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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
पञ्चमोऽध्यायः

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देवव्रतप्रतिज्ञावर्णनम् -
मत्स्यगन्धा (सत्यवती)-को देखकर राजा शन्तनुका मोहित होना, भीष्मद्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करनेकी प्रतिज्ञा करना और शन्तनुका सत्यवतीसे विवाह -


ऋषय ऊचुः
वसूनां सम्भवः सूत कथितः शापकारणात् ।
गाङ्गेयस्य तथोत्पत्तिः कथिता लोमहर्षणे ॥ १ ॥
माता व्यासस्य धर्मज्ञ नाम्ना सत्यवती सती ।
कथं शन्तनुना प्राप्ता भार्या गन्धवती शुभा ॥ २ ॥
तन्ममाचक्ष्व विस्तारं दाशपुत्री कथं धृता ।
राज्ञा धर्मवरिष्ठेन संशयं छिन्धि सुव्रत ॥ ३ ॥
ऋषिगण बोले-हे लोमहर्षणतनय सूतजी ! आपने शापवश अष्टवसुओंके जन्म तथा गंगाजीकी उत्पत्तिका वर्णन किया । हे धर्मज्ञ ! व्यासजीकी सत्यवती नामकी साध्वी माता जो पवित्र गन्धवाली थीं, वे राजा शन्तनुको पत्नीरूपसे कैसे प्राप्त हुई ? यह हमें विस्तारके साथ बताइये । महान् धर्मनिष्ठ राजा शन्तनुने निषादपुत्रीके साथ विवाह क्यों किया ? हे सुव्रत ! यह बताकर आप हमारे सन्देहका निवारण कीजिये ॥ १-३ ॥

सूत उवाच
शन्तनुर्नाम राजर्षिर्मृगयानिरतः सदा ।
वनं जगाम निघ्नन्वै मृगांश्च महिषान् रुरून् ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-राजर्षि शन्तनु सदा आखेट करनेमें तत्पर रहते थे । वे वनमें जाकर मृग, महिष तथा रुरुमृगोंका वध किया करते थे ॥ ४ ॥

चत्वार्येव तु वर्षाणि पुत्रेण सह भूपतिः ।
रममाणः सुखं प्राप कुमारेण यथा हरः ॥ ५ ॥
राजा शन्तनु केवल चार वर्षतक भीष्मके साथ उसी प्रकार सुखसे रहे, जिस प्रकार भगवान् शंकर कार्तिकेयके साथ आनन्दपूर्वक रहते थे ॥ ५ ॥

एकदा विक्षिपन्बाणान्विनिघ्नन्खड्गसूकरान् ।
स कदाचिद्वनं प्राप्तः कालिन्दीं सरितां वराम् ॥ ६ ॥
एक बार वे महाराज शन्तनु वनमें बाण छोड़ते हुए बहुतसे गड़ों तथा सूकरोंका वध करते हुए किसी समय नदियोंमें श्रेष्ठ यमुनाके किनारे जा पहुँचे ॥ ६ ॥

महीपतिरनिर्देश्यमाजिघ्रद्‌गन्धमुत्तमम् ।
तस्य प्रभवमन्विच्छन्सजञ्चचार वनं तदा ॥ ७ ॥
राजाने वहाँपर कहींसे आती हुई उत्तम गन्धको सूंघा । तब उस सुगन्धिके उद्गमका पता लगानेके लिये वे वनमें विचरने लगे ॥ ७ ॥

न मन्दारस्य गन्धोऽयं मृगनाभिमदस्य न ।
चम्पकस्य न मालत्या न केतक्या मनोहरः ॥ ८ ॥
वे बड़े असमंजसमें पड़ गये कि यह मनोहर सुगन्धि न मन्दारपुष्पकी है, न कस्तूरीकी है, न मालतीकी है, न चम्पाकी है और न तो केतकीकी ही है ! ॥ ८ ॥

न चानुभूतपूर्वोऽयं वाति गन्धवहः शुभः ।
कुतोऽयमेति वायुर्वै मम घ्राणविमोहनः ॥ ९ ॥
मैंने ऐसी अनुपम सुगन्धिका पूर्वमें कभी नहीं अनुभव किया था । [इस दिव्य सुगन्धिको लेकर] सुन्दर वायु बह रही है । मेरी घ्राणेन्द्रियको मुग्ध कर देनेवाली यह वायु कहाँसे आ रही है ? ॥ ९ ॥

इति सञ्चिन्त्यमानोऽसौ बभ्राम वनमण्डलम् ।
मोहितो गन्धलोभेन शन्तनुः पवनानुगः ॥ १० ॥
इस प्रकार सोचते-विचारते राजा शन्तनु गन्धके लोभसे मोहित सुगन्धित वायुका अनुसरण करते हुए वनप्रदेशमें विचरण करने लगे ॥ १० ॥

स ददर्श नदीतीरे संस्थितां चारुदर्शनाम् ।
शृङ्गाररहितां कान्तां सुस्थितां मलिनाम्बराम् ॥ ११ ॥
उन्होंने यमुनानदीके तटपर बैठी हुई एक दिव्यदर्शनवाली स्त्रीको देखा, जो मलिन वस्त्र धारण करने और शृंगार न करनेपर भी मनोहर दीख रही थी ॥ ११ ॥

दृष्ट्वा तामसितापाङ्गीं विस्मितः स महीपतिः ।
अस्या देहस्य गन्धोऽयमिति सञ्जातनिश्चयः ॥ १२ ॥
उस श्याम नयनोंवाली स्त्रीको देखकर राजा आश्चर्यमें पड़ गये और उन्हें इस बातका विश्वास हो गया कि यह सुगन्धि इसी स्त्रीके शरीरकी है ॥ १२ ॥

तदद्‌भुतं रूपमतीव सुन्दरं
     तथैव गन्धोऽखिललोकसम्मतः ।
वयश्च तादृङ् नवयौवनं शुभं
     दृष्ट्वैव राजा किल विस्मितोऽभवत् ॥ १३ ॥
उसका अद्भुत एवं अतिशय सुन्दर रूप, सब प्राणियोंका मन स्वाभाविक रूपसे अपनी ओर आकर्षित करनेवाली सुगन्धि, उसकी अवस्था तथा उसका वैसा शुभ नवयौवन देखकर राजा शन्तनुको महान् विस्मय हुआ ॥ १३ ॥

केयं कुतो वा समुपागताधुना
     देवाङ्गना वा किमु मानुषी वा ।
गन्धर्वपुत्री किल नागकन्या
     जाने कथं गन्धवतीं नु कामिनीम् ॥ १४ ॥
यह कौन है और इस समय यह कहाँसे आयी है ? यह कोई देवांगना है या मानवी स्त्री, यह कोई गन्धर्वकन्या अथवा नागकन्या है ? मैं इस सुगन्धा कामिनीके विषयमें कैसे जानकारी प्राप्त करूँ ? ॥ १४ ॥

सञ्चिन्त्य चैवं मनसा नृपोऽसौ
     न निश्चयं प्राप यदा ततः स्वयम् ।
गङ्गां स्मरन्कामवशं गतोऽथ
     पप्रच्छ कान्तां तटसंस्थितां च ॥ १५ ॥
कासि प्रिये कस्य सुतासि कस्मा-
     दिह स्थिता त्वं विजने वरोरु ।
एकाकिनी किं वद चारुनेत्रे
     विवाहिता वा न विवाहितासि ॥ १६ ॥
इस प्रकार विचार करके भी वे राजा जब कुछ निश्चय नहीं कर सके, तब तत्क्षण गंगाजीका स्मरण करते हुए वे कामके वशीभूत हो गये और तटपर बैठी हुई उस सुन्दरीसे उन्होंने पूछा-हे प्रिये ! तुम कौन हो ? किसकी पुत्री हो ? हे वरोरु ! तुम इस निर्जन वनमें क्यों बैठी हो ? हे सुनयने ! क्या तुम अकेली ही हो ? तुम विवाहिता हो या कुमारी; यह बताओ ॥ १५-१६ ॥

सञ्जातकामोऽहमरालनेत्रे
     त्वां वीक्ष्य कान्तां च मनोरमां च ।
ब्रूहि प्रिये यासि चिकीर्षसि त्वं
     किं चेति सर्वं मम विस्तरेण ॥ १७ ॥
हे अरालनेत्रे ! तुम जैसी मनोरमा स्त्रीको देखकर मैं कामातुर हो गया हूँ । हे प्रिये ! विस्तारपूर्वक मुझे यह बतलाओ कि तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ? ॥ १७ ॥

इत्येवमुक्ता सुदती नृपेण
     प्रोवाच तं सस्मितमम्बुजेक्षणा ।
दाशस्य पुत्रीं त्वमवेहि राजन्
     कन्यां पितुः शासनसंस्थितां च ॥ १८ ॥
महाराज शन्तनुके वचन सुनकर वह सुन्दर दाँतोंवाली तथा कमलके समान नयनोंवाली स्त्री मुसकराकर बोली-हे राजन् ! आप मुझे निषादकन्या और अपने पिताकी आज्ञामें रहनेवाली कन्या समझें ॥ १८ ॥

तरीमिमां धर्मनिमित्तमेव
     संवाहयामीह जले नृपेन्द्र ।
पिता गृहे मेऽद्य गतोऽस्ति कामं
     सत्यं ब्रवीम्यर्थपते तवाग्रे ॥ १९ ॥
हे नृपेन्द्र ! मैं अपने धर्मका अनुसरण करती हुई जलमें यह नौका चलाती हूँ । हे अर्थपते ! पिताजी अभी ही घर गये हैं । आपके सम्मुख यह बातें मैंने सत्य कही हैं ॥ १९ ॥

इत्येवमुक्त्वा विरराम बाला
     कामातुरस्तां नृपतिर्बभाषे ।
कुरुप्रवीरं कुरु मां पतिं त्वं
     वृथा न गच्छेन्ननु यौवनं ते ॥ २० ॥
यह कहकर वह निषादकन्या मौन हो गयी । तब कामसे पीड़ित महाराज शन्तनुने उससे कहा-मुझ कुरुवंशी वीरको तुम अपना पति बना लो, जिससे तुम्हारा यौवन व्यर्थ न जाय ॥ २० ॥

न चास्ति पत्‍नी मम वै द्वितीया
     त्वं धर्मपत्‍नी भव मे मृगाक्षि ।
दासोऽस्मि तेऽहं वशगः सदैव
     मनोभवस्तापयति प्रिये माम् ॥ २१ ॥
मेरी कोई दूसरी पत्नी नहीं है । अतः हे मृगनयनी ! तुम मेरी धर्मपत्नी बन जाओ । हे प्रिये ! मैं सर्वदाके लिये तुम्हारा वशवती दास बन जाऊँगा । मुझे कामदेव पीड़ित कर रहा है ॥ २१ ॥

गता प्रिया मां परिहृत्य कान्ता
     नान्या वृताहं विधुरोऽस्मि कान्ते ।
त्वां वीक्ष्य सर्वावयवातिरम्यां
     मनो हि जातं विवशं मदीयम् ॥ २२ ॥
मेरी प्रियतमा मुझे छोड़कर चली गयी है, तबसे मैंने अपना दूसरा विवाह नहीं किया । हे कान्ते ! मैं इस समय विधुर हूँ । तुम जैसी सर्वांगसुन्दरीको देखकर मेरा मन अपने वशमें नहीं रह गया है ॥ २२ ॥

श्रुत्वामृतास्वादरसं नृपस्य
     वचोऽतिरम्यं खलु दाशकन्या ।
उवाच तं सात्त्विकभावयुक्ता
     कृत्वातिधैर्यं नृपतिं सुगन्धा ॥ २३ ॥
यदात्थ राजन् मयि तत्तथैव
     मन्येऽहमेतत्तु यथा वचस्ते ।
नास्मि स्वतन्त्रा त्वमवेहि कामं
     दाता पिता मेऽर्थय तं त्वमाशु ॥ २४ ॥
राजाकी अमृतरसके समान मधुर तथा मनोहारी बात सुनकर वह दाशकन्या सुगन्धा सात्त्विक भावसे युक्त होकर धैर्य धारण करके राजासे बोली-हे राजन् ! आपने मुझसे जो कुछ कहा, वह यथार्थ है; किंतु आप अच्छी तरह जान लीजिये कि मैं स्वतन्त्र नहीं है । मेरे पिताजी ही मुझे दे सकते हैं । अतएव आप उन्हींसे मेरे लिये याचना कीजिये ॥ २३-२४ ॥

न स्वैरिणीहास्म्यपि दाशपुत्री
     पितुर्वशेऽहं सततं चरामि ।
स चेद्ददाति प्रथितः पिता मे
     गृहाण पाणिं वशगास्मि तेऽहम् ॥ २५ ॥
मैं एक निषादकी कन्या होती हुई भी स्वेच्छाचारिणी नहीं हूँ । मैं सदा पिताके वशमें रहती हुई सब काम करती हूँ । यदि मेरे पिताजी मुझे आपको देना स्वीकार कर लें तब आप मेरा पाणिग्रहण कर लीजिये और मैं सदाके लिये आपके अधीन हो जाऊँगी ॥ २५ ॥

मनोभवस्त्वां नृप किं दुनोति
     यथा पुनर्मां नवयौवनां च ।
दुनोति तत्रापि हि रक्षणीया
     धृतिः कुलाचारपरम्परासु ॥ २६ ॥
हे राजन् ! परस्पर आसक्त होनेपर भी कुलको मर्यादा तथा परम्पराके अनुसार धैर्य धारण करना चाहिये ॥ २६ ॥

सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तस्या नृपति काममोहितः ।
गतो दाशपतेर्गेहं तस्या याचनहेतवे ॥ २७ ॥
सूतजी बोले-उस सुगन्धाकी यह बात सुनकर कामातुर राजा उसे माँगनेके लिये निषादराजके घर गये ॥ २७ ॥

दृष्ट्वा नृपतिमायान्तं दाशोऽतिविस्मयं गतः ।
प्रणामं नृपतेः कृत्वा कृताञ्जलिरभाषत ॥ २८ ॥
- इस प्रकार महाराज शन्तनुको अपने घर आया देखकर निषादराजको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर वह बोला- ॥ २८ ॥

दाश उवाच
दासोऽस्मि तव भूपाल कृतार्थोऽहं तवागमे ।
आज्ञां देहि महाराज यदर्थमिह चागमः ॥ २९ ॥
निषादने कहा-हे राजन् ! मैं आपका दास हूँ । आपके आगमनसे मैं कृतकृत्य हो गया । हे महाराज ! आप जिस कार्यके लिये आये हों, मुझे आज्ञा दीजिये ॥ २९ ॥

राजोवाच
धर्मपत्‍नीं करिष्यामि सुतामेतां तवानघ ।
त्वया चेद्दीयते मह्यं सत्यमेतद्‌ब्रवीमि ते ॥ ३० ॥
राजा बोले-हे अनघ ! यदि आप अपनी यह कन्या मुझे प्रदान कर दें तो मैं इसे अपनी धर्मपत्नी बना लूंगा; यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ३० ॥

दाश उवाच
कन्यारत्‍नं मदीयं चेद्यत्त्वं प्रार्थयसे नृप ।
दातव्यं तु प्रदास्यामि न त्वदेयं कदाचन ॥ ३१ ॥
तस्याः पुत्रो महाराज त्वदन्ते पृथिवीपतिः ।
सर्वथा चाभिषेक्तव्यो नान्यः पुत्रस्तवेति वै ॥ ३२ ॥
निषादने कहा-हे महाराज ! यदि आप मेरे इस कन्यारत्नके लिये प्रार्थना कर रहे हैं तो मैं अवश्य दूंगा; क्योंकि देनेयोग्य वस्तु तो कभी अदेय नहीं होती है; किंतु हे महाराज ! आपके बाद इस कन्याका पुत्र ही राजाके रूपमें अभिषिक्त होना चाहिये, आपका दूसरा पुत्र नहीं ॥ ३१-३२ ॥

सूत उवाच
श्रुत्वावाक्यं तु दाशस्य राजा चिन्तातुरोऽभवत् ।
गाङ्गेयं मनसा कृत्वा नोवाच नृपतिस्तदा ॥ ३३ ॥
सूतजी बोले-निषादकी बात सुनकर राजा शन्तनु चिन्तित हो उठे । उस समय मनमें भीष्मका स्मरण करके राजा कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ ३३ ॥

कामातुरो गृहं प्राप्तश्चिन्ताविष्टो महीपतिः ।
न सस्नौ बुभुजे नाथ न सुष्वाप गृहं गतः ॥ ३४ ॥
तब कामातुर तथा चिन्तित राजा राजमहलमें चले गये । उन्होंने घर जानेपर न स्नान किया, न भोजन किया और न शयन ही किया ॥ ३४ ॥

चिन्तातुरं तु तं दृष्ट्वा पुत्रो देवव्रतस्तदा ।
गत्वापृच्छन्महीपालं तदसन्तोषकारणम् ॥ ३५ ॥
दुर्जयः कोऽस्ति शत्रुस्ते करोमि वशगं तव ।
का चिन्ता नृपशार्दूल सत्यं वद नृपोत्तम ॥ ३६ ॥
तब उन्हें चिन्तित देखकर पुत्र देवव्रत राजाके पास जाकर उनकी इस चिन्ताका कारण पूछने लगे-हे नृपश्रेष्ठ ! कौन-सा ऐसा शत्रु है जिसको आप जीत न सके; मैं उसे आपके अधीन कर दूँ । हे नृपोत्तम ! आपकी क्या चिन्ता है, मुझे सही-सही बताइये ॥ ३५-३६ ॥

किं तेन जातेन सुतेन राजन्
     दुःखं न जानाति न नाशयेद्यः ।
ऋणं ग्रहीतुं समुपागतोऽसौ
     प्राग्जन्मजं नात्र विचारणास्ति ॥ ३७ ॥
हे राजन् ! भला उस उत्पन्न हुए पुत्रसे क्या लाभ ? जो पैदा होकर अपने पिताका दुःख न समझे तथा उसको दूर करनेका उपाय न कर सके । ऐसा कुपुत्र तो पूर्वजन्मके किसी ऋणको वापस लेनेके लिये यहाँ आता है । इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है ॥ ३७ ॥

विमुच्य राज्यं रघुनन्दनोऽपि
     ताताज्ञया दाशरथिस्तु रामः ।
वनं गतो लक्ष्मणजानकीभ्यां
     सहैव शैलं किल चित्रकूटम् ॥ ३८ ॥
दशरथके पुत्र रामचन्द्रजी भी पिताकी आज्ञासे राज्य त्यागकर लक्ष्मण और सीताके साथ वनमें चले गये तथा चित्रकूटपर्वतपर निवास करने लगे ॥ ३८ ॥

सुतो हरिश्चन्द्रनृपस्य राजन्
     यो रोहितश्चेति प्रसिद्धनामा ।
क्रीतोऽथ पित्रा विपणोद्यतश्च
     दासार्पितो विप्रगृहे तु नूनम् ॥ ३९ ॥
इसी प्रकार हे राजन् ! राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र जो रोहित नामसे प्रसिद्ध था, अपने पिताके इच्छानुसार बिकनेके लिये तत्पर हो गया और खरीदा हुआ वह बालक ब्राह्मणके घरमें सेवकका कार्य करने लगा । ॥ ३९ ॥

तथाजिगर्तस्य सुतो वरिष्ठो
     नाम्ना शुनःशेप इति प्रसिद्धः ।
क्रीतस्तु पित्राप्यथ यूपबद्धः
     सम्मोचितो गाधिसुतेन पश्चात् ॥ ४० ॥
'अजीगत' ब्राह्मणका एक श्रेष्ठ पुत्र था, जो शुनःशेप नामसे प्रसिद्ध था । खरीद लिये जानेपर वह पिताके द्वारा यूपमें बाँध दिया गया, जिसे बादमें विश्वामित्रने छुडाया था ॥ ४० ॥

पित्राज्ञया जामदग्न्येन पूर्वं
     छिन्नं शिरो मातुरिति प्रसिद्धम् ।
अकार्यमप्याचरितं च तेन
     गुरोरनुज्ञा च गरीयसी कृता ॥ ४१ ॥
पूर्वकालमें पिताकी आज्ञासे ही परशुरामने अपनी माताका सिर काट दिया था, ऐसा लोकमें प्रसिद्ध है । इस अनुचित कर्मको करके भी उन्होंने पिताकी आज्ञाका महत्त्व बढ़ाया था ॥ ४१ ॥

इदं शरीरं तव भूपते न
     क्षमोऽस्मि नूनं वद किं करोम्यहम् ।
न शोचनीयं मयि वर्तमाने-
     ऽप्यसाध्यमर्थं प्रतिपादयाम्यदः ॥ ४२ ॥
हे पृथ्वीपते ! यह मेरा शरीर आपका ही है । यद्यपि मैं समर्थ नहीं हूँ: फिर भी आप कहिये मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मेरे रहते आपको किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये । मैं आपका असाध्य कार्य भी तत्काल पूरा करूँगा ॥ ४२ ॥

प्रब्रूहि राजंस्तव कास्ति चिन्ता
     निवारयाम्यद्य धनुर्गृहीत्वा ।
देहेन मे चेच्चरितार्थता वा
     भवत्वमोघा भवतश्चिकीर्षा ॥ ४३ ॥
धिक् तं सुतं यः पितुरीप्सितार्थं
     क्षमोऽपि सन्न प्रतिपादयेद्यः ।
जातेन किं तेन सुतेन कामं
     पितुर्न चिन्तां हि समुद्धरेद्यः ॥ ४४ ॥
हे राजन् ! आप बताइये कि आपको किस बातकी चिन्ता है ? मैं अभी धनुष लेकर उसका निवारण कर दूंगा । यदि मेरे इस शरीरसे भी आपका कार्य सिद्ध हो सके तो मैं आपकी अभिलाषा पूर्ण करनेको तत्पर हूँ । उस पुत्रको धिक्कार है, जो समर्थ होकर भी अपने पिताकी इच्छाको पूर्ण नहीं करता । जिस पुत्रके द्वारा पिताको चिन्ता दूर न हुई, उस पुत्रका जन्म लेनेका क्या प्रयोजन ? ॥ ४३-४४ ॥

सूत उवाच
निशम्येति वचस्तस्य पुत्रस्य शन्तनुर्नृपः ।
लज्जमानस्तु मनसा तमाह त्वरितं सुतम् ॥ ४५ ॥
सूतजी बोले-अपने पुत्र गांगेयका वचन सुनकर महाराज शन्तनु मनमें लज्जित होते हुए उससे शीघ्र ही कहने लगे ॥ ४५ ॥

राजोवाच
चिन्ता मे महती पुत्र यस्त्वमेकोऽसि मे सुतः ।
शूरोऽतिबलवान्मानी संग्रामेष्वपराङ्‌मुखः ॥ ४६ ॥
एकापत्यस्य मे तात वृथेदं जीवितं किल ।
मृते त्वयि मृधे क्वापि किं करोमि निराश्रयः ॥ ४७ ॥
एषा मे महती चिन्ता तेनाद्य दुःखितोऽत्म्यहम् ।
नान्या चिन्तास्ति मे पुत्र यां तवाग्रे वदाम्यहम् ॥ ४८ ॥
राजा बोले-हे पुत्र ! मुझे यही महान् चिन्ता है कि तुम मेरे इकलौते पुत्र हो । यद्यपि तुम बलवान्, स्वाभिमानी, रणस्थलमें पीठ न दिखानेवाले साहसी पुत्र हो तथापि केवल एक पुत्र होनेके कारण मुझ पिताका जीवन व्यर्थ है; क्योंकि यदि कहीं किसी समरमें तुम्हें अमरगति प्राप्त हो गयी तो मैं असहाय होकर क्या कर सकूँगा ? यही मुझे सबसे बड़ी चिन्ता लगी है । इसी कारण मैं आजकल दुःखित रहता हूँ । हे पुत्र ! इसके अतिरिक्त मुझे दूसरी कोई चिन्ता नहीं है, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहूँ ॥ ४६-४८ ॥

सूत उवाच
तदाकर्ण्याथ गाङ्गेयो मन्त्रिवृद्धानपृच्छत ।
न मां वदति भूपालो लज्जयाद्य परिप्लुतः ॥ ४९ ॥
सूतजी बोले-यह सुनकर गांगेयने वृद्ध मन्त्रियोंसे पूछा कि लज्जासे परिपूर्ण महाराज मुझे कुछ बता नहीं रहे हैं ॥ ४९ ॥

वित्त वार्तां नृपस्याद्य पृष्ट्वा यूयं विनिश्चयात् ।
सत्यं ब्रुवन्तु मां सर्वं तत्करोमि निराकुलः ॥ ५० ॥
आपलोग राजाकी भावना जानकर सही एवं निश्चित कारण मुझे बताइये; मैं प्रसन्नतापूर्वक उसे सम्पन्न करूँगा ॥ ५० ॥

तच्छ्रुत्वा ते नृपं गत्वा संविज्ञाय च कारणम् ।
शशंसुर्विदितार्थस्तु गाङ्गेयस्तदचिन्तयत् ॥ ५१ ॥
सहितस्तैर्जगामाशु दाशस्य सदनं तदा ।
प्रेमपूर्वमुवाचेदं विनम्रो जाह्नवीसुतः ॥ ५२ ॥
यह सुनकर मन्त्रिगण राजाके पास गये और सब कारण सही-सही जानकर उन्होंने युवराज गांगेयसे आकर कह दिया । तब उनका अभिप्राय जानकर गांगेय विचार करने लगे । मन्त्रियोंके साथ गंगापुत्र देवव्रत उस निषादके घर शीघ्र गये और प्रेमके साथ विनम्र होकर यह कहने लगे ॥ ५१-५२ ॥

गाङ्गेय उवाच
पित्रे देहि सुतां तेऽद्य प्रार्थयामि सुमध्यमाम् ।
माता मेऽस्तु सुतेयं ते दासोऽत्म्यस्याः परन्तप ॥ ५३ ॥
गांगेय बोले-हे परन्तप ! आप अपनी सुन्दरी कन्या मेरे पिताजीके लिये प्रदान कर दें-यही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ । आपकी ये कन्या मेरी माता हों और मैं इनका सेवक रहूँगा ॥ ५३ ॥

दाश उवाच
त्वं गृहाण महाभाग पत्‍नीं कुरु नृपात्मज ।
पुत्रोऽस्या न भवेद्‌राजा वर्तमाने त्वयीति वै ॥ ५४ ॥
निषादने कहा-हे महाभाग ! हे नृपनन्दन ! आप स्वयं ही इसे अपनी भार्या बनाइये; क्योंकि आपके रहते इसका पुत्र राजा नहीं हो सकेगा ॥ ५४ ॥

गाङ्गेय उवाच
मातेयं मम दाशेयी राज्यं नैव करोम्यहम् ।
पुत्रोऽस्याः सर्वथा राज्यं करिष्यति न संशयः ॥ ५५ ॥
गांगेय बोले-आपकी यह कन्या मेरी माता है । मैं राज्य नहीं करूँगा । इसका पुत्र ही निश्चितरूपसे राज्य करेगा; इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥ ५५ ॥

दाश उवाच
सत्यं वाक्यं मया ज्ञातं पुत्रस्ते बलवान्भवेत् ।
सोऽपि राज्यं बलान्नूनं गृह्णीयादिति निश्चयः ॥ ५६ ॥
निघादने कहा-मैंने आपकी बात सही मान ली; परंतु यदि आपका पुत्र बलवान् हुआ तो वह बलपूर्वक राज्यको निश्चय ही ले लेगा ॥ ५६ ॥

गाङ्गेय उवाच
न दारसंग्रहं नूनं करिष्यामि हि सर्वथा ।
सत्यं मे वचनं तात मया भीष्मं व्रतं कृतम् ॥ ५७ ॥
गांगेय बोले-हे तात ! मैं कभी विवाह नहीं करूँगा; मेरा यह वचन सर्वथा सत्य है-यह मैंने भीष्म प्रतिज्ञा कर ली । ५७ ॥

सूत उवाच
एवं कृतां प्रतिज्ञां तु निशम्य झषजीवकः ।
ददौ सत्यवतीं तस्मै राज्ञे सर्वाङ्गशोभनाम् ॥ ५८ ॥
सूतजी बोले-गांगेयद्वारा की गयी ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर निषादने उन राजा शन्तनुको अपनी सर्वांगसुन्दरी कन्या सत्यवती सौंप दी ॥ ५८ ॥

अनेन विधिना तेन वृता सत्यवती प्रिया ।
न जानाति परं जन्म व्यासस्य नृपसत्तमः ॥ ५९ ॥
इस प्रकार राजा शन्तनुने प्रिया सत्यवतीसे विवाह कर लिया । वे नृपश्रेष्ठ शन्तनु पूर्वमें सत्यवतीसे व्यासजीका जन्म नहीं जानते थे ॥ ५९ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे देवव्रतप्रतिज्ञावर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
अध्याय पांचवाँ समाप्त


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