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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
दशमोऽध्यायः

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परीक्षिन्मरणम् -
महाराज परीक्षितको डंसनेके लिये तक्षकका प्रस्थान, मार्गमें मन्त्रवेत्ता कश्यपसे भेंट, तक्षकका एक वटवृक्षको डंसकर भस्म कर देना और कश्यपका उसे पुनः हरा-भरा कर देना, तक्षकद्वारा धन देकर कश्यपको वापस कर देना, सर्पदंशसे राजा परीक्षितकी मृत्यु -


सूत उवाच
तस्मिन्नेव दिने नाम्ना तक्षकस्तं नृपोत्तमम् ।
शप्तं ज्ञात्वा गृहात्तूर्णं निःसृतः पुरुषोत्तमः ॥ १ ॥
वृद्धब्राह्मणवेषेण तक्षकः पथि निर्गतः ।
अपश्यत्कश्यपं मार्गे व्रजन्तं नृपतिं प्रति ॥ २ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनिवृन्द !] उसी दिन तक्षक नामक नाग नृपश्रेष्ठ परीक्षित्को शापित जानकर एक उत्तम मनुष्यका रूप धारण करके अपने घरसे शीघ्र निकल पड़ा । वृद्ध ब्राह्मणके वेषमें रास्तेपर चलते हुए उस तक्षकने महाराज परीक्षित्के यहाँ जाते हुए कश्यपको देखा ॥ १-२ ॥

तमपृच्छत्पन्नगोऽसौ ब्राह्मणं मन्त्रवादिनम् ।
क्व भवांस्त्वरितो याति किञ्च कार्यं चिकीर्षति ॥ ३ ॥
उस नागने उन मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणसे पूछा-आप इतनी शीघ्र गतिसे कहाँ चले जा रहे हैं और कौनसा कार्य करनेकी आपकी इच्छा है ? ॥ ३ ॥

कश्यप उवाच
परीक्षितं नृपश्रेष्ठं तक्षकश्च प्रधक्ष्यति ।
तत्राहं त्वरितो यामि नृपं कर्तुमपज्वरम् ॥ ४ ॥
कश्यपने कहा-महाराज परीक्षितको तक्षकनाग इसनेवाला है । अतः मैं उन्हें विषमुक्त करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक वहीं जा रहा हूँ ॥ ४ ॥

मन्त्रोऽस्ति मम विप्रेन्द्र विषनाशकरः किल ।
जीवयिष्याम्यहं तं वै जीवितव्येऽधुना किल ॥ ५ ॥
हे विप्रेन्द्र ! मेरे पास प्रबल विषनाशक मन्त्र है, अतएव यदि उनकी आयु शेष होगी तो मैं उन्हें जीवित कर दूंगा ॥ ५ ॥

तक्षक उवाच
अहं स पन्नगो ब्रह्मंस्तं धक्ष्यामि महीपतिम् ।
निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् ॥ ६ ॥
तक्षकने कहा-हे ब्रह्मन् ! मैं ही वह तक्षकनाग हूँ और मैं ही महाराज परीक्षितको का,गा । मेरे काट लेनेपर आप चिकित्सा करनेमें समर्थ नहीं हो सकेंगे; अतएव आप लौट जाइये ॥ ६ ॥

कश्यप उवाच
अहं दष्टं त्वया सर्प नृपं शप्तं द्विजेन वै ।
जीवयिष्याम्यसन्देहं कामं मन्त्रबलेन वै ॥ ७ ॥
कश्यपने कहा-हे सर्प ! ब्राह्मणके द्वारा शापित किये गये राजाको आपके काटनेके उपरान्त मैं उन्हें अपने मन्त्रबलसे नि:सन्देह जीवित कर दूंगा ॥ ७ ॥

तक्षक उवाच
यदि त्वं जीवितुं यासि मया दष्टं नृपोत्तमम् ।
मन्त्रशक्तिबलं विप्र दर्शय त्वं ममानघ ॥ ८ ॥
धक्ष्याम्येनं च न्यग्रोधं विषदंष्ट्राभिरद्य वै ।
तक्षकने कहा-हे विप्र ! हे अनघ ! यदि आप मेरे काटे हुए नृपश्रेष्ठ परीक्षितको जीवित करनेके लिये जा रहे हैं तो आप अपनी मन्त्र-शक्तिका प्रभाव दिखाइये । मैं इसी समय इस वटवृक्षको अपने विषैले दाँतोंसे डंसता हूँ ॥ ८.५ ॥

कश्यप उवाच
जीवयिष्ये त्वया दष्टं दग्धं वा पन्नगोत्तम ॥ ९ ॥
कश्यपने कहा-हे सर्पश्रेष्ठ ! आप इसे काट लें अथवा इसे जलाकर भस्म कर दें तो भी मैं इसे पुनः जीवित कर दूंगा ॥ ९ ॥

सूत उवाच
अदशत्पन्नगो वृक्षं भस्मसाच्च चकार तम् ।
उवाच कश्यपं भूयो जीवयैनं द्विजोत्तम ॥ १० ॥
सूतजी बोले-नागराज तक्षकने उस वृक्षको डंस लिया और उसे जलाकर भस्म कर दिया । तब उसने कश्यपसे कहा-'हे द्विज श्रेष्ठ ! अब आप इसे पुनः जीवित कीजिये' ॥ १० ॥

दृष्ट्वा भस्मीकृतं वृक्षं पन्नगेन विषाग्निना ।
सर्वं भस्म समाहृत्य कश्यपो वाक्यमब्रवीत् ॥ ११ ॥
पश्य मन्त्रबलं मेऽद्य न्यग्रोधं पन्नगोत्तम ।
जीवयाम्यद्य वृक्षं वै पश्यतस्ते महाविष ॥ १२ ॥
तक्षकनागको विषाग्निसे भस्म हुए वृक्षके सम्पूर्ण भस्मको एकत्र करके कश्यपने यह बात कही-हे महाविषधर नागराज ! अब आप मेरे मन्त्रका प्रभाव देखिये । मैं आपके देखते-देखते इस वटवृक्षको जीवन प्रदान करता हूँ ॥ ११-१२ ॥

इत्युक्त्वा जलमादाय कश्यपो मन्त्रवित्तमः ।
सिषेच भस्मराशिं तं मन्त्रितेनैव वारिणा ॥ १३ ॥
तद्वारिसेचनाज्जातो न्यग्रोधः पूर्ववच्छुभः ।
विस्मयं तक्षकः प्राप्तो दृष्ट्वा तं जीवितं नगम् ॥ १४ ॥
ऐसा कहकर हाथमें जल लेकर मन्त्रविद् कश्यपने उस जलको अभिमन्त्रित किया और उसे भस्मराशिपर छिड़क दिया । जलके पड़ते ही वह वटवृक्ष पुन: पहलेकी भाँति सुन्दर हो गया । उस वृक्षको इस प्रकार जीवित देखकर तक्षकको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ १३-१४ ॥

तमाह कश्यपं नागः किमर्थं ते परिश्रमः ।
सम्पादयामि तं कामं ब्रूहि वाडव वाञ्छितम् ॥ १५ ॥
उस नागराजने कश्यपसे कहा-हे विप्र ! आप इतना परिश्रम किसलिये करेंगे ? आपकी वह कामना मैं ही पूर्ण कर दूंगा । कहिये, आप क्या चाहते हैं ? ॥ १५ ॥

कश्यप उवाच
वित्तार्थी नृपतिं मत्वा शप्तं पन्नग निःसृतः ।
गृहादहं चोपकर्तुं विद्यया नृपसत्तमम् ॥ १६ ॥
कश्यपने कहा-हे पन्नग ! मैं धनका अभिलाषी हूँ; नृपश्रेष्ठ परीक्षित्को शापित जानकर अपनी मन्त्रविद्यासे उनका उपकार करनेके लिये मैं अपने घरसे निकला हुआ हूँ ॥ १६ ॥

तक्षक उवाच
वित्तं गृहाण विप्रेन्द्र यावदिच्छसि पार्थिवात् ।
ददामि स्वगृहं याहि सकामोऽहं भवाम्यतः ॥ १७ ॥
तक्षकने कहा-हे विप्रवर ! राजासे जितना धन आप चाहते हैं, उतना धन मुझसे अभी ले लें और अपने घर लौट जाये, जिससे मैं अपने कृत्यमें सफल हो सकूँ ॥ १७ ॥

सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कश्यपः परमार्थवित् ।
चिन्तयामास मनसा किं करोमि पुनः पुनः ॥ १८ ॥
धनं गहीत्वा स्वगृहं प्रयामि यद्यहं पुनः ।
भविष्यति न मे कीर्तिर्लोके लोभसमाश्रयात् ॥ १९ ॥
जीवितेऽथ नृपश्रेष्ठे कीर्तिः स्यादचला मम ।
धनप्राप्तिश्च बहुधा भवेत्पुण्यं च जीवनात् ॥ २० ॥
सूतजी बोले-तक्षककी यह बात सुनकर परमार्थवेत्ता कश्यपजी मनमें बार-बार सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं धन लेकर अपने घर जाता हूँ तो धनलोलुप होनेके कारण संसारमें मेरी कीर्ति नहीं होगी । यदि राजा जीवित हो जाते हैं तो मेरी अचल कीर्ति होगी तथा धन-प्राप्तिके साथ-साथ पुण्य भी प्राप्त होगा ॥ १८-२० ॥

रक्षणीयं यशः कामं धिग्धनं यशसा विना ।
सर्वस्वं रघुणा पूर्वं दत्तं विप्राय कीर्तये ॥ २१ ॥
हरिश्चन्द्रेण कर्णेन कीर्त्यर्थं बहुविस्तरम् ।
उपेक्षेयं कथं भूपं दह्यमानं विषाग्निना ॥ २२ ॥
यश ही रक्षणीय है और बिना यशके धनको धिक्कार है; क्योंकि प्राचीन कालमें महाराज रघुने कीर्तिके लिये अपना सब कुछ ब्राह्मणको दे दिया था । सत्यवादी हरिश्चन्द्र तथा दानी कर्णने भी केवल कीर्तिके लिये बहुत कुछ किया था । अत: विषकी अग्निसे जलते हुए राजा परीक्षितकी उपेक्षा मैं कैसे करूँ ? ॥ २१-२२ ॥

जीवितेऽद्य मया राज्ञि सुखं सर्वजनस्य च ।
अराजके प्रजानाशो भविता नात्र संशयः ॥ २३ ॥
यदि मैं महाराजको जिला दूँ तो सब लोगोंको अत्यन्त सुख मिलेगा और यदि राजा मर गये तो अराजकताके कारण सारी प्रजा नष्ट हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २३ ॥

प्रजानाशस्य पापं मे भविष्यति मृते नृपे ।
अपकीर्तिश्च लोकेषु धनलोभाद्‌भविष्यति ॥ २४ ॥
राजाके मृत हो जाने पर मुझे प्रजानाशका पाप लगेगा तथा संसारमें धन-लोभके कारण मेरी अपकीर्ति भी होगी ॥ २४ ॥

इति सञ्चिन्त्य मनसा ध्यानं कृत्वा स कश्यपः ।
गतायुषं च नृपतिं ज्ञातवाम्बुद्धिमत्तरः ॥ २५ ॥
मनमें ऐसा विचार करके परम बुद्धिमान् कश्यपने ध्यान करके जाना कि महाराज परीक्षित्की आयु अब समाप्त हो चुकी है ॥ २५ ॥

आसन्नमृत्युं राजानं ज्ञात्वा ध्यानेन कश्यपः ।
गृहं ययौ स धर्मात्मा धनमादाय तक्षकात् ॥ २६ ॥
इस प्रकार ध्यान-दृष्टिसे धर्मात्मा कश्यप राजाकी मृत्यु निकट जानकर तक्षकसे धन लेकर अपने घर लौट गये ॥ २६ ॥

निवर्त्य कश्यपं सर्पः सप्तमे दिवसे नृपम् ।
हन्तुकामो जगामाशु नगरं नागसाह्वयम् ॥ २७ ॥
कश्यपको लौटाकर वह नाग सातवें दिन राजाको डंसनेकी इच्छासे शीघ्र हस्तिनापुर चला गया । ॥ २७ ॥

शुश्राव नगरस्यान्ते प्रासादस्थं परीक्षितम् ।
मणिमन्त्रौषधैः कामं रक्ष्यमाणमतन्द्रितम् ॥ २८ ॥
नगरमें पहुँचते ही उसने सुना कि मणि, मन्त्र तथा औषधियोंसे भलीभाँति सावधानीपूर्वक सुरक्षित होकर राजा परीक्षित् अपने महल में रह रहे हैं ॥ २८ ॥

चिन्ताविष्टस्तदा नागो विप्रशापभयाकुलः ।
चिन्तयामास योगेन प्रविशेयं गृहं कथम् ॥ २९ ॥
वञ्जयामि कथं चैनं राजानं पापकारिणम् ।
विप्रशापाद्धतं मूढं विप्रपीडाकरं शठम् ॥ ३० ॥
[यह जानकर] ब्राह्मणके शापसे भयभीत सर्पराज तक्षकको बड़ी चिन्ता हुई । वह सोचने लगा कि अब मैं किस उपायसे इस राजभवनमें प्रवेश करूँ ? और इस पापी, मूढ, विप्रको पीड़ित करनेवाले तथा मुनिके शापसे आहत इस दुष्ट राजाको मैं कैसे छलूँ ? ॥ २९-३० ॥

पाण्डवानां कुले जातः कोऽपि नैतादृशो भवेत् ।
तापसस्य गले येन मृतः सर्पो निवेशितः ॥ ३१ ॥
पाण्डववंशमें ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसने इस प्रकार किसी तपस्वी ब्राह्मणके गलेमें मृत सर्प डाल दिया हो ॥ ३१ ॥

कृत्वा विगर्हितं कर्म जानन्कालगतिं नृपः ।
रक्षकान्भवने कृत्वा प्रासादमभिगम्य च ॥ ३२ ॥
मृत्युं वञ्चयते राजा वर्ततेऽद्य निराकुलः ।
तं कथं धक्षयिष्यामि विप्रवाक्येन चोदितः ॥ ३३ ॥
ऐसा निन्दित कर्म करके कालचक्रको जानते हुए भी यह राजा भवनमें रक्षकोंकी नियुक्ति करके राज-भवनमें छिपकर मृत्युकी वंचना कर रहा है और निश्चिन्त होकर पड़ा है । विप्रके शापानुसार मैं उस राजाको कैसे छलूँ ? ॥ ३२-३३ ॥

न जानाति च मन्दात्मा मरणं ह्यनिवर्तनम् ।
तेनासौ रक्षकान्स्थाप्य सौधारूढोऽद्य मोदते ॥ ३४ ॥
यह मन्दबुद्धि इतना भी नहीं जानता कि मृत्यु तो अनिवार्य है ? इसी कारण यह रक्षकोंकी नियुक्ति करके स्वयं भवनपर चढ़कर आनन्द ले रहा है ॥ ३४ ॥

यदि वै विहितो मृत्युर्दैवेनामिततेजसा ।
स कथं परिवर्तेत कृतैर्यत्‍नैस्तु कोटिभिः ॥ ३५ ॥
यदि अमित तेजवाले दैवने मृत्यु निश्चित कर दी है तो करोड़ों प्रकारके प्रयत्नोंसे भी उसे कैसे टाला जा सकता है ? ॥ ३५ ॥

पाण्डवस्य च दायादो जानन्मृत्युं गतं नृपः ।
जीवने मतिमास्थाय स्थितः स्थाने निराकुलः ॥ ३६ ॥
पाण्डववंशका उत्तराधिकारी यह राजा परीक्षित अपनेको मृत्युके मुखमें गया हुआ जानते हुए भी जीवित रहनेकी अभिलाषा रखकर सुरक्षित स्थानमें निश्चिन्त होकर पड़ा हुआ है ॥ ३६ ॥

दानपुण्यादिकं राजा कर्तुमर्हति सर्वथा ।
धर्मेण हन्यते व्याधिर्येनायुः शाश्वतं भवेत् ॥ ३७ ॥
यह यदि चाहता तो अनेक प्रकारके दानपुण्य-द्वारा अपनी आयु बढ़ा सकता था; क्योंकि धर्माचरणसे व्याधि नष्ट होती है और उससे आयु स्थिर होती है ॥ ३७ ॥

नोचेन्मृत्युविधिं कृत्वा स्नानदानादिकाः क्रियाः ।
मरणं स्वर्गलोकाय नरकायान्यथा भवेतू ॥ ३८ ॥
। यदि ऐसा सम्भव नहीं था तो मृत्युके समय सम्पन्न की जानेवाली स्नान, दान आदि क्रियाएँ करके मृत्युके अनन्तर स्वर्गयात्रा कर सकता था, अन्यथा इसे नरक जाना होगा ॥ ३८ ॥

द्विजपीडाकृतं पापं पृथग्वास्य च भूपतेः ।
विप्रशापस्तथा घोर आसन्ने मरणे किल ॥ ३९ ॥
मुनिको पीड़ा पहुँचानेका पाप इस राजाको था ही और ब्राह्मणका घोर शाप अलगसे है । अतः अब इसकी मृत्यु सन्निकट है ॥ ३९ ॥

न कोऽपि ब्राह्मणः पार्श्वे य एनं प्रतिबोधयेत् ।
वेधसा विहितो मृत्युरनिवार्यस्तु सर्वथा ॥ ४० ॥
इस समय ऐसा कोई ब्राह्मण भी इसके पास नहीं है, जो इसे यह बता सके कि विधाताके द्वारा निर्धारित मृत्यु सर्वथा अनिवार्य है ॥ ४० ॥

इति सञ्चिन्त्य सर्पोऽसौ स्वान्नागान्निकटे स्थितान् ।
कृत्वा तापसवेषांस्तान्प्राहिणोत्सुभुजङ्गमान् ॥ ४१ ॥
फलमूलादिकं गृह्य राज्ञे नागोऽथ तक्षकः ।
स्वयं च कीटरूपेण फलमध्ये ससार ह ॥ ४२ ॥
ऐसा विचारकर तक्षकनागने अपने निकटवर्ती श्रेष्ठ नागोंको तपस्वी ब्राह्मणोंका वेष धारण कराकर राजाके पास भेजा । वे राजाको देनेके लिये फल-मूल आदि लेकर तैयार हो गये और तक्षकनाग भी एक छोटे-से कीटके रूपमें फलके बीचमें छिप गया ॥ ४१-४२ ॥

निर्गतास्ते तदा नागाः फलान्यादाय सत्वराः ।
ते राजभवनं प्राप्य स्थिताः प्रासादसन्निधौ ॥ ४३ ॥
तब वे नाग फल आदि लेकर शीघ्र ही निकल पड़े और राजभवनमें पहुंचकर महलके पास खडे हो गये ॥ ४३ ॥

रक्षकास्तापसान्दृष्ट्वा पप्रच्छुस्तच्चिकीर्षितम् ।
ऊचुस्ते भूपतिं द्रष्टुं प्राप्ताः स्मोऽद्य तपोवनात् ॥ ४४ ॥
इस प्रकार तपस्वियोंको खड़े देखकर रक्षकोंने उनसे पूछा कि आपलोगोंकी क्या इच्छा है ? तब उन्होंने कहा-हमलोग महाराजको देखनेके लिये तपोवनसे आये हैं । ४४ ॥

अभिमन्युसुतं वीरं कुलार्कं चारुदर्शनम् ।
परिवर्धयितुं प्राप्ता मन्त्रैराथर्वणैस्तथा ॥ ४५ ॥
पाण्डवकुलके सूर्य, शुभदर्शन तथा पराक्रमी अभिमन्यु-पुत्र परीक्षित्को अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे आशीर्वाद देनेहेतु हमलोग यहाँ आये हैं ॥ ४५ ॥

निवेदयध्वं राजानं दर्शनार्थागतान्मुनीन् ।
कृत्वाभिषेकान्यास्यामो दत्त्वा मिष्टफलानिच ॥ ४६ ॥
आप जाकर महाराजसे कहें कि कुछ मुनिजन उनसे मिलने आये हैं और वे महाराजका मन्त्राभिषेक करके उन्हें मधुर फल देकर लौट जायेंगे ॥ ४६ ॥

भारतानां कुले वापि न दृष्टा द्वाररक्षकाः ।
न श्रुतं तापसानां तु राज्ञोऽसन्दर्शनं किल ॥ ४७ ॥
आरोहामो वयं तत्र यत्र राजा परीक्षितः ।
आशीर्भिर्वर्धयित्वैनं दत्ताज्ञाः प्रव्रजामहे ॥ ४८ ॥
भरतवंशी राजाओंके कुलमें कभी भी द्वाररक्षक नहीं देखे गये । ऐसा भी कहीं सुना नहीं गया कि तपस्वियोंको राजाका दर्शन न मिले । जहाँ महाराज परीक्षित् विराजमान हैं, वहाँ हमलोग जायेंगे और उन्हें अपने आशीर्वादसे दीर्घायुष्य बनाकर आज्ञा लेकर लौट जायँगे ॥ ४७-४८ ॥

सूत उवाच
इत्याकर्ण्य वचस्तेषां तापसानां तु रक्षकाः ।
प्रत्यूचुस्तान् द्विजान्मत्वा निदेशं भूपतेर्यथा ॥ ४९ ॥
नाद्य वो दर्शनं विप्रा राज्ञः स्यादिति नो मतिः ।
श्वः सर्वतापसैरत्र त्वागन्तव्यं नृपालये ॥ ५० ॥
सूतजी बोले-उन तपस्वियोंका वचन सुनकर रक्षकोंने उन्हें ब्राह्मण समझकर महाराजका आदेश सुनाते हुए कहा-हे विप्रो ! हमारे विचारमें आज आपलोगोंको राजाका दर्शन नहीं हो सकेगा । अतः आप समस्त तपस्वीजन राजभवनमें कल पधारें । ४९-५० ॥

अनारोहस्तु प्रासादो विप्राणां मुनिसत्तमाः ।
विप्रशापभयाद्‌राज्ञा विहितोऽस्ति न संशयः ॥ ५१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठो ! विप्रशापसे भयभीत होकर राजाने अपने महलमें ब्राह्मणोंका प्रवेश वर्जित कर रखा है; इसमें संशय नहीं है ॥ ५१ ॥

तदोचुस्तानथो विप्राः फलमूलजलानि च ।
विप्राशिषश्च राज्ञेऽथ ग्राहयन्तु सुरक्षकाः ॥ ५२ ॥
तब ब्राह्मणोंने उनसे कहा-हमलोगोंकी ओरसे ये फल-मूल तथा जल आप रक्षकगण राजाको दे दें और हमलोगोंका आशीर्वाद पहुँचा दें ॥ ५२ ॥

ते गत्वा नृपतिं प्रोचुस्तापसानागताञ्जनाः ।
राजोवाचानयध्वं वै फलमूलादिकं च यत् ॥ ५३ ॥
पृच्छध्वं तापसान्कार्यं प्रातरागमनं पुनः ।
प्रणामं कथयध्वं मे नाद्य सन्दर्शनं मम ॥ ५४ ॥
उन्होंने राजाके पास जाकर तपस्वियोंके आगमनकी बात बता दी । इसपर राजाने आज्ञा दी कि वे लोग फल-मूल आदि जो कुछ दे रहे हैं, उन्हें यहाँ लाओ और उन तपस्वियोंके आनेका कारण पूछ लो और उन्हें पुनः कल प्रातः आनेको कह दो । साथ ही मेरी ओरसे उन्हें प्रणाम कहकर यह भी कह देना कि आज मेरा मिलना सम्भव नहीं है । ५३-५४ ॥

ते गत्वाथ समादाय फलमूलादिकं च यत् ।
राज्ञे समर्पयामासुर्बहुमानपुरःसरम् ॥ ५५ ॥
उन द्वारपालोंने तपस्वियोंके पास जाकर उनके दिये हुए फल-मूल आदि लाकर आदरपूर्वक राजाको अर्पित कर दिये ॥ ५५ ॥

गतेषु तेषु नागेषु विप्रवेषावृतेषु च ।
फलान्यादाय राजासौ सचिवानिदमब्रवीत् ॥ ५६ ॥
सुहृदो भक्षयन्त्वद्य फलान्येतानि सर्वशः ।
अद्म्यहं चैकमेतद्वै फलं विप्रार्पितं महत् ॥ ५७ ॥
उन विप्रवेषमें आये नागोंके चले जानेपर महाराजने फलोंको लेकर मन्त्रियोंसे कहा-हे सचिवो ! आपलोग भी इन फलोंका सम्यक् सेवन कीजिये । मैं तो तपस्वियोंद्वारा अर्पित यही एक बड़ा फल खाऊँगा ॥ ५६-५७ ॥

इत्युक्त्वा तत्फलं दत्त्वा सुहृद्‌भ्यश्चोत्तरासुतः ।
करे कृत्वा फलं पक्वं ददार नृपतिः स्वयम् ॥ ५८ ॥
ऐसा कहकर उत्तरासुत राजा परीक्षित्ने सब फल अपने सुहद् सचिवोंमें बाँट दिये और एक सुन्दर पका फल हाथमें लेकर उसे स्वयं विदीर्ण किया ॥ ५८ ॥

विदारितं फलं राज्ञा तत्र कृमिरभूदणुः ।
स कृष्णनयनस्ताम्रो दृष्टो भूपतिना स्वयम् ॥ ५९ ॥
तं दृष्ट्वा नृपतिः प्राह सचिवान्विस्मितानथ ।
अस्तमभ्येति सविता विषादद्य न मे भयम् ॥ ६० ॥
अङ्गीकरोमि तं शापं कृमिको मां दशत्वयम् ।
एवमुक्त्वा स राजेन्द्रो ग्रीवायां संन्यवेशयत् ॥ ६१ ॥
अस्तं याते दिवानाथे धृतः कण्ठेऽथ कीटकः ।
तक्षकस्तु तदा जातः कालरूपी भयानकः ॥ ६२ ॥
जिस फलको राजाने चीरा, उसमें ताम्र वर्णवाला तथा काले नेत्रवाला एक छोटा-सा कीट राजाको दिखायी दिया । उसे देखकर राजाने अपने आश्चर्यचकित मन्त्रियोंसे कहा-सूर्य अस्त हो रहे हैं, अतः अब मुझे विषका भय नहीं है । मैं ब्राह्मणके उस शापको अंगीकार करता हूँ कि यह कीट मुझे काट ले । ऐसा कहकर महाराज परीक्षित्ने उसे अपने गलेपर रख लिया । सूर्यके अस्त होते ही गलेपर स्थित वह कीट साक्षात् कालस्वरूप भयानक तक्षकके रूपमें परिणत हो गया ॥ ५९-६२ ॥

राजा संवेष्टितस्तेन दष्टश्चापि महीपतिः ।
मन्त्रिणो विस्मयं प्राप्ता रुरुदुर्भृशदुःखिताः ॥ ६३ ॥
उस नागने तत्काल राजाको लपेट लिया तथा उन्हें डंस लिया । यह देखते ही सभी मन्त्री आश्चर्यमें पड़ गये और अत्यधिक दुःखित होकर विलाप करने लगे ॥ ६३ ॥

घोररूपमहिं वीक्ष्य दुद्रुवुस्ते भयार्दिताः ।
चुक्रुशू रक्षकाः सर्वे हाहाकारो महानभूत् ॥ ६४ ॥
भयंकर रूपवाले उस सर्पको देखकर सभी सचिवगण भयभीत होकर वहाँसे भागने लगे और सभी रक्षकगण चिल्लाने लगे । इस प्रकार वहाँ महान् हाहाकार मच गया ॥ ६४ ॥

वेष्टितो भोगिभोगेन विनष्टबहुपौरुषः ।
नोवाच नृपतिः किञ्चिन्न चचालोत्तरासुतः ॥ ६५ ॥
उस सर्पके शरीरसे बद्ध हो जानेके कारण राजाका महान् बल प्रभावहीन हो गया, जिससे वे उत्तरापुत्र परीक्षित् कुछ भी बोल पाने तथा हिल-डुल सकने में असमर्थ हो गये ॥ ६५ ॥

उत्थिताग्निशिखा घोरा विषजा तक्षकाननात् ।
प्रजज्वाल नृपं त्वाशु गतप्राणं चकार ह ॥ ६६ ॥
तक्षकके मुखसे विषजनित भयंकर आगकी ज्वालाएँ उठने लगीं । उस भीषण ज्वालाने क्षणभरमें राजाको जला दिया और शीघ्र ही उन्हें निष्प्राण कर दिया ॥ ६६ ॥

हत्वाशु जीवितं राज्ञस्तक्षको गगने गतः ।
जगद्दग्धं तु कुर्वाणं ददृशुस्तं जना इह ॥ ६७ ॥
इस प्रकार क्षणमात्रमें ही राजाका प्राण हरकर वह तक्षकनाग आकाशमें चला गया । वहाँ लोगोंने संसारको भस्मसात् कर देनेकी सामर्थ्यवाले उस तक्षकको देखा ॥ ६७ ॥

स पपात गतप्राणो राजा दग्ध इव द्रुमः ।
चुकुशुश्च जनाः सर्वे मृतं दृष्ट्वा नराधिपम् ॥ ६८ ॥
वे राजा परीक्षित् प्राणहीन होकर जले हुए वृक्षकी भाँति गिर पड़े और राजाको मृत देखकर सभी लोग विलाप करने लगे ॥ ६८ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां ॥
द्वितीयस्कन्धे परीक्षिन्मरणं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
अध्याय दसवाँ समाप्त


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