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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
प्रथमः स्कन्धः
पञ्चदशोऽध्यायः

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शुकवैराग्यवर्णनम् -
शुकदेवजीका विवाहके लिये अस्वीकार करना तथा व्यासजीका उनसे श्रीमद्देवीभागवत पढ़नेके लिये कहना


श्रीशुक उवाच
नाहं गृहं करिष्यामि दुःखदं सर्वदा पितः ।
वागुरासदृशं नित्यं बन्धनं सर्वदेहिनाम् ॥ १ ॥
श्रीशुकदेवजी बोले-हे पिताजी ! सर्वदा दुःख देनेवाले गृहस्थाश्रमको मैं कभी स्वीकार नहीं करूंगा; क्योंकि [पशु-पक्षियोंको फंसानेवाले] जालके समान यह आश्रम सभी मानवोंके लिये सदा बन्धनस्वरूप है ॥ १ ॥

धनचिन्तातुराणां हि क्व सुखं तात दृश्यते ।
स्वजनैः खलु पीड्यन्ते निर्धना लोलुपा जनाः ॥ २ ॥
हे तात ! धन-धान्यकी चिन्तामें व्याकुल लोगोंके लिये सुख कहाँ दिखायी पड़ता है ? निर्धन और लोभके वशीभूत मनुष्य अपने ही परिवारजनोंद्वारा सर्वदा कष्ट पाते रहते हैं ॥ २ ॥

इन्द्रोऽपि न सुखी तादृग्यादृशो भिक्षुनिःस्पृहः ।
कोऽन्यः स्यादिह संसारे त्रिलोकीविभवे सति ॥ ३ ॥
इन्द्र भी वैसे सुखी नहीं रहते, जैसा एक सुखी नि:स्पृह भिक्षुक रहता है । तब भला इस संसारमें तीनों लोकोंका वैभव पाकर भी दूसरा कौन सुखी रह सकता है ? ॥ ३ ॥

तपन्तं तापसं दृष्ट्वा मघवा दुःखितोऽभवत् ।
विघ्नान्बहुविधानस्य करोति च दिवस्पतिः ॥ ४ ॥
किसी तपस्वीको तप करते हुए देखकर स्वर्गलोकके स्वामी इन्द्र भी चिन्तित हो उठते हैं और उसके तपमें अनेक प्रकारके विघ्न करने लगते हैं ॥ ४ ॥

ब्रह्मापि न सुखी विष्णुर्लक्ष्मीं प्राप्य मनोरमाम् ।
खेदं प्राप्नोति सततं संग्रामैरसुरैः सह ॥ ५ ॥
करोति विपुलान्यत्‍नांस्तपश्चरति दुश्चरम् ।
रमापतिरपि श्रीमान्कस्यास्ति विपुलं सुखम् ॥ ६ ॥
ब्रह्मा भी सुखी नहीं हैं और मनोरम लक्ष्मीको पाकर विष्णु भी सुखी नहीं हैं । उन्हें भी दैत्योंके साथ युद्ध के द्वारा निरन्तर कष्ट सहन करने पड़ते हैं । उन ऐश्वर्यशाली रमापति विष्णुको भी [सुख प्राप्तिके लिये] अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं और कठोर तपस्या करनी पड़ती है । [इस संसारमें] किसको बहुत सुख है ? ॥ ५-६ ॥

शङ्करोऽपि सदा दुःखी भवत्येव च वेद्म्यहम् ।
तपश्चर्यां प्रकुर्वाणो दैत्ययुद्धकरः सदा ॥ ७ ॥
भगवान् शंकर भी सदैव दुःखी रहते हैं-ऐसा मैं जानता है । क्योंकि वे सदैव तपस्या करते हुए भी दैत्योंसे युद्ध करते रहते हैं ॥ ७ ॥

कदाचिन्न सुखी शेते धनवानपि लोलुपः ।
निर्धनस्तु कथं तात सुखं प्राप्नोति मानवः ॥ ८ ॥
जानन्नपि महाभाग पुत्रं वा वीर्यसम्भवम् ।
नियोक्ष्यसि महाघोरे संसारे दुःखदे सदा ॥ ९ ॥
हे तात ! जब धनवान् होते हुए भी लोभी मनूष्य कभी भी सुखपूर्वक सो नहीं पाता, तब भला निर्धन मनुष्य कैसे सुख पा सकता है ? इसलिये हे महाभाग ! यह जानते हुए भी आप अपने तेजसे उत्पन्न पुत्रको दुःखदायक तथा महाभयानक संसारमें क्यों लगा रहे हैं ? ॥ ८-९ ॥

जन्मदुःखं जरादुःखं दुःखं च मरणे तथा ।
गर्भवासे पुनर्दुःखं विष्ठामूत्रमये पितः ॥ १० ॥
तस्मादतिशयं दुःखं तृष्णालोभसमुद्‌भवम् ।
याञ्चायां परमं दुःखं मरणादपि मानद ॥ ११ ॥
हे पिताजी ! जहाँ जन्ममें दुःख, बुढ़ापेमें दुःख, मरणमें दुःख तथा पुनः विष्ठा और मूत्रसे भरे हुए गर्भमें दुःख सहन करना पड़ता है; उससे भी अधिक दुःख तृष्णा और लोभसे उत्पन्न होता है । हे मानद ! मरनेसे भी अधिक दुःख माँगनेमें होता है ॥ १०-११ ॥

प्रतिग्रहधना विप्रा न बुद्धिबलजीवनाः ।
पराशा परमं दुःखं मरणं च दिने दिने ॥ १२ ॥
ब्राह्मण प्रतिग्रहद्वारा धन प्राप्त करते हैं और वे बुद्धि-बलका उपयोग नहीं करते । दूसरेके भरोसेपर रहना परम दु:खकर है तथा वह अहर्निश मृत्युके समान होता है ॥ १२ ॥

पठित्वा सकलान् वेदाञ्छास्त्राणि च समन्ततः ।
गत्वा च धनिनां कार्या स्तुतिः सर्वात्मना बुधैः ॥ १३ ॥
एकोदरस्य का चिन्ता पत्रमूलफलादिभिः ।
येनकेनाप्युपायेन सन्तुष्ट्या च प्रपूर्यते ॥ १४ ॥
सभी वेद-शास्त्रोंका भलीभाँति अध्ययन करके भी विद्वानोंको धनिकोंके पास जाकर सब प्रकारसे उनकी प्रशंसा करनी पड़ती है । केवल पेटके लिये कोई चिन्ताकी बात नहीं; उसे तो केवल पत्र, फल एवं कन्द-मूल आदिसे किसी भी प्रकार सन्तुष्टिपूर्वक भरा जा सकता है । १३-१४ ॥

भार्या पुत्रास्तथा पौत्राः कुटुम्बे विपुले सति ।
पूरणार्थं महद्दुःखं क्व सुखं पितरद्‌भुतम् ॥ १५ ॥
हे पिताजी ! भार्या, पुत्र, पौत्र आदि बड़े कुटुम्बके पालनमें तो अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं । ऐसी दशामें गृहस्थको सुख कहाँ है ? ॥ १५ ॥

योगशास्त्रं वद मम ज्ञानशास्त्रं सुखाकरम् ।
कर्मकाण्डेऽखिले तात न रमेऽहं कदाचन ॥ १६ ॥
इसलिये हे तात ! मुझे सुखदायी ज्ञानशास्त्र और योगशास्त्रका उपदेश कीजिये । सम्पूर्ण कर्मकाण्डमें मेरा मन कभी नहीं लगता ॥ १६ ॥

वद कर्मक्षयोपायं प्रारब्धं सञ्चितं तथा ।
वर्तमानं यथा नश्येत् त्रिविधं कर्ममूलजम् ॥ १७ ॥
अतः कर्मक्षयका कोई उपाय बताइये; जिससे संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण-तीनों प्रकारके कर्मफल नष्ट हो जायें ॥ १७ ॥

जलूकेव सदा नारी रुधिरं पिबतीति वै ।
मूर्खस्तु न विजानाति मोहितो भावचेष्टितैः ॥ १८ ॥
स्त्री जोंकके समान सदा [पुरुषका] रक्त चूसती रहती है, जिसे बुद्धिहीन मनुष्य उसकी भावपूर्ण चेष्टाओंसे मोहित होनेके कारण नहीं जान पाता ॥ १८ ॥

भोगैर्वीर्यं धनं पूर्णं मनः कुटिलभाषणैः ।
कान्ता हरति सर्वस्वं कः स्तेनस्तादृशोऽपरः ॥ १९ ॥
स्त्री अपने संसर्गसे उसके तेजका तथा अपनी वचनचातुरीद्वारा उसके सम्पूर्ण धन और मनका-इस प्रकार सर्वस्वका हरण कर लेती है । उससे बढ़कर दूसरा चोर कौन है ? ॥ १९ ॥

निद्रासुखविनाशार्थं मूर्खस्तु दारसंग्रहम् ।
करोति वञ्चितो धात्रा दुःखाय न सुखाय च ॥ २० ॥
इसलिये मेरे विचारमें तो मूर्ख मनुष्य ही केवल निद्रासुखका नाश करनेके लिये स्त्रीपरिणय करता है । विधाताद्वारा वह दुःखके लिये ही ठगा जाता है, सुखके लिये नहीं ॥ २० ॥

सूत उवाच
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वा व्यासः शुकस्य च ।
सम्प्राप महतीं चिन्तां किं करोमीत्यसंशयम् ॥ २१ ॥
तस्य सुस्रुवुरश्रूणि लोचनादुःखजानि च ।
वेपथुश्च शरीरेऽभूद्‌ग्लानिं प्राप मनस्तथा ॥ २२ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार शुकदेवकी युक्तियुक्त ये बातें सुनकर व्यासजी बड़ी चिन्तामें पड गये । वे मन-ही-मन सोचने लगे-'अब मैं क्या करूं ?' तत्पश्चात् उनकी आँखोंसे दुःखके आँस बहने लगे, शरीर काँपने लगा और मनमें ग्लानि होने लगी ॥ २१-२२ ॥

शोचन्तं पितरं दृष्ट्वा दीनं शोकपरिप्लुतम् ।
उवाच पितरं व्यासं विस्मयोत्फुल्ललोचनः ॥ २३ ॥
अहो मायाबलं चोग्रं यन्मोहयति पण्डितम् ।
वेदान्तस्य च कर्तारं सर्वज्ञं वेदसम्मितम् ॥ २४ ॥
इस प्रकार शोक करते हुए अपने दीन तथा शोकाकुल पिताको देखकर आश्चर्यसे विस्मित नेत्रवाले शुकदेवजीने अपने पिता व्यासजीसे कहा-अहो ! माया कितनी प्रबल है, जो कि यह वेदान्तदर्शनके प्रणेता तथा वेदका सांगोपांग ज्ञान रखनेवाले सर्वज्ञ पण्डित मेरे पिताजीको भी मोहित कर रही है ! ॥ २३-२४ ॥

न जाने का च सा माया किंस्वित्सातीव दुष्करा ।
या मोहयति विद्वांसं व्यासं सत्यवतीसुतम् ॥ २५ ॥
न जाने वह कौन-सी तथा कैसी अति दुष्कर माया है, जो सत्यवतीसुत विद्वान् व्यासजीको भी मोहित कर रही है ! ॥ २५ ॥

पुराणानां च वक्ता च निर्माता भारतस्य च ।
विभागकर्ता वेदानां सोऽपि मोहमुपागतः ॥ २६ ॥
जो पुराणोंके वक्ता, महाभारतके रचयिता, वेदोंके विभागकर्ता हैं, वे भी [मायाजनित] मोहको प्राप्त हो गये हैं ॥ २६ ॥

तां यामि शरणं देवीं या मोहयति वै जगत् ।
ब्रह्मविष्णुहरादींश्च कथान्येषां च कीदृशी ॥ २७ ॥
इसलिये मैं उन्हीं देवी महामायाकी शरणमें जाऊँ, जो समस्त जगत् तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदिको भी मोहित कर देती हैं, तब दूसरोंकी बात ही क्या है ? ॥ २७ ॥

कोऽप्यस्ति त्रिषु लोकेषु यो न मुह्यति मायया ।
यन्मोहं गमिताः पूर्वे ब्रह्मविष्णुहरादयः ॥ २८ ॥
इन तीनों लोकोंमें कौन ऐसा है जो मायासे मोहित न होता हो ? उस मायाने तो ब्रह्मा आदि देवताओंको भी पूर्वकालमें मोहित कर दिया था ॥ २८ ॥

अहो बलमहो वीर्यं देव्या खलु विनिर्मितम् ।
माययैव वशं नीतः सर्वज्ञ ईश्वरः प्रभुः ॥ २९ ॥
अहो ! उन भगवती जगदम्बाके द्वारा रचित मायाका बल तथा पराक्रम महान् आश्चर्यजनक है; उन्होंने अपनी मायाके प्रभावसे ही सर्वज्ञ और सर्वान्तर्यामी ईश्वरको भी अपने वशमें कर रखा है ॥ २९ ॥

विष्ण्वंशसम्भवो व्यास इति पौराणिका जगुः ।
सोऽपि मोहार्णवे मग्नो भग्नपोतो वणिग्यथा ॥ ३० ॥
पौराणिकोंद्वारा कहा गया है कि व्यासजी भगवान् विष्णुके अंशसे उत्पन्न हुए हैं; तथापि वे आज शोक-सागरमें इस प्रकार डूब रहे हैं जैसे समुद्र में भग्न जलयानवाला वणिक् ॥ ३० ॥

अश्रुपातं करोत्यद्य विवशः प्राकृतो यथा ।
अहो मायाबलं चैतद्दुस्त्यजं पण्डितैरपि ॥ ३१ ॥
आज वे भी मायाके वशीभूत होकर एक साधारण व्यक्तिके समान आँसू बहा रहे हैं । अहो ! माया बड़ी प्रबल है, जिसे बड़े-बड़े विद्वान् भी नहीं त्याग पाते ॥ ३१ ॥

कोऽयं कोऽहं कथं चेह कीदृशोऽयं भ्रमः किल ।
पञ्चभूतात्मके देहे पितापुत्रेति वासना ॥ ३२ ॥
बलिष्ठा खलु मायेयं मायिनामपि मोहिनी ।
ययाभिभूतः कृष्णोऽपि करोति रोदनं द्विजः ॥ ३३ ॥
व्यास कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? यह संसार क्या वस्तु है ? और यह कैसा भ्रम है ? इस पांचभौतिक शरीरमें पिता-पुत्रकी भावना कहाँसे आयी ? यह माया अतीव प्रबल है, जो मायावियोंको भी मोहित कर देती है, जिसके वशीभूत होकर यहाँ द्विज कृष्णद्वैपायन भी रुदन कर रहे हैं ॥ ३२-३३ ॥

सूत उवाच
तां नत्वा मनसा देवीं सर्वकारणकारणाम् ।
जननीं सर्वदेवानां ब्रह्मादीनां तथेश्वरीम् ॥ ३४ ॥
पितरं प्राह दीनं तं शोकार्णवपरिप्लुतम् ।
अरणीसम्भवो व्यासं हेतुमद्वचनं शुभम् ॥ ३५ ॥
सूतजी बोले-सब कारणोंकी एकमात्र कारण, सब देवताओंकी जननी तथा ब्रह्मा आदि देवताओंकी भी स्वामिनी आदिशक्ति भगवतीको मनसे स्मरण करके शोकसागरमें डूबे हुए अपने दुःखी पिता श्रीव्यासजीसे अरणीपुत्र शुकदेवजीने इस प्रकार नीतियुक्त वचन कहा- ॥ ३४-३५ ॥

पाराशर्य महाभाग सर्वेषां बोधदः स्वयम् ।
किं शोकं कुरुषे स्वामिन्यथाज्ञः प्राकृतो नरः ॥ ३६ ॥
हे पराशरनन्दन ! हे महाभाग ! आप तो स्वयं सब लोगोंको ज्ञान देनेवाले हैं तब हे स्वामिन् ! आप ऐसा शोक क्यों करते हैं, जैसा कोई अज्ञ साधारण व्यक्ति करता है ? ॥ ३६ ॥

अद्याहं तव पुत्रोऽस्मि न जाने पूर्वजन्मनि ।
कोऽहं कस्त्वं महाभाग विभ्रमोऽयं महात्मनि ॥ ३७ ॥
हे महाभाग ! इस समय मैं आपका पुत्र हूँ, परंतु यह कौन जानता है कि पूर्वजन्ममें मैं कौन था और आप कौन थे ? वह संसार तो महात्माओंके लिये एक भ्रममात्र है ॥ ३७ ॥

कुरु धैर्यं प्रबुध्यस्व मा विषादे मनः कृथाः ।
मोहजालमिमं मत्वा मुञ्च शोकं महामते ॥ ३८ ॥
अतएव आप धैर्य रखें, विवेक धारण करें तथा मनमें खेद न करें । हे महामते ! इसे मोहजाल समझकर आप शोकका परित्याग करें ॥ ३८ ॥

क्षुधानिवृत्तिर्भक्ष्येण न पुत्रदर्शनेन च ।
पिपासा जलपानेन याति नैवात्मजेक्षणात् ॥ ३९ ॥
घ्राणं सुखं सुगन्धेन कर्णजं श्रवणेन च ।
स्त्रीसुखं तु स्त्रिया नूनं पुत्रोऽहं किं करोमि ते ॥ ४० ॥
भूख भोजनसे मिटती है, पुत्रके देखनेसे नहीं । प्यास भी जल पीनेसे मिटती है, केवल पुत्र-दर्शनसे नहीं । इसी प्रकार सुगन्धित पदार्थसे नाकको तथा अच्छी बातोंसे कानोंको एवं स्त्रीसे विषय-सुखका आनन्द मिलता है । मैं आपका पुत्र हूँ, बताइये मैं आपके लिये क्या करूँ ? ॥ ३९-४० ॥

अजीगर्तेन पुत्रोऽपि हरिश्चन्द्राय भूभुजे ।
पशुकामाय यज्ञार्थे दत्तो मौल्येन सर्वथा ॥ ४१ ॥
सुखानां साधनं द्रव्यं धनात्सुखसमुच्चयः ।
धनमर्जय लोभश्चेत्पुत्रोऽहं किं करोम्यहम् ॥ ४२ ॥
किसी समय अजीगर्त नामक ब्राह्मणने धन लेकर अपने पुत्र शुन:शेपको यज्ञपशुके रूपमें राजा हरिश्चन्द्रके हाथ बेच दिया था । सुखका साधन केवल धन ही है, धन ही सुखकी राशि है । अत: यदि आपको लोभ हो, तो धनका संचय कीजिये । मैं आपका पुत्र हूँ, अतः [आपके सुखके लिये] मैं क्या करूं ? ॥ ४१-४२ ॥

मां प्रबोधय बुद्ध्या त्वं दैवज्ञोऽसि महामते ।
यथा मुच्येयमत्यन्तं गर्भवासभयान्मुने ॥ ४३ ॥
हे महामते ! आप दैवज्ञ हैं । अतः हे मुने ! आप मुझे अपनी बुद्धिसे ऐसा ज्ञान दीजिये, जिससे मैं गर्भवासजनित महान् भयसे मुक्त हो जाऊँ ॥ ४३ ॥

दुर्लभं मानुषं जन्म कर्मभूमाविहानघ ।
तत्रापि ब्राह्मणत्वं वै दुर्लभं चोत्तमे कुले ॥ ४४ ॥
हे पवित्रात्मन् ! इस कर्मभूमिमें मनुष्य-जन्म अति दुर्लभ है, उसमें भी उत्तम कुलमें ब्राह्मणका जन्म और भी दुर्लभ है ॥ ४४ ॥

बद्धोऽहमिति मे बुद्धिर्नापसर्पति चित्ततः ।
संसारवासनाजाले निविष्टा वृद्धिगामिनी ॥ ४५ ॥
'मैं आबद्ध है'-यह बुद्धि मेरे चित्तसे नहीं हटती । संसारके वासनाजालमें यह उत्तरोत्तर बढ़ती हुई फंसती ही जाती है । ॥ ४५ ॥

सूत उवाच
इत्युक्तस्तु तदा व्यासः पुत्रेणामितबुद्धिना ।
प्रत्युवाच शुकं शान्तं चतुर्थाश्रममानसम् ॥ ४६ ॥
सूतजी बोले-असीम बुद्धिवाले अपने पुत्र शुकदेवके ऐसा कहनेपर व्यासजीने शान्त एवं संन्यास-आश्रमके लिये उत्सुक मनवाले शुकदेवजीसे कहा- ॥ ४६ ॥

व्यास उवाच
पठ पुत्र महाभाग मया भागवतं कृतम् ।
शुभं न चातिविस्तीर्णं पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ॥ ४७ ॥
व्यासजी बोले-हे महाभाग पुत्र ! मेरेद्वारा रचित श्रीमद्देवीभागवतपुराणको तुम पढ़ो; वेदतुल्य यह पवित्र पुराण अधिक विस्तृत भी नहीं है ॥ ४७ ॥

स्कन्धा द्वादश तत्रैव पञ्चलक्षणसंयुतम् ।
सर्वेषां च पुराणानां भूषणं मम सम्मतम् ॥ ४८ ॥
इसमें बारह स्कन्ध हैं, यह पुराणोंके पाँचों लक्षणोंसे युक्त है । मेरे विचारमें यह पुराण सभी पुराणोंका आभूषण है ॥ ४८ ॥

सदसज्ज्ञानविज्ञानं श्रुतमात्रेण जायते ।
येन भागवतेनेह तत्पठ त्वं महामते ॥ ४९ ॥
हे महामते ! जिस भागवतके सुननेमात्रसे सत् और असत् वस्तुओंका यथार्थ ज्ञान हो जाता है, उसे तुम पढ़ो ॥ ४९ ॥

वटपत्रशयानाय विष्णवे बालरूपिणे ।
केनास्मि बालभावेन निर्मितोऽहं चिदात्मना ॥ ५० ॥
किमर्थं केन द्रव्येण कथं जानामि चाखिलम् ।
इत्येवं चिन्त्यमानाय मुकुन्दाय महात्मने ॥ ५१ ॥
श्लोकार्धेन तया प्रोक्तं भगवत्याखिलार्थदम् ।
सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम् ॥ ५२ ॥
[एक बार महाप्रलयकालमें] वटपत्रपर शयन करते हुए बालरूपधारी भगवान् विष्णु वहाँ सोच रहे थे कि किस चिदात्माने, किस प्रयोजनसे तथा किस द्रव्यसे मुझे बालरूपमें उत्पन्न किया है ? इन सब विषयोंका ज्ञान मुझे कैसे हो ? इस प्रकार चिन्तन कर रहे महात्मा बालमुकुन्दसे उन आदिशक्ति भगवतीने सम्पूर्ण अर्थको प्रदान करनेवाले ज्ञानको आधे श्लोकमें ही इस प्रकार कहा-'सर्वं खल्विदमेवाहं नान्यदस्ति सनातनम्' अर्थात् यह सब कुछ मैं ही हूँ और दूसरा कोई भी सनातन नहीं है ॥ ५०-५२ ॥

तद्वचो विष्णुना पूर्वं संविज्ञातं मनस्यपि ।
केनोक्ता वागियं सत्या चिन्तयामास चेतसा ॥ ५३ ॥
कथं वेद्मि प्रवक्तारं स्त्रीपुंसौ वा नपुंसकम् ।
इति चिन्ताप्रपन्नेन धृतं भागवतं हृदि ॥ ५४ ॥
पुनः पुनः कृतोच्चारस्तस्मिनेवास्तचेतसा ।
वटपत्रे शयानः सन्नभूच्चिन्तासमन्वितः ॥ ५५ ॥
यह बात पहले भी भगवान् विष्णुके हृदय में उत्पन्न हुई थी । इसलिये अब वे सोचने लगे कि इस सत्य वचनका उच्चारण किसने किया ? इस कहनेवालेको मैं कैसे जानूँ ? वह स्त्री है या पुरुष अथवा नपुंसक है ? ऐसी चिन्तावाले भगवान् विष्णुने भागवतको हृदयमें धारण किया और उसी श्लोकार्धमें मन लगाये हुए वे बार-बार उसका उच्चारण करने लगे । इस प्रकार वटपत्रपर सोये हुए वे भगवान् विष्णु चिन्तातुर हो गये ॥ ५३-५५ ॥

तदा शान्ता भगवती प्रादुरास चतुर्भुजा ।
शङ्खचक्रगदापद्मवरायुधधरा शिवा ॥ ५६ ॥
दिव्याम्बरधरा देवी दिव्यभूषणभूषिता ।
संयुता सदृशीभिश्च सखीभिः स्वविभूतिभिः ॥ ५७ ॥
प्रादुर्बभूव तस्याग्रे विष्णोरमिततेजसः ।
मन्दहास्यं प्रयुञ्जाना महालक्ष्मीः शुभानना ॥ ५८ ॥
उसी समय शंख, चक्र, गदा, पद्म-इन श्रेष्ठ आयुधोंको धारण किये हुए, चतुर्भुजा, शान्तिस्वरूपा, शान्ता शिवा दिव्य वस्त्राभूषणोंसे सुसज्जित होकर अपने ही समान विभूतियोंवाली सखियोसहित प्रादुर्भूत हुई । वे सुन्दर मुखवाली भगवती महालक्ष्मी परम तेजस्वी भगवान् विष्णुके समक्ष मन्द-मन्द मुसकराती हुई प्रकट हुई ॥ ५६-५८ ॥

सूत उवाच
तां तथा संस्थितां दृष्ट्वा हृदये कमलेक्षणः ।
विस्मितः सलिले तस्मिन्निराधारा मनोरमाम् ॥ ५९ ॥
सूतजी बोले-उस अपार प्रलय-सागरमें बिना अवलम्बके स्थित मनोरम रूपवाली उन दिव्य देवीको देखकर कमलनयन भगवान् विष्णु बड़े ही विस्मयमें पड़े ॥ ५९ ॥

रतिर्भूतिस्तथा बुद्धिर्मतिः कीर्तिः स्मृतिर्धृतिः ।
श्रद्धा मेधा स्वधा स्वाहा क्षुधा निद्रा दया गतिः ॥ ६० ॥
तुष्टिः पुष्टिः क्षमा लज्जा जृम्भा तन्द्रा च शक्तयः ।
संस्थिताः सर्वतः पार्श्वे महादेव्याः पृथक्पृथक् ॥ ६१ ॥
वहाँ रति, भूति, बुद्धि, मति, कीर्ति, स्मृति, धृति, श्रद्धा, मेधा, स्वधा, स्वाहा, क्षुधा, निद्रा, दया, गति, तुष्टि, पुष्टि, क्षमा, लज्जा, जृम्भा, तन्द्रा-ये शक्तियाँ अलग-अलग रूपमें उन महादेवीके समीप सभी ओर खड़ी थीं ॥ ६०-६१ ॥

वरायुधधराः सर्वा नानाभूषणभूषिताः ।
मन्दारमालाकुलिता मुक्ताहारविराजिताः ॥ ६२ ॥
वे सभी श्रेष्ठ आयुध धारण किये हुए थीं, नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित थी तथा उनके हदयपर मन्दारकी मालाएँ और मोतियोंके हार सुशोभित हो रहे थे ॥ ६२ ॥

तां दृष्ट्वा ताश्च संवीक्ष्य तस्मिन्नेकार्णवे जले ।
विस्मयाविष्टहृदयः सम्बभूव जनार्दनः ॥ ६३ ॥
उन भगवती महालक्ष्मी तथा उनकी सभी अन्यान्य सखियोंको उस प्रलयसागरके जलमें उपस्थित देखकर भगवान् विष्णुके मनमें बड़ा विस्मय हुआ ॥ ६३ ॥

चिन्तयामास सर्वात्मा दृष्टमायोऽतिविस्मितः ।
कुतो भूताः स्त्रियः सर्वाः कुतोऽहं वटतल्पगः ॥ ६४ ॥
अस्मिन्नेकार्णवे घोरे न्यग्रोधः कथमुत्थितः ।
केनाहं स्थापितोऽस्म्यत्र शिशुं कृत्वा शुभाकृतिम् ॥ ६५ ॥
इस प्रकार भगवतीकी माया देखकर अति चकित सर्वात्मा भगवान् विष्णु सोचने लगेये देवियाँ कहाँसे आ गयीं, मैं वटवृक्षके पत्तेपर कैसे आ गया, इस एकार्णव महासागरमें वटवृक्ष कहाँसे उत्पन्न हो गया और किसके द्वारा मैं सुन्दर स्वरूपवाला बालक बनाकर उसपर स्थापित किया गया हूँ ? ॥ ६४-६५ ॥

ममेयं जननी नो वा माया वा कापि दुर्घटा ।
दर्शनं केनचित्त्वद्य दत्तं वा केन हेतुना ॥ ६६ ॥
ये मेरी माता तो नहीं हैं ! अथवा यह कोई दुर्घट माया है ? किसने और किस कारणसे मुझे इस समय दर्शन दिये हैं ? ॥ ६६ ॥

किं मया चात्र वक्तव्यं गन्तव्यं वा न वा क्वचित् ।
मौनमास्थाय तिष्ठेयं बालभावादतन्द्रितः ॥ ६७ ॥
अब मैं इस विषयमें क्या कहूँ ? मैं यहाँसे कहीं चला जाऊँ अथवा मौन धारण करके बालभावसे सावधान होकर यहीं स्थित रहूँ ॥ ६७ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे शुकवैराग्यवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
पंद्रहवाँ अध्याय समाप्त


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