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रैवतनामकमनुपुत्रोत्पत्तिवर्णनम् -
श्रीमहेवीभागवतके माहात्म्यके प्रसंगमें रेवती नक्षत्रके पतन और पुनः स्थापनकी कथा तथा श्रीमद्देवीभागवतके श्रवणसे राजा दुर्दमको मन्वन्तराधिप-पुत्रकी प्राप्ति
कार्तिकेयजी बोले-हे मित्रावरुणसे प्रकट होनेवाले मुने ! अब आप यह कथा सुनें, जिसके एक अंशमें भागवतकी महिमा कही गयी हो, धर्मका विशद वर्णन किया गया हो और गायत्रीका प्रसंग आरम्भ करके उसकी महिमा दर्शायी गयी हो, उसे भागवतके रूपमें जाना जाता है । ३-४ ॥
भगवत्या इदं यस्मात्तस्मात् भागवतं विदुः । ब्रह्मविष्णुशिवाराध्या परा भगवती हि सा॥ ५ ॥
यह पुराण देवी भगवतीके माहात्म्यसे परिपूर्ण होनेके कारण देवीभागवत कहा जाता है । वे परा भगवती ब्रह्मा, विष्णु और महेशकी आराध्या हैं ॥ ५ ॥
ऋतवागिति विख्यातो मुनिरासीन्महामतिः । तस्यपुत्रोऽभवत्काले गण्डान्ते पौष्णभान्तिमे॥ ६ ॥
ऋतवाक् नामसे विख्यात एक महान् बुद्धिसम्पन्न मुनि थे । रेवती नक्षत्रके अन्तिम भाग गण्डान्तयोगमें उनके यहाँ समयानुसार एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ६ ॥
स तस्य जातकर्मादिक्रियाश्चक्रे यथाविधि । चूडोपनयनादींश्च संस्कारानपि सोऽकरोत्॥ ७ ॥
उन्होंने उस पुत्रकी जातकर्म आदि क्रियाएँ तथा चूडाकरण एवं उपनयन आदि संस्कार भी विधिपूर्वक सम्पन्न किये ॥ ७ ॥
यत आरभ्य जातोऽसौ पुत्रस्तस्य महात्मनः । तत एवाथ स मुनिः शोकरोगाकुलोऽभवत्॥ ८ ॥ रोषलोभपरीतात्मा तथा मातापि तस्य च। बहुरोगार्दिता नित्यं शुचा दुःखीकृता भृशम्॥ ९ ॥
महात्मा ऋतवाक्के यहाँ जबसे वह पुत्र उत्पन्न हुआ, उसी समयसे वे शोक तथा रोगसे ग्रस्त रहने लगे और क्रोध एवं लोभने उन्हें घेर लिया । उस बालककी माता भी अनेक रोगोंसे ग्रसित होकर नित्य शोकाकुल और अति दुःखी रहने लगीं ॥ ८-९ ॥
ऋतवाक् स मुनिश्चिन्तामवाप भृशदुःखितः । किमेतत् कारणं जातं पुत्रो मेऽत्यन्तदुर्मतिः ॥ १० ॥
मुनि ऋतवाक् अत्यन्त दु:खी और चिन्तित होकर सोचने लगे कि ऐसा क्या कारण है कि मेरे यह अत्यन्त दुर्मति पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १० ॥
कस्यचिन्मुनिपुत्रस्य बलात् पत्नीं जहार च। मेने शिक्षां पितुर्नासौ न च मातुर्विमूढधीः ॥ ११ ॥
[तरुणावस्थाको प्राप्त होनेपर] उसने किसी मुनिपुत्रकी पत्नीका बलपूर्वक हरण कर लिया । वह दुर्बुद्धि अपने माता-पिताकी शिक्षाओंपर कभी भी ध्यान नहीं देता था ॥ ११ ॥
ततो विषण्णचित्तस्तु ऋतवागब्रवीदिदम् । अपुत्रता वरं नृणां न कदाचित् कुपुत्रता ॥ १२ ॥
तदनन्तर अत्यन्त दुःखित मनवाले ऋतवाक्ने यह कहा कि मनुष्योंके लिये पुत्रहीन रह जाना अच्छा है, किंतु कुपुत्रकी प्राप्ति कभी भी ठीक नहीं है ॥ १२ ॥
पितॄन् कुपुत्रः स्वर्यातान्निरये पातयत्यपि । यावज्जीवेत् सदा पित्रोः केवलं दुःखदायकः ॥ १३ ॥
कुपुत्र स्वर्गमें गये हुए पितरोंको भी नरकमें गिरा देता है । वह जबतक जीवित रहता है, तबतक माता-पिताको केवल कष्ट ही देता रहता है ॥ १३ ॥
पित्रोर्दुःखाय धिग्जन्म कुपुत्रस्य च पापिनः । सुहृदां नोपकाराय नापकाराय वैरिणाम् ॥ १४ ॥
अतएव माता-पिताको कष्ट पहुँचानेवाले पापी कुपुत्रके जन्मको धिक्कार है । ऐसा पुत्र मित्रोंका न तो उपकार कर सकता है और न शत्रुओंका अपकार ही ॥ १४ ॥
कुपुत्रसे कुल नष्ट हो जाता है, कुपुत्रसे यश नष्ट हो जाता है और कुपुत्रसे लौकिक तथा पारलौकिक-दोनों जगत्में दुःख तथा नारकीय यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं ॥ १६ ॥
कुपुत्रेणान्वयो नष्टो जन्म नष्टं कुभार्यया । कुभोजनेन दिवसः कुमित्रेण सुखं कुतः ॥ १७ ॥
कुपुत्रसे वंश नष्ट हो जाता है, दुष्ट पत्नीसे जीवन नष्ट हो जाता है, विकृत भोजनसे दिन व्यर्थ चला जाता है और दुरात्मा मित्रसे सुख कहाँसे मिल सकता है ! ॥ १७ ॥
स्कन्द उवाच एवं दुष्टस्य पुत्रस्य दुष्टैराचरणैर्मुनि । तप्यमानोऽनिशं काले गत्वा गर्गमपृच्छत ॥ १८ ॥
कार्तिकेयजी बोले-[हे अगस्त्यजी !] अपने दुष्ट पुत्रके दुराचरणोंसे निरन्तर सन्तप्त रहते हुए मुनि ऋतवाक्ने किसी दिन गर्गऋषिके पास जाकर पूछा- ॥ १८ ॥
तब ज्योतिषशास्त्रके ज्ञाता गर्गाचार्यने मुनि ऋतवाक्का यह वचन सुनकर सभी कारणोंपर सम्यक् रूपसे विचार करके कहा ॥ २४ ॥
गर्ग उवाच मुने नैवापराधस्ते न मातुर्न कुलस्य च । रेवत्यन्तं तु गण्डान्तं पुत्रदौःशील्यकारणम् ॥ २५ ॥
गर्गाचार्यजी बोले-हे मुने ! इसमें न तो आपका दोष है, न बालककी माताका दोष है और न तो कुलका दोष है । रेवती नक्षत्रका अन्तिम भाग-गण्डान्तयोग ही इस बालककी दुर्विनीतताका कारण है ॥ २५ ॥
दुष्टे काले यतो जन्म पुत्रस्य तव भो मुने । तेनैव तव दुःखाय नान्यो हेतुर्मनागपि ॥ २६ ॥
हे मुने ! अशुभ वेलामें आपके पुत्रका जन्म हुआ है, इसी कारण यह आपको दुःख दे रहा है । इसमें लेशमात्र भी अन्य कोई कारण नहीं है ॥ २६ ॥
कार्तिकेयजी बोले-[हे अगस्त्यजी !] उस रेवती नक्षत्रके महान् तेजसे एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अनुपम रूपवती होनेके कारण लोकमें दूसरी लक्ष्मीकी भाँति प्रतीत हो रही थी ॥ ३२ ॥
प्रमुचऋषिके स्तुति-गानसे प्रसन्न होकर अग्निदेवने कन्याके योग्य वरका संकेत करते हुए कहा-हे मुने ! इस कन्याके पति धर्मपरायण, बलशाली, वीर, प्रिय भाषण करनेवाले और अपराजेय राजा दुर्दम होंगे । तब अग्निदेवके इस वचनको सुनकर मुनि अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ ३७-३८ ॥
इसके बाद प्रमुचमुनिने राजलक्षणसम्पन्न एवं विनयावनत राजा दुर्दमको अग्निशालाके द्वारपर स्थित देखा ॥ ४४ ॥
प्रणनाम च तं राजा मुनिः शिष्यमुवाच ह । गौतमानीयतामर्घ्यमर्घ्ययोग्योऽस्ति भूपतिः ॥ ४५ ॥ आगतश्चिरकालेन जामातेति विशेषतः । इत्युक्त्यार्घ्यं ददौ तस्मै सोऽपि जग्राह चिन्तयन् ॥ ४६ ॥
मुनिको देखकर राजाने प्रणाम किया और तदनन्तर मुनि प्रमुचने शिष्यसे कहा-हे गौतम ! ये राजा अर्घ्य पानेके योग्य हैं, अत: शीघ्र ही इनके लिये अर्घ्य ले आओ । बहुत दिन बाद ये पधारे हुए हैं और विशेषरूपसे ये हमारे जामाता हैं-ऐसा कहकर मुनिने राजाको अर्घ्य प्रदान किया और राजाने भी विचार करते हुए उसे ग्रहण किया ॥ ४५-४६ ॥
तत्पश्चात् राजाके अर्घ्य ग्रहण करके आसनपर बैठ जानेके उपरान्त मुनि प्रमुचने उन्हें आशीर्वचनोंसे अभिनन्दित करके उनका कुशल-क्षेम पूछा-हे राजन् ! आप स्वस्थ तो हैं ? आपकी सेना, कोष, बन्धुबान्धव, सेवकगण, सचिव, नगर, देश आदिकी सर्वविध कुशलता तो है ? हे नरेश ! आपकी भार्या तो यहीं विद्यमान है और वह सकुशल है । अतएव, मैं उसकी कुशलता नहीं पूछंगा, आप अपनी अन्य स्त्रियोंका कुशल-क्षेम बताइये ॥ ४७-४९ ॥
राजा बोले-हे प्रभो ! सुभद्रा आदि मेरी पत्नियाँ तो घरपर ही हैं । हे भगवन् ! मैं तो केवल उन्हें ही जानता हूँ । मैं रेवतीको तो नहीं जानता ॥ ५२ ॥
ऋषिरुवाच प्रियेति साम्प्रतं राजंस्त्वयोक्ता या महामते । सा विस्मृता क्षणादेव या ते श्लाध्यतमा प्रिया ॥ ५३ ॥
ऋषि बोले-हे महामते ! हे राजन् ! इसी समय 'प्रिये के सम्बोधनसे आपने जिससे पूछा था, अपनी उस योग्यतम प्रियाको आपने क्षणभरमें ही भुला दिया ! ॥ ५३ ॥
राजोवाच त्वयोक्तं यन्मृषा तनो तथैवामन्त्रिता मया । मुने दुष्टो न मे भावः कोपं मा कर्तुमर्हसि ॥ ५४ ॥
राजा बोले-हे मुने ! आपने जो कहा, वह असत्य नहीं है । किंतु मैंने तो सामान्यरूपसे ऐसा कह दिया था । इसमें मेरा कोई दूषित भाव नहीं था, अतः आप मेरे ऊपर क्रोध न करें ॥ ५४ ॥
हे महीपते ! अत: मेरे द्वारा प्रदत्त इस कन्याको आप स्वीकार कीजिये । आप इसे 'प्रिये' ऐसा सम्बोधित भी कर चुके हैं । अतएव अब शंकारहित होकर किसी अन्य विचारमें न पड़ें ॥ ५७ ॥
इसके बाद विवाह-कार्यके लिये मुनिको तत्पर देखकर रेवतीने कहा-हे तात ! आप मेरा विवाह रेवती नक्षत्रमें ही सम्पन्न करायें ॥ ५९ ॥
ऋषिरुवाच वत्से विवाहयोग्यानि सन्त्यन्यर्क्षाणि भूरिशः । रेवत्यां कथमुद्वाहः पौष्णभं न दिवि स्थितम् ॥ ६० ॥
ऋषि बोले-वत्से ! विवाहके योग्य अन्य बहुत-से नक्षत्र हैं । रेवती नक्षत्रमें विवाह कैसे होगा; क्योंकि रेवती तो आकाशमें स्थित है ही नहीं ॥ ६० ॥
कन्योवाच रेवत्यृक्षं विना कालो ममोद्वाहोचितो न हि । अतः संप्रार्थयाम्येतद्विवाहं पौष्णभे कुरु ॥ ६१ ॥
कन्या बोली-रेवती नक्षत्रके अतिरिक्त अन्य कोई भी नक्षत्र मेरे विवाहके लिये उचित नहीं है । अतः मैं प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरा विवाह रेवती नक्षत्रमें ही करें ॥ ६१ ॥
ऋषिरुवाच ऋतवाङ्मुनिना पूर्वं रेवतीभं निपातितम् । भान्तरे चेन्न ते प्रीतिर्विवाहः स्यात् कथं तव ॥ ६२ ॥
ऋषि बोले-पूर्वकालमें मुनि ऋतवाक्ने रेवती नक्षत्रको पृथ्वीपर गिरा दिया था । इस प्रकार अन्य नक्षत्रमें यदि तुम्हारी श्रद्धा नहीं है, तब तुम्हारा विवाह कैसे होगा ? ॥ ६२ ॥
हे पिताजी ! मैं आपके तपोबलको जानती हूँ । आप जगत्की सृष्टि करनेमें समर्थ हैं । अतः आप अपने तपके प्रभावसे रेवतीको पुनः आकाशमें स्थापित करके उसी नक्षत्रमें मेरा विवाह कीजिये ॥ ६४ ॥
ऋषिरुवाच एवं भवतु भद्रं ते यथैव त्वं ब्रवीषि माम् । त्वत्कृते सोममार्गेऽहं स्थापयाम्यद्य पौष्णभम् ॥ ६५ ॥
ऋषि बोले-तुम्हारा कल्याण हो । तुम जैसा मुझसे कह रही हो, वैसा ही होगा, तुम्हारे हितार्थ मैं आज ही रेवती नक्षत्रको सोममार्ग (नक्षत्र-मण्डल)में स्थापित करूंगा ॥ ६५ ॥
राजा बोले-हे मुने ! मैं स्वायम्भुव मनुके वंशमें उत्पन्न हुआ हूँ, अत: मैं यही कामना करता हूँ कि आपकी कृपासे मुझे मन्वन्तराधिपति पुत्रकी प्राप्ति हो ॥ ६९ ॥
राजाका यह वचन सुनकर लोमशमुनि प्रसन्न हो गये और बोले-हे राजन् ! आप धन्य है; क्योंकि तीनों लोकोंकी जननी देवी भगवतीमें आपकी ऐसी भक्ति हो गयी है । देव, दानव तथा मानवकी आराध्या परा भगवती जगदम्बामें यदि आपकी भक्ति उत्पन्न हुई है तो आपकी कार्य-सिद्धि अवश्य होगी ॥ ७७-७८ ॥
इसके बाद जब समस्त ग्रह-नक्षत्र अपने-अपने अनुकूल स्थानोंपर थे और सभी मांगलिक कृत्य सम्पन्न हो गये थे-ऐसे शुभ समयमें रेवतीने पुत्रको जन्म दिया ॥ ८४ ॥
श्रुत्वा पुत्रस्य जननं स्नात्वा राजा मुदान्वितः । स सुवर्णाम्भसा चक्रे जातकर्मादिकाः क्रियाः ॥ ८५
पुत्रके जन्मका समाचार सुनकर राजा दुर्दम अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने स्नान करके स्वर्णकलशके जलसे पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न किया । ८५ ॥
यथाविधि च दानानि दत्त्वा विप्रानतोषयत् । कृतोपनयनं राजा साङ्गान्वेदानपाठयत् ॥ ८६ ॥
तदनन्तर राजाने विधिपूर्वक दान देकर ब्राह्मणोंको संतुष्ट किया । समयपर पुत्रका उपनयनसंस्कार करके राजाने अपने पुत्रको अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन कराया ॥ ८६ ॥
सर्वविद्यानिधिर्जातो धर्मिष्ठोऽस्त्रविदां वरः । धर्मस्य वक्ता कर्ता च रैवतो नाम वीर्यवान् ॥ ८७ ॥
इस प्रकार राजाका वह रैवत नामक तेजस्वी पुत्र समग्र विद्याओंका निधान, धर्मपरायण, अस्त्रविशारदोंमें श्रेष्ठ, धर्मका वक्ता तथा धर्मका पालनकर्ता हो गया । ८७ ॥
नियुक्तवानथ ब्रह्मा रैवतं मानवे पदे । मन्वन्तराधिपः श्रीमान् गां शशास स धर्मतः ॥ ८८ ॥
इसके बाद ब्रह्माजीने रैवतको मनुके पदपर नियुक्त किया और वे श्रीमान् मन्वन्तराधिपके रूपमें धर्मपूर्वक पृथ्वीपर शासन करने लगे । ८८ ॥
इत्थं देव्याः प्रभावोऽयं संक्षेपेणोपवर्णितः । पुराणस्य च माहात्म्यं को वक्तुं विस्तरात्क्षमः ॥ ८९ ॥
इस प्रकार मैंने देवी भगवतीके इस प्रभावका संक्षिप्तरूपसे वर्णन कर दिया । इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन करने में कौन समर्थ है ? ॥ ८९ ॥
हे विप्रो ! मैंने आपलोगोंके समक्ष श्रीमद्देवीभागवतका यह माहात्म्य कह दिया । जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण तथा पाठ करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंका सुख प्राप्त करके अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ९१ ॥
इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्ये रैवतनामकमनुपुत्रोत्पत्तिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥