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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - सप्तत्रिंशोऽध्यायः भद्रकली कवच कथन -
भद्रकली कवच कथन - नारद उवाच कवचं श्रोतुमिच्छामि तां च विद्यां दशाक्षरीम् । नाथ त्वत्तो हि सर्वज्ञ भद्रकाल्याश्च सांप्रतम् ॥ १ ॥ नारद बोले-हे नाथ ! हे सर्वज्ञ ! मैं इस समय भद्रकाली का कवच और वह दशाक्षरी विद्या आपसे जानना चाहता हूँ, बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ नारायण उवाच शृणु नारद वक्ष्यामि महाविद्यां दशाक्षरीम् । गोपनीयं च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ॥ २ ॥ नारायण बोले-हे नारद ! मैं तुम्हें दशाक्षरी विद्या तथा वह गोपनीय कवच, जो तीनों लोकों में दुर्लभ है, बता रहा हूँ, सुनो ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहेति च दशाक्षरीम् । दुर्वासा हि ददौ राज्ञे पुष्करे सूर्यपर्वणि ॥ ३ ॥ 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा' यही दशाक्षरी विद्या है, जिसे सूर्यग्रहण के समय पुष्कर में दुर्वासा ने राजा को प्रदान किया था ॥ ३ ॥ दशलक्षजपेनैव मन्त्रसिद्धिः कृता पुरा । पञ्चलक्षजपेनैव पठन्कवचमुत्तमम् ॥ ४ ॥ दश लाख जप करके उन्होंने पूर्वकाल में इस मंत्र की सिद्धि प्राप्त की थी और पाँच लाख जप करके पाठ करते हुए परमोत्तम कवच को सिद्ध किया था ॥ ४ ॥ बभूव सिद्धकवचोऽप्ययोध्यामाजगाम सः । कृत्स्नां हि पृथिवीं जिग्ये कवचस्य प्रसादतः ॥ ५॥ सिद्धकवच होने पर वे अयोध्या आये थे और इसी कवच के प्रभाव से समस्त पृथ्वी पर विजय प्राप्त किया था ॥ ५ ॥ नारद उवाच श्रुता दशाक्षरी विद्या त्रिषु लोकेषु दुर्लभा । अधुना श्रोतुमिच्छामि कवचं ब्रूहि मे प्रभो ॥ ६ ॥ नारद बोले-हे प्रभो ! मैं तीनों लोकों में दुर्लभ दशाक्षरी विद्या सुन ली, किन्तु अब कवच सुनना चाहता हूँ, अतः उसे कहने की कृपा करें ॥ ६ ॥ नारायण उवाच शृणु वक्ष्यामि विप्रेन्द्र कवचं परमाद्भुतम् । नारायणेन यद्दत्तं कृपया शूलिने पुरा ॥ ७ ॥ नारायण बोले-हे विप्रेन्द्र ! मैं तुम्हें वह परम अद्भुत कवच बता रहा हूँ, जिसे पूर्व समय नारायण ने कृपया शिव को दिया था ॥ ७ ॥ त्रिपुरस्य वधे घोरे शिवस्य विजयाय च । तदेव शूलिना दत्तं पूरा दुर्वाससे मुने ॥ ८ ॥ उसी से त्रिपुरासुर का घोर वध होने से उनका विजय हुआ था । हे मुने ! उसे ही पूर्व काल में शिव ने दुर्वासा को दिया था ॥ ८ ॥ दुर्वाससा च यद्दत्तं सुचन्द्राय महात्मने । अतिगुह्यतरं तत्त्वं सर्वमन्त्रोघविग्रहम् ॥ ९ ॥ और दुर्वासा ने महात्मा सुचन्द्र को दिया है, जो अत्यन्त गुप्ततरतथा तत्त्व समेत समस्त मंत्रों का शरीरस्वरूप है ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा मे पातु मस्तकम् । क्लीं कपालं सदा पातु ह्रीं ह्रीं ह्रीमिति लोचने ॥ १० ॥ 'ओं ह्रीं श्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा' मेरे मस्तक की रक्षा करे, 'क्लीं' कपाल की रक्षा और 'ह्रीं ह्रीं ह्रीं' दोनों नेत्रों की रक्षा करें ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा नासिकां मे सदाऽवतु । क्लीं कालिके रक्ष स्वाहा दन्तान्सदाऽवतु ॥ ११ ॥ 'ओं ह्रीं त्रिलोचने स्वाहा' सदा मेरी नासिका की रक्षा करे, 'क्लीं कालिके रक्ष रक्ष स्वाहा' सदा दाँतों की रक्षा करे ॥ ११ ॥ क्लीं भद्रकालिके स्वाहा पातु मेऽधरयुग्मकम् । ॐ ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा कण्ठं सदाऽवतु ॥ १२ ॥ 'क्ली भद्रकालिके स्वाहा' मेरे दोनों ओंठों की रक्षा करे,'ओं ह्रीं ह्रीं क्लीं कालिकायै स्वाहा' सदा कण्ठ की रक्षा करे ॥ १२ ॥ ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहाकर्णयुग्मं सदाऽवतु । ॐ क्रीं क्रीं क्ली काल्यै स्वाहा स्कन्धं पातु सदा मम ॥ १३ ॥ 'ओं ह्रीं कालिकाय स्वाहा' सदा दोनों कानों की रक्षा करें । 'ओं क्रीं क्रीं क्लीं काल्यै स्वाहा' मेरे कन्धों की रक्षा करे ॥ १३ ॥ ॐ क्रीं भद्रकाल्यै स्वाहा मम वक्षः सदाऽवतु । ॐ क्लीं कालिकायै स्वाहा मम नाभिं सदाऽवतु ॥ १४ ॥ 'ओं की भद्रकाल्यै स्वाहा' सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे, 'ओं क्लीं कालिकायै स्वाहा' सदा मेरी नाभि की रक्षा करे ॥ १४ ॥ ॐ ह्रीं कालिकायै स्वाहा मम पृष्ठं सदाऽवतु । रक्तबीजविनाशिन्यै स्वाहा हस्तौ सदाऽवतु ॥ १५ ॥ 'ओं ह्रीं कालिकायै स्वाहा' मेरे पृष्ठ की रक्षा करे, 'रक्तवीजनाशिन्यै स्वाहा' सदा हाथों की रक्षा कारे ॥ १५ ॥ ॐ हीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा पादौ सदाऽवतु । ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु ॥ १६ ॥ 'ओं ह्रीं क्लीं मुण्डमालिन्यै स्वाहा' सदा चरणों की रक्षा करे, 'ओं ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा' सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे ॥ १६ ॥ प्राच्यां पातु महाकाली चाग्नेय्यां रक्तदन्तिका । दक्षिणे पातु चामुण्डा नैर्ऋत्यां पातुकालिका ॥ १७ ॥ श्यामा च वारुणे पातु वायव्यां पातु चण्डिका । उत्तरे विकटास्या चाप्यैशान्यां साट्टहासिनी ॥ १८ ॥ पूर्व में महाकाली, अग्निकोण में रक्तदन्तिका, दक्षिण में चामुण्डा, नैर्ऋत्य में कालिका, पश्चिम में श्यामा, वायव्य में चण्डिका, उत्तर में विकटास्या (विकट मुख वाली) और ईशान में अट्टहासिनी रक्षा करें ॥ १७-१८ ॥ पातूर्ध्वं लोलजिह्वा सा मायाद्या पात्वधः सदा । जले स्थले चान्तरिक्षे पातु विश्वप्रसूः सदा ॥ १९ ॥ ऊपर की ओर लोलजिह्वा रक्षा करें, नीचे की ओर मायाद्या और जल, स्थल एवं अन्तरिक्ष (आकाश) में विश्वप्रसू (जगज्जननी) रक्षा करें ॥ १९ ॥ इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् । सर्वेषां कवचानां च सारभूतं परात्परम् ॥ २० ॥ हे वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कवच बता दिया, जो समस्त मन्त्र-समुदाय का शरीर, सभी कवचों का सारभाग एवं परात्पर है ॥ २० ॥ सप्तद्वीपेश्वरो राजा सुचन्द्रोऽस्य प्रसादतः । कवचस्य प्रसादेन मान्धाता पृथिवीपतिः ॥ २१ ॥ इसी के प्रभाव से राजा सुचन्द्र सातों द्वीपों के अधीश्वर एवं मान्धाता पृथ्वीपति हुए ॥ २१ ॥ प्रचेता लोमशश्चैव यतः सिद्धो बभूव ह । यतो हि योगिनां श्रेष्ठः सौभरिः पिप्पलायनः ॥ २२ ॥ प्रचेता और लोमश मुनि भी इसी कारण सिद्ध हुए और सौभरि एवं पिप्पलायन योगियों में श्रेष्ठ हुए ॥ २२ ॥ यदि स्यात्सिद्धकवचः सर्वसिद्धेश्वरो भवेत् । महादानानि सर्वाणि तपांस्येवं व्रतानि च । निश्चितं कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ २३ ॥ यदि कोई सिद्धकवच हो जाता है, तो वह समस्त सिद्धियों का अधीश्वर होता है । समस्त महादान, तप और व्रत इस कवच की सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं ॥ २३ ॥ इदं कवचमज्ञात्वा भजेत्कालीं जगत्प्रसूम् । शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥ २४ ॥ अतः इस कवच को बिना जाने जगज्जननी भद्रकाली की जो आराधना करता है, उसका मंत्र सौ लाख जपा जना पर भी सिद्धिप्रद नहीं होता है ॥ २४ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे भद्रकालीकवचनिरूपणं नाम संप्तत्रिशोऽध्यायः ॥ ३७ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद - नारायण-संवाद में भद्रकाली कवच कथन-नामक सैंतीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३७ ॥ |