Menus in CSS Css3Menu.com


ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - चत्वारिंशोऽध्यायः


भृगोः कैलासगमनोपदेशः -
भृगुको कैलासगमन उपदेश वर्णन -


नारायण उवाच
तं गृहीत्वा तदा विष्णौ वैकुण्ठं च गते सति ।
सपुत्रं च सहस्राक्षं जघान भृगुनन्दनः ॥ १॥
नारायण बोले-तब उसे लेकर विष्णु के वैकुण्ठ चले जाने पर भृगुनन्दन राम ने पुत्र समेत सहस्राक्ष का वध किया ॥ १ ॥

कृत्वा युद्धं तु सप्ताहं ब्रह्मास्त्रेण प्रयत्‍नतः ।
राजा कवचहीनोऽपि सपुत्रश्च पपात ह ॥२॥
कवचहीन होने पर भी राजा ब्रह्मास्त्र द्वारा सात दिन तक युद्ध कर सपुत्र समाप्त हो गया ॥ २ ॥

पतिते तु सहस्राक्षे कार्तवीर्यार्जुनः स्वयम् ।
आजगाम महावीरो द्विलक्षाक्षौहिणीयुतः ॥३॥
सहस्राक्ष के मर जाने पर महावीर कार्तवीर्यार्जुन स्वयं दो लाख अक्षौहिणी सेना समेत युद्ध के लिए आ गया ॥ ३ ॥

सुवर्णरथमारुह्य रत्‍नसारपरिच्छदम् ।
नानास्त्रं परितः कृत्वा तस्थौ समरमूर्धनि ॥४॥
वह सुवर्ण के रथ पर चढ़ कर, रत्नों के सारभाग से निर्मित पोशाक पहने हुए और अपने चारों ओर विविध अस्त्रों को सुरक्षित किये हुए रणभूमि में स्थित था ॥ ४ ॥

समरे तं परशुरामो राजेन्द्रं च ददर्श ह ।
रत्‍नालंकारभूषाढ्यै राजेन्द्राणां च कोटिभिः ॥५॥
रत्‍नातपत्रभूषाढचं रत्‍नालंकारभूषितम् ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्‌गं सस्मितं सुमनोहरम् ॥६॥
अनन्तर समरांगण में परशुराम ने उस राजेन्द्र को देखा, जो रत्नों के अलंकारों से विभूषित करोड़ों राजेंन्द्रों से युक्त, रत्नों के छत्र से समन्वित, रत्नों के आभूषणों से भूषित, सर्वांग में चन्दन लगाये, मुस्कराता हुआ और अत्यन्त मनोहर था ॥ ५-६ ॥

राजा दृष्ट्‍वा मुनीन्द्रं तमवरुह्य रथादहो ।
प्रणम्य रथमारुह्य तस्थौ नृपगणैः सह ॥७॥
उस समय राजा भी मुनीन्द्र राम को देखकर रथ से उतर पड़ा और उन्हें प्रणाम कर पुनः राजाओं समेत रथ पर बैठ गया ॥ ७ ॥

ददौ शुभाशिषं तस्मै रामश्च समयोचिताम् ।
प्रोवाच च गतार्थं तं स्वर्गं गच्छेति सानुगः ॥८॥
राम ने शुभाशिष देकर उससे समयोचित बात कही कि 'अनुचरों समेत अब स्वर्ग को प्रस्थान करो' ॥ ८ ॥

उभयोः सेनयोर्युद्धमभवत्तत्र नारद ।
पलायिता रामशिष्या भ्रातरश्च महाबलाः ।
क्षतविक्षतसर्वाङ्‌गाः कार्तवीर्यप्रपीडिताः ॥९॥
हे नारद ! अनन्तर दोनों सैनिकों में युद्ध आरम्भ हुआ, जिसमें राम के शिष्यगण और महाबली भ्रातृगण कार्तवीर्य से अतिपीड़ित एवं छिन्न-भिन्न सर्वांग होने पर रण से भाग निकले ॥ ९ ॥

नृपस्य शरजालेन रामः शस्त्रभृतां वरः ।
न ददर्श स्वसैन्यं च राजसैन्यं तथैव च ॥ १०॥
राजा के बाण-जाल से आच्छन्न होने के कारण राम अपनी सेना और राजा की सेनाओं को नहीं देख सके ॥ १० ॥

चिक्षेप रामश्चाऽऽग्नेयं बभूवाग्निनमयं रणे ।
निर्वापयामास राजा वारुणेनैव लीलया ॥ ११॥
पश्चात् राम ने समर में आग्नेय बाण का प्रयोग किया जिससे सब कुछ अग्निमय हो गया । राजा ने वारुण बाण द्वारा उसे लीला पूर्वक भांति शान्त कर दिया ॥ ११ ॥

चिक्षेप रामो गान्धर्वं शैलसर्पसमन्वितम् ।
वायव्येन महाराजः प्रेरयामास लीलया ॥ १२॥
राम ने पर्वत-सर्पयुक्त गान्धर्व अस्त्र का प्रयोग किया, जिसे महाराज ने वायव्य बाण द्वारा समाप्त कर दिया ॥ १२ ॥

चिक्षेप रामो नागास्त्रं दुर्निवार्यं भयंकरम् ।
गारुडेन महाराजः प्रेरयामास लीलया ॥ १३॥
राम ने अनिवार्य एवं भयंकर नागास्त्र का प्रयोग किया, जिसे महाराज ने गारुड़ अस्त्र द्वारा बिना यत्न के नष्ट कर दिया ॥ १३ ॥

माहेश्वरं च भगवांश्चिक्षेप भृगुनन्दनः ।
निर्वापयामास राजा वैष्णवास्त्रेण लीलया ॥ १४॥
मृगुनन्दन भगवान् राम ने माहेश्वर अस्त्र का प्रयोग किया, जिसे राजा ने वैष्णव अस्त्र द्वारा लीला पूर्वक समाप्त कर दिया ॥ १४ ॥

ब्रह्मास्त्रं चिक्षिपे रामो नृपनाशाय नारद ।
ब्रह्मास्त्रेण च शान्तं तत्प्राणनिर्वापणं रणे ॥ १५॥
हे नारद ! अनन्तर राम ने राजा के बिनाशार्थ ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, राजा ने भी ब्रह्मास्त्र द्वारा उस प्राणनाशक को युद्ध में शान्त कर दिया ॥ १५ ॥

दत्तदत्तं च यच्छूलमव्यर्थं मन्त्रपूर्वकम् ।
जग्राह राजा परशुरामनाशाय संयुगे ॥ १६॥
राजा ने उस रण में परशुराम के वधार्थ दत्तात्रेय-प्रदत्त शूल का मंत्र-पूर्वक उपयोग किया, जो कभी भी व्यर्थ न होने वाला था ॥ १६ ॥

शूलं ददर्श रामश्च शतसूर्यसमप्रभम् ।
प्रलयाग्निशिखोद्रिक्तं दुर्निवार्यं सुरैरपि ॥ १७॥
राम ने सैकड़ों सूर्य के समान कान्ति-पूर्ण, प्रलयकालीन अग्निशिखा से बढ़ा-चढ़ा और देवों के लिए भी दुनिवार उस शूल को देखा ॥ १७ ॥

पपात शूलं समरे रामस्योपरि नारद ।
मूर्च्छामवाप स भृगुः पपात च हरिं स्मरन् ॥ १८॥
हे नारद ! राम के ऊपर वह शूल गिरा, जिससे भगवान् का स्मरण करते हुए भृगु मूच्छित हो गये ॥ १८ ॥

पतिते तु तदा रामे सर्वे देवा भयाकुलाः ।
आजग्मुः समरं तत्र ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥ १९॥
राम के गिर जाने पर समस्त देवगण भयाकुल हो गये, उस समय युद्ध में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर भी आ गये ॥ १९ ॥

शंकरश्च महाज्ञानी महाज्ञानेन लीलया ।
ब्राह्मणं जीवयामास तूर्णं नारायणाज्ञया ॥२०॥
नारायण की आज्ञा से महाज्ञानी शिव ने अपने महाज्ञान द्वारा लीला पूर्वक शीघ्र ब्राह्मण को जीवित कर दिया ॥ २० ॥

भृगुश्च चेतनां प्राप्य ददर्श पुरतः सुरान् ।
प्रणनाम परं भक्त्या लज्जानम्रात्मकधरः ॥२१॥
चेतना प्राप्त होने पर भृगु ने अपने सामने स्थित देवों को देखा और लज्जा से कन्धे को झुकाकर भक्तिपूर्वक सभी को प्रणाम किया ॥ २१ ॥

राजा दृष्ट्‍वा सुरेशांश्च भक्तिनम्रात्मकधरः ।
प्रणम्य शिरसा मूर्ध्ना तुष्टाव च सुरेश्वरान् ॥२२॥
राजा ने भी वहाँ देवों को देखकर भक्ति से कन्धे झुकाये शिर से सबको प्रणाम किया और देवेश्वरों की स्तुति की ॥ २२ ॥

तत्राऽऽजगाम भगवान्दत्तात्रेयो रणस्थलम् ।
शिष्यरक्षानिमित्तेन कृपालुर्भक्तवत्सलः ॥२३॥
इसी बीच वहाँ रणभूमि में अपने शिष्य के रक्षार्थ कृपालु एवं भक्तवत्सल भगवान् दत्तात्रेय आ गये ॥ २३ ॥

भृगुः पाशुपतास्त्रं च सोऽग्रहीत्कोपसंयुतः ।
दत्तदत्तेन दृष्टेन बभूव स्तम्भितो भृगुः ॥२४॥
अनन्तर राम ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर पाशुपत अस्त्र का ग्रहण किया, किन्तु उसी क्षण दत्तात्रेय के दृष्टिपात द्वारा मृगु स्तम्भित हो गये ॥ २४ ॥

ददर्श स्तम्भितो रामो राजानं रणमूर्धनि ।
नानापार्षदयुक्तेन कृष्णेनाऽऽरक्षितं रणे ॥२५ ॥
स्तम्भित होने पर भी राम ने रण में राजा को देखा, जो रणभूमि में अनेक पार्षदों समेत भगवान् कृष्ण से सुरक्षित था ॥ २५ ॥

सुदर्शनं प्रज्वलन्तं भ्रमणं कुर्वता सदा ।
सस्मितेन स्तुतेनैव ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ॥२६॥
प्रज्वलित सुदर्शनचक्र घुमाकर कृष्ण सदा उसकी रक्षा कर रहे थे और ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर मुसकराते हुए कृष्ण की स्तुति कर रहे थे ॥ २६ ॥

गोपालशतयुक्तेन गोपवेषविधारिणा ।
नवीजलदाभेन वंशीहस्तेन गायता ॥२७॥
सैकड़ों लिये गोपों से युक्त, गोपवेष धारण करने वाले, नवीन मेघ के समान कान्ति वाले और हाथ में मुरली लिये हुए श्रीकृष्ण गायन कर रहे थे ॥ २७ ॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र वाग्बभूवाशरीरिणी ।
दत्तेन दत्तं कवचं कृष्णस्य परमात्मनः ॥२८॥
राज्ञोऽस्ति दक्षिणे बाहौ सद्‌रत्‍नगुटिकान्वितम् ।
गृहीतकवचे शंभौ भिक्षया योगिनां गुरौ ॥२९॥
तदा हन्तुं नृपं शक्तो भृगुश्चेति च नारद ।
श्रुत्वाऽशरीरिणीं वाणीं शंकरो द्विजरूपधृक् ॥३०॥
भिक्षां कृत्वा तु कवचमानीय च नृपस्य च ।
शंभुना भृगवे दत्तं कृष्णस्य कवचं च यत् ॥३१॥
इसी बीच वहाँ आकाशवाणी हुई कि दत्तात्रेय द्वारा परमात्मा कृष्ण का कवच राजा को प्राप्त है, जिसे उसने उत्तम रत्न की गुटिका (तावीज) में रखकर अपने दाहिने बाहु में धारण कर रखा है, अतः योगियों के गुरु शिव भिक्षा द्वारा उसे ग्रहण करें, तब राजा को मारने में भृगु समर्थ होंगे । हे नारद ! इस आकाशवाणी को सुनकर शिव ने ब्राह्मण का वेष बनाया और राजा से वह कृष्ण का कवच मांगकर भृगु को दे दिया ॥ २८-३१ ॥

एतस्मिन्नन्तरे देवा जग्मुः स्वस्थानमुत्तमम् ।
प्रत्युवाचापि परशुरामो वै समरे नृपम् ॥३२॥
अनन्तर देवगण अपने-अपने स्थान पर चले गये और राम ने रण में पुनः राजा से कहा ॥ ३२ ॥

परशुराम उवाच
राजेन्द्रोत्तिष्ठ समरं कुरु साहसपूर्वकम् ।
कालभेदे जयो नृणां कालभेदे पराजयः ॥३३॥
परशुराम बोले-हे राजेन्द्र ! उठो, साहसपूर्वक युद्ध करो । समय के भेद से मनुष्यों का जय और पराजय हुआ करता है ॥ ३३ ॥

अधीतं विधिवद्‌दत्तं कृत्स्ना पृथ्वी सुशासिता ।
सम्यक्कृतश्चसंग्रामो त्वयाहं मूर्च्छितोऽधुना ॥३४॥
क्योंकि मैंने विधिवत् अध्ययन कर शिष्यों को अध्ययन कराया, समस्त पृथिवी पर सुशासन किया और अच्छे ढंग से युद्ध किया, किन्तु तुम्हारे द्वारा मूच्छित हो गया ॥ ३४ ॥

जिताः सर्वे च राजेन्द्रा लीलया रावणो जितः ।
जितोऽहं दत्तशूलेन शंभुना जीवितः पुनः ॥३५॥
लीला से समस्त राजाओं समेत रावण को जीता, पर दत्तके शूल से मैं भी पराजित हो गया । फिर शिव ने आकर मुझे जीवित कर दिया ॥ ३५ ॥

रामस्य वचनं श्रुत्वा राजा परमधार्मिकः ।
मूर्ध्ना प्रणम्य तं भक्त्या यथार्थोक्तिमुवाच ह ॥३६॥
राम की ऐसी बातें सुनकर परम धार्मिक राजा ने भक्तिपूर्वक शिर से उन्हें प्रणाम किया और यथार्थ वचन कहना आरम्भ किया ॥ ३६ ॥

राजोवाच
किमधीतं तथा दत्तं का वा पृथ्वी सुशासिता ।
हताः कतिविधा भूपा मादृशा धरणीतले ॥३७॥
राजा बोला--आपने क्या अध्ययन किया, क्या दिया, किस पृथ्वी पर सुशासन किया और भूतल पर मेरे समान कितने राजा (आपके द्वारा) निहत हुए? ॥ ३७ ॥

बुद्धिस्तेजो विक्रमश्च विविधा रणमन्त्रणा ।
श्रीरैश्वर्यं तथा ज्ञानं दानशक्तिश्च लौकिकम् ॥३८॥
आचारो विनयो विद्या प्रतिष्ठा परमं तपः ।
सर्वं मनोरमासङ्‌गे गतमेव मम प्रभो ॥३९॥
हे प्रभो ! हमारी बुद्धि, तेज, विक्रम, विविध प्रकार की युद्ध-मन्त्रणा (सलाह), श्री, ऐश्वर्य, ज्ञान, दानशक्ति, लौकिक यश, आचार, विनय, विद्या, प्रतिष्ठा, परम तप आदि सब कुछ मेरा मनोरमा के साथ चला गया ॥ ३८-३९ ॥

सा च स्त्री प्राणतुल्या मे साध्वी पद्मांशसंभवा ।
यज्ञेषु पत्‍नी मातेव स्नेहे क्रीडति सङ्‌गिनी ॥४०॥
आबाल्यात्सङ्‌गिनो शश्वच्छयने भोजने रणे ।
तां विना प्राणहीनोऽहं विषहीनो यथोरगः ॥४१॥
वह मेरी पत्नी प्राण के समान, पतिव्रता और कमला के अंश से उत्पन्न थी । यज्ञों में पत्नी, स्नेह करने में माता की भांति और क्रीड़ा के समय संगिनी (साथी) थी, शयन, भोजन और युद्ध में बाल्यकाल से साथ रहती थी, अतः उसके बिना मैं विषहीन साँप की भाँति प्राणहीन हो गया हूँ ॥ ४०-४१ ॥

त्वया न दृष्टं युद्धं मे पुरेयं शोचना स्थिता ।
द्वितीया शोचना विप्र हतोऽहं ब्राह्मणेन च ॥४२॥
हे विप्र ! आपने मेरा युद्ध पहले कभी नहीं देखा था । मुझे पहला यही शोक है, दूसरा शोक यह है कि मैं ब्राह्मण द्वारा निहत हो रहा हूँ ॥ ४२ ॥

काले सिंहः सृगालं च सृगालः सिंहमेव च ।
काले व्याघ्रं हन्ति मृगो गजेन्द्रं हरिणस्तथा ॥४३॥
यद्यपि समयानुसार सिंह स्यार को मारता है, और स्यार सिंह को । समय पर मृग बाघ को मारता है और हरिण गजराज को ॥ ४३ ॥

महिषं मक्षिका काले गरुडं च तथोरगः ।
किंकरः स्तौति राजेन्द्रं काले राजा च किंकरम् ॥४४॥
काल में ही मक्खी महिष (मैसे) को मारती है, और उसी प्रकार सर्प गरुड़ को । सेवक राजा की स्तुति करता है और समय आने पर राजा सेवक की प्रार्थना करता है ॥ ४४ ॥

इन्द्रं च मानवः काले काले ब्रह्मा मरिष्यति ।
तिरो भूत्वा सा प्रकृतिः काले श्रीकृष्णविग्रहे ॥४५॥
काल आने पर मानव इन्द्र को मार देता है एवं काल के आने पर ब्रह्मा भी मर जायंगे । काल आने पर प्रकृति भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर में विलीन हो जाती है ॥ ४५ ॥

मरिष्यन्ति सुराः सर्वे त्रिलोकस्थाश्चराचराः ।
सर्वे काले लयं यान्ति कालो हि दुरतिक्रमः ॥४६॥
सभी देवगण मर जायंगे और तीनों लोकों के चर-अचर समेत समस्त जगत् काल में विलीन हो जाता है, अतः काल ही दुनिवार है ॥ ४६ ॥

कालस्य कालः श्रीकृष्णः स्रष्टुः स्रष्टा यथेच्छया ।
संहर्ता चैव संहर्तुः पातुः पाता परात्परः ॥४७॥
परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण स्वेच्छा से काल के भी काल, स्रष्टा के स्रष्टा, संहर्ता के संहारक और रक्षक के रक्षक एवं परात्पर हैं ॥ ४७ ॥

महास्थूलात्स्थूलतमः सूक्ष्मात्सूक्ष्मतमः कृशः ।
परमाणुपरः कालकालः स्यात्कालभेदकः ॥४८॥
महास्थूल से स्थूलतम, सूक्ष्म से सूक्ष्मतम, कृश (दुर्बल), परमाणु से भी परे, काल के काल और कालभेद करने वाले हैं ॥ ४८ ॥

यस्य लोमानि विश्वानि स पुमांश्च महाविराट् ।
तेजसां षोडशांशश्च कृष्णस्य परमात्मनः ॥४९॥
उनके लोमों में असंख्य विश्व हैं और महाविराट् पुरुष परमात्मा श्रीकृष्ण के तेज का सोलहवाँ अंशरूप है ॥ ४९ ॥

ततः क्षुद्रविराड्जातः सर्वेषां कारणं परम् ।
यः स्रष्टा च स्वयं ब्रह्मा यन्नाभिकमलोद्‌भवः ॥५०॥
नाभेः कमलदण्डस्य योऽन्तं न प्राप यत्‍नतः ।
भमणाल्लक्षवषं च ततः स्वस्थानसंस्थितः ॥५१॥
उनसे शुद्ध विराट की उत्पत्ति हुई, जो समस्त के परम कारण हैं । स्वयं ब्रह्मा, जो सृष्टि करने वाले हैं, उनके नाभिकमल से उत्पन्न हुए हैं, किन्तु प्रयास करने पर भी ब्रह्मा उस कमलदण्ड का अन्त नहीं पा सके । एक लाख वर्ष तक उसकी खोज में भ्रमण कर पुनः अपने स्थान पर स्थित हो गये ॥ ५०-५१ ॥

तपश्चक्रे ततस्तत्र लक्षवर्षं य वायुभुक् ।
ततो ददर्श गोलोकं श्रीकृष्णं च सपार्षदम् ॥५२॥
अनन्तर वायुभक्षण करते हुए एक लाख वर्ष तक तप करने पर उन्हें पार्षद समेत भगवान् श्रीकृष्ण और गोलोक का दर्शन प्राप्त हुआ ॥ ५२ ॥

गोपगोपीपरिवृतं द्विभुजं मुरलीधरम् ।
रत्‍नसिंहासनस्थं च राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥५३॥
दृष्ट्‍वाऽनुज्ञां गृहीत्वा च प्रणम्य च पुनः पुनः ।
ईश्वरेच्छां च विज्ञाय स्रष्टुं सृष्टिं मनो दधे ॥५४॥
तब ब्रह्मा ने गोप-गोपियों से घिरे, दो भुजाओं वाले, अधर पर मुरली रखे, रत्नसिंहासन पर अवस्थित और राधा के वक्षःस्थल पर विराजमान कृष्ण को देखकर उन्हें बार-बार प्रणाम किया और उनकी आज्ञा लेक, ईश्वर की इच्छा जानते हुए सृष्टि सर्जन करने का मन में निश्चय किया ॥ ५३-५४ ॥

यः शिवः सृष्टिसंहर्ता स च स्रष्टुर्ललाटजः ।
विष्णुः पाता क्षुद्रविराट्श्वेतद्वीपनिवासकृत् ॥५५॥
जो शिव सृष्टि का संहार करते हैं वे स्रष्टा (ब्रह्मा) के माल से उत्पन्न हुए हैं और श्वेतद्वीपनिवासी रक्षक विष्णु क्षुद्र विराट् कहे जाते हैं ॥ ५५ ॥

सृष्टिकारणभूताश्च ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
सन्ति विश्वेषु सर्वेषु श्रीकृष्णस्य कलोद्‌भवाः ॥५६॥
भगवान् श्रीकृष्ण की कला से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर सभी विश्वों में सृष्टि के कारण रूप हैं ॥ ५६ ॥

तेऽपि देवाः प्राकृतिकाः प्राकृतश्च महाविराट् ।
सर्वप्रसूतिः प्रकृतिः श्रीकृष्णः प्रकृतेः परः ॥५७॥
न शक्तः परमेशोऽपि तां शक्तिं प्रकृतिं विना ।
सृष्टिं विधातुं मायेशो न सृष्टिर्माययाविना ॥५८॥
समस्त देवगण भी प्राकृत (प्रकृति जन्य) हैं और महाविराट भी प्रकृति से उत्पन्न हैं प्रकृति सबकी जननी है और भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति से परे हैं । परमेश्वर भी बिना प्रकृति-शक्ति के सृष्टि करने में समर्थ नहीं हैं । वे मायाधीश्वर हैं बिना माया के सृष्टि सम्भव नहीं होती है ॥ ५७-५८ ॥

सा च कृष्णे तिरो भूत्वा सृष्टिसंहारकारके ।
साऽऽविर्भूता सृष्टिकाले सा च नित्या महेश्वरी ॥५९॥
सृष्टि-संहार करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण में वह प्रकृति (महाप्रलय में) तिरोहित हो जाती है और सृष्टि के अवसर पर पुनः प्रकट होती है । वह महेश्वरी प्रकृति नित्य है ॥ ५९ ॥

कुलालश्च घटं कर्तुं यथाऽशक्तो मृदं विना ।
स्वर्णं विना स्वर्णकारः कुण्डलं कर्तुमक्षमः ॥६०॥
जिस प्रकार बिना मिट्टी के कुम्हार घड़ा बनाने में और सोनार सुवर्ण विना कुण्डल बनाने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार माया के बिना सृष्टि असम्भव है ॥ ६० ॥

सा च शक्तिः सृष्टिकाले पञ्चधा चेश्वरेच्छया ।
राधा पद्मा च सावित्री दुर्गादेवी सरस्वती ॥६१॥
शक्ति रूप वह प्रकृति सृष्टि के समय ईश्वर की इच्छा से अपने को-राधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा और सरस्वती देवी, इनपांच रूपों में विभक्त करती है ॥ ६१ ॥

प्राणाधिष्ठातृदेवी या कृष्णस्य परमात्मनः ।
प्राणाधिकप्रियतमा सा राधा परिकीर्तिता ॥६२॥
परमात्मा श्रीकृष्ण के प्राणों की अविष्ठात्री देवी एवं तथा उनके प्राणों से भी अधिक प्रियतमा होने के नाते उसे 'राधा' कहा जाता है ॥ ६२ ॥

ऐश्वर्याधिष्ठातृदेवो सर्वमङ्‌गःलकारिणी ।
परमानन्दरूपा च सा लक्ष्मीः परिकीर्तिता ॥६३॥
ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री देवी एवं सम्पूर्ण मंगल करने वाली उस परमानन्द रूपा को 'लक्ष्मी' कहा गया है ॥ ६३ ॥

विद्याधिष्ठातृदेवी या परमेशस्य दुर्लभा ।
या माता वेदशास्त्राणां सा सावित्री प्रकीर्तिता ॥६४॥
जो परमेश्वर की दुर्लभा शक्ति विद्या की अधिष्ठात्री देवी तथा वेदशास्त्रों की जननी है, उसे 'सावित्री' कहा गया है ॥ ६४ ॥

बुद्ध्यधिष्ठातृदेवी या सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
सर्वज्ञानात्मिका सर्वा सा दुर्गा दुर्गनाशिनी ॥६५॥
बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी, समस्त शक्तिस्वरूपिणी, समस्त ज्ञानस्वरूपा, सर्वरूपा और दुर्गतिनाशिनी देवी को 'दुर्गा' कहा जाता है ॥ ६५ ॥

वागधिष्ठातृदेवी या शास्त्रज्ञानप्रदा सदा ।
कृष्णकण्ठोद्‌भवा सा स्याद्या च देवी सरस्वती ॥६६॥
वाणी की अधिष्ठात्री देवी को, जो सदा शास्त्र-ज्ञान प्रदान करती है और भगवान् श्रीकृष्ण के कण्ठ से उत्पन्न है, 'सरस्वती देवी' कहते हैं ॥ ६६ ॥

पञ्चधाऽऽदौ स्वयं देवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।
ततः सृष्टिक्रमेणैव बहुधा कलया च सा ॥६७॥
वह ईश्वरी मूलप्रकृति आदि में स्वयं पांच रूपों में प्रकट होती है और अनन्तर सृष्टि-क्रम से अपनी कला द्वारा बहुत रूपों में हो जाती है ॥ ६७ ॥

योषितः प्रकृतेरंशाः पुमांसः पुरुषस्य च ।
मायया सृष्टिकाले च तद्विना न भवेद्‌भवः ॥६८॥
अतः विश्व की समस्त स्त्रियाँ प्रकृति के अंश से और पुरुष (पुरुषोत्तम) के अंश से उत्पन्न हैं, क्योंकि सृष्टिकाल में बिना माया के जन्म सम्भव नहीं होता है ॥ ६८ ॥

सृष्टिश्च प्रतिविश्वेषु ब्रह्मन्मह्मोद्‌भवा सदा ।
पाता विष्णुश्च संहर्ता शिवः शश्वच्छिवप्रदः ॥६९॥
हे ब्रह्मन् ! प्रत्येक विश्व में सृष्टि का सर्जन ब्रह्मा ही करते हैं, सदा पालन विष्णु करते हैं और निरन्तर शिव (कल्याण) प्रद शिव संहार करते हैं ॥ ६९ ॥

दत्तदत्तं ज्ञानमिदं राम मह्यं च पुष्करे ।
दीक्षाकाले च माघ्यां च मुनिप्रवरसंनिधौ ॥७०॥
हे राम ! यह ज्ञान दत्तात्रेय ने मुझे पुकर क्षेत्र में माघी पूर्णिमा के दिन मुनिश्रेष्ठ के समीप प्रदान किया था ॥ ७० ॥

इत्युक्त्वा कार्तवीर्यश्च रामं नत्वा च सस्मितः ।
आरुरोह रथं शीघ्रं गृहीत्वा सशरं धनुः ॥७१॥
राम से इतना कह कर कार्तवीर्य ने राम को नमस्कार किया और धनुष बाण लेकर शीघ्र रथ पर बैठ गया ॥ ७१ ॥

रामस्ततो राजसैन्यं ब्रह्मास्त्रेण जघान ह ।
नृपं पाशुपतेनैव लीलया श्रीहरिं स्मरन् ॥७२॥
अनन्तर राम ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर राजसेनाओं का विनाश किया और श्रीहरि का स्मरण करते हुए लीला पूर्वक राजा को पाशुपत अस्त्र द्वारा मार डाला ॥ ७२ ॥

एवं त्रिःसप्तकृत्वश्च क्रमेण च वसुंधराम् ।
रामश्चकार निर्भूपां लीलया च शिवं स्मरन् ॥७३॥
इस भौति राम ने शिव के स्मरणपूर्वक क्रमशः इस पृथ्वी को लीलापूर्वक इक्कीस बार भूपविहीन किया ॥ ७३ ॥

गर्भस्थं मातुरङ्‌कस्थं शिशुं वृद्धं च मध्यमम् ।
जघान क्षत्रियं रामः प्रतिज्ञापालनाय वै ॥७४॥
राम ने अपनी प्रतिज्ञा के रक्षणार्थ माता के गर्भ एवं गोद में स्थित शिशुओं, वृद्धों एवं युवा क्षत्रियों का विनाश किया । ॥ ७४ ॥

कार्तवीर्यश्च गोलोकं त्वगमत्कृष्णसंनिधिम् ।
जगाम परशुरामश्च स्वालयं श्रीहरिं स्मरन् ॥७५॥
निधन होने पर कार्तवीर्य्य गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण के समीप चला गया और परशुराम भी प्रसन्न होकर श्री हरि का स्मरण करते हुए वहाँ से चले गये ॥ ७५ ॥

त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां महीं दृष्ट्‍वा महेश्वरः ।
पर्शुना रमणं दृष्ट्‍वा परशुरामं चकार तम् ॥७६॥
महेश्वर ने इक्कीस बार पृथ्वी को निःक्षत्रिय करते तथा पशु (फरसे) से ही रमण करते देखकर 'परशुराम' उनका नामकरण किया ॥ ७६ ॥

देवाश्च मुनयो देव्यः सिद्धगन्धर्वकिन्नराः ।
सर्वे चक्रुः पुष्पवृष्टिं राममूर्ध्नि च नारद ॥७७॥
हे नारद ! देवगण, मुनिवृन्द, देवियों एवं सिद्धों, गन्धर्वो और किन्नर गणों ने राम के शिर पर पुष्पों की वर्षा की ॥ ७७ ॥

स्वर्गे दुन्दुभयो नेदुर्हर्षशब्दो बभूव ह ।
यशसा चैव परशुरामस्याऽपूरितं जगत् ॥ ७८ ॥
स्वर्ग में दुन्दुभी बजने लगी , देवों ने महान् हर्ष प्रकट किया । परशुराम के यश से समस्त जगत् आच्छन्न हो गया ॥ ७८ ॥

ब्रह्मा भृगुश्च शुक्रश्च वाल्मीकिश्च्यवनस्तथा ।
जमदग्निर्ब्रह्मलोकादाजगाम प्रहर्षितः ॥७९॥
पश्चात् ब्रह्मा, भूग, शुक्र, वाल्मीकि, च्यवन और जमदग्नि अत्यन्त हर्षित होकर ब्रह्मलोक से वहाँ आये ॥ ७९ ॥

पुलकाञ्चितसर्वाङ्‌गाः सानन्दाश्रुसमन्विताः ।
दूर्वापुष्पकराः सर्वे कुर्वन्तो मङ्‌गलाशिषः ॥८०॥
सभी लोग रोमाञ्चित शरीर एवं आनन्द के आँसू से युक्त थे, दूर्वा और पुष्प हाथ में लिए मंगल आशीर्वाद दे रहे थे ॥ ८० ॥

प्रणनाम च तान्‌रामो दण्डवत्पतितो भुवि ।
क्रोडे चकार ब्रह्माऽऽदौ क्रमात्तातेति संवदन् ॥८१॥
उन्हें देखकर राम ने भूमि में लेट कर दण्डवत् प्रणाम किया । पहले ब्रह्मा ने गोद में लिया, फिर हे तात ! कह कर हर्ष प्रकट किया ॥ ८१ ॥

तमुवाचाथ परशुरामं ब्रह्मा जगद्‌गुरुः ।
वेदसारं नोतियुतं परिणामसुखावहम् ॥८२॥
जगद्गुरु ब्रह्मा ने परशुराम से वेद का सारभाग, नीतिपूर्ण एवं परिणाम में सुखदायक वचन कहा ॥ ८२ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु राम प्रवक्ष्यामि सर्वसंपत्करं परम् ।
काण्वशाखोक्तवचनं सत्यं वै सर्वसंमतम् ॥८३॥
पूज्यानामेव सर्वेषामिष्टः पूज्यतमः परः ।
जनको जन्मदानाच्च पालनाच्च पिता स्मृतः ॥८४॥
ब्रह्मा बोले- हे राम ! मैं तुम्हें समस्तसम्पत्तिप्रद,श्रेष्ठ, सत्य और सर्वसम्मत काण्वशाखा का वचन बता रहा हूँ, सुनो । सभी पूज्य गणों में इष्टदेव परम पूज्य होता है । (कोई) जन्म देने के कारण जनक और पालन करने के नाते पिता कहलाता है ॥ ८३-८४ ॥

गरीयाञ्जन्मदातुश्च सोऽन्नदाता पिता मुने ।
विनाऽन्नं नश्वरो देहो न नित्यं पितुरुद्‌भवः ॥८५॥
है मुने ! उस जन्मदाता से अन्नदाता पिता श्रेष्ठ होता है क्योंकि बिना अन्न के देह नष्ट हो जाती है और पिता से उत्पन्न होना नित्य नहीं है ॥ ८५ ॥

तयोः शतगुणं माता पूज्या मान्या च वन्दिता ।
गर्भधारणपोषाभ्यां सैव प्रोक्ता गरीयसी ॥८६॥
उन दोनों में माता सौ गुनी अधिक पूज्या, मान्या एवं वन्दिता होती है । गर्भ धारण तथा पोषण करने के नाते वह श्रेल कही गयी है ॥ ८६ ॥

तेभ्यः शतगुणं पूज्योऽभीष्टदेवः श्रुतौ श्रुतः ।
ज्ञानविद्यामन्त्रदाताऽभीष्टदेवात्परो गुरुः ॥८७॥
इन लोगों से सौ गुना अधिक अभीष्ट देव पूज्य है, ऐसा वेद में सुना गया है । ज्ञान, विद्या और मन्त्र देने वाला गुरु अभीष्टदेव से भी श्रेष्ठ है ॥ ८७ ॥

गुरुवद्‌गुरुपुत्रश्च गुरुपत्‍नी ततोऽधिका ।
देवे रुष्टे गुरू रक्षेद् गुरौ रुष्टे न कश्चन ॥८८॥
गुरुवत् गुरुपुत्र भी सम्माननीय होता है और गुरुपत्नी उससे भी अधिक । क्योंकि देवता के रुष्ट होने पर गुरु रक्षक होता है और गुरु के रुष्ट होने पर कोई नहीं ॥ ८८ ॥

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः, ।
गुरुरेव परं ब्रह्म ब्राह्मणेभ्यः प्रियः परः ॥८९॥
गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु और गुरु महेश्वर देव हैं, गुरु ही परब्रह्म तथा ब्राह्मण से भी अधिक प्रिय हैं ॥ ८९ ॥

गुरुर्ज्ञान ददात्येव ज्ञानं च हरिभक्तिदम् ।
हरिभक्तिप्रदाता यः को वा बन्धुस्ततः परः ॥९०॥
गुरु ज्ञान प्रदान करते हैं, जिससे हरि की भक्ति प्राप्त होती है । फिर जो भगवान् की भक्ति प्रदान करता है उससे बढ़कर दूसग कौन बन्धु हो सकता है? ॥ ९० ॥

अज्ञानतिमिराच्छन्नो ज्ञानदीप यतो लभेत् ।
लब्ध्वा च निर्मलं पश्येत्को वा बन्धुस्ततः परः ॥९१॥
अज्ञान रूपी अन्धकार से आच्छन्न प्राणी जिसके द्वारा ज्ञानरूपी दीपक प्राप्त करता है और प्राप्त करके निर्मल दर्शन करता है उससे बढ़कर अन्य कौन बन्धु है? ॥ ९१ ॥

गुरुदत्तं सुमन्त्रं च जप्त्वा ज्ञानं ततो लभेत् ।
सर्वज्ञत्वाच्च सिद्धिं च को वा बन्धुस्ततोऽधिकः ॥९२॥
गुरु के दिये हुए मंत्र का जप करके (शिष्य) उससे ज्ञान प्राप्त करता है और सर्वज्ञता एवं सिद्धि को भी प्राप्त कर सकता है, अतः उससे बढ़कर अन्य कौन बन्धु हो सकता है? ॥ ९२ ॥

सुखं जयति सर्वत्र विद्यया गुरुदत्तया ।
ययापूज्योऽपि जगति को वा बन्धुस्ततोऽधिकः ॥९३॥
गुरु की दी हुई विद्या द्वारा सर्वत्र सुख से जीतता है, और उस (विद्या) से जगत् में पूज्य होता है, अतः उससे अधिक बन्धु कौन है? ॥ ९३ ॥

विद्यान्धो वा धनान्धो वा योमूढो न यजेद्‌गुरुम् ।
ब्रह्महत्यादिकं पापं लभते नात्र संशयः ॥९४॥
जो मूर्ख विद्या से या धन से अन्धा होकर गुरु की अर्चना नहीं करता है, उसे ब्रह्महत्या आदि पाप का भागी होना पड़ता है, इसमें संशय नहीं ॥ ९४ ॥

दरिद्रं पतितं क्षुद्रं नरबुद्ध्या भजेद्‌गुरुम् ।
तिर्थस्नातोऽपि न शुचिर्नाधिकारी च कर्मसु ॥९५॥
जो व्यक्ति दद्धि, पतित और क्षुद्र गुरु को मनुष्य समझकर सेवा करता है, वह तीर्थ-स्नान करने पर भी पवित्र नहीं होता है और न कों का अधिकारी ही होता है ॥ ९५ ॥

अभीष्टदेवः श्रीकृष्णो गुरुस्ते शंकरः स्वयम् ।
शरणं गच्छ हे पुत्र देवपूज्यतमं गुरुम् ॥९६॥
भगवान् श्रीकृष्ण तुम्हारे अभीष्ट देव हैं और शिव जी स्वयं गुरु हैं, अतः हे पुत्र ! देवों से भी अधिक पूजनीय गुरु की शरण में जाओ ॥ ९६ ॥

त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपा त्वया पृथ्वी कृता यतः ।
प्राप्ता त्वया हरेर्भक्तिस्तं शिवं शरणं व्रज ॥९७॥
जिसके द्वारा तुमने इक्कीस बार इस वसुन्धरा को निःक्षत्रिय किया है और जिससे भगवान की भक्ति प्राप्त की है, उस शिव की शरण में जाओ ॥ ९७ ॥

शिवां च शिवरूपं च शिवदं शिवकारणम् ।
शिवाराध्यं शिवं शान्तं गुरुं त्वं शरणं व्रज ॥९८॥
शिवा (भवानी) रूप, शिवरूप, शिवप्रद, शिवकारण, शिवा के आराध्यदेव एवं शान्त गुरु शिव की शरण में जाओ ॥ ९८ ॥

गोलोकनाथो भगवानंशेन शिवरूपधृक् ।
य इष्टदेवः स गुरुस्तमेव शरणं व्रज ॥९९॥
गोलोकाधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ही अंश से शिवरूप धारण करते हैं । जो इष्टदेव है, वही गुरु है, अतः उसकी शरण में जाओ ॥ ९९ ॥

आत्मा कृष्णः शिवो ज्ञानं मनोऽहं सर्वजीविषु ।
प्राणाविष्णुः साप्रकृतिः सर्व शक्तियुतासुत ॥ १००॥
हे सुत ! समस्त जीवों के आत्मा भगवान् कृष्ण हैं, शिव ज्ञान हैं, मैं मन हूँ, विष्णु प्राण हैं और वह प्रकृति समस्त शक्ति से युक्त है ॥ १०० ॥

ज्ञानदं ज्ञानरूपं च ज्ञानबीजं सनातनम् ।
मृत्युंजयं कालकालं तं गुरुं शरणं व्रज ॥ १०१॥
ज्ञानप्रद, ज्ञानरूप, ज्ञान के बीज, सनातन, मृत्यु के विजेता और काल के भी काल उस गुरु की शरण में जाओ ॥ १०१ ॥

ब्रह्मज्योतिः स्वरूपं तं भक्तानुग्रहविग्रहम् ।
शरणं व्रज सर्वज्ञं भगवन्तं सनातनम् ॥१०२॥
ब्रह्मज्योतिःस्वरूप, भक्तों पर अनुग्रहार्थ रूप धारण करने वाले, सर्वज्ञाता एवं सनातन भगवान् की शरण में जाओ ॥ १०२ ॥

प्रकृतिर्लक्षवर्षं च तपस्तप्त्वा यमीश्वरम् ।
कान्तं प्रियपतिं लेभे तं गुरुं शरणं व्रज ॥१०३॥
प्रकृति ने एक लाख वर्ष तक तप करके जिस ईश्वर को मनोहर एवं प्रियपति के रूप में प्राप्त किया है, उस गुरु की शरण में जाओ ॥ १०३ ॥

इत्युक्त्वा मुनिभिः सार्धं जगाम कमलोद्‌भवः ।
रामश्च गन्तुं कैलासं मनश्चक्रे च नारद ॥ १०४॥
हे नारद ! इतना कहकर ब्रह्मा मुनियों समेत चले गये और राम ने कैलाश जाने का निश्चय किया ॥ १०४ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे भृगोः कैलासगमनोपदेशो
नाम चत्वारिंशोऽध्यायः ॥४०॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में मुगु को कैलासगमन-उपदेश-वर्णन नामक चालीसा अध्याय समाप्त ॥ ४० ॥

GO TOP