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परीक्षिन्मरणम् -
महाराज परीक्षितको डंसनेके लिये तक्षकका प्रस्थान, मार्गमें मन्त्रवेत्ता कश्यपसे भेंट, तक्षकका एक वटवृक्षको डंसकर भस्म कर देना और कश्यपका उसे पुनः हरा-भरा कर देना, तक्षकद्वारा धन देकर कश्यपको वापस कर देना, सर्पदंशसे राजा परीक्षितकी मृत्यु -
सूत उवाच तस्मिन्नेव दिने नाम्ना तक्षकस्तं नृपोत्तमम् । शप्तं ज्ञात्वा गृहात्तूर्णं निःसृतः पुरुषोत्तमः ॥ १ ॥ वृद्धब्राह्मणवेषेण तक्षकः पथि निर्गतः । अपश्यत्कश्यपं मार्गे व्रजन्तं नृपतिं प्रति ॥ २ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनिवृन्द !] उसी दिन तक्षक नामक नाग नृपश्रेष्ठ परीक्षित्को शापित जानकर एक उत्तम मनुष्यका रूप धारण करके अपने घरसे शीघ्र निकल पड़ा । वृद्ध ब्राह्मणके वेषमें रास्तेपर चलते हुए उस तक्षकने महाराज परीक्षित्के यहाँ जाते हुए कश्यपको देखा ॥ १-२ ॥
हे विप्रेन्द्र ! मेरे पास प्रबल विषनाशक मन्त्र है, अतएव यदि उनकी आयु शेष होगी तो मैं उन्हें जीवित कर दूंगा ॥ ५ ॥
तक्षक उवाच अहं स पन्नगो ब्रह्मंस्तं धक्ष्यामि महीपतिम् । निवर्तस्व न शक्तस्त्वं मया दष्टं चिकित्सितुम् ॥ ६ ॥
तक्षकने कहा-हे ब्रह्मन् ! मैं ही वह तक्षकनाग हूँ और मैं ही महाराज परीक्षितको का,गा । मेरे काट लेनेपर आप चिकित्सा करनेमें समर्थ नहीं हो सकेंगे; अतएव आप लौट जाइये ॥ ६ ॥
कश्यपने कहा-हे सर्प ! ब्राह्मणके द्वारा शापित किये गये राजाको आपके काटनेके उपरान्त मैं उन्हें अपने मन्त्रबलसे नि:सन्देह जीवित कर दूंगा ॥ ७ ॥
तक्षक उवाच यदि त्वं जीवितुं यासि मया दष्टं नृपोत्तमम् । मन्त्रशक्तिबलं विप्र दर्शय त्वं ममानघ ॥ ८ ॥ धक्ष्याम्येनं च न्यग्रोधं विषदंष्ट्राभिरद्य वै ।
तक्षकने कहा-हे विप्र ! हे अनघ ! यदि आप मेरे काटे हुए नृपश्रेष्ठ परीक्षितको जीवित करनेके लिये जा रहे हैं तो आप अपनी मन्त्र-शक्तिका प्रभाव दिखाइये । मैं इसी समय इस वटवृक्षको अपने विषैले दाँतोंसे डंसता हूँ ॥ ८.५ ॥
कश्यप उवाच जीवयिष्ये त्वया दष्टं दग्धं वा पन्नगोत्तम ॥ ९ ॥
कश्यपने कहा-हे सर्पश्रेष्ठ ! आप इसे काट लें अथवा इसे जलाकर भस्म कर दें तो भी मैं इसे पुनः जीवित कर दूंगा ॥ ९ ॥
तक्षकनागको विषाग्निसे भस्म हुए वृक्षके सम्पूर्ण भस्मको एकत्र करके कश्यपने यह बात कही-हे महाविषधर नागराज ! अब आप मेरे मन्त्रका प्रभाव देखिये । मैं आपके देखते-देखते इस वटवृक्षको जीवन प्रदान करता हूँ ॥ ११-१२ ॥
ऐसा कहकर हाथमें जल लेकर मन्त्रविद् कश्यपने उस जलको अभिमन्त्रित किया और उसे भस्मराशिपर छिड़क दिया । जलके पड़ते ही वह वटवृक्ष पुन: पहलेकी भाँति सुन्दर हो गया । उस वृक्षको इस प्रकार जीवित देखकर तक्षकको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ १३-१४ ॥
तमाह कश्यपं नागः किमर्थं ते परिश्रमः । सम्पादयामि तं कामं ब्रूहि वाडव वाञ्छितम् ॥ १५ ॥
उस नागराजने कश्यपसे कहा-हे विप्र ! आप इतना परिश्रम किसलिये करेंगे ? आपकी वह कामना मैं ही पूर्ण कर दूंगा । कहिये, आप क्या चाहते हैं ? ॥ १५ ॥
कश्यपने कहा-हे पन्नग ! मैं धनका अभिलाषी हूँ; नृपश्रेष्ठ परीक्षित्को शापित जानकर अपनी मन्त्रविद्यासे उनका उपकार करनेके लिये मैं अपने घरसे निकला हुआ हूँ ॥ १६ ॥
तक्षकने कहा-हे विप्रवर ! राजासे जितना धन आप चाहते हैं, उतना धन मुझसे अभी ले लें और अपने घर लौट जाये, जिससे मैं अपने कृत्यमें सफल हो सकूँ ॥ १७ ॥
सूत उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य कश्यपः परमार्थवित् । चिन्तयामास मनसा किं करोमि पुनः पुनः ॥ १८ ॥ धनं गहीत्वा स्वगृहं प्रयामि यद्यहं पुनः । भविष्यति न मे कीर्तिर्लोके लोभसमाश्रयात् ॥ १९ ॥ जीवितेऽथ नृपश्रेष्ठे कीर्तिः स्यादचला मम । धनप्राप्तिश्च बहुधा भवेत्पुण्यं च जीवनात् ॥ २० ॥
सूतजी बोले-तक्षककी यह बात सुनकर परमार्थवेत्ता कश्यपजी मनमें बार-बार सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं धन लेकर अपने घर जाता हूँ तो धनलोलुप होनेके कारण संसारमें मेरी कीर्ति नहीं होगी । यदि राजा जीवित हो जाते हैं तो मेरी अचल कीर्ति होगी तथा धन-प्राप्तिके साथ-साथ पुण्य भी प्राप्त होगा ॥ १८-२० ॥
रक्षणीयं यशः कामं धिग्धनं यशसा विना । सर्वस्वं रघुणा पूर्वं दत्तं विप्राय कीर्तये ॥ २१ ॥ हरिश्चन्द्रेण कर्णेन कीर्त्यर्थं बहुविस्तरम् । उपेक्षेयं कथं भूपं दह्यमानं विषाग्निना ॥ २२ ॥
यश ही रक्षणीय है और बिना यशके धनको धिक्कार है; क्योंकि प्राचीन कालमें महाराज रघुने कीर्तिके लिये अपना सब कुछ ब्राह्मणको दे दिया था । सत्यवादी हरिश्चन्द्र तथा दानी कर्णने भी केवल कीर्तिके लिये बहुत कुछ किया था । अत: विषकी अग्निसे जलते हुए राजा परीक्षितकी उपेक्षा मैं कैसे करूँ ? ॥ २१-२२ ॥
जीवितेऽद्य मया राज्ञि सुखं सर्वजनस्य च । अराजके प्रजानाशो भविता नात्र संशयः ॥ २३ ॥
यदि मैं महाराजको जिला दूँ तो सब लोगोंको अत्यन्त सुख मिलेगा और यदि राजा मर गये तो अराजकताके कारण सारी प्रजा नष्ट हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ २३ ॥
प्रजानाशस्य पापं मे भविष्यति मृते नृपे । अपकीर्तिश्च लोकेषु धनलोभाद्भविष्यति ॥ २४ ॥
राजाके मृत हो जाने पर मुझे प्रजानाशका पाप लगेगा तथा संसारमें धन-लोभके कारण मेरी अपकीर्ति भी होगी ॥ २४ ॥
इति सञ्चिन्त्य मनसा ध्यानं कृत्वा स कश्यपः । गतायुषं च नृपतिं ज्ञातवाम्बुद्धिमत्तरः ॥ २५ ॥
मनमें ऐसा विचार करके परम बुद्धिमान् कश्यपने ध्यान करके जाना कि महाराज परीक्षित्की आयु अब समाप्त हो चुकी है ॥ २५ ॥
आसन्नमृत्युं राजानं ज्ञात्वा ध्यानेन कश्यपः । गृहं ययौ स धर्मात्मा धनमादाय तक्षकात् ॥ २६ ॥
इस प्रकार ध्यान-दृष्टिसे धर्मात्मा कश्यप राजाकी मृत्यु निकट जानकर तक्षकसे धन लेकर अपने घर लौट गये ॥ २६ ॥
नगरमें पहुँचते ही उसने सुना कि मणि, मन्त्र तथा औषधियोंसे भलीभाँति सावधानीपूर्वक सुरक्षित होकर राजा परीक्षित् अपने महल में रह रहे हैं ॥ २८ ॥
चिन्ताविष्टस्तदा नागो विप्रशापभयाकुलः । चिन्तयामास योगेन प्रविशेयं गृहं कथम् ॥ २९ ॥ वञ्जयामि कथं चैनं राजानं पापकारिणम् । विप्रशापाद्धतं मूढं विप्रपीडाकरं शठम् ॥ ३० ॥
[यह जानकर] ब्राह्मणके शापसे भयभीत सर्पराज तक्षकको बड़ी चिन्ता हुई । वह सोचने लगा कि अब मैं किस उपायसे इस राजभवनमें प्रवेश करूँ ? और इस पापी, मूढ, विप्रको पीड़ित करनेवाले तथा मुनिके शापसे आहत इस दुष्ट राजाको मैं कैसे छलूँ ? ॥ २९-३० ॥
पाण्डववंशमें ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसने इस प्रकार किसी तपस्वी ब्राह्मणके गलेमें मृत सर्प डाल दिया हो ॥ ३१ ॥
कृत्वा विगर्हितं कर्म जानन्कालगतिं नृपः । रक्षकान्भवने कृत्वा प्रासादमभिगम्य च ॥ ३२ ॥ मृत्युं वञ्चयते राजा वर्ततेऽद्य निराकुलः । तं कथं धक्षयिष्यामि विप्रवाक्येन चोदितः ॥ ३३ ॥
ऐसा निन्दित कर्म करके कालचक्रको जानते हुए भी यह राजा भवनमें रक्षकोंकी नियुक्ति करके राज-भवनमें छिपकर मृत्युकी वंचना कर रहा है और निश्चिन्त होकर पड़ा है । विप्रके शापानुसार मैं उस राजाको कैसे छलूँ ? ॥ ३२-३३ ॥
न जानाति च मन्दात्मा मरणं ह्यनिवर्तनम् । तेनासौ रक्षकान्स्थाप्य सौधारूढोऽद्य मोदते ॥ ३४ ॥
यह मन्दबुद्धि इतना भी नहीं जानता कि मृत्यु तो अनिवार्य है ? इसी कारण यह रक्षकोंकी नियुक्ति करके स्वयं भवनपर चढ़कर आनन्द ले रहा है ॥ ३४ ॥
यदि वै विहितो मृत्युर्दैवेनामिततेजसा । स कथं परिवर्तेत कृतैर्यत्नैस्तु कोटिभिः ॥ ३५ ॥
यदि अमित तेजवाले दैवने मृत्यु निश्चित कर दी है तो करोड़ों प्रकारके प्रयत्नोंसे भी उसे कैसे टाला जा सकता है ? ॥ ३५ ॥
पाण्डववंशका उत्तराधिकारी यह राजा परीक्षित अपनेको मृत्युके मुखमें गया हुआ जानते हुए भी जीवित रहनेकी अभिलाषा रखकर सुरक्षित स्थानमें निश्चिन्त होकर पड़ा हुआ है ॥ ३६ ॥
। यदि ऐसा सम्भव नहीं था तो मृत्युके समय सम्पन्न की जानेवाली स्नान, दान आदि क्रियाएँ करके मृत्युके अनन्तर स्वर्गयात्रा कर सकता था, अन्यथा इसे नरक जाना होगा ॥ ३८ ॥
ऐसा विचारकर तक्षकनागने अपने निकटवर्ती श्रेष्ठ नागोंको तपस्वी ब्राह्मणोंका वेष धारण कराकर राजाके पास भेजा । वे राजाको देनेके लिये फल-मूल आदि लेकर तैयार हो गये और तक्षकनाग भी एक छोटे-से कीटके रूपमें फलके बीचमें छिप गया ॥ ४१-४२ ॥
आप जाकर महाराजसे कहें कि कुछ मुनिजन उनसे मिलने आये हैं और वे महाराजका मन्त्राभिषेक करके उन्हें मधुर फल देकर लौट जायेंगे ॥ ४६ ॥
भारतानां कुले वापि न दृष्टा द्वाररक्षकाः । न श्रुतं तापसानां तु राज्ञोऽसन्दर्शनं किल ॥ ४७ ॥ आरोहामो वयं तत्र यत्र राजा परीक्षितः । आशीर्भिर्वर्धयित्वैनं दत्ताज्ञाः प्रव्रजामहे ॥ ४८ ॥
भरतवंशी राजाओंके कुलमें कभी भी द्वाररक्षक नहीं देखे गये । ऐसा भी कहीं सुना नहीं गया कि तपस्वियोंको राजाका दर्शन न मिले । जहाँ महाराज परीक्षित् विराजमान हैं, वहाँ हमलोग जायेंगे और उन्हें अपने आशीर्वादसे दीर्घायुष्य बनाकर आज्ञा लेकर लौट जायँगे ॥ ४७-४८ ॥
सूतजी बोले-उन तपस्वियोंका वचन सुनकर रक्षकोंने उन्हें ब्राह्मण समझकर महाराजका आदेश सुनाते हुए कहा-हे विप्रो ! हमारे विचारमें आज आपलोगोंको राजाका दर्शन नहीं हो सकेगा । अतः आप समस्त तपस्वीजन राजभवनमें कल पधारें । ४९-५० ॥
तब ब्राह्मणोंने उनसे कहा-हमलोगोंकी ओरसे ये फल-मूल तथा जल आप रक्षकगण राजाको दे दें और हमलोगोंका आशीर्वाद पहुँचा दें ॥ ५२ ॥
ते गत्वा नृपतिं प्रोचुस्तापसानागताञ्जनाः । राजोवाचानयध्वं वै फलमूलादिकं च यत् ॥ ५३ ॥ पृच्छध्वं तापसान्कार्यं प्रातरागमनं पुनः । प्रणामं कथयध्वं मे नाद्य सन्दर्शनं मम ॥ ५४ ॥
उन्होंने राजाके पास जाकर तपस्वियोंके आगमनकी बात बता दी । इसपर राजाने आज्ञा दी कि वे लोग फल-मूल आदि जो कुछ दे रहे हैं, उन्हें यहाँ लाओ और उन तपस्वियोंके आनेका कारण पूछ लो और उन्हें पुनः कल प्रातः आनेको कह दो । साथ ही मेरी ओरसे उन्हें प्रणाम कहकर यह भी कह देना कि आज मेरा मिलना सम्भव नहीं है । ५३-५४ ॥
ते गत्वाथ समादाय फलमूलादिकं च यत् । राज्ञे समर्पयामासुर्बहुमानपुरःसरम् ॥ ५५ ॥
उन द्वारपालोंने तपस्वियोंके पास जाकर उनके दिये हुए फल-मूल आदि लाकर आदरपूर्वक राजाको अर्पित कर दिये ॥ ५५ ॥
उन विप्रवेषमें आये नागोंके चले जानेपर महाराजने फलोंको लेकर मन्त्रियोंसे कहा-हे सचिवो ! आपलोग भी इन फलोंका सम्यक् सेवन कीजिये । मैं तो तपस्वियोंद्वारा अर्पित यही एक बड़ा फल खाऊँगा ॥ ५६-५७ ॥
जिस फलको राजाने चीरा, उसमें ताम्र वर्णवाला तथा काले नेत्रवाला एक छोटा-सा कीट राजाको दिखायी दिया । उसे देखकर राजाने अपने आश्चर्यचकित मन्त्रियोंसे कहा-सूर्य अस्त हो रहे हैं, अतः अब मुझे विषका भय नहीं है । मैं ब्राह्मणके उस शापको अंगीकार करता हूँ कि यह कीट मुझे काट ले । ऐसा कहकर महाराज परीक्षित्ने उसे अपने गलेपर रख लिया । सूर्यके अस्त होते ही गलेपर स्थित वह कीट साक्षात् कालस्वरूप भयानक तक्षकके रूपमें परिणत हो गया ॥ ५९-६२ ॥
उस सर्पके शरीरसे बद्ध हो जानेके कारण राजाका महान् बल प्रभावहीन हो गया, जिससे वे उत्तरापुत्र परीक्षित् कुछ भी बोल पाने तथा हिल-डुल सकने में असमर्थ हो गये ॥ ६५ ॥