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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
द्वितीयः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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सर्पसत्रवर्णनम् -
जनमेजयका राजा बनना और उत्तंककी प्रेरणासे सर्प-सत्र करना, आस्तीकके कहनेसे राजाद्वारा सर्प-सत्र रोकना -


सूत उवाच
गतप्राणं तु राजानं बालं पुत्रं समीक्ष्य च ।
चक्रुश्च मन्त्रिणः सर्वे परलोकस्य सत्क्रियाः ॥ १ ॥
सूतजी बोले-सभी मन्त्रियोंने राजा परीक्षितको मृतक तथा उनके पुत्र जनमेजयको अबोध जानकर उनकी परलोक-सम्बन्धी क्रियाएँ सम्यक् प्रकारसे सम्पन्न की ॥ १ ॥

गङ्गातीरे दग्धदेहं भस्मप्रायं महीपतिम् ।
अगुरुभिश्चाभियुक्तायां चितायामध्यरोपयन् ॥ २ ॥
शरीर दग्ध हो जानेसे भस्मीभूत हुए राजाको उन मन्त्रियोंने गंगाके किनारे अगरुसे बनायी गयी चितापर रखा ॥ २ ॥

दुर्मरणे मृतस्यास्य चकुश्चैवौर्ध्वदैहिकीम् ।
क्रियां पुरोहितास्तस्य वेदमन्त्रैर्विधानतः ॥ ३ ॥
अकालमृत्युको प्राप्त राजा परीक्षित्की औज़दैहिक क्रिया राजाके पुरोहितोंद्वारा वैदिक मन्त्रोंके साथ विधिवत् सम्पन्न की गयी ॥ ३ ॥

ददुर्दानानि विप्रेभ्यो गाः सुवर्णं यथोचितम् ।
अन्नं बहुविधं तत्र वस्त्राणि विविधानि च ॥ ४ ॥
मन्त्रियोंने ब्राह्मणोंको गायें, सुवर्ण, अनेक प्रकारके अन्न तथा नाना प्रकारके वस्त्र यथोचित रूपसे दानमें दिये ॥ ४ ॥

सुमुहूर्ते सुतं बालं प्रजानां प्रीतिवर्धनम् ।
सिंहासने शुभे तत्र मन्त्रिणः संन्यवेशयन् ॥ ५ ॥
तत्पश्चात् मन्त्रियोंने प्रजाओंके प्रति प्रीतिसम्वर्धन करनेवाले राजपुत्र जनमेजयको शुभ मुहूर्तमें सुन्दर राजसिंहासनपर आसीन किया ॥ ५ ॥

पौरा जानपदा लोकाश्चक्रुस्तं नृपतिं शिशुम् ।
जनमेजयनामानं राजलक्षणसंयुतम् ॥ ६ ॥
पुरवासी तथा जनपदवासी प्रजाओंने राजलक्षणोंसे सम्पन्न जनमेजय नामक उस बालकको अपने राजाके रूपमें स्वीकार किया ॥ ६ ॥

धात्रेयी शिक्षयामास राजचिह्नानि सर्वशः ।
दिने दिने वर्धमानः स बभूव महामतिः ॥ ७ ॥
राजकुमारकी धात्रीने उन्हें सब प्रकारके राजोचित गुणोंकी शिक्षा दी । इस प्रकार दिन-प्रतिदिन वृद्धिको प्राप्त होते हुए वे महान् बुद्धिमान् हो गये ॥ ७ ॥

प्राप्ते चैकादशे वर्षे तस्मै कुलपुरोहितः ।
यथोचितां ददौ विद्यां जग्राह स यथोचिताम् ॥ ८ ॥
उनकी ग्यारह वर्षकी अवस्था होनेपर कुलपुरोहितने उन्हें यथोचित शिक्षा प्रदान की और उन्होंने उसे सम्यक् रूपसे ग्रहण किया ॥ ८ ॥

धनुर्वेदं कृपः पूर्णं ददावस्मै सुसंस्कृतम् ।
अर्जुनाय यथा द्रोणः कर्णाय भार्गवो यथा ॥ ९ ॥
जिस प्रकार द्रोणाचार्यने अर्जुनको तथा भार्गव परशुरामने कर्णको धनुर्विद्या में प्रशिक्षित किया, उसी प्रकार कृपाचार्यने जनमेजयको भलीभाँति परिष्कृत धनुर्विद्या प्रदान की ॥ ९ ॥

सम्प्राप्तविद्यो बलवान्वभूव दुरतिक्रमः ।
धनुर्वेदे तथा वेदे पारगः परमार्थवित् ॥ १० ॥
इस प्रकार सम्पूर्ण विद्या प्राप्त करके वे जनमेजय वेद तथा धनुर्वेदमें पूर्ण पारंगत, बलशाली, अपराजेय तथा परमार्थवेत्ता हो गये ॥ १० ॥

धर्मशास्त्रार्थकुशलः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
चकार राज्यं धर्मात्मा पुरा धर्मसुतो यथा ॥ ११ ॥
वे धर्मशास्त्रके अर्थोंका विवेचन करनेमें कुशल, सत्यनिष्ठ, इन्द्रियजित् और धर्मात्मा थे । उन्होंने पूर्वमें धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिरकी भाँति राज्य शासन किया ॥ ११ ॥

ततः सुवर्णवर्माख्यो राजा काशिपतिः किल ।
वपुष्टमां शुभा कन्यां ददौ पारीक्षिताय च ॥ १२ ॥
इसके बाद सुवर्णवर्मा नामवाले काशिपति राजाने शुभ गुर्गोवाली अपनी कन्या वपुष्टमाका पाणिग्रहण जनमेजयके साथ सम्पन्न कर दिया ॥ १२ ॥

स तां प्राप्यासितापाङ्गीं मुमुदे जनमेजयः ।
काशिराजसुतां कान्तां प्राप्य राजा यथा पुरा ॥ १३ ॥
विचित्रवीर्यो मुमुदे सुभद्रां च यथार्जुनः ।
विजहार महीपालो वनेषूपवनेषु च ॥ १४ ॥
तया कमलपत्राक्ष्या शच्या शतक्रतुर्यथा ।
प्रजास्तस्य सुसन्तुष्टा बभूवुः सुखलालिताः ॥ १५ ॥
जिस प्रकार प्राचीन कालमें काशिराजकी पुत्रीको पाकर विचित्रवीर्य तथा सुभद्राको पाकर अर्जुन अत्यन्त आह्लादित हुए थे, उसी प्रकार उस श्याम नयनोंवालीको अपनी कान्ताके रूपमें पाकर जनमेजय अति प्रसन्न हुए । कमलपत्रके समान नेत्रोंवाली उस वपुष्टमाके साथ वनों और उपवनोंमें राजा जनमेजय उसी प्रकार विहार करने लगे जिस प्रकार इन्द्राणीके साथ इन्द्र । उनके द्वारा सुखपूर्वक रक्षित प्रजा अति सन्तुष्ट थी । जनमेजयके कार्यकुशल सभी मन्त्री समस्त कार्योंको सम्यक् प्रकारसे करते थे ॥ १३-१५ ॥

मन्त्रिणः कर्मकुशलाश्चक्रुः कार्याणि सर्वशः ।
एतस्मिन्नेव काले तु मुनिरुत्तङ्कनामकः ॥ १६ ॥
तक्षकेण परिक्लिष्टो हस्तिनापुरमभ्यगात् ।
वैरस्यापचितिं कोऽस्य प्रकुर्यादिति चिन्तयन् ॥ १७ ॥
परीक्षितसुतं मत्वा तं नृपं समुपागतः ।
कार्याकार्यं न जानासि समये नृपसत्तम ॥ १८ ॥
अकर्तव्यं करोष्यद्य कर्तव्यं न करोषि वै ।
किं त्वां सम्प्रार्थयाम्यद्य गतामर्षं निरुद्यमम् ॥ १९ ॥
अवैरज्ञमतन्त्रज्ञं बालचेष्टासमन्वितम् ।
इसी समय तक्षकके द्वारा पीड़ित उत्तंक नामक मुनिका हस्तिनापुरमें आगमन हुआ । 'इस सर्पकी शत्रुताका बदला कौन ले सकता है'-ऐसा सोचते हुए वे परीक्षित्-पुत्र जनमेजयको यह कार्य कर सकनेवाला समझकर उनके पास आये और बोलेहे भूपवर ! आपको यह ज्ञान नहीं है कि इस समय क्या करणीय है और क्या अकरणीय है ? आप इस समय न करनेयोग्य कार्य कर रहे हैं और करनेयोग्य कार्य नहीं कर रहे हैं । आपसदृश रोषहीन, पुरुषार्थरहित, वैरभावके ज्ञानसे शून्य, प्रतीकार आदि उपायोंको न जाननेवाले तथा बालकोंके समान स्वभाववाले राजासे अब मैं क्या कहूँ ? ॥ १६-१९.५ ॥

जनमेजय उवाच
किं वैरं न मया ज्ञातं न किं प्रतिकृतं मया ॥ २० ॥
तद्वद त्वं महाभाग करोमि यदनन्तरम् ।
जनमेजय बोले-मैंने किस शत्रुताको नहीं जाना और उसका प्रतीकार नहीं किया ? हे महाभाग ! आप मुझे वह बतायें, जिससे मैं उसे सम्पन्न कर सकूँ । २०.५ ॥

उत्तङ्क उवाच
पिता ते निहतो भूप तक्षकेण दुरात्मना ॥ २१ ॥
उत्तंक बोले-हे राजन् ! आपके पिता परीक्षित् दुष्टात्मा तक्षकनागद्वारा मार डाले गये थे । आप मन्त्रियोंको बुलाकर अपने पिताकी मृत्युके विषयमें पूछिये ॥ २१ ॥

मन्त्रिणस्त्वं समाहूय पृच्छ स्वपितृनाशनम् ।
सूत उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं राजा पप्रच्छ मन्त्रिसत्तमान् ॥ २२ ॥
सूतजी बोले-उत्तंकका वचन सुनकर राजाने मन्त्रिप्रवरोंसे पूछा । तब उन्होंने बताया कि ब्राह्मणद्वारा शापित होनेके कारण एक सर्पने उन्हें डंस लिया और वे मर गये ॥ २२ ॥

ऊचुस्ते द्विजशापेन दष्टः सर्पेण वै मृतः ।
जनमेजय उवाच
शापोऽत्र कारणं राज्ञः शप्तस्य मुनिना किल ॥ २३ ॥
जनमेजय बोले-मेरे पिता राजा परीक्षित्की मृत्युका कारण तो मुनिद्वारा प्रदत्त शाप था । हे मुनिश्रेष्ठ ! मुझे यह बताइये कि इसमें तक्षकका क्या दोष था ? ॥ २३ ॥

तक्षकस्य तु को दोषो ब्रूहि मे मुनिसत्तम ।
उत्तङ्क उवाच
तक्षकेण धनं दत्त्वा कश्यपः सन्निवारितः ॥ २४ ॥
न स किं तक्षको वैरी पितृहा तव भूपते ।
भार्या रुरोः पुरा भूप दष्टा सर्पेण सा मृता ॥ २५ ॥
अविवाहिता तु मुनिना जीविता च पुनः प्रिया ।
रुरुणापि कृता तत्र प्रतिज्ञा चातिदारुणा ॥ २६ ॥
यं यं सर्पं प्रपश्यामि तं तं हन्म्यायुधेन वै ।
एवं कृत्वा प्रतिज्ञां स शस्त्रपाणी रुरुस्तदा ॥ २७ ॥
व्यचरत्पृथिवीं राजन्निघ्नन्सर्पान्यतस्ततः ।
एकदा स वने घोरं डुण्डुभं जरसान्वितम् ॥ २८ ॥
अपश्यद्दण्डमुद्यम्य हन्तुं तं समुपाययौ ।
अभ्यहन्‍रुषितो विप्रस्तमुवाचाथ डुण्डुभः ॥ २९ ॥
नापराध्नोमि ते विप्र कस्मान्मामभिहंसि वै ।
उत्तंक बोले-तक्षकने कश्यप नामक ब्राह्मणको धन देकर आपके पितातक पहुँचनेसे रोक दिया था । हे राजन् ! आपके पिताका हन्ता वह तक्षक क्या आपका शत्रु नहीं है ? हे भूप ! प्राचीन कालमें मुनि रुरुकी भार्याको सर्पने डंस लिया था और वह मर गयी थी । वह अविवाहिता थी । मुनि रुरुने अपनी उस प्रियाको पुनः जीवित कर दिया और उन्होंने वहींपर अत्यन्त भीषण प्रतिज्ञा की कि मैं जिस किसी भी सर्पको दे गा, उसे तत्काल आयुधसे मार डालूँगा । हे राजन् ! इस प्रकार प्रतिज्ञा करके हाथमें शस्त्र लेकर मुनि रुरु सोका वध करते हुए इधर-उधर घूमते रहे । एक बार उन्हें वनमें एक बूढ़ा कुंडुभ साँप दिखायी दिया । वे लाठी उठाकर रोषपूर्वक उसे मारनेके लिये तत्पर हुए, तब कुंडुभने उन ब्राह्मणसे कहा-हे विप्र ! मैं आपके प्रति कोई अपराध नहीं कर रहा हूँ तो फिर आप मुझे क्यों मार रहे हैं ? ॥ २४-२९.५ ॥

रुरुरुवाच
प्राणप्रिया मे दयिता दष्टा सर्पेण सा मृता ॥ ३० ॥
प्रतिज्ञेयं तदा सर्प दुःखितेन मया कृता ।
रुरु बोले- मेरी प्राणप्रिया भार्याको सर्पने डंस लिया था और उसकी मृत्यु हो गयी थी । अतः हे सर्प ! उसी समयसे दुःखित होकर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली थी ॥ ३०.५ ॥

डुण्डुभ उवाच
नाहं दशामि तेऽन्ये वै ये दशन्ति भुजङ्गमाः ॥ ३१ ॥
शरीरसमयोगेन न मां हिंसितुमर्हसि ।
कुंडुभ बोला-मैं किसीको काटता नहीं । जो सर्प काटते हैं, वे दूसरे होते हैं । इसलिये सर्पसदृश शरीर होनेके कारण मुझे आप मत मारिये ॥ ३१.५ ॥

उत्तङ्क उवाच
श्रुत्वा तां मानुषीं वाणीं सर्पेणोक्तां मनोहराम् ॥ ३२ ॥
रुरुः पप्रच्छ कोऽसि त्वं कस्माद्‌डुण्डुभतां गतः ।
उत्तंक बोले-मनुष्यके समान उसकी सुन्दर वाणी सुनकर रुरुने पूछा-तुम कौन हो ? और इंडुभयोनिको कैसे प्राप्त हो गये ? ॥ ३२ ॥

सर्प उवाच
ब्राह्मणोऽहं पुरा विप्र सखा मे खगमाभिधः ॥ ३३ ॥
विप्रो धर्मभृतां श्रेष्ठः सत्यवादी जितेन्द्रियः ।
स मया वञ्जितो मौर्ख्यात्सर्पं कृत्वा च तार्णकम् ॥ ३४ ॥
सर्प बोला-हे विप्र ! पहले मैं ब्राह्मण था और 'खगम' नामका मेरा एक ब्राह्मण मित्र था । वह धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय था । एक बार अपनी मूर्खतावश मैंने तृणका सर्प बनाकर उसे धोखेमें डाल दिया ॥ ३३-३४ ॥

भयं च प्रापितोऽत्यर्थमग्निहोत्रगृहे स्थितः ।
तेन भीतेन शप्तोऽहं विह्वलेनातिवेपिना ॥ ३५ ॥
भव सर्पो मन्दबुद्धे येनाहं धर्षितस्त्वया ।
मया प्रसादितोऽत्यर्थं सर्पेणासौ द्विजोत्तमः ॥ ३६ ॥
मामुवाचाथ तत्क्रोधात्किञ्चिच्छान्तिमवाप्य च ।
रुरुस्ते मोचिता शापस्यास्य सर्प भविष्यति ॥ ३७ ॥
प्रमतेस्तु सुतो नूनमिति मां सोऽब्रवीद्वचः ।
सोऽहं सर्पो रुरुस्त्वं च शृणु मे परमं वचः ॥ ३८ ॥
अहिंसा परमो धर्मो विप्राणां नात्र संशयः ।
दया सर्वत्र कर्तव्या ब्राह्मणेन विजानता ॥ ३९ ॥
यज्ञादन्यत्र विप्रेन्द्र न हिंसा याज्ञिको मता ।
उस समय वह अग्निहोत्रगृहमें विद्यमान था, सर्पको देखकर अत्यन्त डर गया । भयसे थर-थर काँपते हुए उस ब्राह्मणने विह्वल होकर मुझे शाप दे दिया-हे मन्दबुद्धि ! तुमने सर्प दिखाकर मुझे डराया है, अतः तुम सर्प हो जाओ । सर्परूपमें मैंने उस ब्राह्मणकी बड़ी प्रार्थना की । तब उस ब्राह्मणने क्रोधसे थोड़ा शान्त होनेपर मुझसे कहा-हे सर्प ! प्रमतिपुत्र रुरु तुम्हें इस शापसे मुक्त करेंगे । उन्होंने यह बात स्वयं मुझसे कही थी । मैं वही सर्प हूँ और आप रुरु हैं । आप मेरे वचनको ध्यानपूर्वक सुनिये-ब्राह्मणोंके लिये अहिंसा परम धर्म है, इसमें सन्देह नहीं । अत: विद्वान ब्राह्मणको चाहिये कि वह सर्वत्र दया करे । हे विप्रवर ! यज्ञसे अतिरिक्त कहीं भी की गयी हिंसा याज्ञिकी हिंसा नहीं कही गयी है । ३५-३९.५ ॥

सूत उवाच
सर्पयोनेर्विनिर्मुक्तो बाह्मणोऽसौ रुरुस्ततः ॥ ४० ॥
कृत्वा तस्य च शापान्तं परित्यक्तं च हिंसनम् ।
विवाहिता तेन बाला मृता सज्जीविता पुनः ॥ ४१ ॥
उत्तंक बोले- तब वह ब्राह्मण सर्पयोनिसे मुक्त हो गया । इस प्रकार उस ब्राह्मणके शापका अन्त करके रुरुने भी हिंसा छोड़ दी । उन्होंने मरी हुई उस सुन्दरीको पुनः जीवित कर दिया और उसके साथ विवाह कर लिया ॥ ४०-४१ ॥

कदनं सर्वसर्पाणां कृतं वैरमनुस्मरन् ।
त्वं तु वैरं समुत्सृज्य वर्तसे पन्नगेष्वथ ॥ ४२ ॥
विमन्युर्भरतश्रेष्ठ पितृघातकरेषु वै ।
अन्तरिक्षे मृतस्तातः स्नानदानविवर्जितः ॥ ४३ ॥
तस्योद्धारं च राजेन्द्र कुरु हत्वाथ पन्नगान् ।
पितुर्वैरं न जानाति जीवन्नेव मृतो हि सः ॥ ४४ ॥
दुर्गतिस्ते पितुस्तावद्यावत्तान्न हनिष्यसि ।
अम्बामखमिषं कृत्वा कुरु यज्ञं नृपोत्तम ॥ ४५ ॥
सर्पसत्रं महाराज पितुर्वैरमनुस्मरन् ।
हे राजन् ! उस मुनिने इस प्रकार शत्रुताका स्मरण करते हुए सभी सर्पोका संहार किया था, परंतु हे भरतश्रेष्ठ ! आप तो वैर भूलकर अपने पिताको मारनेवाले सपोंके प्रति क्रोधशून्य बने रहते हैं । आपके पिता स्नान-दान किये बिना अन्तरिक्षमें ही मर गये । इसलिये हे राजेन्द्र ! सोका नाश करके आप उनका उद्धार कीजिये । जो पुत्र पिताके शत्रुओंसे बदला नहीं लेता, वह जीते हुए भी मृतकतुल्य है । हे नृपश्रेष्ठ ! जबतक आप सोका विनाश नहीं करते, तबतक आपके पिताकी दुर्गति ही रहेगी । हे महाराज ! आप देवीयज्ञके व्याजसे अपने पिताकी शत्रुताका स्मरण करते हुए सर्पसत्र नामक यज्ञ कीजिये ॥ ४२-४५.५ ॥

सूत उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा राजा जन्मेजयस्तदा ॥ ४६ ॥
नेत्राभ्यामश्रुपातं च चकारातीव दुःखितः ।
धिङ्‌मामस्तु सुदुर्बुद्धेर्वृथा मानकरस्य वै ॥ ४७ ॥
पिता यस्य गतिं घोरां प्राप्तः पन्नगपीडितः ।
अद्याहं मखमारभ्य करोम्यपचितिं पितुः ॥ ४८ ॥
हत्वा सर्पानसन्दिग्धो दीप्यमाने विभावसौ ।
सूतजी बोले-उत्तंकमुनिका यह वचन सुनकर राजा जनमेजय अत्यन्त दुःखी हुए और उनके नेत्रोंसे अश्रुपात होने लगा । [वे मनमें सोचने लगे] जिसके पिता सर्पसे दंशित होकर इस प्रकार दुर्गतिको प्राप्त हों, उस मुझ मिथ्याभिमानी तथा दुर्बुद्धिको धिक्कार है । मैं आज ही यज्ञ आरम्भ करके प्रज्वलित अग्निमें सपोंकी आहुति देकर अवश्य ही पिताकी मृत्युका बदला लूँगा ॥ ४६-४८.५ ॥

आहूय मन्त्रिणः सर्वान् राजा वचनमब्रवीत् ॥ ४९ ॥
कुर्वन्तु यज्ञसम्भारं यथार्हं मन्त्रिसत्तमाः ।
गङ्गातीरे शुभां भूमिं मापयित्वा द्विजोत्तमैः ॥ ५० ॥
कुर्वन्तु मण्डपं स्वस्थाः शतस्तम्भं मनोहरम् ।
वेदी यज्ञस्य कर्तव्या ममाद्य सचिवाः खलु ॥ ५१ ॥
तदङ्गत्वे विधेयो वै सर्पसत्रः सुविस्तरः ।
तक्षकस्तु पशुस्तत्र होतोत्तङ्को महामुनिः ॥ ५२ ॥
शीघ्रमाहूयतां विप्राः सर्वज्ञा वेदपारगाः ।
सभी मन्त्रियोंको बुलाकर राजाने यह वचन कहा-हे मन्त्रिप्रवरो ! गंगाके किनारे श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे उत्तम भूमिकी माप कराकर आपलोग यथोचित यज्ञसामग्रीका प्रबन्ध करें । हे मेरे बुद्धिमान् मन्त्रियो ! सौ खंभोंवाले एक सुरम्य मण्डपका निर्माण कराकर आपलोग उसमें आज ही यज्ञके लिये वेदीका भी निर्माण सम्पन्न करा लें । उस यज्ञके अंगरूपमें विस्तारसहित सर्पसत्र भी करना है । महामुनि उत्तंक उस यज्ञके होता होंगे और तक्षकनाग उसमें यज्ञपशु होगा । आपलोग शीघ्र ही सर्वज्ञाता एवं वेदपारगामी ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करें ॥ ४९-५२.५ ॥

सूत उवाच
मन्त्रिणस्तु तदा चक्रुर्भूपवाक्यैर्विचक्षणाः ॥ ५३ ॥
यज्ञस्य सर्वसम्भारं वेदीं यज्ञस्य विस्तृताम् ।
हवने वर्तमाने तु सर्पाणां तक्षको गतः ॥ ५४ ॥
इन्द्रं प्रति भयार्तोऽहं त्राहि मामिति चाब्रवीत् ।
भयभीतं समाश्वास्य स्वासने सन्निवेश्य च ॥ ५५ ॥
ददावभयमत्यर्थं निर्भयो भव पन्नग ।
सूतजी बोले-बुद्धिमान् मन्त्रियोंने राजाके कथनानुसार यज्ञसम्बन्धी समस्त सामग्रीका प्रबन्ध कर लिया और विस्तृत यज्ञवेदी भी निर्मित करायी । सोका हवन आरम्भ होनेपर तक्षक इन्द्रके यहाँ गया और उनसे बोला-मैं भयाकुल हूँ, मेरी रक्षा कीजिये । तत्पश्चात् इन्द्रने उस भयभीत तक्षकको सान्त्वना देकर अपने आसनपर बैठाकर उसे अभय प्रदान किया और कहा-हे पन्नग ! तुम निर्भय हो जाओ ॥ ५३-५५.५ ॥

तमिन्द्रशरणं ज्ञात्वा मुनिर्दत्ताभयं तथा ॥ ५६ ॥
उत्तङ्कोऽह्वयदुद्विग्नः सेन्द्रं कृत्वा निमन्त्रणम् ।
स्मृतस्तदा तक्षकेण यायावरकुलोद्‌भवः ॥ ५७ ॥
आस्तीको नाम धर्मात्मा जरत्कारुसुतो मुनिः ।
तत्रागत्य मुनेर्बालस्तुष्टाव जनमेजयम् ॥ ५८ ॥
तदनन्तर उत्तंकमुनि उस तक्षकको इन्द्रका शरणागत और उनसे अभयदान पाया हुआ जानकर उद्विग्न हो उठे और उन्होंने मन्त्रप्रभावसे इन्द्रसहित | तक्षकका आवाहन किया । तब तक्षकने यायावरवंशमें उत्पन्न जरत्कारुपुत्र धर्मनिष्ट आस्तीक-नामक मुनिका स्मरण किया । वे मुनिवालक आस्तीक वहाँ आकर जनमेजयकी प्रशंसा करने लगे ॥ ५६-५८ ॥

राजा तमर्चयामास दृष्ट्वा बालं सुपण्डितम् ।
अर्चयित्वा नृपस्तं तु छन्दयामास वाञ्छितैः ॥ ५९ ॥
राजा जनमेजयने उस बालकको महान् पण्डित देखकर उसकी पूजा की । पूजन-अर्चन करके राजाने अपनी मनोवांछित वस्तु माँगनेके लिये उससे निवेदन किया ॥ ५९ ॥

स तु वव्रे महाभाग यज्ञोऽयं विरमत्विति ।
सत्यबद्धो नृपस्तेन प्रार्थितश्च पुनस्तथा ॥ ६० ॥
तब आस्तीकने याचना की-हे महाभाग ! इस यज्ञको समाप्त किया जाय । उसने सत्य वचनमें आबद्ध राजासे बार-बार ऐसी प्रार्थना की ॥ ६० ॥

होमं निवर्तयामास सर्पाणां मुनिवाक्यतः ।
भारतं श्रावयामास वैशम्पायन विस्तरात् ॥ ६१ ॥
तत्पश्चात् मुनिके वचनानुसार राजाने सर्पोका हवन बन्द कर दिया और फिर वैशम्पायनऋषिने उन्हें विस्तारपूर्वक महाभारतकी कथा सुनायी ॥ ६१ ॥

श्रुत्वापि नृपतिः कामं न शान्तिमभिजग्मिवान् ।
व्यासं पप्रच्छ भूपालो मम शान्तिः कथं भवेत् ॥ ६२ ॥
मनोऽतिदह्यते कामं किं करोमि वदस्व मे ।
पिता मे दुर्भगस्यैव मृतः पार्थसुतात्मजः ॥ ६३ ॥
क्षत्रियाणां महाभाग सङ्ग्रामे मरणं वरम् ।
रणे वा मरणं व्यास गृहे वा विधिपूर्वकम् ॥ ६४ ॥
मरणं न पितुर्मेऽभूदन्तरिक्षे मृतोऽवशः ।
शान्त्युपायं वदस्वात्र त्वं च सत्यवतीसुत ॥ ६५ ॥
यथा स्वर्गं व्रजेदाशु पिता मे दुर्गतिं गतः ॥ ६६ ॥
उस कथाको सुनकर भी राजाको विशेष शान्ति नहीं प्राप्त हुई तब राजाने व्यासजीसे पूछा-मुझे किस प्रकार शान्ति मिलेगी ? मेरा मन अशान्तिकी अग्निमें अत्यधिक दग्ध हो रहा है, मैं क्या करूं ? मुझको बतलाइये । मुझ मन्दभाग्यके पिता और अर्जुनपौत्र परीक्षित् अकाल मृत्युको प्राप्त हुए हैं । हे महाभाग ! युद्धमें होनेवाली मृत्यु ही क्षत्रियोंके लिये श्रेष्ठ होती है । हे व्यासजी ! रणमें अथवा घरमें विधिपूर्वक होनेवाली मृत्यु ही अच्छी मानी जाती है, किंतु मेरे पिताका वैसा मरण नहीं हुआ । वे तो असहाय अवस्थामें अन्तरिक्षमें मृत्युको प्राप्त हुए । हे सत्यवतीपुत्र ! आप उनकी शान्ति-प्राप्तिका कोई उपाय बतलाइये, जिससे दुर्गतिको प्राप्त मेरे पिताजी शीघ्र ही स्वर्ग चले जायें ॥ ६२-६६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
द्वितीयस्कन्धे सर्पसत्रवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
अध्याय ग्यारहवाँ समाप्त


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