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रुरुचरित्रवर्णनम् -
धृतराष्ट्र आदिका दावाग्निमें जल जाना, प्रभासक्षेत्रमें यादवोंका परस्पर युद्ध और संहार, कृष्ण और बलरामका परमधामगमन, परीक्षितको राजा बनाकर पाण्डवोंका हिमालयपर्वतपर जाना, परीक्षितको शापकी प्राप्ति, प्रमद्वरा और रुरुका वृत्तान्त -
सूत उवाच ततो दिने तृतीये च धृतराष्ट्रः स भूपतिः । दावाग्निना वने दग्धः सभार्यः कुन्तिसंयुतः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-वहाँसे पाण्डवोंके प्रस्थित होनेके तीसरे दिन उस वनमें लगी दावाग्निमें कुन्ती एवं गान्धारीसहित राजा धृतराष्ट्र दग्ध हो गये ॥ १ ॥
सञ्जयस्तीर्थयात्रायां गतस्त्यक्त्वा महीपतिम् । श्रुत्वा युधिष्ठिरो राजा नारदाद्दुःखमाप्तवान् ॥ २ ॥
संजय पहले ही धृतराष्ट्रको छोड़कर तीर्थयात्राके लिये चले गये थे । नारदजीसे यह वृत्तान्त सुनकर राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुःखी हुए ॥ २ ॥
षट्त्रिंशेऽथ गते वर्षे कौरवाणां क्षयात्पुनः । प्रभासे यादवाः सर्वे विप्रशापात्क्षयं गताः ॥ ३ ॥ ते पीत्वा मदिरां मत्ताः कृत्वा युद्धं परस्परम् । क्षयं प्राप्ता महात्मानः पश्यतो रामकृष्णयोः ॥ ४ ॥
कौरवोंके विनाशके छत्तीस वर्ष बीतनेपर विप्रशापके प्रभावसे सभी यादव प्रभासक्षेत्रमें नष्ट हो गये । वे सभी यादव मदिरा पीकर मतवाले हो गये और आपसमें लड़कर बलराम तथा श्रीकृष्णके देखतेदेखते मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ ३-४ ॥
तदनन्तर बलरामजीने योगक्रियाद्वारा शरीरका त्याग किया और कमलके समान नेत्रवाले भगवान् श्रीकृष्णने शापकी मर्यादा रखते हुए एक बहेलियेके बाणसे आहत होकर महाप्रयाण किया ॥ ५ ॥
इसके पश्चात् जब वसुदेवजीने श्रीकृष्णके शरीर-त्यागका समाचार सुना तो उन्होंने अपने चित्तमें श्रीभुवनेश्वरी देवीका ध्यान करके अपने पवित्र प्राणोंका परित्याग कर दिया ॥ ६ ॥
अर्जुनने अपने तेजहीन होनेका दुःख व्यासजीसे निवेदित किया, जिसपर व्यासजीने उस महारथी अर्जुनसे कहा-हे महामते ! जब भगवान् श्रीकृष्ण और आपका पुनः अवतार होगा, तब उस युगमें आपका तेज पुनः अत्यन्त उग्र हो जायगा । उनका यह वचन सुनकर अर्जुन वहाँसे हस्तिनापुर चले गये । वहाँपर अत्यन्त दु:खी होकर अर्जुनने धर्मराज युधिष्ठिरसे समस्त वृत्तान्त कहा ॥ १३-१४.५ ॥
देहत्यागं हरेः श्रुत्वा यादवानां क्षयं तथा ॥ १५ ॥ गमनाय मतिं चक्रे राजा हैमाचलं प्रति । षट्त्रिंशद्वार्षिकं राज्ये स्थापयित्वोत्तरासुतम् ॥ १६ ॥ निर्जगाम वनं राजा द्रौपद्या भ्रातृभिः सह । षट्त्रिंशच्चैव वर्षाणि कृत्वा राज्यं गजाह्वये ॥ १७ ॥ गत्वा हिमाचले षट् ते जहुः प्राणान्पृथासुताः ।
श्रीकृष्णके देहत्याग एवं यादवोंके विनाशका समाचार सुनकर राजा युधिष्ठिरने हिमालयकी ओर जानेका निश्चय कर लिया । इसके बाद छत्तीसवर्षीय उत्तरापुत्र परीक्षित्को राजसिंहासनपर प्रतिष्ठित करके वे राजा युधिष्ठिर द्रौपदी तथा भाइयोंके साथ वनकी ओर निकल गये । इस प्रकार छत्तीस वर्षकी अवधितक हस्तिनापुरमें राज्य करके द्रौपदी तथा कुन्तीपुत्रों-इन छहोंने हिमालयपर्वतपर जाकर प्राण त्याग दिये ॥ १५-१७.५ ॥
परीक्षिदपि राजर्षिः प्रजाः सर्वाः सुधार्मिकः ॥ १८ ॥ अपालयच्च राजेन्द्रः षष्टिवर्षाण्यतन्द्रितः । बभूव मृगयाशीलो जगाम च वनं महत् ॥ १९ ॥
इधर धर्मनिष्ठ राजर्षि परीक्षितने भी आलस्यरहित भावसे साठ वर्षातक सम्पूर्ण प्रजाका पालन किया । वे एक बार आखेटहेतु एक विशाल जंगलमें गये ॥ १८-१९ ॥
अपने बाणसे विद्ध एक मृगको खोजते-खोजते मध्याहकालमें उत्तरापुत्र राजा परीक्षित् भूख-प्यास तथा थकानसे व्याकुल हो गये ॥ २० ॥
राजा घर्मेण सन्तप्तो ददर्श मुनिमन्तिके । ध्याने स्थितं मुनिं राजा जलं पप्रच्छ चातुरः ॥ २१ ॥
धूपसे पीडित राजाने समीपमें ही एक ध्यानमग्न मुनिको विराजमान देखा और प्याससे व्याकुल उन्होंने मनिसे जल माँगा ॥ २१ ॥
नोवाच किञ्चिन्मौनस्थश्चुकोप नृपतिस्तदा । मृतं सर्पं तदादाय धनुष्कोट्या तृषातुरः ॥ २२ ॥ कलिनाविष्टचित्तस्तु कण्ठे तस्य न्यवेशयत् । आरोपिते तथा सर्पे नोवाच मुनिसत्तमः ॥ २३ ॥
मौन व्रतमें स्थित वे मुनि कुछ भी नहीं बोले, जिससे राजा कुपित हो गये और प्याससे आकुल तथा कलिसे प्रभावित चित्तवाले राजाने अपने धनुषकी नोकसे एक मृत साँप उठाकर उनके गलेमें डाल दिया । गलेमें सर्प डाल दिये जानेके बाद भी वे मुनिश्रेष्ठ कुछ भी नहीं बोले ॥ २२-२३ ॥
न चचाल समाधिस्थो राजापि स्वगृहं गतः । तस्य पुत्रोऽतितेजस्वी गविजातो महातपाः ॥ २४ ॥
वे थोड़ा भी विचलित नहीं हुए और समाधि स्थित रहे । राजा भी अपने घर चले गये । उन मुनिका पुत्र गविजात अत्यन्त तेजस्वी तथा महातपस्वी था ॥ २४ ॥
पराशक्तिके आराधक उस गविजातने पासके वनमें खेलते हुए अपने मित्रोंको ऐसा कहते हुए सुना कि हे मुनिश्रेष्ठ ! तुम्हारे पिताके गलेमें किसीने मृत सर्प डाल दिया है । उनकी यह बात सुनकर वह अत्यन्त कुपित हुआ और शीघ्र ही हाथमें जल लेकर उसने कुपित होकर राजाको शाप दे दिया-जिस व्यक्तिने मेरे पिताजीके कण्ठमें मृत सर्प डाला है, उस पापी पुरुषको एक सप्ताहमें तक्षक डस लेगा । मुनिके शिष्यने महलमें स्थित राजा परीक्षित्के समीप जाकर मुनिपुत्रके द्वारा दिये गये शापकी बात कही । ब्राह्मणके द्वारा दिये गये शापको सुनकर अभिमन्युपुत्र परीक्षितने उसे अनिवार्य समझकर वृद्ध मन्त्रियोंसे कहा-अपने अपराधके कारण मैं मुनिपुत्रसे शापित हुआ हूँ ॥ २५-३० ॥
हे मन्त्रियो ! अब मुझे क्या करना चाहिये ? आप लोग कोई उपाय सोचें । मृत्यु तो अनिवार्य है-ऐसा वेदवादी लोग कहते हैं, तथापि बुद्धिमान् पुरुषोंको शास्त्रोक्त रीतिसे सर्वथा प्रयत्ल करना ही चाहिये । कुछ पुरुषार्थवादी विद्वान् ऐसा कहते हैं कि बुद्धिमानीके साथ उपाय करनेपर कार्य सिद्ध हो जाते हैं; न करनेपर नहीं । मणि, मन्त्र और औषधोंके प्रभाव अत्यन्त ही दुर्जेय होते हैं । मणि धारण करनेवाले सिद्धजनोंके द्वारा क्या नहीं सम्भव हो जाता ? पूर्वकालमें किसी ऋषिपत्नीको सर्पने काट लिया था, जिससे वह मर गयी थी । उस समय उस मुनिने अपनी आयुका आधा भाग देकर उस श्रेष्ठ अप्सराको जीवित कर दिया था । अत: बुद्धिमान् लोगोंको चाहिये कि वे भवितव्यतापर विश्वास न करें, उपाय भी करें ॥ ३१-३५ ॥
हे सचिवो ! आपलोग यह दृष्टान्त प्रत्यक्ष देख लें । इस लोक या परलोकमें ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं दिखायी देता, जो केवल भाग्यके भरोसे रहकर उद्यम न करता हो । गृहस्थीसे विरक्त मनुष्य संन्यासी होकर जगह-जगह भिक्षाटनके लिये बुलानेपर अथवा बिना बुलाये भी गृहस्थोंके घर जाता ही है । दैवात्प्राप्त उस भोजनको भी क्या कोई मुखमें डाल देता है ? उद्यमके बिना वह भोजन मुखसे उदरमें कैसे प्रवेश कर सकता है ? अतः प्रयत्नपूर्वक उद्यम तो करना ही चाहिये, यदि सफलता न मिले तो बुद्धिमान् मनुष्य मनमें विश्वास कर ले कि दैव यहाँ प्रबल है ॥ ३६-३९ ॥
तदा दैवं स्थितं चेति चित्तमालम्बयेद्बुधः ।
मन्त्रिण ऊचुः को मुनिर्येन दत्त्वार्धमायुषो जीविता प्रिया ॥ ४० ॥
मन्त्रियोंने कहा-हे महाराज ! वे कौन मुनि थे, जिन्होंने अपनी आधी आयु देकर अपनी प्रिय पत्नीको जीवित किया था ? वह कैसे मरी थी ? यह कथा विस्तारसे हमसे कहिये ॥ ४० ॥
कथं मृता महाराज तन्नो ब्रूहि सविस्तरम् । राजोवाच भृगोर्भार्या वरारोहा पुलोमा नाम सुन्दरी ॥ ४१ ॥ तस्यां तु च्यवनो नाम मुनिर्जातोऽतिविश्रुतः । च्यवनस्य च शर्यातेः सुकन्या नाम सुन्दरी ॥ ४२ ॥
राजा बोले-महर्षि भृगुकी एक सुन्दर स्त्री थी, जिसका नाम पुलोमा था । उससे परम विख्यात च्यवनमुनिका जन्म हुआ । च्यवनकी पत्नीका नाम सुकन्या था, वह महाराज शर्यातिकी रूपवती कन्या थी ॥ ४१-४२ ॥
उस सुकन्यासे श्रीमान् प्रमतिने जन्म लिया, जो बड़े यशस्वी थे । उस प्रमतिकी प्रिय पत्नीका नाम प्रतापी था । उन्हीं राजा प्रमतिके पुत्र परम तपस्वी 'रुरु' हुए ॥ ४३.५ ॥
उन्हीं दिनों स्थूलकेश नामक एक विख्यात ऋषि थे, जो बड़े ही तपस्वी, धर्मात्मा एवं सत्यनिष्ठ थे । इसी बीच त्रिलोकसुन्दरी मेनका नामकी श्रेष्ठ अप्सरा नदीके किनारे जलक्रीडा कर रही थी । वह अप्सरा विश्वावसुके द्वारा गर्भवती होकर वहाँसे निकल पड़ी ॥ ४४-४६ ॥
उस श्रेष्ठ अप्सराने स्थूलकेशके आश्रममें जाकर नदीतटपर एक त्रैलोक्यसुन्दरी कन्याको जन्म दिया और वह उसे छोड़कर चली गयी । तब उस नवजात शिशु कन्याको अनाथ जानकर मुनिवर स्थूलकेश अपने आश्रममें ले गये और उसका पालन-पोषण करने लगे । उन्होंने उसका नाम प्रमद्वरा रखा ॥ ४७-४८ ॥