श्रीशुकदेवजी बोले-हे पिताजी ! सर्वदा दुःख देनेवाले गृहस्थाश्रमको मैं कभी स्वीकार नहीं करूंगा; क्योंकि [पशु-पक्षियोंको फंसानेवाले] जालके समान यह आश्रम सभी मानवोंके लिये सदा बन्धनस्वरूप है ॥ १ ॥
धनचिन्तातुराणां हि क्व सुखं तात दृश्यते । स्वजनैः खलु पीड्यन्ते निर्धना लोलुपा जनाः ॥ २ ॥
हे तात ! धन-धान्यकी चिन्तामें व्याकुल लोगोंके लिये सुख कहाँ दिखायी पड़ता है ? निर्धन और लोभके वशीभूत मनुष्य अपने ही परिवारजनोंद्वारा सर्वदा कष्ट पाते रहते हैं ॥ २ ॥
इन्द्रोऽपि न सुखी तादृग्यादृशो भिक्षुनिःस्पृहः । कोऽन्यः स्यादिह संसारे त्रिलोकीविभवे सति ॥ ३ ॥
इन्द्र भी वैसे सुखी नहीं रहते, जैसा एक सुखी नि:स्पृह भिक्षुक रहता है । तब भला इस संसारमें तीनों लोकोंका वैभव पाकर भी दूसरा कौन सुखी रह सकता है ? ॥ ३ ॥
तपन्तं तापसं दृष्ट्वा मघवा दुःखितोऽभवत् । विघ्नान्बहुविधानस्य करोति च दिवस्पतिः ॥ ४ ॥
किसी तपस्वीको तप करते हुए देखकर स्वर्गलोकके स्वामी इन्द्र भी चिन्तित हो उठते हैं और उसके तपमें अनेक प्रकारके विघ्न करने लगते हैं ॥ ४ ॥
ब्रह्मापि न सुखी विष्णुर्लक्ष्मीं प्राप्य मनोरमाम् । खेदं प्राप्नोति सततं संग्रामैरसुरैः सह ॥ ५ ॥ करोति विपुलान्यत्नांस्तपश्चरति दुश्चरम् । रमापतिरपि श्रीमान्कस्यास्ति विपुलं सुखम् ॥ ६ ॥
ब्रह्मा भी सुखी नहीं हैं और मनोरम लक्ष्मीको पाकर विष्णु भी सुखी नहीं हैं । उन्हें भी दैत्योंके साथ युद्ध के द्वारा निरन्तर कष्ट सहन करने पड़ते हैं । उन ऐश्वर्यशाली रमापति विष्णुको भी [सुख प्राप्तिके लिये] अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं और कठोर तपस्या करनी पड़ती है । [इस संसारमें] किसको बहुत सुख है ? ॥ ५-६ ॥
शङ्करोऽपि सदा दुःखी भवत्येव च वेद्म्यहम् । तपश्चर्यां प्रकुर्वाणो दैत्ययुद्धकरः सदा ॥ ७ ॥
भगवान् शंकर भी सदैव दुःखी रहते हैं-ऐसा मैं जानता है । क्योंकि वे सदैव तपस्या करते हुए भी दैत्योंसे युद्ध करते रहते हैं ॥ ७ ॥
कदाचिन्न सुखी शेते धनवानपि लोलुपः । निर्धनस्तु कथं तात सुखं प्राप्नोति मानवः ॥ ८ ॥ जानन्नपि महाभाग पुत्रं वा वीर्यसम्भवम् । नियोक्ष्यसि महाघोरे संसारे दुःखदे सदा ॥ ९ ॥
हे तात ! जब धनवान् होते हुए भी लोभी मनूष्य कभी भी सुखपूर्वक सो नहीं पाता, तब भला निर्धन मनुष्य कैसे सुख पा सकता है ? इसलिये हे महाभाग ! यह जानते हुए भी आप अपने तेजसे उत्पन्न पुत्रको दुःखदायक तथा महाभयानक संसारमें क्यों लगा रहे हैं ? ॥ ८-९ ॥
जन्मदुःखं जरादुःखं दुःखं च मरणे तथा । गर्भवासे पुनर्दुःखं विष्ठामूत्रमये पितः ॥ १० ॥ तस्मादतिशयं दुःखं तृष्णालोभसमुद्भवम् । याञ्चायां परमं दुःखं मरणादपि मानद ॥ ११ ॥
हे पिताजी ! जहाँ जन्ममें दुःख, बुढ़ापेमें दुःख, मरणमें दुःख तथा पुनः विष्ठा और मूत्रसे भरे हुए गर्भमें दुःख सहन करना पड़ता है; उससे भी अधिक दुःख तृष्णा और लोभसे उत्पन्न होता है । हे मानद ! मरनेसे भी अधिक दुःख माँगनेमें होता है ॥ १०-११ ॥
प्रतिग्रहधना विप्रा न बुद्धिबलजीवनाः । पराशा परमं दुःखं मरणं च दिने दिने ॥ १२ ॥
ब्राह्मण प्रतिग्रहद्वारा धन प्राप्त करते हैं और वे बुद्धि-बलका उपयोग नहीं करते । दूसरेके भरोसेपर रहना परम दु:खकर है तथा वह अहर्निश मृत्युके समान होता है ॥ १२ ॥
पठित्वा सकलान् वेदाञ्छास्त्राणि च समन्ततः । गत्वा च धनिनां कार्या स्तुतिः सर्वात्मना बुधैः ॥ १३ ॥ एकोदरस्य का चिन्ता पत्रमूलफलादिभिः । येनकेनाप्युपायेन सन्तुष्ट्या च प्रपूर्यते ॥ १४ ॥
सभी वेद-शास्त्रोंका भलीभाँति अध्ययन करके भी विद्वानोंको धनिकोंके पास जाकर सब प्रकारसे उनकी प्रशंसा करनी पड़ती है । केवल पेटके लिये कोई चिन्ताकी बात नहीं; उसे तो केवल पत्र, फल एवं कन्द-मूल आदिसे किसी भी प्रकार सन्तुष्टिपूर्वक भरा जा सकता है । १३-१४ ॥
स्त्री अपने संसर्गसे उसके तेजका तथा अपनी वचनचातुरीद्वारा उसके सम्पूर्ण धन और मनका-इस प्रकार सर्वस्वका हरण कर लेती है । उससे बढ़कर दूसरा चोर कौन है ? ॥ १९ ॥
निद्रासुखविनाशार्थं मूर्खस्तु दारसंग्रहम् । करोति वञ्चितो धात्रा दुःखाय न सुखाय च ॥ २० ॥
इसलिये मेरे विचारमें तो मूर्ख मनुष्य ही केवल निद्रासुखका नाश करनेके लिये स्त्रीपरिणय करता है । विधाताद्वारा वह दुःखके लिये ही ठगा जाता है, सुखके लिये नहीं ॥ २० ॥
सूत उवाच एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वा व्यासः शुकस्य च । सम्प्राप महतीं चिन्तां किं करोमीत्यसंशयम् ॥ २१ ॥ तस्य सुस्रुवुरश्रूणि लोचनादुःखजानि च । वेपथुश्च शरीरेऽभूद्ग्लानिं प्राप मनस्तथा ॥ २२ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार शुकदेवकी युक्तियुक्त ये बातें सुनकर व्यासजी बड़ी चिन्तामें पड गये । वे मन-ही-मन सोचने लगे-'अब मैं क्या करूं ?' तत्पश्चात् उनकी आँखोंसे दुःखके आँस बहने लगे, शरीर काँपने लगा और मनमें ग्लानि होने लगी ॥ २१-२२ ॥
शोचन्तं पितरं दृष्ट्वा दीनं शोकपरिप्लुतम् । उवाच पितरं व्यासं विस्मयोत्फुल्ललोचनः ॥ २३ ॥ अहो मायाबलं चोग्रं यन्मोहयति पण्डितम् । वेदान्तस्य च कर्तारं सर्वज्ञं वेदसम्मितम् ॥ २४ ॥
इस प्रकार शोक करते हुए अपने दीन तथा शोकाकुल पिताको देखकर आश्चर्यसे विस्मित नेत्रवाले शुकदेवजीने अपने पिता व्यासजीसे कहा-अहो ! माया कितनी प्रबल है, जो कि यह वेदान्तदर्शनके प्रणेता तथा वेदका सांगोपांग ज्ञान रखनेवाले सर्वज्ञ पण्डित मेरे पिताजीको भी मोहित कर रही है ! ॥ २३-२४ ॥
न जाने का च सा माया किंस्वित्सातीव दुष्करा । या मोहयति विद्वांसं व्यासं सत्यवतीसुतम् ॥ २५ ॥
न जाने वह कौन-सी तथा कैसी अति दुष्कर माया है, जो सत्यवतीसुत विद्वान् व्यासजीको भी मोहित कर रही है ! ॥ २५ ॥
पुराणानां च वक्ता च निर्माता भारतस्य च । विभागकर्ता वेदानां सोऽपि मोहमुपागतः ॥ २६ ॥
जो पुराणोंके वक्ता, महाभारतके रचयिता, वेदोंके विभागकर्ता हैं, वे भी [मायाजनित] मोहको प्राप्त हो गये हैं ॥ २६ ॥
तां यामि शरणं देवीं या मोहयति वै जगत् । ब्रह्मविष्णुहरादींश्च कथान्येषां च कीदृशी ॥ २७ ॥
इसलिये मैं उन्हीं देवी महामायाकी शरणमें जाऊँ, जो समस्त जगत् तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिको भी मोहित कर देती हैं, तब दूसरोंकी बात ही क्या है ? ॥ २७ ॥
कोऽप्यस्ति त्रिषु लोकेषु यो न मुह्यति मायया । यन्मोहं गमिताः पूर्वे ब्रह्मविष्णुहरादयः ॥ २८ ॥
इन तीनों लोकोंमें कौन ऐसा है जो मायासे मोहित न होता हो ? उस मायाने तो ब्रह्मा आदि देवताओंको भी पूर्वकालमें मोहित कर दिया था ॥ २८ ॥
अहो ! उन भगवती जगदम्बाके द्वारा रचित मायाका बल तथा पराक्रम महान् आश्चर्यजनक है; उन्होंने अपनी मायाके प्रभावसे ही सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी ईश्वरको भी अपने वशमें कर रखा है ॥ २९ ॥
विष्ण्वंशसम्भवो व्यास इति पौराणिका जगुः । सोऽपि मोहार्णवे मग्नो भग्नपोतो वणिग्यथा ॥ ३० ॥
पौराणिकोंद्वारा कहा गया है कि व्यासजी भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हैं; तथापि वे आज शोक-सागरमें इस प्रकार डूब रहे हैं जैसे समुद्र में भग्न जलयानवाला वणिक् ॥ ३० ॥
व्यास कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? यह संसार क्या वस्तु है ? और यह कैसा भ्रम है ? इस पांचभौतिक शरीरमें पिता-पुत्रकी भावना कहाँसे आयी ? यह माया अतीव प्रबल है, जो मायावियोंको भी मोहित कर देती है, जिसके वशीभूत होकर यहाँ द्विज कृष्णद्वैपायन भी रुदन कर रहे हैं ॥ ३२-३३ ॥
सूतजी बोले-सब कारणोंकी एकमात्र कारण, सब देवताओंकी जननी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंकी भी स्वामिनी आदिशक्ति भगवतीको मनसे स्मरण करके शोकसागरमें डूबे हुए अपने दुःखी पिता श्रीव्यासजीसे अरणीपुत्र शुकदेवजीने इस प्रकार नीतियुक्त वचन कहा- ॥ ३४-३५ ॥
हे पराशरनन्दन ! हे महाभाग ! आप तो स्वयं सब लोगोंको ज्ञान देनेवाले हैं तब हे स्वामिन् ! आप ऐसा शोक क्यों करते हैं, जैसा कोई अज्ञ साधारण व्यक्ति करता है ? ॥ ३६ ॥
अद्याहं तव पुत्रोऽस्मि न जाने पूर्वजन्मनि । कोऽहं कस्त्वं महाभाग विभ्रमोऽयं महात्मनि ॥ ३७ ॥
हे महाभाग ! इस समय मैं आपका पुत्र हूँ, परंतु यह कौन जानता है कि पूर्वजन्ममें मैं कौन था और आप कौन थे ? वह संसार तो महात्माओंके लिये एक भ्रममात्र है ॥ ३७ ॥
अतएव आप धैर्य रखें, विवेक धारण करें तथा मनमें खेद न करें । हे महामते ! इसे मोहजाल समझकर आप शोकका परित्याग करें ॥ ३८ ॥
क्षुधानिवृत्तिर्भक्ष्येण न पुत्रदर्शनेन च । पिपासा जलपानेन याति नैवात्मजेक्षणात् ॥ ३९ ॥ घ्राणं सुखं सुगन्धेन कर्णजं श्रवणेन च । स्त्रीसुखं तु स्त्रिया नूनं पुत्रोऽहं किं करोमि ते ॥ ४० ॥
भूख भोजनसे मिटती है, पुत्रके देखनेसे नहीं । प्यास भी जल पीनेसे मिटती है, केवल पुत्र-दर्शनसे नहीं । इसी प्रकार सुगन्धित पदार्थसे नाकको तथा अच्छी बातोंसे कानोंको एवं स्त्रीसे विषय-सुखका आनन्द मिलता है । मैं आपका पुत्र हूँ, बताइये मैं आपके लिये क्या करूँ ? ॥ ३९-४० ॥
किसी समय अजीगर्त नामक ब्राह्मणने धन लेकर अपने पुत्र शुन:शेपको यज्ञपशुके रूपमें राजा हरिश्चन्द्रके हाथ बेच दिया था । सुखका साधन केवल धन ही है, धन ही सुखकी राशि है । अत: यदि आपको लोभ हो, तो धनका संचय कीजिये । मैं आपका पुत्र हूँ, अतः [आपके सुखके लिये] मैं क्या करूं ? ॥ ४१-४२ ॥
[एक बार महाप्रलयकालमें] वटपत्रपर शयन करते हुए बालरूपधारी भगवान् विष्णु वहाँ सोच रहे थे कि किस चिदात्माने, किस प्रयोजनसे तथा किस द्रव्यसे मुझे बालरूपमें उत्पन्न किया है ? इन सब विषयोंका ज्ञान मुझे कैसे हो ? इस प्रकार चिन्तन कर रहे महात्मा बालमुकुन्दसे उन आदिशक्ति भगवतीने सम्पूर्ण अर्थको प्रदान करनेवाले ज्ञानको आधे श्लोकमें ही इस प्रकार कहा-'सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्' अर्थात् यह सब कुछ मैं ही हूँ और दूसरा कोई भी सनातन नहीं है ॥ ५०-५२ ॥
तद्वचो विष्णुना पूर्वं संविज्ञातं मनस्यपि । केनोक्ता वागियं सत्या चिन्तयामास चेतसा ॥ ५३ ॥ कथं वेद्मि प्रवक्तारं स्त्रीपुंसौ वा नपुंसकम् । इति चिन्ताप्रपन्नेन धृतं भागवतं हृदि ॥ ५४ ॥ पुनः पुनः कृतोच्चारस्तस्मिनेवास्तचेतसा । वटपत्रे शयानः सन्नभूच्चिन्तासमन्वितः ॥ ५५ ॥
यह बात पहले भी भगवान् विष्णुके हृदय में उत्पन्न हुई थी । इसलिये अब वे सोचने लगे कि इस सत्य वचनका उच्चारण किसने किया ? इस कहनेवालेको मैं कैसे जानूँ ? वह स्त्री है या पुरुष अथवा नपुंसक है ? ऐसी चिन्तावाले भगवान् विष्णुने भागवतको हृदयमें धारण किया और उसी श्लोकार्धमें मन लगाये हुए वे बार-बार उसका उच्चारण करने लगे । इस प्रकार वटपत्रपर सोये हुए वे भगवान् विष्णु चिन्तातुर हो गये ॥ ५३-५५ ॥
उसी समय शंख, चक्र, गदा, पद्म-इन श्रेष्ठ आयुधोंको धारण किये हुए, चतुर्भुजा, शान्तिस्वरूपा, शान्ता शिवा दिव्य वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित होकर अपने ही समान विभूतियोंवाली सखियोसहित प्रादुर्भूत हुई । वे सुन्दर मुखवाली भगवती महालक्ष्मी परम तेजस्वी भगवान् विष्णुके समक्ष मन्द-मन्द मुसकराती हुई प्रकट हुई ॥ ५६-५८ ॥
इस प्रकार भगवतीकी माया देखकर अति चकित सर्वात्मा भगवान् विष्णु सोचने लगेये देवियाँ कहाँसे आ गयीं, मैं वटवृक्षके पत्तेपर कैसे आ गया, इस एकार्णव महासागरमें वटवृक्ष कहाँसे उत्पन्न हो गया और किसके द्वारा मैं सुन्दर स्वरूपवाला बालक बनाकर उसपर स्थापित किया गया हूँ ? ॥ ६४-६५ ॥
ममेयं जननी नो वा माया वा कापि दुर्घटा । दर्शनं केनचित्त्वद्य दत्तं वा केन हेतुना ॥ ६६ ॥
ये मेरी माता तो नहीं हैं ! अथवा यह कोई दुर्घट माया है ? किसने और किस कारणसे मुझे इस समय दर्शन दिये हैं ? ॥ ६६ ॥
किं मया चात्र वक्तव्यं गन्तव्यं वा न वा क्वचित् । मौनमास्थाय तिष्ठेयं बालभावादतन्द्रितः ॥ ६७ ॥
अब मैं इस विषयमें क्या कहूँ ? मैं यहाँसे कहीं चला जाऊँ अथवा मौन धारण करके बालभावसे सावधान होकर यहीं स्थित रहूँ ॥ ६७ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे शुकवैराग्यवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥