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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
देवीभागवतमाहात्म्यम्
प्रथमोऽध्यायः

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देवीभागवतश्रवणमाहाम्यवर्णनम् -
सूतजीके द्वारा ऋषियोंके प्रति श्रीमद्देवीभागवतके श्रवणकी महिमाका कथन


सृष्टौ या सर्गरूपा जगदवनविधौ
    पालनी या च रौद्री
संहारे चापि यस्या जगदिदमखिलं
    क्रीडनं या पराख्या ।
पश्यन्ती मध्यमाथो तदनु भगवती
    वैखरी वर्णरूपा
सास्मद्वाचं प्रसन्ना विधिहरिगिरिशा-
    राधितालङ्करोतु ॥ १ ॥
जगत्‌के सृष्टिकार्यमें जो उत्पत्तिरूपा, रक्षाकार्यमें पालनशक्तिरूपा, संहारकार्यमें रौद्ररूपा हैं, सम्पूर्ण विश्व-प्रपंच जिनके लिये क्रीडास्वरूप है, जो परापश्यन्ती-मध्यमा तथा वैखरी वाणीमें अभिव्यक्त होती हैं और जो ब्रह्मा-विष्णु-महेशद्वारा निरन्तर आराधित हैं, वे प्रसन्न चित्तवाली देवी भगवती मेरी वाणीको अलंकृत (परिशुद्ध) करें ॥ १ ॥

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ २ ॥
[बदरिकाश्रमनिवासी प्रसिद्ध ऋषि] श्रीनारायण तथा नरोंमें श्रेष्ठ श्रीनर, भगवती सरस्वती और महर्षि वेदव्यासको प्रणाम करनेके पश्चात् ही जय (इतिहासपुराणादि सद्ग्रन्थों)-का पाठ-प्रवचन करना चाहिये ॥ २ ॥

ऋषय ऊचुः
सूत जीव समा बह्वीर्यस्त्वं श्रावयसीह नः ।
कथा मनोहराः पुण्या व्यासशिष्य महामते ॥ ३ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हे महामते ! हे व्यासशिष्य ! आप दीर्घजीवी हों; आप हमलोगोंको नानाविध पुण्यप्रदायिनी एवं मनोहारिणी कथाएँ सुनाते रहते हैं ॥ ३ ॥

सर्वपापहरं पुण्यं विष्णोश्चरितमद्भुतम् ।
अवतारकथोपेतमस्माभिर्भक्तितः श्रुतम् ॥ ४ ॥
शिवस्य चरितं दिव्यं भस्मरुद्राक्षयोस्तथा ।
सेतिहासञ्च माहात्म्यं श्रुतं तव मुखाम्बुजात् ॥ ५ ॥
भगवान् विष्णुके सर्वपापविनाशक, परम पवित्र एवं उन अवतार-कथाओंसे सम्बन्धित अद्भुत चरित्रोंको हमने भक्तिपूर्वक सुना और इसी प्रकार हमने भगवान् शिवके अलौकिक चरित्र तथा भस्म और रुद्राक्षके ऐतिहासिक माहात्म्यका श्रवण आपके मुखारविन्दसे किया ॥ ४-५ ॥

अधुना श्रोतुमिच्छामः पावनात् पावनं परम् ।
भुक्तिमुक्तिप्रदं नॄणामनायासेन सर्वशः ॥ ६ ॥
हमलोग अब ऐसी परम पावन कथा सुनना चाहते हैं, जो बिना प्रयासके ही मनुष्योंको भोग एवं मोक्ष प्रदान करने में पूर्णरूपसे सहायक हो ॥ ६ ॥

तत् त्वं ब्रूहि महाभाग येन सिध्यन्ति मानवाः ।
कलावपि परं त्वत्तो न विद्मः संशयच्छिदम् ॥ ७ ॥
हे महाभाग ! अत: आप उस कथाका वर्णन करें, जिसके द्वारा मानव कलियुगमें भी सिद्धियाँ प्राप्त कर लें क्योंकि हम आपसे बढ़कर किसी अन्यको नहीं जानते हैं, जो हमारी शंकाओंका निवारण कर सके ॥ ७ ॥

सूत उवाच
साधु पृष्टं महाभागा लोकानां हितकाम्यया ।
सर्वशास्त्रस्य यत् सारं तद्वो वक्ष्याम्यशेषतः ॥ ८ ॥
सूतजी बोले-हे महाभाग ऋषियो ! आपलोगोंने लोककल्याणकी भावनासे अत्यन्त उत्तम प्रश्न किया है, अत: मैं आप सभीके लिये समस्त शास्त्रोंका जो सार है, उसे पूर्णरूपसे बताऊँगा ॥ ८ ॥

तावद् गर्जन्ति तीर्थानि पुराणानि व्रतानि च ।
यावन्न श्रूयते सम्यग देवीभागवतं नरैः ॥ ९ ॥
समस्त तीर्थ, पुराण और व्रत [अपनी श्रेष्ठताका वर्णन करते हुए] तभीतक गर्जना करते हैं, जबतक मनुष्य श्रीमद्देवीभागवतका सम्यक्प से श्रवण नहीं कर लेते ॥ ९ ॥

तावत् पापाटवी नॄणां क्लेशदादभ्रकण्टका ।
यावन्न परशुः प्राप्तो देवीभागवताभिधः ॥ १० ॥
मनुष्योंके लिये पापरूपी अरण्य तभीतक दुःखप्रद एवं कंटकमय रहता है, जबतक श्रीमद्देवीभागवतरूपी परशु (कुठार) उपलब्ध नहीं हो जाता ॥ १० ॥

तावत् क्लेशावहं नॄणामुपसर्गमहातमः ।
यावन्नैवोदयं प्राप्तो देवीभागवतोष्णगुः ॥ ११ ॥
मनुष्योंको उपसर्ग (ग्रहण)-रूपी घोर अन्धकार तभीतक कष्ट पहुँचाता है, जबतक श्रीमद्देवीभागवतरूपी सूर्य उनके सम्मुख उदित नहीं हो जाते ॥ ११ ॥

ऋषय ऊचुः
सूत सूत महाभाग वद नो वदतां वर ।
कीदृशं तत्पुराणं हि विधिस्तच्छ्रवणे च कः ॥ १२ ॥
कतिभिर्वासरैरेतच्छ्रोतव्यं किञ्च पूजनम् ।
कैर्मानवैः श्रुतं पूर्वं कान्कान्कामानवाप्नुयुः ॥ १३ ॥
ऋषिगण बोले-हे वक्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग सूतजी ! आप हमें बतायें कि वह श्रीमद्देवीभागवतपुराण कैसा है और उसके श्रवणकी विधि क्या है ? उस पुराणको कितने दिनोंमें सुनना चाहिये, [उसके श्रवणकी अवधिमें] पूजन-विधान क्या है, प्राचीन कालमें किन-किन मनुष्योंने इसे सुना और उनकी कौन-कौनसी कामनाएं पूर्ण हुई ? ॥ १२-१३ ॥

सूत उवाच
विष्णोरंशो मुनिर्जातः सत्यवत्यां पराशरात् ।
विभज्य वेदांश्चतुरः शिष्यानध्यापयत्पुरा ॥ १४ ॥
सूतजी बोले- प्राचीन कालमें पराशरऋषिद्वारा सत्यवतीके गर्भसे विष्णुके अंशस्वरूप मुनि व्यास उत्पन्न हुए, जिन्होंने वेदोंका चार विभाग करके उन्हें अपने शिष्योंको पढ़ाया ॥ १४ ॥

व्रात्यानां द्विजबन्धूनां वेदेष्वनधिकारिणाम् ।
स्त्रीणां दुर्मेधसां नृणां धर्मज्ञानं कथं भवेत् ॥ १५ ॥
विचार्यैतत् तु मनसा भगवान् बादरायणः ।
पुराणसंहितां दध्यौ तेषां धर्मविधित्सया ॥ १६ ॥
पतितों, ब्राह्मणाधमों, वेदाध्ययनके अनधिकारियों, स्त्रियों एवं दूषित बुद्धिवाले मनुष्योंको धर्मका ज्ञान कैसे हो-मनमें ऐसा विचार करके भगवान् बादरायण व्यासजीने उनके धर्मज्ञानार्थ पुराण-संहिताका प्रणयन किया ॥ १५-१६ ॥

अष्टादश पुराणानि स कृत्वा भगवान् मुनिः ।
मामेवाध्यापयामास भारताख्यानमेव च ॥ १७ ॥
उन भगवान् व्यासमुनिने अठारह पुराणों एवं महाभारतका प्रणयन करके सर्वप्रथम मुझे ही पढ़ाया ॥ १७ ॥

देवीभागवतं तत्र पुराणं भोगमोक्षदम् ।
स्वयं तु श्रावयामास जनमेजयभूपतिम् ॥ १८ ॥
उन पुराणोंमें श्रीमद्देवीभागवतपुराण भोग एवं मोक्षको देनेवाला है । व्यासजीने राजा जनमेजयको यह पुराण स्वयं सुनाया था ॥ १८ ॥

पूर्वमस्य पिता राजा परीक्षित् तक्षकाहिना ।
सन्दष्टस्तस्य संशुध्यै राज्ञा भागवतं श्रुतम् ॥ १९ ॥
नवभिर्दिवसैः श्रीमद्वेदव्यासमुखाम्बुजात् ।
त्रैलोक्यमातरं देवीं पूजयित्वा विधानतः ॥ २० ॥
पूर्वकालमें इन जनमेजयके पिता राजा परीक्षित् तक्षक-नागद्वारा काट लिये गये । अत: पिताकी संशुद्धि (शुभगति) के लिये राजाने तीनों लोकोंकी जननी देवी भगवतीका विधिवत् पूजन-अर्चन करके नौ दिनोंतक व्यासजीके मुखारविन्दसे इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण किया ॥ १९-२० ॥

नवाहयज्ञे सशृर्णे परीक्षिदपि भूपतिः ।
दिव्यरूपधरो देव्याः सालोक्यं तत्क्षणादगात् ॥ २१ ॥
इस नवाहयज्ञके सम्पूर्ण हो जानेपर राजा परीक्षित्ने उसी समय दिव्यरूप धारण करके देवीका सालोक्य प्राप्त किया ॥ २१ ॥

पितुर्दिव्यां गतिं राजा विलोक्य जनमेजयः ।
व्यासं मुनिं समभ्यर्च्य परां मुदमवाप ह ॥ २२ ॥
राजा जनमेजय अपने पिताकी दिव्य गति देखकर और महर्षि वेदव्यासकी विधिवत् पूजा करके परम प्रसन्न हुए ॥ २२ ॥

अष्टादशपुराणानां मध्ये सर्वोत्तमं परम् ।
देवीभागवतं नाम धर्मकामार्थमोक्षदम् ॥ २३ ॥
सभी अठारह पुराणोंमें यह श्रीमद्देवीभागवतपुराण सर्वश्रेष्ठ है और धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षको प्रदान करनेवाला है ॥ २३ ॥

ये शृण्वन्ति सदा भक्त्या देव्या भागवतीं कथाम् ।
तेषां सिद्धिर्न दूरस्था तस्मात् सेव्या सदा नृभिः ॥ २४ ॥
जो लोग सदा भक्ति-श्रद्धापूर्वक श्रीमद्देवीभागवतकी कथा सुनते हैं, उन्हें सिद्धि प्राप्त होनेमें रंचमात्र भी विलम्ब नहीं होता । इसलिये मनुष्योंको इस पुराणका सदा पठन-श्रवण करना चाहिये ॥ २४ ॥

दिनमर्धं तदर्धं वा मुहूर्तं क्षणमेव वा ।
ये शृण्वन्ति नरा भक्त्या न तेषां दुर्गतिः क्वचित् ॥ २५ ॥
पूरे दिन, दिनके आधे समयतक, चौथाई समयतक, मुहूर्तभर अथवा एक क्षण भी जो लोग भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करते हैं, उनकी कभी भी दुर्गति नहीं होती ॥ २५ ॥

सर्वयज्ञेषु तीर्थेषु सर्वदानेषु यत् फलम् ।
सकृत् पुराणश्रवणात् तत् फलं लभते नरः ॥ २६ ॥
मनुष्य सभी यज्ञों, तीर्थों तथा दान आदि शुभ कर्मोका जो फल प्राप्त करता है, वही फल उसे केवल एक बार श्रीमद्देवीभागवतपुराणके श्रवणसे प्राप्त हो जाता है ॥ २६ ॥

कृतादौ बहवो धर्माः कलौ धर्मस्तु केवलम् ।
पुराणश्रवणादन्यो विद्यते नापरो नृणाम् ॥ २७ ॥
सत्ययुग आदि युगोंमें तो अनेक प्रकारके धर्मोका विधान था, किंतु कलियुगमें पुराण-श्रवणके अतिरिक्त मनुष्योंके लिये अन्य कोई सरल धर्म विहित नहीं है । ॥ २७ ॥

धर्माचारविहीनानां कलावल्पायुषां नृणाम् ।
व्यासो हिताय विदधे पुराणाख्यं सुधारसम् ॥ २८ ॥
कलियुगमें धर्म एवं सदाचारसे रहित तथा अल्प आयुवाले मनुष्योंके कल्याणार्थ महर्षि वेदव्यासने अमृतरसमय श्रीमद्देवीभागवतनामक पुराणकी रचना की ॥ २८ ॥

सुधां पिबन्नेक एव नरः स्यादजरामरः ।
देव्याः कथामृतं कुर्यात् कुलमेवाजरामरम् ॥ २९ ॥
अमृतके पानसे तो केवल एक ही मनुष्य अजरअमर होता है, किंतु भगवतीका कथारूप अमृत सम्पूर्ण कुलको ही अजर-अमर बना देता है ॥ २९ ॥

मासानां नियमो नात्र दिनानां नियमोऽपि न ।
सदा सेव्यं सदा सेव्यं देवीभागवतं नरैः ॥ ३० ॥
श्रीमद्देवीभागवतके कथा-श्रवणमें महीनों तथा दिनोंका कोई भी नियम नहीं है । अतएव मानवोंद्वारा इसका सदा ही सेवन (पठन-श्रवण) किया जाना चाहिये ॥ ३० ॥

आश्विने मधुमासे वा तपोमासे शुचौ तथा ।
चतुर्षु नवरात्रेषु विशेषात् फलदायकम् ॥ ३१ ॥
आश्विन, चैत्र, माघ तथा आषाढ़-इन महीनोंके चारों नवरात्रों में इस पुराणका श्रवण विशेष फल प्रदान करता है ॥ ३१ ॥

अतो नवाहयज्ञोऽयं सर्वस्मात् पुण्यकर्मणः ।
फलाधिकप्रदानेन प्रोक्तः पुण्यप्रदो नृणाम् ॥ ३२ ॥
अतएव श्रीमद्देवीभागवतका यह नवाहयज्ञ समस्त पुण्यकर्मोसे अधिक फलदायक होनेके कारण मनुष्योंके लिये विशेष पुण्यप्रद कहा गया है ॥ ३२ ॥

ये दुर्हृदः पापरता विमूढा
    मित्रद्रुहो वेदविनिन्दकाश्च ।
हिंसारता नास्तिकमार्गसक्ता
    नवाहयज्ञेन पुनन्ति ते कलौ ॥ ३३ ॥
जो कलुषित हृदयवाले, पापी, मूर्ख, मित्रद्रोही, वेदोंकी निन्दा करनेवाले, हिंसा में रत और नास्तिक मार्गका अनुसरण करनेवाले मनुष्य हैं, वे भी कलियुगमें इस नवाहयज्ञके अनुष्ठानसे पवित्र हो जाते हैं ॥ ३३ ॥

परस्वदाराहरणेऽतिलुब्धा
    ये वै नराः कल्मषभारभाजः ।
गोदेवताब्राह्मणभक्तिहीना
    नवाहयज्ञेन भवन्ति शुद्धाः ॥ ३४ ॥
जो मनुष्य दूसरोंके धन तथा परायी स्त्रियोंके लिये लालायित रहते हैं, पापके बोझसे दबे हुए हैं और गो-ब्राह्मण-देवताओंकी भक्तिसे रहित हैं, वे भी इस नवाहयज्ञसे शुद्ध हो जाते हैं ॥ ३४ ॥

तपोभिरुग्रैर्व्रततीर्थसेवनै-
    र्दानैरनेकैर्नियमैर्मखैश्च ।
हुतैर्जपैर्यच्च फलं न लभ्यते
    नवाहयज्ञेन तदाप्यते नृणाम् ॥ ३५ ॥
जो फल कठिन तपस्याओं, व्रतों, तीर्थसेवन, अनेकविध दान, नियमों, यज्ञों, हवन एवं जप आदिके करनेसे प्राप्त नहीं होता है, वह फल मनुष्योंको श्रीमदेवीभागवतके नवाहयज्ञसे प्राप्त हो जाता है ॥ ३५ ॥

तथा न गङ्गा न गया न काशी
    न नैमिषं नो मथुरा न पुष्करम् ।
पुनाति सद्यो बदरीवनं नो
    यथा हि देवीमख एष विप्राः ॥ ३६ ॥
हे विप्रो ! गंगा, गया, काशी, नैमिषारण्य, मथुरा, पुष्कर तथा बदरिकारण्य भी मनुष्योंको उतना शीघ्र पवित्र नहीं कर पाते हैं, जितना कि श्रीमद्देवीभागवतका यह नवाहयज्ञ लोगोंको पवित्र कर देता है ॥ ३६ ॥

अतो भागवतं देव्याः पुराणं परतः परम् ।
धर्मार्थकाममोक्षाणामुत्तमं साधनं मतम् ॥ ३७ ॥
अतएव श्रीमद्देवीभागवतपुराण सभी पुराणोंमें श्रेष्ठतम है । इसे धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षकी प्राप्तिका उत्तम साधन माना गया है ॥ ३७ ॥

आश्विनस्य सिते पक्षे कन्याराशिगते रवौ ।
महाष्टम्यां समभ्यर्च्य हैमसिंहासनस्थितम् ॥ ३८ ॥
देवीप्रीतिप्रदं भक्त्या श्रीभागवतपुस्तकम् ।
दद्याद् विप्राय योग्याय स देव्याः पदवीं लभेत् ॥ ३९ ॥
जो आश्विन महीनेके शुक्लपक्षमें सूर्यके कन्याराशिमें पहुँचनेपर महाष्टमी तिथिको स्वर्ण सिंहासनपर स्थित देवीके प्रीतिप्रद श्रीमद्देवीभागवत-ग्रन्थका पूजन करके उसे किसी योग्य ब्राह्मणको श्रद्धापूर्वक देता है, वह देवीके परमपदको प्राप्त करता है ॥ ३८-३९ ॥

देवीभागवतस्यापि श्लोकं श्लोकार्धमेव वा ।
भक्त्या यश्च पठेन्नित्यं स देव्याः प्रीतिभाग्भवेत् ॥ ४० ॥
जो मनुष्य प्रतिदिन श्रीमद्देवीभागवतपुराणके एक अथवा आधे श्लोकका भी भक्तिपूर्वक पाठ करता है, वह जगदम्बाका कृपापात्र हो जाता है ॥ ४० ॥

उपसर्गभयं घोरं महामारीसमुद्‌भवम् ।
उत्पातानखिलांश्चापि हन्ति श्रवणमात्रतः ॥ ४१ ॥
महामारीसे उत्पन्न उपद्रवोंके भीषण भय तथा समस्त प्रकारके उत्पात (उल्कापात, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि) इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणके श्रवणमात्रसे विनष्ट हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

बालग्रहकृतं यच्च भूतप्रेतकृतं भयम् ।
देवीभागवतस्यास्य श्रवणाद् याति दूरतः ॥ ४२
बालग्रहों- (स्कन्दग्रह, स्कन्दापस्मार, शकुनी, रेवती, पूतना, अन्धपूतना, शीतपूतना, मुखमण्डिका और नैगमेष) तथा भूत-प्रेत आदिसे उत्पन्न भय इस श्रीमद्देवीभागवत-पुराणके श्रवणसे बहुत दूरसे ही भाग जाते हैं ॥ ४२ ॥

यस्तु भागवतं देव्याः पठेद् भक्त्या श्रृणोति वा ।
धर्ममर्थं च कामं च मोक्षं च लभते नरः ॥ ४३ ॥
जो व्यक्ति भक्ति-भावसे देवीके इस भागवतपुराणका पाठ अथवा श्रवण करता है; वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥

श्रवणाद्वसुदेवोऽस्य प्रसेनान्वेषणे गतम् ।
चिरायितं प्रियं पुत्रं कृष्णं लब्ध्वा मुमोद ह ॥ ४४ ॥
इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणके श्रवणसे वसुदेवजी प्रसेनको खोजनेके लिये गये हुए और बहुत समयतक न लौटे हुए अपने प्रिय पुत्र श्रीकृष्णको प्राप्त करके प्रसन्न हुए । ४४ ॥

य एतां शृणुयाद् भक्त्या श्रीमद्भागवतीं कथाम् ।
भुक्तिं भुक्तिं स लभते भक्त्या यश्च पठेदिमाम् ॥ ४५ ॥
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणकी कथाको पढ़ता है तथा इसका श्रवण करता है, वह भोग तथा मोक्ष दोनों प्राप्त कर लेता है ॥ ४५ ॥

अपुत्रो लभते पुत्रं दरिद्रो धनवान् भवेत् ।
रोगी रोगात् प्रमुच्येत श्रुत्वा भागवतामृतम् ॥ ४६ ॥
अमृतस्वरूप इस श्रीमद्देवीभागवतके श्रवणसे पुत्रहीन मनुष्य पुत्रवान् हो जाता है, दरिद्र व्यक्ति धनसे सम्पन्न हो जाता है तथा रोगग्रस्त मनुष्य रोगसे मुक्त हो जाता है ॥ ४६ ॥

वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा च याङ्गना ।
देवीभागवतं श्रुत्वा लभेत् पुत्रं चिरायुषम् ॥ ४७ ॥
वन्ध्या स्त्री, एक सन्तानवाली स्त्री अथवा वह स्त्री जिसकी सन्तान पैदा होकर मर जाती हो-वे भी श्रीमद्देवीभागवतपुराण सुनकर दीर्घ आयुवाला पुत्र प्राप्त करती हैं । ४७ ॥

पूजितं यद्‌गृहे नित्यं श्रीभागवतपुस्तकम् ।
तद्‌गृहं तीर्थभूतं हि वसतां पापनाशकम् ॥ ४८ ॥
जिस घरमें नित्य श्रीमद्देवीभागवतपुराणका पूजन किया जाता है, वह घर तीर्थस्वरूप हो जाता है तथा उसमें निवास करनेवाले लोगोंके पापोंका नाश हो जाता है ॥ ४८ ॥

अष्टम्यां वा चतुर्दश्यां नवम्यां भक्तिसंयुतः ।
यः पठेच्छणुयाद् वापि स सिद्धिं लभते पराम् ॥ ४९ ॥
जो मनुष्य अष्टमी, नवमी अथवा चतुर्दशी तिथियोंको श्रद्धापूर्वक इसे पढ़ता या सुनता है, वह परम सिद्धिको प्राप्त करता है ॥ ४९ ॥

पठन् द्विजो वेदविदग्रणीर्भवेद्
    बाहुप्रजातो धरणीपतिः स्यात् ।
वैश्यः पठन् वित्तसमृद्धिमेति
    शूद्रोऽपि शृण्वन्स्वकुलोत्तमः स्यात् ॥ ५० ॥
इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणका पाठ करनेवाला ब्राह्मण वेदवेत्ताओंमें अग्रगण्य हो जाता है, क्षत्रिय राजा हो जाता है, वैश्य धन-सम्पदासे सम्पन्न हो जाता है और शूद्र भी इसके श्रवणमात्रसे अपने कुल (बन्धुबान्धवों) के बीच श्रेष्ठता प्राप्त कर लेता है ॥ ५० ॥

इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहाम्ये
देवीभागवतश्रवणमाहाम्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमहेवीभागवतमाहात्म्ये देवीभागवत श्रवणमाहात्म्यवर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥



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