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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
तृतीयोऽध्यायः

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प्रतीयसकाशाच्छन्तनुजन्मवर्णनम् -
राजा शन्तनु, गंगा और भीष्मके पूर्वजन्मकी कथा -


ऋषय ऊचुः
उत्पत्तिस्तु त्वया प्रोक्ता व्यासस्यामिततेजसः ।
सत्यवत्यास्तथा सूत विस्तरेण त्वयानघ ॥ १ ॥
तथाप्येकस्तु सन्देहश्चित्तेऽस्माकं तु संस्थितः ।
न निवर्तति धर्मज्ञ कथितेन त्वयानघ ॥ २ ॥
ऋषिगण बोले-हे सूतजी ! हे अनघ ! यद्यपि आपने परम तेजस्वी व्यास तथा सत्यवतीके जन्मकी कथा विस्तारपूर्वक कही तथापि हमलोगोंके चित्तमें एक बड़ी भारी शंका बनी हुई है । हे धर्मज्ञ ! हे अनघ ! वह शंका आपके कहनेपर भी दूर नहीं हो रही है ॥ १-२ ॥

माता व्यासस्य या प्रोक्ता नाम्ना सत्यवती शुभा ।
सा कथं नृपतिं प्राप्ता शन्तनुं धर्मवित्तमम् ॥ ३ ॥
निषादपुत्रीं स कथं धृतवान्नृपतिः स्वयम् ।
धर्मिष्ठः पौरवो राजा कुलहीनामसंवृताम् ॥ ४ ॥
व्यासजीकी कल्याणमयी माता जो सत्यवती नामसे जानी जाती थीं, वे धर्मात्मा राजा शन्तनुको कैसे प्राप्त हुईं ? कुल तथा आचरणसे हीन उस निषादकन्याका पुरुकुलमें उत्पन्न उन धर्मात्मा राजाने स्वयं कैसे वरण कर लिया ? ॥ ३-४ ॥

शन्तनोः प्रथमा पत्‍नी का ह्यभूत्कथयाधुना ।
भीष्मः पुत्रोऽथ मेधावी वसोरंशः कथं पुनः ॥ ५ ॥
आप कृपा करके हमलोगोंको यह भी बतलाइये कि राजा शन्तनुकी पहली पत्नी कौन थी ? वसुके अंशसे उत्पन्न मेधावी भीष्म उनके पुत्र कैसे हुए ? ॥ ५ ॥

त्वया प्रोक्तं पुरा सूत राजा चित्राङ्गदः कृतः ।
सत्यवत्याः सुतो वीरो भीष्मेणामिततेजसा ॥ ६ ॥
चित्राङ्गदे हते वीरे कृतस्तदनुजस्तथा ।
विचित्रवीर्यनामासौ सत्यवत्याः सुतो नृपः ॥ ७ ॥
हे सूतजी ! आप यह पहले ही कह चुके हैं कि सत्यवतीके वीर पुत्र चित्रांगदको अमित तेजवाले भीष्मने राजा बनाया था और वीर चित्रांगदके मारे जानेपर उसके अनुज तथा सत्यवतीके पुत्र विचित्रवीर्यको उन्होंने राजा बनाया ॥ ६-७ ॥

ज्येष्ठे भीष्मे स्थिते पूर्वं धर्मिष्ठे रूपवत्यपि ।
कृतवान्स कथं राज्यं स्थापितस्तेन जानता ॥ ८ ॥
रूपसम्पन्न तथा ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा भीष्मके रहते हुए विचित्रवीर्यने राज्य कैसे किया और सब कुछ जानते हुए भी भीष्मने उन्हें राज्यपर कैसे स्थापित किया ? ॥ ८ ॥

मृते विचित्रवीर्ये तु सत्यवत्यतिदुःखिता ।
वधूभ्यां गोलकौ पुत्रौ जनयामास सा कथम् ॥ ९ ॥
विचित्रवीर्यके मरनेपर अत्यन्त दुःखित माता सत्यवतीने अपनी दोनों पुत्रवधुओंसे दो गोलक पुत्र कैसे उत्पन्न कराये ? ॥ ९ ॥

कथं राज्यं न भीष्माय ददौ सा वरवर्णिनी ।
न कृतस्तु कथं तेन वीरेण दारसंग्रहः ॥ १० ॥
उन सुन्दरी सत्यवतीने उस समय ज्येष्ठ पुत्र भीष्मको राजा क्यों नहीं बनाया और उन पराक्रमी भीष्मने अपना विवाह क्यों नहीं किया ? ॥ १० ॥

अधर्मस्तु कृतः कस्माद्व्यासेनामिततेजसा ।
ज्येष्ठेन भ्रातृभार्यायां पुत्रावुत्पादिताविति ॥ ११ ॥
अमित तेजस्वी बड़े भाई व्यासजीने ऐसा अधर्म क्यों किया जो कि उन्होंने नियोगद्वारा दो पुत्र उत्पन्न किये ? ॥ ११ ॥

पुराणकर्ता धर्मात्मा स कथं कृतवान्मुनिः ।
सेवनं परदाराणां भ्रातुश्चैव विशेषतः ॥ १२ ॥
जुगुप्सितमिदं कर्म स कथं कृतवान्मुनिः ।
शिष्टाचारः कथं सूत वेदानुमितिकारकः ॥ १३ ॥
पुराणोंके रचयिता व्यासमुनिने धर्मज्ञ होते हए भी ऐसा कार्य क्यों किया; हे सूतजी ! क्या यही वेदोंसे अनुमोदित शिष्टाचार है ? ॥ १२-१३ ॥

व्यासशिष्योऽसि मेधाविन् सन्देहं छेत्तुमर्हसि ।
श्रोतुकामा वयं सर्वे धर्मक्षेत्रे कृतक्षणाः ॥ १४ ॥
हे मेधाविन् ! आप व्यासजीके शिष्य हैं, इसलिये आप हमारी इन सभी शंकाओंका समाधान करने में समर्थ हैं । हम सभी इस धर्मक्षेत्रमें इन प्रश्नोंके उत्तर सुननेको उत्सुक हो रहे हैं ॥ १४ ॥

सूत उवाच
इक्ष्वाकुवंशप्रभवो महाभिष इति स्मृतः ।
सत्यवान्धर्मशीलश्च चक्रवर्ती नृपोत्तमः ॥ १५ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनियो !] इक्ष्वाकुकुलमें महाभिष नामके एक सत्यवादी, धर्मात्मा और चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुए-ऐसा कहा जाता है ॥ १५ ॥

अश्वमेधसहस्रेण वाजपेयशतेन च ।
तोषयामास देवेन्द्रं स्वर्गं प्राप महामतिः ॥ १६ ॥
उन बुद्धिमान् राजाने हजारों अश्वमेध तथा सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करके इन्द्रको सन्तुष्ट किया और स्वर्ग प्राप्त किया था ॥ १६ ॥

एकदा ब्रह्मसदनं गतो राजा महाभिषः ।
सुराः सर्वे समाजग्मुः सेवनार्थं प्रजापतिम् ॥ १७ ॥
गङ्गा महानदी तत्र संस्थिता सेवितुं विभुम् ।
तस्या वासः समुद्‌धूतं मारुतेन तरस्विना ॥ १८ ॥
अधोमुखाः सुराः सर्वे न विलोक्यैव तां स्थिताः ।
राजा महाभिषस्तां तु निःशङ्कः समपश्यत ॥ १९ ॥
एक बार राजा महाभिष ब्रह्मलोक गये । वहाँ प्रजापतिकी सेवाके लिये सभी देवता आये हुए थे । उस समय देवनदी गंगाजी भी ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थीं । उस समय तीव्रगामी पवनने उनका वस्त्र उड़ा दिया । सभी देवता अपना सिर नीचा किये उन्हें बिना देखे खड़े रहे, किंतु राजा महाभिष नि:शंक भावसे उनकी ओर देखते रह गये ॥ १७-१९ ॥

सापि तं प्रेमसंयुक्तं नृपं ज्ञातवती नदी ।
दृष्ट्वा तौ प्रेमसंयुक्तौ निर्लज्जौ काममोहितौ ॥ २० ॥
ब्रह्मा चुकोप तौ तूर्णं शशाप च रुषान्वितः ।
मर्त्यलोकेषु भूपाल जन्म प्राप्य पुनर्दिवम् ॥ २१ ॥
पुण्येन महताविष्टस्त्वमवाप्स्यसि सर्वथा ।
गङ्गां तथोक्तवान्ब्रह्मा वीक्ष्य प्रेमवतीं नृपे ॥ २२ ॥
उन गंगानदीने भी राजाको अपनेपर प्रेमासक्त जाना । उन दोनोंको इस प्रकार मुग्ध देखकर ब्रह्माजी क्रोधित हो गये और कोपाविष्ट होकर शीघ्र ही उन दोनोंको शाप दे दिया-हे राजन् ! मनुष्यलोकमें तुम्हारा जन्म होगा । वहाँ जब तुम अधिक पुण्य एकत्र कर लोगे, तब पुन: स्वर्गलोकमें आओगे । गंगाको महाभिषराजापर प्रेमासक्त जानकर ब्रह्माजीने उन्हें [गंगाको] भी उसी प्रकार शाप दे दिया ॥ २०-२२ ॥

विमनस्कौ तु तौ तूर्णं निःसृतौ ब्रह्मणोऽन्तिकात् ।
स नृपांश्चिन्तयित्वाथ भूर्लोके धर्मतत्परान् ॥ २३ ॥
प्रतीपं चिन्तयामास पितरं पुरुवंशजम् ।
एतस्मिन्समये चाष्टौ वसवः स्त्रीसमन्विताः ॥ २४ ॥
वसिष्ठस्याश्रमं प्राप्ता रममाणा यदृच्छया ।
पृथ्वादीनां वसूनां च मध्ये कोऽपि वसूत्तमः ॥ २५ ॥
द्यौर्नामा तस्य भार्याथ नन्दिनीं गां ददर्श ह ।
दृष्ट्वा पतिं सा पप्रच्छ कस्येयं धेनुरुत्तमा ॥ २६ ॥
इस प्रकार वे दोनों दुःखी मनसे ब्रह्माजीके पाससे शीघ्र ही चले गये । राजा अपने मन में सोचने लगे कि इस मृत्युलोकमें कौन ऐसे राजा हैं, जो धर्मपरायण हैं । ऐसा विचारकर उन्होंने पुरुवंशीय महाराज 'प्रतीप' को ही पिता बनानेका निश्चय कर लिया । इसी बीच आठों वसु अपनी-अपनी स्त्रीके साथ विहार करते हुए स्वेच्छया महर्षि वसिष्ठके आश्रमपर आ पहुँचे । उन पृथु आदि वसुओंमें 'द्यौ' नामक एक श्रेष्ठ वसु थे । उनकी पत्नीने 'नन्दिनी' गौको देखकर अपने पतिसे पूछा कि यह सुन्दर गाय किसकी है ? ॥ २३-२६ ॥

द्यौस्तामाह वसिष्ठस्य गौरियं शृणु सुन्दरि ।
दुग्धमस्याः पिबेद्यस्तु नारी वा पुरुषोऽथ वा ॥ २७ ॥
अयुतायुर्भवेन्नूनं सदैवागतयौवनः ।
तच्छ्रुत्वा सुन्दरी प्राह मृत्युलोकेऽस्ति मे सखी ॥ २८ ॥
उशीनरस्य राजर्षेः पुत्री परमशोभना ।
तस्या हेतोर्महाभाग सवत्सां गां पयस्विनीम् ॥ २९ ॥
आनयस्वाश्रमं श्रेष्ठं नन्दिनीं कामदां शुभाम् ।
यावदस्याः पयः पीत्वा सखी मम सदैव हि ॥ ३० ॥
मानुषेषु भवेदेका जरारोगविवर्जिता ।
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या द्यौर्जहार च नन्दिनीम् ॥ ३१ ॥
अवमन्य मुनिं दान्तं पृथ्वाद्यैः सहितोऽनघः ।
यौने उससे कहा-हे सुन्दरि ! सुनो, यह महर्षि वसिष्ठजीकी गाय है । इस गायका दूध स्त्री या पुरुष जो कोई भी पीता है, उसकी आयु दस हजार वर्षकी हो जाती है और उसका यौवन सर्वदा बना रहता है । यह सुनकर उस सुन्दरी स्त्रीने कहा-मृत्युलोकमें मेरी एक सखी है । मेरी वह सखी राजर्षि उशीनरकी परम सुन्दरी कन्या है । हे महाभाग ! उसके लिये अत्यन्त सुन्दर तथा सब प्रकारकी कामनाओंको देनेवाली इस गायको बछड़े-सहित अपने आश्रममें ले चलिये । जब मेरी सखी इसका दूध पीयेगी तब वह निर्जरा एवं रोगरहित होकर मनुष्यों में एकमात्र अद्वितीय बन जायगी । उसका वचन सुनकर द्यौ नामके वसुने 'पृथु' आदि अष्टवसुओंके साथ जितेन्द्रिय मुनिका अपमान करके नन्दिनीका अपहरण कर लिया ॥ २७-३१.५ ॥

हृतायामथ नन्दिन्यां वसिष्ठस्तु महातपाः ॥ ३२ ॥
आजगामाश्रमपदं फलान्यादाय सत्वरः ।
नापश्यत यदा धेनुं सवत्सां स्वाश्रमे मुनिः ॥ ३३ ॥
मृगयामास तेजस्वी गह्वरेषु वनेष्वपि ।
नासादिता यदा धेनुश्चुकोपातिशयं मुनिः ॥ ३४ ॥
वारुणिश्चापि विज्ञाय ध्यानेन वसुभिर्हृताम् ।
वसुभिर्मे हृता धेनुर्यस्मान्मामवमन्य वै ॥ ३५ ॥
तस्मात्सर्वे जनिष्यन्ति मानुषेषु न संशयः ।
एवं शशाप धर्मात्मा वसूंस्तान्वारुणिः स्वयम् ॥ ३६ ॥
नन्दिनीका हरण हो जानेपर महातपस्वी वसिष्ठ फल लेकर शीघ्र ही अपने आश्रम आ गये । जब मुनिने अपने आश्रममें बछड़ेसहित नन्दिनीगायको नहीं देखा तब वे तेजस्वी वनों एवं गुफाओंमें उसे ढूँढ़ने लगे, जब वह गाय नहीं मिली तब वरुणपुत्र मुनि वसिष्ठजी ध्यानयोगसे उसे वसुओंके द्वारा हरी गयी जानकर अत्यन्त कुपित हुए । वसुओंने मेरी अवमानना करके मेरी गौ चुरा ली है । वे सभी मानवयोनिमें जन्म ग्रहण करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है । इस प्रकार धर्मात्मा वसिष्ठजीने उन वसुओंको शाप दिया ॥ ३२-३६ ॥

श्रुत्वा विमनसः सर्वे प्रययुर्दुःखिताश्च ते ।
शप्ताः स्म इति जानन्त ऋषिं तमुपचक्रमुः ॥ ३७ ॥
प्रसादयन्तस्तमृषिं वसवः शरणं गताः ।
मुनिस्तानाह धर्मात्मा वसून्दीनान्पुरःस्थितान् ॥ ३८ ॥
अनुसंवत्सरं सर्वे शापमोक्षमवाप्स्यथ ।
येनेयं विहृता धेनुर्नन्दिनी मम वत्सला ॥ ३९ ॥
तस्माद्‌द्यौर्मानुषे देहे दीर्घकालं वसिष्यति ।
यह सुनकर वे सभी वसु खिन्नमनस्क और दुःखित हो गये और वहाँसे चल दिये । हमें शाप दे दिया गया है-यह जानकर वे ऋषि वसिष्ठके पास पहुंचे और उन्हें प्रसन्न करते हुए वे सभी वसु उनके शरणागत हो गये । तब धर्मात्मा मुनि वसिष्ठजीने उन सामने खड़े वसुओंको देखकर कहा-तुमलोगोंमेंसे [सात वसु] एक-एक वर्षके अन्तरालसे ही शापसे मुक्त हो जायेंगे; परंतु जिसने मेरी प्रिय सवत्सा नन्दिनीका अपहरण किया है, वह 'द्यौ' नामक वसु मनुष्य-शरीरमें ही बहुत दिनोंतक रहेगा ॥ ३७-३९.५ ॥

ते शप्ताः पथि गच्छन्तीं गङ्गां दृष्ट्वा सरिद्वराम् ॥ ४० ॥
ऊचुस्तां प्रणताः सर्वे शप्तां चिन्तातुरां नदीम् ।
भविष्यामो वयं देवि कथं देवाः सुधाशनाः ॥ ४१ ॥
मानुषाणां च जठरे चिन्तेय महती हि नः ।
तस्मात्त्वं मानुषी भूत्वा जनयास्मान्सरिद्वरे ॥ ४२ ॥
शन्तनुर्नाम राजर्षिस्तस्य भार्या भवानघे ।
जाताञ्जाताञ्जले चास्मान्निक्षिपस्व सुरापगे ॥ ४३ ॥
एवं शापविनिर्मोक्षो भविता नात्र संशयः ।
तथेत्युक्ताश्च ते सर्वे जग्मुर्लोकं स्वकं पुनः ॥ ४४ ॥
उन अभिशप्त वसुओंने मार्गमें जाती हुई नदियोंमें उत्तम गंगाजीको देखकर उन अभिशप्त तथा चिन्तातुर गंगाजीसे प्रणामपूर्वक कहा-हे देवि ! अमृत पीनेवाले हम देवता मानवकुक्षिसे कैसे उत्पन्न होंगे, यह हमें महान् चिन्ता है, अतः हे नदियोंमें श्रेष्ठ ! आप ही मानुषी बनकर हमलोगोंको जन्म दें । पृथ्वीपर शन्तनु नामक एक राजर्षि हैं, हे अनघे ! आप उन्हींकी भार्या बन जायें और हे सुरापगे ! हमें क्रमशः जन्म लेनेपर आप जलमें छोड़ती जायें । आपके ऐसा करनेसे हमलोग भी शापसे मुक्त हो जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है । गंगाजीने जब उनसे 'तथास्तु' कह दिया तब वे सब वसु अपने-अपने लोकको चले गये और गंगाजी भी बार-बार विचार करती हुई वहाँसे चली गयीं ॥ ४०-४४ ॥

गङ्गापि निर्गता देवी चिन्त्यमाना पुनः पुनः ।
महाभिषो नृपो जातः प्रतीपस्य सुतस्तदा ॥ ४५ ॥
शन्तनुर्नाम राजर्षिर्धर्मात्मा सत्यसङ्गरः ।
प्रतीपस्तु स्तुतिं चक्रे सूर्यस्यामिततेजसः ॥ ४६ ॥
तदा च सलिलात्तस्मान्निःसृता वरवर्णिनी ।
दक्षिणं शालसंकाशमूरुं भेजे शूभानना ॥ ४७ ॥
अङ्के स्थितां स्त्रियं चाह मा पृष्ट्वा किं वरानने ।
ममोरावास्थितासि त्वं किमर्थं दक्षिणे शुभे ॥ ४८ ॥
उस समय राजा महाभिषने राजा प्रतीपके पुत्रके रूपमें जन्म लिया । उन्हींका नाम शन्तनु पड़ा, जो सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मात्मा राजर्षि हुए । महाराज प्रतीपने परम तेजस्वी भगवान् सूर्यकी आराधना की । उस समय जलमेंसे एक परम सुन्दर स्त्री निकल पड़ी और वह सुमुखी आकर तुरंत ही महाराजके शाल वृक्षके समान विशाल दाहिने जंघेपर विराजमान हो गयी । अंकमें बैठी हुई उस स्त्रीसे राजाने पूछा-'हे वरानने ! तुम मुझसे बिना पूछे ही मेरे शुभ दाहिने जंघेपर क्यों बैठ गयी ?' ॥ ४५-४८ ॥

सा तमाह वरारोहा यदर्थं राजसत्तम ।
स्थितात्म्यङ्के कुरुश्रेष्ठ कामयानां भजस्व माम् ॥ ४९ ॥
उस सुन्दरीने उनसे कहा-'हे नृपश्रेष्ठ ! हे कुरुश्रेष्ठ ! मैं जिस कामनासे आपके अंकमें बैठी हूँ, उस कामनावाली मुझे आप स्वीकार करें' ॥ ४९ ॥

तामवोचदथो राजा रूपयौवनशालिनीम् ।
नाहं परस्त्रियं कामाद्‌गच्छेयं वरवर्णिनीम् ॥ ५० ॥
उस रूपयौवनसम्पन्ना सुन्दरीसे राजाने कहा'मैं किसी सुन्दरी परस्त्रीको कामकी इच्छासे नहीं स्वीकार करता ॥ ५० ॥

स्थिता दक्षिणमूरुं मे त्वमाश्लिष्य च भामिनि ।
अपत्यानां स्नुषाणां च स्थानं विद्धि शुचिस्मिते ॥ ५१ ॥
स्नुषा मे भव कल्याणि जाते पुत्रेऽतिवाञ्छिते ।
भविष्यति च मे पुत्रस्तव पुण्यान्न संशयः ॥ ५२ ॥
हे भामिनि ! हे शुचिस्मिते ! तुम मेरे दाहिने जंघेपर प्रेमपूर्वक आकर बैठ गयी हो, उसे तुम पुत्रों तथा पुत्रवधुओंका स्थान समझो । अतः हे कल्याणि ! मेरे मनोवांछित पुत्रके उत्पन्न होनेपर तुम मेरी पुत्रवधू हो जाओ । तुम्हारे पुण्यसे मुझे पुत्र हो जायगा, इसमें संशय नहीं है । ५१-५२ ॥

तथेत्युक्त्वा गता सा वै कामिनी दिव्यदर्शना ।
राजा चापि गृहं प्राप्तश्चिन्तयंस्तां स्त्रियं पुनः ॥ ५३ ॥
वह दिव्य दर्शनवाली कामिनी 'तथास्तु' कहकर चली गयी और उस स्त्रीके विषयमें सोचते हुए राजा प्रतीप भी अपने घर चले गये ॥ ५३ ॥

ततः कालेन कियता जाते पुत्रे वयस्विनि ।
वनं जिगमिषू राजा पुत्रं वृत्तान्तमूचिवान् ॥ ५४ ॥
समय बीतनेपर पुत्रके युवा होनेपर वन जानेकी इच्छावाले राजाने अपने पुत्रको वह समस्त पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया ॥ ५४ ॥

वृत्तान्तं कथयित्वा तु पुनरूचे निजं सुतम् ।
यदि प्रयाति सा बाला त्वां वने चारुहासिनी ॥ ५५ ॥
कामयाना वरारोहा तां भजेथा मनोरमाम् ।
न प्रष्टव्या त्वया कासि मन्नियोगान्नराधिप ॥ ५६ ॥
धर्मपत्‍नीं च तां कृत्वा भविता त्वं सुखी किल ।
सारी बात बताकर राजाने अपने पुत्रसे कहा'यदि वह सुन्दरी बाला तुम्हें कभी वनमें मिले और अपनी अभिलाषा प्रकट करे तो उस मनोरमाको स्वीकार कर लेना तथा उससे मत पूछना कि तुम कौन हो ? यह मेरी आज्ञा है, उसे अपनी धर्मपत्नी बनाकर तुम सुखी रहोगे' ॥ ५५-५६.५ ॥

सूत उवाच
एवं सन्दिश्य तं पुत्रं भूपतिः प्रीतमानसः ॥ ५७ ॥
दत्त्वा राज्यश्रियं सर्वां वनं राजा विवेश ह ।
तत्रापि च तपस्तप्त्वा समाराध्य पराम्बिकाम् ॥ ५८ ॥
जगाम स्वर्गं राजासौ देहं त्यक्त्वा स्वतेजसा ।
राज्यं प्राप महातेजाः शन्तनुः सार्वभौमिकम् ॥ ५९ ॥
प्रजां वै पालयामास धर्मदण्डो महीपतिः ॥ ६० ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार अपने पुत्रको आदेश देकर महाराज प्रतीप प्रसन्नताके साथ उन्हें सारा राज्य-वैभव सौंपकर वनको चले गये । वहाँ जाकर वे तप करके तथा आदिशक्ति भगवती जगदम्बिकाकी आराधना करके अपने तेजसे शरीर छोड़कर स्वर्ग चले गये । महातेजस्वी राजा शन्तन्ने सार्वभौम राज्य प्राप्त किया और वे धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे ॥ ५७-६० ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे
प्रतीपसकाशाच्छन्तनुजन्मवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
अध्याय तिसरा समाप्त


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