में दुर्वासा ने दश अक्षर की महाविद्या और भद्रकाली का अति दुर्लभ कवच सुचन्द्र को प्रदान किया था ॥ ३८-३९ ॥

कवचं भद्रकाल्याश्च देवानां च सुदुर्लभम् ।
कवचं तद्‌गले यस्य सर्वशत्रुविमर्दकम् ॥ ४० ॥
अतीव पूज्यं शस्तं च त्रैलोक्यजयकारणम् ।
तस्मिन्स्थिते च कवचे कस्त्वं जेतुमलं भुवि ॥ ४१ ॥
भद्रकाली का कवच देवों के लिए भी अति दुर्लभ है । समस्त शत्रुओं का मर्दन करने वाला वह कवच, जो त्रैलोक्य में अत्यन्त पूजित, प्रशस्त और तीनों लोकों के विजय का कारण है, जिसके गले में बँधा रहेगा, उस तुमको भूतल में जीतने के लिए भला कौन समर्थ हो सकताहै ? ॥ ४०-४१ ॥

भृगुर्गच्छतु भिक्षार्थं करोतु प्रार्थनां नृपम् ।
सूर्यवंशोद्‌भवो राजा दाता परमधार्मिकः ॥ ४२ ॥
प्राणांश्च कवचं मन्त्रं सर्वं दास्यति निश्चितम् ॥ ४३ ॥
अतः हे भृगो ! उसे राजा से मांगने के लिए तुम जाओ और उसकी प्रार्थना करो । राजा सूर्य वंश में उत्पन्न, दाता और परम धार्मिक है । वह प्राण, कवच और मंत्र आदि सब कुछ तुम्हें निश्चित दे देगा ॥ ४२-४३ ॥

भृगुः संन्यासिवेषेण गत्वा राजान्तिकं मुने ।
भिक्षां चकार मन्त्रं च कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ ४४ ॥
हे मुने ! भृगु ने संन्यासी के वेष में राजा के पास जाकर मंत्र एवं परमाद्भत कवच की याचना की ॥ ४४ ॥

राजा ददौ च तन्मन्त्रं कवचं परमादरात् ।
ततः शंकरशूलेन तं जघान नृपं भृगुः ॥ ४५ ॥
राजा ने परम आदरपूर्वक उन्हें मन्त्र समेत कवच प्रदान किया । जिससे भृगु ने शिव शुल द्वारा उस राजा को मार दिया ॥ ४५ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे भृगुकार्तवीर्ययुद्धवर्णनं
नाम षट्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३६ ॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद - नारायण-संवाद में भृगुकार्तवीर्य युद्धवर्णन नामक छत्तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३६ ॥

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