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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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युधिष्ठिरादीनामुत्पत्तिवर्णनम् -
दुर्वासाका कुन्तीको अमोघ कामद मन्त्र देना, मन्त्रके प्रभावसे कन्यावस्थामें ही कर्णका जन्म, कुन्तीका राजा पाण्डुसे विवाह, शापके कारण पाण्डुका सन्तानोत्पादनमें असमर्थ होना, मन्त्र-प्रयोगसे कुन्ती और माद्रीका पुत्रवती होना, पाण्डुकी मृत्यु और पाँचों पुत्रोंको लेकर कुन्तीका हस्तिनापुर आना -


सूत उवाच
एवं सत्यवती तेन वृता शन्तनुना किल ।
द्वौ पुत्रौ च तया जातौ मृतौ कालवशादपि ॥ १ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार उन शन्तनुने सत्यवतीसे विवाह कर लिया । उसको [चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक] दो पुत्र उत्पन्न हुए और कालवश वे दोनों मृत्युको भी प्राप्त हो गये ॥ १ ॥

व्यासवीर्यात्तु सञ्जातो धृतराष्ट्रोऽन्ध एव च ।
मुनिं दृष्ट्वाथ कामिन्या नेत्रसम्मीलने कृते ॥ २ ॥
पुन: व्यासजीके तेजसे धृतराष्ट्र उत्पन्न हुए, जो जन्मसे ही अन्धे थे; क्योंकि मुनिको देखकर उस स्त्रीने अपने नेत्र बन्द कर लिये थे ॥ २ ॥

श्वेतरूपा यतो जाता दृष्ट्वा व्यासं नृपात्मजा ।
व्यासकोपात्समुत्पन्नः पाण्डुस्तेन न संशयः ॥ ३ ॥
तत्पश्चात् छोटी रानी व्यासजीको देखकर पीली पड़ गयी, जिससे व्यासजीके कोपके कारण उससे पीतवर्ण पाण्डुका जन्म हुआ । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥

सन्तोषितस्तया व्यासो दास्या कामकलाविदा ।
विदुरस्तु समुत्पन्नो धर्मांशः सत्यवाक् शुचिः ॥ ४ ॥
निपुण दासीने व्यासजीको सन्तुष्ट किया, जिसके परिणामस्वरूप धर्मके अंश, सत्यवादी तथा पवित्र विचारवाले विदुर उत्पन्न हुए ॥ ४ ॥

राज्ये संस्थापितः पाण्डुः कनीयानपि मन्त्रिभिः ।
अन्धत्वाद्‌धृतराष्ट्रोऽसौ नाधिकारे नियोजितः ॥ ५ ॥
भीष्मस्यानुमते राज्यं प्राप्तः पाण्डुर्महाबलः ।
विदुरोऽप्यथ मेधावी मन्त्रकार्ये नियोजितः ॥ ६ ॥
[बड़े होनेपर भी] अन्धे होनेके कारण धृतराष्ट्रको राज्य नहीं दिया गया और छोटे होते हुए भी पाण्डुको ही मन्त्रियोंने राजसिंहासनपर अभिषिक्त किया । भीष्मकी सम्मतिसे ही महाबली पाण्डुको राज्य प्राप्त हुआ तथा प्रतिभासम्पन्न विदुरजी मन्त्रणाकार्यमें नियुक्त किये गये ॥ ५-६ ॥

धृतराष्ट्रस्य द्वे भार्ये गान्धारी सौबली स्मृता ।
द्वितीया च तथा वैश्या गार्हस्त्येषु प्रतिष्ठिता ॥ ७ ॥
धृतराष्ट्रकी दो स्त्रियाँ थीं । उनमें पहली सुबलपुत्री गान्धारी कही गयी है और दूसरी एक वैश्यपुत्री थी, जो गृहकार्यों में प्रतिष्ठित की गयी थी ॥ ७ ॥

पाण्डोरपि तथा पत्‍न्यौ द्वे प्रोक्ते वेदवादिभिः ।
शौरसेनी तथा कुन्ती माद्री च मद्रदेशजा ॥ ८ ॥
वेदवादी विद्वानोंने पाण्डुकी भी दो पत्नियाँ बतायी हैं । एक शूरसेनकी पुत्री कुन्ती और दूसरी मद्रदेशकी राजकुमारी माद्री ॥ ८ ॥

गान्धारी सुषुवे पुत्रशतं परमशोभनम् ।
वैश्याप्येकं सुतं कान्तं युयुत्सुं सुषुवे प्रियम् ॥ ९ ॥
गान्धारीने परम सुन्दर सौ पुत्र उत्पन्न किये एवं वैश्या रानीने युयुत्सु नामका एक कान्तिमान् और प्रिय पुत्र उत्पन्न किया ॥ ९ ॥

कुन्ती तु प्रथमं कन्या सूर्यात्कर्णं मनोहरम् ।
सुषुवे पितृगेहस्था पश्चात्पाण्डुपरिग्रहः ॥ १० ॥
कुन्तीने कुमारी अवस्थामें ही अपने पिताके घर रहते हुए सूर्यसे कर्ण नामक एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया था; तदनन्तर कुन्तीका विवाह पाण्डुसे हुआ ॥ १० ॥

ऋषय ऊचुः
किमेतत्सूत चित्रं त्वं भाषसे मुनिसत्तम ।
जनितश्च सुतः पूर्वं पाण्डुना सा विवाहिता ॥ ११ ॥
ऋषिगण बोले-हे मुनिवर सूतजी ! आप यह कैसी आश्चर्यजनक बात बता रहे हैं ? पहले पुत्र उत्पन्न हुआ और बादमें पाण्डुके साथ कुन्तीका विवाह हुआ ! ॥ ११ ॥

सूर्यात्कर्णः कथं जातः कन्यायां वद विस्तरात् ।
कन्या कथं पुनर्जाता पाण्डुना सा विवाहिता ॥ १२ ॥
सूर्यके द्वारा कन्या कुन्तीसे कर्णकी उत्पत्ति कैसे हुई ? वह कुन्ती पुनः कन्या कैसे रह गयी, जो पाण्डुके साथ उसका विवाह हो गया । यह आप विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १२ ॥

सूत उवाच
शूरसेनसुता कुन्ती बालभावे यदा द्विजाः ।
कुन्तिभोजेन राज्ञा तु प्रार्थिता कन्यका शुभा ॥ १३ ॥
कुन्तिभोजेन सा बाला पुत्री तु परिकल्पिता ।
सेवनार्थं तु दीप्तस्य विहिता चारुहासिनी ॥ १४ ॥
सूतजी बोले-हे द्विजगण ! शूरसेनकी वह पुत्री कुन्ती जब शिशु थी, तभी राजा कुन्तिभोजने उस सुन्दर कन्याको माँग लिया था । उन्होंने उस चारुहासिनी कन्याको अपनी पुत्री बनाकर रखा और उसे अग्निहोत्रके काममें नियुक्त कर दिया ॥ १३-१४ ॥

दुर्वासास्तु मुनिः प्राप्तश्चातुर्मास्ये स्थितो द्विजः ।
परिचर्या कृता कुन्त्या मुनिस्तोषं जगाम ह ॥ १५ ॥
ददौ मन्त्रं शुभं तस्यै येनाहूतः सुरः स्वयम् ।
समायाति तथा कामं पूरयिष्यति वाञ्छितम् ॥ १६ ॥
एक बार महर्षि दुर्वासा वहाँ आ पहुँचे और चातुर्मास्यके लिये वहीं रहने लगे । कुन्तीने उनकी सेवा की, जिससे मुनिवर सन्तुष्ट हुए और उसको एक ऐसे मन्त्रका उपदेश दिया, जिसके प्रयोगसे आवाहित किये गये देवता स्वयं उपस्थित होंगे और उसकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ॥ १५-१६ ॥

गते मुनौ ततः कुन्ती निश्चयार्थं गृहे स्थिता ।
चिन्तयामास मनसा कं सुरं समचिन्तये ॥ १७ ॥
दुर्वासामुनिके वहाँसे चले जानेपर अपने गृहमें बैठी हुई कुन्ती उस मन्त्रको परीक्षाके लिये मनमें सोचने लगी कि मैं किस देवताका ध्यान करूँ ? ॥ १७ ॥

उदितश्च तदा भानुस्तया दृष्टो दिवाकरः ।
मन्त्रोच्चारं तया कृत्वा चाहूतस्तिग्मगुस्तदा ॥ १८ ॥
मण्डलान्मानुषं रूपं कृत्वा सर्वातिपेशलम् ।
अवातरत्तदाकाशात्समीपे तत्र मन्दिरे ॥ १९ ॥
उसने पूर्व दिशामें उदित होते हुए सूर्यको देखा और उस मन्त्रका उच्चारण करके उसने सूर्यका आवाहन किया । तब सूर्य अपने मण्डलसे अत्यन्त सुन्दर मनुष्यका रूप धारण करके आकाशसे कुन्तीके पास उस भवनमें उतर आये ॥ १८-१९ ॥

दृष्ट्वा देवं समायान्तं कुन्ती भानुं सुविस्मिता ।
वेपमाना रजोदोषं प्राप्ता सद्यस्तु भामिनी ॥ २० ॥
सूर्यदेवको आते हुए देखकर कुन्ती आश्चर्यचकित हो गयी । वह सुन्दरी काँपती हुई तत्काल रजोधर्मको प्राप्त हो गयी ॥ २० ॥

कृताञ्जलिः स्थिता सूर्यं बभाषे चारुलोचना ।
सुप्रीता दर्शनेनाद्य गच्छ त्वं निजमण्डलम् ॥ २१ ॥
उस समय सुन्दर नेत्रवाली कुन्ती हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी और सूर्यसे बोली-मैं आपके दर्शनसे प्रसन्न हो गयी; अब आप अपने मण्डलको चले जाइये ॥ २१ ॥

सूर्य उवाच
आहूतोऽस्मि कथं कुन्ति त्वया मन्त्रबलेन वै ।
न मां भजसि कस्मात्त्वं समाहूय पुरोगतम् ॥ २२ ॥
सूर्य बोले-हे कुन्ति ! तुमने मन्त्रबलसे मुझे क्यों बुलाया है ? तुम मुझे बुला करके भी अपने समक्ष उपस्थित मुझ सूर्यकी सेवा क्यों नहीं करती ? ॥ २२ ॥

कामार्तोऽस्म्यसितापाङ्‌गि भज मां भावसंयुतम् ।
मन्त्रेणाधीनतां प्राप्प्तं क्रीडितुं नय मामिति ॥ २३ ॥
हे चरुलोचने ! मैं इस समय कामात हूँ, अतः प्रेमके साथ मेरा सेवन करो । मन्त्रके द्वारा अधीनताको प्राप्त मुझको तुम विहार करनेके लिये ले चलो ॥ २३ ॥

कुन्त्युवाच
कन्यास्म्यहं तु धर्मज्ञ सर्वसाक्षिन्नमाम्यहम् ।
तवाप्यहं न दुर्वाच्या कुलकन्यास्मि सुव्रत ॥ २४ ॥
कुन्ती बोली-हे धर्मज्ञ ! मैं अभी कन्या हूँ । हे सर्वसाक्षिन् ! मैं आपको प्रणाम करती हूँ । हे सुव्रत ! आप मेरे प्रति अनुचित बातें न कहें; क्योंकि मैं कुलीन कन्या हूँ ॥ २४ ॥

सूर्य उवाच
लज्जा मे महती चाद्य यदि गच्छाम्यहं वृथा ।
वाच्यतां सर्वदेवानां यास्याम्यत्र न संशयः ॥ २५ ॥
सूर्य बोले-यदि मैं इस समय व्यर्थ लौट जाता हूँ तो मेरे लिये बड़ी लज्जाकी बात होगी और मैं सभी देवताओंमें निन्दाका पात्र बनूंगा; इसमें संशय नहीं है । ॥ २५ ॥

शप्स्यामि तं द्विजं चाद्य येन मन्त्रः समर्पितः ।
त्वां चापि सुभृशं कुन्ति नोचेन्मां त्वं भजिष्यसि ॥ २६ ॥
कन्याधर्मः स्थिरस्ते स्यान्न ज्ञास्यन्ति जनाः किल ।
मत्समस्तु तथा पुत्रो भविता ते वरानने ॥ २७ ॥
हे कुन्ति ! यदि तुम मेरे साथ रमण नहीं करोगी तो मैं तुम्हें तथा उस मुनिको शाप दे दूँगा, जिसने तुम्हें वह मन्त्र बताया है । हे सुन्दरि ! तुम्हारा कन्याधर्म स्थिर रहेगा । इस रहस्यको लोग नहीं जान सकेंगे तथा हे वरानने ! मेरे समान ही तेजस्वी पुत्र तुमको प्राप्त होगा ॥ २६-२७ ॥

इत्युक्त्वा तरणिः कुन्तीं तन्मनस्कां सुलज्जिताम् ।
भुक्त्वा जगाम देवेशो वरं दत्त्वातिवाञ्छितम् ॥ २८ ॥
यह कहकर सूर्यदेव अपनी ओर आसक्त मनवाली एवं लज्जाशील उस कुन्तीसे संसर्ग करके तथा उसे मनोवांछित वरदान देकर चले गये ॥ २८ ॥

गर्भं दधार सुश्रोणी सुगुप्ते मन्दिरे स्थिता ।
धात्री वेद प्रिया चैका न माता न जनस्तथा ॥ २९ ॥
इस प्रकार उस सुश्रोणी कुन्तीने गर्भ धारण किया और वह अत्यन्त गुप्त भवनमें रहने लगी । केवल उसकी एक प्रिय दासी ही इस रहस्यको जानती थी, कुन्तीके माता-पिता भी इसे नहीं जानते थे ॥ २९ ॥

गुप्तः सद्मनि पुत्रस्तु जातश्चातिमनोहरः ।
कवचेनातिरम्येण कुण्डलाभ्यां समन्वितः ॥ ३० ॥
द्वितीय इव सूर्यस्तु कुमार इव चापरः ।
करे कृत्वाथ धात्रेयी तामुवाच सुलज्जिताम् ॥ ३१ ॥
कां चिन्तां करभोरु त्वमाधत्सेऽद्य स्थितास्म्यहम् ।
यथासमय उसी गुप्त भवनमें कुन्तीको एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सुन्दर कवच तथा दो कुण्डलोंसे युक्त था और दूसरे सूर्य तथा कुमार कार्तिकेयके समान प्रतीत हो रहा था । धात्रीने उसे अपने हाथमें उठाकर लज्जायुक्त कुन्तीसे कहाहे सुन्दरि ! मैं यहाँ हूँ, अत: तुम किस बातकी चिन्ता कर रही हो ? ॥ ३०-३१.५ ॥

मञ्जूषायां सुतं कुन्ती मुञ्चन्ती वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२ ॥
किं करोमि सुतार्ताहं त्यजे त्वां प्राणवल्लभम् ।
मन्दभाग्या त्यजामि त्वां सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ ३३ ॥
तत्पश्चात् काष्ठमंजूषामें पुत्रको छोड़ती हुई कुन्ती कहने लगी-हे पुत्र ! मैं क्या करूँ ? मैं अत्यन्त दुःखित हूँ, जो कि तुझ प्राणप्रियको त्याग रही हूँ । मैं अभागिन तुझ सर्वलक्षणसम्पन्नका परित्याग कर दे रही हूँ ॥ ३२-३३ ॥

पातुत्वां सगुणागुणा भगवती
     सर्वेश्वरी चाम्बिका
स्तन्यं सैव ददातु विश्वजननी
     कात्यायनीकामदा ।
द्रक्ष्येऽहंमुखपङ्कजं सुललितं
     प्राणप्रियार्हं कदा
त्यक्त्वा त्वां विजने वने रविसुतं
     दुष्टा यथास्वैरिणी ॥ ३४ ॥
सगुणा, निर्गुणा तथा सबकी स्वामिनी वे भगवती अम्बिका तुम्हारी रक्षा करें । वे जगजननी कामप्रदा कात्यायनी तुम्हें दुग्धपान करायें । हे पुत्र ! तुम साक्षात् सूर्यनारायणके पुत्र हो और मेरे प्राणप्रिय हो-ऐसे तुमको इस निर्जन वनमें एक दुष्ट तथा कुलटा स्त्रीकी भाँति छोड़कर मैं कब तुम्हारा अति सुन्दर मुखकमल देख पाऊँगी ॥ ३४ ॥

पूर्वस्मिन्नपि जन्मनि त्रिजगतां
     माता न चाराधिता
न ध्यातं पदपङ्कजं सुखकरं
     देव्याःशिवायाश्चिरम् ।
तेनाहं सुत दुर्भगास्मि सततं
     त्यक्त्वा पुनस्त्वां वने
तप्स्यामि प्रिय पातकं स्मृतवती
     बुद्ध्याकृतं यत्स्वयम् ॥ ३५ ॥
हे पुत्र ! प्रतीत होता है कि मैंने पूर्वजन्ममें भी तीनों लोकोंकी जननी भगवतीकी आराधना नहीं की थी तथा भगवती शिवाके सुखदायक चरणकमलका भी मैंने कभी ध्यान नहीं किया था । इसी कारण मैं सदा अभागिनी हूँ । हे प्रिय ! मैं तुम्हें इस वनमें त्यागकर जान-बूझकर स्वयं किये गये इस पापका स्मरण करती हुई सन्ताप सहूँगी ॥ ३५ ॥

सूत उवाव
इत्युक्त्या तं सुतं कुन्ती मञ्जूषायां धृतं किल ।
धात्रीहस्ते ददौ भीता जनदर्शनतस्तथा ॥ ३६ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार कहकर कुन्तीने मंजूषामें रखे हुए उस पुत्रको लोगोंकी दृष्टिसे बचाते हुए भयभीतभावसे धात्रीके हाथमें दे दिया ॥ ३६ ॥

स्नात्वा त्रस्ता तदा कुन्ती पितृवेश्मन्युवास सा ।
मञ्जूषा वहमाना च प्राप्ता ह्यधिरथेन वै ॥ ३७ ॥
राधा सूतस्य भार्या वै तयासौ प्रार्थितः सुतः ।
कर्णोऽभूद्‌बलवान्वीरः पालितः सूतसद्मनि ॥ ३८ ॥
। तत्पश्चात् स्नान करके भयभीत वह कुन्ती अपने पिताके घरमें रहने लगी । जलमें बहती हुई वह मंजूषा अधिरथ नामक सूतको प्राप्त हुई । उस सूतकी भार्या राधा थी । उसने बच्चेको माँग लिया । इस प्रकार सूतके घरमें पलकर वह कर्ण बलवान् तथा वीर हो गया ॥ ३७-३८ ॥

कुन्ती विवाहिता कन्या पाण्डुना सा स्वयम्वरे ।
माद्री चैवापरा भार्या मद्रराजसुता शुभा ॥ ३९ ॥
इसके बाद स्वयंवरमें कुन्तीका विवाह पाण्डुके साथ हुआ । उनकी दूसरी पत्नी मद्रदेशके राजाकी सुलक्षणा कन्या माद्री थी ॥ ३९ ॥

मृगयां रममाणस्तु वने पाण्डुर्महाबलः ।
जघान मृगबुद्ध्या तु रममाणं मुनिं वने ॥ ४० ॥
शप्तस्तेन तदा पाण्डुर्मुनिना कुपितेन च ।
स्त्रीसङ्गं यदि कर्तासि तदा ते मरणं धुवम् ॥ ४१ ॥
एक बार वनमें आखेट करनेमें तत्पर महाबली पाण्डुने मृग समझकर रमण करते हुए एक मुनिपर प्रहार कर दिया । तब उस कुपित मुनिने पाण्डुको शाप दे दिया कि यदि तुम स्त्रीके साथ संसर्ग करोगे तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है । ४०-४१ ॥

इति शप्तस्तु मुनिना पाण्डुः शोकसमन्वितः ।
त्यक्त्वा राज्यं वने वासं चकार भृशदुःखितः ॥ ४२ ॥
मुनिके यह शाप दे देनेपर पाण्डु शोकाकुल हो गये । वे राज्य त्यागकर अत्यन्त दुःखित हो वनमें रहने लगे ॥ ४२ ॥

कुन्ती माद्री च भार्ये द्वे जग्मतुः सह सङ्गते ।
सेवनार्थं सतीधर्मं संश्रिते मुनिसत्तमाः ॥ ४३ ॥
हे मुनिवरो ! उनकी दोनों पत्नियाँ माद्री और कुन्ती भी सतीधर्मका आश्रय लेकर उनकी सेवा करनेके लिये उनके साथ ही वनमें चली गयीं ॥ ४३ ॥

गङ्गातीरे स्थितः पाण्डुर्मुनीनामाश्रमेषु च ।
शृण्वानो धर्मशास्त्राणि चकार दुश्चरं तपः ॥ ४४ ॥
राजा पाण्डु गंगाजीके तटपर मुनियोंके आश्रमोंमें रहने लगे और धर्मशास्त्रोंका श्रवण करते हुए कठिन तपस्या करने लगे ॥ ४४ ॥

कथायां वर्तमानायां कदाचिद्धर्मसंश्रितम् ।
अशृणोद्वचनं राजा सुपृष्टं मुनिभाषितम् ॥ ४५ ॥
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गे गन्तुं परन्तप ।
येन केनाप्युपायेन पुत्रस्य जननं चरेत् ॥ ४६ ॥
किसी समय कथाप्रसंगमें सम्यक् प्रकारसे पूछनेपर किसी मुनिके द्वारा कहा गया यह धार्मिक वचन राजाने सुना-हे परन्तप ! अपुत्रकी गति नहीं होती; वह स्वर्ग जानेका अधिकारी नहीं होता अतएव जिस किसी भी उपायसे पुत्र उत्पन्न करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥

अंशजः पुत्रिकापुत्रः क्षेत्रजो गोलकस्तथा ।
कुण्डः सहोढः कानीनः क्रीतः प्राप्तस्तथा वने ॥ ४७ ॥
दत्तः केनापि चाशक्तौ धनग्राहिसुताः स्मृताः ।
उत्तरोत्तरतः पुत्रा निकृष्टा इति निश्चयः ॥ ४८ ॥
अंशज, पुत्रिकापुत्र, क्षेत्रज , गोलक, कुण्ड, सहोढ, कानीन, क्रीत, वनमें प्राप्त, पालन करने में असमर्थ किसीका दिया हुआ-इतने प्रकारके पुत्र पिताकी सम्पत्तिके उत्तराधिकारी कहे गये हैं, इनमें उत्तरोत्तर एक दूसरेसे निकृष्ट पुत्र हैं; यह सुनिश्चित है ॥ ४७-४८ ॥

इत्याकर्ण्य तदा प्राह कुन्तीं कमललोचनाम् ।
सुतमुत्पादयाशु त्वं मुनिं गत्वा तपोऽन्वितम् ॥ ४९ ॥
ममाज्ञया न दोषस्ते पुरा राज्ञा महात्मना ।
वसिष्ठाज्जनितः पुत्रः सौदासेनेति मे श्रुतम् ॥ ५० ॥
- यह सुनकर राजा पाण्डुने कमलके समान नेत्रवाली कुन्तीसे कहा-तुम किसी तपोनिष्ठ मुनिके पास जाकर शीघ्र पुत्र उत्पन्न करो । मेरी आज्ञा होनेके कारण तुम्हें दोष नहीं लगेगा । मैंने सुना है कि पूर्वकालमें महात्मा राजा सौदासने वसिष्ठसे पुत्र उत्पन्न कराया था ॥ ४९-५० ॥

तं कुन्ती वचनं प्राह मम मन्त्रोऽस्ति कामदः ।
दत्तो दुर्वाससा पूर्वं सिद्धिदः सर्वथा प्रभो ॥ ५१ ॥
कुन्ती उनसे यह वचन बोली-सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाला एक मन्त्र मेरे पास है । हे प्रभो ! पूर्वकालमें महर्षि दुर्वासाने सिद्धि प्रदान करनेवाला वह मन्त्र मुझे प्रदान किया था ॥ ५१ ॥

निमन्त्रयेऽहं यं देवं मन्त्रेणानेन पार्थिव ।
आगच्छेत्सर्वथासौ वै मम पार्श्वं निमन्त्रितः ॥ ५२ ॥
हे राजन् ! मैं इस मन्त्रद्वारा जिस देवताका आवाहन करूँगी, वह निमन्त्रित होकर निश्चय ही मेरे पास आ जायगा ॥ ५२ ॥

भर्तुर्वाक्येन सा तत्र स्मृत्वा धर्मं सुरोत्तमम् ।
सङ्गम्य सुषुवे पुत्रं प्रथमं च युधिष्ठिरम् ॥ ५३ ॥
पतिकी आज्ञासे वहाँ कुन्तीने देवताओंमें श्रेष्ठ धर्मराजका स्मरण करके उनके संयोगसे सर्वप्रथम युधिष्ठिरको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया ॥ ५३ ॥

वायोर्वृकोदरं पुत्रं जिष्णुं चैव शतक्रतोः ।
वर्षे वर्षे त्रयः पुत्राः कुन्त्या जाता महाबलाः ॥ ५४ ॥
तत्पश्चात् उसने वायुके द्वारा भीमको और इन्द्रके द्वारा अर्जुनको उत्पन्न किया । इस प्रकार एकएक वर्षके अन्तरालमें कुन्तीके तीन महाबली पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५४ ॥

माद्री प्राह पतिं पाण्डुं पुत्रं मे कुरु सत्तम ।
किं करोमि महाराज दुःखं नाशय मे प्रभो ॥ ५५ ॥
इसके बाद माद्रीने भी अपने पति पाण्डसे कहा-हे श्रेष्ठ ! मुझे भी पुत्र प्रदान कीजिये । हे महाराज ! मैं क्या करूँ ? हे प्रभो ! मेरा दुःख दूर कीजिये ॥ ५५ ॥

प्रार्थिता पतिना कुन्ती ददौ मन्त्रं दयान्विता ।
एकपुत्रप्रबन्धेन माद्री पतिमते स्थिता ॥ ५६ ॥
स्मृत्वा तदाश्विनौ देवौ मद्रराजसुता सुतौ ।
नकुलः सहदेवश्च सुषुवे वरवर्णिनी ॥ ५७ ॥
तब पति पाण्डुके प्रार्थना करनेपर दयालु कुन्तीने वह मन्त्र माद्रीको बता दिया । सुन्दरी माद्रीने भी एक पुत्रकी प्राप्तिके लिये पतिसे अनुमति पाकर अश्विनीकुमारोंका स्मरण करके नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५६-५७ ॥

एवं ते पाण्डवाः पञ्च क्षेत्रोत्पन्ताः सुरात्मजाः ।
वर्षवर्षान्तरे जाता वने तस्मिन्द्विजोत्तमाः ॥ ५८ ॥
हे मुनिवरो ! इस प्रकार वे पाँचों पाण्डव देवताओंके पुत्र थे । वे क्षेत्रज पुत्रके रूपमें उस वनमें क्रमशः एक-एक वर्षके अन्तरसे उत्पन्न हुए । ५८ ॥

एकस्मिन्समये पाण्डुर्माद्रीं दृष्ट्वाथ निर्जने ।
आश्रमे चातिकामार्तो जग्राहागतवैशसः ॥ ५९ ॥
मा मा मा मेति बहुधा निषिद्धोऽपितया भृशम् ।
आलिलिङ्ग प्रियां दैवात्पपात धरणीतले ॥ ६० ॥
एक बार राजा पाण्डुने माद्रीको निर्जन आश्रममें देखकर अपनी मृत्यु निकट आयी होनेके कारण अत्यन्त कामातुर हो पकड़ लिया । माद्रीके द्वारा नहीं-नहीं'-ऐसा कहकर बार-बार निषेध करनेपरभी उन्होंने बलपूर्वक अपनी उस प्रियाका आलिंगन कर लिया और वे दैववश [शापके कारण] पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ५९-६० ॥

यथा वृक्षगता वल्ली छिन्ने पतति वै द्रुमे ।
तथा सा पतिता बाला कुर्वन्ती रोदनं बहु ॥ ६१ ॥
जैसे वृक्षपर चढ़ी हुई लता वृक्षके कट जानेपर गिर पड़ती है, वैसे ही वह रानी माद्री भी बहुत रुदन करती हुई गिर पड़ी ॥ ११ ॥

प्रत्यागता तदा कुन्ती रुदती बालकास्तथा ।
मुनयश्च महाभागाः श्रुत्वा कोलाहलं तदा ॥ ६२ ॥
उस समय कोलाहल सुनकर रोती हुई कुन्ती, सभी बालक और महाभाग मुनिगण भी वहाँ आ गये ॥ ६२ ॥

मृतः पाण्डुस्तदा सर्वे मुनयः संशितव्रताः ।
सहाग्निभिर्विधिं कृत्वा गङ्गातीरे तदादहन् ॥ ६३ ॥
चक्रे सहैव गमनं माद्री दत्त्वा सुतौ शिशू ।
कुन्त्यै धर्मं पुरस्कृत्य सतीनां सत्यकामतः ॥ ६४ ॥
इस प्रकार जब पाण्डु मर गये, तब सभी व्रतधारी मुनियोंने गंगाके तटपर चिता लगाकर उनका दाह-संस्कार कर दिया । तत्पश्चात् अपने दोनों पुत्र कुन्तीको सौंप करके सती-धर्मका पालन करते हुए वह माद्री सत्यकी कामनासे उनके साथ ही सती हो गयी ॥ ६३-६४ ॥

जलदानादिकं कृत्वा मुनयस्तत्र वासिनः ।
पञ्चपुत्रयुतां कुन्तीमनयन्हस्तिनापुरम् ॥ ६५ ॥
वहाँके निवासी मुनिगण जलांजलि आदि देकर पाँचों पुत्रोंसहित कुन्तीको हस्तिनापुर ले आये ॥ ६५ ॥

तां प्राप्तां च समाज्ञाय गाङ्गेयो विदुरस्तथा ।
नगरीं धृतराष्ट्रस्य सर्वे तत्र समाययुः ॥ ६६ ॥
धृतराष्ट्रकी नगरी हस्तिनापुरमें कुन्तीके आनेका समाचार पाकर भीष्म, विदुर आदि सभी लोग वहाँ आ पहुँचे ॥ ६६ ॥

पप्रच्छुश्च जनाः सर्वे कस्य पुत्रा वरानने ।
पाण्डोः शापं समाज्ञाय कुन्ती दुःखान्विता तदा ॥ ६७ ॥
तानुवाच सुराणां वै पुत्राः कुरुकुलोद्‌भवाः ।
विश्वासार्थं समाहूताः कुन्त्या सर्वे सुरास्तदा ॥ ६८ ॥
आगत्य खे तदा तैस्तु कथितं नः सुताः किल ।
भीष्मेण सत्कृतं वाक्यं देवानां सत्कृताः सुताः ॥ ६९ ॥
सभी लोगोंने कुन्तीसे पूछा-हे सुमुखि ! ये किसके पुत्र हैं ? तब कुन्ती अत्यन्त दुःखित होकर पाण्डुकी शापजन्य मृत्युका उल्लेख करके बोलीकुरुवंशमें उत्पन्न हुए ये सब बालक देवताओंके पुत्र हैं । उन्हें विश्वास दिलानेके लिये कुन्तीने उस समय सभी देवताओंका आह्वान भी किया, तब उन देवताओंने आकाशमें प्रकट होकर कहा-ये पाँचों निःसन्देह हमलोगोंके पुत्र हैं । भीष्मने देवताओंके वचनका अनुमोदन किया तथा कुन्तीके पाँचों पुत्रोंका स्वागत किया ॥ ६७-६९ ॥

गता नागपुरं सर्वे तानादाय सुतान्वधूम् ।
भीष्मादयः प्रीतचित्ताः पालयामासुरर्थतः ॥ ७० ॥
एवं पार्थाः समुत्पन्ना गाङ्गेयेनाथ पालिताः ॥ ७१ ॥
तत्पश्चात् उन पुत्रों तथा वधू कुन्तीको लेकर भीष्म आदि सभी लोग हस्तिनापुर चले गये और प्रसन्नचित्त होकर प्रयत्नपूर्वक उनका पालन-पोषण करने लगे । इस प्रकार पाण्डव उत्पन्न हुए और | भीष्मने उनका परिपालन किया ॥ ७०-७१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे युधिष्ठिरादीनामुत्पत्तिवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
छठा अध्याय समाप्त


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