सूतजी बोले-[हे मुनिगण !] माननीया द्रौपदी उन पाँचों पाण्डवोंकी पतिव्रता पत्नी थी । उन द्रौपदीको अत्यन्त सुन्दर पाँच पुत्र उन पतियोंसे उत्पन्न हुए ॥ १ ॥
अर्जुनस्य तथा भार्या कृष्णस्य भगिनी शुभा । सुभद्रा या हृता पूर्वं जिष्णुना हरिसम्मते ॥ २ ॥
अर्जुनकी एक दूसरी सुन्दर पत्नी श्रीकृष्णकी बहन सुभद्रा थीं, जिन्हें अर्जुनने पूर्वकालमें भगवान् श्रीकृष्णकी अनुमतिसे हर लिया था ॥ २ ॥
तस्यां जातो महावीरो निहतोऽसौ रणाजिरे । अभिमन्युर्हतास्तत्र द्रौपद्याश्च सुताः किल ॥ ३ ॥
उन्हीं सुभद्राके गर्भसे महान् वीर अभिमन्युका जन्म हुआ । वह संग्राम-भूमिमें मारा गया था । उसी युद्धमें द्रौपदीके पाँचों पुत्र भी मारे गये थे ॥ ३ ॥
अभिमन्योर्वरा भार्या वैराटी चातिसुन्दरी । कुलान्ते सुषुवे पुत्रं मृतो बाणाग्निना शिशुः ॥ ४ ॥ जीवितः स तु कृष्णेन भागिनेयसुतः स्वयम् । द्रौणिबाणाग्निनिर्दग्धः प्रतापेनाद्भुतेन च ॥ ५ ॥
वीर अभिमन्युकी श्रेष्ठ तथा अत्यन्त सुन्दर पत्नी महाराज विराटकी पुत्री उत्तरा थी । [महाभारतके युद्धमें] कुरुकुलका नाश हो जानेपर उसने एक पुत्र उत्पन्न किया था; वह द्रोणपुत्र अश्वत्थामाकी बाणाग्निसे [पहले गर्भ में ही] मर गया था, किंतु बादमें भगवान् श्रीकृष्णने अश्वत्थामाकी बाणाग्निसे निर्दग्ध अपने भांजेके पुत्रको अपने अद्भुत प्रतापसे पुनः जीवित कर दिया था ॥ ४-५ ॥
परिक्षीणेषु वंशेषु जातो यस्माद्वरः सुतः । तस्मात्परीक्षितो नाम विख्यातः पृथिवीतले ॥ ६ ॥
कुरुवंशके समाप्त होनेपर वह श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ था; इसलिये वह बालक 'परीक्षित्' नामसे पृथ्वीतलपर प्रसिद्ध हुआ ॥ ६ ॥
निहतेषु च पुत्रेषु धृतराष्ट्रोऽतिदुःखितः । तस्थौ पाण्डवराज्ये च भीमवाग्बाणपीडितः ॥ ७ ॥ गान्धारी च तथातिष्ठत् पुत्रशोकातुरा भृशम् । सेवां तयोर्दिवारात्रं चकारार्तो युधिष्ठिरः ॥ ८ ॥
अपने सौ पुत्रोंके मारे जानेपर अत्यन्त दुःखित राजा धृतराष्ट्र भीमके वाग्बाणोंसे सन्तप्त रहते हुए अब पाण्डवोंके राज्यमें रहने लगे । वैसे ही गान्धारी भी अत्यन्त दुःखी होकर जीवन-यापन करने लगी । दुःखित युधिष्ठिर दिन-रात उन दोनोंकी सेवा करने लगे ॥ ७-८ ॥
विदुरोऽप्यतिधर्मात्मा प्रज्ञानेत्रमबोधयत् । युधिष्ठिरस्यानुमते भ्रातृपार्श्वे व्यतिष्ठत ॥ ९ ॥
महान् धर्मात्मा विदुर युधिष्ठिरकी अनुमतिसे अपने भाई धृतराष्ट्रके पासमें ही रहते थे और वे उन प्रज्ञाचक्षुको समझाते-बुझाते रहते थे ॥ ९ ॥
धर्मपुत्र धर्मात्मा युधिष्ठिर भी अपने पितातुल्य धृतराष्ट्रके पुत्रशोकजनित दुःखको विस्मारित कराते हुए उनकी सेवा करने लगे ॥ १० ॥
यथा शृणोति वृद्धोऽसौ तथा भीमोऽतिरोषितः । वारबाणेनाहनत्तं तु श्रावयन्संस्थिताञ्जनान् ॥ ११ ॥ मया पुत्रा हताः सर्वे दुष्टस्यान्धस्य ते रणे । दुःशासनस्य रुधिरं पीतं हृद्यं तथा भृशम् ॥ १२ ॥ भुनक्ति पिण्डमन्धोऽयं मया दत्तं गतत्रपः । ध्वांक्षवद्वा श्ववच्चापि वृथा जीवत्यसौ जनः ॥ १३ ॥
जिस किसी भी प्रकार यह वृद्ध धृतराष्ट्र सुन ले [यह ध्यानमें रखकर] भीम अत्यन्त क्रोधित होकर अपने वचनरूपी बाणोंसे उनपर सर्वदा प्रहार किया करते थे । वहाँ उपस्थित लोगोंको सुना-सुनाकर भीम कहा करते थे कि मैंने इस दुष्ट अन्धके सभी पुत्रोंको रणभूमिमें मार डाला और दुःशासनके हृदयका रक्त जी-भरके पी लिया है । अब यह अन्धा निलंज होकर मेरे दिये हुए पिण्डको कौओं एवं कुत्तोंकी भाँति खाता है । अब तो यह व्यर्थ ही जीवन बिता रहा है ॥ ११-१३ ॥
एवंविधानि रूक्षाणि श्रावयत्यनुवासरम् । आश्वासयति धर्मात्मा मूर्खोऽयमिति च ब्रुवन् ॥ १४ ॥
भीम इस प्रकारकी कठोर बातें प्रतिदिन उन्हें सुनाते थे; परंतु धर्मात्मा युधिष्ठिर यह कहते हुए धृतराष्ट्रको धैर्य प्रदान करते थे कि यह भौम मूर्ख है ॥ १४ ॥
इस प्रकार उस दु:खी धृतराष्ट्रने अठारह वर्षतक वहाँ रहकर धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे वनमें जानेकी इच्छा प्रकट की । महाराज धृतराष्ट्रने धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे यह भी प्रार्थना की कि अब मैं अपने पुत्रोंके लिये विधिपूर्वक पिण्डदान करूंगा । यद्यपि भीमने सभीका औदैहिककर्म कर दिया था, किंतु पूर्व वैरका स्मरण करते हुए उन्होंने मेरे पुत्रोंका नहीं किया । अत: यदि आप मुझे कुछ धन दें तो मैं अपने पुत्रोंका औदैहिककर्म करके स्वर्गफल देनेवाला तप करनेके लिये वनमें चला जाऊँगा ॥ १५-१८ ॥
एकान्ते विदुरेणोक्तो राजा धर्मसुतः शुचिः । धनं दातुं मनश्चक्रे धृतराष्ट्राय चार्थिने ॥ १९ ॥ समाहूय निजान्मर्वानुवाच पृथिवीपतिः । धनं दास्ये महाभागाः पित्रे निर्वापकामिने ॥ २० ॥
विदुरने भी एकान्तमें पवित्रात्मा धर्मपुत्र युधिष्ठिरसे जब ऐसा कहा तब उन्होंने धनार्थी धृतराष्ट्रको धन देनेका निश्चय कर लिया । राजा युधिष्ठिरने परिवारके सभी जनोंको बुलाकर कहा-हे महाभाग ! मैं कौरवोंका श्राद्ध करनेके इच्छुक ज्येष्ठ पिताको धन प्रदान करूंगा ॥ १९-२० ॥
महातेजस्वी ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिरका वचन सुनकर वायुपुत्र महाबली भीमने अत्यन्त क्रोधित होकर कहा-हे महाभाग ! दुर्योधनके कल्याणके लिये राजकोषका धन क्यों दिया जाय ? इससे अन्धे धृतराष्ट्रको भी सुख मिलेगा; इससे बड़ी मूर्खता और क्या होगी ? ॥ २१-२२ ॥
तव दुर्मन्त्रितेनाथ दुःखं प्राप्ता वने वयम् । द्रौपदी च महाभागा समानीता दुरात्मना ॥ २३ ॥
आपकी दूषित मन्त्रणाके फलस्वरूप ही हमलोगोंने वनवासका कठोर कष्ट सहा । दुरात्मा | दुःशासन महारानी द्रौपदीको अपमानपूर्वक सभाम खींच लाया ॥ २३ ॥
विराटभवने वासः प्रसादात्तव सुव्रत । दासत्वं च कृतं सर्वैर्मत्स्यस्यामितविक्रमैः ॥ २४ ॥
हे सुव्रत ! आपकी कृपासे ही हमलोगोंको विराट राजाके घर रहना पड़ा तथा हम अमित पराक्रमवालोंको मत्स्यदेशके राजाकी दासता करनी पड़ी थी ॥ २४ ॥
देविता त्वं न चेज्ज्येष्ठः प्रभवेत्संक्षयः कथम् । सूपकारो विराटस्य हत्वाभूवं तु मागधम् ॥ २५ ॥
हम सबमें ज्येष्ठ आप यदि जुआ न खेलते तो हम लोगोंकी दुर्गति क्यों होती ? मगधनरेश जरासंधका वध करनेवाले मुझको राजा विराटके यहाँ रसोइया बनना पड़ा ॥ २५ ॥
बृहन्नला कथं जिष्णुर्भवेद्बालस्य नर्तकः । कृत्वा वेषं महाबाहुर्योषाया वासवात्मजः ॥ २६ ॥ गाण्डीवशोभितौ हस्तौ कृतौ कङ्कणशोभितौ । मानुषं च वपुः प्राप्य किं दुःखं स्यादतः परम् ॥ २७ ॥ दृष्ट्वा वेणीं कृतां मूर्ध्नि कज्जलं लोचने तथा । असिं गृहीत्वा तरसा छेद्म्यहं नान्यथा सुखम् ॥ २८ ॥
आपके ही कारण इन्द्रपुत्र महाबाहु अर्जुनको विराट राजाके यहाँ स्त्रीका रूप धारण करके उनके बच्चोंको नृत्यकी शिक्षा देनेके लिये बृहन्नला बनना पड़ा । गाण्डीव धनुषके स्थानपर अर्जुनको अपने हाथों में कंकण धारण करना पड़ा । मनुष्यका शरीर पाकर भला इससे बड़ा कष्ट और क्या हो सकता है ? अर्जुनके सिरपर चोटी और आँखोंमें काजलकी बातका स्मरण करके तो मनमें यही आता है कि मैं अभी तलवार लेकर शीघ्र ही धृतराष्ट्रका सिर काट दूं: इसके अतिरिक्त मुझे शान्ति नहीं मिल सकती ॥ २६-२८ ॥
अपृष्ट्वा च महीपालं निक्षिप्तोऽग्निर्मया गृहे । दग्धुकामश्च पापात्मा निर्दग्धोऽसौ पुरोचनः ॥ २९ ॥
आप महाराजसे बिना पूछे ही मैंने लाक्षागृहमें अग्नि लगा दी थी, जिससे हमलोगोंको जलानेकी इच्छावाला वह पापी पुरोचन स्वयं जल गया ॥ २९ ॥
कीचका निहताः सर्वे त्वामपृष्ट्वा जनाधिप । न तथा निहताः सर्वे सभार्या धृतराष्ट्रजाः ॥ ३० ॥
हे राजन् ! मैंने आपसे परामर्श किये बिना ही जैसे सभी कीचकोंका वध कर डाला, वैसे ही स्त्रियोंसमेत धृतराष्ट्रके सभी पुत्रोंका भी वध मैं नहीं कर पाया ॥ ३० ॥
संजयद्वारा सबको यह समाचार मिला कि महामति धृतराष्ट्र वनमें जा रहे हैं, उस समय अपने पुत्रोंके मना करनेपर भी शूरसेनकी पुत्री कुन्ती उनके साथ चली गयी ॥ ३६ ॥
तत्पश्चात् धृतराष्ट्र आदि गंगातटपर स्थित शुभ शतयूप-आश्रममें पहुँचे और वहाँ पर्णकुटी बनाकर एकचित्त हो तपस्या करने लगे ॥ ३८ ॥
गतान्यब्दानि षट् तेषां यदा याता हि तापसाः । युधिष्ठिरस्तु विरहादनुजानिदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥ स्वप्ने दृष्टा मया कुन्ती दुर्बला वनसंस्थिता । मनो मे जायते द्रष्टुं मातरं पितरौ तथा ॥ ४० ॥ विदुरं च महात्मानं सञ्जयं च महामतिम् । रोचते यदि वः सर्वान् व्रजाम इति मे मतिः ॥ ४१ ॥
जब वे तपस्वी चले गये और इस प्रकार छ: वर्ष बीत गये, तब उनके विरहसे सन्तप्त युधिष्ठिर अपने भाइयोंसे कहने लगे-मैंने स्वप्न देखा है कि वनमें रहती हुई माता कुन्ती अत्यन्त दुर्बल हो गयी हैं, अत: माता तथा पितृजनोंको देखनेकी मनमें इच्छा हो रही है । साथ ही महात्मा विदुर तथा महाबुद्धिमान् संजयसे भी मिलनेकी मेरी इच्छा है । यदि आप लोगोंको भी यह उचित प्रतीत होता हो तो हमलोग वहाँ चलें-ऐसा मेरा विचार है ॥ ३९-४१ ॥
ततस्ते भ्रातरः सर्वे सुभद्रा द्रौपदी तथा । वैराटी च महाभागा तथा नागरिको जनः ॥ ४२ ॥ प्राप्ताः सर्वजनैः सार्धं पाण्डवा दर्शनोत्सुकाः । शतयूपाश्रमं प्राप्य ददृशुः सर्व एव ते ॥ ४३ ॥
तब वे सभी भाई, सुभद्रा, द्रौपदी, महाभागा उत्तरा तथा अन्यान्य नागरिकजन वहाँ एकत्र हुए । दर्शनके लिये उत्सुक उन पाण्डवोंने सभी लोगोंके साथ शतयूप-आश्रममें जाकर धृतराष्ट्र आदिको देखा ॥ ४२-४३ ॥
वहाँ जब विदुरजी दिखायी नहीं दिये, तब धर्मराज युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रसे पूछा-वे बुद्धिमान् विदुरजी कहाँ हैं ? तब अम्बिकापुत्र धृतराष्ट्रने उनसे कहा-विदुर तो विरक्त एवं निष्काम होकर तथा सब कुछ त्यागकर कहीं एकान्तमें रहते हुए अन्तःकरणमें परमात्माका ध्यान कर रहे होंगे ॥ ४४-४५ ॥
दूसरे दिन गंगाजीकी ओर जाते हुए युधिष्ठिरने वनमें तपस्याके कारण क्षीण देहवाले व्रतधारी विदुरजीको देखा । उन्हें देखकर महाराज युधिष्ठिरने कहा-मैं आपको प्रणाम करता हूँ । यह सुनकर भी निष्पाप विदुरजी तूंठवृक्षके समान अचल स्थित रहे ॥ ४६-४७ ॥
इस प्रकार विदुरजीने प्राणत्याग कर दिया और युधिष्ठिर अत्यन्त शोकाकुल हो गये । वे राजा युधिष्ठिर उनके शरीरका दाह-संस्कार करनेका प्रबन्ध करने लगे ॥ ४९ ॥
शृण्वतस्तु तदा राज्ञो वागुवाचाशरीरिणी । विरक्तोऽयं न दाहार्हो यथेष्टं गच्छ भूपते ॥ ५० ॥
उसी समय राजाको सुनाते हुए आकाशवाणी हुई-हे राजन् ! ये विदुरजी विरक्त हैं, अतः ये दाहसंस्कारके योग्य नहीं हैं । अब आप इच्छानुसार यहाँसे प्रस्थान करें ॥ ५० ॥
तत्पश्चात् सब पाण्डव नागरिकोंके साथ उस आश्रममें बैठ गये । उसी समय सत्यवतीपुत्र व्यासजी तथा नारदजी भी वहाँ पहुँच गये । अन्य मुनिगण भी वहाँ धर्मपुत्र युधिष्ठिरके पास आ गये । उस समय कुन्तीने वहाँ विराजमान शुभदर्शन व्यासजीसे कहा- ॥ ५२-५३ ॥
कृष्ण कर्णस्तु पुत्रो मे जातमात्रस्तु वीक्षितः । मनो मे तप्यतेऽत्यर्थं दर्शयस्व तपोधन ॥ ५४ ॥
हे कृष्णद्वैपायन ! मैंने अपने पुत्र कर्णको जन्मके समय ही देखा था । [उसे देखनेके लिये] मेरा मन बहुत तड़प रहा है, अतः हे तपोधन ! मुझे उसको दिखा दीजिये । हे महाभाग ! आप समर्थ हैं, अत: मेरी यह इच्छा पूर्ण कीजिये ॥ ५४ ॥
समर्थोऽसि महाभाग कुरु मे वाञ्छितं प्रभो । गान्धार्युवाच दुर्योधनो रणेऽगच्छद्वीक्षितो न मया मुने ॥ ५५ ॥ तं दर्शय मुनिश्रेष्ठ पुत्रं मे त्वं सहानुजम् ।
गान्धारी बोली-हे मुने ! दुर्योधन समरभूमिमें चला गया था और मैं उसे देख नहीं पायी । अतः हे मुनिश्रेष्ठ ! छोटे भाइयोसहित उस दुर्योधनको आप मुझे दिखा दीजिये ॥ ५५.५ ॥
सूतजी बोले-इस प्रकारके वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र व्यासजीने प्राणायाम करके सनातनी देवी भगवतीका ध्यान किया । तब सार्यकाल आनेपर मुनिश्रेष्ठ व्यासजी युधिष्ठिर आदि सभी जनोंको गंगाजीके तटपर बुलाकर पुण्यनदी गंगाके पवित्र जलमें स्नान करके प्रकृतिस्वरूपिणी, परम पुरुषको प्रसन्न करनेवाली, सगुण-निर्गणरूपा, देवताओंकी भी देवी, ब्रह्मस्वरूपिणी उन मणिद्वीपनिवासिनी भगवतीको स्तुति करने लगे ॥ ५७-६० ॥
यदा न वेधा न च विष्णुरीश्वरो न वासवो नैव जलाधिपस्तथा । न वित्तपो नैव यमश्च पावक- स्तदासि देवि त्वमहं नमामि ताम् ॥ ६१ ॥
हे देवि ! जब ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, इन्द्र, वरुण, कुबेर, यम तथा अग्नि-ये कोई भी नहीं थे, उस समय भी आपकी सत्ता थी; ऐसी उन आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ६१ ॥
जलं न वायुर्न धरा न चाम्बरं गुणा न तेषां च न चेन्द्रियाण्यहम् । मनो न बुद्धिर्न च तिग्मगुः शशी तदासि देवि त्वमहं नमामि ताम् ॥ ६२ ॥
जिस समय जल, वायु, पृथ्वी, आकाश तथा उनके रस आदि गुण, समस्त इन्द्रियाँ, अहंकार, मन, बुद्धि, सूर्य तथा चन्द्रमा-ये कोई भी नहीं थे, तब भी आप विद्यमान थी; ऐसी उन आपको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ६२ ॥
इमं जीवलोकं समाधाय चित्ते गुणैर्लिङ्गकोशं च नीत्वा समाधौ । स्थिता कल्पकालं नयस्यात्मतन्त्रा न कोऽप्यस्ति वेत्ता विवेकं गतोऽपि ॥ ६३ ॥
इस जीवलोकको अपने चित्तमें समाहित करके सत्व-रज-तम आदि गुणोंसहित लिंगकोशको समाधिकी अवस्थामें पहुँचाकर जब आप कल्पपर्यन्त स्वतन्त्र होकर विहार करती हैं, तब विवेकप्राप्त पुरुष भी आपको जाननेमें समर्थ नहीं होता ॥ ६३ ॥
हे माता ! ये लोग मृत व्यक्तियोंके पुनः दर्शनके लिये मुझसे प्रार्थना कर रहे हैं, किंतु मैं ऐसा कर पानेमें समर्थ नहीं हूँ । अतएव आप इन्हें मृत व्यक्तियोंको शीघ्र ही दिखा दें ॥ ६४ ॥
सूत उवाच एवं स्तुता तदा देवी माया श्रीभुवनेश्वरी । स्वर्गादाहूय सर्वान्वै दर्शयामास पार्थिवान् ॥ ६५ ॥
सूतजी बोले-व्यासजीके द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर महामाया श्रीभुवनेश्वरी देवीने समस्त मृत राजाओंको स्वर्गसे बुलाकर दिखा दिया ॥ ६५ ॥
दृष्ट्वा कुन्ती च गान्धारी सुभद्रा च विराटजा । पाण्डवा मुमुदुः सर्वे वीक्ष्य प्रत्यागतान्स्वकान् ॥ ६६ ॥
कुन्ती, गान्धारी, सुभद्रा, विराटपुत्री उत्तरा एवं सभी पाण्डव वापस आये हुए स्वजनोंको देखकर प्रसन्न हो गये ॥ ६६ ॥
तत्पश्चात् [धृतराष्ट्र आदि तापसोंसे] आज्ञा लेकर सभी पाण्डव तथा मुनिजन वहाँसे चल दिये । राजा युधिष्ठिर भी मार्गमें व्यासजीकी चर्चा करते हुए हस्तिनापुर आ गये ॥ ६८ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे पाण्डवानां कथानकं मृतानां दर्शनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥