जिस प्रकार द्रोणाचार्यने अर्जुनको तथा भार्गव परशुरामने कर्णको धनुर्विद्या में प्रशिक्षित किया, उसी प्रकार कृपाचार्यने जनमेजयको भलीभाँति परिष्कृत धनुर्विद्या प्रदान की ॥ ९ ॥
सम्प्राप्तविद्यो बलवान्वभूव दुरतिक्रमः । धनुर्वेदे तथा वेदे पारगः परमार्थवित् ॥ १० ॥
इस प्रकार सम्पूर्ण विद्या प्राप्त करके वे जनमेजय वेद तथा धनुर्वेदमें पूर्ण पारंगत, बलशाली, अपराजेय तथा परमार्थवेत्ता हो गये ॥ १० ॥
धर्मशास्त्रार्थकुशलः सत्यवादी जितेन्द्रियः । चकार राज्यं धर्मात्मा पुरा धर्मसुतो यथा ॥ ११ ॥
वे धर्मशास्त्रके अर्थोंका विवेचन करनेमें कुशल, सत्यनिष्ठ, इन्द्रियजित् और धर्मात्मा थे । उन्होंने पूर्वमें धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरकी भाँति राज्य शासन किया ॥ ११ ॥
ततः सुवर्णवर्माख्यो राजा काशिपतिः किल । वपुष्टमां शुभा कन्यां ददौ पारीक्षिताय च ॥ १२ ॥
इसके बाद सुवर्णवर्मा नामवाले काशिपति राजाने शुभ गुर्गोवाली अपनी कन्या वपुष्टमाका पाणिग्रहण जनमेजयके साथ सम्पन्न कर दिया ॥ १२ ॥
स तां प्राप्यासितापाङ्गीं मुमुदे जनमेजयः । काशिराजसुतां कान्तां प्राप्य राजा यथा पुरा ॥ १३ ॥ विचित्रवीर्यो मुमुदे सुभद्रां च यथार्जुनः । विजहार महीपालो वनेषूपवनेषु च ॥ १४ ॥ तया कमलपत्राक्ष्या शच्या शतक्रतुर्यथा । प्रजास्तस्य सुसन्तुष्टा बभूवुः सुखलालिताः ॥ १५ ॥
जिस प्रकार प्राचीन कालमें काशिराजकी पुत्रीको पाकर विचित्रवीर्य तथा सुभद्राको पाकर अर्जुन अत्यन्त आह्लादित हुए थे, उसी प्रकार उस श्याम नयनोंवालीको अपनी कान्ताके रूपमें पाकर जनमेजय अति प्रसन्न हुए । कमलपत्रके समान नेत्रोंवाली उस वपुष्टमाके साथ वनों और उपवनोंमें राजा जनमेजय उसी प्रकार विहार करने लगे जिस प्रकार इन्द्राणीके साथ इन्द्र । उनके द्वारा सुखपूर्वक रक्षित प्रजा अति सन्तुष्ट थी । जनमेजयके कार्यकुशल सभी मन्त्री समस्त कार्योंको सम्यक् प्रकारसे करते थे ॥ १३-१५ ॥
मन्त्रिणः कर्मकुशलाश्चक्रुः कार्याणि सर्वशः । एतस्मिन्नेव काले तु मुनिरुत्तङ्कनामकः ॥ १६ ॥ तक्षकेण परिक्लिष्टो हस्तिनापुरमभ्यगात् । वैरस्यापचितिं कोऽस्य प्रकुर्यादिति चिन्तयन् ॥ १७ ॥ परीक्षितसुतं मत्वा तं नृपं समुपागतः । कार्याकार्यं न जानासि समये नृपसत्तम ॥ १८ ॥ अकर्तव्यं करोष्यद्य कर्तव्यं न करोषि वै । किं त्वां सम्प्रार्थयाम्यद्य गतामर्षं निरुद्यमम् ॥ १९ ॥ अवैरज्ञमतन्त्रज्ञं बालचेष्टासमन्वितम् ।
इसी समय तक्षकके द्वारा पीड़ित उत्तंक नामक मुनिका हस्तिनापुरमें आगमन हुआ । 'इस सर्पकी शत्रुताका बदला कौन ले सकता है'-ऐसा सोचते हुए वे परीक्षित्-पुत्र जनमेजयको यह कार्य कर सकनेवाला समझकर उनके पास आये और बोलेहे भूपवर ! आपको यह ज्ञान नहीं है कि इस समय क्या करणीय है और क्या अकरणीय है ? आप इस समय न करनेयोग्य कार्य कर रहे हैं और करनेयोग्य कार्य नहीं कर रहे हैं । आपसदृश रोषहीन, पुरुषार्थरहित, वैरभावके ज्ञानसे शून्य, प्रतीकार आदि उपायोंको न जाननेवाले तथा बालकोंके समान स्वभाववाले राजासे अब मैं क्या कहूँ ? ॥ १६-१९.५ ॥
जनमेजय उवाच किं वैरं न मया ज्ञातं न किं प्रतिकृतं मया ॥ २० ॥ तद्वद त्वं महाभाग करोमि यदनन्तरम् ।
जनमेजय बोले-मैंने किस शत्रुताको नहीं जाना और उसका प्रतीकार नहीं किया ? हे महाभाग ! आप मुझे वह बतायें, जिससे मैं उसे सम्पन्न कर सकूँ । २०.५ ॥
उत्तङ्क उवाच पिता ते निहतो भूप तक्षकेण दुरात्मना ॥ २१ ॥
उत्तंक बोले-हे राजन् ! आपके पिता परीक्षित् दुष्टात्मा तक्षकनागद्वारा मार डाले गये थे । आप मन्त्रियोंको बुलाकर अपने पिताकी मृत्युके विषयमें पूछिये ॥ २१ ॥
मन्त्रिणस्त्वं समाहूय पृच्छ स्वपितृनाशनम् । सूत उवाच तच्छ्रुत्वा वचनं राजा पप्रच्छ मन्त्रिसत्तमान् ॥ २२ ॥
सूतजी बोले-उत्तंकका वचन सुनकर राजाने मन्त्रिप्रवरोंसे पूछा । तब उन्होंने बताया कि ब्राह्मणद्वारा शापित होनेके कारण एक सर्पने उन्हें डंस लिया और वे मर गये ॥ २२ ॥
जनमेजय बोले-मेरे पिता राजा परीक्षित्की मृत्युका कारण तो मुनिद्वारा प्रदत्त शाप था । हे मुनिश्रेष्ठ ! मुझे यह बताइये कि इसमें तक्षकका क्या दोष था ? ॥ २३ ॥
तक्षकस्य तु को दोषो ब्रूहि मे मुनिसत्तम । उत्तङ्क उवाच तक्षकेण धनं दत्त्वा कश्यपः सन्निवारितः ॥ २४ ॥ न स किं तक्षको वैरी पितृहा तव भूपते । भार्या रुरोः पुरा भूप दष्टा सर्पेण सा मृता ॥ २५ ॥ अविवाहिता तु मुनिना जीविता च पुनः प्रिया । रुरुणापि कृता तत्र प्रतिज्ञा चातिदारुणा ॥ २६ ॥ यं यं सर्पं प्रपश्यामि तं तं हन्म्यायुधेन वै । एवं कृत्वा प्रतिज्ञां स शस्त्रपाणी रुरुस्तदा ॥ २७ ॥ व्यचरत्पृथिवीं राजन्निघ्नन्सर्पान्यतस्ततः । एकदा स वने घोरं डुण्डुभं जरसान्वितम् ॥ २८ ॥ अपश्यद्दण्डमुद्यम्य हन्तुं तं समुपाययौ । अभ्यहन्रुषितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः ॥ २९ ॥ नापराध्नोमि ते विप्र कस्मान्मामभिहंसि वै ।
उत्तंक बोले-तक्षकने कश्यप नामक ब्राह्मणको धन देकर आपके पितातक पहुँचनेसे रोक दिया था । हे राजन् ! आपके पिताका हन्ता वह तक्षक क्या आपका शत्रु नहीं है ? हे भूप ! प्राचीन कालमें मुनि रुरुकी भार्याको सर्पने डंस लिया था और वह मर गयी थी । वह अविवाहिता थी । मुनि रुरुने अपनी उस प्रियाको पुनः जीवित कर दिया और उन्होंने वहींपर अत्यन्त भीषण प्रतिज्ञा की कि मैं जिस किसी भी सर्पको दे गा, उसे तत्काल आयुधसे मार डालूँगा । हे राजन् ! इस प्रकार प्रतिज्ञा करके हाथमें शस्त्र लेकर मुनि रुरु सोका वध करते हुए इधर-उधर घूमते रहे । एक बार उन्हें वनमें एक बूढ़ा कुंडुभ साँप दिखायी दिया । वे लाठी उठाकर रोषपूर्वक उसे मारनेके लिये तत्पर हुए, तब कुंडुभने उन ब्राह्मणसे कहा-हे विप्र ! मैं आपके प्रति कोई अपराध नहीं कर रहा हूँ तो फिर आप मुझे क्यों मार रहे हैं ? ॥ २४-२९.५ ॥
रुरुरुवाच प्राणप्रिया मे दयिता दष्टा सर्पेण सा मृता ॥ ३० ॥ प्रतिज्ञेयं तदा सर्प दुःखितेन मया कृता ।
रुरु बोले- मेरी प्राणप्रिया भार्याको सर्पने डंस लिया था और उसकी मृत्यु हो गयी थी । अतः हे सर्प ! उसी समयसे दुःखित होकर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली थी ॥ ३०.५ ॥
डुण्डुभ उवाच नाहं दशामि तेऽन्ये वै ये दशन्ति भुजङ्गमाः ॥ ३१ ॥ शरीरसमयोगेन न मां हिंसितुमर्हसि ।
कुंडुभ बोला-मैं किसीको काटता नहीं । जो सर्प काटते हैं, वे दूसरे होते हैं । इसलिये सर्पसदृश शरीर होनेके कारण मुझे आप मत मारिये ॥ ३१.५ ॥
उत्तंक बोले-मनुष्यके समान उसकी सुन्दर वाणी सुनकर रुरुने पूछा-तुम कौन हो ? और इंडुभयोनिको कैसे प्राप्त हो गये ? ॥ ३२ ॥
सर्प उवाच ब्राह्मणोऽहं पुरा विप्र सखा मे खगमाभिधः ॥ ३३ ॥ विप्रो धर्मभृतां श्रेष्ठः सत्यवादी जितेन्द्रियः । स मया वञ्जितो मौर्ख्यात्सर्पं कृत्वा च तार्णकम् ॥ ३४ ॥
सर्प बोला-हे विप्र ! पहले मैं ब्राह्मण था और 'खगम' नामका मेरा एक ब्राह्मण मित्र था । वह धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय था । एक बार अपनी मूर्खतावश मैंने तृणका सर्प बनाकर उसे धोखेमें डाल दिया ॥ ३३-३४ ॥
उस समय वह अग्निहोत्रगृहमें विद्यमान था, सर्पको देखकर अत्यन्त डर गया । भयसे थर-थर काँपते हुए उस ब्राह्मणने विह्वल होकर मुझे शाप दे दिया-हे मन्दबुद्धि ! तुमने सर्प दिखाकर मुझे डराया है, अतः तुम सर्प हो जाओ । सर्परूपमें मैंने उस ब्राह्मणकी बड़ी प्रार्थना की । तब उस ब्राह्मणने क्रोधसे थोड़ा शान्त होनेपर मुझसे कहा-हे सर्प ! प्रमतिपुत्र रुरु तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे । उन्होंने यह बात स्वयं मुझसे कही थी । मैं वही सर्प हूँ और आप रुरु हैं । आप मेरे वचनको ध्यानपूर्वक सुनिये-ब्राह्मणोंके लिये अहिंसा परम धर्म है, इसमें सन्देह नहीं । अत: विद्वान ब्राह्मणको चाहिये कि वह सर्वत्र दया करे । हे विप्रवर ! यज्ञसे अतिरिक्त कहीं भी की गयी हिंसा याज्ञिकी हिंसा नहीं कही गयी है । ३५-३९.५ ॥
सूत उवाच सर्पयोनेर्विनिर्मुक्तो बाह्मणोऽसौ रुरुस्ततः ॥ ४० ॥ कृत्वा तस्य च शापान्तं परित्यक्तं च हिंसनम् । विवाहिता तेन बाला मृता सज्जीविता पुनः ॥ ४१ ॥
उत्तंक बोले- तब वह ब्राह्मण सर्पयोनिसे मुक्त हो गया । इस प्रकार उस ब्राह्मणके शापका अन्त करके रुरुने भी हिंसा छोड़ दी । उन्होंने मरी हुई उस सुन्दरीको पुनः जीवित कर दिया और उसके साथ विवाह कर लिया ॥ ४०-४१ ॥
हे राजन् ! उस मुनिने इस प्रकार शत्रुताका स्मरण करते हुए सभी सर्पोका संहार किया था, परंतु हे भरतश्रेष्ठ ! आप तो वैर भूलकर अपने पिताको मारनेवाले सपोंके प्रति क्रोधशून्य बने रहते हैं । आपके पिता स्नान-दान किये बिना अन्तरिक्षमें ही मर गये । इसलिये हे राजेन्द्र ! सोका नाश करके आप उनका उद्धार कीजिये । जो पुत्र पिताके शत्रुओंसे बदला नहीं लेता, वह जीते हुए भी मृतकतुल्य है । हे नृपश्रेष्ठ ! जबतक आप सोका विनाश नहीं करते, तबतक आपके पिताकी दुर्गति ही रहेगी । हे महाराज ! आप देवीयज्ञके व्याजसे अपने पिताकी शत्रुताका स्मरण करते हुए सर्पसत्र नामक यज्ञ कीजिये ॥ ४२-४५.५ ॥
सूतजी बोले-उत्तंकमुनिका यह वचन सुनकर राजा जनमेजय अत्यन्त दुःखी हुए और उनके नेत्रोंसे अश्रुपात होने लगा । [वे मनमें सोचने लगे] जिसके पिता सर्पसे दंशित होकर इस प्रकार दुर्गतिको प्राप्त हों, उस मुझ मिथ्याभिमानी तथा दुर्बुद्धिको धिक्कार है । मैं आज ही यज्ञ आरम्भ करके प्रज्वलित अग्निमें सपोंकी आहुति देकर अवश्य ही पिताकी मृत्युका बदला लूँगा ॥ ४६-४८.५ ॥
सभी मन्त्रियोंको बुलाकर राजाने यह वचन कहा-हे मन्त्रिप्रवरो ! गंगाके किनारे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे उत्तम भूमिकी माप कराकर आपलोग यथोचित यज्ञसामग्रीका प्रबन्ध करें । हे मेरे बुद्धिमान् मन्त्रियो ! सौ खंभोंवाले एक सुरम्य मण्डपका निर्माण कराकर आपलोग उसमें आज ही यज्ञके लिये वेदीका भी निर्माण सम्पन्न करा लें । उस यज्ञके अंगरूपमें विस्तारसहित सर्पसत्र भी करना है । महामुनि उत्तंक उस यज्ञके होता होंगे और तक्षकनाग उसमें यज्ञपशु होगा । आपलोग शीघ्र ही सर्वज्ञाता एवं वेदपारगामी ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करें ॥ ४९-५२.५ ॥
सूतजी बोले-बुद्धिमान् मन्त्रियोंने राजाके कथनानुसार यज्ञसम्बन्धी समस्त सामग्रीका प्रबन्ध कर लिया और विस्तृत यज्ञवेदी भी निर्मित करायी । सोका हवन आरम्भ होनेपर तक्षक इन्द्रके यहाँ गया और उनसे बोला-मैं भयाकुल हूँ, मेरी रक्षा कीजिये । तत्पश्चात् इन्द्रने उस भयभीत तक्षकको सान्त्वना देकर अपने आसनपर बैठाकर उसे अभय प्रदान किया और कहा-हे पन्नग ! तुम निर्भय हो जाओ ॥ ५३-५५.५ ॥
तदनन्तर उत्तंकमुनि उस तक्षकको इन्द्रका शरणागत और उनसे अभयदान पाया हुआ जानकर उद्विग्न हो उठे और उन्होंने मन्त्रप्रभावसे इन्द्रसहित | तक्षकका आवाहन किया । तब तक्षकने यायावरवंशमें उत्पन्न जरत्कारुपुत्र धर्मनिष्ट आस्तीक-नामक मुनिका स्मरण किया । वे मुनिवालक आस्तीक वहाँ आकर जनमेजयकी प्रशंसा करने लगे ॥ ५६-५८ ॥
तत्पश्चात् मुनिके वचनानुसार राजाने सर्पोका हवन बन्द कर दिया और फिर वैशम्पायनऋषिने उन्हें विस्तारपूर्वक महाभारतकी कथा सुनायी ॥ ६१ ॥
श्रुत्वापि नृपतिः कामं न शान्तिमभिजग्मिवान् । व्यासं पप्रच्छ भूपालो मम शान्तिः कथं भवेत् ॥ ६२ ॥ मनोऽतिदह्यते कामं किं करोमि वदस्व मे । पिता मे दुर्भगस्यैव मृतः पार्थसुतात्मजः ॥ ६३ ॥ क्षत्रियाणां महाभाग सङ्ग्रामे मरणं वरम् । रणे वा मरणं व्यास गृहे वा विधिपूर्वकम् ॥ ६४ ॥ मरणं न पितुर्मेऽभूदन्तरिक्षे मृतोऽवशः । शान्त्युपायं वदस्वात्र त्वं च सत्यवतीसुत ॥ ६५ ॥ यथा स्वर्गं व्रजेदाशु पिता मे दुर्गतिं गतः ॥ ६६ ॥
उस कथाको सुनकर भी राजाको विशेष शान्ति नहीं प्राप्त हुई तब राजाने व्यासजीसे पूछा-मुझे किस प्रकार शान्ति मिलेगी ? मेरा मन अशान्तिकी अग्निमें अत्यधिक दग्ध हो रहा है, मैं क्या करूं ? मुझको बतलाइये । मुझ मन्दभाग्यके पिता और अर्जुनपौत्र परीक्षित् अकाल मृत्युको प्राप्त हुए हैं । हे महाभाग ! युद्धमें होनेवाली मृत्यु ही क्षत्रियोंके लिये श्रेष्ठ होती है । हे व्यासजी ! रणमें अथवा घरमें विधिपूर्वक होनेवाली मृत्यु ही अच्छी मानी जाती है, किंतु मेरे पिताका वैसा मरण नहीं हुआ । वे तो असहाय अवस्थामें अन्तरिक्षमें मृत्युको प्राप्त हुए । हे सत्यवतीपुत्र ! आप उनकी शान्ति-प्राप्तिका कोई उपाय बतलाइये, जिससे दुर्गतिको प्राप्त मेरे पिताजी शीघ्र ही स्वर्ग चले जायें ॥ ६२-६६ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां द्वितीयस्कन्धे सर्पसत्रवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥