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देवव्रतप्रतिज्ञावर्णनम् -
मत्स्यगन्धा (सत्यवती)-को देखकर राजा शन्तनुका मोहित होना, भीष्मद्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करनेकी प्रतिज्ञा करना और शन्तनुका सत्यवतीसे विवाह -
ऋषय ऊचुः वसूनां सम्भवः सूत कथितः शापकारणात् । गाङ्गेयस्य तथोत्पत्तिः कथिता लोमहर्षणे ॥ १ ॥ माता व्यासस्य धर्मज्ञ नाम्ना सत्यवती सती । कथं शन्तनुना प्राप्ता भार्या गन्धवती शुभा ॥ २ ॥ तन्ममाचक्ष्व विस्तारं दाशपुत्री कथं धृता । राज्ञा धर्मवरिष्ठेन संशयं छिन्धि सुव्रत ॥ ३ ॥
ऋषिगण बोले-हे लोमहर्षणतनय सूतजी ! आपने शापवश अष्टवसुओंके जन्म तथा गंगाजीकी उत्पत्तिका वर्णन किया । हे धर्मज्ञ ! व्यासजीकी सत्यवती नामकी साध्वी माता जो पवित्र गन्धवाली थीं, वे राजा शन्तनुको पत्नीरूपसे कैसे प्राप्त हुई ? यह हमें विस्तारके साथ बताइये । महान् धर्मनिष्ठ राजा शन्तनुने निषादपुत्रीके साथ विवाह क्यों किया ? हे सुव्रत ! यह बताकर आप हमारे सन्देहका निवारण कीजिये ॥ १-३ ॥
सूत उवाच शन्तनुर्नाम राजर्षिर्मृगयानिरतः सदा । वनं जगाम निघ्नन्वै मृगांश्च महिषान् रुरून् ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-राजर्षि शन्तनु सदा आखेट करनेमें तत्पर रहते थे । वे वनमें जाकर मृग, महिष तथा रुरुमृगोंका वध किया करते थे ॥ ४ ॥
राजा शन्तनु केवल चार वर्षतक भीष्मके साथ उसी प्रकार सुखसे रहे, जिस प्रकार भगवान् शंकर कार्तिकेयके साथ आनन्दपूर्वक रहते थे ॥ ५ ॥
एकदा विक्षिपन्बाणान्विनिघ्नन्खड्गसूकरान् । स कदाचिद्वनं प्राप्तः कालिन्दीं सरितां वराम् ॥ ६ ॥
एक बार वे महाराज शन्तनु वनमें बाण छोड़ते हुए बहुतसे गड़ों तथा सूकरोंका वध करते हुए किसी समय नदियोंमें श्रेष्ठ यमुनाके किनारे जा पहुँचे ॥ ६ ॥
महीपतिरनिर्देश्यमाजिघ्रद्गन्धमुत्तमम् । तस्य प्रभवमन्विच्छन्सजञ्चचार वनं तदा ॥ ७ ॥
राजाने वहाँपर कहींसे आती हुई उत्तम गन्धको सूंघा । तब उस सुगन्धिके उद्गमका पता लगानेके लिये वे वनमें विचरने लगे ॥ ७ ॥
न मन्दारस्य गन्धोऽयं मृगनाभिमदस्य न । चम्पकस्य न मालत्या न केतक्या मनोहरः ॥ ८ ॥
वे बड़े असमंजसमें पड़ गये कि यह मनोहर सुगन्धि न मन्दारपुष्पकी है, न कस्तूरीकी है, न मालतीकी है, न चम्पाकी है और न तो केतकीकी ही है ! ॥ ८ ॥
न चानुभूतपूर्वोऽयं वाति गन्धवहः शुभः । कुतोऽयमेति वायुर्वै मम घ्राणविमोहनः ॥ ९ ॥
मैंने ऐसी अनुपम सुगन्धिका पूर्वमें कभी नहीं अनुभव किया था । [इस दिव्य सुगन्धिको लेकर] सुन्दर वायु बह रही है । मेरी घ्राणेन्द्रियको मुग्ध कर देनेवाली यह वायु कहाँसे आ रही है ? ॥ ९ ॥
इस प्रकार सोचते-विचारते राजा शन्तनु गन्धके लोभसे मोहित सुगन्धित वायुका अनुसरण करते हुए वनप्रदेशमें विचरण करने लगे ॥ १० ॥
स ददर्श नदीतीरे संस्थितां चारुदर्शनाम् । शृङ्गाररहितां कान्तां सुस्थितां मलिनाम्बराम् ॥ ११ ॥
उन्होंने यमुनानदीके तटपर बैठी हुई एक दिव्यदर्शनवाली स्त्रीको देखा, जो मलिन वस्त्र धारण करने और शृंगार न करनेपर भी मनोहर दीख रही थी ॥ ११ ॥
दृष्ट्वा तामसितापाङ्गीं विस्मितः स महीपतिः । अस्या देहस्य गन्धोऽयमिति सञ्जातनिश्चयः ॥ १२ ॥
उस श्याम नयनोंवाली स्त्रीको देखकर राजा आश्चर्यमें पड़ गये और उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि यह सुगन्धि इसी स्त्रीके शरीरकी है ॥ १२ ॥
तदद्भुतं रूपमतीव सुन्दरं तथैव गन्धोऽखिललोकसम्मतः । वयश्च तादृङ् नवयौवनं शुभं दृष्ट्वैव राजा किल विस्मितोऽभवत् ॥ १३ ॥
उसका अद्भुत एवं अतिशय सुन्दर रूप, सब प्राणियोंका मन स्वाभाविक रूपसे अपनी ओर आकर्षित करनेवाली सुगन्धि, उसकी अवस्था तथा उसका वैसा शुभ नवयौवन देखकर राजा शन्तनुको महान् विस्मय हुआ ॥ १३ ॥
केयं कुतो वा समुपागताधुना देवाङ्गना वा किमु मानुषी वा । गन्धर्वपुत्री किल नागकन्या जाने कथं गन्धवतीं नु कामिनीम् ॥ १४ ॥
यह कौन है और इस समय यह कहाँसे आयी है ? यह कोई देवांगना है या मानवी स्त्री, यह कोई गन्धर्वकन्या अथवा नागकन्या है ? मैं इस सुगन्धा कामिनीके विषयमें कैसे जानकारी प्राप्त करूँ ? ॥ १४ ॥
सञ्चिन्त्य चैवं मनसा नृपोऽसौ न निश्चयं प्राप यदा ततः स्वयम् । गङ्गां स्मरन्कामवशं गतोऽथ पप्रच्छ कान्तां तटसंस्थितां च ॥ १५ ॥ कासि प्रिये कस्य सुतासि कस्मा- दिह स्थिता त्वं विजने वरोरु । एकाकिनी किं वद चारुनेत्रे विवाहिता वा न विवाहितासि ॥ १६ ॥
इस प्रकार विचार करके भी वे राजा जब कुछ निश्चय नहीं कर सके, तब तत्क्षण गंगाजीका स्मरण करते हुए वे कामके वशीभूत हो गये और तटपर बैठी हुई उस सुन्दरीसे उन्होंने पूछा-हे प्रिये ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? हे वरोरु ! तुम इस निर्जन वनमें क्यों बैठी हो ? हे सुनयने ! क्या तुम अकेली ही हो ? तुम विवाहिता हो या कुमारी; यह बताओ ॥ १५-१६ ॥
सञ्जातकामोऽहमरालनेत्रे त्वां वीक्ष्य कान्तां च मनोरमां च । ब्रूहि प्रिये यासि चिकीर्षसि त्वं किं चेति सर्वं मम विस्तरेण ॥ १७ ॥
हे अरालनेत्रे ! तुम जैसी मनोरमा स्त्रीको देखकर मैं कामातुर हो गया हूँ । हे प्रिये ! विस्तारपूर्वक मुझे यह बतलाओ कि तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ? ॥ १७ ॥
इत्येवमुक्ता सुदती नृपेण प्रोवाच तं सस्मितमम्बुजेक्षणा । दाशस्य पुत्रीं त्वमवेहि राजन् कन्यां पितुः शासनसंस्थितां च ॥ १८ ॥
महाराज शन्तनुके वचन सुनकर वह सुन्दर दाँतोंवाली तथा कमलके समान नयनोंवाली स्त्री मुसकराकर बोली-हे राजन् ! आप मुझे निषादकन्या और अपने पिताकी आज्ञामें रहनेवाली कन्या समझें ॥ १८ ॥
तरीमिमां धर्मनिमित्तमेव संवाहयामीह जले नृपेन्द्र । पिता गृहे मेऽद्य गतोऽस्ति कामं सत्यं ब्रवीम्यर्थपते तवाग्रे ॥ १९ ॥
हे नृपेन्द्र ! मैं अपने धर्मका अनुसरण करती हुई जलमें यह नौका चलाती हूँ । हे अर्थपते ! पिताजी अभी ही घर गये हैं । आपके सम्मुख यह बातें मैंने सत्य कही हैं ॥ १९ ॥
इत्येवमुक्त्वा विरराम बाला कामातुरस्तां नृपतिर्बभाषे । कुरुप्रवीरं कुरु मां पतिं त्वं वृथा न गच्छेन्ननु यौवनं ते ॥ २० ॥
यह कहकर वह निषादकन्या मौन हो गयी । तब कामसे पीड़ित महाराज शन्तनुने उससे कहा-मुझ कुरुवंशी वीरको तुम अपना पति बना लो, जिससे तुम्हारा यौवन व्यर्थ न जाय ॥ २० ॥
न चास्ति पत्नी मम वै द्वितीया त्वं धर्मपत्नी भव मे मृगाक्षि । दासोऽस्मि तेऽहं वशगः सदैव मनोभवस्तापयति प्रिये माम् ॥ २१ ॥
मेरी कोई दूसरी पत्नी नहीं है । अतः हे मृगनयनी ! तुम मेरी धर्मपत्नी बन जाओ । हे प्रिये ! मैं सर्वदाके लिये तुम्हारा वशवती दास बन जाऊँगा । मुझे कामदेव पीड़ित कर रहा है ॥ २१ ॥
मेरी प्रियतमा मुझे छोड़कर चली गयी है, तबसे मैंने अपना दूसरा विवाह नहीं किया । हे कान्ते ! मैं इस समय विधुर हूँ । तुम जैसी सर्वांगसुन्दरीको देखकर मेरा मन अपने वशमें नहीं रह गया है ॥ २२ ॥
राजाकी अमृतरसके समान मधुर तथा मनोहारी बात सुनकर वह दाशकन्या सुगन्धा सात्त्विक भावसे युक्त होकर धैर्य धारण करके राजासे बोली-हे राजन् ! आपने मुझसे जो कुछ कहा, वह यथार्थ है; किंतु आप अच्छी तरह जान लीजिये कि मैं स्वतन्त्र नहीं है । मेरे पिताजी ही मुझे दे सकते हैं । अतएव आप उन्हींसे मेरे लिये याचना कीजिये ॥ २३-२४ ॥
न स्वैरिणीहास्म्यपि दाशपुत्री पितुर्वशेऽहं सततं चरामि । स चेद्ददाति प्रथितः पिता मे गृहाण पाणिं वशगास्मि तेऽहम् ॥ २५ ॥
मैं एक निषादकी कन्या होती हुई भी स्वेच्छाचारिणी नहीं हूँ । मैं सदा पिताके वशमें रहती हुई सब काम करती हूँ । यदि मेरे पिताजी मुझे आपको देना स्वीकार कर लें तब आप मेरा पाणिग्रहण कर लीजिये और मैं सदाके लिये आपके अधीन हो जाऊँगी ॥ २५ ॥
मनोभवस्त्वां नृप किं दुनोति यथा पुनर्मां नवयौवनां च । दुनोति तत्रापि हि रक्षणीया धृतिः कुलाचारपरम्परासु ॥ २६ ॥
हे राजन् ! परस्पर आसक्त होनेपर भी कुलको मर्यादा तथा परम्पराके अनुसार धैर्य धारण करना चाहिये ॥ २६ ॥
निषादने कहा-हे महाराज ! यदि आप मेरे इस कन्यारत्नके लिये प्रार्थना कर रहे हैं तो मैं अवश्य दूंगा; क्योंकि देनेयोग्य वस्तु तो कभी अदेय नहीं होती है; किंतु हे महाराज ! आपके बाद इस कन्याका पुत्र ही राजाके रूपमें अभिषिक्त होना चाहिये, आपका दूसरा पुत्र नहीं ॥ ३१-३२ ॥
तब उन्हें चिन्तित देखकर पुत्र देवव्रत राजाके पास जाकर उनकी इस चिन्ताका कारण पूछने लगे-हे नृपश्रेष्ठ ! कौन-सा ऐसा शत्रु है जिसको आप जीत न सके; मैं उसे आपके अधीन कर दूँ । हे नृपोत्तम ! आपकी क्या चिन्ता है, मुझे सही-सही बताइये ॥ ३५-३६ ॥
किं तेन जातेन सुतेन राजन् दुःखं न जानाति न नाशयेद्यः । ऋणं ग्रहीतुं समुपागतोऽसौ प्राग्जन्मजं नात्र विचारणास्ति ॥ ३७ ॥
हे राजन् ! भला उस उत्पन्न हुए पुत्रसे क्या लाभ ? जो पैदा होकर अपने पिताका दुःख न समझे तथा उसको दूर करनेका उपाय न कर सके । ऐसा कुपुत्र तो पूर्वजन्मके किसी ऋणको वापस लेनेके लिये यहाँ आता है । इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥ ३७ ॥
इसी प्रकार हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र जो रोहित नामसे प्रसिद्ध था, अपने पिताके इच्छानुसार बिकनेके लिये तत्पर हो गया और खरीदा हुआ वह बालक ब्राह्मणके घरमें सेवकका कार्य करने लगा । ॥ ३९ ॥
'अजीगत' ब्राह्मणका एक श्रेष्ठ पुत्र था, जो शुनःशेप नामसे प्रसिद्ध था । खरीद लिये जानेपर वह पिताके द्वारा यूपमें बाँध दिया गया, जिसे बादमें विश्वामित्रने छुडाया था ॥ ४० ॥
पित्राज्ञया जामदग्न्येन पूर्वं छिन्नं शिरो मातुरिति प्रसिद्धम् । अकार्यमप्याचरितं च तेन गुरोरनुज्ञा च गरीयसी कृता ॥ ४१ ॥
पूर्वकालमें पिताकी आज्ञासे ही परशुरामने अपनी माताका सिर काट दिया था, ऐसा लोकमें प्रसिद्ध है । इस अनुचित कर्मको करके भी उन्होंने पिताकी आज्ञाका महत्त्व बढ़ाया था ॥ ४१ ॥
इदं शरीरं तव भूपते न क्षमोऽस्मि नूनं वद किं करोम्यहम् । न शोचनीयं मयि वर्तमाने- ऽप्यसाध्यमर्थं प्रतिपादयाम्यदः ॥ ४२ ॥
हे पृथ्वीपते ! यह मेरा शरीर आपका ही है । यद्यपि मैं समर्थ नहीं हूँ: फिर भी आप कहिये मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मेरे रहते आपको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये । मैं आपका असाध्य कार्य भी तत्काल पूरा करूँगा ॥ ४२ ॥
हे राजन् ! आप बताइये कि आपको किस बातकी चिन्ता है ? मैं अभी धनुष लेकर उसका निवारण कर दूंगा । यदि मेरे इस शरीरसे भी आपका कार्य सिद्ध हो सके तो मैं आपकी अभिलाषा पूर्ण करनेको तत्पर हूँ । उस पुत्रको धिक्कार है, जो समर्थ होकर भी अपने पिताकी इच्छाको पूर्ण नहीं करता । जिस पुत्रके द्वारा पिताको चिन्ता दूर न हुई, उस पुत्रका जन्म लेनेका क्या प्रयोजन ? ॥ ४३-४४ ॥
सूतजी बोले-अपने पुत्र गांगेयका वचन सुनकर महाराज शन्तनु मनमें लज्जित होते हुए उससे शीघ्र ही कहने लगे ॥ ४५ ॥
राजोवाच चिन्ता मे महती पुत्र यस्त्वमेकोऽसि मे सुतः । शूरोऽतिबलवान्मानी संग्रामेष्वपराङ्मुखः ॥ ४६ ॥ एकापत्यस्य मे तात वृथेदं जीवितं किल । मृते त्वयि मृधे क्वापि किं करोमि निराश्रयः ॥ ४७ ॥ एषा मे महती चिन्ता तेनाद्य दुःखितोऽत्म्यहम् । नान्या चिन्तास्ति मे पुत्र यां तवाग्रे वदाम्यहम् ॥ ४८ ॥
राजा बोले-हे पुत्र ! मुझे यही महान् चिन्ता है कि तुम मेरे इकलौते पुत्र हो । यद्यपि तुम बलवान्, स्वाभिमानी, रणस्थलमें पीठ न दिखानेवाले साहसी पुत्र हो तथापि केवल एक पुत्र होनेके कारण मुझ पिताका जीवन व्यर्थ है; क्योंकि यदि कहीं किसी समरमें तुम्हें अमरगति प्राप्त हो गयी तो मैं असहाय होकर क्या कर सकूँगा ? यही मुझे सबसे बड़ी चिन्ता लगी है । इसी कारण मैं आजकल दुःखित रहता हूँ । हे पुत्र ! इसके अतिरिक्त मुझे दूसरी कोई चिन्ता नहीं है, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहूँ ॥ ४६-४८ ॥
यह सुनकर मन्त्रिगण राजाके पास गये और सब कारण सही-सही जानकर उन्होंने युवराज गांगेयसे आकर कह दिया । तब उनका अभिप्राय जानकर गांगेय विचार करने लगे । मन्त्रियोंके साथ गंगापुत्र देवव्रत उस निषादके घर शीघ्र गये और प्रेमके साथ विनम्र होकर यह कहने लगे ॥ ५१-५२ ॥
गाङ्गेय उवाच पित्रे देहि सुतां तेऽद्य प्रार्थयामि सुमध्यमाम् । माता मेऽस्तु सुतेयं ते दासोऽत्म्यस्याः परन्तप ॥ ५३ ॥
गांगेय बोले-हे परन्तप ! आप अपनी सुन्दरी कन्या मेरे पिताजीके लिये प्रदान कर दें-यही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ । आपकी ये कन्या मेरी माता हों और मैं इनका सेवक रहूँगा ॥ ५३ ॥