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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

तृतीयं गणपतिखण्डम् - चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः


गणेशस्तोत्रकथनम् -
गणेश-स्तोत्र-कथन -


पार्वत्युवाच
सर्वे जानन्ति जगति दुर्गां शंकरकिंकरीम् ।
अपेक्षारहिता दासी तस्या वै जीवनं वृथा ॥१ ॥
पार्वती बोलीं - संसार में सभी लोग जानते हैं कि दुर्गा शंकर की दासी है, किन्तु (स्वामी के यहाँ) जिसकी आवश्यकता ही न हो उस दासी का जीवन व्यर्थ है ॥ १ ॥

ईश्वरस्य समाः सर्वास्तृणपर्वतजातयः ।
दासीपुत्रस्य शिष्यस्य दोषः कस्येति च प्रभो ॥२॥
हे प्रभो ! ईश्वर (शिव) के यहाँ तृण से लेकर पर्वत तक सभी समान भाव से देखे जाते हैं । इसमें किस का दोष है? मेरे पुत्र का या आपके शिष्य का ? ॥ २ ॥

विचारं कर्तुमुचितं ट त्वं च धर्मविदां वरः ।
वीरभद्रः कार्तिकेयः पार्षदाः सन्ति साक्षिणः ॥३॥
आप धर्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं, अतः इसका विचार करना परमावश्यक है । वीरभद्र-कार्तिकेय और सभी पार्षदगण इसमें साक्षी भी हैं ॥ ३ ॥

साक्ष्ये मिथ्यां को वदेद्वा द्वावेषा भ्रातरौ समौ ।
साक्ष्ये समे शत्रुमित्रे सतां धर्मनिरूपणे ॥४॥
ये दोनों (गणेश, कार्तिकेय) यद्यपि भ्राता हैं, पर साक्ष्य देने में मिथ्या कौन बोल सकता है, क्योंकि धर्म-निरूपण में साक्ष्य देते समय सज्जनों के लिए शत्रु-मित्र सब समान होते हैं ॥ ४ ॥

साक्षी सभायां यत्साक्ष्यं जानन्नप्यन्यथा वदेत् ।
कामतः क्रोधतो वाऽपि लोभेन च भयेन च ॥५॥
स याति कुम्भीपाकं च निपात्य शतपूरुषम् ।
तैश्च साधं वसेत्तत्र यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥६॥
सभा में साक्षी यदि जानते हुए भी काम, क्रोध, लोभ या भय से मिथ्या कह दे तो वह अपनी सौ पीढ़ियों समेत कुम्भीपाक नरक में जाता है और वहाँ उन लोगों के साथ चन्द्र-सूर्य के समय तक निवास करता है ॥ ५-६ ॥

अहं विबोधितुं शक्ता निर्णेत्री च द्वयोरपि ।
तथाऽपि तव साक्षात्तु ममाऽज्ञा निन्दिता श्रुतौ ॥७॥
यद्यपि मैं दोनों का निर्णय करके बता देने में समर्थ हूँ, तथापि तुम्हारे रहते हुए यह मेरे लिये उचित नहीं है, क्योंकि ऐसे समय में मेरी आज्ञा वेद में निन्दित है ॥ ७ ॥

किंकराणां प्रभा कुत्र नृपे वसति संसदि ।
उदिते भास्करे पृथ्व्यां खद्योतो हि यथा प्रभो ॥८॥
हे प्रभो ! सभा में राजा के वर्तमान रहते सेवकों का तेज वैसा ही होता है, जैसे सूर्य के उदित रहते पृथ्वी पर जुगनू का ॥ ८ ॥

सुचिरं तपसा प्राप्तं त्वदीयं चरणाम्बुजम् ।
परित्यागभयेनैव संततं भीतया मया ॥९॥
यत्किंचित्कोपशोकाभ्यामुस्तं मोहेन तत्परम् ।
तत्क्षमस्व जगन्नाथ पुत्रस्नेहाच्च दारुणात् ॥१०॥
मैंने अत्यन्त चिरकाल तक तप करके आपका चरण-कमल प्राप्त किया है, परित्यागमय के कारण ही मैं सदैव भयभीत रहती हूँ, अतः हे जगन्नाथ ! क्रोध, शोक एवं मोहवश और दारुण पुत्र-स्नेहवश जो कुछ मैंने कहा है, उसे क्षमा करें ॥ ९-१० ॥

त्वया यदि परित्यक्ता तदा पुत्रेण तेन किम् ।
साध्व्या सद्वंशजायाश्च शतपुत्राधिकः पतिः ॥ ११ ॥
क्योंकि आपने यदि मेरा त्याग कर दिया, तो पुत्र लेकर ही मैं क्या करूंगी? कुलीन पतिव्रताओं के लिए पति सौ पुत्रों से भी अधिक प्रिय होता है ॥ ११ ॥

असद्वशप्रसूता या दुःशीला ज्ञानवर्जिता ।
स्वामिनं मन्यते नासौ पित्रोर्दोषेण कुत्सिता ॥ १२॥
जो अकुलीना, दुष्टा एवं अज्ञानी स्त्री होती है वह माता-पिता के दोष से निन्दित होने के कारण पति का सम्मान नहीं करती है । ॥ १२ ॥

कुत्सितं पतितं मूढं दरिद्रं रोगिणं जडम् ।
कुलजा विष्णुतुल्यं च कान्तं पश्यति संततम् ॥ १३ ॥
निन्दित, पतित, मूर्ख, दरिद्र, रोगी, तथा जड़ पति को भी कुलीनाएँ निरन्तर विष्णु के समान देखती हैं ॥ १३ ॥

हुताशनो वा सूर्यो वा सर्वतेजस्विनां वरः ।
पतिव्रतातेजसश्च कलां नार्हति षोडशीम् ॥ १४॥
इसीलिए अग्नि या समस्त तेजस्वियों में श्रेष्ठ सूर्य भी पतिव्रता स्त्री के तेज की सोलहवीं कला के समान भी नहीं होते हैं ॥ १४ ॥

महादानानि पुण्यानि व्रतान्यनशनानि च ।
तपांसि पतिसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १५ ॥
महादान, पुण्य, व्रत, उपवास और तप पतिसेवा की सोलहवीं कला के समान नहीं होते हैं ॥ १५ ॥

पुत्रो वाऽपि पिता वाऽपि बान्धवोऽथ सहोदरः ।
योषितां कुलजातानां न कश्चित्स्वामिनः समः ॥ १६॥
पुत्र, पिता, बन्धु और सहोदर कोई भी कुलीन स्त्रियों के लिए पति के समान नहीं होता है ॥ १६ ॥

इत्युक्त्वा स्वामिनं दुर्गा ददर्श पुरतो भृगुम् ।
शंभोः पदाब्जं सेवन्ते निर्भयं तमुवाच ह ॥ १७॥
स्वामी से इतना कहकर दुर्गा ने सामने भृगु को देखा, जो शिव के चरण-कमल की सेवा कर रहा था और निर्भय था । उससे वह बोलीं ॥ १७ ॥

पार्वत्युवाच
अये राम महाभाग ब्रह्मवंश्योऽसि पण्डितः ।
पुत्रोऽसि जमदग्नेश्च शिष्योऽस्य योगिनां गुरोः ॥ १८॥
पार्वती बोलीं-हे महाभाग राम ! तुम ब्राह्मण वंश में उत्पन्न और पण्डित हो, जमदग्नि के पुत्र एवं योगियों के गुरु (शिव) के शिष्य हो ॥ १८ ॥

माताते रेणुका साध्वी पद्मांशा सत्कुलोद्‌भवा ।
मातामहो वैष्णवश्च मातुलश्च ततोऽधिकः ॥ १९॥
तुम्हारी माता रेणुका थीं, जो पतिव्रता, कमला के अंश से उत्तम कुल में उत्पन्न हुई थीं । मातामह (नाना) वैष्णव और मातुल (मामा) तो उनसे भी बढ़ कर थे ॥ १९ ॥

त्वं च रेणुकभूपस्य मनुवंशोद्‌भवस्य च ।
दौहित्रो मातुलः साधुः शूरो विष्णुपदाश्रयः ॥२०॥
मनुवंश में उत्पन्न राजा रेणुक के तुम दौहित्र (कन्यापुत्र) हो । तुम्हारा मातुल (मामा) साधु, शूर और विष्णु के चरणों के आश्रय में सदैव रहता है ॥ २० ॥

कस्य दोषेण दुर्धर्षस्त्वं न जानेऽप्यशुद्धधीः ।
येषां दोषैर्जनो दुष्टस्तमृते शुद्धमानसः ॥२१॥
में नहीं समझता कि तुम किसके दोष से दुद्धर्ष होते हुए मो अशुद्ध बुद्धि वाले हो गये । जिनके दोष से मनुष्य दुष्ट होता है उनके न रहने पर शुद्ध-चित्त होता है ॥ २१ ॥

अमोघं प्राप्य पर्शुं च गुरोश्च करुणानिधेः ।
परीक्षां क्षत्रिये कृत्वा बभूवास्य सुते पुनः ॥२२॥
करुणानिधि गुरु से अमोघ फरमा प्राप्त करके तुमने पहले क्षत्रियों पर उसकी परीक्षा की और अब गुरु के पुत्र पर की है ॥ २२ ॥

गुरवे दक्षिणादानमुचितं च श्रुतौ श्रुतम् ।
भग्नो दन्तस्तत्सुतस्य च्छिन्धि मस्तकमप्यहो ॥२३॥
इस प्रकार गुरु के लिए दक्षिणा देना वेद में तुमने उचित ही सुना है । गुरु के पुत्र का अभी दांत ही भग्न किया (तोड़ा) है अब उसका मस्ता भी काट डालो ॥ २३ ॥

गणेश्वरं रणे जित्वा स्थितश्चेदावयोः पुरः ।
स त्वं त्सध्वाऽऽशिषो लोके पूजितोऽभूर्जगत्‌त्रये ॥२४॥
गणेश्वर को रण में जीतकर तदि तुम हम लोगों के सामने स्थित हो तो तुम आशीर्वाद प्राप्त करके तीनों लोकों में पूजित हो गये ॥ २४ ॥

पर्शुनाऽमोघवीर्येण शंकरस्य वरेण च ।
हन्तुं शक्तः सृगालश्च सिंहं शार्दूलमाखुभुक् ॥२५॥
(यह नहीं जानते कि)--शंकर का अमोघ अस्त्र फरसा और उनका वरदान प्राप्त कर स्यार सिंह को और चूहा बाघ को मारने में समर्थ हो जाता है ॥ २५ ॥

त्वद्विधं लक्षकोटिं च हन्तुं शक्तो गणेश्वरः ।
जितेन्द्रियाणां प्रवरो नहि हन्ति च मक्षिकाम् ॥२६॥
तुम्हारे ऐसे लाखों करोड़ों को मारने में गणेश्वर समर्थ हैं, किन्तु जितेन्द्रियों में श्रेष्ठ पुरुष मक्खी का हनन नहीं करता है ॥ २६ ॥

तेजसा कृष्णतुल्योऽयं कृष्णांशश्च गणेश्वरः ।
देवाश्चान्ये कृष्णकलाः पूजाऽस्य प्रुरतस्ततः ॥२७॥
गणनायक तेज में कृष्ण के समान और साक्षात् उनका अंश हैं, अन्य देवगण उनकी कला हैं, इसीलिए इनकी पूजा सबके पहले होती है ॥ २७ ॥

व्रतप्रभावतः प्राप्तः शंकरस्य वरेण च ।
शोकेनातिकठोरेण नहि संपद्विनाऽऽपदम् ॥२८॥
त के प्रभाव, शंकर के वरदान और अति कठोर शोका करने पर मैंने इन्हें प्राप्त की है, क्योंकि बिना दुःख के सुख सम्भव नहीं होता है ॥ २८ ॥

इत्युक्त्वा पार्वती रोषात्तं रामं शप्तुमुद्यता ।
रामः सस्मार तं कृष्णं प्रणम्य मनसा गुरुम् ॥२९॥
इतना कहकर पार्वती रोष के कारण राम को शाप देने के लिए तैयार हो गयीं, यह देखकर राम मन ही मन गुरु को प्रणाम कर कृष्ण का स्मरण करने लगे ॥ २९ ॥

एतस्मिन्नन्तरे दुर्गा ददर्श पुरतो द्विजम् ।
अतीव वामनं बालं सूर्यकोटिसमप्रभम् ॥३०॥
शुक्लदन्तं शुक्लवस्त्रं शुक्लयज्ञोपवीतिनम् ।
दण्डिनं छत्रिण चैव सुप्रभं तिलकोज्ज्वलम् ॥३१॥
दधतं तुलसीमालां सम्मितं सुमनोहरम् ।
रत्‍नकेयूरवलयं रत्‍नमालाविभूषितम् ॥३२॥
रत्‍ननूपुरपादं च सद्‌रत्‍नमुकुटोज्ज्वलम् ।
रत्‍नकुण्डलयुग्माढ्यगण्डस्थलविराजितम् ॥३३॥
इसी बीच दुर्गा ने अपने सामने एक बहुत ही बने ब्राह्मण-बालक को देखा, जो करोड़ों सूर्य की प्रभा से पूर्ण था, शुक्ल दाँत, शुक्ल वस्त्र, शुक्ल यज्ञोपवीत, दण्ड, और छत्र धारण किये हुए था । वह प्रभापूर्ण उज्ज्वल तिलक और तुलसी की माला पहने, मन्दहास समेत, अति मनोहर था । बह रलों के केयूर, कंकण और रत्नों की माला से भूषित था, रत्नों के नपुर से सुशोभित उसके चरण थे और वह उत्तम रल के मुकुट से समुज्ज्वल तथा रत्नों के युगल कुण्डलों से युक गण्डस्थल से शोभित था ॥ ३०-३३ ॥

स्थिरमुद्रां दर्शयन्तं भक्तं वामकरणे च ।
दक्षिणेऽभयमुद्रां च भक्तेशं भक्तवत्सलम् ॥३४॥
भक्त को वायें हाथ से स्थिर होने की मुद्रा और दाहिने से अभय मुद्रा दिखाते हुए, भक्तों के ईश एवं भक्तवत्सल था ॥ ३४ ॥

बालिकाबालकगणैर्नगरैः सस्मितैर्युतम् ।
कैलासवासिभिः सर्वैरावृद्धैरीक्षितं मुदा ॥३५॥
मन्दहास करते हुए नगर के बालक-बालिफागण उसे चारों ओर से घेरे हुए थे और कैलाशवासी सभी युवा-वृद्ध प्रसन्नता से उसे देख रहे थे ॥ ३५ ॥

तं दृष्ट्‍वा सभ्रमाच्छभुः सभृत्यः सहपुत्रकः ।
मूर्ध्ना भक्त्या प्राणमच्च दुर्गा च दण्डवद्‌भुवि ॥३६॥
शम्भु ने उसे देखकर सहसा सेवक और पुत्रों समेत भक्तिपूर्वक शिर से प्रणाम किया तथा दुर्गा ने भूमि पर दण्डवत् किया ॥ ३६ ॥

आशिषं प्रददौ बालः सर्वेभ्यो वाञ्छितप्रदाम् ।
तं दृष्ट्‍वा बालकाः सर्वे महाश्चर्यं ययुर्भिया ॥३७॥
अनन्तर उस बालक ने सबको अभीष्ट सिद्ध होने का आशीर्वाद दिया । नगर के सभी बालक उस आश्चर्य को देखकर भय से चले गये ॥ ३७ ॥

दत्त्वा तस्मै शिवो भक्त्या तूपचारांस्तु षोडश ।
पूजां चकार श्रुत्युक्तां परिपूर्णाष्टस्य च ॥३८॥
तुष्टाव काण्वशाखोक्तस्तोत्रेण नतकंधरः ।
पुलकाडित्कतसर्वाङ्‌गो भगवन्तं सनातनम् ॥३९॥
उपरान्त शिव ने भक्तिपूर्वकः उस परिपूर्णतम बालक भगवान् की सोलहों उपचार से वेदोक्त अर्चना की तथा सर्वांग में पुलकायमान हो कन्धे झुकाकर काण्व शाखा के अनुसार स्तोत्र से सनातन भगवान् की स्तुति की ॥ ३८-३९ ॥

रत्‍नसिंहासनस्थं च प्रावोचच्छंकरः स्वयम् ।
अतीव तेजसाऽत्यन्तं प्रच्छन्नावृत्तिमेव च ॥४०॥
पश्चात् स्वयं शिव ने रत्नसिंहासन पर स्थित तथा अत्यन्त तेज के कारण आकार को आच्छन्न पिये उस बालक से कहा ॥ ४० ॥

शंकर उवाच
आत्मारामेषु कुशलप्रश्नोऽतीव विडम्बनम् ।
ते शश्वत्कुशलाधाराः कुशलाः कुशलप्रदाः ॥४१॥
शंकर बोले-आत्मा में रमण करने वालों के लिए कुशल प्रश्न करना अत्यन्त बिडम्बना ही है, क्योंकि वे निरन्तर कुशल के आधार, कुशलस्वरूप और कुशलप्रदायक होते हैं ॥ ४१ ॥

अद्य मे सफलं जन्म जीवितं च सुजीवितम् ।
प्राप्तस्त्वमतिथिर्ब्रह्मन्कृष्णणवाफलोदयात् ॥४२॥
हे ब्राह्मण ! आज मेरा जन्म सफल हो गया, जीवन उत्तम हो गया, क्योंकि भगवान कृष्ण की सेवा का फलोदय होने से तुम हमें अतिथिरूप में प्राप्त हुए हो ॥ ४२ ॥

परिपूर्णतमः कृष्णो लोकनिस्तारहेतवे ।
पुण्यक्षेत्रे हि कलया भारते च कृपानिधिः ॥४३॥
परिपूर्णतम एवं कृपानिधान भगवान् कृष्ण लोक के निस्तार के लिए पुण्य क्षेत्र भारत में आनी कला द्वारा अवतीर्ण होते रहते हैं ॥ ४३ ॥

अतिथिः पूजितो येन पूजिताः सर्वदेवताः ।
अतिथिर्यस्य संतुष्टस्तस्य तुष्टो हरः स्वयम् ॥४४॥
जो अतिथि की पूजा करता है उससे सभी देवता पूजित हो जाते हैं । अतिथि के प्रसन्न होने पर स्वयं भगवान् प्रसन्न होते हैं । ॥ ४४ ॥

स्नानेन सर्वतीर्थेषु सर्वदानेन यत्फलम् ।
सर्वव्रतोपवासेन सर्वयज्ञेषु दीक्षया ॥४५॥
सर्वैस्तपोभिर्विविधैर्नित्यैर्नैंमित्तिकादिभिः ।
तदेवातिथिसेवायाः कलां नार्हति षोडशीम् ॥४६॥
समस्त तीर्थों में स्नान, समस्त दान, समस्त व्रत के उपवान, सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा तथा विविध माँति के नित्य नैमित्तिक आदि सभी तप के फल अतिथि-सेवा को सोलहवीं कला के मी समान नहीं होते हैं ॥ ४५-४६ ॥

अतिथिर्यस्य भग्नाशो याति रुष्टश्च मन्दिरात् ।
कोटिजन्मार्दितं पुण्यं तस्यनश्यति निश्चितम् ॥४७॥
अतिथि जिसके घर से निराश एवं रुष्ट होकर चला जाता है, उसका करोड़ों जन्म का संचित पुण्य निश्चित नष्ट हो जाता है ॥ ४७ ॥

स्त्रीगोघ्नश्च कृतघ्नश्च ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगः ।
पितृमातृगुरूणां च निन्दको नरघातकः ॥४८॥
संध्याहीनो स्वघाती च सत्यघ्नो हरिनिन्दकः ।
ब्रह्मस्वस्थाप्यहारी च मिथ्यासाक्ष्यप्रदायकः ॥४९॥
मित्रद्रोही कृतघ्नश्च वृषवाहश्च सूपकृत् ।
शवदाही ग्रामयाजी ब्राह्मणो वृषलीपतिः ॥५०॥
शूद्रश्राद्धान्नभोजी च शूद्रश्राद्धेषु भोजकः ।
कन्याविक्रयकारी च श्रीहरेर्नामविक्रयी ॥५१॥
लाक्षामांसतिलानां च लवणस्य तिलस्य च ।
विक्रेता ब्राह्मणश्चैव तुरगाणां गवां तथा ॥५२॥
एकादशीकृष्णसेवाहीनो विप्रश्च भारते ।
एते महापातकिनस्त्रिषु लोकेषु निन्दिताः ॥५३॥
स्त्री और गौ का घाती, कृतघ्न, ब्रह्मघातो, गुरुस्त्रोगामी, पिता, माता और गुरु का निन्दक, नरहन्ता, संध्याकर्महीन, आत्महन्ता, सत्य का घाती, हरिनिन्दक, ब्राह्मण-धन का अपहर्ता, मिथ्यासाक्ष्य (झूठी गवाही) देने वाला, मित्रद्रोही, कृतघ्न, बैलों पर लादने वाला, भण्डारी, शव-दाह का कर्म करने वाला, गांवों को पुजाने वाला, वृषली (शूद्र स्त्रो) का पति ब्राह्मण, शूद्रों का श्राद्धान्न भोजन करने वाला, शूद्रों के श्राद्ध में खिलाने वाला, कन्याविक्रेता, भगवान् का नाम विक्रेता, लाख (लाह), मांस, तिल, नमक, घोड़े और गौओं का विक्रेता ब्राह्मण तथा भारत में एकादशी व्रत और भगवान् कृष्ण की सेवा से हीन ब्राह्मण, ये तीनों लोकों में 'महापातकी' कहे जाते हैं और अतिनिन्दित हैं ॥ ४८-५३ ॥

कालसूत्रे व नरके पतन्ति ब्रह्मणां शातम् ।
एतेभ्योऽप्यधमः सोऽपि यश्चातिथिपराडःमुस्वः ॥५४॥
ये सब कालसूत्र नरक में सो ब्रह्मा के समय तक पड़े रहते हैं तथा इनसे भी बढ़कर वह है जो अतिथि को निराश लौटा देता है ॥ ५४ ॥

नारायण उवाच
शंकरस्य वचः श्रुत्वा संतुष्टः श्रीहरिः स्वयम् ।
मेघगम्भीरया वाचा तमुवाच जगत्पतिः ॥५५ ॥
नारायण बोले-शंकर की बातें सुनकर स्वयं श्रीभगवान् प्रसन्न हुए और पश्चात् जगत्पति ने मेघ की भौति गंभीर वाणी द्वारा उनसे कहना प्रारम्भ किया ॥ ५५ ॥

विष्णुरुवाच
श्वेतद्वीपादागतोऽहं ज्ञात्वा कोलाहलं च वः ।
अस्य रामस्य रक्षार्थं कृष्णभक्तस्य सांप्रतम् ॥५६॥
विष्णु बोले--मैं तुम लोगों का कोलाहल (शोरगुल) सुनकर इस कृष्णभक्त राम के रक्षणार्थ इस समय खेत द्वीप से आ रहा हूँ ॥ ५६ ॥

नैतेषां कृष्णभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
रक्षामि ताश्चक्रहस्तो गुरुमन्यं विना शिव ॥५७॥
है शिव ! इन कृष्ण-भक्तों का कहीं भी अमंगल नहीं होता है । मैं हाथ में चक्र लेकर उनकी रक्षा करता हूँ । केवल अपने को ही गुरु मान लेने वाले (गुरुद्रोही) की छोड़कर ॥ ५७ ॥

नाहं पाता गुरौ रुष्टे बलवद्‌गुरुहेलनम् ।
तत्परः पातकी नास्ति सेवाहीनो गुरोश्च यः ॥५८॥
क्योंकि गुरु के रुष्ट होने पर मैं उसकी रक्षा नहीं कर सकता हूँ । गुरु-अनादर बलवान् होता है । गुरुसेवा से हीन प्राणी से बढ़कर कोई अन्य पातकी नहीं है ॥ ५८ ॥

मान्यः पूज्यश्च सर्वेभ्यः सर्वेषां जनको भवेत् ।
अहो यस्य प्रसादेन सर्वान्पश्यति मानवः ॥५९ ॥
अहो ! जिसकी कृपा से मानव सभी को देखता है, वह सब का पूज्य माननीय और सबका जनक हो सकता है ॥ ५९ ॥

जनको जन्मदानाच्च रक्षणाच्च पिता नृणाम् ।
ततो विस्तारकरणात्कलया स प्रजापतिः ॥६०॥
वही मनुष्यों का जन्म देने से जनक, पालन करने से पिता और कला द्वारा विस्तार करने से प्रजापति कहलाता है ॥ ६० ॥

पितुः शतगुणं माता पोषणाद्‌गर्भधारणात् ।
वन्या पूज्या च मान्या च- प्रसूः स्याद्वै वसुंधरा ॥६१ ॥
पोषण और गर्भ में धारण करने के नाते माता, पिता से सीगुने अधिक वन्दनीय, पूजनीय और मान्य है । इतना ही नहीं, जननी वसुन्धरा रूप है ॥ ६१ ॥

मातुः शतगुण वन्द्यः पूज्यो मान्योऽन्नदायकः ।
यद्विना नश्वरो देहो विष्णुश्च कलयाऽन्नदः ॥६२॥
अन्नदाता, माता से सी गुना बन्दनीय, पूज्य और मान्य होता है, क्योंकि उसके विना यह देह नष्ट हो जाती है । विष्णु कला रूप से अन्नदाता होते हैं ॥ ६२ ॥

अन्नदातुः शतगुणोऽभीष्टदेवः परः स्मृतः ।
गुरुस्तस्माच्छतगुणो विद्यामन्त्रप्रदायकः ॥६३॥
अन्नदाता से सी गुने अधिक इष्टदेव होता है तथा उससे सो गुने अधिक गुरु होता है, जो विद्या और मन्त्र प्रदान करता है ॥ ६३ ॥

अज्ञानतिमिराच्छन्नं ज्ञानदीपेन चक्षुषा ।
यः सर्वार्थं दर्शयति तत्परो नैव बान्धवः ॥।६४॥
गुरु अज्ञान अन्धकार से आच्छन्न प्राणी को अपने ज्ञानदीपक नेत्र से सभी वस्तुओं का दर्शन कराता है, अत: उससे बढ़कर कोई अन्य बन्धु नहीं है ॥ ६४ ॥

गुरुदत्तेन मन्त्रेण तपसेष्टसुखं लभेत् ।
सर्वज्ञत्वं सर्वसिद्धिं तत्परो नैव बान्धवः ॥६५॥
गुरुप्रदत्त मन्त्र द्वारा तप करके मनुष्य अभीष्ट सुख, सर्वज्ञत्व और समस्त सिद्धि प्राप्त कर सकता है, अत: उससे बढ़कर अन्य कोई वन्धु नहीं होता है । ॥ ६५ ॥

सर्वं जयति सर्वत्र विद्यया गुरुदत्तया ।
तस्मगपूज्यो हि जगति को वा बन्धुस्ततोऽधिकः ॥६६॥
मनुष्य गुरु की दी हुई विद्या द्वारा सर्वत्र सब पर विजय प्राप्त करता है, अतः संसार में उससे अधिक पूज्य और बन्धु कौन हो सकता है ? ॥ ६६ ॥

विद्यान्धो वा धनान्धो वा यो मूढो न भजेद्‌गुरुम् ।
ब्रह्महत्यादिभिः पापैः स लिप्तो नात्र संशयः ॥६७॥
इसीलिए विद्या या धन से अन्धा होकर जो मूर्ख गुरु-सेवा नहीं करता है, वह ब्रह्महत्या आदि पापों का भागी होता है, इसमें संशय नहीं ॥ ६७ ॥

दरिद्रं पतितं क्षुद्रं नरबुद्ध्याऽऽचरेद्‌गुरुम् ।
तीर्थस्नातोऽपि न शुचिर्नाधिकारी च कर्मसु ॥६८॥
इस प्रकार दरिद्र, पतित और क्षुद्र गुरु से प्रति भी जो मनुष्य-बुद्धि से आचरण करता है, वह तीर्थों में स्नान करने पर भी शुद्ध नहीं होता है और न कर्मों का अधिकारी ही होता है ॥ ६८ ॥

पितरं मातरं भार्यां गुरुपत्‍नीं गुरुं परम् ।
यो न पुष्णाति कापट्यात्स महापातकी शिव ॥।६९॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुर्भास्कररूपकः ॥७०॥
गुरुन्द्रस्तथेन्द्रश्च वायुश्च वरुणोऽनलः ।
सर्वरूपो हि भगवान्परमात्मा स्वयं गुरुः ॥७१॥
हे शिव ! पिता, माता, स्त्री, गुरुग्ली और परम गुरु का जो कपट के कारण पोषण नहीं करता है, वह महापातकी है । गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु भगवान् शंकर है, गुरु ही परब्रह्म है और गुरु सूर्यरूप है । गुरु ही चन्द्र, इन्द्र, वायु, वरुण तथा अग्नि है । गुरु हो स्वयं सर्वरूप भगवान् परमात्मा है । ॥ ६९-७१ ॥

नास्ति वेदात्परं शास्त्रं नहि कृष्णात्परः सुरः ।
नास्ति गङ्‌गासमं तीर्थं न पुष्पं तुलसीदलात् ॥७२॥
नास्ति क्षमावती भूमेः पूत्रान्नास्त्यपरः प्रियः ।
न च दैवात्परा शक्तिनैकादश्याः परं सतम् ॥७३॥
शालग्रामात्परो यन्त्रो न क्षेत्रं भारतात्परम् ।
परं पुण्यस्थलानां च पुण्यं वृन्दावनं यथा ॥७४॥
वेद से बढ़कर कोई शास्त्र और कृष्ण से बढ़कर कोई देवता नहीं है । गंगा के समान तीर्थ, तुलसी दल से बढ़कर अन्य पुष्प, पृथिवी से बढ़कर क्षमाशील और पुत्र से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है । दैव से बढ़कर शक्ति, एकादशी से बढ़कर व्रत, शालग्राम से बढ़कर यंत्र, भारत से बढ़कर क्षेत्र एवं पुण्यस्थलों में वृन्दावन से अधिक पवित्र कोई नहीं है ॥ ७२-७४ ॥

मोक्षदानां यथा काशी वैष्णवानां यथा शिवः ।
न पार्वत्याः परा साध्वी न गणेशात्परो वशी ॥७५॥
मोक्षदायकों में काशी और वैष्णवों में शिव से बढ़कर कोई नहीं है । पार्वती से बढ़कर पतिव्रता और गणेश से बढ़कर आत्मसंयमी कोई नहीं है ॥ ७५ ॥

न च विद्यासमो बन्धुर्नास्ति कश्चिद्‌गुरोः परः ।
विद्यादातुः पुत्रदारौ तत्समौ नात्र संशयः ॥७६॥
विद्या के समान बन्धु और गुरु से बढ़कर कोई दूसरा हितैषी नहीं है । विद्या देने वाले की पत्नी और पुत्र भी उन्हीं के समान हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ७६ ॥

गुरुस्त्रियां च पुत्रे चाप्यभवद्‌रामहेलनम् ।
परं संमार्जनं कर्तुमागतोऽहं तवाऽऽलयम् ॥७७॥
गुरुपत्नी और उनके पुत्र का राम ने अपमान किया है, उसी का क्षालन करने के लिए मैं तुम्हारे घर आया हूँ ॥ ७७ ॥

नारायण उवाच
इत्येवमुक्त्वा शंभुं च दुर्गां संबोध्य नारद ।
उवाच भगवांस्तत्र सत्यसारं परं वचः ॥७८॥
नारायण पोले-हे नारद ! इस प्रकार कह कर शिव और दुर्गा को सम्बोधित करके भगवान् ने सत्य का सार एवं श्रेष्ठ वचन कहा ॥ ७८ ॥

विष्णुरुवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि मदीयं वचनं शुभम् ।
नीतियुक्तं वेदसारं परिणामसुखावहम् ॥७९॥
विष्णु बोले-हे देवि ! मैं तुमसे कुछ शुभ वचन कह रहा हूँ, जो नीतियुक्त, वेद का सार भाग और परिणाम में सुखप्रद होगा, सुनो ॥ ७९ ॥

यथा ते गजवक्त्रश्च कार्तिकेयश्च पार्वति ।
तथा परशुरामश्च भार्गवो नात्र संशयः ॥८०॥
हे पार्वती ! जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र गजानन और कार्तिीय हैं उसी भांति भार्गव परशुराम भी हैं, इसमें संशय नहीं ॥ ८० ॥

नान्त्येषु स्नेहभेदश्च तव वा शंकरस्य च ।
विचार्य सर्वं सर्वज्ञे कुरु मातर्यथोबितम् ॥८१॥
हे सर्वज्ञे, हे मातः ! तुम्हारा और शिव का इसमें स्नेहभेद भी नहीं है, अतः विचार करके जो उचित हो, करो ॥ ८१ ॥

पुत्रेण सार्धं पुत्रस्य विवादो दैवदोषतः ।
दैवं हन्तुं को हि शक्तो दैवं च बलवत्तरम् ॥८२॥
पुत्र के साथ पुत्र का विवाद हो गया, तो यह देब का दोष है । देव को हटाने में कौन समर्थ है? वह सबसे बलवान् होता है ॥ ८२ ॥

पुत्राभिधानं वेदेषु पश्य वत्से वरानने ।
एकदन्त इति ख्यातं सर्वदेवनमस्कृतम् ॥८३॥
हे वत्से ! हे वरानने ! वेदों में पुत्र का नाम देखो-'एकदन्त' यही विख्यात है जो सब देवों से नमस्कृत है ॥ ८३ ॥

पुत्रनामाष्टकं स्तोत्रं सामवेदोक्तमीश्वरि ।
शृणुष्वावहितं मातः सर्वविघ्नहरं परम् ॥८४॥
अतः हे ईश्वरि ! हे मातः ! सामवेदानुसार पुत्र का ना राष्टक स्तोत्र, जो समस्त विघ्नों का परम नाशक है, सावधानी से सुनो ॥ ८४ ॥

विष्णुरुवाच
गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं विघ्ननायकम् ।
लम्बोदरं शूर्पकर्णं गजवक्त्रं गुहाग्रजम् ॥८५॥
विष्णु बोले-गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननायक, लम्बोदर, शूर्पकर्ण (सूप के समान कान वाले), गजानन, गुहाग्रज (स्कन्द के ज्येष्ठ भ्राता), यही आठ नाम हैं ॥ ८५ ॥

अष्टाख्यार्थं च पुत्रस्य शृणु मातहरप्रिये ।
स्तोत्राणां सारभूतं च सर्वविघ्नहरं परम् ॥८६॥
हे हर प्रेये ! मातः ! पुत्र के इन आठों नामों के अर्थ सुनो, जो स्तोत्रों का सारभ ग और समस्त विघ्नों का परम नाशक है ॥ ८६ ॥

ज्ञानार्थवाचकोगश्च णश्च निर्वाणवाचकः ।
तयोरीशं परं ब्रह्म गणेशं प्रणमाम्यहम् ॥८७॥
ग का अर्थ ज्ञान, ण का अर्थ (मुक्ति), इन दोनों के अधीश्वर परब्रह्म गणेश को मैं प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ८७ ॥

एकशब्दः प्रधानार्थो दन्तश्च बलवाचकः ।
बलं प्रधानं सर्वस्मादेकदन्तं नमाम्यहम् ॥८८॥
एक का अर्थ प्रधान, दन्त का अर्थ बल है, अतः सबसे प्रधान व ती एकदन्त को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ८८ ॥

दीनार्थवाचको हेश्च रम्बः पालकवाचकः ।
पालकं दीनलोकानां हेरम्बं प्ररा० ॥८९ ॥
हे का अर्थ दीन और रम्ब का अर्थ पालन करना है, अतः दीनों और लोकों के पालनकर्ता हेरम्ब को मैं प्रणाम कर रहा है ॥ ८९ ॥

विपत्तिवाचको विघ्नो नायकः खण्डनार्थकः ।
विपत्खण्डनकारं तं प्रणमे विघ्ननयध्वम् ॥९० ॥
विघ्न का अर्थ है विपत्ति अंर नायक का अर्थ है वण्डन करना, अतः विपत्ति के वण्डन करने वाले विघ्ननायक को मैं प्रणाम कर रहा हूँ ॥ ९० ॥

विष्णुदत्तैश्च नैवेद्यैर्यस्य लम्बं पुरोदरम् ।
पित्रा वत्तैश्च विविधैर्वत्वे लम्बोदरं च तम् ॥९१ ॥
भगवान् विष्णु के दिये हुए नवे खाने से क्या पिता द्वारा भी विविध भांति के नैवेद्य देने से जिसका उदर लम्बा है गया है, उस लम्बोदर की मैं वन्दना कर रहा हूँ ॥ ९१ ॥

शूर्पाकारौ च यत्कर्णौ विघ्नवारणकारकौ ।
संपदौ ज्ञानरूपौ च शूर्पकर्णं नमाम्यहम् ॥९२॥
विघ्नों को दूर भगाने के लिए जिसके दोनों कान सूप' की भाँति बड़े हैं, सम्पत्तिदायक है तथा ज्ञानस्वरूप हैं, उन शूर्पकर्ण को नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ९२ ॥

विष्णुप्रसादं मुनिना दत्तं यन्मूर्ध्नि पुष्पकम् ।
तद्‌गजेन्द्रमुखं कान्तं गजववत्रं नमाम्यहम् ॥९३ ॥
मुनिप्रदन विष्णु का प्रसाद पुष्प जिसके मस्तक पर था, उस मनोहर गजेन्द्र मुखवाले गजानन को मैं नमस्कार कर रहा हूँ ॥ ९३ ॥

गुहस्याग्रे च जातोऽयमाविर्भूतो हरालये ।
वन्दे गुहाग्रजं देवं सर्वदेवाग्रपूऽजितम् ॥९४॥
शिव के घर स्कन्द से प्रथन यह प्रकट हुए हैं, अतः समस्त बड़े देवों से पूजित गुहाग्रज देव की मैं बन्दना कर रहा हूँ ॥ ९४ ॥

एतन्नागाष्टक्। दुर्गे नानाशक्तियुतं परम् ।
एतन्नामाष्टकं स्तोत्रं नानार्थसहितं शुभम् ॥९५ ॥
हे दुर्गे ! इस प्रकार यह अष्टक अनेक शक्तियों और अनेक अर्थों से युक्त एवं शुभ स्तोत्र है ॥ ९५ ॥

त्रिसध्यं यः पठेन्नित्यं स सुखी सर्वतो जयी ।
ततो विघ्नाः पलायन्ते वैगतेयाद्यथोरगाः ॥९६॥
जो तीनों कालों में इसका नित्य पाठ करता है, वह सुखी और सबसे विजयी होता है तथा गरुड़ से साँप की भाँति उससे सभी विघ्न पलायन कर जाते हैं ॥ ९६ ॥

गणेशरप्रसादेन महाज्ञानी भवेद्‌ध्रुवम् ।
पुत्रार्थो लभते पुत्रं भार्यार्थी कुशलां स्त्रियम् ॥९७॥
गणेश्वर के प्रसाद से वह निश्चित रूप से महाज्ञानी होता है । पुत्रार्थी पुत्र और भार्या चाहने वाला कुशल स्त्री प्राप्त करता है ॥ ९७ ॥

महाराडः कवीन्द्रश्च विद्यावांश्च भवेद्धुवम् ।
पुत्र त्वं पश्य वेदे च तथा कोपं च नो कुरु ॥९८॥
महामूर्ख कवीन्द्र और विद्यावान् होता है । अतः हे पुत्र ! तुम वेद में देखो, कोप न करो ॥ ९८ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराणे गणपतिखण्डे
नारदनारायणसंवादे गणेशस्तोत्रकथनं नाम
चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः ॥४४॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के तीसरे गणपतिखण्ड में नारद-नारायण-संवाद में गणेश स्तोत्र-कथन नामक चौवालोसवाँ अध्याय समाप्त ॥ ४४ ॥

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