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युधिष्ठिरादीनामुत्पत्तिवर्णनम् -
दुर्वासाका कुन्तीको अमोघ कामद मन्त्र देना, मन्त्रके प्रभावसे कन्यावस्थामें ही कर्णका जन्म, कुन्तीका राजा पाण्डुसे विवाह, शापके कारण पाण्डुका सन्तानोत्पादनमें असमर्थ होना, मन्त्र-प्रयोगसे कुन्ती और माद्रीका पुत्रवती होना, पाण्डुकी मृत्यु और पाँचों पुत्रोंको लेकर कुन्तीका हस्तिनापुर आना -
सूत उवाच एवं सत्यवती तेन वृता शन्तनुना किल । द्वौ पुत्रौ च तया जातौ मृतौ कालवशादपि ॥ १ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकार उन शन्तनुने सत्यवतीसे विवाह कर लिया । उसको [चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक] दो पुत्र उत्पन्न हुए और कालवश वे दोनों मृत्युको भी प्राप्त हो गये ॥ १ ॥
व्यासवीर्यात्तु सञ्जातो धृतराष्ट्रोऽन्ध एव च । मुनिं दृष्ट्वाथ कामिन्या नेत्रसम्मीलने कृते ॥ २ ॥
पुन: व्यासजीके तेजसे धृतराष्ट्र उत्पन्न हुए, जो जन्मसे ही अन्धे थे; क्योंकि मुनिको देखकर उस स्त्रीने अपने नेत्र बन्द कर लिये थे ॥ २ ॥
श्वेतरूपा यतो जाता दृष्ट्वा व्यासं नृपात्मजा । व्यासकोपात्समुत्पन्नः पाण्डुस्तेन न संशयः ॥ ३ ॥
तत्पश्चात् छोटी रानी व्यासजीको देखकर पीली पड़ गयी, जिससे व्यासजीके कोपके कारण उससे पीतवर्ण पाण्डुका जन्म हुआ । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥
निपुण दासीने व्यासजीको सन्तुष्ट किया, जिसके परिणामस्वरूप धर्मके अंश, सत्यवादी तथा पवित्र विचारवाले विदुर उत्पन्न हुए ॥ ४ ॥
राज्ये संस्थापितः पाण्डुः कनीयानपि मन्त्रिभिः । अन्धत्वाद्धृतराष्ट्रोऽसौ नाधिकारे नियोजितः ॥ ५ ॥ भीष्मस्यानुमते राज्यं प्राप्तः पाण्डुर्महाबलः । विदुरोऽप्यथ मेधावी मन्त्रकार्ये नियोजितः ॥ ६ ॥
[बड़े होनेपर भी] अन्धे होनेके कारण धृतराष्ट्रको राज्य नहीं दिया गया और छोटे होते हुए भी पाण्डुको ही मन्त्रियोंने राजसिंहासनपर अभिषिक्त किया । भीष्मकी सम्मतिसे ही महाबली पाण्डुको राज्य प्राप्त हुआ तथा प्रतिभासम्पन्न विदुरजी मन्त्रणाकार्यमें नियुक्त किये गये ॥ ५-६ ॥
धृतराष्ट्रस्य द्वे भार्ये गान्धारी सौबली स्मृता । द्वितीया च तथा वैश्या गार्हस्त्येषु प्रतिष्ठिता ॥ ७ ॥
धृतराष्ट्रकी दो स्त्रियाँ थीं । उनमें पहली सुबलपुत्री गान्धारी कही गयी है और दूसरी एक वैश्यपुत्री थी, जो गृहकार्यों में प्रतिष्ठित की गयी थी ॥ ७ ॥
पाण्डोरपि तथा पत्न्यौ द्वे प्रोक्ते वेदवादिभिः । शौरसेनी तथा कुन्ती माद्री च मद्रदेशजा ॥ ८ ॥
वेदवादी विद्वानोंने पाण्डुकी भी दो पत्नियाँ बतायी हैं । एक शूरसेनकी पुत्री कुन्ती और दूसरी मद्रदेशकी राजकुमारी माद्री ॥ ८ ॥
ऋषिगण बोले-हे मुनिवर सूतजी ! आप यह कैसी आश्चर्यजनक बात बता रहे हैं ? पहले पुत्र उत्पन्न हुआ और बादमें पाण्डुके साथ कुन्तीका विवाह हुआ ! ॥ ११ ॥
सूर्यात्कर्णः कथं जातः कन्यायां वद विस्तरात् । कन्या कथं पुनर्जाता पाण्डुना सा विवाहिता ॥ १२ ॥
सूर्यके द्वारा कन्या कुन्तीसे कर्णकी उत्पत्ति कैसे हुई ? वह कुन्ती पुनः कन्या कैसे रह गयी, जो पाण्डुके साथ उसका विवाह हो गया । यह आप विस्तारपूर्वक बताइये ॥ १२ ॥
सूतजी बोले-हे द्विजगण ! शूरसेनकी वह पुत्री कुन्ती जब शिशु थी, तभी राजा कुन्तिभोजने उस सुन्दर कन्याको माँग लिया था । उन्होंने उस चारुहासिनी कन्याको अपनी पुत्री बनाकर रखा और उसे अग्निहोत्रके काममें नियुक्त कर दिया ॥ १३-१४ ॥
एक बार महर्षि दुर्वासा वहाँ आ पहुँचे और चातुर्मास्यके लिये वहीं रहने लगे । कुन्तीने उनकी सेवा की, जिससे मुनिवर सन्तुष्ट हुए और उसको एक ऐसे मन्त्रका उपदेश दिया, जिसके प्रयोगसे आवाहित किये गये देवता स्वयं उपस्थित होंगे और उसकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे ॥ १५-१६ ॥
गते मुनौ ततः कुन्ती निश्चयार्थं गृहे स्थिता । चिन्तयामास मनसा कं सुरं समचिन्तये ॥ १७ ॥
दुर्वासामुनिके वहाँसे चले जानेपर अपने गृहमें बैठी हुई कुन्ती उस मन्त्रको परीक्षाके लिये मनमें सोचने लगी कि मैं किस देवताका ध्यान करूँ ? ॥ १७ ॥
उदितश्च तदा भानुस्तया दृष्टो दिवाकरः । मन्त्रोच्चारं तया कृत्वा चाहूतस्तिग्मगुस्तदा ॥ १८ ॥ मण्डलान्मानुषं रूपं कृत्वा सर्वातिपेशलम् । अवातरत्तदाकाशात्समीपे तत्र मन्दिरे ॥ १९ ॥
उसने पूर्व दिशामें उदित होते हुए सूर्यको देखा और उस मन्त्रका उच्चारण करके उसने सूर्यका आवाहन किया । तब सूर्य अपने मण्डलसे अत्यन्त सुन्दर मनुष्यका रूप धारण करके आकाशसे कुन्तीके पास उस भवनमें उतर आये ॥ १८-१९ ॥
हे चरुलोचने ! मैं इस समय कामात हूँ, अतः प्रेमके साथ मेरा सेवन करो । मन्त्रके द्वारा अधीनताको प्राप्त मुझको तुम विहार करनेके लिये ले चलो ॥ २३ ॥
कुन्त्युवाच कन्यास्म्यहं तु धर्मज्ञ सर्वसाक्षिन्नमाम्यहम् । तवाप्यहं न दुर्वाच्या कुलकन्यास्मि सुव्रत ॥ २४ ॥
कुन्ती बोली-हे धर्मज्ञ ! मैं अभी कन्या हूँ । हे सर्वसाक्षिन् ! मैं आपको प्रणाम करती हूँ । हे सुव्रत ! आप मेरे प्रति अनुचित बातें न कहें; क्योंकि मैं कुलीन कन्या हूँ ॥ २४ ॥
सूर्य उवाच लज्जा मे महती चाद्य यदि गच्छाम्यहं वृथा । वाच्यतां सर्वदेवानां यास्याम्यत्र न संशयः ॥ २५ ॥
सूर्य बोले-यदि मैं इस समय व्यर्थ लौट जाता हूँ तो मेरे लिये बड़ी लज्जाकी बात होगी और मैं सभी देवताओंमें निन्दाका पात्र बनूंगा; इसमें संशय नहीं है । ॥ २५ ॥
शप्स्यामि तं द्विजं चाद्य येन मन्त्रः समर्पितः । त्वां चापि सुभृशं कुन्ति नोचेन्मां त्वं भजिष्यसि ॥ २६ ॥ कन्याधर्मः स्थिरस्ते स्यान्न ज्ञास्यन्ति जनाः किल । मत्समस्तु तथा पुत्रो भविता ते वरानने ॥ २७ ॥
हे कुन्ति ! यदि तुम मेरे साथ रमण नहीं करोगी तो मैं तुम्हें तथा उस मुनिको शाप दे दूँगा, जिसने तुम्हें वह मन्त्र बताया है । हे सुन्दरि ! तुम्हारा कन्याधर्म स्थिर रहेगा । इस रहस्यको लोग नहीं जान सकेंगे तथा हे वरानने ! मेरे समान ही तेजस्वी पुत्र तुमको प्राप्त होगा ॥ २६-२७ ॥
यह कहकर सूर्यदेव अपनी ओर आसक्त मनवाली एवं लज्जाशील उस कुन्तीसे संसर्ग करके तथा उसे मनोवांछित वरदान देकर चले गये ॥ २८ ॥
गर्भं दधार सुश्रोणी सुगुप्ते मन्दिरे स्थिता । धात्री वेद प्रिया चैका न माता न जनस्तथा ॥ २९ ॥
इस प्रकार उस सुश्रोणी कुन्तीने गर्भ धारण किया और वह अत्यन्त गुप्त भवनमें रहने लगी । केवल उसकी एक प्रिय दासी ही इस रहस्यको जानती थी, कुन्तीके माता-पिता भी इसे नहीं जानते थे ॥ २९ ॥
गुप्तः सद्मनि पुत्रस्तु जातश्चातिमनोहरः । कवचेनातिरम्येण कुण्डलाभ्यां समन्वितः ॥ ३० ॥ द्वितीय इव सूर्यस्तु कुमार इव चापरः । करे कृत्वाथ धात्रेयी तामुवाच सुलज्जिताम् ॥ ३१ ॥ कां चिन्तां करभोरु त्वमाधत्सेऽद्य स्थितास्म्यहम् ।
यथासमय उसी गुप्त भवनमें कुन्तीको एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सुन्दर कवच तथा दो कुण्डलोंसे युक्त था और दूसरे सूर्य तथा कुमार कार्तिकेयके समान प्रतीत हो रहा था । धात्रीने उसे अपने हाथमें उठाकर लज्जायुक्त कुन्तीसे कहाहे सुन्दरि ! मैं यहाँ हूँ, अत: तुम किस बातकी चिन्ता कर रही हो ? ॥ ३०-३१.५ ॥
तत्पश्चात् काष्ठमंजूषामें पुत्रको छोड़ती हुई कुन्ती कहने लगी-हे पुत्र ! मैं क्या करूँ ? मैं अत्यन्त दुःखित हूँ, जो कि तुझ प्राणप्रियको त्याग रही हूँ । मैं अभागिन तुझ सर्वलक्षणसम्पन्नका परित्याग कर दे रही हूँ ॥ ३२-३३ ॥
सगुणा, निर्गुणा तथा सबकी स्वामिनी वे भगवती अम्बिका तुम्हारी रक्षा करें । वे जगजननी कामप्रदा कात्यायनी तुम्हें दुग्धपान करायें । हे पुत्र ! तुम साक्षात् सूर्यनारायणके पुत्र हो और मेरे प्राणप्रिय हो-ऐसे तुमको इस निर्जन वनमें एक दुष्ट तथा कुलटा स्त्रीकी भाँति छोड़कर मैं कब तुम्हारा अति सुन्दर मुखकमल देख पाऊँगी ॥ ३४ ॥
पूर्वस्मिन्नपि जन्मनि त्रिजगतां माता न चाराधिता न ध्यातं पदपङ्कजं सुखकरं देव्याःशिवायाश्चिरम् । तेनाहं सुत दुर्भगास्मि सततं त्यक्त्वा पुनस्त्वां वने तप्स्यामि प्रिय पातकं स्मृतवती बुद्ध्याकृतं यत्स्वयम् ॥ ३५ ॥
हे पुत्र ! प्रतीत होता है कि मैंने पूर्वजन्ममें भी तीनों लोकोंकी जननी भगवतीकी आराधना नहीं की थी तथा भगवती शिवाके सुखदायक चरणकमलका भी मैंने कभी ध्यान नहीं किया था । इसी कारण मैं सदा अभागिनी हूँ । हे प्रिय ! मैं तुम्हें इस वनमें त्यागकर जान-बूझकर स्वयं किये गये इस पापका स्मरण करती हुई सन्ताप सहूँगी ॥ ३५ ॥
। तत्पश्चात् स्नान करके भयभीत वह कुन्ती अपने पिताके घरमें रहने लगी । जलमें बहती हुई वह मंजूषा अधिरथ नामक सूतको प्राप्त हुई । उस सूतकी भार्या राधा थी । उसने बच्चेको माँग लिया । इस प्रकार सूतके घरमें पलकर वह कर्ण बलवान् तथा वीर हो गया ॥ ३७-३८ ॥
इसके बाद स्वयंवरमें कुन्तीका विवाह पाण्डुके साथ हुआ । उनकी दूसरी पत्नी मद्रदेशके राजाकी सुलक्षणा कन्या माद्री थी ॥ ३९ ॥
मृगयां रममाणस्तु वने पाण्डुर्महाबलः । जघान मृगबुद्ध्या तु रममाणं मुनिं वने ॥ ४० ॥ शप्तस्तेन तदा पाण्डुर्मुनिना कुपितेन च । स्त्रीसङ्गं यदि कर्तासि तदा ते मरणं धुवम् ॥ ४१ ॥
एक बार वनमें आखेट करनेमें तत्पर महाबली पाण्डुने मृग समझकर रमण करते हुए एक मुनिपर प्रहार कर दिया । तब उस कुपित मुनिने पाण्डुको शाप दे दिया कि यदि तुम स्त्रीके साथ संसर्ग करोगे तो तुम्हारी मृत्यु निश्चित है । ४०-४१ ॥
किसी समय कथाप्रसंगमें सम्यक् प्रकारसे पूछनेपर किसी मुनिके द्वारा कहा गया यह धार्मिक वचन राजाने सुना-हे परन्तप ! अपुत्रकी गति नहीं होती; वह स्वर्ग जानेका अधिकारी नहीं होता अतएव जिस किसी भी उपायसे पुत्र उत्पन्न करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥
अंशज, पुत्रिकापुत्र, क्षेत्रज , गोलक, कुण्ड, सहोढ, कानीन, क्रीत, वनमें प्राप्त, पालन करने में असमर्थ किसीका दिया हुआ-इतने प्रकारके पुत्र पिताकी सम्पत्तिके उत्तराधिकारी कहे गये हैं, इनमें उत्तरोत्तर एक दूसरेसे निकृष्ट पुत्र हैं; यह सुनिश्चित है ॥ ४७-४८ ॥
इत्याकर्ण्य तदा प्राह कुन्तीं कमललोचनाम् । सुतमुत्पादयाशु त्वं मुनिं गत्वा तपोऽन्वितम् ॥ ४९ ॥ ममाज्ञया न दोषस्ते पुरा राज्ञा महात्मना । वसिष्ठाज्जनितः पुत्रः सौदासेनेति मे श्रुतम् ॥ ५० ॥
- यह सुनकर राजा पाण्डुने कमलके समान नेत्रवाली कुन्तीसे कहा-तुम किसी तपोनिष्ठ मुनिके पास जाकर शीघ्र पुत्र उत्पन्न करो । मेरी आज्ञा होनेके कारण तुम्हें दोष नहीं लगेगा । मैंने सुना है कि पूर्वकालमें महात्मा राजा सौदासने वसिष्ठसे पुत्र उत्पन्न कराया था ॥ ४९-५० ॥
कुन्ती उनसे यह वचन बोली-सभी कामनाएँ पूर्ण करनेवाला एक मन्त्र मेरे पास है । हे प्रभो ! पूर्वकालमें महर्षि दुर्वासाने सिद्धि प्रदान करनेवाला वह मन्त्र मुझे प्रदान किया था ॥ ५१ ॥
पतिकी आज्ञासे वहाँ कुन्तीने देवताओंमें श्रेष्ठ धर्मराजका स्मरण करके उनके संयोगसे सर्वप्रथम युधिष्ठिरको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया ॥ ५३ ॥
वायोर्वृकोदरं पुत्रं जिष्णुं चैव शतक्रतोः । वर्षे वर्षे त्रयः पुत्राः कुन्त्या जाता महाबलाः ॥ ५४ ॥
तत्पश्चात् उसने वायुके द्वारा भीमको और इन्द्रके द्वारा अर्जुनको उत्पन्न किया । इस प्रकार एकएक वर्षके अन्तरालमें कुन्तीके तीन महाबली पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ५४ ॥
माद्री प्राह पतिं पाण्डुं पुत्रं मे कुरु सत्तम । किं करोमि महाराज दुःखं नाशय मे प्रभो ॥ ५५ ॥
इसके बाद माद्रीने भी अपने पति पाण्डसे कहा-हे श्रेष्ठ ! मुझे भी पुत्र प्रदान कीजिये । हे महाराज ! मैं क्या करूँ ? हे प्रभो ! मेरा दुःख दूर कीजिये ॥ ५५ ॥
तब पति पाण्डुके प्रार्थना करनेपर दयालु कुन्तीने वह मन्त्र माद्रीको बता दिया । सुन्दरी माद्रीने भी एक पुत्रकी प्राप्तिके लिये पतिसे अनुमति पाकर अश्विनीकुमारोंका स्मरण करके नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न किये ॥ ५६-५७ ॥
एवं ते पाण्डवाः पञ्च क्षेत्रोत्पन्ताः सुरात्मजाः । वर्षवर्षान्तरे जाता वने तस्मिन्द्विजोत्तमाः ॥ ५८ ॥
हे मुनिवरो ! इस प्रकार वे पाँचों पाण्डव देवताओंके पुत्र थे । वे क्षेत्रज पुत्रके रूपमें उस वनमें क्रमशः एक-एक वर्षके अन्तरसे उत्पन्न हुए । ५८ ॥
एकस्मिन्समये पाण्डुर्माद्रीं दृष्ट्वाथ निर्जने । आश्रमे चातिकामार्तो जग्राहागतवैशसः ॥ ५९ ॥ मा मा मा मेति बहुधा निषिद्धोऽपितया भृशम् । आलिलिङ्ग प्रियां दैवात्पपात धरणीतले ॥ ६० ॥
एक बार राजा पाण्डुने माद्रीको निर्जन आश्रममें देखकर अपनी मृत्यु निकट आयी होनेके कारण अत्यन्त कामातुर हो पकड़ लिया । माद्रीके द्वारा नहीं-नहीं'-ऐसा कहकर बार-बार निषेध करनेपरभी उन्होंने बलपूर्वक अपनी उस प्रियाका आलिंगन कर लिया और वे दैववश [शापके कारण] पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ ५९-६० ॥
इस प्रकार जब पाण्डु मर गये, तब सभी व्रतधारी मुनियोंने गंगाके तटपर चिता लगाकर उनका दाह-संस्कार कर दिया । तत्पश्चात् अपने दोनों पुत्र कुन्तीको सौंप करके सती-धर्मका पालन करते हुए वह माद्री सत्यकी कामनासे उनके साथ ही सती हो गयी ॥ ६३-६४ ॥
सभी लोगोंने कुन्तीसे पूछा-हे सुमुखि ! ये किसके पुत्र हैं ? तब कुन्ती अत्यन्त दुःखित होकर पाण्डुकी शापजन्य मृत्युका उल्लेख करके बोलीकुरुवंशमें उत्पन्न हुए ये सब बालक देवताओंके पुत्र हैं । उन्हें विश्वास दिलानेके लिये कुन्तीने उस समय सभी देवताओंका आह्वान भी किया, तब उन देवताओंने आकाशमें प्रकट होकर कहा-ये पाँचों निःसन्देह हमलोगोंके पुत्र हैं । भीष्मने देवताओंके वचनका अनुमोदन किया तथा कुन्तीके पाँचों पुत्रोंका स्वागत किया ॥ ६७-६९ ॥
गता नागपुरं सर्वे तानादाय सुतान्वधूम् । भीष्मादयः प्रीतचित्ताः पालयामासुरर्थतः ॥ ७० ॥ एवं पार्थाः समुत्पन्ना गाङ्गेयेनाथ पालिताः ॥ ७१ ॥
तत्पश्चात् उन पुत्रों तथा वधू कुन्तीको लेकर भीष्म आदि सभी लोग हस्तिनापुर चले गये और प्रसन्नचित्त होकर प्रयत्नपूर्वक उनका पालन-पोषण करने लगे । इस प्रकार पाण्डव उत्पन्न हुए और | भीष्मने उनका परिपालन किया ॥ ७०-७१ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे युधिष्ठिरादीनामुत्पत्तिवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥