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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
देवीभागवतमाहात्म्यम्
चतुर्थोऽध्यायः

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रैवतनामकमनुपुत्रोत्पत्तिवर्णनम् -
श्रीमहेवीभागवतके माहात्म्यके प्रसंगमें रेवती नक्षत्रके पतन और पुनः स्थापनकी कथा तथा श्रीमद्देवीभागवतके श्रवणसे राजा दुर्दमको मन्वन्तराधिप-पुत्रकी प्राप्ति


सूतउवाच
इति श्रुत्वा कथां दिव्यां विचित्रां कुम्भसम्भवः ।
शुश्रूषुः पुनराहेदं विशाखं विनयान्वितः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-इस अलौकिक एवं विचित्र कथाको सुनकर पुनः सुननेकी इच्छावाले अगस्त्यजीने बड़ी विनम्रतापूर्वक भगवान् कार्तिकेयसे कहा- ॥ १ ॥

अगस्त्य उवाच
देवसेनापते देव विचित्रेयं श्रुता कथा।
पुनरन्यज्ज माहात्म्यं वद भागवतस्य मे ॥ २ ॥
अगस्त्यजी बोले-हे देवसेनापते ! हे देव ! मैंने यह विचित्र कथा सुन ली, अब आप श्रीमद्देवीभागवतका दूसरा माहातय मुझे बतायें ॥ २ ॥

स्कन्द उवाच
मित्रावरुणसम्भूत मुने शृणु कथामिमाम्।
यत्रैकदेशमहिमा प्रोक्तो भागवतस्य तु ॥ ३ ॥
वर्ण्यते धर्मविस्तारो गायत्रीमधिकृत्य च।
गायत्र्या महिमा यत्र तद् भागवतमिष्यते ॥ ४ ॥
कार्तिकेयजी बोले-हे मित्रावरुणसे प्रकट होनेवाले मुने ! अब आप यह कथा सुनें, जिसके एक अंशमें भागवतकी महिमा कही गयी हो, धर्मका विशद वर्णन किया गया हो और गायत्रीका प्रसंग आरम्भ करके उसकी महिमा दर्शायी गयी हो, उसे भागवतके रूपमें जाना जाता है । ३-४ ॥

भगवत्या इदं यस्मात्तस्मात् भागवतं विदुः ।
ब्रह्मविष्णुशिवाराध्या परा भगवती हि सा॥ ५ ॥
यह पुराण देवी भगवतीके माहात्म्यसे परिपूर्ण होनेके कारण देवीभागवत कहा जाता है । वे परा भगवती ब्रह्मा, विष्णु और महेशकी आराध्या हैं ॥ ५ ॥

ऋतवागिति विख्यातो मुनिरासीन्महामतिः ।
तस्यपुत्रोऽभवत्काले गण्डान्ते पौष्णभान्तिमे॥ ६ ॥
ऋतवाक् नामसे विख्यात एक महान् बुद्धिसम्पन्न मुनि थे । रेवती नक्षत्रके अन्तिम भाग गण्डान्तयोगमें उनके यहाँ समयानुसार एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ६ ॥

स तस्य जातकर्मादिक्रियाश्चक्रे यथाविधि ।
चूडोपनयनादींश्च संस्कारानपि सोऽकरोत्॥ ७ ॥
उन्होंने उस पुत्रकी जातकर्म आदि क्रियाएँ तथा चूडाकरण एवं उपनयन आदि संस्कार भी विधिपूर्वक सम्पन्न किये ॥ ७ ॥

यत आरभ्य जातोऽसौ पुत्रस्तस्य महात्मनः ।
तत एवाथ स मुनिः शोकरोगाकुलोऽभवत्॥ ८ ॥
रोषलोभपरीतात्मा तथा मातापि तस्य च।
बहुरोगार्दिता नित्यं शुचा दुःखीकृता भृशम्॥ ९ ॥
महात्मा ऋतवाक्के यहाँ जबसे वह पुत्र उत्पन्न हुआ, उसी समयसे वे शोक तथा रोगसे ग्रस्त रहने लगे और क्रोध एवं लोभने उन्हें घेर लिया । उस बालककी माता भी अनेक रोगोंसे ग्रसित होकर नित्य शोकाकुल और अति दुःखी रहने लगीं ॥ ८-९ ॥

ऋतवाक् स मुनिश्चिन्तामवाप भृशदुःखितः ।
किमेतत् कारणं जातं पुत्रो मेऽत्यन्तदुर्मतिः ॥ १० ॥
मुनि ऋतवाक् अत्यन्त दु:खी और चिन्तित होकर सोचने लगे कि ऐसा क्या कारण है कि मेरे यह अत्यन्त दुर्मति पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १० ॥

कस्यचिन्मुनिपुत्रस्य बलात् पत्नीं जहार च।
मेने शिक्षां पितुर्नासौ न च मातुर्विमूढधीः ॥ ११ ॥
[तरुणावस्थाको प्राप्त होनेपर] उसने किसी मुनिपुत्रकी पत्नीका बलपूर्वक हरण कर लिया । वह दुर्बुद्धि अपने माता-पिताकी शिक्षाओंपर कभी भी ध्यान नहीं देता था ॥ ११ ॥

ततो विषण्णचित्तस्तु ऋतवागब्रवीदिदम् ।
अपुत्रता वरं नृणां न कदाचित् कुपुत्रता ॥ १२ ॥
तदनन्तर अत्यन्त दुःखित मनवाले ऋतवाक्ने यह कहा कि मनुष्योंके लिये पुत्रहीन रह जाना अच्छा है, किंतु कुपुत्रकी प्राप्ति कभी भी ठीक नहीं है ॥ १२ ॥

पितॄन् कुपुत्रः स्वर्यातान्निरये पातयत्यपि ।
यावज्जीवेत् सदा पित्रोः केवलं दुःखदायकः ॥ १३ ॥
कुपुत्र स्वर्गमें गये हुए पितरोंको भी नरकमें गिरा देता है । वह जबतक जीवित रहता है, तबतक माता-पिताको केवल कष्ट ही देता रहता है ॥ १३ ॥

पित्रोर्दुःखाय धिग्जन्म कुपुत्रस्य च पापिनः ।
सुहृदां नोपकाराय नापकाराय वैरिणाम् ॥ १४ ॥
अतएव माता-पिताको कष्ट पहुँचानेवाले पापी कुपुत्रके जन्मको धिक्कार है । ऐसा पुत्र मित्रोंका न तो उपकार कर सकता है और न शत्रुओंका अपकार ही ॥ १४ ॥

धन्यास्ते मानवा लोके सुपुत्रो यद्‌गृहे स्थितः ।
परोपकारशीलश्च पितुर्मातुः सुखावहः ॥ १५ ॥
संसारमें वे मानव धन्य हैं, जिनके घरमें परोपकारपरायण तथा माता-पिताको सुख देनेवाला पुत्र हुआ करता है ॥ १५ ॥

कुपुत्रेण कुलं नष्टं कुपुत्रेण हतं यशः ।
कुपुत्रेणेह चामुत्र दुःखं निरययातनाः ॥ १६ ॥
कुपुत्रसे कुल नष्ट हो जाता है, कुपुत्रसे यश नष्ट हो जाता है और कुपुत्रसे लौकिक तथा पारलौकिक-दोनों जगत्में दुःख तथा नारकीय यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं ॥ १६ ॥

कुपुत्रेणान्वयो नष्टो जन्म नष्टं कुभार्यया ।
कुभोजनेन दिवसः कुमित्रेण सुखं कुतः ॥ १७ ॥
कुपुत्रसे वंश नष्ट हो जाता है, दुष्ट पत्नीसे जीवन नष्ट हो जाता है, विकृत भोजनसे दिन व्यर्थ चला जाता है और दुरात्मा मित्रसे सुख कहाँसे मिल सकता है ! ॥ १७ ॥

स्कन्द उवाच
एवं दुष्टस्य पुत्रस्य दुष्टैराचरणैर्मुनि ।
तप्यमानोऽनिशं काले गत्वा गर्गमपृच्छत ॥ १८ ॥
कार्तिकेयजी बोले-[हे अगस्त्यजी !] अपने दुष्ट पुत्रके दुराचरणोंसे निरन्तर सन्तप्त रहते हुए मुनि ऋतवाक्ने किसी दिन गर्गऋषिके पास जाकर पूछा- ॥ १८ ॥

ऋतवागुवाच
भगवंस्त्वामहं प्रष्टुमिच्छामि वद तत् प्रभो ।
ज्योतिश्शास्वस्य चाचार्य पुत्रदौःशील्यकारणम् ॥ १९ ॥
ऋतवाक् बोले-हे भगवन् ! हे ज्योतिषशास्त्रके आचार्य ! मैं आपसे अपने पुत्रकी दुःशीलताका कारण पूछना चाहता हूँ । हे प्रभो ! आप उसे बतायें ॥ १९ ॥

गुरुशुश्रूषया वेदा अधीता विधिवन्मया ।
ब्रह्मचारिव्रतं तीर्त्वा विवाहो विधिवत् कृतः ॥ २० ॥
गुरुकी निरन्तर सेवा करते हुए मैंने विधिपूर्वक वेदाध्ययन किया और ब्रह्मचर्यव्रत पूर्ण करके विधिविधानके साथ विवाह किया ॥ २० ॥

भार्यया सह गार्हस्थ्यधर्मश्चानुष्ठितोऽनिशम् ।
पञ्चयज्ञविधानं च मयाकारि यथाविधि ॥ २१ ॥
अपनी भार्याके साथ मैंने गृहस्थधर्मका सदैव यथोचित पालन किया और विधिपूर्वक पंचयज्ञका अनुष्ठान किया ॥ २१ ॥

नरकाद् बिभ्यता विप्र न तु कामसुखेच्छया ।
गर्भाधानं च विधिवत् पुत्रप्राप्त्यै मया कृतम् ॥ २२ ॥
हे विप्र ! नरकप्राप्तिके भयसे बचनेके लिये पुत्र प्राप्त करनेकी कामनासे मैंने विधिवत् गर्भाधान किया था न कि वासनात्मक सुखप्राप्तिकी इच्छासे ॥ २२ ॥

पुत्रोऽयं मम दोषेण मातुर्दोषेण वा मुने ।
जातो दुःखावहः पित्रोर्दुःशीलो बन्धुशोकदः ॥ २३ ॥
हे मुने ! दुःखदायी, माता-पिताके प्रति उद्दण्ड तथा बन्धु-बान्धवोंको पीड़ा पहुँचानेवाला यह पुत्र मेरे दोषसे अथवा अपनी माताके दोषसे उत्पन्न हुआ ? ॥ २३ ॥

एतन्निशम्य वचनं गर्गाचार्यो मुनेस्तदा ।
विचार्य सर्वं तद्धेतुं ज्योतिर्विद्वाचमब्रवीत् ॥ २४ ॥
तब ज्योतिषशास्त्रके ज्ञाता गर्गाचार्यने मुनि ऋतवाक्का यह वचन सुनकर सभी कारणोंपर सम्यक् रूपसे विचार करके कहा ॥ २४ ॥

गर्ग उवाच
मुने नैवापराधस्ते न मातुर्न कुलस्य च ।
रेवत्यन्तं तु गण्डान्तं पुत्रदौःशील्यकारणम् ॥ २५ ॥
गर्गाचार्यजी बोले-हे मुने ! इसमें न तो आपका दोष है, न बालककी माताका दोष है और न तो कुलका दोष है । रेवती नक्षत्रका अन्तिम भाग-गण्डान्तयोग ही इस बालककी दुर्विनीतताका कारण है ॥ २५ ॥

दुष्टे काले यतो जन्म पुत्रस्य तव भो मुने ।
तेनैव तव दुःखाय नान्यो हेतुर्मनागपि ॥ २६ ॥
हे मुने ! अशुभ वेलामें आपके पुत्रका जन्म हुआ है, इसी कारण यह आपको दुःख दे रहा है । इसमें लेशमात्र भी अन्य कोई कारण नहीं है ॥ २६ ॥

तद्‌दुःखशान्तये ब्रह्मञ्जगतां मातरं शिवाम् ।
समाराधय यत्नेन दुर्गां दुर्गतिनाशिनीम् ॥ २७ ॥
अतः हे ब्रह्मन् ! इस दुःखके शमनके लिये आप प्रयत्नपूर्वक समस्त दुर्गतियोंका विनाश करनेवाली कल्याणी जगदम्बा दुर्गाकी आराधना कीजिये ॥ २७ ॥

गर्गस्य वचनं श्रुत्वा ऋतवाक् क्रोधमूर्च्छितः ।
रेवतीं तु शशापासौ व्योम्नः पततु रेवती ॥ २८ ॥
गर्गाचार्यजीका वचन सुनकर ऋतवाक्मुनि क्रोधसे मूच्छित हो गये और उन्होंने रेवतीको शाप दे दिया कि वह आकाशसे नीचे गिर जाय ॥ २८ ॥

दत्ते शापे तु तेनाथ पूष्णो भञ्ज पपात खात् ।
कुमुदाद्रौ भासमानं सर्वलोकस्य पश्यतः ॥ २९ ॥
ऋतवाक्के शाप देते ही चमकता हुआ रेवती नक्षत्र सभी लोगोंक देखते-देखते आकाशसे कुमुदपर्वतपर जा गिरा ॥ २९ ॥

ख्यातो रैवतकश्चाभूत्तत्पातात् कुमुदाचलः ।
अतीव रमणीयश्च ततः प्रभृति सोऽप्यभूत् ॥ ३० ॥
वह कुमुदपर्वत रेवतीके गिरनेके कारण रैवतक नामसे प्रसिद्ध हुआ और उसी समयसे वह अत्यन्त रमणीक हो गया ॥ ३० ॥

दत्त्वा शापं च रेवत्यै गर्गोक्तविधिना मुनिः ।
समाराध्याम्बिकां देवीं सुखसौभाग्यभागभूत् ॥ ३१ ॥
रेवतीको शाप देकर मुनि ऋतवाक्ने महर्षि गर्गद्वारा बताये गये विधानके अनुसार देवी भगवतीकी सम्यक् आराधनाकर सुख और सौभाग्य प्राप्त किया ॥ ३१ ॥

स्कन्द उवाच
रेवत्यृक्षस्य यत् तेजस्तस्माज्जाता तु कन्यका ।
रूपेणाप्रतिमा लोके द्वितीया श्रीरिवाभवत् ॥ ३२ ॥
कार्तिकेयजी बोले-[हे अगस्त्यजी !] उस रेवती नक्षत्रके महान् तेजसे एक कन्या उत्पन्न हुई, जो अनुपम रूपवती होनेके कारण लोकमें दूसरी लक्ष्मीकी भाँति प्रतीत हो रही थी ॥ ३२ ॥

अथ तां प्रमुचः कन्यां रेवतीकान्तिसम्भवाम् ।
दृष्ट्‌वा नाम चकारास्या रेवतीति मुदा मुनिः ॥ ३३ ॥
रेवती नक्षत्रकी कान्तिसे प्रादुर्भूत उस कन्याको देखकर मुनि प्रमुचने प्रसन्न होकर उसका 'रेवती'यह नाम रख दिया ॥ ३३ ॥

निन्येऽथ स्वाश्रमे चैनां पोषयामास धर्मतः ।
ब्रह्मर्षिः प्रमुचो नाम कुमुदाद्रौ सुतामिव ॥ ३४ ॥
तदनन्तर ब्रह्मर्षि प्रमुच उसे कुमुदाचलपर स्थित अपने आश्रममें ले आये और पुत्रीकी भाँति उसका धर्मपूर्वक पालन-पोषण करने लगे ॥ ३४ ॥

अथ कालेन च प्रौढां दृष्ट्‌वा तां रूपशालिनीम् ।
स मुनिश्चिन्तयामास कोऽस्या योग्यो वरो भवेत् ॥ ३५ ॥
समय पाकर यौवनको प्राप्त उस रूपवती कन्याको देखकर मुनिने विचार किया कि इस कन्याके योग्य वर कौन होगा ? ॥ ३५ ॥

बहुधान्वेषयस्तस्या नाससादोचितं पतिम् ।
ततोऽग्निशालां संविश्य मुनिस्तुष्टाव पावकम् ॥ ३६ ॥
बहुत अन्वेषणके बाद भी जब मुनिको उसके योग्य कोई वर नहीं मिला, तब वे अग्निशालामें प्रवेश करके अग्निदेवकी स्तुति करने लगे ॥ ३६ ॥

कन्यावरं तदाशंसत्प्रीतस्तमपि हव्यवाट् ।
धर्मिष्ठो बलवान् वीरः प्रियवागपराजितः ॥ ३७ ॥
दुर्दमो भविता भर्ता मुनेऽस्याः पृथिवीपतिः ।
इति श्रुत्वा वचो वह्नेः प्रसन्नोऽभून्मुनिस्तदा ॥ ३८ ॥
प्रमुचऋषिके स्तुति-गानसे प्रसन्न होकर अग्निदेवने कन्याके योग्य वरका संकेत करते हुए कहा-हे मुने ! इस कन्याके पति धर्मपरायण, बलशाली, वीर, प्रिय भाषण करनेवाले और अपराजेय राजा दुर्दम होंगे । तब अग्निदेवके इस वचनको सुनकर मुनि अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ ३७-३८ ॥

दैवादाखेटकव्याजात् तत्क्षणादागतो नृपः ।
दुर्दमो नाम मेधावी तस्याश्रमपदं मुनेः ॥ ३९ ॥
संयोगसे उसी समय आखेटके बहाने दुर्दम नामक प्रतिभाशाली राजा मुनि प्रमुचके आश्रममें आ गये ॥ ३९ ॥

पुत्रो विक्रमशीलस्य बलवान् वीर्यवत्तरः ।
कालिन्दीजठरे जातः प्रियव्रतकुलोद्भवः ॥ ४० ॥
बलवान् तथा अप्रतिम ओजसे सम्पन्न वे प्रियव्रतके वंशज राजा दुर्दम विक्रमशीलके पुत्र थे और कालिन्दीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे ॥ ४० ॥ ।

मुनेराश्रममाविश्य तमदृष्ट्‌वा महामुनिम् ।
आमन्त्र्य तां प्रिये चेति रेवतीं पृष्टवान् नृपः ॥ ४१ ॥
मुनिके आश्रममें प्रवेशकर और उन्हें वहाँ न देखकर राजा दुर्दमने रेवतीको 'प्रिये'-इस शब्दसे सम्बोधित करके पूछा ॥ ४१ ॥

राजोवाच
महर्षिर्भगवानस्मादाश्रमात् क्व गतः प्रिये ।
तत्पादौ द्रष्टुमिच्छामि वद कल्याणि तत्त्वतः ॥ ४२ ॥
राजा बोले-हे प्रिये ! महर्षि भगवान् प्रमुच इस आश्रमसे कहाँ गये हुए हैं ? हे कल्याणि ! मुझे सच-सच बताओ; मैं उनके चरणोंका दर्शन करना चाहता हूँ ॥ ४२ ॥

कन्योवाच
अग्निशालामुपगतो महाराज महामुनिः ।
निश्चक्रामाश्रमात् तूर्णं राजाप्याकर्ण्य तद्वचः ॥ ४३ ॥
कन्या बोली-हे महाराज ! महामुनि अग्निशालामें गये हुए हैं । राजा भी यह वचन सुनकर शीघ्रतापूर्वक आश्रमसे बाहर निकल आये ॥ ४३ ॥

अथाग्निशालाद्वारस्थं राजानं दुर्दमं मुनिः ।
राजलक्षणसंयुक्तमपश्यत् प्रश्रयानतम् ॥ ४४ ॥
इसके बाद प्रमुचमुनिने राजलक्षणसम्पन्न एवं विनयावनत राजा दुर्दमको अग्निशालाके द्वारपर स्थित देखा ॥ ४४ ॥

प्रणनाम च तं राजा मुनिः शिष्यमुवाच ह ।
गौतमानीयतामर्घ्यमर्घ्ययोग्योऽस्ति भूपतिः ॥ ४५ ॥
आगतश्चिरकालेन जामातेति विशेषतः ।
इत्युक्त्यार्घ्यं ददौ तस्मै सोऽपि जग्राह चिन्तयन् ॥ ४६ ॥
मुनिको देखकर राजाने प्रणाम किया और तदनन्तर मुनि प्रमुचने शिष्यसे कहा-हे गौतम ! ये राजा अर्घ्य पानेके योग्य हैं, अत: शीघ्र ही इनके लिये अर्घ्य ले आओ । बहुत दिन बाद ये पधारे हुए हैं और विशेषरूपसे ये हमारे जामाता हैं-ऐसा कहकर मुनिने राजाको अर्घ्य प्रदान किया और राजाने भी विचार करते हुए उसे ग्रहण किया ॥ ४५-४६ ॥

मुनिरासनमासीनं गृहीतार्घ्यं च भूपतिम् ।
आशीर्भिरभिनन्द्याथ कुशलं चाप्यपृच्छत ॥ ४७ ॥
अपि ऽनामयं राजन् बले कोशे सुहृत्सु च ।
भृत्येऽमात्ये पुरे देशे तथात्मनि जनाधिप ॥ ४८ ॥
भार्यास्ति ते कुशलिनी यतः सात्रैव तिष्ठति ।
अतो न पृच्छाम्यस्यास्ते चान्यासां कुशलं वद ॥ ४९ ॥
तत्पश्चात् राजाके अर्घ्य ग्रहण करके आसनपर बैठ जानेके उपरान्त मुनि प्रमुचने उन्हें आशीर्वचनोंसे अभिनन्दित करके उनका कुशल-क्षेम पूछा-हे राजन् ! आप स्वस्थ तो हैं ? आपकी सेना, कोष, बन्धुबान्धव, सेवकगण, सचिव, नगर, देश आदिकी सर्वविध कुशलता तो है ? हे नरेश ! आपकी भार्या तो यहीं विद्यमान है और वह सकुशल है । अतएव, मैं उसकी कुशलता नहीं पूछंगा, आप अपनी अन्य स्त्रियोंका कुशल-क्षेम बताइये ॥ ४७-४९ ॥

राजोवाच
भगवंस्त्वत्प्रसादेन सर्वत्रानामयं मम ।
एतत् कुतूहलं ब्रह्मन् मद्‍भार्या कात्र विद्यते ॥ ५० ॥
राजा बोले-हे भगवन् ! आपके कृपाप्रभावसे मेरी सर्वविध कुशलता है । हे ब्रह्मन् ! अब मेरी यह जिज्ञासा है कि मेरी कौन-सी भार्या यहाँ है ? ॥ ५० ॥

ऋषिरुवाच
रेवती नाम ते भार्या रूपेणाप्रतिमा भुवि ।
विद्यतेऽत्र कथं पत्‍नीं तां न वेत्सि महीपते ॥ ५१ ॥
ऋषि बोले-हे पृथ्वीपते ! संसारमें अप्रतिम लावण्यसे सम्पन्न रेवती नामक आपकी पत्नी यहाँ ही रहती है । क्या आप उसे नहीं जानते ? ॥ ५१ ॥

राजोवाच
सुभद्राद्यास्तु या भार्या मम सन्ति गृहे विभो ।
जानामि तास्तु भगवन् नैव जानामि रेवतीम् ॥ ५२ ॥
राजा बोले-हे प्रभो ! सुभद्रा आदि मेरी पत्नियाँ तो घरपर ही हैं । हे भगवन् ! मैं तो केवल उन्हें ही जानता हूँ । मैं रेवतीको तो नहीं जानता ॥ ५२ ॥

ऋषिरुवाच
प्रियेति साम्प्रतं राजंस्त्वयोक्ता या महामते ।
सा विस्मृता क्षणादेव या ते श्लाध्यतमा प्रिया ॥ ५३ ॥
ऋषि बोले-हे महामते ! हे राजन् ! इसी समय 'प्रिये के सम्बोधनसे आपने जिससे पूछा था, अपनी उस योग्यतम प्रियाको आपने क्षणभरमें ही भुला दिया ! ॥ ५३ ॥

राजोवाच
त्वयोक्तं यन्मृषा तनो तथैवामन्त्रिता मया ।
मुने दुष्टो न मे भावः कोपं मा कर्तुमर्हसि ॥ ५४ ॥
राजा बोले-हे मुने ! आपने जो कहा, वह असत्य नहीं है । किंतु मैंने तो सामान्यरूपसे ऐसा कह दिया था । इसमें मेरा कोई दूषित भाव नहीं था, अतः आप मेरे ऊपर क्रोध न करें ॥ ५४ ॥

ऋषिरुवाच
राजन्नुक्तं त्वया सत्यं न भावो दूषितस्तव ।
वह्निना प्रेरितेनेत्थं भवता व्याहृतं वचः ॥ ५५ ॥
ऋषि बोले-हे राजन् ! आपका भाव दूषित नहीं था अपित आपने सत्य ही कहा था । अग्निदेवके द्वारा प्रेरित किये जानेपर ही आपने ऐसा कहा था ॥ ५५ ॥

अद्य पृष्टो मया वह्निः कोऽस्या भर्ता भविष्यति ।
तेनोक्तं दुर्दमो राजा भवितास्याः पतिर्धुवम् ॥ ५६ ॥
'इसका पति कौन होगा'-ऐसा मेरे द्वारा आज अग्निदेवसे पूछे जानेपर उन्होंने कहा था कि इसके पति निश्चितरूपसे राजा दुर्दम ही होंगे ॥ ५६ ॥

तदादत्स्व मया दत्तामिमां कन्यां महीपते ।
प्रियेत्यामन्त्रिता पूर्वं मा विचारं कुरुष्व भोः ॥ ५७ ॥
हे महीपते ! अत: मेरे द्वारा प्रदत्त इस कन्याको आप स्वीकार कीजिये । आप इसे 'प्रिये' ऐसा सम्बोधित भी कर चुके हैं । अतएव अब शंकारहित होकर किसी अन्य विचारमें न पड़ें ॥ ५७ ॥

श्रुत्वैतत्सोऽभवत्तूष्णीं चिन्तयन् मुनिभाषितम् ।
वैवाहिकं विधिं तस्य मुनिः कर्तुं समुद्यतः ॥ ५८ ॥
मुनिका यह वचन सुनकर राजा दुर्दम चिन्तन करते हुए चुप हो गये और मुनि उनके वैवाहिक अनुष्ठानकी तैयारीमें जुट गये ॥ ५८ ॥

अथोद्यतं विवाहाय दृष्ट्‌वा कन्याब्रवीन्मुनिम् ।
रेवत्यृक्षे विवाहो मे तात कर्तुं त्वमर्हसि ॥ ५९ ॥
इसके बाद विवाह-कार्यके लिये मुनिको तत्पर देखकर रेवतीने कहा-हे तात ! आप मेरा विवाह रेवती नक्षत्रमें ही सम्पन्न करायें ॥ ५९ ॥

ऋषिरुवाच
वत्से विवाहयोग्यानि सन्त्यन्यर्क्षाणि भूरिशः ।
रेवत्यां कथमुद्वाहः पौष्णभं न दिवि स्थितम् ॥ ६० ॥
ऋषि बोले-वत्से ! विवाहके योग्य अन्य बहुत-से नक्षत्र हैं । रेवती नक्षत्रमें विवाह कैसे होगा; क्योंकि रेवती तो आकाशमें स्थित है ही नहीं ॥ ६० ॥

कन्योवाच
रेवत्यृक्षं विना कालो ममोद्वाहोचितो न हि ।
अतः संप्रार्थयाम्येतद्विवाहं पौष्णभे कुरु ॥ ६१ ॥
कन्या बोली-रेवती नक्षत्रके अतिरिक्त अन्य कोई भी नक्षत्र मेरे विवाहके लिये उचित नहीं है । अतः मैं प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरा विवाह रेवती नक्षत्रमें ही करें ॥ ६१ ॥

ऋषिरुवाच
ऋतवाङ्मुनिना पूर्वं रेवतीभं निपातितम् ।
भान्तरे चेन्न ते प्रीतिर्विवाहः स्यात् कथं तव ॥ ६२ ॥
ऋषि बोले-पूर्वकालमें मुनि ऋतवाक्ने रेवती नक्षत्रको पृथ्वीपर गिरा दिया था । इस प्रकार अन्य नक्षत्रमें यदि तुम्हारी श्रद्धा नहीं है, तब तुम्हारा विवाह कैसे होगा ? ॥ ६२ ॥

कन्योवाच
तपः किं तप्तवानेक ऋतवागेव केवलम् ।
भवता किं तपो नेदृक् तप्तं वाल्कायमानसैः ॥ ६३ ॥
कन्या बोली-तात ! क्या केवल एक ऋतवाक्ने ही तपश्चर्या की है ? क्या आपने मन-वचन-कर्मसे ऐसी तप:साधना नहीं की है ? ॥ ६३ ॥

जगत्स्रष्टुं समर्थस्त्वं वेद्म्यहं ते तपोबलम् ।
रेवत्यृक्षं दिवि स्थाप्य ममोद्वाहं पितः कुरु ॥ ६४ ॥
हे पिताजी ! मैं आपके तपोबलको जानती हूँ । आप जगत्की सृष्टि करनेमें समर्थ हैं । अतः आप अपने तपके प्रभावसे रेवतीको पुनः आकाशमें स्थापित करके उसी नक्षत्रमें मेरा विवाह कीजिये ॥ ६४ ॥

ऋषिरुवाच
एवं भवतु भद्रं ते यथैव त्वं ब्रवीषि माम् ।
त्वत्कृते सोममार्गेऽहं स्थापयाम्यद्य पौष्णभम् ॥ ६५ ॥
ऋषि बोले-तुम्हारा कल्याण हो । तुम जैसा मुझसे कह रही हो, वैसा ही होगा, तुम्हारे हितार्थ मैं आज ही रेवती नक्षत्रको सोममार्ग (नक्षत्र-मण्डल)में स्थापित करूंगा ॥ ६५ ॥

स्कन्द उवाच
एवमुक्त्वा मुनिस्तूर्णं पौष्णभं स्वतपोबलात् ।
यथापूर्वं तथा चक्रे सोममार्गे घटोद्भव ॥ ६६ ॥
कार्तिकेयजी बोले-हे अगस्त्यजी ! ऐसा कहकर मुनिने अपने तपोबलसे शीघ्र ही पूर्वको भौति रेवती नक्षत्रको फिरसे नक्षत्र-मण्डलमें स्थापित | कर दिया ॥ ६६ ॥

रेवतीनाम्नि नक्षत्रे विवाहविधिना मुनिः ।
रेवतीं प्रददौ राज्ञे दुर्दमाय महात्मने ॥ ६७ ॥
तदनन्तर मुनि प्रमुचने रेवती नक्षत्रमें वैवाहिक विधिके अनुसार महात्मा राजा दुर्दमको वह रेवती कन्या सौंप दी ॥ ६७ ॥

कृत्वा विवाहं कन्याया मुनी राजानमब्रवीत् ।
किं ऽभिलषितं वीर वद तत्पूरयाम्यहम् ॥ ६८ ॥
इस प्रकार कन्याका विवाह कर देनेके उपरान्त मुनिने राजासे कहा-हे वीर ! तुम्हारी क्या अभिलाषा है ? मुझे बताओ, मैं उसे पूरी करुंगा ॥ ६८ ॥

राजोवाच
मनोः स्वायम्भुवस्याहं वंशे जातोऽस्मि हे मुने ।
मन्वन्तराधिपं पुत्रं त्वत्प्रसादाच्च कामये ॥ ६९ ॥
राजा बोले-हे मुने ! मैं स्वायम्भुव मनुके वंशमें उत्पन्न हुआ हूँ, अत: मैं यही कामना करता हूँ कि आपकी कृपासे मुझे मन्वन्तराधिपति पुत्रकी प्राप्ति हो ॥ ६९ ॥

मुनिरुवाच
यद्येषा कामना तेऽस्ति देव्या आराधनं कुरु ।
भविष्यत्येव ते पुत्रो मनुर्मन्वन्तराधिपः ॥ ७० ॥
मुनि बोले-यदि आपकी यह अभिलाषा है तो आप देवी भगवतीकी आराधना कीजिये । ऐसा करनेपर आपका पुत्र मनु अवश्य ही मन्वन्तराधिपति होगा ॥ ७० ॥

देवीभागवतं नाम पुराणं यत्तु पञ्चमम् ।
पञ्चकृत्वस्तु तच्छ्रुत्वा लप्स्यसेऽभिमतं सुतम् ॥ ७१ ॥
श्रीमद्देवीभागवत जो पंचम पुराणके रूपमें विख्यात है, उसका पाँच बार श्रवण करनेके उपरान्त आपको मनोवांछित पुत्र प्राप्त होगा । ७१ ॥

रेवत्यां रैवतो नाम पञ्चमो भविता मनुः ।
वेदविच्छास्त्रतत्त्वज्ञो धर्मवानपराजितः ॥ ७२ ॥
रेवतीके गर्भसे उत्पन्न रैवत नामवाला पाँचवाँ मनु वेदवेत्ता, शास्त्रोंके तत्त्वोंको जाननेवाला, धर्मपरायण तथा अपराजेय होगा ॥ ७२ ॥

इत्युक्तो मुनिना राजा प्रणम्य मुदितो मुनिम् ।
भार्यया सह मेधावी जगाम नगरं निजम् ॥ ७३ ॥
मुनि प्रमुचके इस प्रकार कहनेपर प्रसन्न होकर प्रतिभासम्पन्न राजा दुर्दमने मुनिको प्रणाम किया और वे भार्या रेवतीके साथ अपने नगर चले गये । ७३ ॥

पितृपैतामहं राज्यं चकार स महामतिः ।
पालयामास धर्मात्मा प्रजाः पुत्रानिवौरसान् ॥ ७४ ॥
महामति राजा दुर्दमने अपने पिता-पितामहसे प्राप्त राज्यपर शासन किया और उस धर्मात्माने औरस पुत्रोंकी भाँति अपनी प्रजाओंका पालन किया । ७४ ॥

एकदा लोमशो नाम महात्मा मुनिरागतः ।
प्रणिपत्य तमभ्यर्च्य प्राञ्जलिश्चाब्रवीन्नृपः ॥ ७५ ॥
एक बार उनके यहाँ महात्मा लोमशऋषि पधारे । राजा दुर्दमने उन्हें प्रणाम किया और उनका विधिवत् पूजनकर दोनों हाथ जोड़कर कहा ॥ ७५ ॥

राजोवाच
भगवंस्त्वत्प्रसादेन श्रोतुमिच्छामि भो मुने ।
देवीभागवतं नाम पुराणं पुत्रलिप्सया ॥ ७६ ॥
राजा बोले-हे भगवन् ! हे मुने ! यदि आप कृपा करें तो मैं पुत्र-प्राप्तिको कामनासे आपसे देवीभागवत नामक पुराण सुनना चाहता हूँ । ७६ ॥

श्रुत्वा वाचं प्रजाभर्तुः प्रीतः प्रोवाच लोमशः ।
धन्योऽसि राजंस्ते भक्तिर्जाता त्रैलोक्यमातरि ॥ ७७ ॥
सुरासुरनराराध्या या परा जगदम्बिका ।
तस्यां चेद्भक्तिरुत्पन्ना कार्यसिद्धिर्भविष्यति ॥ ७८ ॥
राजाका यह वचन सुनकर लोमशमुनि प्रसन्न हो गये और बोले-हे राजन् ! आप धन्य है; क्योंकि तीनों लोकोंकी जननी देवी भगवतीमें आपकी ऐसी भक्ति हो गयी है । देव, दानव तथा मानवकी आराध्या परा भगवती जगदम्बामें यदि आपकी भक्ति उत्पन्न हुई है तो आपकी कार्य-सिद्धि अवश्य होगी ॥ ७७-७८ ॥

अतस्त्वां श्रावयिष्यामि श्रीमद्‌भागवतं नृप ।
यस्य श्रवणमात्रेण न किञ्चिदपि दुर्लभम् ॥ ७९ ॥
अतएव हे राजन् ! मैं आपको श्रीमद्देवीभागवत सुनाऊँगा, जिसके सुननेमात्रसे कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं रह जाता ॥ ७९ ॥

इत्युक्त्या सुदिने ब्रह्मन् कथारम्भमथाकरोत् ।
पञ्चकृत्वः स शुश्राव विधिवद्‌भार्यया सह ॥ ८० ॥
हे ब्रह्मन् ! ऐसा कहकर मुनिने किसी शुभ दिनमें कथाका आरम्भ किया । अपनी पत्नीके साथ राजाने पाँच बार श्रीमद्देवीभागवतपुराणका विधिवत् श्रवण किया ॥ ८० ॥

समाप्तिदिवसे राजा पुराणञ्च मुनिं तथा ।
पूजयामास धर्मात्मा मुदा परमया युतः ॥ ८१ ॥
कथा-समाप्तिके दिन धर्मनिष्ठ राजा दुर्दमने अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक श्रीमद्देवीभागवतपुराण तथा लोमशमुनिकी पूजा की ॥ ८१ ॥

हुत्वा नवार्णमन्त्रेण भोजयित्वा कुमारिकाः ।
वाडवांश्च सपत्‍नीकान्दक्षिणाभिरतोषयत् ॥ ८२ ॥
राजाने नवार्णमन्त्रसे हवन करके कुमारी कन्याओंको भोजन कराया और सपत्नीक ब्राह्मणोंको प्रभूत दक्षिणादानद्वारा संतुष्ट किया ॥ ८२ ॥

अथ कालेन कियता भगवत्याः प्रसादतः ।
गर्भं दधार सा राज्ञी लोककल्याणकारकम् ॥ ८३
। कुछ समय बीत जानेपर भगवतीकी कृपासे उस रानी रेवतीने लोककल्याणकारी गर्भ धारण किया ॥ ८३ ॥

पुण्येऽथ समये प्राप्ते ग्रहैः सुस्थानसङ्‌गतैः ।
सर्वमङ्‌गलसम्पन्ने रेवती सुषुवे सुतम् ॥ ८४
इसके बाद जब समस्त ग्रह-नक्षत्र अपने-अपने अनुकूल स्थानोंपर थे और सभी मांगलिक कृत्य सम्पन्न हो गये थे-ऐसे शुभ समयमें रेवतीने पुत्रको जन्म दिया ॥ ८४ ॥

श्रुत्वा पुत्रस्य जननं स्नात्वा राजा मुदान्वितः ।
स सुवर्णाम्भसा चक्रे जातकर्मादिकाः क्रियाः ॥ ८५
पुत्रके जन्मका समाचार सुनकर राजा दुर्दम अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने स्नान करके स्वर्णकलशके जलसे पुत्रका जातकर्म आदि संस्कार सम्पन्न किया । ८५ ॥

यथाविधि च दानानि दत्त्वा विप्रानतोषयत् ।
कृतोपनयनं राजा साङ्‌गान्वेदानपाठयत् ॥ ८६ ॥
तदनन्तर राजाने विधिपूर्वक दान देकर ब्राह्मणोंको संतुष्ट किया । समयपर पुत्रका उपनयनसंस्कार करके राजाने अपने पुत्रको अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन कराया ॥ ८६ ॥

सर्वविद्यानिधिर्जातो धर्मिष्ठोऽस्त्रविदां वरः ।
धर्मस्य वक्ता कर्ता च रैवतो नाम वीर्यवान् ॥ ८७ ॥
इस प्रकार राजाका वह रैवत नामक तेजस्वी पुत्र समग्र विद्याओंका निधान, धर्मपरायण, अस्त्रविशारदोंमें श्रेष्ठ, धर्मका वक्ता तथा धर्मका पालनकर्ता हो गया । ८७ ॥

नियुक्तवानथ ब्रह्मा रैवतं मानवे पदे ।
मन्वन्तराधिपः श्रीमान् गां शशास स धर्मतः ॥ ८८ ॥
इसके बाद ब्रह्माजीने रैवतको मनुके पदपर नियुक्त किया और वे श्रीमान् मन्वन्तराधिपके रूपमें धर्मपूर्वक पृथ्वीपर शासन करने लगे । ८८ ॥

इत्थं देव्याः प्रभावोऽयं संक्षेपेणोपवर्णितः ।
पुराणस्य च माहात्म्यं को वक्तुं विस्तरात्क्षमः ॥ ८९ ॥
इस प्रकार मैंने देवी भगवतीके इस प्रभावका संक्षिप्तरूपसे वर्णन कर दिया । इस श्रीमद्देवीभागवतपुराणके माहात्म्यका विस्तारपूर्वक वर्णन करने में कौन समर्थ है ? ॥ ८९ ॥

सूत उवाच
कुम्भयोनिस्तु माहात्म्यं विधिं भागवतस्य च ।
श्रुत्वा कुमारं चाभ्यर्च्य स्वाश्रमं पुनराययौ ॥ ९० ॥
सूतजी बोले-[हे ब्राह्मणो !] इस प्रकार श्रीमद्देवीभागवतका माहात्म्य तथा उसकी विधि सुनकर और कुमार कार्तिकेयकी पूजाकर अगस्त्यजी अपने आश्रम चले आये ॥ ९० ॥

इदं मया भागवतस्य विप्रा
    माहाम्यमुक्तं भवतां समक्षम् ।
शृणोति भक्त्या पठतीह भोगान्
    भुक्त्याखिलान्मुक्तिमुपैति चान्ते ॥ ९१ ॥
हे विप्रो ! मैंने आपलोगोंके समक्ष श्रीमद्देवीभागवतका यह माहात्म्य कह दिया । जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण तथा पाठ करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंका सुख प्राप्त करके अन्तमें मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ९१ ॥

इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्ये
रैवतनामकमनुपुत्रोत्पत्तिवर्णनं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
चौथा अध्याय समाप्त


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