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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् तृतीयं गणपतिखण्डम् - त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः गणेशदन्तभङ्गकारणवर्णनम् -
गणेश का दन्त-भंग - नारायण उवाच गणेशवचनं श्रुत्वा स तदा वेगतः सुधीः । पर्शुहस्तः स वै रामो निर्भयो गन्तुमुद्यतः ॥ १॥ नारायण बोले-गणेश की बातें सुनकर विद्वान् राम ने फरसा हाथ में लिए निर्भय होकर वेग से भीतर जाना चाहा ॥ १ ॥ गणेश्वरस्तदा दृष्ट्वा शीघ्रमुत्थाय यत्नतः । वारयामास संप्रीत्या चकार विनयं पुनः ॥२॥ तब गणाधीश ने यह देखकर शीघ्र उठकर प्रयत्नपूर्वक सप्रेम राम को रोका तथा पुनः विनती की ॥ २ ॥ रामस्तं प्रेरयामास हुं कृत्वा तु पुनः पुनः । बभूव च ततस्तत्र वाःग्युद्धं हस्तकर्षजैः ॥३॥ किन्तु राम ने हुंकार करके उन्हें बार-बार ललकारा जिससे दोनों में वाग्युद्ध हुआ और हाथापाई होने लगी ॥ ३ ॥ पर्शुनिःक्षेपणं कर्तुं मनश्चक्रे भृगुस्तदा । हाहा कृत्वा कार्तिकेयो बोधयामास संसदि ॥४॥ अव्यर्थमस्त्रं हे भ्रातर्गुरुपुत्रे कथं क्षिपेः । गुरुवद्गुरुपुत्रं च मा भवान्हन्तुमर्हति ॥५॥ उस समय भृगु ने उन पर फरसा चलाना चाहा, जिस पर सभा में हाहाकार करके कार्तिकेय ने कहा-हे भ्रातः ! निष्फल न होने वाले इस अस्त्र को गुरुपुत्र के ऊपर क्यों चलाते हो? गुरु के समान ही गुरुपुत्र को आप मारने योग्य नहीं हैं ॥ ४-५ ॥ पर्शुं क्षिपन्तं कुपितं रक्तपद्मदलेक्षणम् । गणेशो रोधयामास निवर्तस्वेत्युवाच तम् ॥६॥ पुनर्गणेशं रामश्च प्रेरयामास कोपतः । पपात पुरतो वेगान्मानहीनो गजाननः ॥७॥ फरसा चलाते हुए राम को क्रुद्ध और रक्तकमल की भांति लाल नेत्र किये देखकर गणेश ने उन्हें रोका और कहा-'लौट जाओ ! किन्तु राम ने क्रुद्ध होकर पुनः गणेश को ललकारा, यह देखकर अपमानित गजानन वेग से दौड़कर उनके सम्मुख आ गये ॥ ६-७ ॥ गजाननः समुत्थाय धर्मं कृत्वा तु साक्षिणम् । पुनस्तं बोधयामास जितक्रोधः शिवात्मजः ॥८॥ निवर्तस्व निवर्तस्वेत्युच्चार्य च पुनः पुनः । प्रवेशने ते का शक्तिरीश्वराज्ञां विना प्रभो ॥९॥ गणेश ने उठ कर धर्म को साक्षी किया और क्रोधजयी शिवपुत्र ने उन्हें पुनः समझाया तथा बार-बार कहा--हे प्रभो ! लौट जाओ, लौट जाओ । बिना ईश्वर (शिव) की आज्ञा के भीतर प्रविष्ट होने की तुम्हारी शक्ति नहीं है ॥ ८-९ ॥ मम भ्राता त्वमतिथिविद्यासंबन्धतो ध्रुवम् । ईश्वरप्रियशिष्यश्च सोढं वै तेन हेतुना ॥ १०॥ तुम विद्या सम्बन्ध से मेरे भ्राता और अतिथि हो, ईश्वर के प्रिय शिष्य हो । इसीलिए मैं तुम्हारी सभी बातों का सहन कर रहा हूँ ॥ १० ॥ नह्यहं कार्तवीर्यश्च भूपास्ते क्षुद्रजन्तवः । अतो विप्र न जानासि मां च विश्वेश्वरात्मजम् ॥११॥ हे विप्र ! न मैं कार्तवीर्य हूँ और न तुम्हारे (संग्राम वाले) क्षुद्रजन्तु राजा हूँ, इसी लिए तुम मुझ विश्वेश्वरपुत्र को नहीं जानते हो ॥ ११ ॥ क्षणं तिष्ठ निवर्तस्व समये ब्राह्मणातिथे । क्षणान्तरे त्वया सार्धं यास्यामीश्वरसंनिधिम् ॥१२॥ हे ब्राह्मण अतिथि ! क्षणमात्र ठहरो, लॉट जाओ, मैं तुम्हारे साथ शिव के समीप क्षणभर में चलूंगा ॥ १२ ॥ नारायण उवाच हेरम्बवचनं श्रुत्वा प्रजहास पुनः पुनः । पर्शु क्षेप्तुं मनश्चक्रे प्रणम्य हरिशंकरौ ॥ १३॥ नारायण बोले-हेरम्ब (गणेश) की ऐसी बातें सुनकर भृगु ने बार-बार उनका उपहास किया, और हरि तथा शिव को प्रणाम करके फरसा चलाने का ही मन में निश्चय किया ॥ १३ ॥ पर्शुं क्षिपन्तं कोपेन तं च रामं गजाननः । दृष्टत्वा मुमूर्षुं देवेशो धर्मं कृत्वा तु साक्षिणम् ॥ १४॥ योगेन वर्धयामास शुण्डा तां कोटियोजनाम् । योगीन्द्रस्तत्र संतिष्ठन् भ्रामयित्वा पुनः पुनः ॥१५॥ गजानन ने देखा कि परशुराम क्रुद्ध होकर मारने की इच्छा से फरसा चलाना ही चाहते हैं, अतः उस समय धर्म को साक्षी बनाकर उन्होंने योग द्वारा अपने शुण्डदण्ड (सूंड) को बढ़ाया, जो करोड़ योजन लम्बा हो गया योगीन्द्र गणेश ने वहीं खड़े होकर उसे बार-बार घुमाया ॥ १४-१५ ॥ शतधा वेष्टयित्वा तु भ्रामयित्वा तु तत्र वै । ऊर्ध्वमुत्तोल्य वेगेन क्षुद्राहिं गरुडो यथा ॥१६॥ सप्तद्वीपांश्च शैलांश्च मेरुं चाखिलसागरान् । क्षणेन दर्शयामास रामं योगपराहतम् ॥१७॥ उससे परशुराम को सैकड़ों बार वेष्टित (लपेट ) कर घुमाया । पश्चात् छोटे सर्प को गरुड़ की भांति उसे वेग से ऊपर उठाकर योग द्वारा आहत राम को उन्होंने सातों द्वीप, पर्वतगण, मेरु और समस्त सागर क्षणमात्र में दिखा दिये ॥ १६-१७ ॥ हस्तपादाद्यनाथं तं जडं सर्वाङ्गकम्पितम् । पुनस्तं भ्रामयामास दर्पितं दर्पनाशनः ॥१८॥ अनन्तर दर्पनाशन गणेश ने पुनः अभिमानी राम को, हाथ-चरण आदि से असहाय, जड़ तथा सर्वांग में कम्पित करके पुनः भ्रमण कराया ॥ १८ ॥ भूर्लोकं च भुवर्लोकं स्वर्लोकं च सुरेश्वरः । जनोलोकं तपोलोकं दर्शयामास लीलया ॥१९॥ पुनस्तत्र भ्रामयित्वा ब्रह्माण्डादूर्ध्वमुत्तमम् । सत्यलोकं ब्रह्मलोकं ध्रुवलोकं च तत्परम् ॥२०॥ गौरीलोकं शंभुलोकं दर्शयामास नारद । दर्शयित्वा तु विध्यण्डं स पपौ सप्तसागरान् ॥२१॥ फिर सुरेश ने भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, जनोलोक तथा तपोलोक को लोलापूर्वक दिखा दिया । पुनः वहाँ घुमाकर ब्रह्माण्ड से ऊपर उत्तम सत्यलोक, ब्रह्मलोक, ध्रुवलोक, उससे परे गौरीलोक और शिवलोक का दर्शन कराया । फिर ब्रह्माण्ड दिखा कर सातों सागरों का पान कर लिया ॥ १९-२१ ॥ पुनरुद्गिरणं चक्रे सनक्रमकरोदकम् । तत्र तं पातयामास गम्भीरे सागरोदके ॥२२॥ पुनः मगर आदि जलचर जीवों समेत समुद्र को बाहर उगल दिया और उसी गम्भीर सागर-जल में उन्हें गिरा दिया ॥ २२ ॥ मुमूर्षु तं संतरन्तं पुनर्जग्राह लीलया । पुनस्तत्र भ्रामयित्वा ब्रह्माण्डादूर्ध्वमप्यमुम् ॥२३॥ वैकुण्ठं दर्शयामास सलक्ष्मीकं जनार्दनम् ॥२४॥ वहाँ तैरते हुए मरणासन्न राम को लीलापूर्वक पकड़ कर पुनः घुमाकर ब्रह्माण्ड से भी ऊपर वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मी समेत चतुर्भुजधारी भगवान् का उन्हें दर्शन कराया । ॥ २३-२४ ॥ क्षणं तत्र भ्रामयित्वा योगीन्द्रो योगमायया । पुनः करं च योगेन वर्धयामास लीलया ॥२५॥ गोलोकं दर्शयामास विरजां च नदीश्वरीम् । वृन्दावनं शृङ्गशतं शैलेन्द्रं रासमण्डलम् ॥२६॥ गोपीगोपादिभिः सार्धं श्रीकृष्णं श्यामसुन्दरम् । द्विभुजं मुरलीहस्तं सस्मितं सुमनोहरम् ॥२७॥ रत्नसिंहासनस्थं च रत्नभूषणभूषितम् । तेजसा कोटिसूर्याभं राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥२८॥ इस भाँति योगीन्द्र गणेश ने क्षणमात्र में पुनः योगमाया द्वारा उन्हें भ्रमण कराकर लीला पूर्वक अपने शुण्ड (सुंड) को बढ़ाया और उन्हें नदीश्वरी विरजा समेत गोलोक का दर्शन कराया । फिर वृन्दावन, सौ शिखरवाला पर्वतराज, रास-मण्डल एवं गोपगोपी आदि समेत श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का दर्शन कराया, जो दो भुजा से युक्त, हाथ में मुरली लिये, मन्दहास समेत अति मनोहर, रत्नसिंहासन पर स्थित, रत्नों के भूषणों से भूषित, करोड़ों सूर्य के समान कान्तिमान्, और राधा के वक्षःस्थल पर विराजमान थे ॥ २५-२८ ॥ एवं कृष्णं दर्शयित्वा प्रणमय्य पुनः पुनः । क्षणेन लम्बमानं च भ्रामयित्वा पुनः पुनः ॥२९॥ दृष्ट्वा कृष्णं स्वेष्टदेवं सर्वपापप्रणाशनम् । भ्रूणहत्यादिकं पापं भृगोर्दूरं चकार हु ॥३०॥ इस भांति कृष्ण का दर्शन और उन्हें बार-बार प्रणाम कराकर पुनः सूंड को बढ़ाया । उसे बार-बार घुमाकर इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन करा कर राम के भ्रूण हत्या आदि समस्त पापों को नष्ट कराया, क्योंकि भगवान् सभी पापों के विनाशक हैं ॥ २९-३० ॥ न भवेद्यातना नष्टा विना भोगेन पापजा । स्वल्पां च बुभुजे रामो गताऽन्या कृष्णदर्शनात् ॥३१ ॥ पापजन्य यातना बिना भोगे नष्ट नहीं होती है । राम ने कुछ का उपभोग किया था और शेष भगवान् कृष्ण के दर्शन से नष्ट हो गयी ॥ ३१ ॥ क्षणेन चेतनां प्राप्य भुवि वेगात्पपात ह । बभूव दूरीभूतं च गणेशस्तम्भनं भृगोः ॥३२॥ पुनःक्षणमात्र में चेतना प्राप्त होने पर वेग से भूतल पर राम आ गये और गणेश कृत स्तम्मन भी दूर हो गया ॥ ३२ ॥ सस्मार कवचं स्तोत्रं गुरुदत्तं सुदुर्लभम् । अभीष्टदेवं श्रीकृष्णं गुरुं शंभुं जगद्गुरुम् ॥३३॥ तब परशुराम ने गुरु प्रदत्त अतिदुर्लभ कवच एवं स्तोत्र, अभीष्टदेव श्रीकृष्ण और जगद्गुरु गुरुदेव शिव का स्मरण किया ॥ ३३ ॥ चिक्षेप पर्शमव्यर्थं शिवतुल्यं च तेजसा । ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डप्रभाशतगुणं मुने ॥३४॥ हे मुने ! तदुपरांत उस अव्यर्थ फरसे का प्रयोग कर दिया, जो शिव तुल्य एवं तेज में ग्रीष्मकालीन मध्याह्न सूर्य की प्रमा से सौ गुना अधिक था ॥ ३४ ॥ पितुरव्यर्थमस्त्रं च दृष्ट्वा गणपतिः स्वयम् । जग्राह वामदन्तेन नास्त्रं व्यर्थं चकार ह ॥३५॥ गणपति ने अपने पिता के उस अमोघ अस्त्र को (राम द्वारा प्रयुक्त) देखकर स्वयं अपने बांयें दांत से उसे ग्रहण कर लिया, और उसे व्यर्थ नहीं किया ॥ ३५ ॥ निपात्य पर्शुर्वेगेन च्छित्वा दन्तं समूलकम् । जगाम रामहस्तं च महादेवबलेन च ॥३६॥ वह फरसा वेग से गणपति का बायां दाँत समूल नष्ट कर महादेव के बल द्वारा पुनः राम के हाथ में पहुंच गया ॥ ३६ ॥ हाहेति शब्दमाकाशे देवाश्चक्रुर्महाभिया । वीरभद्रः कार्तिकेयः क्षेत्रपालाश्च पार्षदाः ॥३७॥ यह देखकर आकाश में देवगण तथा वीरभद्र, कार्तिकेय एवं पार्षद समेत क्षेत्रपाल लोग महाभय से हाहाकार करने लगे ॥ ३७ ॥ पपात भूमौ दन्तश्च सरक्तः शब्दयंस्तदा । पपात गैरिकायुक्तो यथा स्फटिकपर्वतः ॥३८॥ तब गेरू युक्त स्फटिक के पर्वत की भाँति वह रक्त युक्त दाँत शब्द करते हुए भूमि पर गिर पड़ा ॥ ३८ ॥ शब्देन महता विप्र चकम्पे पृथिवी भिया । कैलासस्था जनाः सर्वे मूर्च्छामापुः क्षणं भिया ॥३९॥ हे विप्र ! उसके महान् शब्द से भयभीत हुई पृथिवी कांप उठी और कैलासनिवासी सभी लोग भय के मारे क्षण मात्र के लिए मूच्छित हो गये ॥ ३९ ॥ निद्रा बभञ्ज तत्काले निद्रेशस्य जगत्प्रभोः । आजगाम बहिः शंभुः पार्वत्या सह संभमात् ॥४०॥ अनन्तर जगत्स्वामी और निद्रा के अधीश्वर शिव जी की भी निद्रा भंग हो गयी, पार्वती समेत सहसा वे बाहर आ गये ॥ ४० ॥ पुरो ददर्श हेरम्बं लोहितास्यं क्षतेन तम् । भग्नदन्तं जितक्रोधं सस्मितं लज्जितं मुने ॥४१ ॥ हे मुने ! उन्होंने सामने देखा कि प्रहार से गणेश का मुख रक्तपूर्ण है, दांत टूट गया है, उन्होंने क्रोध को जीत लिया हैं फिर भी वे मुसकरा रहे हैं और लज्जित हैं ॥ ४१ ॥ पप्रच्छ पार्वती शीघ्रं स्कन्दं किमिति पुत्रक । स च तां कथयामास वार्तां पौर्वापरीं भिया ॥४२॥ चुकोप दुर्गा कृपया रुरोद च मुहुर्मुहुः । उवाच शंभोः पुरतः पुत्रं कृत्वा स्ववक्षसि ॥४३॥ पार्वती ने शीघ्र स्कन्द से पूछा-हे पुत्र ! यह क्या हुआ? उन्होंने भय से पूर्वापर सभी बातें कह कर उन्हें सुना दीं । उपरांत दुर्गा को क्रोध उत्पन्न हुआ; शिव के सम्मुख वे दयावश बार-बार रोदन करने लगी और पुत्र को अपनी गोद में रखकर बोलीं ॥ ४२-४३ ॥ संबोध्य शंभुं शोकेन भिया विनयपूर्वकम् । उवाच प्रणता साध्वी प्रणतार्तिहरं पतिम् ॥४४॥ शोक और भय के कारण विनय पूर्वक शिव को सम्बोधित करके उस पतिव्रता ने नम्र होकर भक्तों के दुःखनाशक अपने पति से कहा ॥ ४४ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे नारदनारायणसंवादे गणेशदन्तभङ्गकारणवर्णनं नाम त्रिचत्वारिंशोऽध्यायः ॥४३॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड के नारद-नारायण-संवाद में गणेश-दन्तभंग का कारण वर्णन नामक तैतालीसवां अध्याय समाप्त ॥ ४३ ॥ |