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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
देवीभागवतमाहात्म्यम्
तृतीयोऽध्यायः

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देवीभागवत-नवाहश्रवणाद् इलायाः पुंस्त्वप्राप्तिवर्णनम् -
श्रीमहेवीभागवतके माहात्म्यके प्रसंगमें राजा सुद्युम्नकी कथा


सूत उवाच
अथेतिहासमन्यच्च शृणुध्वं मुनिसत्तमाः ।
देवीभागवतस्यास्य माहात्म्यं यत्र गीयते ॥ १ ॥
सूतजी बोले-हे मुनिवरो ! अब आपलोग एक अन्य इतिहास सुनिये, जिसमें इस देवीभागवतके माहात्म्यका वर्णन किया गया है ॥ १ ॥

एकदा कुम्भयोनिस्तु लोपामुद्रापतिर्मुनिः ।
गत्वा कुमारमभ्यर्च्य पप्रच्छ विविधाः कथाः ॥ २ ॥
एक बार कुम्भयोनि लोपामुद्रापति महर्षि अगस्त्यने कुमार कार्तिकेयके पास जाकर उनकी भलीभाँति पूजा करके उनसे विविध प्रकारकी बातें पूहीं ॥ २ ॥

स तस्मै भगवान् स्कन्दः कथयामास भूरिशः ।
दानतीर्थव्रतादीनां माहात्म्योपचिताः कथाः ॥ ३ ॥
वाराणस्याश्च माहात्म्यं मणिकर्णीभवं तथा ।
गङ्‌गायाश्चापि तीर्थानां वर्णितं बहुविस्तरम् ॥ ४ ॥
भगवान् कार्तिकेयने दान-तीर्थ-व्रतादिके माहात्यसे परिपूर्ण अनेक कथाओंका वर्णन उनसे किया । उन्होंने वाराणसी, मणिकर्णिका, गंगा तथा अनेक तीर्थोंके माहात्म्यका अत्यन्त विस्तारपूर्वक वर्णन किया ॥ ३-४ ॥

श्रुत्वाथ स मुनिः प्रीतः कुमारं भूरिवर्चसम् ।
पुनः पप्रच्छ लोकानां हितार्थं कुम्भसम्भवः ॥ ५ ॥
उसे सुनकर अगस्त्यमुनि परम प्रसन्न हुए और उन्होंने महातेजसम्पन्न कुमार कार्तिकेयसे लोककल्याणके लिये पुनः पूछा ॥ ५ ॥

अगस्त्य उवाच
भगवंस्तारकाराते देवीभागवतस्य तु ।
माहात्म्यं श्रवणे तस्य विधिं चापि वद प्रभो ॥ ६ ॥
अगस्त्यजी बोले-हे तारकरिपु ! हे भगवन् ! हे प्रभो ! आप मुझे देवीभागवतके माहात्म्य तथा उसके श्रवणकी विधि भी बतायें ॥ ६ ॥

देवीभागवतं नाम पुराणं परमोत्तमम् ।
त्रैलोक्यजननी साक्षाद् गीयते यत्र शाश्वती ॥ ७ ॥
श्रीमद्देवीभागवत नामक पुराण सभी पुराणोंमें अतिश्रेष्ठ है, जिसमें तीनों लोकोंकी जननी साक्षात् सनातनी भगवतीकी महिमा गायी गयी है ॥ ७ ॥

स्कन्द उवाच
श्रीभागवतमाहाम्य को वक्तुं विस्तरात् क्षमः ।
शृणु संक्षेपतो ब्रह्मन् कथयिष्यामि साम्प्रतम् ॥ ८ ॥
कार्तिकेय बोले-हे ब्रह्मन् ! श्रीमद्देवीभागवतके माहात्म्यको विस्तारपूर्वक कहनेमें कौन समर्थ है ? मैं इस समय संक्षेपमें इसे कहूँगा, आप सुनिये ॥ ८ ॥

या नित्या सच्चिदानन्दरूपिणी जगदम्बिका ।
साक्षात् समाश्रिता यत्र भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी ॥ ९ ॥
जो शाश्वती, सच्चिदानन्दस्वरूपा, भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली जगदम्बा हैं, वे स्वयं इस पुराणमें विराजमान रहती हैं ॥ ९ ॥

अतस्तद्वाङ्‌गमयी मूर्तिर्देवीभागवते मुने ।
पठनाच्छ्रवणाद्यस्य न किञ्चिदिह दुर्लभम् ॥ १० ॥
अतएव हे मुने ! यह श्रीमद्देवीभागवत उन जगदम्बिकाकी वाङ्मयी मूर्ति है, जिसके पठन एवं श्रवणसे इस लोकमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥ १० ॥

आसीद्‌विवस्वतः पुत्रः श्राद्धदेव इति श्रुतः ।
सोऽनपत्योऽकरोदिष्टिं वसिष्ठानुमतो नृपः ॥ ११ ॥
विवस्वान्के एक पुत्र हुए, जो श्राद्धदेव नामसे प्रसिद्ध थे । सन्तानरहित होनेके कारण उन राजा श्राद्धदेवने वसिष्ठमुनिकी अनुमतिसे पुत्रेष्टि यज्ञ किया ॥ ११ ॥

होतारं प्रार्थयामास श्रद्धाथ दयिता मनोः ।
कन्या भवतु मे ब्रह्मंस्तथोपायो विधीयताम् ॥ १२ ॥
तत्पश्चात् मनु श्राद्धदेवकी भार्या श्रद्धाने यज्ञके होतासे प्रार्थना की-हे ब्रह्मन् ! आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे मुझे कन्याकी प्राप्ति हो ॥ १२ ॥

मनसा चिन्तयन् होता कन्यामेवाजुहोद्धविः ।
ततस्तद्‌व्यभिचारेण कन्येला नाम चाभवत् ॥ १३ ॥
अतः होताने मनमें कन्या-प्राप्तिका संकल्प करते हुए आहुति डाली और उसके विपरीत भावके फलस्वरूप एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम 'इला' रखा गया ॥ १३ ॥

अथ राजा सुतां दृष्ट्‌वा प्रोवाच विमना गुरुम् ।
कथं सङ्‌कल्पवैषम्यमिह जातं प्रभो तव ॥ १४ ॥
इसके बाद पुत्रीको देखकर उदास मनवाले राजा श्राद्धदेवने गुरु वसिष्ठसे कहा-हे प्रभो ! पुत्रप्राप्तिके आपके संकल्पके विपरीत यह कन्या कैसे उत्पन्न हो गयी ? ॥ १४ ॥

तच्छ्रुत्वा स मुनिर्दध्यौ ज्ञात्वा होतुर्व्यतिक्रमम् ।
ईश्वरं शरणं यात इलायाः पुंस्त्वकाम्यया ॥ १५ ॥
यह सुनकर महर्षि वसिष्ठने ध्यान लगाया, इसमें होताका व्यतिक्रम जानकर वे इलाको पुत्र बनानेकी कामनासे ईश्वरकी शरणमें गये ॥ १५ ॥

मुनेस्तपःप्रभावाच्च परेशानुग्रहात्तथा ।
पश्यतां सर्वलोकानामिला पुरुषतामगात् ॥ १६ ॥
मुनिके तपप्रभाव और भगवान्की कृपासे सभी लोगोंके देखते-देखते इला कन्यासे पुरुषरूपमें परिवर्तित हो गयी ॥ १६ ॥

गुरुणा कृतसंस्कारः सुद्युम्नोऽथ मनोः सुतः ।
निधिर्बभूव विद्यानां सरितामिव सागरः ॥ १७ ॥
इसके बाद गुरु बसिष्ठने पूर्णरूपसे संस्कार करके उसका नाम 'सुद्युम्न' रखा । वे मनुपुत्र सुधुम्न सभी नदियोंके निधानभूत सागरकी भौति सभी विद्याओंके निधान हो गये ॥ १७ ॥

अथ कालेन सुद्युम्नस्तारुण्यं समवाप्य च ।
मृगयार्थं वनं यातो हयमारुह्य सैन्धवम् ॥ १८ ॥
कुछ समय बीतनेपर सुद्युम्न युवा हुए और एक दिन सिन्धुदेशीय घोड़ेपर चढ़कर वे आखेटके लिये वनमें गये ॥ १८ ॥

वनाद् वनान्तरं गच्छन् बहु बभ्राम सानुगः ।
दैवादधस्ताद्धेमाद्रेः स कुमारो वनं ययौ ॥ १९ ॥
कस्मिंश्चित् समये यत्र भार्ययापर्णया सह ।
अरमद्‌देवदेवस्तु शङ्‌करो भगवान् मुदा ॥ २० ॥
अपने सहचरोंके साथ वे कुमार सुद्युम्न एक वनसे दूसरे वनमें जाते हुए भटकते रहे और फिर संयोगसे वे हिमालयकी तलहटीके उस वनमें पहुँच गये जहाँ किसी समय देवाधिदेव भगवान् शंकर अपनी भार्या अपर्णाके साथ आनन्दपूर्ण मुद्रामें रमण कर रहे थे ॥ १९-२० ॥

तदा तु मुनयस्तत्र शिवदर्शनलालसाः ।
आजग्मुरथ तान् दृष्ट्‌वा गिरिजा व्रीडिताभवत् ॥ २१ ॥
उसी समय भगवान् शंकरके दर्शनकी अभिलाषासे मुनिगण वहाँ आ गये और उन्हें देखकर पार्वतीजी लजित हो गयीं ॥ २१ ॥

रममाणौ तु तौ दृष्ट्‌वा गिरिशौ संशितव्रताः ।
निवृत्ता मुनयो जग्मुर्वैकुण्ठनिलयं तदा ॥ २२ ॥
तब शिव एवं पार्वतीको रमण करते देखकर उत्तम व्रत धारण करनेवाले वे मुनिगण वहाँसे लौटकर वैकुण्ठ-धामकी ओर चल दिये ॥ २२ ॥

प्रियायाः प्रियमन्विच्छञ्छिवोऽरण्यं शशाप ह ।
अद्यारभ्य विशेद्योऽत्र पुमान् योषिद् भवेदिति ॥ २३ ॥
तदनन्तर अपनी प्रियतमाको प्रसन्न करनेके लिये भगवान्ने उस अरण्यको शाप दे दिया कि आजसे जो भी पुरुष यहाँ प्रवेश करेगा, वह स्त्री हो जायगा ॥ २३ ॥

तत आरभ्य तं देशं पुरुषा वर्जयन्ति हि ।
तत्र प्रविष्टः सुद्युम्नो बभूव प्रमदोत्तमा ॥ २४ ॥
तभीसे पुरुषोंने उस वनमें जाना त्याग दिया था और संयोगवश वहाँ पहुँचते ही सुद्युम्न एक लावण्यमयी स्त्रीके रूपमें परिवर्तित हो गये ॥ २४ ॥

स्त्रीभूताननुगानश्वं वडवां वीक्ष्य विस्मितः ।
अथ सा सुन्दरी योषा विचचार वने वने ॥ २५ ॥
अपने सभी अनुचरोंको पुरुषसे स्त्री तथा घोड़ोंको घोड़ियोंमें रूपान्तरित हुआ देखकर सुद्युम्न आश्चर्यचकित हो गये । अब वह रूपवती तरुणी वन-वनमें विचरण करने लगी ॥ २५ ॥

एकदा सा जगामाथ बुधस्याश्रमसन्निधौ ।
दृष्ट्‌वा तां चारुसर्वाङ्‌गीं पीनोन्नतपयोधराम् ॥ २६ ॥
बिम्बोष्ठीं कुन्ददशनां सुमुखीमुत्पलेक्षणाम् ।
अनङ्‌गशरविद्धाङ्‌गश्चकमे भगवान् बुधः ॥ २७ ॥
एक बार वह बुधके आश्रमके समीप पहुँची । स्थूल तथा उन्नत स्तनोंवाली, बिम्ब-फलके समान लाल ओठोंवाली, कुन्दफूलके समान श्वेत दाँतोंवाली, सुन्दर मुख तथा कमलके समान नयनोंवाली उस सर्वांगसुन्दरी तरुणीको देखकर कामदेवके बाणोंसे बिंधे हुए अंगोवाले भगवान् बुध उसपर मोहित हो गये ॥ २६-२७ ॥

सापि तं चकमे सुभ्रूः कुमारं सोमनन्दनम् ।
ततस्तस्याश्रमेऽवात्सीद्‌रममाणा बुधेन सा ॥ २८ ॥
वह सुन्दर भौंहोंवाली युवती भी चन्द्रपुत्र कुमार बुधपर आसक्त हो गयी और बुधके साथ रमण करती हुई उनके आश्रममें रहने लगी ॥ २८ ॥

अथ कालेन कियता पुरूरवसमात्मजम् ।
स तस्यां जनयामास मित्रावरुणसम्भव ॥ २९ ॥
हे महर्षि अगस्त्य ! कुछ समय बाद बुधने उस तरुणीसे पुरुरवा नामक पुत्रको उत्पन्न किया ॥ २९ ॥

अथ वर्षेषु यातेषु कदाचित् सा बुधाश्रमे ।
स्मृत्वा स्वं पूर्ववृत्तान्तं दुःखिता निर्जगाम ह ॥ ३० ॥
इस प्रकार बुधके आश्रममें रहते हुए कई वर्ष बीत जानेपर किसी समय उसे अपने पूर्व वृत्तान्तका स्मरण हो आया और वह दुःखित होकर आश्रमसे चली गयी ॥ ३० ॥

गुरोरथाश्रमं गत्वा वसिष्ठस्य प्रणम्य तम् ।
निवेद्य वृत्तं शरणं ययौ पुंस्त्वमभीप्सती ॥ ३१ ॥
इसके बाद गुरु वसिष्ठके आश्रममें पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया और सारा वृत्तान्त कहकर पुरुषत्वकी कामना करती हुई वह उनके शरणागत हो गयी ॥ ३१ ॥

वसिष्ठो ज्ञातवृत्तान्तो गत्वा कैलासपर्वतम् ।
सम्पूज्य शम्भुं तुष्टाव भक्त्या परमया युतः ॥ ३२ ॥
इस प्रकार सभी बातोंको जानकर वसिष्ठजी कैलास-पर्वतपर जाकर विधि-विधानसे भगवान् शंकरको पूजा करके परम भक्तिसे उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३२ ॥

वसिष्ठ उवाच
नमो नमः शिवायास्तु शङ्‌कराय कपर्दिने ।
गिरिजार्धाङ्‌गदेहाय नमस्ते चन्द्रमौलये ॥ ३३ ॥
वसिष्ठजी बोले-शिव, शंकर, कपर्दी, गिरिजाके अधांग एवं चन्द्रमौलिको बार-बार नमस्कार है ॥ ३३ ॥

मृडाय सुखदात्रे ते नमः कैलासवासिने ।
नीलकण्ठाय भक्तानां भुक्तिमुक्तिप्रदायिने ॥ ३४ ॥
मृड, सुखदाता, कैलासवासी, नीलकण्ठ, भक्तोंको भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले आपको नमस्कार है ॥ ३४ ॥

शिवाय शिवरूपाय प्रपन्नभयहारिणे ।
नमो वृषभवाहाय शरण्याय परात्मने ॥ ३५ ॥
शिव, शिवस्वरूप, शरणागतभयहारी, वृषभवाहन, शरणदाता परमात्माको नमस्कार है ॥ ३५ ॥

ब्रह्मविष्ण्वीशरूपाय सर्गस्थितिलयेषु च ।
नमो देवाधिदेवाय वरदाय पुरारये ॥ ३६ ॥
सृजन, पालन तथा संहारके समय ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशरूपधारी, देवाधिदेव, वरदायक तथा त्रिपुरारिको मेरा नमस्कार है ॥ ३६ ॥

यज्ञरूपाय यजतां फलदात्रे नमो नमः ।
गङ्‌गाधराय सूर्येन्दुशिखिनेत्राय ते नमः ॥ ३७ ॥
यज्ञरूप तथा याजकोंके फलदाताको बार-बार नमस्कार है । आप गंगाधर, सूर्य-चन्द्र-अग्निस्वरूप त्रिनेत्रको मेरा नमस्कार है ॥ ३७ ॥

एवं स्तुतः स भगवान् प्रादुरासीज्जगत्पतिः ।
वृषारूढोऽम्बिकोपेतः कोटिसूर्यसमप्रभः ॥ ३८
इस प्रकार मुनि बसिष्ठके द्वारा स्तुति किये जानेपर करोड़ों सूर्यसदृश प्रभासे युक्त एवं भगवती पार्वतीके साथ नन्दीपर आरूढ़ वे जगत्पति भगवान् शंकर प्रकट हो गये ॥ ३८ ॥

रजताचलसंकाशस्त्रिनेत्रश्चन्द्रशेखरः ।
प्रणतं परितुष्टात्मा प्रोवाच मुनिसत्तमम् ॥ ३९ ॥
चाँदीके पर्वतके समान प्रभावाले, त्रिनेत्रधारी भगवान् चन्द्रशेखर शरणमें आये हुए मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठसे अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले ॥ ३९ ॥

श्रीभगवानुवाच
वरं वरय विप्रर्षे यत्ते मनसि वर्तते ।
इत्युक्तस्तं प्रणम्येलापुंस्त्वमभ्यर्थयन्मुनिः ॥ ४० ॥
श्रीभगवान्ने कहा-हे विप्रर्षे ! आपके मनमें जो भी इच्छा हो, वह वर माँगिये । उनके इस प्रकार कहनेपर गुरु वसिष्ठने प्रणाम करके इलाकी पुरुषत्वप्राप्तिके लिये उनसे प्रार्थना की । ॥ ४० ॥

अथ प्रसन्नो भगवानुवाच मुनिसत्तमम् ।
मासं पुमान् स भविता मासं नारी भविष्यति ॥ ४१ ॥
इसके बाद प्रसन्न होकर शंकरजीने मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठसे कहा कि एक मासतक वह पुरुषरूपमें तथा एक मासतक नारीरूपमें रहेगी ॥ ४१ ॥

इति प्राप्य वरं शम्भोर्महर्षिर्जगदम्बिकाम् ।
वरदानोन्मुखी देवीं प्रणनाम महेश्वरीम् ॥ ४२ ॥
इस प्रकार शिवजीसे वर प्राप्त करके महर्षि वसिष्ठने वर प्रदान करनेके लिये सदा उत्सुक रहनेवाली जगदम्बिका पार्वतीको प्रणाम किया ॥ ४२ ॥

कोटिचन्द्रकलाकान्तिं सुस्मितां परिपूज्य च ।
तुष्टाव भक्त्या सततमिलायाः पुंस्त्वकाम्यया ॥ ४३ ॥
करोड़ों चन्द्रमाकी कला-कान्तिसे युक्त तथा सुन्दर मुसकानवाली भगवतीकी सम्यक् पूजा करके सदाके लिये इलाकी पुरुषत्वप्राप्तिकी कामनासे वसिष्ठजी श्रद्धापूर्वक उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४३ ॥

जय देवि महादेवि भक्तानुग्रहकारिणि ।
जय सर्वसुराराध्ये जयानन्तगुणालये ॥ ४४ ॥
हे देवि ! हे महादेवि ! हे भक्तोंपर कृपा करनेवाली भगवति ! आपकी जय हो । हे समस्त देवोंकी आराध्यस्वरूपा और अनन्त गुणोंकी आगार ! आपकी जय हो ॥ ४४ ॥

नमो नमस्ते देवेशि शरणागतवत्सले ।
जय दुर्गे दुःखहन्त्रि दुष्टदैत्यनिषूदिनि ॥ ४५ ॥
हे देवेश्वरि ! हे शरणागतवत्सले ! आपको बारबार नमस्कार है । हे दु:खहारिणि ! हे दुष्ट दानवोंका नाश करनेवाली भगवति ! आपकी जय हो ॥ ४५ ॥

भक्तिगम्ये महामाये नमस्ते जगदम्बिके ।
संसारसागरोत्तारपोतीभूतपदाम्बुजे ॥ ४६ ॥
हे भक्तिसे प्राप्त होनेवाली भगवति ! हे महामाये ! हे जगदम्बिके ! हे भवसागरसे पार उतारनेके लिये नौकास्वरूप चरणकमलवाली ! आपको नमस्कार है ॥ ४६ ॥

ब्रह्मादयोऽपि विबुधास्त्वत्पादाम्बुजसेवया ।
विश्वसर्गस्थितिलयप्रभुत्वं समवाप्नुयुः ॥ ४७ ॥
आपके चरणकमलोंकी सेवासे ही ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि देवता विश्वके सूजन, पालन तथा संहारहेतु सामर्थ्य प्राप्त करते हैं । ४७ ॥

प्रसन्ना भव देवेशि चतुर्वर्गप्रदायिनि ।
कस्त्वां स्तोतुं क्षमो देवि केवलं प्रणतोऽस्थहम् ॥ ४८ ॥
पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) प्रदान करनेवाली हे देवेश्वरि ! आप प्रसन्न हों । हे देवि ! आपकी स्तुति करने में भला कौन समर्थ है. अतः मैं आपको केवल प्रणाम कर रहा हूँ । ४८ ॥

एवं स्तुता भगवती दुर्गा नारायणी परा ।
भक्त्या वसिष्ठमुनिना प्रसन्ना तत्क्षणादभूत् ॥ ४९ ॥
महर्षि वसिष्ठजीद्वारा इस प्रकार भक्ति-भावसे स्तुति किये जानेपर नारायणी पराम्बा दुर्गा भगवती तत्काल प्रसन्न हो गयीं ॥ ४९ ॥

तदोवाच महादेवी प्रणतार्तिहरी मुनिम् ।
सुद्युम्नभवनं गत्वा कुरु भक्त्या मदर्चनम् ॥ ५० ॥
तदनन्तर भक्तजनोंका दुःख दूर करनेवाली महादेवीने मुनि वसिष्ठसे कहा-हे मुनि श्रेष्ठ ! आप सुद्युम्नके घर जाकर भक्तिपूर्वक मेरी पूजा करें ॥ ५० ॥

सुद्युनं श्रावय प्रीत्या पुराण मत्प्रियङ्‌करम् ।
देवीभागवतं नाम नवाहोभिर्द्विजोत्तम ॥ ५१ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! सुद्युम्नको नौ दिनोंमें मुझे प्रसन्नता प्रदान करनेवाले श्रीमद्देवीभागवतपुराणका प्रेमपूर्वक श्रवण कराइये ॥ ५१ ॥

श्रवणादेव सततं पुंस्त्वमस्य भविष्यति ।
इत्युक्त्या च तिरोधानं गच्छतः स्म शिवेश्वरौ ॥ ५२ ॥
उसके श्रवणमात्रसे उसे सर्वदाके लिये पुरुषत्वकी प्राप्ति हो जायगी । ऐसा कहकर भगवती पार्वती तथा भगवान् शंकर अन्तर्धान हो गये ॥ ५२ ॥

वसिष्ठस्तां दिशं नत्वा समागत्याश्रमं निजम् ।
समाहूय च सुद्युम्नं देव्याराधनमादिशत् ॥ ५३ ॥
इसके पश्चात् वसिष्ठजी उस दिशाको नमस्कारकर अपने आश्रमको लौट आये और सुद्युम्नको बुलाकर उन्होंने देवीकी आराधना करनेके लिये उन्हें आदेश दिया ॥ ५३ ॥

आश्विनस्य सिते पक्षे सम्पूज्य जगदम्बिकाम् ।
नवरात्रविधानेन श्रावयामास भूपतिम् ॥ ५४ ॥
आश्विनमासके शुक्लपक्षमें जगदम्बाकी विधिवत् पूजा करके वसिष्ठजीने राजाको नवरात्र-विधानके अनुसार श्रीमद्देवीभागवतपुराण सुनाया ॥ ५४ ॥

श्रुत्वा भक्त्यापि सुद्युम्नः श्रीमद्भागवतामृतम् ।
प्रणम्याभ्यर्च्य च गुरुं लेभे पुंस्त्वं निरन्तरम् ॥ ५५ ॥
इस प्रकार अमृतस्वरूप श्रीमद्देवीभागवतपुराणको भक्तिपूर्वक सुनकर और गुरु वसिष्ठका पूजन-वन्दन करके सुद्युम्नने सदाके लिये पुरुषत्व प्राप्त कर लिया ॥ ५५ ॥

राज्यासनेऽभिषिक्तस्तु वसिष्ठेन महर्षिणा ।
भुवं शशास धर्मेण प्रजाश्चैवानुरञ्जयन् ॥ ५६ ॥
महर्षि वसिष्ठने सुद्युम्नका राज्याभिषेक किया और वे प्रजाओंको प्रसन्न रखते हुए धर्मपूर्वक भूमण्डलपर शासन करने लगे ॥ ५६ ॥

ईजे च विविधैर्यज्ञैः सम्पूर्णवरदक्षिणैः ।
पुत्रेषु राज्यं सन्दिश्य प्राप देव्याः सलोकताम् ॥ ५७ ॥
सुद्युम्नने अत्यन्त श्रेष्ठ दक्षिणावाले भाँतिभौतिके यज्ञ किये और अन्तमें पुत्रोंको राज्यका शासन सौंपकर वे देवीलोकको प्राप्त हुए ॥ ५७ ॥

इति कथितमशेषं सेतिहासं च विप्रा
    यदि पठति सुभक्त्या मानवो वा शृणोति ।
स इह सकलकामान् प्राप्य देव्याः प्रसादात्
    परममृतमथान्ते याति देव्याः सलोकम् ॥ ५८ ॥
हे विप्रो ! इस प्रकार मैंने आप लोगोंको इतिहाससहित देवीमाहात्य बता दिया । यदि कोई मनुष्य सद्भक्तिके साथ इसे पढ़ता अथवा सुनता है तो वह देवीकी कृपासे इस लोकमें सम्पूर्ण कामनाओंकी प्राप्ति करके अन्तमें देवीके परम सत्यस्वरूप सालोक्यको प्राप्त कर लेता है ॥ ५८ ॥

इति श्रीस्कन्दयुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहाम्ये
देवीभागवत-नवाहश्रवणाद् इलायाः
पुंस्त्वप्राप्तिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
तिसरा अध्याय समाप्त


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