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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - द्विचत्वारिंशोऽध्यायः


गणेशपरशुरामसंवादः -
परशुराम और गणपति का परस्पर विवाद -


परशुराम उवाच
यास्याम्यन्तः पुरं भ्रातः प्रणामं कर्तुमीश्वरम् ।
प्रणम्य मातरं भक्त्या यास्यामि त्वरितं गृहम् ॥१॥
परशुराम बोले-हे भ्रातः ! मैं भक्तिपूर्वक ईश्वर (शिव) और माता पार्वती को प्रणाम करने के लिए अन्तःपुर जा रहा हूँ, पश्चात् मैं शीघ्र चला जाऊँगा ॥ १ ॥

त्रिःसप्तकृत्वो निर्भूपां कृत्वा पृथ्वीं च लीलया ।
कार्तवीर्यः सुचन्द्रश्च हतो यस्य प्रसादतः ॥२॥
नानाविद्या यतो लब्ध्वा नानाशास्त्रं सुदुर्लभम् ।
तं गुरुं जगतां नाथं द्रष्टुमिच्छामि सांप्रतम् ॥३॥
क्योंकि जिसके प्रसाद से मैंने इक्कीस बार इस पृथ्वी को निभूप किया-कार्तवीर्य और सुचन्द्र का वध किया एवं अनेक भाँति की विद्या तथा अनेक दुर्लभ अस्त्र प्राप्त किये, उन जगत् के नाथ गुरु का मैं इस समय दर्शन करना चाहता हूँ ॥ २-३ ॥

सगुणं निर्गुणं चैव भक्तानुग्रहविग्रहम् ।
सत्यं सत्यस्वरूपं च ब्रह्मज्योतिः सनातनम् ॥४॥
स्वेच्छामयं दयासिन्धुं दीनबन्धुं मुनीश्वरम् ।
आत्मारामं पूर्णकामं व्यक्ताव्यक्तं परात्परम् ॥५॥
परापराणां स्रष्टारं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ।
पुराणं परमात्मानमीशानं त्वादिमव्ययम् ॥६॥
सर्वमङ्‌गलमाङ्‌गल्यं सर्वमङ्‌गलकारणम् ।
सर्वमङ्‌गलदं शान्तं सर्वैश्वर्यप्रदं वरम् ॥७॥
आशुतोषं प्रसन्नास्यं शरणागतवत्सलम् ।
भक्ताभयप्रदं भक्तवत्सलं समदर्शनम् ॥८॥
वे सगुण, निर्गुण, भक्तों के अनुग्रहार्थ शरीर धारण करने वाले, सत्यस्वरूप, ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप और सनातन हैं तथा सत्य, स्वेच्छामय, दया के सागर, दीनों के हितैषी, मुनीश्वर, आत्मा में रमण करने वाले, पूर्णकाम, व्यक्त (प्रकट) अव्यक्त (अप्रकट), परे से भी परे, पर-अपर की सृष्टि करने वाले, बहुतों से आहूत, बहुतों से स्तुत, पुराणरूप, परमात्मा, ईशान, आदिरूप, अव्यय (अविनाशी), सम्पूर्ण मंगलों के मंगल, समस्त मंगल प्रदायक, शान्त, सम्पूर्ण ऐश्वर्य देने वाले, श्रेष्ठ, आशुतोष, प्रसन्नमुख, शरणागत के प्रेमी, भक्तों को अभय देने वाले, भक्तवत्सल और समदर्शी हैं ॥ ४-८ ॥

इत्थं परशुरामोऽस्थादुक्त्वा गणपतेः पुरः ।
वाचा मधुरया तत्र समुवाच गणेश्वरः ॥९॥
इस प्रकार कहकर परशुराम गणपति के सामने खड़े हो गये । तब गणनायक ने मधुरवाणी द्वारा उसका उत्तर देना आरम्भ किया ॥ ९ ॥

गणेश्वर उवाच
क्षणं तिष्ठ क्षणं तिष्ठ शृणु भ्रातरिदं वचः ।
रहःस्थलस्थितो नैव द्रष्टव्यः स्त्रीयुतः पुमान् ॥ १०॥
गणेश्वर बोले-हे भ्रातः ! क्षणमात्र ठहरो और मेरी बात सुनो-एकान्तस्थल में स्थित स्त्री-पुरुष को नहीं देखना चाहिए ॥ १० ॥

स्त्रीसंयुक्तं च पुरुषं यः पश्यति नराधमः ।
करोति रसभङ्‌गं वा कालसूत्रं व्रजेद्ध्रुवम् ॥ ११॥
क्योंकि जो नराधम स्त्रीयुक्त पुरुष को देखता है अथवा रसभंग करता है, उसे कालसूत्र नामक नरक में निश्चित जाना पड़ता है ॥ ११ ॥

तत्र तिष्ठति पापीयान्यावच्चन्द्रदिवाकरौ ।
विशेषतश्च पितरं गुरुं वा भूपतिं द्विजम् ॥ १२॥
रहःसुरतसंसक्तं नहि पश्येद्विचक्षणः ।
कामतः कोपतो वाऽपि यः पश्येत्सुरतोन्मुखम् ॥ १३॥
स्त्रीविच्छेदो भवेत्तस्य ध्रुवं सप्तसु जन्मसु ।
श्रोणीं वक्षःस्थलं वक्त्रं यः पश्यति परस्त्रियः ।
कामतोऽपि विमूढश्च सोऽन्धो भवति निश्चितम् ॥ १४॥
हे द्विज ! चन्द्रमा-सूर्य के समय तक उस पापी को वहाँ रहना पड़ता है । विशेषतया पिता, गुरु, राजा और ब्राह्मण को एकान्त में सुरत-संसक्त जानकर विद्वान् उन्हें न देखें । क्योंकि कामना से या क्रोधवश जो सुरतोन्मुख प्राणी को देखता है, उसे सात जन्मों तक निश्चित स्त्रीवियोग होता है । और जो काम भाव से परस्त्री का नितम्ब, वक्षःस्थल और मुख देखता है, वह महामूढ़ निश्चित अन्धा होता है ॥ १२-१४ ॥

गणेशस्य वचः श्रुत्वा प्रहस्य भृगुनन्दनः ।
तमुवाच महाकोपान्निष्ठुरं वचनं मुने ॥ १५॥
हे मुने ! गणेश की बातें सुनकर भृगुनन्दन ने हँसकर क्रुद्धभाव से निष्ठुर वचन कहना आरम्भ किया ॥ १५ ॥

परशराम उवाच
अहो श्रुतं किं वचनमपूर्वं नीतिसंयुतम् ।
इदमेवमहो नैवं श्रुतमीश्वरवक्त्रतः ॥ १६॥
परशुराम बोले-अहो ! आज मैंने नीतियुक्त और अपूर्व वाक्य सुना, क्योंकि ईश्वर (शिव) के मुख से मैंने ऐसा कभी नहीं सुना था ॥ १६ ॥

श्रुतं श्रुतौ वाक्यमिदं कामिनां च विकारिणाम् ।
निर्विकारस्य च शिशोर्न दोषः कश्चिदेव हि ॥ १७॥
कामी और विकारयुक्त पुरुषों के लिए ही ऐसी बातें वेद में बतायी गयी हैं, ऐसा मैंने सुना है । निर्विकार बच्चे को कोई दोष नहीं लगता । इसलिए हे भ्रातः ! मैं अन्तःपुर जा रहा हूँ, बालक ! तुम्हें, क्या करना है, रुको (अर्थात् जाने से मुझे मत रोको) ॥ १७ ॥

यास्याम्यन्तःपुरं भ्रातस्तव किं तिष्ठ बालक ।
यथादृष्टं करिष्यामि मत्कार्यं समयोचितम् ॥ १८॥
मैं वहाँ जाकर जैसा देखूगा वैसा समयोचित कार्य करूँगा ॥ १८ ॥

तवैव तातो माता चत्येवं नैव निरूपितम् ।
जगतां पितरौ तौ च पार्वतीपरमेश्वरौ ॥ १९॥
वे तुम्हारे ही पिता माता हैं, ऐसा भी तो नहीं कहा गया है । क्योंकि वे पार्वती और परमेश्वर (शिव) समस्त जगत् के माता-पिता हैं ॥ १९ ॥

पार्वती स्त्री षुमाञ्छभुरिति कैर्न निरूपितः ।
सर्वरूपः शंकरश्च सर्वरूपा च पार्वती ॥२०॥
गुणातीतस्यका क्रीडा तद्‌भङ्‌गो वा कुतो विभो ।
क्रीडा लज्जा भीतिभङ्‌गो ग्राम्यस्यैव न चेशितुः ॥२१॥
यह कोई भी नहीं कहता हैकि पार्वती स्त्री और शिव पुरुष हैं । शिव सर्वरूप हैं और पार्वती सर्वरूपा हैं । हे विभो ! गुणों से परे रहने वाले की कैसी क्रीड़ा और कैसा उसका भंग करना? (रति) क्रीड़ा, लज्जा, भय और भंग ग्राम्य जनों के लिए है ईश्वर के लिए नहीं ॥ २०-२१ ॥

स्तनन्धयं च मादृष्ट्‍वा पित्रोर्लज्जा कुतो भवेत् ।
लज्जायाश्च कुतोलज्जा लज्जेशस्य च सा कुतः ॥२२॥
दुग्धपान करने वाले मुझ बच्चे को देखकर माता-पिता को लज्जा क्या हो सकती है ? लज्जा को और लज्जाधीश्वर को करती है या अग्नि तापज्जा कहाँ ? ॥ २२ ॥

लज्जा लज्जां किमाप्नोति तापं किं वा हुताशनः ।
शीतं शैत्यमहौभ्रातर्निदाघो दाहमेव च ॥२३॥
भीतेर्भीतिमवाप्नोति मृत्योर्मृत्युर्बिभेति किम् ।
कुतो ज्वरो ज्वरं हन्ति व्याधि व्याधिश्चजीर्यति ॥२४॥
क्या लज्जा लज्जा को प्राप्त करता है? हे भाई ! शीत को शीत, तेज को दाह (गर्मी), भय को भय और मृत्यु को मृत्यु प्राप्त होती है क्या? ज्वर ज्वर का और रोग रोग का नाश करता है क्या? ॥ २३-२४ ॥

संहर्तारं च संहर्ता कालः कालाद्‌बिभेति किम् ।
स्रष्टारं सृजते स्रष्टा पाता किं पाति ते मते ॥२५॥
संहर्ता संहर्ता से और कला काल से भयभीत होता है क्या? क्या तुम्हारे मत से स्रष्टा सृष्टिकर्ता का सर्जन करता है और रक्षक रक्षक की रक्षा करता है? ॥ २५ ॥

क्षुत्क्षुधं समवाप्नोतितृष्णा तृष्णां प्रयाति किम् ।
निद्रा निद्रां च शोभां श्रीः शान्तिः शान्ति च ते मते ॥२६॥
पुष्टिः पुष्टिं किमाप्नोति तुष्टिस्तुष्टिं क्षमा क्षमाम् ।
आत्मनः परमात्माऽस्ति शक्तिः शक्त्या बिभेति किम् ॥२७॥
क्षुधा क्षुधा को और तृष्णा तृष्णा को प्राप्त होती है क्या? तुम्हारे मत से निद्रा निद्रा को, शोभा शोभा को, शान्ति शान्ति को, पुष्टि पुष्टि को, तुष्टितुष्टि को और क्षमा क्षमा को प्राप्त होती है क्या? आत्मा से परमात्मा और शक्ति से शक्ति भयभीत होती है क्या? ॥ २६-२७ ॥

कामक्रोधौ लोभमोहौ स्वात्मनैते न बाधिताः ।
दया न बद्धा दयया नेच्छा बद्धेच्छया प्रभो ॥२८॥
हे प्रभो ! काम-क्रोध, लोभ-मोह ये अपने से नष्ट नहीं होते हैं । दया दया से अथवा इच्छा इच्छा से आबद्ध नहीं होती है ॥ २८ ॥

ज्ञानबुद्ध्योः को विकारो जरां नो बाधते जरा ।
चिन्ता न चिन्तया ग्रस्ता चक्षुश्चक्षुर्न पश्यति ॥२९॥
ज्ञान-बुद्धि में विकार होता है क्या? जरा (बुढ़ाई) जरा से नष्ट नहीं होती है । चिन्ता चिन्ता से ग्रस्त नहीं होती है और आँख आँख को नहीं देखती है ॥ २९ ॥

हर्षो मुदं किं प्राप्नोति शोकं शोको न बाधते ।
का विपत्तिर्विपत्तेश्च संपत्तिः संपदः कुतः ॥३०॥
क्या हर्ष को हर्ष होता है? शोक शोक को नष्ट नहीं करता है । विपत्ति को विपत्ति क्या? और सम्पत्ति को सम्पत्ति कहां होती है ? ॥ ३० ॥

मेधाया धारणाशक्तिः स्मृतेर्वा स्मरणं कुतः ।
न दग्धः स्वप्रतापेन विवस्वानिति संमतः ॥३१॥
मेघा को धारणा शक्ति या स्मृति को स्मरण नहीं होता है और सूर्य अपने प्रताप से कभी भी दग्ध नहीं होते हैं, ऐसा सभी का मत है ॥ ३१ ॥

विपरीतमतो भ्रातस्त्वयैवाऽऽचारितोऽधुना ।
न श्रुतोऽयं गुरुमुखान्न दृष्टो न श्रुतौ श्रुतः ॥३२॥
हे भ्रातः ! इस समय तुमने ही विपरीताचरण किया है । मैंने न तो यह गुरु के मुख से सुना और न वेद में कभी देखा-सुना ॥ ३२ ॥

इत्युक्त्वा चापि परशुरामः शश्वत्प्रहस्य सः ।
शीघ्रं गन्तुं मनश्चक्रे तद्‌गृहाभ्यन्तरं मुदा ॥३३॥
इतना कहकर परशुराम ने निरन्तर हँस कर प्रसन्न चित्त से घर के भीतर शीघ्र जाना चाहा ॥ ३३ ॥

तच्च रामवचः श्रुत्वा जितक्रोधो गणेश्वरः ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपश्च प्रहस्य तमुवाच ह ॥३४॥
राम की बातें सुनकर क्रोध को जीते हुए तथा शुद्धसत्त्वस्वरूप गणनायक ने हँसकर उनसे कहा ॥ ३४ ॥

गणपतिरुवाच
अज्ञानतिमिराच्छन्नो ज्ञानं प्राप्नोति तद्विदः ।
पितुर्भ्रातुर्मुखाज्ज्ञानं दुर्लभं भाग्यवाँल्लभेत् ॥३५॥
गणपति बोले-अज्ञान अन्धकार से आच्छन्न प्राणी उसके वेत्ता से ज्ञान ग्रहण करता है, किन्तु पिता और भ्राता के मुख से दुर्लभ ज्ञान को भाग्यवान् ही प्राप्त करता है ॥ ३५ ॥

श्रुतं ज्ञानं विशिष्टं च ज्ञानिनामपि दुर्लभम् ।
किंचिन्मे त्वं मन्दबुद्धेः शृणु भ्रतर्निवेदनम् ॥३६॥
हे भ्राता ! मैंने ज्ञानियों के लिये भी दुर्लभ विशिष्ट ज्ञान सुना है अत: मुझ मन्द बुद्धि का भी कुछ निवेदन सुनो ॥ ३६ ॥

यो निर्गुणः स निर्लिप्तः शक्तिभिर्नहि संयुतः ।
सिसृक्षुराश्रितः शक्त्या निर्गुणःसगुणो भवेत् ॥३७॥
जो निर्गुण है, वही निलिप्त है, वह शक्ति के साथ नहीं रहता है । सृष्टि करने वाला शक्ति के आश्रित ही रहेगा । एवं निर्गुण ही कभी सगुण हो जाता है ॥ ३७ ॥

यावन्ति च शरीराणि भोगार्हाणि महामुने ।
प्राकृतानि च सर्वाणि विना श्रीकृष्णविग्रहम् ॥३८॥
हे महामुने ! एक भगवान् श्रीकृष्ण के शरीर को छोड़कर अन्य जितने शरीर हैं, सब भोग के योग्य एवं प्राकृत हैं ॥ ३८ ॥

ध्यायन्ति योगिनस्तं च शुद्धज्योतिः स्वरूपिणम् ।
हस्तपादादिरहितं निर्गुणं प्रकृतेः परम् ॥३९॥
अतः योगी गण उसी निर्गुण का ध्यान करते हैं, जो शुद्ध ज्योतिःस्वरूप, हाथ-पैर आदि से रहित एवं प्रकृति से परे है ॥ ३९ ॥

वैष्णवास्तं नमस्यन्ति भक्तानुग्रहकारकम् ।
कुतो बभूव तन्त्योतिरहो तेजस्विना विना ॥४०॥
भक्तों पर अनुग्रह करने वाले उसी को वैष्ण व लोग नमस्कार करते हैं क्योंकि तेजस्वी के बिना उसकी ज्योति कहाँ सम्भव हो सकती है । ॥ ४० ॥

ज्योतिरभ्यन्तरे नित्यं शरीरं श्यामसुन्दरम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं पीतवाससम् ॥४१॥
अतीवामूल्यसद्‌रत्‍नभूषणैश्च विभूषितम् ।
ज्योतिरभ्यन्तरे मूर्तिं पश्यन्ति कृपया विभोः ॥४२॥
उस ज्योति के भीतर श्याम और सुन्दर नित्य शरीर रहता है, जो दो भुजा, हाथ में मुरली, मन्द मुसुकान, पीताम्बर और अति अमूल्य उत्तम रत्नों के भूषणों से भूषित है । योगी लोग उसी विभु की कृपा से ज्योति के भीतर उस मूर्ति को देखते हैं ॥ ४१-४२ ॥

तदा दास्ये नियुक्तास्ते भवन्त्येवेश्वरेच्छया ।
योगस्तपो वा दास्यस्य कलां नार्हति षोडशीम् ॥४३॥
वे ईश्वर की इच्छा से उनके दास्य कर्म में नियुक्त होते हैं । योग या तप दास्य की सोलहवीं कला के भी समान नहीं होता है ॥ ४३ ॥

यदा सृष्ट्यन्मुखः कृष्णः ससृजे प्रकृतिं मुदा ।
तद्योनौ ह्यर्पितं वीर्यं वीर्याड्‌डिम्भो बभूव ह ॥४४॥
दिव्येन लक्षवर्षेण गर्भाड्‌डिम्भो विनिर्गतः ।
तदा बभूव निःश्वासस्ततो वायुर्बभूव ह ॥४५॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने जब सृष्टि करना चाहा तब प्रसन्नचित्त से प्रकृति की सृष्टि की और उसकी योनी में वीर्य का निक्षेप किया । वीर्य से डिम्भ (सुवर्ण-पिण्ड) हुआ और वह डिम्भ दिव्य एक लाख वर्ष के उपरांत गर्भ से बाहर निकला । तब निश्वास हुआ उससे वायु उत्पन्न हुआ ॥ ४४-४५ ॥

निःश्वासेन समं भ्रातर्मुखबिन्दुर्विनिर्गतः ।
ततो बभूव सहसा जलराशिर्हरेः पुरः ॥४६॥
हे भ्रातः ! निःश्वास के साथ ही मुख से बिन्दु गिरा, जिससे भगवान् के सामने ही सहसा जल की राशि उत्पन्न हो गई ॥ ४६ ॥

तज्जले च स्थितो डिम्भो दिव्यवर्षाणि लक्षकम् ।
ततो बभूव सहसा विश्वाधारो महाविराट् ॥४७॥
उस जल के भीतर वह डिम्म एक लाख दिव्य वर्ष तक स्थित रहा । उस से सहसा महाविराट् की उत्पत्ति हुई जो विश्व का आधार है ॥ ४७ ॥

यावन्ति गात्रलोमानि तस्य सन्ति महात्मनः ।
ब्रह्माण्डानि च तावन्ति विद्यमानानि निश्चितम् ॥४८॥
उस महात्मा (विराट) के शरीर में जितने लोम हैं, उतने ही ब्रह्माण्ड विद्यमान हैं ॥ ४८ ॥

तत्रैव प्रतिविध्यण्डे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
देवा नराश्च मुनयो विद्यमानाश्चराचराः ॥४९॥
प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु, शिव देववृन्द एवं मुनिगण आदि चर-अचर विद्यमान रहते हैं ॥ ४९ ॥

महाविराडाश्रयश्च सर्वस्य च जनस्य च ।
निःश्वासवायुर्भगवान्बभूव श्रीहरेर्मुने ॥५०॥
महाविष्णुश्च कलया ततः क्षुद्रविराडभूत् ।
तन्नाभिकमले ब्रह्मा शंकरस्तल्ललाटजः ॥५१॥
सभी जनों का यह महाविराट् आश्रय है । हे मुने ! श्रीहरि के निःश्वास से वायु भगवान् हुए और कला से महाविष्णु । उनसे क्षुद्रविराट् (विष्णु) उत्पन्न हुए जिनके नाभिकमल से ब्रह्मा तथा ब्रह्मा के ललाट से शंकर उत्पन्न हुए ॥ ५०-५१ ॥

विष्णुस्तदंशः पाता यः श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।
एवं ते प्रतिविध्यण्डे ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ॥५२॥
भगवान् के अंश से उत्पन्न होने वाले विष्णु, जो श्वेत द्वीप में निवास करते हैं, सृष्टि के रक्षक हैं । इस प्रकार प्रत्येक ब्रह्माण्ड में ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर होते हैं ॥ ५२ ॥

स्वयं च स्वांशकलया नानामूर्तिधरो हरिः ।
तदाऽभवच्च सगुणः सर्वशस्तियुतस्तदा ॥५३॥
भगवान् स्वयं अपने अंश की कला द्वारा अनेक प्रकार की मूर्ति धारण करते हैं । तब वे सगुण हुए और तब सर्वशक्तिमान् कहलाये ॥ ५३ ॥

कथं लज्जादिरहितः स च स्वेच्छामयो महान् ।
सर्वदा सर्वभोगार्हः सर्वशक्तिसमन्वितः ॥५४॥
वे स्वेच्छामय और महान् होते हुए लज्जा आदि से रहित कैसे हैं ? वे समस्त शक्ति से युक्त होने के नाते सर्वदा सब भोगों के लिए उपयुक्त हैं ॥ ५४ ॥

लज्जा नास्त्येव लज्जायामतोऽयं सर्वसंमतः ।
या च लज्जावती देवी तस्या लज्जा कुतो गता ॥५५॥
यद्यपि लज्जा को लज्जा नहीं होती है, यह सर्वसम्मत है, तथापि जो देवी लज्जावती है, उसकी लज्जा कहाँ चली जायगी? ॥ ५५ ॥

सर्वशक्तिमती दुर्गा प्रकृत्या सा च शैलजा ।
तस्या लज्जादयः सन्ति सर्वदा सर्वसंमताः ॥५६॥
दुर्गा सर्वशक्तिसम्पन्न हैं किन्तु इस समय हिमालय से उत्पन्न होने के नाते प्राकृत हैं । इसलिए उनमें सर्वदा लज्जा आदि वर्तमान रहते हैं, यह सर्वसम्मत है ॥ ५६ ॥

पञ्चधा प्रकृतिर्या च श्रीकृष्णस्य बभूव ह ।
राधा पद्मा च सावित्री दुर्गा देवी सरस्वती ॥५७॥
प्राणाधिष्ठातृदेवी या कृष्णस्य परमात्मनः ।
प्राणाधिका प्रिया सा च राधाऽऽस्ते तस्य वक्षसि ॥५८॥
भगवान् श्रीकृष्ण की जो प्रकृतिराधा, पद्मा, सावित्री, दुर्गा और सरस्वती देवी इन पाँच रूपों में परिणत हुई थी, उनमें परमात्मा कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी और प्राणों से अधिक प्रिय जो है, उसका नाम राधा है, जो उनके वक्षःस्थल पर स्थित रहती है ॥ ५७-५८ ॥

विद्याधिष्ठातृदेवी या सावित्री ब्रह्मणः प्रिया ।
लक्ष्मीर्नारायणस्यैव सर्वसंपत्स्वरूपिणी ॥५९॥
विद्या की अधिष्ठात्री देवी सावित्री ब्रह्मा की पत्नी हुईं और समस्त सम्पत्ति-स्वरूपा लक्ष्मी नारायण की पत्नी हुई ॥ ५९ ॥

सरस्वती द्विधा भूत्वा कृष्णस्य मुखनिर्गता ।
सावित्री ब्रह्मणः कान्ता स्वयं नारायणस्य च ॥६०॥
भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से निकल कर सरस्वती दो रूपों में प्रकट हुई जिसमें एक सावित्री रूप से ब्रह्मा की और स्वयं सरस्वती नारायण की प्रिय पत्नी हुई ॥ ६० ॥

बुद्ध्यधिष्ठातृदेवी या ज्ञानसूः शक्तिसंयुता ।
सा दुर्गा शूलिनः कान्ता तस्या लज्जा कुतो गता ॥६१॥
प्रकृतिः पञ्चधा भ्रातर्गोलोके च बभूव ह ।
इमाः प्रधानाः कलया बभूवुर्नैकधा यतः ॥६२॥
बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी जो ज्ञानजननी एवं शक्तियुक्त हैं, वह दुर्गा शिव की कान्ता हुई हैं, अतः उनकी लज्जा कहाँ चली जायगी? ही प्रकृति इन पांचों रूपों में परिणत हुई और कला से ये ही प्रधान हैं क्योंकि ये एक ही बार नहीं हुई हैं ॥ ६१-६२ ॥

विप्रेन्द्र नित्यं वैकुण्ठं ब्रह्माण्डात्परमुच्यते ।
अविनाशि स्थलं शश्वल्लये प्राकृतिके ध्रुवम् ॥६३॥
हे विप्रेन्द्र ! नित्य वैकुण्ठलोक ब्रह्माण्ड से श्रेष्ठ और अविनाशी स्थान है । यह प्राकृत लय में भी निरन्तर विद्यमान रहता है ॥ ६३ ॥

तत्र नारायणो देवः कृष्णार्धांशश्चतुर्भुजः ।
वनमाली पीतवासाः शक्त्या वै पद्मया सह ॥६४॥
स्वयं कृष्णश्च गोलोके द्विभुजः श्यामसुन्दरः ।
सस्मितो मुरलीहस्तो राधावक्षः स्थलस्थितः ॥६५॥
वहाँ भगवान् कृष्ण के अद्धांश भाग विष्णु लक्ष्मी के साथ रहते हैं, जो चार भुजाओं, वनमाला एवं पीताम्बर से सुशोभित हैं और स्वयं श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्ण गोलोक में दो भुजा, मन्द मुसुकान तथा हाथ में मुरली लिए राधा के वक्षःस्थल पर स्थित रहते हैं ॥ ६४-६५ ॥

शश्वद्‌गोगोपगोपीभिः संयुक्तो गोपरूपधृत् ।
परिपूर्णतमः श्रीमान्निर्गुणः प्रकृतेः परः ॥६६॥
स्वेच्छामयः स्वतन्त्रस्तु परमानन्दरूपधृत् ।
सुराः कलोद्‌भवा यस्य षोडशांशो महाविराट् ॥६७॥
वे निरन्तर गोप-गोपी से संयुक्त, गोपवेष धारण किये, परिपूर्णतम, श्रीमान्, निर्गुण, प्रकृति से परे, स्वेच्छामय, स्वतन्त्र और परमानन्दरूपधारी हैं । उनकी कला से समस्त देवगण उत्पन्न हुए हैं तथा महाविराट् उनका सोलहवां अंश है ॥ ६६-६७ ॥

यतो भवन्ति विश्वानि स्थूलसूक्ष्मादिकानि च ।
पुनस्तत्र प्रलीयन्त एवमेव मुहुर्मुहुः ॥६८॥
उनसे स्थूल-सूक्ष्म आदि विश्व उत्पन्न होते हैं तथा पुनः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं, ऐसा बार-बार होता रहता है ॥ ६८ ॥

गोलोक ऊर्ध्वं वैकुण्ठात्पञ्चाशत्कोटियोजनः ।
नास्ति लोकस्तदूर्ध्वं च नास्ति कृष्णात्परः प्रभुः ॥६९॥
वैकुण्ठ से ऊपर पचास करोड़ योजन की दूरी पर गोलोक स्थित है, जिसके ऊपर कोई अन्य लोक नहीं है तथा भगवान् श्रीकृष्ण से महान् कोई अन्य प्रमु नहीं है ॥ ६९ ॥

इदं श्रुतं शभुवक्त्रान्मया ते कथितं द्विज ।
क्षणं तिष्ठाधुना भ्रातरीश्वरः सुरतोन्मुखः ॥७०॥
हे द्विज ! यह सब मैंने शम्भु के मुख से सुना था, जो तुम्हें बताया है । अतः हे भ्रातः ! इस समय क्षणमात्र ठहरो । क्योंकि ईश्वर शिव सम्प्रति सुरतोन्मुख हैं ॥ ७० ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे गणेशपरशुरामसंवादो
नामद्विचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४२॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण के संवाद-प्रकरण में गणेशपरशुराम-संवाद-वर्णन नामक बयालीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४२ ॥

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