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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - एकचत्वारिंशोऽध्यायः कैलासवर्णनम् -
कैलास वर्णन - नारायण उवाच हरेश्च कवचं धृत्वा कृत्वा निःक्षत्त्रियां महीम् । रामो जगाम कैलासं नमस्कर्तुं शिवं गुरुम् ॥ १॥ गुरुपत्नीं शिवामम्बां द्रष्टुं गुरुसुतौ च तौ । गुणैर्नारायणसमौ कार्तिकेयगणेश्वरौ ॥२॥ नारायण बोले-राम ने भगवान् का कवच धारण करके पृथिवी को निःक्षत्रिय किया और पश्चात् गुरु शिव को नमस्कार करने के लिए तथा गुरुपली माता पार्वती और गुणों में नारायण के समान कार्तिकेय एवं गणेश नामक गुरुपुत्रों को देखने के लिए कैलास की यात्रा की ॥ १-२ ॥ मनोयायी महात्मा स भृगुः संप्राप्य तत्क्षणम् । ददर्श नगरं रम्यमतीव सुमनोहरम् ॥३॥ शुद्धस्फटिकसकाशैर्मणिभिः सुमनोहरैः । सुवर्णभूमिसदृशै राजमार्गैर्विराजितम् ॥४॥ सिन्दूरारुणवणैश्च वेष्टितं मणिवेदिभिः । संयुक्तं मुक्तानिकरैः पूरितं मणिमण्डपैः ॥५॥ यक्षाणामालयैर्दिव्यैः संयुक्तं शतकोटिभिः । कपाटस्तम्भसोपानैः शोभितैर्मणिनिमितैः ॥६॥ मन के समान वेगगामी महात्मा भृगु ने उसी क्षण कैलास पहुँच कर रम्य एवं अति मनोहर उस नगर को देखा, जो शुद्ध स्फटिक के समान मणियों एवं अतिमनोहर सुवर्ण-भूमि के समान राजमार्गों (सड़कों) से सुशोभित, सिन्दूर के समान लालवर्ण की मणिवेदियों से वेष्टित मोतियों के समूहों से युक्त, मणिनिर्मित मण्डपों से पूर्ण और यक्षों के दिव्य सौ करोड़ गृहों से युक्त था । उन (गृहों) में मणि के बने किवाड़, खम्भे और सीढ़ियाँ थीं ॥ ३-६ ॥ सुवर्णकलशैर्दिव्यै राजतैः श्वेतचामरैः । रत्नकाञ्चनपूर्णेश्च यक्षेन्द्रगणवेष्टितैः ॥७॥ रत्नभूषणभूषाढ्यैर्दीपितैः सुन्दरीगणैः । बालिकाभिर्बालकैश्च चित्रपुत्तलिकाकरैः ॥८॥ क्रीडद्भिः सस्मितैः शश्वत्स्वच्छन्दं च विराजितैः । पारिजातद्रुमगणैः स्वर्णदीतीरनीरजैः ॥९॥ आकीर्णं पुष्पजालैश्च पुष्पितैश्च सुगन्धिभिः । कल्पवृक्षाश्रितैः सिद्धैः कामधेनुपुरस्कृतैः ॥ १०॥ सिद्धविद्यासु निपुणैः पुण्यवद्भिर्निषेवितम् । त्रिलक्षयोजनोच्छ्रायैर्वटवृक्षैरथाक्षयैः ॥ ११॥ शतयोजनविस्तीर्णैः शतस्कन्धसमन्वितैः । असंख्यशाखानिकरैरसंख्यफलसंयुतैः ॥ १२॥ नानापक्षिगणाकीर्णैः सुमनोहरशब्दितैः । कम्पितैः शीतवातेन मण्डितं च सुगन्धिना ॥ १३॥ पुष्पोद्यानसहस्रेण सरसां च शतेन च । सिद्धेन्द्रालयलक्षैश्च मणिरत्नविकारजैः ॥ १४॥ उनमें सुवर्ण के दिव्य कलश, चांदी के श्वेत चामर, रत्नों और सुवर्णों के ढेर, यक्षेन्द्रों के समूह रत्नों के भूषणों से अत्यन्त भूषित सुन्दरी-गण, हाथों में कठपुतली लिये बालक-बालिकागण, जो मन्द मुसुकान समेत स्वच्छन्द होकर निरन्तर खेल रहे थे, विराजमान थे । स्वर्ग की नदी (गंगा) के किनारे उत्पन्न होने वाले पारिजात वृक्ष थे । सुगन्धित पुष्पों के समूह बिखरे हुए थे । कल्पवृक्षों के आश्रय में सिद्धगण, कामधेनु, सिद्धविद्याओं में निपुण पुण्यवान् लोग थे । वहाँ अक्षय वट वृक्ष थे जो तीन लाख योजन ऊँचे, सौ योजन विस्तीर्ण, सौ स्कन्धों, असंख्य शाखाओं और असंख्य फलों से युक्त, अति मनोहर शब्द करने वाले असंख्य पक्षिगणों और शीतल सुगन्धित वायु से कम्पित थे । वह नगर सहस्र वाटिकाओं, सौ नदियों और मणिरत्नों के बने एक लाख सिद्धों के गृहों से पूर्ण था ॥ ७-१४ ॥ रामश्च दृष्ट्वा नगरमतिसंहृष्टमानसः । ददर्श पुरतो रम्यं श्रीयुक्तं शकरालयम् ॥ १५॥ इस प्रकार नगर को देखकर राम का चित्त अति प्रसन्न हुआ । अनन्तर उन्होंने सामने रम्य एवं श्रीसम्पन्न शंकर का भवन देखा ॥ १५ ॥ सुवर्णमूल्यशतकैर्मणिभिः स्वर्णवर्णकैः । खचितं रत्नसारैश्चरचितं विश्वकर्मणा ॥ १६॥ सी सुवर्ण मूल्य वाली एवं सोने के समान वर्ण वाली मणियों और रत्नों के सार भागों से विश्वकर्मा ने उसका निर्माण किया था ॥ १६ ॥ त्रिपञ्चयोजनोच्छ्रायं चतुर्योजनविस्तृतम् । चतुरस्रं चतुष्कोणं प्राकारं सुमनोहरम् ॥ १७॥ वह पन्द्रह योजन ऊँचे, चार योजन चौड़े, चौकोर और अति मनोहर प्राकार (चहार दीवारी) से घिरा था ॥ १७ ॥ द्वारं रत्नकपाटेन नानाचित्रान्वितेन च । मणीन्द्रवेदिभिर्युक्तं मणिस्तम्भविराजितैः ॥ १८॥ अनेक मांति के चित्रों से चित्रित रत्नों के किवाड़ से विभूषित उसका द्वार था, जो उत्तम मणि की वेदियों और मणि के स्तम्भों से युक्त था ॥ १८ ॥ तद्दक्षिणे वृषेन्द्रं च वामे सिंहं च नारद । नन्दीश्वरं महाकालं पिङ्गलाक्षं भयंकरम् ॥ १९॥ विशालाक्षं च बाणं च विरूपाक्षं महाबलम् । विकटाक्षं भास्कराक्षं रक्ताक्षं विकटोदरम् ॥२०॥ संहारभैरवं कालभैरव च भयंकरम् । रुरुभैरवमीशाभं महाभैरवमेव च ॥२१॥ कृष्णाङ्गभैरव चैव क्रोधभैरवमुल्बणम् । कपालभैरवं चैव रुद्रभैरवमेव च ॥२२॥ हे नारद ! उसके दाहिने भाग में नन्दी, बायें भाग में सिंह, नन्दीश्वर, महाकाल, भयंकर पिंगलाक्ष, विशालाक्ष, बाण, महाबली विरूपाक्ष, विकटाक्ष, भास्कराक्ष, रक्ताक्ष, विकटोदर, संहारभैरव, भयंकर कालभैरव, रुरुभैरव, ईशाभ, महाभैरव, कृष्णांगभैरव, क्रोधभैरव, उल्बण, कपालभैरव और रुद्रभैरव थे ॥ १९-२२ ॥ सिद्धेन्द्रादीन्रुद्रगणान्विद्याधरसुगुह्यकान् । भूतान्प्रेतान्पिशाचांश्च कूष्माण्डान्ब्रह्मराक्षसान् ॥२३॥ वेतालान्दानवांश्चैव योगीन्द्राश्च जटाधरान् । यक्षान्किंपुरुषांश्चैव किन्नरांश्च ददर्श ह ॥२४॥ अनन्तर सिद्धेन्द्र आदि रुद्र गण, विद्याधर, गुह्यकगण, भूत, प्रेत, पिशाच, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, वेताल, दानव, जटाधारी योगीन्द्रगण, यक्षगण, किम्पुरुषों और किन्नरों को देखा ॥ २३-२४ ॥ तान्दृष्ट्वा नन्दिकेशाज्ञां गृहीत्वा भृगुनन्दनः । तान्सभाष्याभ्यन्तरं च जगामानन्दसंप्लुतः ॥२५॥ उन्हें देखने के पश्चात् भृगुनन्दन (राम) नन्दिकेश्वर की आज्ञा से सबसे बात-चीत करके आनन्दमग्न होते हुए भीतर चले गये ॥ २५ ॥ रत्नेन्द्रसारखचितं ददर्श शतमन्दिरम् । अमूल्यरत्नकलशैर्ज्वलद्भिश्च विराजितम् ॥२६॥ अमूल्यरत्नरचितैर्मुक्तानिर्मलदर्पणैः । हीरसारविकारैश्च कपालैश्च विराजितम् ॥२७॥ गोरोचनाभिर्मणिभिर्युतं स्तम्भसहस्रकैः । मणिसारविकारैश्च सोपानैः परिशोभितम् ॥२८॥ ददर्शाभ्यन्तरं द्वारं नानाचित्रैश्च चित्रितम् । माणिक्यमुक्ताग्रथितैर्मालाजालैर्विराजितम् ॥२९॥ वहाँ उन्होंने सैकड़ों मन्दिरों को देखा, जो रत्नेन्द्र के सार भाग से खचित, अमूल्य रत्नों के समुज्ज्वल कलशों से सुशोभित, अमूल्य रत्नों के बने मोती जैसे निर्मल दर्पणों और हीरों के सारभाग से बने किवाड़ों से विराजित, गोरोचन एवं मणि के सहस्र स्तम्भों से युक्त और मणि के सारभाग से बनी सीढ़ियों से परिशोभित थे । फिर अनेक चित्रों से चित्रित, तथा माणिक्य एवं मोती से बँधे मालाजाल से विराजित वहाँ का भीतरी दरवाजा देखा ॥ २६-२९ ॥ ददर्श कार्तिकेयं च वामे दक्षे गणेश्वरम् । ,वीरभद्रं महाकायं शिवतुल्यपराक्रमम् ॥३०॥ वामभाग में कार्तिकेय को तथा दाहिने गणेश्वर, महाकाय और शिव के समान पराक्रमी वीरभद्र को देखा ॥ ३० ॥ प्रधानपार्षदगणान्क्षेत्रपालांश्च नारद । रत्नसिंहासनस्थांश्च रत्नभूषणभूषितान् ॥३१॥ हे नारद ! प्रधान पार्षदगणों समेत क्षेत्रपालों को देखा जो रत्नों के सिंहासनों पर स्थित एवं रत्नभूषणों से भूषित थे ॥ ३१ ॥ तात्संभाष्य भृगुः शीघ्रं महाबलपराक्रमः । पर्शुहस्तः स परशुरामो गन्तुं समुद्यतः ॥३२॥ हाथ में फरसा लिए महाबलवान् एवं पराक्रमी परशुराम उन लोगों से सम्भाषण करके आगे जाने के लिए तैयार हो गये ॥ ३२ ॥ गच्छन्तं तं गणेशश्च क्षणं तिष्ठेत्युवाच ह । निद्रितो निद्रया युक्तो महादेवोऽधुनेति च ॥३३॥ उन्हें जाते हुए देख कर गणेश ने कहा-थोड़ी देर रुको, महादेव इस समय निद्रायुक्त होकर शयन कर रहे हैं ॥ ३३ ॥ ईश्वराज्ञां गृहीत्वाऽहमत्राष्ठगत्य क्षणान्तरे । त्वया सार्धं गमिष्यामि भ्रातस्तिष्ठात्र सांप्रतम् ॥३४॥ हे भ्रातः ! मैं क्षण भर में वहां जाकर उनसे आज्ञा लेकर अभी आ रहा हूँ, और तुम्हारे साथ वहाँ चलूंगा ॥ ३४ ॥ गणेशवाक्यं परशुरामः श्रुत्वा महाबलः । बृहस्पतिसमो वक्ता प्रवक्तुमुपचक्रमे ॥३५॥ गणेश की बातें सुनकर बृहस्पति के समान वक्ता तथा महाबली परशुराम ने उनसे कहना प्रारम्भ किया ॥ ३५ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे कैलासवर्णनं नामैकचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४१॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में कैलास वर्णन नामक एकतालोसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४१ ॥ |