सूतजी बोले-हे मुनिवरो ! अब आपलोग एक अन्य इतिहास सुनिये, जिसमें इस देवीभागवतके माहात्म्यका वर्णन किया गया है ॥ १ ॥
एकदा कुम्भयोनिस्तु लोपामुद्रापतिर्मुनिः । गत्वा कुमारमभ्यर्च्य पप्रच्छ विविधाः कथाः ॥ २ ॥
एक बार कुम्भयोनि लोपामुद्रापति महर्षि अगस्त्यने कुमार कार्तिकेयके पास जाकर उनकी भलीभाँति पूजा करके उनसे विविध प्रकारकी बातें पूहीं ॥ २ ॥
स तस्मै भगवान् स्कन्दः कथयामास भूरिशः । दानतीर्थव्रतादीनां माहात्म्योपचिताः कथाः ॥ ३ ॥ वाराणस्याश्च माहात्म्यं मणिकर्णीभवं तथा । गङ्गायाश्चापि तीर्थानां वर्णितं बहुविस्तरम् ॥ ४ ॥
भगवान् कार्तिकेयने दान-तीर्थ-व्रतादिके माहात्यसे परिपूर्ण अनेक कथाओंका वर्णन उनसे किया । उन्होंने वाराणसी, मणिकर्णिका, गंगा तथा अनेक तीर्थोंके माहात्म्यका अत्यन्त विस्तारपूर्वक वर्णन किया ॥ ३-४ ॥
श्रुत्वाथ स मुनिः प्रीतः कुमारं भूरिवर्चसम् । पुनः पप्रच्छ लोकानां हितार्थं कुम्भसम्भवः ॥ ५ ॥
उसे सुनकर अगस्त्यमुनि परम प्रसन्न हुए और उन्होंने महातेजसम्पन्न कुमार कार्तिकेयसे लोककल्याणके लिये पुनः पूछा ॥ ५ ॥
विवस्वान्के एक पुत्र हुए, जो श्राद्धदेव नामसे प्रसिद्ध थे । सन्तानरहित होनेके कारण उन राजा श्राद्धदेवने वसिष्ठमुनिकी अनुमतिसे पुत्रेष्टि यज्ञ किया ॥ ११ ॥
होतारं प्रार्थयामास श्रद्धाथ दयिता मनोः । कन्या भवतु मे ब्रह्मंस्तथोपायो विधीयताम् ॥ १२ ॥
तत्पश्चात् मनु श्राद्धदेवकी भार्या श्रद्धाने यज्ञके होतासे प्रार्थना की-हे ब्रह्मन् ! आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे मुझे कन्याकी प्राप्ति हो ॥ १२ ॥
मनसा चिन्तयन् होता कन्यामेवाजुहोद्धविः । ततस्तद्व्यभिचारेण कन्येला नाम चाभवत् ॥ १३ ॥
अतः होताने मनमें कन्या-प्राप्तिका संकल्प करते हुए आहुति डाली और उसके विपरीत भावके फलस्वरूप एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम 'इला' रखा गया ॥ १३ ॥
अथ राजा सुतां दृष्ट्वा प्रोवाच विमना गुरुम् । कथं सङ्कल्पवैषम्यमिह जातं प्रभो तव ॥ १४ ॥
इसके बाद पुत्रीको देखकर उदास मनवाले राजा श्राद्धदेवने गुरु वसिष्ठसे कहा-हे प्रभो ! पुत्रप्राप्तिके आपके संकल्पके विपरीत यह कन्या कैसे उत्पन्न हो गयी ? ॥ १४ ॥
तच्छ्रुत्वा स मुनिर्दध्यौ ज्ञात्वा होतुर्व्यतिक्रमम् । ईश्वरं शरणं यात इलायाः पुंस्त्वकाम्यया ॥ १५ ॥
यह सुनकर महर्षि वसिष्ठने ध्यान लगाया, इसमें होताका व्यतिक्रम जानकर वे इलाको पुत्र बनानेकी कामनासे ईश्वरकी शरणमें गये ॥ १५ ॥
मुनेस्तपःप्रभावाच्च परेशानुग्रहात्तथा । पश्यतां सर्वलोकानामिला पुरुषतामगात् ॥ १६ ॥
मुनिके तपप्रभाव और भगवान्की कृपासे सभी लोगोंके देखते-देखते इला कन्यासे पुरुषरूपमें परिवर्तित हो गयी ॥ १६ ॥
इसके बाद गुरु बसिष्ठने पूर्णरूपसे संस्कार करके उसका नाम 'सुद्युम्न' रखा । वे मनुपुत्र सुधुम्न सभी नदियोंके निधानभूत सागरकी भौति सभी विद्याओंके निधान हो गये ॥ १७ ॥
अथ कालेन सुद्युम्नस्तारुण्यं समवाप्य च । मृगयार्थं वनं यातो हयमारुह्य सैन्धवम् ॥ १८ ॥
कुछ समय बीतनेपर सुद्युम्न युवा हुए और एक दिन सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढ़कर वे आखेटके लिये वनमें गये ॥ १८ ॥
वनाद् वनान्तरं गच्छन् बहु बभ्राम सानुगः । दैवादधस्ताद्धेमाद्रेः स कुमारो वनं ययौ ॥ १९ ॥ कस्मिंश्चित् समये यत्र भार्ययापर्णया सह । अरमद्देवदेवस्तु शङ्करो भगवान् मुदा ॥ २० ॥
अपने सहचरोंके साथ वे कुमार सुद्युम्न एक वनसे दूसरे वनमें जाते हुए भटकते रहे और फिर संयोगसे वे हिमालयकी तलहटीके उस वनमें पहुँच गये जहाँ किसी समय देवाधिदेव भगवान् शंकर अपनी भार्या अपर्णाके साथ आनन्दपूर्ण मुद्रामें रमण कर रहे थे ॥ १९-२० ॥
अपने सभी अनुचरोंको पुरुषसे स्त्री तथा घोड़ोंको घोड़ियोंमें रूपान्तरित हुआ देखकर सुद्युम्न आश्चर्यचकित हो गये । अब वह रूपवती तरुणी वन-वनमें विचरण करने लगी ॥ २५ ॥
एकदा सा जगामाथ बुधस्याश्रमसन्निधौ । दृष्ट्वा तां चारुसर्वाङ्गीं पीनोन्नतपयोधराम् ॥ २६ ॥ बिम्बोष्ठीं कुन्ददशनां सुमुखीमुत्पलेक्षणाम् । अनङ्गशरविद्धाङ्गश्चकमे भगवान् बुधः ॥ २७ ॥
एक बार वह बुधके आश्रमके समीप पहुँची । स्थूल तथा उन्नत स्तनोंवाली, बिम्ब-फलके समान लाल ओठोंवाली, कुन्दफूलके समान श्वेत दाँतोंवाली, सुन्दर मुख तथा कमलके समान नयनोंवाली उस सर्वांगसुन्दरी तरुणीको देखकर कामदेवके बाणोंसे बिंधे हुए अंगोवाले भगवान् बुध उसपर मोहित हो गये ॥ २६-२७ ॥
यज्ञरूप तथा याजकोंके फलदाताको बार-बार नमस्कार है । आप गंगाधर, सूर्य-चन्द्र-अग्निस्वरूप त्रिनेत्रको मेरा नमस्कार है ॥ ३७ ॥
एवं स्तुतः स भगवान् प्रादुरासीज्जगत्पतिः । वृषारूढोऽम्बिकोपेतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ ३८
इस प्रकार मुनि बसिष्ठके द्वारा स्तुति किये जानेपर करोड़ों सूर्यसदृश प्रभासे युक्त एवं भगवती पार्वतीके साथ नन्दीपर आरूढ़ वे जगत्पति भगवान् शंकर प्रकट हो गये ॥ ३८ ॥
श्रीभगवान्ने कहा-हे विप्रर्षे ! आपके मनमें जो भी इच्छा हो, वह वर माँगिये । उनके इस प्रकार कहनेपर गुरु वसिष्ठने प्रणाम करके इलाकी पुरुषत्वप्राप्तिके लिये उनसे प्रार्थना की । ॥ ४० ॥
करोड़ों चन्द्रमाकी कला-कान्तिसे युक्त तथा सुन्दर मुसकानवाली भगवतीकी सम्यक् पूजा करके सदाके लिये इलाकी पुरुषत्वप्राप्तिकी कामनासे वसिष्ठजी श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४३ ॥
जय देवि महादेवि भक्तानुग्रहकारिणि । जय सर्वसुराराध्ये जयानन्तगुणालये ॥ ४४ ॥
हे देवि ! हे महादेवि ! हे भक्तोंपर कृपा करनेवाली भगवति ! आपकी जय हो । हे समस्त देवोंकी आराध्यस्वरूपा और अनन्त गुणोंकी आगार ! आपकी जय हो ॥ ४४ ॥
पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) प्रदान करनेवाली हे देवेश्वरि ! आप प्रसन्न हों । हे देवि ! आपकी स्तुति करने में भला कौन समर्थ है. अतः मैं आपको केवल प्रणाम कर रहा हूँ । ४८ ॥
एवं स्तुता भगवती दुर्गा नारायणी परा । भक्त्या वसिष्ठमुनिना प्रसन्ना तत्क्षणादभूत् ॥ ४९ ॥
महर्षि वसिष्ठजीद्वारा इस प्रकार भक्ति-भावसे स्तुति किये जानेपर नारायणी पराम्बा दुर्गा भगवती तत्काल प्रसन्न हो गयीं ॥ ४९ ॥
सुद्युम्नने अत्यन्त श्रेष्ठ दक्षिणावाले भाँतिभौतिके यज्ञ किये और अन्तमें पुत्रोंको राज्यका शासन सौंपकर वे देवीलोकको प्राप्त हुए ॥ ५७ ॥
इति कथितमशेषं सेतिहासं च विप्रा यदि पठति सुभक्त्या मानवो वा शृणोति । स इह सकलकामान् प्राप्य देव्याः प्रसादात् परममृतमथान्ते याति देव्याः सलोकम् ॥ ५८ ॥
हे विप्रो ! इस प्रकार मैंने आप लोगोंको इतिहाससहित देवीमाहात्य बता दिया । यदि कोई मनुष्य सद्भक्तिके साथ इसे पढ़ता अथवा सुनता है तो वह देवीकी कृपासे इस लोकमें सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करके अन्तमें देवीके परम सत्यस्वरूप सालोक्यको प्राप्त कर लेता है ॥ ५८ ॥
इति श्रीस्कन्दयुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहाम्ये देवीभागवत-नवाहश्रवणाद् इलायाः पुंस्त्वप्राप्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥