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देवव्रतोत्पतिवर्णनम् -
गंगाजीद्वारा राजा शन्तनुका पतिरूपमें वरण, सात पुत्रोंका जन्म तथा गंगाका उन्हें अपने जलमें प्रवाहित करना, आठवें पुत्रके रूपमें भीष्मका जन्म तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा -
उसे देखकर राजा शन्तनु हर्षित हो गये और सोचने लगे कि साक्षात् दूसरी लक्ष्मीके समान रूपयौवनसे सम्पन्न यह स्त्री वही है, जिसके विषयमें पिताजीने मुझे बताया था ॥ ३ ॥
पिबन्मुखाम्बुजं तस्या न तृप्तिमगमन्नृपः । हृष्टरोमाभवत्तत्र व्याप्तचित्त इवानघ ॥ ४ ॥
उसके मुखकमलका पान करते हुए राजा तृप्त नहीं हुए । हर्षातिरेकसे उन निष्पाप राजाको रोमांच हो गया और उनका चित्त उस स्त्रीमें रम गया ॥ ४ ॥
महाभिषं सापि मत्वा प्रेमयुक्ता बभूव ह । किञ्चिन्मन्दस्मितं कृत्वा तस्थावग्रे नृपस्य च ॥ ५ ॥ वीक्ष्य तामसितापाङ्गीं राजा प्रीतमना भृशम् । उवाच मधुरं वाक्यं सान्त्वयन् श्लक्ष्णया गिरा ॥ ६ ॥
वह स्त्री भी उन्हें राजा महाभिष जानकर प्रेमासक्त हो गयी । वह मन्द-मन्द मुसकराती हुई राजाके सामने खड़ी हो गयी । उस सुन्दरीको देखकर राजा अत्यन्त प्रेमविवश हो गये तथा कोमल वाणीसे उसे सान्त्वना देते हुए मधुर वचन कहने लगे ॥ ५-६ ॥
देवी वा त्वं च वामोरु मानुषी वा वरानने । गन्धर्वी वाथ यक्षी वा नागकन्याप्सरापि वा ॥ ७ ॥ यासि कासि वरारोहे भार्या मे भव सुन्दरि । प्रेमयुक्तस्मितैव त्वं धर्मपत्नी भवाद्य मे ॥ ८ ॥
हे वामोरु ! हे सुमुखि ! तुम कोई देवी, मानुषी, गन्धर्वी, यक्षी, नागकन्या अथवा अप्सरा तो नहीं हो । हे वरारोहे ! तुम जो कोई भी हो, मेरी भार्या बन जाओ । हे सुन्दरि ! तुम प्रेमपूर्वक मुसकरा रही हो; अब मेरी धर्मपत्नी बन जाओ ॥ ७-८ ॥
सूत उवाच राजा तां नाभिजानाति गङ्गेयमिति निश्चितम् । महाभिषं समुत्पन्नं नृपं जानाति जाह्नवी ॥ ९ ॥ पूर्वप्रेमसमायोगाच्छ्रुत्वा वाचं नृपस्य ताम् । उवाच नारी राजानं स्मितपूर्वमिदं वचः ॥ १० ॥
सूतजी बोले-राजा शन्तनु तो निश्चितरूपसे नहीं जान सके कि ये वे ही गंगा हैं, किंतु गंगाने उन्हें पहचान लिया कि ये शन्तनुके रूपमें उत्पन्न वही राजा महाभिष हैं । पूर्वकालीन प्रेमवश राजा शन्तनुके उस वचनको सुनकर उस स्त्रीने मन्द मुसकान करके यह वचन कहा ॥ ९-१० ॥
स्त्र्युवाच जानामि त्वां नृपश्रेष्ठ प्रतीपतनयं शुभम् । का न वाञ्छति चार्वङ्गी भावित्वात्सदृशं पतिम् ॥ ११ ॥
स्त्री बोली-हे नृपश्रेष्ठ ! मैं यह जानती हूँ कि आप महाराज प्रतीपके योग्य पुत्र हैं । अतः भला कौन ऐसी स्त्री होगी, जो संयोगवश अपने अनुरूप पुरुषको पाकर भी उसे पतिरूपमें स्वीकार न करेगी ॥ ११ ॥
वाग्बन्धेन नृपश्रेष्ठ वरिष्यामि पतिं किल । शृणु मे समयं राजन् वृणोमि त्वां नृपोत्तम ॥ १२ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! वचनबद्ध करके ही मैं आपको अपना पति स्वीकार करूँगी । हे राजन् ! हे नृपोत्तम ! अब आप मेरी शर्त सुनिये, जिससे मैं आपका वरण कर सकूँ ॥ १२ ॥
यच्च कुर्यामहं कार्यं शुभं वा यदि वाशुभम् । न निषेध्या त्वया राजन्न वक्तव्यं तथाप्रियम् ॥ १३ ॥ यदा च त्वं नृपश्रेष्ठ न करिष्यसि मे वचः । तदा मुक्त्या गमिष्यामि यथेष्टदेशं मारिष ॥ १४ ॥
हे राजन् ! मैं भला-बुरा जो भी कार्य करूँ, आप मुझे मना नहीं करेंगे तथा न कोई अप्रिय बात ही कहेंगे । जिस समय आप मेरा यह वचन नहीं मानेंगे, उसी समय हे मान्य नृपश्रेष्ठ ! मैं आपको त्यागकर जहाँ चाहूँगी, उस जगह चली जाऊँगी ॥ १३-१४ ॥
स्मृत्वा जन्म वसूनां सा प्रार्थनापूर्वकं हृदि । महाभिषस्य प्रेमाथ विचिन्त्यैव च जाह्नवी ॥ १५ ॥ तथेत्युक्ताथ सा देवी चकार नृपतिं पतिम् । एवं वृता नृपेणाथ गङ्गा मानुषरूपिणी ॥ १६ ॥ नृपस्य मन्दिरं प्राप्ता सुभगा वरवर्णिनी । नृपतिस्तां समासाद्य चिक्रीडोपवने शुभे ॥ १७ ॥
उस समय प्रार्थनापूर्वक वसुओंके जन्म ग्रहण करनेका स्मरण करके तथा महाभिषके पूर्वकालीन प्रेमको अपने मनमें सोच करके गंगाजीने राजा शन्तनुके 'तथास्तु' कहनेपर उन्हें अपना पति बनाना स्वीकार कर लिया । इस प्रकार मानवीरूप धारण करनेवाली रूपवती तथा सुन्दर वर्णवाली गंगा महाराज शन्तनुकी पत्नी बनकर राजभवनमें पहुँच गयीं । राजा शन्तनु उन्हें पाकर सुन्दर उपवनमें विहार करने लगे ॥ १५-१७ ॥
सापि तं रमयामास भावज्ञा वै वराङ्गना । न बुबोध नृपः क्रीडन्गतान्वर्षगणानथ ॥ १८ ॥ स तया मृगशावाक्ष्या शच्या शतक्रतुर्यथा । सा सर्वगुणसम्पन्ना सोऽपि कामविचक्षणः ॥ १९ ॥
भावोंको जाननेवाली वे सुन्दरी गंगा भी राजा शन्तनुके साथ विहार करने लगीं । उनके साथ महाराज शन्तनुको क्रीडा करते अनेक वर्ष बीत गये, पर उन्हें समय बीतनेका बोध ही न हुआ । वे उन मृगलोचनाके साथ उसी प्रकार विहार करते थे जिस प्रकार इन्द्राणीके साथ इन्द्र । सर्वगुणसम्पन्ना गंगा तथा चतुर शन्तनु भी दिव्य भवनमें लक्ष्मी तथा नारायणकी भाँति विहार करने लगे ॥ १८-१९ ॥
रेमाते मन्दिरे दिव्ये रमानारायणाविव । एवं गच्छति काले सा दधार नृपतेस्तदा ॥ २० ॥ गर्भं गङ्गा वसुं पुत्रं सुषुवे चारुलोचना । जातमात्रं सुतं वारि चिक्षेपैवं द्वितीयके ॥ २१ ॥ तृतीयेऽथ चतुर्थेऽथ पञ्चमे षष्ठ एव च । सप्तमे वा हते पुत्रे राजा चिन्तापरोऽभवत् ॥ २२ ॥
इस प्रकार कुछ समय बीतनेपर गंगाजीने महाराज शन्तनुसे गर्भ धारण किया और यथासमय उन सुनयनीने एक वसुको पुत्ररूपमें जन्म दिया । उन्होंने उस बालकको उत्पन्न होते ही तत्काल जलमें फेंक दिया । इस प्रकार दुसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे तथा सातवें पुत्रके मारे जानेपर राजा शन्तनुको बड़ी चिन्ता हुई । २०-२२ ॥
किं करोम्यद्य वंशो मे कथं स्यात्सुस्थिरो भुवि । सप्त पुत्रा हता नूनमनया पापरूपया ॥ २३ ॥ निवारयामि यदि मां त्यक्त्वा यास्यति सर्वथा । अष्टमोऽयं सुसम्प्राप्तो गर्भो मे मनसीप्सितः ॥ २४ ॥ न वारयामि चेदद्य सर्वथेयं जले क्षिपेत् । भविता वा न वा चाग्रे संशयोऽयं ममाद्भुतः ॥ २५ ॥ सम्भवेऽपि च दृष्टेयं रक्षयेद्वा न रक्षयेत् । एवं संशयिते कार्ये किं कर्तव्यं मयाधुना ॥ २६ ॥
[उन्होंने सोचा-] अब मैं क्या करूँ ? मेरा वंश इस पृथ्वीपर सुस्थिर कैसे होगा ? इस पापिनीने मेरे सात पुत्र मार डाले । यदि इसे रोकता हूँ तो यह मुझे त्यागकर चली जायगी । मेरा अभिलषित आठवाँ गर्भ भी इसे प्राप्त हो गया है । यदि अब भी मैं इसे रोकता नहीं हूँ तो यह इसे भी जलमें फेंक देगी । यह भी मुझे महान् सन्देह है कि भविष्यमें कोई और सन्तति होगी अथवा नहीं । यदि उत्पन्न हो भी तो पता नहीं कि यह दुष्टा उसकी रक्षा करेगी अथवा नहीं ? इस संशयकी स्थितिमें मैं अब क्या करूँ ? ॥ २३-२६ ॥
वंशस्य रक्षणार्थं हि यत्नः कार्यः परो मया । ततः काले यदा जातः पुत्रोऽयमष्टमो वसुः ॥ २७ ॥ मुनेर्येन हृता धेनुर्नन्दिनी स्त्रीजितेन हि । तं दृष्ट्वा नृपतिः पुत्रं तामुवाच पतन्पदे ॥ २८ ॥
वंशकी रक्षाके लिये मुझे कोई दूसरा यत्न करना ही होगा । तदनन्तर यथासमय जब वह आठवाँ 'द्यौ' नामक वसु पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ, जिसने अपनी स्त्रीके वशीभूत होकर वसिष्ठकी नन्दिनी गौका हरण कर लिया था, तब उस पुत्रको देखकर राजा शन्तनु गंगाजीके पैरोंपर गिरते हुए कहने लगे ॥ २७-२८ ॥
दासोऽस्मि तव तन्वङ्गि प्रार्थयामि शुचिस्मिते । पुत्रमेकं पुषाम्येनं देहि जीवितमद्य मे ॥ २९ ॥
हे तन्वंगि ! मैं तुम्हारा दास हूँ । हे शुचिस्मिते ! मैं प्रार्थना करता हूँ । मैं इस पुत्रको पालना चाहता हूँ, अतः इसे जीवित ही मुझे दे दो ॥ २९ ॥
हिंसिताः सप्त पुत्रा मे करभोरु त्वया शुभाः । अष्टमं रक्ष सुश्रोणि पतामि तव पादयोः ॥ ३० ॥
हे करभोरु ! तुमने मेरे सात सुन्दर पुत्रोंको मार डाला, किंतु इस आठवें पुत्रकी रक्षा करो । हे सुश्रोणि ! मैं तुम्हारे पैरोंपर पड़ता हूँ ॥ ३० ॥
अन्यद्वै प्रार्थितं तेऽद्य ददाम्यथ च दुर्लभम् । वंशो मे रक्षणीयोऽद्य त्वया परमशोभने ॥ ३१ ॥
हे परम रूपवती ! इसके बदले तुम मुझसे जो माँगोगी, मैं वह दुर्लभ वस्तु भी तुम्हें दूंगा । अब तुम मेरे वंशकी रक्षा करो ॥ ३१ ॥
राजा शन्तनुके ऐसा कहनेपर भी जब गंगा उस पुत्रको लेकर जानेको उद्यत हुई, तब उन्होंने अत्यन्त कुपित एवं दुःखित होकर उनसे कहा'हे पापिनि ! अब मैं क्या करूँ ? क्या तुम नरकसे भी नहीं डरती ? तुम कौन हो ? लगता है कि तुम पापियोंकी पुत्री हो, तभी तो तुम सदा पापकर्ममें लगी रहती हो, अब तुम जहाँ चाहो वहाँ जाओ या रहो, किंतु यह पुत्र यहीं रहेगा । हे पापिनि ! अपने वंशका अन्त करनेवाली ऐसी तुम्हें रखकर भी मैं क्या करूँगा ?' ॥ ३३-३५ ॥
राजाके ऐसा कहनेपर उस नवजात शिशुको लेकर जाती हुई गंगाने क्रोधपूर्वक उनसे कहापुत्रकी कामनावाली मैं भी इस पुत्रको वनमें ले जाकर पालूँगी । शर्तके अनुसार अब मैं चली जाऊँगी; क्योंकि आपने अपना वचन तोड़ा है । [हे राजन् !] मुझे आप गंगा जानिये; देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेके लिये ही मैं यहाँ आयी थी । महात्मा वसिष्ठने प्राचीन कालमें आठों वसुओंको शाप दिया था कि तुम सब मनुष्ययोनिमें जाकर जन्म लो । तब चिन्तासे व्याकुल होकर आठों वसु मुझे वहाँ स्थित देखकर कहने लगे-हे अनघे ! आप हमारी माता बनें । अतः हे नृपश्रेष्ठ । उन्हें वरदान देकर मैं आपकी पत्नी बन गयी । आप ऐसा समझ लीजिये कि देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये ही मेरा जन्म हुआ है ॥ ३६-४० ॥
वे सातों वसु तो आपके पुत्र बनकर ऋषिके शापसे विमुक्त हो गये । यह आठवाँ वसु कुछ समयतक आपके पुत्ररूपमें विद्यमान रहेगा । अतः हे महाराज शन्तनु ! मुझ गंगाके द्वारा दिये हुए पुत्रको आप स्वीकार कीजिये । इसे आठवाँ वसु जानते हुए आप पुत्र-सुखका भोग करें; क्योंकि हे महाभाग ! यह | 'गांगेय' बड़ा ही बलवान् होगा । अब इसे मैं वहीं ले जा रही हूँ, जहाँ मैंने आपका पतिरूपसे वरण | किया था ॥ ४१-४३ ॥
दास्यामि यौवनप्राप्तं पालयित्वा महीपते । न मातृरहितः पुत्रो जीवेन्न च सुखी भवेत् ॥ ४४ ॥
हे राजन् ! इसे पालकर इसके युवा होनेपर मैं पुन: आपको दे दूँगी; क्योंकि मातृहीन बालक न जी पाता है और न सुखी रहता है ॥ ४४ ॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे गङ्गा तं गृहीत्वा च बालकम् । राजा चातीव दुःखार्तः संस्थितो निजमन्दिरे ॥ ४५ ॥
ऐसा कहकर उस बालकको लेकर गंगा वहीं अन्तर्धान हो गयीं । राजा भी अत्यन्त दुःखित होकर अपने राजभवन में रहने लगे ॥ ४५ ॥
महाराज शन्तनु स्त्री तथा पुत्रके वियोगजन्य महान् कष्टका सदा अनुभव करते हुए भी किसी प्रकार राज्यकार्य सँभालने लगे ॥ ४६ ॥
एवं गच्छति कालेऽथ नृपतिर्मृगयां गतः । निघ्नन्मृगगणान्बाणैर्महिषान्सूकरानपि ॥ ४७ ॥ गङ्गातीरमनुप्राप्तः स राजा शन्तनुस्तदा । नदीं स्तोकजलां दृष्ट्वा विस्मितः स महीपतिः ॥ ४८ ॥
कुछ समय बीतनेपर महाराज आखेटके लिये वनमें गये । वहाँ अनेक प्रकारके मृगगणों, भैंसों तथा सूकरोंको अपने बाणोंसे मारते हुए वे गंगाजीके तटपर जा पहुँचे । उस नदीमें बहुत थोड़ा जल देखकर वे राजा शन्तनु बड़े आश्चर्यमें पड़ गये ॥ ४७-४८ ॥
तत्रापश्यत्कुमारं तं मुञ्चन्तं विशिखान्बहून् । आकृष्य च महाचापं क्रीडन्तं सरितस्तटे ॥ ४९ ॥ तं वीक्ष्य विस्मितो राजा न स्म जानाति किञ्चन । नोपलेभे स्मृतिं भूपः पुत्रोऽयं मम वा न वा ॥ ५० ॥
उन्होंने वहाँ नदीके किनारे खेलते हुए एक बालकको महान् धनुषको खींचकर बहुतसे बाणोंको छोड़ते हुए देखा । उसे देखकर राजा शन्तनु बड़े विस्मित हुए और कुछ भी नहीं जान पाये । उन्हें यह भी स्मरण न हो पाया कि यह मेरा पुत्र है या नहीं ॥ ४९-५० ॥
उस बालकके अतिमानवीय कृत्य, बाण चलानेके हस्तलाघव, असाधारण विद्या और कामदेवके समान सुन्दर रूपको देखकर अत्यन्त विस्मित राजाने उससे पूछा-'हे निर्दोष बालक ! तुम किसके पुत्र हो ?' किंतु उस वीर बालकने कोई उत्तर नहीं दिया और वह बाण चलाता हुआ अन्तर्धान हो गया । तब राजा शन्तनु चिन्तित होकर यह सोचने लगे कि कहीं यह मेरा ही पुत्र तो नहीं है ? अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? ॥ ५१-५३ ॥
जिस विद्याको जमदग्निपुत्र परशुराम जानते हैं, उसे आपका यह पुत्र जानता है । हे राजेन्द्र ! हे नराधिप ! आप इसे ग्रहण कीजिये, जाइये और सुखपूर्वक रहिये ॥ ५९ ॥
द्वैपायन व्यासजीके मुखसे निःसृत यह श्रीमद्देवी-भागवतमहापुराण बड़ा ही पवित्र, अनेकानेक कथाओंसे परिपूर्ण तथा सर्ग-प्रतिसर्ग आदि पाँच पुराण-लक्षणोंसे युक्त है ॥ ६८ ॥