श्रीमद्देवीभागवतके माहात्म्यके प्रसंगमें स्यमन्तकमणिकी कथा
ऋषय ऊचुः वसुदेवो महाभागः कथं पुत्रमवाप्तवान् । प्रसेनः कुत्र कृष्णेन भ्रमतान्वेषितः कथम् ॥ १ ॥ विधिना केन कस्माच्च देवीभागवतं श्रुतम् । वसुदेवेन सुमते वद सूत कथामिमाम् ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-महाभाग वसुदेवजीने अपने पुत्रको किस प्रकार प्राप्त किया और वनमें भ्रमण करते हुए श्रीकृष्णने प्रसेनको कैसे खोजा ? हे सुमते ! हे सूतजी ! किस विधिसे और किससे वसुदेवजीने श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण किया; आप हमलोगोंको यह कथा बतायें ॥ १-२ ॥
सूतजी बोले- भोजवंशी सत्राजित् द्वारकापुरीमें आनन्दपूर्वक निवास करता हुआ सूर्यकी आराधनामें तत्पर रहता था । वह सूर्यका परम भक्त एवं उनका मित्र था ॥ ३ ॥
अथ कालेन कियता प्रसन्नः सविताभवत् । स्वलोकं दर्शयामास तद्भक्त्या प्रणयेन च ॥ ४ ॥ तस्मै प्रीतश्च भगवान् स्यमन्तकमणिं ददौ । स तं बिभ्रन्मणि कण्ठे द्वारकामाजगाम ह ॥ ५ ॥
कुछ समयके पश्चात् सूर्यदेव उसके ऊपर प्रसन्न हो गये और उन्होंने उसे अपने लोकका दर्शन कराया । उसकी भक्ति तथा प्रेमसे अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् सूर्यने सत्राजित्को स्यमन्तकमणि दे दी और वह उस मणिको अपने गलेमें धारण किये हुए द्वारका आ गया ॥ ४-५ ॥
हे बाल-स्वभाव नागरिको ! ये सूर्यभगवान् नहीं है, बल्कि सत्राजित् है, जो स्वयं सूर्यद्वारा प्रदत्त स्यमन्तक-मणिसे दीप्तिमान् होता हुआ यहाँ आ रहा है ॥ ८ ॥
उसके पश्चात् ब्राह्मणोंको बुलाकर सत्राजित्ने स्वस्तिवाचन कराया और भलीभाँति पूजन करके उस मणिको अपने घरमें स्थापित किया ॥ ९ ॥
न तत्र मारी दुर्भिक्षं नोपसर्गभयं क्वचित् । यत्रास्ते स मणिर्नित्यमष्टभारसुवर्णदः ॥ १० ॥
वह मणि जहाँ रहती थी, वहाँ किसी प्रकारको महामारी, दुर्भिक्ष तथा उपसर्ग (भूकम्प आदि प्राकृतिक संकट)-का भय उत्पन्न नहीं होता था और (उस मणिकी एक विशेषता यह भी थी कि) वह नित्य आठ भार* स्वर्ण दिया करती थी ॥ १० ॥
अथ सत्राजितो भ्राता प्रसेनो नाम कर्हिचित् । कण्ठे बद्ध्वा मणिं सद्यो हयमारुह्य सैन्धवम् ॥ ११ ॥ मृगयार्थं वनं यातस्तमद्राक्षीत्रगाधिपः । प्रसेनं सहयं हत्वा सिंहो जग्राह तं मणिम् ॥ १२ ॥
तदनन्तर एक दिन सत्राजितके भाई प्रसेनने उस मणिको गलेमें धारणकर सिन्धुदेशीय घोड़ेपर सवार होकर आखेटके लिये बनकी ओर प्रस्थान किया । वहाँ वनमें किसी सिंहने उसे देखा और घोड़ेसहित प्रसेनको मारकर सिंहने वह मणि स्वयं ले ली ॥ ११-१२ ॥
जाम्बवानृक्षराजोऽथ दृष्ट्वा मणिधरं हरिम् । हत्वा च तं बिलद्वारि मणिं जग्राह वीर्यवान् ॥ १३ ॥
इसके पश्चात् महाबली ऋक्षराज जाम्बवान्ने मणि धारण करनेवाले उस सिंहको अपनी गुफाके द्वारपर देखकर और उसे मारकर मणि स्वयं ले ली ॥ १३ ॥
स तं मणिं स्वपुत्राय क्रीडनार्थमदात् प्रभुः । अथ चिक्रीडबालोऽपि मणिसम्माप्य भास्वरम् ॥ १४ ॥
पराक्रमी ऋक्षराजने वह मणि खेलनेके लिये अपने पुत्रको दे दी और वह बालक भी उस प्रदीप्त मणिको पाकर उसके साथ खेलने लगा ॥ १४ ॥
प्रसेनेऽनागते चाथ सत्राजित् पर्यतप्यत । न जाने केन निहतः प्रसेनो मणिमिच्छता ॥ १५ ॥
कुछ काल बीतनेपर भी प्रसेनके वापस न लौटनेपर सत्राजित् अत्यन्त दुःखी हुआ और सोचने लगा कि मणि लेनेकी इच्छासे न जाने किसने प्रसेनको मार डाला । ॥ १५ ॥
इसी बीच द्वारकापुरमें नागरिकोंकी पारस्परिक बात-चीतसे किसी प्रकार यह किंवदन्ती फैल गयी कि मणिके लोभके वशीभूत श्रीकृष्णने ही प्रसेनका वध किया है ॥ १६ ॥
स तं शुश्राव कृष्णोऽपि दुर्यशो लिप्तमात्मनि । मास्तु तत्तस्य पदवीं पुरौकोभिस्सहागमत् ॥ १७ ॥
श्रीकृष्णने भी जब अपने विषयमें अपयशकी वह बात सुनी तो उन्होंने अपने ऊपर लगे हुए कलंकके परिमार्जनहेतु प्रसेनके अन्वेषणार्थ नागरिकोंके साथ प्रस्थान किया ॥ १७ ॥
गत्वा स विपिनेऽपश्यत् प्रसेनं हरिणा हतम् । ययौ मृगेन्द्रमन्विष्यन्नसृग्बिन्द्वङ्किताध्वना ॥ १८ ॥
वनमें पहुँचनेपर श्रीकृष्णने सिंहद्वारा मारे गये प्रसेनको देखा और तदनन्तर गिरे हुए रक्त-बिन्दुओंसे | चिह्नित मार्गका अनुसरण करके सिंहको खोजते हुए वे कुछ दूर गये ॥ १८ ॥
अथ कृष्णो हतं सिंहं बिलद्वारि विलोक्य च । उवाच भगवान् वाचं कृपया पुरवासिनः ॥ १९ ॥ तिष्ठध्वं यूयमत्रैव यावदागमनं मम । प्रविशामि बिलं त्वेतन्मणिहारकलब्धये ॥ २० ॥
इसके पश्चात् एक गुफाके द्वारपर मरे हुए सिंहको देखकर भगवान् श्रीकृष्ण करुणायुक्त वाणी में नागरिकोंसे बोले–मणिका हरण करनेवालेको खोजनेके लिये मैं इस गुफाके भीतर प्रवेश कर रहा हूँ । जबतक मैं वापस न आ जाऊँ, तुम लोग यहींपर ठहरो ॥ १९-२० ॥
तथेत्युक्त्वा तु ते तस्तुस्तत्रैव द्वारकौकसः । जगामान्तर्बिलं कृष्णो यत्र जाम्बवतो गृहम् ॥ २१ ॥
वे द्वारकावासी 'ठीक है'-ऐसा बोलकर वहींपर ठहर गये और श्रीकृष्ण गुफाके भीतर प्रविष्ट हुए, जहाँ जाम्बवान्का घर था । ॥ २१ ॥
तब धात्रीकी आवाज सुनकर जाम्बवान् तुरंत वहाँ आ गया और वह अपने [पूर्व] स्वामी श्रीकृष्णके साथ दिन-रात निरन्तर युद्ध करने लगा ॥ २३ ॥
एवं त्रिनवरात्रं तु महद्युद्धमभूत्तयोः । कृष्णागमं प्रतीक्षन्तस्तस्मृर्द्वारि पुरौकसः ॥ २४ ॥ द्वादशाहं ततो भीत्या प्रतिजग्मुर्निजालयम् । तत्र ते कथयामासुर्वृत्तान्तं सर्वमादितः ॥ २५ ॥
इस प्रकार उन दोनोंके बीच सत्ताईस दिनोंतक भयंकर युद्ध हुआ । इधर द्वारकावासी गुफाके द्वारपर बारह दिनोंतक तो श्रीकृष्णके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे रहे, किंतु इसके बाद वे भयभीत होकर अपने-अपने घर चले गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने लोगोंसे सारा वृत्तान्त कहा ॥ २४-२५ ॥
सत्राजितं शपन्तस्ते सर्वे शोकाकुला भृशम् । वसुदेवो महाभागः श्रुत्वा पुत्रस्य तां कथाम् ॥ २६ ॥ मुमोह सपरीवारस्तदा परमया शुचा । चिन्तयामास बहुधा कथं श्रेयो भवेन्मम ॥ २७ ॥
द्वारकापुरीके सभी नागरिक यह सब सुनकर सत्राजित्की भर्त्सना करते हुए अत्यन्त शोकविह्वल हो गये । महाभाग वसुदेवजी अपने पुत्रका वह समाचार सुनकर परिवारसहित महान् शोकसे मूर्छित हो गये और बार-बार सोचने लगे कि मेरा कल्याण किस प्रकारसे हो ? ॥ २६-२७ ॥
अथाजगाम भगवान् देवर्षिर्ब्रह्मलोकतः । उत्थाय तं प्रणम्यासौ वसुदेवोऽभ्यपूजयत् ॥ २८ ॥
उसी समय ब्रह्मलोकसे देवर्षि नारद वहाँ आ गये । वसुदेवजीने उठकर उन्हें प्रणाम करके विधिवत् उनकी पूजा की ॥ २८ ॥
नारदोऽनामयं पृष्ट्वा वसुदेवं महामतिम् । पप्रच्छ च यदुश्रेष्ठं किं चिन्तयसि तद् वद ॥ २९ ॥
देवर्षि नारद महामति यदुश्रेष्ठ वसुदेवजीसे कुशल-क्षेम पूछकर उनसे बोले-आप क्यों चिन्तित हैं, यह मुझे बताइये ॥ २९ ॥
वसुदेवजी बोले- मेरा अतिशय प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण प्रसेनको खोजनेके लिये द्वारकाके नागरिकोंके साथ वनमें गया था, जहाँ उसने प्रसेनको मरा हुआ देखा । इसके पश्चात् प्रसेनको मारनेवाले सिंहको भी एक गुफाके द्वारपर मरा देखकर श्रीकृष्ण नागरिकोंको द्वारपर ही रोककर स्वयं गुफाके अन्दर चले गये । बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, किंतु मेरा पुत्र अभीतक नहीं लौटा, जिससे मैं चिन्तित हूँ, अत: हे मुने ! आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मैं अपने प्रिय पुत्रको प्राप्त कर सकूँ ॥ ३०-३२ ॥
नारदजी बोले-हे यदु श्रेष्ठ ! आप पुत्रकी प्राप्तिके लिये अम्बिकादेवीकी आराधना कीजिये । उनकी आराधनासे शीघ्र ही आपका कल्याण होगा ॥ ३३ ॥
वसुदेव उवाच भगवन् का हि सा देवी किंप्रभावा महेश्वरी । कथमाराधनं तस्या देवर्षे कृपया वद ॥ ३४ ॥
वसुदेवजी बोले-हे भगवन् ! वे देवी कौन हैं, वे महेश्वरी किस प्रकारके प्रभाववाली हैं तथा उनकी आराधना किस प्रकार की जाती है ? हे देवर्षे ! कृपा करके यह बतायें ॥ ३४ ॥
नारदजी बोले-हे महाभाग वसुदेव ! देवीके अतुलित माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन करनेमें कौन समर्थ है ? अत: मैं संक्षेपमें ही कह रहा हूँ, आप उसे सुनें ॥ ३५ ॥
जो भगवती शाश्वत, सच्चिदानन्दस्वरूपा और परात्परतरा देवी हैं तथा जिनके द्वारा यह जगत् व्याप्त है, जिनकी आराधनाके प्रभावसे ही ब्रह्मा इस चराचर सृष्टिकी रचना करते हैं, जिनका स्तवन करके भगवान् विष्णु मधु-कैटभके भयसे मुक्त हुए तथा जिनकी कृपासे वे विश्वका पालन-पोषण करते हैं, जिनके कृपा-कटाक्षमात्रसे भगवान् शंकर जगत्का संहार करते हैं और जो संसारके बन्धनकी कारणरूपा हैं, वे ही मुक्ति प्रदान करनेवाली हैं, वे ही परम विद्यास्वरूपा हैं और वे ही समस्त ईश्वरोंकी भी ईश्वरी हैं ॥ ३६-३९ ॥
अतः आप नवरात्रविधानके अनुसार जगदम्बाकी विधिवत् पूजा करके नौ दिनोंमें इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणका श्रवण कीजिये, जिसके श्रवणमात्रसे आप शीघ्र ही अपने पुत्रकी प्राप्ति कर लेंगे । इस पुराणका पाठ तथा श्रवण करनेवाले मनुष्योंसे भोग एवं मोक्ष दूर नहीं रहते ॥ ४०-४१ ॥
तत्पश्चात् गर्गमुनिको बुलाकर उनका अभिवादन तथा पूजन करके पुत्र प्राप्तिकी कामनासे मैंने उनसे देवकीका दुःख बताकर कहा-हे भगवन् ! हे दयासिन्धो ! हे मुनिवर ! आप यदुकुलके गुरु हैं, अतः मुझे आयुष्मान् पुत्रकी प्राप्तिका कोई उपाय बताइये । इसके अनन्तर दयानिधान गर्गजी प्रसन्न होकर मुझसे कहने लगे । ४७-४८ ॥
गगंजी बोले-हे महाभाग वसुदेव ! अब आप उस सर्वश्रेष्ठ साधनको सुनिये । जो भगवती दुर्गा अपने भक्तोंकी दुर्गतिका विनाश कर देती हैं, आप उन कल्याणकारिणी देवीकी आराधना कीजिये । इससे शीघ्र ही आपका कल्याण होगा; क्योंकि उनकी आराधनासे सभी लोगोंकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । दुर्गाकी उपासना करनेवाले मनुष्यों के लिये संसारमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है । ४९-५१ ॥
वसुदेवजी बोले-हे भगवन् ! हे करुणासागर ! हे गुरो ! यदि आप मुझपर स्नेह रखते हैं तो मेरे कल्याणके निमित्त आप ही उन भगवती चण्डिकाकी आराधना कर दें । मैं तो कंसके घरमें बन्दी रहनेके कारण कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं हूँ । अतः हे महामते ! अब आप ही इस दुःखसागरसे मेरा उद्धार कीजिये ॥ ५३-५४ ॥
[समस्त प्रकारके पाप एवं अनाचारस्वरूप] पृथ्वीके भारका नाश करनेके लिये मुझसे प्रेरणा प्राप्तकर स्वयं भगवान् विष्णु अपने अंशसे वसुदेवकी भार्या देवकीके गर्भसे अवतार लेंगे ॥ ५९ ॥
कंसके भयसे वसुदेवजी उस शिशुको लेकर शीघ्र ही गोकुलमें नन्दके घर पहुँचा देंगे और वहाँसे यशोदाकी कन्याको लाकर अपने घरमें राजा कंसको दे देंगे । तब कंस उस कन्याको मारनेके लिये उसे पृथ्वीपर पटक देगा ॥ ६०-६१ ॥
उसी समय जाम्बवान्को भी पूर्वकालकी घटनाएँ याद आ गयीं और भगवान् श्रीकृष्णको परम भक्तिके साथ प्रणाम करके अपने अपराधके लिये क्षमायाचना करते हुए उसने श्रीकृष्णसे कहा-अब मुझे ज्ञात हो गया कि आप रघुश्रेष्ठ श्रीराम ही हैं, जिनके भयंकर कोपसे सागर तथा लंकानगरी-दोनों क्षुब्ध हो गये थे और रावण अपने बन्धु-बान्धवोंसहित मारा गया था ॥ ७२-७३ ॥
स एवासि भवान्कृष्ण मद्दौराम्यं क्षमस्व भोः । ब्रूहि यत् करणीयं मे भृत्योऽहं तव सर्वथा॥ ७४ ॥
हे श्रीकृष्ण ! वे राम आप ही हैं, अतः मेरी धृष्टताको क्षमा करें । मैं आपका सर्वथा सेवक हूँ, अतएव मेरेयोग्य जो भी कार्य हो, उसके लिये मुझे आदेश दीजिये ॥ ७४ ॥
तत्पश्चात् ऋक्षराज जाम्बवान्मे श्रीकृष्णकी विधिवत् पूजा करके स्यमन्तकमर्माण तथा अपनी पुत्री जाम्बवती उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अर्पित कर दी ॥ ७६ ॥
स तां पत्नीं समादाय मणिं कण्ठे तथादधत् । अभिमंत्र्यर्क्षराजञ्च प्रतस्थे द्वारकां प्रति ॥ ७७ ॥
श्रीकृष्णाने जाम्बवतीको पत्नीके रूपमें अंगीकार करके मणिको गले में धारण कर लिया और ऋक्षराज जाम्बवानुसे विदा लेकर वे द्वारकापुरीके लिये प्रस्थित हुए ॥ ७७ ॥
उधर द्वारकामें उदारहदय श्रीवसुदेवजीने श्रीमद्देवीभागवतपुराण-कथाकी समाप्तिके दिन ब्राह्मणोंको भोजन कराया तथा नानाविध दक्षिणाओंसे उन्हें सन्तुष्ट किया ॥ ७८ ॥
जो मनुष्य निष्कपट भक्ति एवं शुद्ध हदयसे भगवानके इस विख्यात तथा कलंकनाशक चरित्रका पाठ एवं श्रवण करता है, वह पूर्ण सुखी हो जाता है, जगत्में उसकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं तथा मृत्युके अनन्तर वह मोक्षपद प्राप्त करता है ॥ ८२ ॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहान्ये वसुदेवस्य देवीभागवतनवाह-श्रवणात्पुत्रप्राप्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥