Menus in CSS Css3Menu.com


ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - अष्टत्रिंशोऽध्यायः


श्रीलक्ष्मीकवचवर्णनम् -
श्रीलक्ष्मी कवच वर्णन -


नारायण उवाच
सुचन्द्रं पतिते ब्रह्मन् राजेन्द्राणां शिरोमणौ ।
अगमत्पुष्कराक्षस्तु सेनात्र्यक्षौहिणीयुतः ॥ १ ॥
नारायण बोले- हे ब्रह्मन् ! राजा सुचन्द्र के मरने पर राजा पुष्कराक्ष युद्ध करने के लिए रणभूमि में आया, जो राजाओं में शिरोमणि था । उसके साथ तीन अक्षौहिणी सेना थी ॥ १ ॥

सूर्यवंशोद्‌भवो राजा सुचन्द्रतनयो महान् ।
महालक्ष्मीसेवकश्च लक्ष्मीवान् सूर्यसंनिभः ॥ २ ॥
वह राजा सूर्यवंश में उत्पन्न, सुचन्द्र का बड़ा पुत्र, महालक्ष्मी का सेवक, लक्ष्मीवान् और सूर्य के समान तेजस्वी था ॥ २ ॥

महालक्ष्म्याश्च कवचं गले यस्य मनोहरम् ।
परमैश्वर्यसंयुक्तस्त्रैलोक्यविजयी ततः ॥ ३ ॥
महालक्ष्मी का मनोहर कवच जिसके गले में बंधा रहता है, वह परम ऐश्वर्य से सम्पन्न और तीनों लोकों का विजेता होता है ॥ ३ ॥

तं दृष्ट्‍वा भ्रातरः सर्वे रैणुकेयस्य धीमतः ।
आययुः समरं कर्तुं नानाशस्त्रास्त्रपाणयः ॥ ४ ॥
उसे देख कर धीमान राम के भातृगण विविध शस्त्रों को हाथ में लिए उससे समर करने के लिए आये ॥ ४ ॥

राजेन्द्रः शरजालेन च्छादयामास तांस्तथा ।
चिच्छिदुः शरजालं च ते वीराश्चैव लीलया ॥ ५ ॥
राजकुमार ने अपने बाण-जाल से उन्हें ढक दिया और उन वीरों ने भी लीला की भांति उस बाण-जाल को काट कर गिरा दिया ॥ ५ ॥

चिच्छिदुः स्यन्दनं राज्ञस्ते वीराः पञ्चबाणतः ।
सारथिं पञ्चबाणेन रथाश्वं दशबाणतः ॥ ६ ॥
तद्धनुः सप्तबाणेन तूर्णं वै पञ्चबाणतः ।
चिच्छिदुस्तद्‌भ्रातृवर्गान्विप्राः शंकरशूलतः ॥ ७ ॥
पुनः उन वीरों ने पाँच बाण से राजा का रथ, पाँच वाण से सारथी, दश बाण से रथ के घोड़े, सात बाण से धनुष, पांच बाण से तरकस और शंकर के शूल द्वारा उसके भ्रातृ-वर्गों को काट डाला ॥ ६-७ ॥

ते च त्र्यक्षौहिणीं सेनां निजघ्नुश्चापि लीलया ।
हन्तुं नृपेन्द्र ते वीराः शिवशूलं निचिक्षिपुः ।
गले बभूव तच्छू राज्ञः पुष्करमालिका ॥ ८ ॥
उनकी तीन अक्षौहिणी सेना को लीला पूर्वक काट कर उन्होंने राजा को मारने के लिए शिव-शूल का प्रयोग किया, किन्तु वह शूल राजा के गले में जाकर कमल की माला बन गया ॥ ८ ॥

शक्तिं च परिघं चैव भुशुण्डी मुद्‌गरं तथा ।
गदा च चिक्षिपुर्विप्राः कोपेन ज्वलदग्नयः ॥ ९ ॥
अनन्तर प्रज्वलित अग्नि की भाँति क्रुद्ध होकर ब्राह्मणों ने शक्ति, परिध, भुशुण्डी, मुद्गर और गदा का प्रयोग किया ॥ ९ ॥

तानि शस्त्राणि चूर्णानि क्षमाभृतो देहयोगतः ।
विस्मिता मातरः सर्वे भृगोरेव महामुने ॥ १० ॥
हे महामुने ! राजा के शरीर में पहुँचते ही उपर्युक्त सभी शस्त्र चूर्ण-चूर्ण होकर गिर गये । इसे देख कर भृगु के सभी भ्राताओं को महान् आश्चर्य हुआ ॥ १० ॥

रथं धनुश्च शस्त्राणि चास्त्राणि विविधानि च ।
सेनां प्रस्थापयामास कार्तवीर्यार्जुनः स्वयम् ॥ ११ ॥
उपरांत कार्तवीर्यार्जुन ने स्वयं रथ, धनुष, अनेक शस्त्रास्त्रों और सेना को राजा के पास भेजा ॥ ११ ॥

राजा स्यन्दनमारुह्य पुष्कराक्षो महाबलः ।
चकार शरजालं च महाघोरतरं मुने ॥ १२ ॥
हे मुने ! महाबली राजा पुष्कराक्ष ने उस रथ पर बैठ कर महाघोरतर बाण-वर्षा करना आरम्भ किया ॥ १२ ॥

चिच्छिदुः शरजालं च ते वीराः शस्त्रपाणयः ।
राजा प्रस्वापनेनैव निद्रितांस्तांश्चकार ह ॥ १३ ॥
शस्त्र हाथों में लिए उन वीरों ने भी उनका शरजाल काट दिया । राजा ने प्रस्वापन द्वारा उन्हें निद्रित कर दिया ॥ १३ ॥

भ्रातृंश्च निद्रितान्दृष्ट्‍वा जामदग्न्यो महाबलः ।
क्षतविक्षतसर्वाङ्‌गान्बोधयामास तत्त्वतः ॥ १४ ॥
बोधयित्वा तान्निवार्य जगाम रणमूर्धनि ।
चिक्षेप पर्शुं कोपेन शीघ्रं राजजिघांसया ॥ १५ ॥
छित्त्वा राज्ञः किरीटं च पर्शुर्भूमौ पपात ह ।
जग्राह परशुं शीघ्रं जामदग्न्यो महाबलः ॥ १६ ॥
उपरांत महाबली जामदग्न्य (राम) ने भ्राताओं को, जिनके अंग क्षत विक्षत (छिन्न-भिन्न) हो गए थे, निद्रित देख कर भलीभांति उद्बुद्ध कर के रणस्थल से उन्हें हटा दिया और स्वयं क्रुद्ध होकर राजा को मारने के लिए फरसे का शीघ्र प्रयोग किया । फरसा राजा का किरीट काट कर पृथ्वी पर गिर पड़ा । महाबली राम ने उसे शीघ्र पकड़ लिया ॥ १४-१६ ॥

तदा शंकरशूलं च चिक्षिपे मन्त्रपूर्वकम् ।
नृपस्य कुण्डलं छित्त्वा जगाम शिवसंनिधिम् ॥ १७ ॥
अनन्तर उन्होंने मंत्रपूर्वक शिव-शूल का प्रयोग किया, वह राजा का कुण्डल काट कर शिव के पास चला गया ॥ १७ ॥

राजा निहन्तुं तं रामं शरजालं चकार ह ।
चिच्छेद शरजालं च रैणुकेयश्च लीलया ॥ १८ ॥
राजा ने पुनः राम के हननार्थ बाणों का जाल-सा बिछा दिया, किन्तु भृगु ने उसे लीला पूर्वक काट दिया ॥ १८ ॥

क्रमेण राजा नानास्त्रं चिक्षिपे मन्त्रपूर्वकम् ।
तच्चिच्छेद क्रमेणैव भृगुः शस्त्रभृतां वरः ॥ १९ ॥
राजा ने क्रमशः मन्त्रपूर्वक अनेक भाँति के अस्त्रों का प्रयोग किया, जिन्हें शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ राम ने क्रमशः काट कर गिरा दिया ॥ १९ ॥

भृगृश्चिक्षेप नानास्त्रं महासंधानपूर्वकम् ।
तच्चिच्छेद महाराजः संधानेनैव लीलया ॥ २० ॥
भृगु ने भी अनेक भाँति के अस्त्रों का महासन्धानपूर्वक प्रयोग किया, जिसे महाराजा ने हस्तलाघव द्वारा काट कर गिरा दिया ॥ २० ॥

रामश्चिक्षेप संधाय ब्रह्मास्त्रं मन्त्रपूर्वकम् ।
राजा निर्वापणं चक्रे संधानेनैव लीलया ॥ २१ ॥
राम ने मंत्रपूर्वक ब्रह्मास्त्र का संघान करके प्रयोग किया, राजा ने संधान से ही उसे लीला पूर्वक समाप्त कर दिया ॥ २१ ॥

सर्वाण्यस्त्राणि शस्त्राणि रामः पाशुपतं विना ।
चिक्षेप कोपविभ्रान्तो भूपश्चिच्छेद तानि च ॥ २२ ॥
अनन्तर राम ने कुपित होकर पाशुपत को छोड़ कर सभी अस्त्रों का प्रयोग किया, राजा ने उसे काट कर गिरा दिया ॥ २२ ॥

रामः स्नात्वा शिवं नत्वाऽऽददे पाशुपतं मुने ।
नारायणश्च भगवानवोचद्विप्ररूपधृक् ॥ २३ ॥
हे मुने ! राम ने शिव को नमस्कार कर के पाशुपत अस्त्र ग्रहण किया, उसी समय नारायण ने ब्राह्मण रूप धारण कर उनसे कहा ॥ २३ ॥

वृद्धब्राह्मण उवाच
किं करोषि भृगो वत्स त्वमेव ज्ञानिनां वरः ।
नरं हन्तुं पाशुपतं कोपात्किं क्षिपसि भ्रमात् ॥ २४ ॥
ब्राह्मण बोल-हे वत्स, भृगो ! तुम ज्ञानियों में श्रेष्ठ होकर यह क्या कर रहे हो, एक मनुष्य के वध के लिए भ्रम से कोपवश पाशुपत का प्रयोग कर रहे हो? ॥ २४ ॥

विश्वं पाशुपतेनैव भवेद्‌भस्म च सेश्वरम् ।
सर्वघ्नं स्याच्छस्त्रमिदं विना श्रीकृष्णमीश्वरम् ॥ २५ ॥
ऐसा करने से पाशुपत द्वारा शंकर समेत सारा विश्व भस्म हो जायगा, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण को छोड़ कर अन्य सब का विनाश इसके द्वारा हो सकता है ॥ २५ ॥

अहो पाशुपतं जेतुं नालमेव सुदर्शनम् ।
हरेः सुदर्शनं चैव सर्वास्त्रपरिमर्दकम् ॥ २६ ॥
इतना ही नहीं, पाशुपत को जीतने के लिए भगवान् का सुदर्शन चक्र भी समर्थ नहीं है, वह सभी अस्त्रों एवं शत्रुओं का मर्दन करता है ॥ २६ ॥

खट्वाङ्‌गिनः पाशुपतं हरेरेव सुदर्शनम् ।
एते प्रधाने सर्वेषामस्त्राणां च जगत्‌त्रये ॥ २७ ॥
इस प्रकार तीनों लोकों में शिव का पाशुपत और भगवान् का सुदर्शन चक्र, ये दोनों समस्त अस्त्रों में प्रधान हैं ॥ २७ ॥

त्यज पाशुपतं ब्रह्मन्मदीयं वचनं शृणु ।
यथा जेष्यसि राजानं पुष्कराक्षं महाबलम् ॥ २८ ॥
अतः हे ब्रह्मन् ! पाशुपत रख कर मेरी बातें सुनो ! महाबली पुष्कराक्ष को जिस प्रकार जीतोगे मैं बता रहा हूँ ॥ २८ ॥

कार्तवीर्यमजेतारं यथा जेष्यसि सांप्रतम् ।
श्रूयतां सावधानेन तत्सर्वं कथयामि ते ॥ २९ ॥
अजेता कार्तवीर्य को जिस प्रकार जीतोगे, मैं सभी कुछ बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ॥ २९ ॥

महालक्ष्म्याश्च कवचं त्रिषु लोकेषु दुर्लभम् ।
भक्त्या च पुष्कराक्षेण धृतं कण्ठे विधानतः ॥ ३० ॥
राजा पुष्कराक्ष ने तीनों लोकों में दुर्लभ महालक्ष्मी का कवच भक्तिपूर्वक सविधान अपने कण्ठ में बाँधा है ॥ ३० ॥

परं दुर्गतिनाशिन्याः कवचं परमाद्‌भुतम् ।
धृतं च दक्षिणे बाहौ पुष्कराक्षसुतेन च ॥ ३१ ॥
तथा पुष्कराक्ष के पुत्र ने दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का परमोत्तम कवच अपने दाहिने बाहु में बांध रखा है ॥ ३१ ॥

कवचस्य प्रभावेण विश्वं जेतुं क्षमौ च तौ ।
को जेता च त्रिभुवने देहे च कवचे स्थिते ॥ ३२ ॥
कवच के प्रभाव से ये दोनों समस्त विश्व को जीतने में समर्थ हैं, अतः देह में कवच के रहते इन्हें तीनों लोक में कौन जीत सकता है? ॥ ३२ ॥

अहं यास्यामि भिक्षार्थं संनिधाने तयोर्मुने ।
करिष्यामि च तद्‌भिक्षां प्रतिज्ञासफलाय ते ॥ ३३ ॥
हे मुने ! मैं उन दोनों के पास उसी के भिक्षार्थ जा रहा हूँ, जिससे तुम्हारी प्रतिज्ञा सफल हो जाये ॥ ३३ ॥

ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा रामः संत्रस्तमानसः ।
उवाच ब्राह्मणं वृद्धं हृदयेन विदूयता ॥ ३४ ॥
ब्राह्मण की ऐसी बातें सुन कर राम का चित्त संत्रस्त हो गया, हार्दिक वेदना का अनुभव करते हुए उन्होंने वृद्ध ब्राह्मण से कहा ॥ ३४ ॥

परशुराम उवाच
न जानामि महाप्राज्ञ कस्त्वं ब्राह्मणरूपधृक् ।
शीघ्रं च ब्रूहि मां मूढं तदा गच्छ नृपान्तिकम् ॥ ३५ ॥
परशुराम बोले-हे महाप्राज्ञ ! यह मैं नहीं जानता कि वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किए आप कौन हैं, पहले आप मुझ मूढ को बताने की कृपा करें और पश्चात् राजा के समीप जायें ॥ ३५ ॥

जामदग्न्यवचः श्रुत्वा प्रहस्य ब्राह्मणः स्वयम् ।
उक्त्वा चाहं विष्णुरिति ययौ भिक्षितुमीश्वरः ॥ ३६ ॥
जामदग्न्य की बात सुनकर ब्राह्मण ने स्वयं हँस कर कहा---'मैं विष्णु हूँ । ' पश्चात् ईश्वर भिक्षा के लिए चले गये ॥ ३६ ॥

गत्वा तयोः संनिधानं ययाचे कवचे च तौ ।
ददतुस्तौ च कवचे विष्णवे विष्णुमायया ॥
गृहीत्वा कवचे विष्णुवै कुण्ठं निर्जगाम सः ॥ ३७ ॥
उन दोनों के पास जाकर उन्होंने उनसे कवच की याचना की । उन दोनों ने भी विष्णु-माया से प्रेरित होकर विष्णु को अपना-अपना कवच दे दिया और विष्णु ने उन्हें लेकर वैकुण्ठ चले गये ॥ ३७ ॥

नारद उवाच
महालक्ष्म्याश्च कवचं केन दत्तं महामुने ।
पुष्कराक्षाय भूपाय श्रोतु कौतुहलं मम ॥ ३८ ॥
नारद बोले-हे महामुने ! राजा पुष्कराक्ष को महालक्ष्मी का कवच किसने प्रदान किया था, यह सुनने का मुझे कौतूहल हो रहा है । ॥ ३८ ॥

कवचं चापि दुर्गायाः पुष्कराक्षसुताय च ।
दुर्लभं केन वादत्तं तद्‌भवान्वक्तुमर्हति ॥ ३९ ॥
और पुष्कराक्ष के पुत्र को दुर्गा का दुर्लभ कवच किसने दिया है, यह भी आप बताने की कृपा करें ॥ ३९ ॥

कवचं चापि किं भूतं तयोर्वा तस्य किं फलम् ।
मन्त्रौ तु किंप्रकारौ च तन्मे ब्रूहि जगद्‌गुरो ॥ ४० ॥
हे जगद्गुरो ! उन दोनों के कवच, उसके फल और मन्त्र मुझे बतायें ॥ ४० ॥

नारायण उवाच
दत्तं सनत्कुतरेण पुष्कराक्षाय धीमते ।
महालक्ष्म्याश्च कवचं मन्त्रश्चापि दशाक्षरः ॥ ४१ ॥
स्तवनं चापि गोप्यं वै प्रोक्तं तच्चरितं च यत् ।
ध्यानं च सामवेदोक्तं पूजां चैव मनोहराम् ॥ ४२ ॥
नारायण बोले-सनत्कुमार ने विद्वान् पुष्कराक्ष को महालक्ष्मी का कवच, दशाक्षर मन्त्र, गोप्य स्तव, उनका चरित, सामवेदोक्त ध्यान और मनोहर पूजा बतायी ॥ ४१-४२ ॥

दुर्गायाश्चापि कवचं दत्तं दुर्वासत्ता पुरा ।
स्तवनं चातिगोप्यं च मन्त्रश्चापि दशाक्षरः ॥ ४३ ॥
पूर्वकाल में दुर्गा का कवच दुर्वासा ने दिया था तथा गोप्य स्तवसमेत दशाक्षर मन्त्र भी बताया था ॥ ४३ ॥

पश्चाच्छ्रोष्यसि तत्सर्वं देव्याश्च परमाद्‌भुतम् ।
महायुद्धसमारम्भे दत्तं प्रार्थनया च यत् ॥ ४४ ॥
देवी का परम अद्भुत कवच आदि सब कुछ पश्चात् बताऊँगा, जो महायुद्ध के आरम्भ के समय प्रार्थना करने पर उन्होंने दिया था ॥ ४४ ॥

महालक्ष्म्याश्च मन्त्रं च शृणु तं कथयामिते ।
ॐ श्रीं कमलवासिन्यै स्वाहेति परमाद्‌भुतम् ॥ ४५ ॥
इस समय महालक्ष्मी का मंत्र तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो । 'ओं श्री कमलवासिन्यै स्वाहा' यह परमोत्तम मंत्र है ॥ ४५ ॥

ध्यानं च सामवेदोक्तं शृणु पूजाविधिं मुने ।
दत्तं तस्मै कुमारेण पुष्कराक्षाय धीमते ॥ ४६ ॥
हे मुने ! सामवेदोक्त ध्यान और पूजा-विधान, जो कुमार ने पुष्कराक्ष को दिया था, बता रहा हूँ, सुनो ॥ ४६ ॥

सहस्रदलपद्मस्थां पद्मनाभप्रियां सतीम् ।
पद्मालयां षद्मवक्त्रां पद्मपत्राभलोचनाम् ॥ ४७ ॥
पद्मषुष्पप्रिया पद्मपुष्पतल्पाधिशायिनीम् ।
पद्मिनीं पद्महस्तां च पद्ममालाविभूषिताम् ॥ ४८ ॥
पद्मभूषणभृषाढ्यां पद्मशोभाविवधिनीम् ।
पद्माटवीं प्रपश्यन्तीं सस्मितां तां भजे मुदा ॥ ४९ ॥
सहस्र दल वाले कमल पर स्थित, पद्मनाभ (विष्णु) की प्रेयसी, सती, कमलालया, कमलमुखी, कमलपत्र के समान नेत्र वाली, कमलपुष्पप्रिया, कमल पुष्प की शय्या पर शयन करने वाली, पद्मिनी, कमल हाथ में लिए, कमल की माला से सुशोभित, कमल के भूषणों से विभूषित, कमल की शोभा बढ़ाने वाली, कमल-वन को देखती हुई और मन्द-मन्द मुसुकाती उस लक्ष्मी की मैं सहर्ष सेवा कर रहा हूँ ॥ ४७-४९ ॥

चन्दनाष्टदले पद्मे पद्मपुष्पेण पूजयेत् ।
गणं संपूज्य दत्त्वा चैवोपचारांश्च षोडश ॥ ५ ० ॥
ततः स्तुत्वा च प्रणमेत्साधको भक्तिपूर्वकम् ।
कवचं श्रूयतां मह्मन्सर्वसारं वदामि ते ॥ ५१ ॥
चन्दन द्वारा अष्टदल कमल पर लिख कर कमलपुष्प से पूजन करे । गण की पूजा, सोलहों उपचार का समर्पण और स्तुति करके साधक को चाहिए कि भक्तिपूर्वक प्रणाम करे । हे ब्रह्मन् ! अब तुम्हें समस्त का सार-माग वह कवच बता रहा हूँ, सुनो ॥ ५०-५१ ॥

नारायण उवाच
शृणु विप्रेन्द्र पद्मायाः कवचं परमं शुभम् ।
पद्मनाभेन यद्‌दत्तं ब्रह्मणे नाभिपद्मके ॥ ५२ ॥
संप्राप्य कवचं ब्रह्मा तत्पद्मे ससृजे जगत् ।
पद्मालयाप्रसादेन सलक्ष्मीको बभूव सः ॥ ५३ ॥
नारायण बोले--हे विप्रेन्द्र ! पया (लक्ष्मी) का वह परम शुभ कवच, जिसे भगवान् पद्मनाभ ने अपने नाभिकमल में स्थित ब्रह्मा को प्रदान किया था, तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो । ब्रह्मा ने कवच प्राप्त कर उसी कमल पर सारे संसार की रचना आरम्भ की और कमलालया (लक्ष्मी) के प्रसाद से लक्ष्मीसम्पन्न भी हो गए ॥ ५२-५३ ॥

पद्मालयावरं प्राप्य पाद्मश्च जगतां प्रभुः ।
पाद्येन पद्मकल्पे च कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ ५४ ॥
दत्तं सनत्कुमाराय प्रियपुत्राय धीमते ।
कुमारेण च यद्‌दत्तं पुष्कराक्षाय नारद ॥ ५५ ॥
जगत् के स्वामी ब्रह्मा ने लक्ष्मी से वर प्राप्त करके पप्रकल्प में वह परम अद्भुत कवच अपने धीमान् प्रिय पुत्र सनत्कुमार को प्रदान किया था । हे नारद ! वही कवच सनत्कुमार ने पुष्कराक्ष को दिया है ॥ ५४-५५ ॥

यद्धृत्वा पठनाद्‌ब्रह्मा सर्वसिद्धेश्वरो महान् ।
परमैश्वर्यसंयुक्तः सर्वसंपत्समन्वितः ॥५६॥
जिसे धारण करने और पाठ करने से ब्रह्मा समस्त सिद्धों के महान् अधीश्वर, परम ऐश्वर्य सम्पन्न तथा समस्त सम्पत्ति से युक्त हुए ॥ ५६ ॥

यद्धृत्वा च धनाध्यक्षः कुबेरश्च धनाधिपः ।
स्वायंभुवो मनुः श्रीमान्यठनाद्धारणाद्यतः ॥५७॥
जिसे धारण कर कुबेर धनाध्यक्ष और धन के अधीश्वर हुए तथा धारण एवं पाठ करने से स्वायम्भुव मनु हुए ॥ ५७ ॥

प्रियव्रतोत्तानपादौ लक्ष्मीवन्तौ यतो मुने ।
पृथुः पृथ्वीपतिः सद्यो ह्यभवद्धारणाद्यतः ॥५८॥
हे मुने ! उसके धारण करने से प्रियव्रत और उत्तानपाद लक्ष्मीवान् तथा राजा पृथु तत्क्षण पृथ्वीपति हुए ॥ ५८ ॥

कवचस्य प्रसादेन स्वयं दक्षः प्रजापतिः ।
धर्मश्च कर्मणां साक्षी पाता यस्य प्रसादतः ॥५९॥
यद्धृत्वा दक्षिणे बाहौ विष्णुः क्षीरोदशायितः ।
भक्त्या विधत्ते कण्ठे च शेषो नारायणांशकः ॥६०॥
कवच के प्रसाद से दक्ष स्वयं प्रजापति हुए । उसके प्रसाद से धर्म कर्मों के साक्षी हुए, दाहिने बाहु में धारण करने से विष्णु क्षीरसागरशायी हुए और उसे नारायण के अंश से उत्पन्न शेष भक्तिपूर्वक कण्ठ में धारण किये हुए हैं ॥ ५९-६० ॥

यद्धृत्वा वामनं लेभे कश्यपश्च प्रजापतिः ।
सर्वदेवाधिपः श्रीमान्महेन्द्रो धारणाद्यतः ॥६१॥
उसे धारण कर कश्यप प्रजापति ने वामन को प्राप्त किया और महेन्द्र समस्त देवों के अधिप हुए ॥ ६१ ॥

राजा मरुत्तो भगवानभवद्धारणाद्यतः ।
त्रैलोक्याधिपतिः श्रीमान्नहुषो यस्य धारणात् ॥६२॥
उसे धारण कर राजा मरुत्त भगवान् हो गए, श्रीमान् राजा नहुष तीनों लोकों के अधीश्वर हुए ॥ ६२ ॥

विश्वं विजिग्ये खट्वाङ्‌गः पठनाद्धारणाद्यतः ।
मुचुकुन्दो यतः श्रीमान्मान्धातृतनयो महान् ॥६३॥
पढ़ने और धारण करने से राजा खट्वांग ने विश्व विजय किया और मान्धाता के पुत्र राजा भुचुकुन्द श्रीपति हुए ॥ ६३ ॥

सर्वसंपत्प्रदस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवी पद्मालया स्वयम् ॥६४॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ।
पुण्यबीजं च महतां कवचं परमाद्‌भुतम् ॥६५॥
समस्त-सम्पत्ति-प्रदायक इस कवच के प्रजापति ऋषि, बृहती छन्द, स्वयं पद्मालया देवी, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थ की प्राप्ति के लिए इसका विनियोग कहा गया है, यह कवच परम अद्भुत और महान् होने का एकमात्र पुण्य बीज है ॥ ६४-६५ ॥

ॐ ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
श्रीं मे पातु कपालं च लोचने श्रीं श्रियै नमः ॥६६॥
'ओं ह्रीं कमलवासिन्यै स्वाहा' मेरे मस्तक की रक्षा करे, 'श्रीं' मेरे कपाल की रक्षा करे 'श्रीं श्रियै नमः' दोनों नेत्रों की रक्षा करे ॥ ६६ ॥

ॐ श्रीं श्रियै स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदाऽवतु ।
ॐ श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा मे पातु नासिकाम् ॥६७॥
'ओं श्रीं श्रिय स्वाहा' सदा मेरे कानों की रक्षा करे । 'ओं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा' मेरी नासिका की रक्षा करे ॥ ६७ ॥

ॐ श्रीं पद्मालयायै च स्वाहा दन्तान्तदाऽवतु ।
ॐ श्रीं कृष्णप्रियायै च दन्तरन्ध्रं सदाऽवतु ॥६८॥
'भों श्रीं पद्मालयायै स्वाहा' सदा दाँतों की रक्षा करे । 'ओं श्री कृष्णप्रियायै' सदा दांतों के छिद्रों की रक्षा करे ॥ ६८ ॥

ॐ श्रीं नारायणेशायै मम कण्ठं सदाऽवतु ।
ॐ श्रीं केशवकान्तायै मम स्कन्धं सदाऽवतु ॥६९॥
'ओं श्री नारायणेशाय' मेरे कण्ठ की सदा रक्षा करे । 'ओं श्रीं केशवकान्तायै' सदा मेरे कन्धों की रक्षा करे ॥ ६९ ॥

ॐ श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं संसारमात्रे मम वक्षः सदाऽवतु ॥७०॥
'ओं श्रीं पद्मनिवासिन्यै स्वाहा' सदा नाभि की रक्षा करे, 'ओं ह्रीं श्रीं संसारमात्रे' सदा मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे ॥ ७० ॥

ॐ श्रीं मों कृष्णकान्तायै स्वाहा पृष्ठं सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा च मम हस्तौ सदाऽवतु ॥७१॥
'ओं श्री मों कृष्णकान्तायस्वाहा' सदा पृष्ठ की रक्षा करे, 'ओं ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा' मेरे हाथों की सदा रक्षा करे ॥ ७१ ॥

ॐ श्रीनिवासकान्तायै मम पादौ सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा सर्वाङ्‌गं मे सदाऽवतु ॥७२॥
'ओं श्रीनिवासकान्तायै' सदा मेरे चरणों की रक्षा करे । 'ओं ह्रीं श्रीं श्रियै स्वाहा' सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे ॥ ७२ ॥

प्राच्यां पातु महालक्ष्मीराग्नेय्यां कमलालया ।
पद्मा मां दक्षिणे पातु नैर्ऋत्यां श्रीहरिप्रिया ॥७३॥
पद्मालया पश्चिमे मां वायव्यां पातु सा स्वयम् ।
उत्तरे कमला पातु चैशान्यां सिन्धुकन्यका ॥७४॥
पूर्व दिशा में महालक्ष्मी, अग्निकोण में कमलालया, दक्षिण में पद्मा, नैऋत्य में श्रीहरिप्रिया, पश्-ि चम में पद्मालया, वायव्य में वह स्वयं, उत्तर में कमला और ईशान में सिन्धुकन्यका मेरी रक्षा करें ॥ ७३-७४ ॥

नारायणी च पातूर्ध्वमधो विष्णुप्रियाऽवतु ।
संततं सर्वतः पातु विष्णुप्राणाधिका मम ॥७५॥
ऊपर की ओर नारायणी रक्षा करें, नीचे विष्णुप्रिया और मेरे चारों ओर विष्णुप्राणाधिका निरन्तर रक्षा करें ॥ ७५ ॥

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
सर्वैश्वर्यप्रदं नाम कवचं परमाद्‌भतम् ॥७६॥
हे वत्स ! इस प्रकार मैंने तुम्हें सर्वैश्वर्यप्रद नामक कवच, जो समस्त मन्त्र-समुदाय का स्वरूप तथा परम अद्भुत है, बता दिया ॥ ७६ ॥

सुवर्णपर्वतं दत्त्वा मेरुतुल्यं द्विजातये ।
यत्फलं लभते धर्मी कवचेन ततोऽधिकम् ॥७७॥
मेरु के समान सुवर्ण का पर्वत ब्राह्मणों को दान करने से जो पुण्य फल प्राप्त होता है, उससे अधिक फल धर्मी को इस कवच द्वारा प्राप्त होता है ॥ ७७ ॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवत्कवचं धारयेत्तु यः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ स श्रीमान्प्रतिजन्मनि ॥७८॥
सविधि गुरु की पूजा करके जो इस कवच को कण्ठ या दाहिने बाहु में धारण करता है, वह प्रतिजन्म में श्रीमान् होता है ॥ ७८ ॥

अस्ति लक्ष्मीगृहे तस्य निश्चला शतपूरुषम् ।
देवेन्द्रैश्चासुरेन्द्रैश्च सोऽवध्यो निश्चितं भवेत् ॥७९॥
लक्ष्मी उसके घर सौपीढ़ी तक निश्चल निवास करती हैं और वह देवेन्द्रों एवं असुरराजों से निश्चित अवध्य रहता है ॥ ७९ ॥

स सर्वपुण्यवान्धीमान्सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ।
स स्नातः सर्वतीर्थेषु यस्येदं कवचं गले ॥८०॥
जिसके गले में यह कवच वर्तमान रहता है, वह समस्तपुण्यवान्, विद्वान्, समस्त यज्ञों में दीक्षित और समस्त तीर्थों में स्नान कर चुका हुआ होता है ॥ ८० ॥

यस्मै कस्मै न दातव्यं लोभमोहभयैरपि ।
गुरुभक्ताय शिष्याय शरण्याय प्रकाशयेत् ॥८१॥
अतः लोभ, मोह एवं भय वश भी इसे जिस किसी को न प्रदान करे, गुरुभक्त शिष्य को, जो शरण योग्य हो, बताये ॥ ८१ ॥

इदं कवचमज्ञात्वा जपेल्लक्ष्मीं जगत्प्रसूम् ।
कोटिसंख्यं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥८२॥
इस कवच को विना जाने जो जगज्जननी लक्ष्मी की आराधना करता है, उसके लिए करोड़ों की संख्या में जप किया जाने पर भी मंत्र सिद्धिप्रद नहीं होता है ॥ ८२ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे श्रीलक्ष्मीकवचवर्णनं
नामाष्टत्रिंशोऽध्यायः ॥३८॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में श्रीलक्ष्मी-कवच-वर्णन नामक अड़तीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ३८ ॥

GO TOP