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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः


दुर्गतिनाशिनीकवचम् -
दुर्गतिनाशिनी कवच वर्णन -


नारद उवाच
कवचं कथितं ब्रह्मन्पद्मायाश्च मनोहरम् ।
परं दुर्गतिनाशिन्याः कवचं कथय प्रभौ ॥ १॥
नारद बोले- हे ब्रह्मन् ! हे प्रभो ! पमा का मनोहर कवच आपने सुना दिया, अब परम दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का कवच कहने की कृपा करें ॥ १ ॥

पद्माक्षप्राणतुल्यं च जीवनं बलकारणम् ।
कवचानां च यत्सारं दुर्गासेवनकारणम् ॥२॥
जो राजा पद्माक्ष के प्राण के समान, जीवन और बल का कारण, समस्त कवचों का सारमाग और दुर्गा की आराधना का एकमात्र कारण है ॥ २ ॥

नारायण उवाच
शृणु नारद वक्ष्यामि दुर्गायाः कवचं शुभम् ।
श्रीकृष्णेनैव यद्‌दत्तं गोलोके ब्रह्मणे पुरा ॥३॥
नारायण बोले-हे नारद ! दुर्गा का शुभ कवच मैं तुम्हें बताऊँगा जिसे गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने पूर्व समय ब्रह्मा को प्रदान किया था ॥ ३ ॥

ब्रह्मा त्रिपुरसंग्रामे शंकराय ददौ पुरा ।
जघान त्रिपुरं रुद्रो यद्धृत्वा भक्तिपूर्वकम् ॥४॥
त्रिपुरासुर के संग्राम में ब्रह्मा ने शंकर को कवच दिया और जिसे भक्तिपूर्वक धारण कर रुद्र ने त्रिपुर का वध किया ॥ ४ ॥

हरो ददौ गौतमाय पद्माक्षाय च गौतमः ।
यतो बभूव पद्माक्षः सप्तद्वीपेश्वरो जयी ॥५ ॥
उपरान्त शिव ने गौतम को एवं गौतम ने पद्माक्ष को दिया । जिससे पद्माक्ष विजयी एवं सातों द्वीपों के अधीश्वर हुए हैं ॥ ५ ॥

यच्छ्रुत्वा पठनाद्‌ब्रह्मा ज्ञानवाञ्छक्तिमान्भुवि ।
शिवो बभूव सर्वज्ञो योगिनां च गुरुर्यतः ।
शिवतुल्यो गौतमश्च बभूव मुनिसत्तमः ॥६॥
जिसे धारण और पाठ करने से ब्रह्मा भूतल पर (सबसे अधिक) ज्ञानवान् और शक्तिमान् हुए, शिव सर्वज्ञाता एवं योगियों के गुरु हुए तथा मुनिश्रेष्ठ गौतम शिव के तुल्य हुए ॥ ६ ॥

ब्रह्माण्डविजयस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवी दुर्गतिनाशिनो ॥७॥
ब्रह्माण्डविजये चैव विनियोगः प्रकीर्तितः ।
पुण्यतीर्थं च महतां कवचं परमाद्‌भुतम् ॥८॥
ब्रह्माण्डविजय नामक इस कवच के प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द, दुर्गतिनाशिनी दुर्गा देवी और ब्रह्माण्ड के विजयार्थ इसका विनियोग कहा गया है । यह कवच परम अद्भुत एवं महान् लोगों का पुण्यतीर्थ है ॥ ७-८ ॥

ॐ ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
ॐ ह्रीं मे पातु कपालं चाप्यों ह्रीं श्रीं पातुलोचने ॥९॥
'ओं ह्रीं दुर्गतिनाशिन्यै स्वाहा' मेरे मस्तक की रक्षा करे, 'ओं ह्रीं' मेरे कपाल की करे और 'ओं ह्रीं श्रीं' दोनों नेत्रों की रक्षा करे ॥ ९ ॥

पातु मे कर्णयुग्मं चाप्यों दुर्गायै नमः सदा ।
ॐ ह्रीं श्रीमिति नासां मे सदा पातु च सर्वतः ॥ १०॥
' ओं दुर्गायै नमः' सदा मेरे कानों की और 'ओं ह्रीं श्रीं' सदा चारों ओर से मेरी नासिका की रक्षा करे ॥ १० ॥

ह्रीं श्रीं ह्रूमिति दन्तांश्चपातु क्लीमोष्ठयुग्मकम् ।
क्लीं क्लीं क्लीं पातु कण्ठं च दुर्गे रक्षतुगण्डके ॥ ११॥
'ह्रीं श्रीं हूं.' दाँतों की, 'क्ली' दोनों ओंठों की तथा 'क्लीं क्लीं क्लीं कण्ठ की और 'दुर्गे' कपोलों की रक्षा करे ॥ ११ ॥

स्कन्धं महाकालि दुर्गे स्वाहा पातु निरन्तरम् ।
वक्षो विपद्विनाशिन्यै स्वाहा मे पातु सर्वतः ॥ १२॥
'महाकालि दुर्गे स्वाहा' निरन्तर कन्धे की और 'विपद्विनाशिन्यै स्वाहा' वक्षःस्थल की चारों ओर से रक्षा करे ॥ १२ ॥

दुर्गे दुर्गे रक्ष पाश्वौ स्वाहा नाभिं सदाऽवतु ।
दुर्गे दुर्गे देहि रक्षां पृष्ठं मे पातु सर्वतः ॥ १३॥
'दुर्गे दुर्गे रक्ष' दोनों पाश्वों की और 'दुर्गे स्वाहा' सदा नाभि की रक्षा करे । 'दुर्गे दुर्ग देहि रक्षा' सब ओर से पीठ की रक्षा करे ॥ १३ ॥

ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च हस्तौ पादौ सदाऽवतु ।
ॐ ह्रीं दुर्गायै स्वाहा च सर्वाङ्‌गं मे सदाऽवतु ॥ १४॥
'ओं ह्रीं दुर्गायै स्वाहा' सदा हाथ और चरण की और 'ओं ह्रीं दुर्गाय स्वाहा' सदा मेरे सर्वांग की रक्षा करे ॥ १४ ॥

प्राच्यां पातु महामाया चाऽऽग्नेय्यां पातु कालिका ।
दक्षिणे दक्षकन्या च नैर्ऋत्यां शिवसुन्दरी ॥ १५॥
पश्चिमे पार्वती पातु वाराही वारुणे सदा ।
कुबेरमाता कौबेर्यामैशान्यामीश्वरी सदा ॥ १६॥
पूर्व की ओर महामाया, अग्निकोण में कालिका, दक्षिण में दक्षकन्या, नैऋर्त्य में शिवसुन्दरी, पश्चिम में पार्वती, वायव्य में वाराही, उत्तर में कुबेरमाता और ईशान में ईश्वरी सदा रक्षा करें ॥ १५-१६ ॥

ऊर्ध्वं नारायणी पातु त्वम्बिकाऽधः सदाऽवतु ।
ज्ञानं ज्ञानप्रदा पातु स्वप्ने निद्रा सदाऽवतु ॥ १७॥
ऊपर की ओर नारायणी, नीचे की ओर अम्बिका, ज्ञान की ज्ञानप्रदा तथा स्वप्न में निद्रा देवी सदा रक्षा करें ॥ १७ ॥

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
ब्रह्माण्डविजयं नाम कवचं परमाद्‌भुतम् ॥ १८॥
हे वत्स ! इस प्रकार मैंने परम अद्भुत और समस्त मन्त्रसमूहस्वरूप ब्रह्माण्डविजय नामक कवच तुम्हें बता दिया ॥ १८ ॥

सुस्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत्फलम् ।
सर्वव्रतोपवासे च तत्फलं लभते नरः ॥ १९॥
सभी तीर्थों में सविधि स्नान से, समस्त यज्ञों के अनुष्ठान से और समस्त व्रतों एवं उपवास करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल मनुष्य को इसके द्वारा प्राप्त होता है ॥ १९ ॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारक्तदनैः ।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ कवचं धारयेत्तु यः ॥२०॥
स च त्रैलोक्यविजयी सर्वशत्रुप्रमर्दकः ॥२१॥
इदं कवचमज्ञात्वा भजेद्‌दुर्गतिनाशिनीम् ।
शतलक्षं प्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥२२॥
जो अनेक माँति के वस्त्र, अलंकार और चन्दन द्वारा सविधि गुरु की अर्चा करके इसे कण्ठ या दाहिने बाहु में धारण करता है, वह तीनों लोकों का विजयी एवं समस्त शत्रुओं का मर्दक होता है । अतः इस कवच को बिना जाने जो दुर्गतिनाशिनी की सेवा करता है, उसका सौ लाख जप करने पर भी मंत्र सिद्धप्रद नहीं होता है ॥ २०-२२ ॥

कवचं कण्वशाखोक्तमुक्तं नारद सिद्धिदम् ।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं सदुर्लभम् ॥२३ ॥
हे नारद ! सिद्धिप्रद तथा काण्वशाखोक्त यह कवच, जो गोपनीय और अति दुर्लभ है, जिस किसी को नहीं देना चाहिए ॥ २३ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे दुर्गतिनाशिनीकवचं
नामैकोनचत्वारिंशोऽध्यायः ॥३९॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण के संवाद में दुर्गतिनाशिनी कवच-वर्णन नामक उन्तालीसवां अध्याय समाप्त ॥ ३९ ॥

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