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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
नवमोऽध्यायः

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परीक्षिद्‌राज्ञो गुप्तगृहे वासवर्णनम् -
सर्पके काटनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु, रुरुद्वारा अपनी आधी आयु देकर उसे जीवित कराना, मणि-मन्त्र-औषधिद्वारा सुरक्षित राजा परीक्षितका सात तलवाले भवनमें निवास करना -


परीक्षिदुवाच
कामार्तः स मुनिर्गत्वा रुरुः सुप्तो निजाश्रमे ।
पिता पप्रच्छ दीनं तं किं रुरो विमना असि ॥ १ ॥
परीक्षित् बोले-[हे सचिववृन्द !] इस प्रकार कामासक्त होकर रुरुमुनि अपने आश्रममें सो गये, तब उनके पिताने उन्हें दुःखी देखकर पूछा-हे रुरु ! तुम इतने उदास क्यों हो ? ॥ १ ॥

स तमाहातिकामार्तः स्थूलकेशस्य चाश्रमे ।
कन्या प्रमद्वरा नाम सा मे भार्या भवेदिति ॥ २ ॥
कामातुर रुरुने अपने पितासे कहा-महर्षि स्थूलकेशके आश्रममें प्रमद्वरा नामकी एक कन्या है; मैं चाहता हूँ कि वह मेरी पत्नी बन जाय ॥ २ ॥

स गत्वा प्रमतिस्तूर्णं स्थूलकेशं महामुनिम् ।
प्रमुह्य सुमुखं कृत्वा ययाचे तां वराननाम् ॥ ३ ॥
उन प्रमतिने महामुनि स्थूलकेशके पास शीघ्र जाकर उन्हें प्रसन्न तथा अपने अनुकूल करके उस सुन्दर कन्याकी याचना की ॥ ३ ॥

ददौ वाचं स्थूलकेशः प्रदास्यामि शुभेऽहनि ।
विवाहार्थं च सम्भारं रचयामासतुर्वने ॥ ४ ॥
प्रमतिः स्थूलकेशश्च विवाहार्थं समुद्यतौ ।
बभूवतुर्महात्मानौ समीपस्थौ तपोवने ॥ ५ ॥
महामुनि स्थूलकेशने यह वचन दे दिया कि किसी अच्छे मुहूर्तमें कन्यादान दूंगा । अब उस वनमें वे दोनों विवाहकी सामग्रीका प्रबन्ध करने लगे । इस प्रकार उस तपोवनमें समीपमें ही रहकर प्रमति और स्थूलकेश दोनों महात्मा विवाहोत्सवकी तैयारी करने लगे ॥ ४-५ ॥

तस्मिन्नवसरे कन्या रममाणा गृहाङ्गणे ।
प्रसुप्तं पन्नगं पादेनास्पृशच्चारुलोचना ॥ ६ ॥
दष्टा तु पन्नगेनाथ सा ममार वराङ्गना ।
कोलाहलस्तदा जातो मृतां दृष्ट्वा प्रमद्वराम् ॥ ७ ॥
उसी अवसरपर वह कन्या अपने घरके आँगनमें खेल रही थी, तभी एक सोये हुए सर्पसे उस सुनयनीका पैर छू गया । [स्पर्श होते ही] सर्पने उसे डंस लिया और वह सुन्दरी कन्या मर गयी । तब मृत्युको प्राप्त हुई प्रमद्वराको देखकर वहाँ कोलाहल मच गया ॥ ६-७ ॥

मिलिता मुनयः सर्वे चुक्रुशुः शोकसंयुताः ।
भूमौ तां पतितां दृष्ट्वा पिता तस्यातिदुःखितः ॥ ८ ॥
रुरोद विगतप्राणां दीप्यमानां सुतेजसा ।
रुरुः श्रुत्वा तदाक्रन्दं दर्शनार्थं समागतः ॥ ९ ॥
ददर्श पतितां तत्र सजीवामिव कामिनीम् ।
रुदन्तं स्थूलकेशं च दृष्ट्वान्यानृषिसत्तमान् ॥ १० ॥
सभी मुनि जुट गये और शोकसे ग्रस्त होकर रोने लगे । पृथ्वीपर प्राणहीन होकर पड़ी हुई अत्यन्त तेजसे देदीप्यमान उस कन्याको देखकर उसके पिता स्थूलकेश अत्यन्त दुःखित होकर रुदन करने लगे । उस समय करुण क्रन्दन सुनकर रुरु भी उसे देखनेके लिये आये । उन्होंने उस मृत पड़ी सुन्दरीको सजीवजैसी देखा । स्थूलकेश तथा अन्य श्रेष्ठ मुनियोंको रुदन करते देखकर रुरुमुनि उस स्थानसे बाहर आ करके विरहाकुल होकर रोने लगे ॥ ८-१० ॥

रुरुः स्थानाद्‌बहिर्गत्वा रुरोद विरहाकुलः ।
अहो दैवेन सर्पोऽयं प्रेषितः परमाद्‌भुतः ॥ ११ ॥
मम शर्मविघाताय दुःखहेतुरयं किल ।
किं करोमि क्व गच्छामि मृता मे प्राणवल्लभा ॥ १२ ॥
न वै जीवितुमिच्छामि वियुक्तः प्रिययानया ।
नालिङ्‌गिता वरारोहा न मया चुम्बिता मुखे ॥ १३ ॥
न पाणिग्रहणं प्राप्तं मन्दभाग्येन सर्वथा ।
लाजाहोमस्तथा चाग्नौ न कृतस्त्वनया सह ॥ १४ ॥
मानुष्यं धिगिदं कामं गच्छन्त्वद्य ममासवः ।
दुःखितस्य न वा मृत्युर्वाञ्छितः समुपैति हि ॥ १५ ॥
सुखं तर्हि कथं दिव्यमाप्यते भुवि वाञ्छितम् ।
प्रपतामि ह्रदे घोरे पावके प्रपताम्यहम् ॥ १६ ॥
[वे कहने लगे-] अहो ! प्रारब्धने ही मेरे सुखके विनाशके लिये ही यह अत्यन्त विचित्र सर्प भेजा था । यह निश्चित ही मेरे दुःखका कारण है । अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ? मेरी प्राणप्रिया तो मर गयी । अब मैं अपनी इस प्रियासे विलग होकर जीना नहीं चाहता । अभीतक मैंने उस सुन्दरीका आलिंगन आदि कोई सांसारिक सुख भी नहीं प्राप्त किया था । मैं ऐसा अभागा हूँ कि उसका पाणिग्रहण नहीं कर सका और न तो उसके साथ अग्निमें लाजाहोम ही कर पाया । मेरे इस मनुष्य-जीवनको धिक्कार है । अब तो मेरे प्राण निकल जायँ तो अच्छा है, जब दुःखित मनुष्यको चाहनेपर भी मृत्यु नहीं मिलती, तब इस संसारमें वांछित उत्तम सुख कैसे मिल सकता है ? अब मैं या तो कहीं किसी भयानक तालाबमें डूब जाऊँ, अग्निमें कूद पड़े, विष खा लूँ अथवा गले में फाँसी लगाकर प्राण त्याग दूँ ॥ ११-१६ ॥

विषमद्मि गले पाशं कृत्वा प्राणांस्त्यजाम्यहम् ।
विलप्यैवं रुरुस्तत्र विचार्य मनसा पुनः ॥ १७ ॥
उपायं चिन्तयामास स्थितस्तस्मिन्नदीतटे ।
मरणात्किं फलं मे स्यादात्महत्या दुरत्यया ॥ १८ ॥
दुःखितश्च पिता मे स्याज्जननी चातिदुःखिता ।
दैवस्तुष्टो भवेत्कामं दृष्ट्वा मां त्यक्तजीवितम् ॥ १९ ॥
सर्वः प्रमुदितश्च स्यान्मत्क्षये नात्र संशयः ।
उपकारः प्रियायाः कः परलोके भवेदपि ॥ २० ॥
मृते मय्यात्मघातेन विरहात्पीडितेऽपि च ।
परलोके प्रिया सापि न मे स्यादात्मघातिनः ॥ २१ ॥
एतदर्थं मृते दोषा मयि नैवामृते पुनः ।
इस प्रकार विलाप करके रुरु अपने मनमें विचारकर उस नदीके तटपर स्थित रहते हुए उपाय सोचने लगे । प्राण त्यागनेसे मुझे क्या लाभ होगा ? आत्महत्याका फल तो अत्यन्त दुर्निवार्य होता है । [मेरी मृत्यु सुनकर] पिताजी दुःखी होंगे, माताजीको भी महान् कष्ट होगा । हाँ, हो सकता है कि मुझे मरा हुआ देखकर प्रारब्ध सन्तुष्ट हो जाय ? मेरे मर जानेपर मेरे सभी शत्रु भी प्रसन्न होंगे, इसमें सन्देह नहीं है, किंतु इससे परलोकमें मेरी प्रियाका क्या उपकार होगा ? इस प्रकार विरहसे सन्तप्त होकर आत्महत्या करके मेरे मर जानेपर भी परलोकमें मुझ आत्मघातीको मेरी वह प्रिया नहीं मिलेगी । इसलिये मेरे मरनेमें बहुत दोष हैं और न मरनेपर मुझे कोई दोष | नहीं होगा ॥ १७–२१.५ ॥

विमृश्यैव रुरुस्तत्र स्नात्वाचम्य शुचिः स्थितः ॥ २२ ॥
अब्रवीद्वचनं कृत्वा जलं पाणावसौ मुनिः ।
यन्मया सुकृतं किञ्चित्कृतं देवार्चनादिकम् ॥ २३ ॥
गुरवः पूजिता भक्त्या हुतं जप्तं तपः कृतम् ।
अधीतास्त्वखिला वेदा गायत्री संस्कृता यदि ॥ २४ ॥
रविराराधितस्तेन सञ्जीवतु मम प्रिया ।
यदि जीवेन्न मे कान्ता त्यजे प्राणानहं ततः ॥ २५ ॥
इत्युक्त्वा तज्जलं भूमौ चिक्षेपाराध्य देवताः ।
ऐसा सोचकर रुरु स्नान तथा आचमन करके पवित्र होकर वहींपर बैठ गये । इसके बाद उन मुनिने हाथमें जल लेकर यह वचन कहा-यदि मेरे द्वारा देवाराधन आदि कुछ भी पुण्य कर्म सम्पादित किया गया हो, यदि मैंने श्रद्धापूर्वक गुरुओंकी पूजा की हो; हवन, जप एवं तप किया हो, समस्त वेदोंका अध्ययन किया हो, गायत्रीकी उपासना की हो और सूर्यकी आराधना की हो तो उस पुण्यके प्रभावसे मेरी प्रिया जीवित हो जाय । यदि मेरी प्रिया जीवित नहीं होगी तो मैं प्राण त्याग दूंगा । ऐसा कहकर देवताओंका ध्यान करके उन्होंने वह जल जमीनपर छोड़ दिया ॥ २२-२५.५ ॥

राजोवाच
एवं विलपतस्तस्य भार्यया दुःखितस्य च ॥ २६ ॥
राजा बोले-तदनन्तर इस प्रकार अपनी भार्याक लिये विलाप कर रहे उन दुःखित रुरुके पास एक देवदूत आकर यह वाक्य बोला ॥ २६ ॥

देवदूतस्तदाभ्येत्य वाक्यमाह रुरुं ततः ।
देवदूत उवाच
माकार्षीः साहसं ब्रह्मन्कथं जीवेन्मृता प्रिया ॥ २७ ॥
गतायुरेषा सुश्रोणी गन्धर्वाप्सरसोः सुता ।
अन्यां कामय चार्वङ्गीं मृतेयं चाविवाहिता ॥ २८ ॥
देवदूत बोला-हे ब्रह्मन् ! ऐसा साहस मत कीजिये । आपकी मरी हुई प्रियतमा भला कैसे जीवित हो सकेगी ? गन्धर्व और अप्सराकी इस सुन्दर कन्याकी आयु समाप्त हो चुकी थी, जिससे यह अविवाहिता ही मर गयी; अतः अब आप किसी अन्य शुभ अंगोंवाली कन्याका वरण कर लीजिये । हे हतबुद्धि ! आप क्यों रो रहे हैं ? इसके साथ आपका कैसा प्रेम है ? ॥ २७-२८ ॥

किं रोदिषि सुदुर्बुद्धे का प्रीतिस्तेऽनया सह ।
रुरुरुवाच
देवदूत न चान्यां वै वरिष्याम्यहमङ्गनाम् ॥ २९ ॥
रुरु बोले-हे देवदूत ! मैं किसी अन्य सुन्दरीका वरण नहीं करूँगा । यदि यह जीवित हो जाती है तो ठीक है, अन्यथा मैं इसी समय अपने प्राण त्याग दूंगा ॥ २९ ॥

यदि जीवेन्न जीवेद्वा मर्तव्यं चाधुना मया ।
राजोवाच
विदित्वेति हठं तस्य देवदूतो मुदान्वितः ॥ ३० ॥
उवाच वचनं तथ्यं सत्यं चातिमनोहरम् ।
उपायं शृणु विप्रेन्द्र विहितं यत्सुरैः पुरा ॥ ३१ ॥
आयुषोऽर्धप्रदानेन जीवयाशु प्रमद्वराम् ।
राजा बोले-उन मुनिका यह हठ देखकर देवदूतने प्रसन्न होकर तथ्यपूर्ण, सत्य तथा मनोहर वचन कहा-हे विप्रेन्द्र ! देवताओंके द्वारा इसका पूर्वविहित उपाय मुझसे सुनिये । आप अपनी आयुका आधा भाग देकर अपनी प्रमद्वराको शीघ्र ही जीवित कर लीजिये ॥ ३०-३१.५ ॥

रुरुरुवाच
आयुषोऽर्धं प्रयच्छामि कन्यायै नात्र संशयः ॥ ३२ ॥
अद्य प्रत्यावृतप्राणा प्रोत्तिष्ठतु मम प्रिया ।
विश्वावसुस्तदा तत्र विमानेन समागतः ॥ ३३ ॥
ज्ञात्वा पुत्रीं मृतां चाशु स्वर्गलोकात्प्रमद्वराम् ।
ततो गन्धर्वराजश्च देवदूतश्च सत्तमः ॥ ३४ ॥
धर्मराजमुपेत्येदं वचनं प्रत्यभाषताम् ।
धर्मराज रुरोः पत्‍नी सुता विश्वावसोस्तथा ॥ ३५ ॥
मृता प्रमद्वरा कन्या दष्टा सर्पेण चाधुना ।
सा रुरोरायुषोऽर्धेन मर्तुकामस्य सूर्यज ॥ ३६ ॥
रुरु बोले-मैं निःसन्देह अपनी आयुका आधा भाग इस कन्याको दे रहा हूँ । अब मेरी प्रियतमाके प्राण वापस आ जायँ और यह उठकर बैठ जाय । उसी समय विश्वावसु अपनी पुत्री प्रमद्वराकी मृत्यु जान करके स्वर्गलोकसे विमानद्वारा शीघ्र ही वहाँ आ गये । तत्पश्चात् गन्धर्वराज विश्वावसु तथा उस श्रेष्ठ देवदूतने धर्मराजके पास पहुँचकर यह वचन कहाहे धर्मराज ! रुरुकी पत्नी तथा विश्वावसुकी पुत्री इस प्रमद्वरा नामक कन्याकी सर्पदंशके कारण इस समय मृत्यु हो गयी है । हे सूर्यतनय ! इसके वियोगमें मरणके लिये उद्यत मुनि रुरुकी आधी आयु तथा उनकी तपस्याके प्रभावसे यह कोमलांगी जीवित हो जाय ॥ ३२-३६ ॥

समुत्तिष्ठतु तन्वङ्गी व्रतचर्याप्रभावतः ।
धर्म उवाच
विश्वावसुसुतां कन्यां देवदूत यदीच्छसि ॥ ३७ ॥
उत्तिष्ठत्वायुषोऽर्धेन रुरुं गत्वा त्वमर्पय ।
धर्मराजने कहा-हे देवदूत ! यदि तुम ऐसा चाहते हो तो उसकी आधी आयुसे विश्वावसुकी यह कन्या जीवित होकर उठ जाय और तुम जाकर इसे रुरुको समर्पित कर दो ॥ ३७.५ ॥

राजोवाच
एवमुक्तस्ततो गत्वा जीवयित्वा प्रमद्वराम् ॥ ३८ ॥
रुरोः समर्पयामास देवदूतस्त्वरान्वितः ।
ततः शुभेऽह्नि विधिना रुरुणापि विवाहिता ॥ ३९ ॥
राजा बोले-धर्मराजके ऐसा कहनेपर देवदतने जाकर प्रमद्वराको जीवित करके शीघ्र ही रुरुको समर्पित कर दिया और तत्पश्चात् रुरुने किसी शुभ दिन उसके साथ विधानपूर्वक विवाह कर लिया ॥ ३८-३९ ॥

इत्थं चोपाययोगेन मृताप्युज्जीविता तदा ।
उपायस्तु प्रकर्तव्यः सर्वथा शास्त्रसम्मतः ॥ ४० ॥
इस प्रकार उपायका आश्रय लेकर मृत प्रमद्वराको भी जीवित कर लिया गया था । अतः मणि, मन्त्र तथा औषधियोंके विधिवत् प्रयोगद्वारा प्राणरक्षाके लिये शास्त्र-सम्मत उपाय अवश्य किया जाना चाहिये ॥ ४० ॥

मणिमन्त्रौषधीभिश्च विधिवत्प्राणरक्षणे ।
इत्युक्त्वा सचिवान् राजा कल्पयित्वा सुरक्षकान् ॥ ४१ ॥
कारयित्वाथ प्रासादं सप्तभूमिकमुत्तमम् ।
आरुरोहोत्तरासूनुः सचिवैः सह तत्क्षणम् ॥ ४२ ॥
मन्त्रियोंसे यह कहकर उत्तम रक्षकोंकी व्यवस्था करके एक सात तलवाला उत्तम राजभवन बनवाकर उसी क्षण उत्तरापुत्र परीक्षित् अपने मन्त्रियोंके साथ उसपर चढ़ गये ॥ ४१-४२ ॥

मणिमन्त्रधराः शूराः स्थापितास्तत्र रक्षणे ।
प्रेषयामास भूपालो मुनिं गौरमुखं ततः ॥ ४३ ॥
प्रसादार्थं सेवकस्य क्षमस्वेति पुनः पुनः ।
ब्राह्मणान्सिद्धमन्त्रज्ञान् रक्षणार्थमितस्ततः ॥ ४४ ॥
उस भवनकी सम्यक् सुरक्षाके लिये मणिमन्त्र-धारी वीरोंको नियुक्त किया गया और इसके बाद राजाने गौरमुखमुनिको [गविजातके पास उन्हें] प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे भेजा और कहलाया कि मुझ सेवकका अपराध वे बार-बार क्षमा करें । तत्पश्चात् राजाने मन्त्र-प्रयोगमें निपुण ब्राह्मणोंको रक्षा-कार्यके निमित्त चारों ओर नियुक्त कर दिया । ॥ ४३-४४ ॥

मन्त्रिपुत्रः स्थितस्तत्र स्थापयामास दन्तिनः ।
न कश्चिदारुहेत्तत्र प्रासादे चातिरक्षिते ॥ ४५ ॥
एक मन्त्रिपुत्र वहाँ नियुक्त किया गया, जिसने महलके चारों ओर हाथियोंका घेरा स्थापित कराया ताकि विशेषरूपसे रक्षित उस महलपर कोई चढ़ न सके ॥ ४५ ॥

वातोऽपि न चरेत्तत्र प्रवेशे विनिवार्यते ।
भक्ष्यभोज्यादिकं राजा तत्रस्थश्च चकार सः ॥ ४६ ॥
स्तानसन्ध्यादिकं कर्म तत्रैव विनिवर्त्य च ।
राजकार्याणि सर्वाणि तत्रस्थश्चाकरोन्नृपः ॥ ४७ ॥
मन्त्रिभिः सह सम्मन्त्र्य गणयन्दिवसानपि ।
महलके भीतर वायुका भी संचरण नहीं हो पाता था; क्योंकि उसका प्रवेश सर्वथा वर्जित था । राजा वहीं स्थित रहकर भोजनादि करने लगे । वहींपर रहते हुए स्नान एवं सन्ध्यादि कार्योंसे निवृत्त होकर राजा मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करते तथा शापके दिन गिनते हुए समस्त राजकार्योको संचालित करते थे । ४६-४७.५ ॥

कश्चिच्च कश्यपो नाम ब्राह्मणो मन्त्रिसत्तमः ॥ ४८ ॥
शुश्राव च तथा शापं प्राप्तं राज्ञा महात्मना ।
स धनार्थी द्विजश्रेष्ठः कश्यपः समचिन्तयत् ॥ ४९ ॥
व्रजामि तत्र यत्रास्ते शप्तो राजा द्विजेन ह ।
इति कृत्वा मतिं विप्रः स्वगृहान्निःसृतः पथि ॥ ५० ॥
कश्यपो मन्त्रविद्विद्वान्धनार्थी मुनिसत्तमः ॥ ५१ ॥
इसी बीच किसी कश्यप नामक मन्त्र-विशेषज्ञ ब्राह्मणने सुना कि राजा परीक्षित्को [सर्पद्वारा काटे जानेका] शाप प्राप्त हुआ है । उस धनाभिलाषी ब्राह्मणश्रेष्ठ कश्यपने विचार किया कि मुनिके द्वारा शापित राजा इस समय जहाँ रह रहे हैं, मैं वहीं पर जाऊँगा । ऐसा निश्चय करके मन्त्रज्ञ, विद्वान् तथा धनाभिलाषी वह कश्यप नामक मुनिश्रेष्ठ विप्र अपने घरसे निकलकर रास्तेपर चल पड़ा ॥ ४८-५१ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्या संहितायां द्वितीयस्कन्धे
परीक्षिद्‌राज्ञो गुप्तगृहे वासवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
अध्याय नववाँ समाप्त


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