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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
सप्तमोऽध्यायः

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पाण्डवानां कथानकं मृतानां दर्शनवर्णनम् -
धृतराष्ट्रका युधिष्ठिरसे दुर्योधनके पिण्डदानहेतु धन माँगना, भीमसेनका प्रतिरोध; धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती, विदुर और संजयका वनके लिये प्रस्थान, वनवासी धृतराष्ट्र तथा माता कुन्तीसे मिलनेके लिये युधिष्ठिरका भाइयोंके साथ वनगमन, विदुरका महाप्रयाण, धृतराष्ट्रसहित पाण्डवोंका व्यासजीके आश्रमपर आना, देवीकी कृपासे व्यासजीद्वारा महाभारत-युद्धमें मरे कौरवों-पाण्डवोंके परिजनोंको बुला देना -


सूत उवाच
पञ्चानां द्रौपदी भार्या सा मान्या सा पतिव्रता ।
पञ्च पुत्रास्तु तस्याः स्युर्भर्तृभ्योऽतीव सुन्दराः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनिगण !] माननीया द्रौपदी उन पाँचों पाण्डवोंकी पतिव्रता पत्नी थी । उन द्रौपदीको अत्यन्त सुन्दर पाँच पुत्र उन पतियोंसे उत्पन्न हुए ॥ १ ॥

अर्जुनस्य तथा भार्या कृष्णस्य भगिनी शुभा ।
सुभद्रा या हृता पूर्वं जिष्णुना हरिसम्मते ॥ २ ॥
अर्जुनकी एक दूसरी सुन्दर पत्नी श्रीकृष्णकी बहन सुभद्रा थीं, जिन्हें अर्जुनने पूर्वकालमें भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे हर लिया था ॥ २ ॥

तस्यां जातो महावीरो निहतोऽसौ रणाजिरे ।
अभिमन्युर्हतास्तत्र द्रौपद्याश्च सुताः किल ॥ ३ ॥
उन्हीं सुभद्राके गर्भसे महान् वीर अभिमन्युका जन्म हुआ । वह संग्राम-भूमिमें मारा गया था । उसी युद्धमें द्रौपदीके पाँचों पुत्र भी मारे गये थे ॥ ३ ॥

अभिमन्योर्वरा भार्या वैराटी चातिसुन्दरी ।
कुलान्ते सुषुवे पुत्रं मृतो बाणाग्निना शिशुः ॥ ४ ॥
जीवितः स तु कृष्णेन भागिनेयसुतः स्वयम् ।
द्रौणिबाणाग्निनिर्दग्धः प्रतापेनाद्‌भुतेन च ॥ ५ ॥
वीर अभिमन्युकी श्रेष्ठ तथा अत्यन्त सुन्दर पत्नी महाराज विराटकी पुत्री उत्तरा थी । [महाभारतके युद्धमें] कुरुकुलका नाश हो जानेपर उसने एक पुत्र उत्पन्न किया था; वह द्रोणपुत्र अश्वत्थामाकी बाणाग्निसे [पहले गर्भ में ही] मर गया था, किंतु बादमें भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामाकी बाणाग्निसे निर्दग्ध अपने भांजेके पुत्रको अपने अद्भुत प्रतापसे पुनः जीवित कर दिया था ॥ ४-५ ॥

परिक्षीणेषु वंशेषु जातो यस्माद्वरः सुतः ।
तस्मात्परीक्षितो नाम विख्यातः पृथिवीतले ॥ ६ ॥
कुरुवंशके समाप्त होनेपर वह श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ था; इसलिये वह बालक 'परीक्षित्' नामसे पृथ्वीतलपर प्रसिद्ध हुआ ॥ ६ ॥

निहतेषु च पुत्रेषु धृतराष्ट्रोऽतिदुःखितः ।
तस्थौ पाण्डवराज्ये च भीमवाग्बाणपीडितः ॥ ७ ॥
गान्धारी च तथातिष्ठत् पुत्रशोकातुरा भृशम् ।
सेवां तयोर्दिवारात्रं चकारार्तो युधिष्ठिरः ॥ ८ ॥
अपने सौ पुत्रोंके मारे जानेपर अत्यन्त दुःखित राजा धृतराष्ट्र भीमके वाग्बाणोंसे सन्तप्त रहते हुए अब पाण्डवोंके राज्यमें रहने लगे । वैसे ही गान्धारी भी अत्यन्त दुःखी होकर जीवन-यापन करने लगी । दुःखित युधिष्ठिर दिन-रात उन दोनोंकी सेवा करने लगे ॥ ७-८ ॥

विदुरोऽप्यतिधर्मात्मा प्रज्ञानेत्रमबोधयत् ।
युधिष्ठिरस्यानुमते भ्रातृपार्श्वे व्यतिष्ठत ॥ ९ ॥
महान् धर्मात्मा विदुर युधिष्ठिरकी अनुमतिसे अपने भाई धृतराष्ट्रके पासमें ही रहते थे और वे उन प्रज्ञाचक्षुको समझाते-बुझाते रहते थे ॥ ९ ॥

धर्मपुत्रोऽपि धर्मात्मा चकार सेवनं पितुः ।
पुत्रशोकोद्‌भवं दुःखं तस्य विस्मारयन्निव ॥ १० ॥
धर्मपुत्र धर्मात्मा युधिष्ठिर भी अपने पितातुल्य धृतराष्ट्रके पुत्रशोकजनित दुःखको विस्मारित कराते हुए उनकी सेवा करने लगे ॥ १० ॥

यथा शृणोति वृद्धोऽसौ तथा भीमोऽतिरोषितः ।
वारबाणेनाहनत्तं तु श्रावयन्संस्थिताञ्जनान् ॥ ११ ॥
मया पुत्रा हताः सर्वे दुष्टस्यान्धस्य ते रणे ।
दुःशासनस्य रुधिरं पीतं हृद्यं तथा भृशम् ॥ १२ ॥
भुनक्ति पिण्डमन्धोऽयं मया दत्तं गतत्रपः ।
ध्वांक्षवद्वा श्ववच्चापि वृथा जीवत्यसौ जनः ॥ १३ ॥
जिस किसी भी प्रकार यह वृद्ध धृतराष्ट्र सुन ले [यह ध्यानमें रखकर] भीम अत्यन्त क्रोधित होकर अपने वचनरूपी बाणोंसे उनपर सर्वदा प्रहार किया करते थे । वहाँ उपस्थित लोगोंको सुना-सुनाकर भीम कहा करते थे कि मैंने इस दुष्ट अन्धके सभी पुत्रोंको रणभूमिमें मार डाला और दुःशासनके हृदयका रक्त जी-भरके पी लिया है । अब यह अन्धा निलंज होकर मेरे दिये हुए पिण्डको कौओं एवं कुत्तोंकी भाँति खाता है । अब तो यह व्यर्थ ही जीवन बिता रहा है ॥ ११-१३ ॥

एवंविधानि रूक्षाणि श्रावयत्यनुवासरम् ।
आश्वासयति धर्मात्मा मूर्खोऽयमिति च ब्रुवन् ॥ १४ ॥
भीम इस प्रकारकी कठोर बातें प्रतिदिन उन्हें सुनाते थे; परंतु धर्मात्मा युधिष्ठिर यह कहते हुए धृतराष्ट्रको धैर्य प्रदान करते थे कि यह भौम मूर्ख है ॥ १४ ॥

अष्टादशैव वर्षाणि स्थित्वा तत्रैव दुःखितः ।
धृतराष्ट्रो वने यानं प्रार्थयामास धर्मजम् ॥ १५ ॥
अयाचत धर्मपुत्रं धृतराष्ट्रो महीपतिः ।
पुत्रेभ्योऽहं ददाम्यद्य निर्वापं विधिपूर्वकम् ॥ १६ ॥
वृकोदरेण सर्वेषां कृतमत्रौर्ध्वदैहिकम् ।
न कृतं मम पुत्राणां पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥ १७ ॥
ददासि चेद्धनं मह्यं कृत्वा चैवोर्ध्वदैहिकम् ।
गमिष्येऽहं वनं तप्तुं तपः स्वर्गफलप्रदम् ॥ १८ ॥
इस प्रकार उस दु:खी धृतराष्ट्रने अठारह वर्षतक वहाँ रहकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे वनमें जानेकी इच्छा प्रकट की । महाराज धृतराष्ट्रने धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे यह भी प्रार्थना की कि अब मैं अपने पुत्रोंके लिये विधिपूर्वक पिण्डदान करूंगा । यद्यपि भीमने सभीका औदैहिककर्म कर दिया था, किंतु पूर्व वैरका स्मरण करते हुए उन्होंने मेरे पुत्रोंका नहीं किया । अत: यदि आप मुझे कुछ धन दें तो मैं अपने पुत्रोंका औदैहिककर्म करके स्वर्गफल देनेवाला तप करनेके लिये वनमें चला जाऊँगा ॥ १५-१८ ॥

एकान्ते विदुरेणोक्तो राजा धर्मसुतः शुचिः ।
धनं दातुं मनश्चक्रे धृतराष्ट्राय चार्थिने ॥ १९ ॥
समाहूय निजान्मर्वानुवाच पृथिवीपतिः ।
धनं दास्ये महाभागाः पित्रे निर्वापकामिने ॥ २० ॥
विदुरने भी एकान्तमें पवित्रात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे जब ऐसा कहा तब उन्होंने धनार्थी धृतराष्ट्रको धन देनेका निश्चय कर लिया । राजा युधिष्ठिरने परिवारके सभी जनोंको बुलाकर कहा-हे महाभाग ! मैं कौरवोंका श्राद्ध करनेके इच्छुक ज्येष्ठ पिताको धन प्रदान करूंगा ॥ १९-२० ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं भ्रातुर्न्येष्ठस्यामिततेजसः ।
संग्रहेऽस्य महाबाहुर्मारुतिः कुपितोऽब्रवीत् ॥ २१ ॥
धनं देयं महाभाग दुर्योधनहिताय किम् ।
अन्धोऽपि सुखमाप्नोति मूर्खत्वं किमतः परम् ॥ २२ ॥
महातेजस्वी ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिरका वचन सुनकर वायुपुत्र महाबली भीमने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा-हे महाभाग ! दुर्योधनके कल्याणके लिये राजकोषका धन क्यों दिया जाय ? इससे अन्धे धृतराष्ट्रको भी सुख मिलेगा; इससे बड़ी मूर्खता और क्या होगी ? ॥ २१-२२ ॥

तव दुर्मन्त्रितेनाथ दुःखं प्राप्ता वने वयम् ।
द्रौपदी च महाभागा समानीता दुरात्मना ॥ २३ ॥
आपकी दूषित मन्त्रणाके फलस्वरूप ही हमलोगोंने वनवासका कठोर कष्ट सहा । दुरात्मा | दुःशासन महारानी द्रौपदीको अपमानपूर्वक सभाम खींच लाया ॥ २३ ॥

विराटभवने वासः प्रसादात्तव सुव्रत ।
दासत्वं च कृतं सर्वैर्मत्स्यस्यामितविक्रमैः ॥ २४ ॥
हे सुव्रत ! आपकी कृपासे ही हमलोगोंको विराट राजाके घर रहना पड़ा तथा हम अमित पराक्रमवालोंको मत्स्यदेशके राजाकी दासता करनी पड़ी थी ॥ २४ ॥

देविता त्वं न चेज्ज्येष्ठः प्रभवेत्संक्षयः कथम् ।
सूपकारो विराटस्य हत्वाभूवं तु मागधम् ॥ २५ ॥
हम सबमें ज्येष्ठ आप यदि जुआ न खेलते तो हम लोगोंकी दुर्गति क्यों होती ? मगधनरेश जरासंधका वध करनेवाले मुझको राजा विराटके यहाँ रसोइया बनना पड़ा ॥ २५ ॥

बृहन्नला कथं जिष्णुर्भवेद्‌बालस्य नर्तकः ।
कृत्वा वेषं महाबाहुर्योषाया वासवात्मजः ॥ २६ ॥
गाण्डीवशोभितौ हस्तौ कृतौ कङ्कणशोभितौ ।
मानुषं च वपुः प्राप्य किं दुःखं स्यादतः परम् ॥ २७ ॥
दृष्ट्वा वेणीं कृतां मूर्ध्नि कज्जलं लोचने तथा ।
असिं गृहीत्वा तरसा छेद्म्यहं नान्यथा सुखम् ॥ २८ ॥
आपके ही कारण इन्द्रपुत्र महाबाहु अर्जुनको विराट राजाके यहाँ स्त्रीका रूप धारण करके उनके बच्चोंको नृत्यकी शिक्षा देनेके लिये बृहन्नला बनना पड़ा । गाण्डीव धनुषके स्थानपर अर्जुनको अपने हाथों में कंकण धारण करना पड़ा । मनुष्यका शरीर पाकर भला इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है ? अर्जुनके सिरपर चोटी और आँखोंमें काजलकी बातका स्मरण करके तो मनमें यही आता है कि मैं अभी तलवार लेकर शीघ्र ही धृतराष्ट्रका सिर काट दूं: इसके अतिरिक्त मुझे शान्ति नहीं मिल सकती ॥ २६-२८ ॥

अपृष्ट्वा च महीपालं निक्षिप्तोऽग्निर्मया गृहे ।
दग्धुकामश्च पापात्मा निर्दग्धोऽसौ पुरोचनः ॥ २९ ॥
आप महाराजसे बिना पूछे ही मैंने लाक्षागृहमें अग्नि लगा दी थी, जिससे हमलोगोंको जलानेकी इच्छावाला वह पापी पुरोचन स्वयं जल गया ॥ २९ ॥

कीचका निहताः सर्वे त्वामपृष्ट्वा जनाधिप ।
न तथा निहताः सर्वे सभार्या धृतराष्ट्रजाः ॥ ३० ॥
हे राजन् ! मैंने आपसे परामर्श किये बिना ही जैसे सभी कीचकोंका वध कर डाला, वैसे ही स्त्रियोंसमेत धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंका भी वध मैं नहीं कर पाया ॥ ३० ॥

मूर्खत्वं तव राजेन्द्र गन्धर्वेभ्यश्च मोचिताः ।
दुर्योधनादयः कामं शत्रवो निगडीकृताः ॥ ३१ ॥
हे राजेन्द्र ! यह आपकी नासमझी ही थी कि जब गन्धर्वोने दुर्योधन आदि हमारे शत्रुओंको बन्दी बना लिया था, तब आपने ही उन्हें छुड़ा दिया ॥ ३१ ॥

दुर्योधनहितायाद्य धनं दातुं त्वमिच्छसि ।
नाहं ददे महीपाल सर्वथा प्रेरितस्त्वया ॥ ३२ ॥
हे राजन् ! आज पुनः उसी दुष्ट दुर्योधनके कल्याणके लिये आप धन देनेकी इच्छा कर रहे हैं । आपके कहनेपर भी मैं उन्हें धन नहीं देने दूंगा ॥ ३२ ॥

इत्युक्त्वा निर्गते भीमे त्रिभिः परिवृतो नृपः ।
ददौ वित्तं सुबहुलं धृतराष्ट्राय धर्मजः ॥ ३३ ॥
ऐसा कहकर भीमके चले जानेपर धर्मपुत्र युधिष्ठिरने [अर्जुन, नकुल तथा सहदेव-इन] तीनोंकी सम्मति लेकर धृतराष्ट्रको बहुत-सा धन दे दिया ॥ ३३ ॥

कारयामास विधिवत्पुत्राणां चौर्ध्वदैहिकम् ।
ददौ दानानि विप्रेभ्यो धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः ॥ ३४ ॥
तब अम्बिकापुत्र धृतराष्ट्रने धन लेकर अपने पुत्रोंका विधिवत् श्राद्धकर्म कराया और ब्राह्मणोंको विविध दान दिये ॥ ३४ ॥

कृत्वौर्ध्वदैहिकं सर्वं गान्धारीसहितो नृपः ।
प्रविवेश वनं तूर्णं कुन्त्या च विदुरेण च ॥ ३५ ॥
इस प्रकार अपने पुत्रोंका श्राद्धकर्म करके गान्धारीसहित महाराज धृतराष्ट्र कुन्ती तथा विदुरके साथ शीघ्र ही वनमें चले गये ॥ ३५ ॥

सञ्जयेन परिज्ञातो निर्गतोऽसौ महामतिः ।
पुत्रैर्निवार्यमाणापि शूरसेनसुता गता ॥ ३६ ॥
संजयद्वारा सबको यह समाचार मिला कि महामति धृतराष्ट्र वनमें जा रहे हैं, उस समय अपने पुत्रोंके मना करनेपर भी शूरसेनकी पुत्री कुन्ती उनके साथ चली गयी ॥ ३६ ॥

विलपन्भीमसेनोऽपि तथान्ये चापि कौरवाः ।
गङ्गातीरात्परावृत्य ययुः सर्वे गजाह्वयम् ॥ ३७ ॥
यह देखकर भीम भी रोने लगे । वे तथा अन्यान्य सभी कौरव उन लोगोंको गंगातटतक पहँचाकर पुनः हस्तिनापुरको लौट आये ॥ ३७ ॥

ते गत्वा जाह्नवीतीरे शतयूपाश्रमं शुभम् ।
कृत्वा तृणैः कुटीं तत्र तपस्तेपुः समाहिताः ॥ ३८ ॥
तत्पश्चात् धृतराष्ट्र आदि गंगातटपर स्थित शुभ शतयूप-आश्रममें पहुँचे और वहाँ पर्णकुटी बनाकर एकचित्त हो तपस्या करने लगे ॥ ३८ ॥

गतान्यब्दानि षट् तेषां यदा याता हि तापसाः ।
युधिष्ठिरस्तु विरहादनुजानिदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥
स्वप्ने दृष्टा मया कुन्ती दुर्बला वनसंस्थिता ।
मनो मे जायते द्रष्टुं मातरं पितरौ तथा ॥ ४० ॥
विदुरं च महात्मानं सञ्जयं च महामतिम् ।
रोचते यदि वः सर्वान् व्रजाम इति मे मतिः ॥ ४१ ॥
जब वे तपस्वी चले गये और इस प्रकार छ: वर्ष बीत गये, तब उनके विरहसे सन्तप्त युधिष्ठिर अपने भाइयोंसे कहने लगे-मैंने स्वप्न देखा है कि वनमें रहती हुई माता कुन्ती अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं, अत: माता तथा पितृजनोंको देखनेकी मनमें इच्छा हो रही है । साथ ही महात्मा विदुर तथा महाबुद्धिमान् संजयसे भी मिलनेकी मेरी इच्छा है । यदि आप लोगोंको भी यह उचित प्रतीत होता हो तो हमलोग वहाँ चलें-ऐसा मेरा विचार है ॥ ३९-४१ ॥

ततस्ते भ्रातरः सर्वे सुभद्रा द्रौपदी तथा ।
वैराटी च महाभागा तथा नागरिको जनः ॥ ४२ ॥
प्राप्ताः सर्वजनैः सार्धं पाण्डवा दर्शनोत्सुकाः ।
शतयूपाश्रमं प्राप्य ददृशुः सर्व एव ते ॥ ४३ ॥
तब वे सभी भाई, सुभद्रा, द्रौपदी, महाभागा उत्तरा तथा अन्यान्य नागरिकजन वहाँ एकत्र हुए । दर्शनके लिये उत्सुक उन पाण्डवोंने सभी लोगोंके साथ शतयूप-आश्रममें जाकर धृतराष्ट्र आदिको देखा ॥ ४२-४३ ॥

विदुरो न यदा दृष्टो धर्मस्तं पृष्टवांस्तदा ।
क्वास्ते स विदुरो धीमांस्तमुवाचाम्बिकासुतः ॥ ४४ ॥
विरक्तश्चरते क्षत्ता निरीहो निष्परिग्रहः ।
कुतोऽप्येकान्तसंवासी ध्यायतेऽन्तः सनातनम् ॥ ४५ ॥
वहाँ जब विदुरजी दिखायी नहीं दिये, तब धर्मराज युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रसे पूछा-वे बुद्धिमान् विदुरजी कहाँ हैं ? तब अम्बिकापुत्र धृतराष्ट्रने उनसे कहा-विदुर तो विरक्त एवं निष्काम होकर तथा सब कुछ त्यागकर कहीं एकान्तमें रहते हुए अन्तःकरणमें परमात्माका ध्यान कर रहे होंगे ॥ ४४-४५ ॥

गङ्गां गच्छन्द्वितीयेऽह्नि वने राजा युधिष्ठिरः ।
ददर्श विदुरं क्षामं तपसा संशितव्रतम् ॥ ४६ ॥
दृष्ट्वोवाच महीपालो वन्देऽहं त्वां युधिष्ठिरः ।
तस्थौ श्रुत्वा च विदुरः स्थाणुभूत इवानघः ॥ ४७ ॥
दूसरे दिन गंगाजीकी ओर जाते हुए युधिष्ठिरने वनमें तपस्याके कारण क्षीण देहवाले व्रतधारी विदुरजीको देखा । उन्हें देखकर महाराज युधिष्ठिरने कहा-मैं आपको प्रणाम करता हूँ । यह सुनकर भी निष्पाप विदुरजी तूंठवृक्षके समान अचल स्थित रहे ॥ ४६-४७ ॥

क्षणेन विदुरस्यास्यान्निःसृतं तेज अद्‌भुतम् ।
लीनं युधिष्ठिरस्यास्ये धर्मांशत्वात्परस्परम् ॥ ४८ ॥
उसी क्षण विदुरजीके मुखसे एक अद्भुत तेज निकला और वह तत्काल युधिष्ठिरके मुख में समा गया; क्योंकि वे दोनों ही धर्मके अंश थे ॥ ४८ ॥

क्षत्ता जहौ तदा प्राणाञ्छुशोचाति युधिष्ठिरः ।
दाहार्थं तस्य देहस्य कृतवानुद्यमं नृपः ॥ ४९ ॥
इस प्रकार विदुरजीने प्राणत्याग कर दिया और युधिष्ठिर अत्यन्त शोकाकुल हो गये । वे राजा युधिष्ठिर उनके शरीरका दाह-संस्कार करनेका प्रबन्ध करने लगे ॥ ४९ ॥

शृण्वतस्तु तदा राज्ञो वागुवाचाशरीरिणी ।
विरक्तोऽयं न दाहार्हो यथेष्टं गच्छ भूपते ॥ ५० ॥
उसी समय राजाको सुनाते हुए आकाशवाणी हुई-हे राजन् ! ये विदुरजी विरक्त हैं, अतः ये दाहसंस्कारके योग्य नहीं हैं । अब आप इच्छानुसार यहाँसे प्रस्थान करें ॥ ५० ॥

श्रुत्वा ते भ्रातरः सर्वे सस्नुर्गङ्गाजलेऽमले ।
गत्वा निवेदयामासुर्धृतराष्ट्राय विस्तरात् ॥ ५१ ॥
यह सुनकर उन सभी भाइयोंने गंगाके निर्मल जलमें स्नान किया और वहाँ जाकर धृतराष्ट्रसे [सभी वृत्तान्त] विस्तारपूर्वक बताया ॥ ५१ ॥

स्थितास्तत्राश्रमे सर्वे पाण्डवा नागरैः सह ।
तत्र सत्यवतीसूनुर्नारदश्च समागतः ॥ ५२ ॥
मुनयोऽन्ये महात्मानश्चागता धर्मनन्दनम् ।
कुन्ती प्राह तदा व्यासं संस्थितं शुभदर्शनम् ॥ ५३ ॥
तत्पश्चात् सब पाण्डव नागरिकोंके साथ उस आश्रममें बैठ गये । उसी समय सत्यवतीपुत्र व्यासजी तथा नारदजी भी वहाँ पहुँच गये । अन्य मुनिगण भी वहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिरके पास आ गये । उस समय कुन्तीने वहाँ विराजमान शुभदर्शन व्यासजीसे कहा- ॥ ५२-५३ ॥

कृष्ण कर्णस्तु पुत्रो मे जातमात्रस्तु वीक्षितः ।
मनो मे तप्यतेऽत्यर्थं दर्शयस्व तपोधन ॥ ५४ ॥
हे कृष्णद्वैपायन ! मैंने अपने पुत्र कर्णको जन्मके समय ही देखा था । [उसे देखनेके लिये] मेरा मन बहुत तड़प रहा है, अतः हे तपोधन ! मुझे उसको दिखा दीजिये । हे महाभाग ! आप समर्थ हैं, अत: मेरी यह इच्छा पूर्ण कीजिये ॥ ५४ ॥

समर्थोऽसि महाभाग कुरु मे वाञ्छितं प्रभो ।
गान्धार्युवाच
दुर्योधनो रणेऽगच्छद्वीक्षितो न मया मुने ॥ ५५ ॥
तं दर्शय मुनिश्रेष्ठ पुत्रं मे त्वं सहानुजम् ।
गान्धारी बोली-हे मुने ! दुर्योधन समरभूमिमें चला गया था और मैं उसे देख नहीं पायी । अतः हे मुनिश्रेष्ठ ! छोटे भाइयोसहित उस दुर्योधनको आप मुझे दिखा दीजिये ॥ ५५.५ ॥

सुभद्रोवाच
अभिमन्युं महावीरं प्राणादप्यधिकं प्रियम् ॥ ५६ ॥
द्रष्टुकामास्मि सर्वज्ञ दर्शयाद्य तपोधन ।
सुभद्रा बोली-हे सर्वज्ञ ! मैं प्राणोंसे भी अधिक प्रिय अपने महान् वीर पुत्र अभिमन्युको देखना चाहती |हूँ । अत: हे तपोधन ! उसे अभी दिखा दीजिये ॥ ५६.५ ॥

सूत उवाच
एवंविधानि वाक्यानि श्रुत्वा सत्यवतीसुतः ॥ ५७ ॥
प्राणायामं ततः कृत्वा दध्यौ देवीं सनातनीम् ।
सन्ध्याकालेऽथ सम्प्राप्ते गङ्गायां मुनिसत्तमः ॥ ५८ ॥
सर्वांस्तांश्च समाहूय युधिष्ठिरपुरोगमान् ।
तुष्टाव विश्वजननीं स्नात्वा पुण्यसरिज्जले ॥ ५९ ॥
प्रकृतिं पुरुषारामां सगुणां निर्गुणां तथा ।
देवदेवीं ब्रह्मरूपां मणिद्वीपाधिवासिनीम् ॥ ६० ॥
सूतजी बोले-इस प्रकारके वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र व्यासजीने प्राणायाम करके सनातनी देवी भगवतीका ध्यान किया । तब सार्यकाल आनेपर मुनिश्रेष्ठ व्यासजी युधिष्ठिर आदि सभी जनोंको गंगाजीके तटपर बुलाकर पुण्यनदी गंगाके पवित्र जलमें स्नान करके प्रकृतिस्वरूपिणी, परम पुरुषको प्रसन्न करनेवाली, सगुण-निर्गणरूपा, देवताओंकी भी देवी, ब्रह्मस्वरूपिणी उन मणिद्वीपनिवासिनी भगवतीको स्तुति करने लगे ॥ ५७-६० ॥

यदा न वेधा न च विष्णुरीश्वरो
     न वासवो नैव जलाधिपस्तथा ।
न वित्तपो नैव यमश्च पावक-
     स्तदासि देवि त्वमहं नमामि ताम् ॥ ६१ ॥
हे देवि ! जब ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम तथा अग्नि-ये कोई भी नहीं थे, उस समय भी आपकी सत्ता थी; ऐसी उन आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६१ ॥

जलं न वायुर्न धरा न चाम्बरं
     गुणा न तेषां च न चेन्द्रियाण्यहम् ।
मनो न बुद्धिर्न च तिग्मगुः शशी
     तदासि देवि त्वमहं नमामि ताम् ॥ ६२ ॥
जिस समय जल, वायु, पृथ्वी, आकाश तथा उनके रस आदि गुण, समस्त इन्द्रियाँ, अहंकार, मन, बुद्धि, सूर्य तथा चन्द्रमा-ये कोई भी नहीं थे, तब भी आप विद्यमान थी; ऐसी उन आपको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ६२ ॥

इमं जीवलोकं समाधाय चित्ते
     गुणैर्लिङ्गकोशं च नीत्वा समाधौ ।
स्थिता कल्पकालं नयस्यात्मतन्त्रा
     न कोऽप्यस्ति वेत्ता विवेकं गतोऽपि ॥ ६३ ॥
इस जीवलोकको अपने चित्तमें समाहित करके सत्व-रज-तम आदि गुणोंसहित लिंगकोशको समाधिकी अवस्थामें पहुँचाकर जब आप कल्पपर्यन्त स्वतन्त्र होकर विहार करती हैं, तब विवेकप्राप्त पुरुष भी आपको जाननेमें समर्थ नहीं होता ॥ ६३ ॥

प्रार्थयत्येष मां लोको मृतानां दर्शनं पुनः ।
नाहं क्षमोऽस्मि मातस्त्वं दर्शयाशु जनान्मृतान् ॥ ६४ ॥
हे माता ! ये लोग मृत व्यक्तियोंके पुनः दर्शनके लिये मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं, किंतु मैं ऐसा कर पानेमें समर्थ नहीं हूँ । अतएव आप इन्हें मृत व्यक्तियोंको शीघ्र ही दिखा दें ॥ ६४ ॥

सूत उवाच
एवं स्तुता तदा देवी माया श्रीभुवनेश्वरी ।
स्वर्गादाहूय सर्वान्वै दर्शयामास पार्थिवान् ॥ ६५ ॥
सूतजी बोले-व्यासजीके द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर महामाया श्रीभुवनेश्वरी देवीने समस्त मृत राजाओंको स्वर्गसे बुलाकर दिखा दिया ॥ ६५ ॥

दृष्ट्वा कुन्ती च गान्धारी सुभद्रा च विराटजा ।
पाण्डवा मुमुदुः सर्वे वीक्ष्य प्रत्यागतान्स्वकान् ॥ ६६ ॥
कुन्ती, गान्धारी, सुभद्रा, विराटपुत्री उत्तरा एवं सभी पाण्डव वापस आये हुए स्वजनोंको देखकर प्रसन्न हो गये ॥ ६६ ॥

पुनर्विसर्जितास्तेन व्यासेनामिततेजसा ।
स्मृत्वा देवीं महामायामिन्द्रजालमिवोद्यतम् ॥ ६७ ॥
तदनन्तर अपरिमित तेजवाले व्यासजीने महामाया देवीका स्मरण करके इन्द्रजालकी भाँति प्रकट हुए | उन सबको पुनः लौटा दिया ॥ ६७ ॥

तदा पृष्ट्वा ययुः सर्वे पाण्डवा मुनयस्तथा ।
राजा नागपुरं प्राप्तः कुर्वन् व्यासकथां पथि ॥ ६८ ॥
तत्पश्चात् [धृतराष्ट्र आदि तापसोंसे] आज्ञा लेकर सभी पाण्डव तथा मुनिजन वहाँसे चल दिये । राजा युधिष्ठिर भी मार्गमें व्यासजीकी चर्चा करते हुए हस्तिनापुर आ गये ॥ ६८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे
पाण्डवानां कथानकं मृतानां दर्शनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
अध्याय सातवाँ समाप्त


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