ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] इस प्रकार देवदेव जनार्दन भगवान् विष्णुके स्तुति कर लेनेके उपरान्त भगवान् शिवशंकर विनीतभावसे देवीके सम्मुख स्थित होकर कहने लगे ॥ १ ॥
शिव उवाच यदि हरिस्तव देवि विभावज- स्तदनु पद्मज एव तवोद्भवः । किमहमत्र तवापि न सद्गुणः सकललोकविधौ चतुरा शिवे ॥ २ ॥
शिवजी बोले-हे देवि ! यदि भगवान् विष्णु आपके प्रभावसे प्रादुर्भूत हुए तथा उनके बाद ब्रह्माजी भी आपसे उत्पन्न हुए तो क्या मुझ तमोगुणीकी आपसे उत्पत्ति नहीं हुई है ? हे शिवे ! आप तो समग्र लोककी रचनामें चतुर हैं ॥ २ ॥
त्वमसि भूः सलिलं पवनस्तथा खमपि वह्निगुणश्च तथा पुनः । जननि तानि पुनः करणानि च त्वमसि बुद्धिमनोऽप्यथ हङ्कृतिः ॥ ३ ॥
पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि आप ही हैं । हे माता ! आप ही इन्द्रियरूपिणी तथा आप ही बुद्धि, मन और अहंकारस्वरूपा हैं ॥ ३ ॥
न च विदन्ति वदन्ति च येऽन्यथा हरिहराजकृतं निखिलं जगत् । तव कृतास्त्रय एव सदैव ते विरचयन्ति जगत्सचराचरम् ॥ ४ ॥
ब्रह्मा, विष्णु और शंकरने अखिल जगत्की रचना की है-ऐसा जो लोग अन्यथा बोलते हैं, वे कुछ भी नहीं जानते । आपने ही सदासे इन तीनोंकी सृष्टि की है, जो [आपकी ही प्रेरणासे] चराचर जगत्का सृजन-पालन-संहार करते हैं ॥ ४ ॥
अवनिवायुखवह्निजलादिभिः सविषयैः सगुणैश्च जगद्भवेत् । यदि तदा कथमद्य च तत्स्फुटं प्रभवतीति तवाम्ब कलामृते ॥ ५ ॥
यदि पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि, जल आदि महाभूतोंके गुणों तथा विषयोंसे ही जगत्का निर्माण सम्भव हो तो भी हे अम्ब ! आपकी [चिन्मयी] कलाके बिना वह कैसे व्यक्त हो सकता है ? ॥ ५ ॥
हे अम्ब ! आपने ब्रह्मा, विष्णु और महेशद्वारा निर्मित इस सम्पूर्ण चराचर जगत्को व्याप्त कर रखा है । आप अनेक प्रकारके वेष धारण करके कुतूहलपूर्ण क्रीड़ाएँ करती हुई यथेच्छ विहार करती हैं और पुनः शान्त भी हो जाती हैं ॥ ६ ॥
हे अम्बिके ! जब मैं (शिव), विष्णु और ब्रह्मा सृष्टिकालमें इस ब्रह्माण्डकी रचना करनेकी इच्छा करते हैं, तब निश्चित ही आपके चरणकमलोंका रजकण प्राप्त करके ही हमलोग अपने-अपने कार्य करनेमें समर्थ होते हैं ॥ ७ ॥
यदि दयार्द्रमना न सदाम्बिके कथमहं विहितश्च तमोगुणः । कमलजश्च रजोगुणसंभवः सुविहितः किमु सत्त्वगुणो हरिः ॥ ८ ॥
हे अम्बिके ! यदि आप सदा दयालु चित्तवाली न होतीं तो मैं तमोगुणयुक्त, ब्रह्मा रजोगुणसम्पन्न और विष्णु सत्त्वगुणयुक्त कैसे बनते ? ॥ ८ ॥
यदि न ते विषमा मतिरम्बिके कथमिदं बहुधा विहितं जगत् । सचिवभूपतिभृत्यजनावृतं बहुधनैरधनैश्च समाकुलम् ॥ ९ ॥
हे अम्बिके ! यदि आपकी वैविध्यपूर्ण बुद्धि न होती तो यह संसार इतना विविधतापूर्ण कैसे होता, जिसमें मन्त्री, राजा, सेवक, धनी और निर्धन भरे पड़े हैं ॥ ९ ॥
तव गुणास्रय एव सदा क्षमाः प्रकटनावनसंहरणेषु वै । हरिहरद्रुहिणाश्च क्रमात्त्वया विरचितास्त्रिजगतां किल कारणम् ॥ १० ॥
इस ब्रह्माण्डकी सृष्टि, स्थिति और संहार करनेमें आपके तीनों गुण (सत्-रज-तम) ही सर्वथा समर्थ हैं । फिर भी आपने हम ब्रह्मा, विष्णु और महेशको क्रमशः इन कार्योंको सम्पन्न करनेके लिये तीनों लोकोंके कारणरूपमें उत्पन्न किया है ॥ १० ॥
परिचितानि मया हरिणा तथा कमलजेन विमानगतेन वै । पथिगतैर्भुवनानि कृतानि वा कथय केन भवानि नवानि च ॥ ११ ॥
विमानमें बैठा हुआ मैं, ब्रह्मा तथा विष्णुहमलोग इन भुवनोंसे पूर्णरूपेण परिचित हो गये हैं । हे भवानि ! मार्गमें स्थित इन नवीन भुवनोंको किसने बनाया ? इसे आप बतायें ॥ ११ ॥
सृजसि पासि जगज्जगदम्बिके स्वकलया कियदिच्छसि नाशितुम् । रमयसे स्वपतिं पुरुषं सदा तव गतिं न हि विद्म वयं शिवे ॥ १२ ॥
हे जगदम्बिके ! आप अपनी कलासे जगत्की रचना तथा पालन करती हैं और जब चाहती हैं तब उसका संहार कर देती हैं । आप सदा अपने पति परमपुरुषको रमण कराती रहती हैं । हे शिवे ! आपकी इस लीलाको हम नहीं जान सकते ॥ १२ ॥
जननि देहि पदाम्बुजसेवनं युवतिभागवतानपि नः सदा । पुरुषतामधिगम्य पदाम्बुजा- द्विरहिताः क्व लभेम सुखं स्फुटम् ॥ १३ ॥
हे जननि ! नारीभावको प्राप्त हमलोगोंको सदा अपने चरणकमलोंकी सेवा करनेका अवसर दें; क्योंकि कालान्तरमें पुनः पुंस्त्व प्राप्त होनेपर आपके चरणकमलोंसे पृथक् रहकर हमलोगोंको वह प्रत्यक्ष सुख कहाँ प्राप्त होगा ! ॥ १३ ॥
न रुचिरस्ति ममाम्ब पदाम्बुजं तव विहाय शिवे भुवनेष्वलम् । निवसितुं नरदेहमवाप्य च त्रिभुवनस्य पतित्वमवाप्य वै ॥ १४ ॥
हे अम्ब ! हे शिवे ! आपके चरणकमलोंको त्यागकर यह नरदेह प्राप्त करके तीनों लोकोंका स्वामित्व प्राप्त करके भी समस्त लोकोंमें कहीं भी रहनेकी मेरी रुचि नहीं है-चाहे मुझे त्रिभुवनका स्वामित्व ही क्यों न मिल जाय ॥ १४ ॥
सुदति नास्ति मनागपि मे रति- र्युवतिभावमवाप्य तवान्तिके । पुरुषता क्व सुखाय भवत्यलं तव पदं न यदीक्षणगोचरम् ॥ १५ ॥
हे सुदति ! आपके सांनिध्यमें स्त्रीभावको प्राप्त कर लेनेपर अब पुरुषभावमें मेरी थोड़ी भी रुचि नहीं है । जिसे पाकर आपके चरणारविन्दके दर्शनका सौभाग्य न मिले, वह पुरुषता कैसे सुख प्रदान कर सकती है ? ॥ १५ ॥
त्रिभुवनेषु भवत्वियमम्बिके मम सदैव हि कीर्तिरनाविला । युवतिभावमवाप्य पदाम्बुजं परिचितं तव संसृतिनाशनम् ॥ १६ ॥
हे अम्बिके ! स्त्रीका रूप पाकर मैं भवबन्धनसे मुक्त करनेवाले आपके चरणकमलोंसे परिचित हो गया हूँ । आपकी कृपासे तीनों लोकोंमें मेरा सुयश स्थिर रहे ॥ १६ ॥
भुवि विहाय तवान्तिकसेवनं क इह वाञ्छति राज्यमकंटकम् । त्रुटिरसौ किल याति युगात्मतां न निकटं यदि तेऽङ्घ्रिसरोरुहम् ॥ १७ ॥
इस संसारमें ऐसा कौन प्राणी होगा, जो आपके सांनिध्यका सेवन छोड़कर निष्कण्टक राज्य करना चाहेगा ? क्योंकि जिसे आपके चरणकमलका सांनिध्य प्राप्त नहीं होता, उसके लिये क्षणांश भी युगके समान प्रतीत होता है ॥ १७ ॥
तपसि ये निरता मुनयोऽमला- स्तव विहाय पदाम्बुजपूजनम् । जननि ते विधिना किल वञ्चिताः परिभवो विभवे परिकल्पितः ॥ १८ ॥
हे जननि ! जो शुद्ध चित्तवाले मुनि आपके चरण-कमलकी सेवा त्यागकर केवल तपश्चर्या में लगे रहते हैं, वे निश्चितरूपसे विधाताके द्वारा ठगे गये हैं और अपनी हानिको ही लाभ समझते हैं ॥ १८ ॥
न तपसा न दमेन समाधिना न च तथा विहितैः क्रतुभिर्यथा । तव पदाब्जपरागनिषेवणा- द्भवति मुक्तिरजे भवसागरात् ॥ १९ ॥
हे अजे ! आपके पदारविन्दके परागकी सेवासे जैसी मुक्ति इस संसार-सागरसे प्राप्त होती है, वैसी मुक्ति तपस्या, इन्द्रियदमन, समाधि तथा विभिन्न वेदविहित यज्ञोंसे भी नहीं होती ॥ १९ ॥
कुरु दयां दयसे यदि देवि मां कथय मन्त्रमनाविलमद्भुतम् । समभवं प्रजपन्सुखितो ह्यहं सुविशदं च नवार्णमनुत्तमम् ॥ २० ॥
हे देवि ! यदि आप मेरे प्रति दयालु हैं तो मुझपर दया कीजिये और अपना निर्मल, अद्धत, सर्वश्रेष्ठ एवं विशद नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे) मुझे प्रदान कीजिये, जिससे उसका निरन्तर जप करके मैं सर्वदाके लिये सुखी हो जाऊँ ॥ २० ॥
प्रथमजन्मनि चाधिगतो मया तदधुना न विभाति नवाक्षरः । कथय मां मनुमद्य भवार्णवा- ज्जननि तारय तारय तारके ॥ २१ ॥
पूर्वजन्ममें मैंने नवार्ण मन्त्रकी दीक्षा पायी थी । परंतु वह मुझे अब स्मरण नहीं रह गया है । इसलिये हे तारके ! हे जननि ! आज पुनः वह मन्त्र मुझे प्रदान कीजिये और भवसागरसे मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये ॥ २१ ॥
इत्युक्ता सा तदा देवी शिवेनाद्भुततेजसा । उच्चचाराम्बिका मन्त्रं प्रस्फुटं च नवाक्षरम् ॥ २२ ॥ तं गृहीत्वा महादेवः परां मुदमवाप ह । प्रणम्य चरणौ देव्यास्तत्रैवावस्थितः शिवः ॥ २३ ॥
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] अद्भुत तेजस्वी शिवजीके ऐसा कहनेपर जगदम्बाने स्पष्ट शब्दोंमें नवाक्षर मन्त्रका उच्चारण किया । उस मन्त्रको ग्रहण करके शिवजी बहुत प्रसन्न हो गये और भगवतीके चरणोंमें प्रणाम करके वहींपर स्थित हो गये ॥ २२-२३ ॥
जपन्नवाक्षरं मन्त्रं कामदं मोक्षदं तथा । बीजयुक्तं शुभोच्चारं शङ्करस्तस्थिवांस्तदा ॥ २४ ॥
उस समय सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेमें समर्थ, मुक्तिप्रदायक तथा शुभ उच्चारणसे सम्पन्न उस बीजयुक्त नवाक्षर मन्त्रका जप करते हुए शंकरजी वहाँ विराजमान रहे ॥ २४ ॥
संसारका कल्याण करनेवाले शिवजीको इस प्रकार बैठा देखकर मैं उन महामायाके चरणोंके समीप बैठ गया और उनसे कहने लगा ॥ २५ ॥
न वेदास्त्वामेवं कलयितुमिहासन्नपटवो यतस्ते नोचुस्त्वां सकलजनधात्रीमविकलाम् । स्वधाभूता देवी सकलमखहोमेषु विहिता तदा त्वं सर्वज्ञा जननि खलु जाता त्रिभुवने ॥ २६ ॥
हे जननि ! वेद सभी लोगोंको धारण करनेवाली तथा सनातनी आप भगवतीकी कल्पना करनेमें अकुशल हैं-ऐसी बात नहीं है; क्योंकि साधारण कार्योंमें उन्होंने आप भगवतीकी चर्चा नहीं की है । यदि वे आपको न जानते तो सभी यज्ञों तथा हवनकार्योंमें आपको ही स्वाहादेवीके रूपमें प्रतिष्ठित कैसे करते ? इसलिये आप तीनों लोकोंमें सर्वज्ञाके रूपमें विख्यात हुई ॥ २६ ॥
कर्ताऽहं प्रकरोमि सर्वमखिलं ब्रह्माण्डमत्यद्भुतं कोऽन्योस्तीह चराचरे त्रिभुवने मत्तः समर्थः पुमान् । धन्योऽस्म्यत्र न संशयः किल यदा ब्रह्माऽस्मि लोकातिगो मग्नोऽहं भवसागरे प्रवितते गर्वाभिवेशादिति ॥ २७ ॥ अद्याहं तव पादपङ्कजपरागादानगर्वेण वै धन्योऽस्मीति यथार्थवादनिपुणो जातः प्रसादाच्च ते । याचे त्वां भवभीतिनाशचतुरां मुक्तिप्रदां चेश्वरीं हित्वा मोहकृतं महार्तिनिगडं त्वद्भक्तियुक्तं कुरु ॥ २८ ॥
मैं स्रष्टा हूँ, मैं अत्यन्त अद्भुत सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका निर्माण करता हूँ, इस चराचर त्रिभुवनमें मुझसे बढ़कर समर्थ दूसरा पुरुष कौन है, मैं निस्सन्देह धन्य हूँ, मैं लोकोत्तर ब्रह्मा हूँ-इस मिथ्या अहंकारके कारण मैं सर्वदा इस विस्तृत संसारसागरमें निमग्न रहता है । तथापि आज आपके चरण कमलोंकी पराग-प्राप्तिके गर्वसे मैं वस्तुतः धन्य हो गया हूँ और आपकी कृपासे ही आज मैं यथातथ्यके ज्ञानमें निपुण हो गया हूँ । सांसारिक भयका नाश करनेमें दक्ष, मुक्तिदायिनी आप परमेश्वरीसे मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि मोहनिर्मित महादुःखदायी भवबन्धनसे मुक्त करके आप मुझे अपनी भक्तिसे समन्वित कीजिये ॥ २७-२८ ॥
अतोऽहञ्च जातो विमुक्तः कथं स्यां सरोजादमेयात्त्वदाविष्कृताद्वै । तवाज्ञाकरः किङ्करोऽस्मीति नूनं शिवे पाहि मां मोहमग्नं भवाब्धौ ॥ २९ ॥
आपसे ही निर्मित अद्भुत कमलसे मैं आविर्भूत हुआ हूँ और मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हूँ, अतः मैं कैसे मुक्त हो सकूँगा ? हे शिवे ! इस भवसागरमें पड़े हुए मुझ मोहमग्नकी रक्षा कीजिये ॥ २९ ॥
न जानन्ति ये मानवास्ते वदन्ति प्रभुं मां तवाद्यं चरित्रं पवित्रम् । यजन्तीह ये याजकाः स्वर्गकामा न ते ते प्रभावं विदन्त्येव कामम् ॥ ३० ॥
इस संसारमें जो लोग आपके सनातन पवित्र चरित्रको नहीं जानते, वे लोग मुझे ही ईश्वर कहते हैं और जो यज्ञकर्ता स्वर्गकी इच्छासे (इन्द्र आदि देवताओंका] यजन करते हैं, वे भी सर्वथा आपके प्रभावको नहीं जानते ॥ ३० ॥
त्वया निर्मितोऽहं विधित्वे विहारं विकर्तुं चतुर्धा विधायादिसर्गम् । अहं वेद्मि कोऽन्यो विवेदातिमाये क्षमस्वापराधं त्वहङ्कारजं मे ॥ ३१ ॥
हे आदिमाये ! सर्वप्रथम सृष्टिको चार भागों [अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और पिण्डज-जरायुज]में विभक्त करनेके लिये ही आपने मुझे ब्रह्माके पदपर बैठाया, परंतु [मैंने यह समझ लिया कि] मैं ही सब कुछ जानता हूँ, दूसरा कौन जान सकता है-मेरे इस अहंकारजन्य अपराधको आप क्षमा कीजिये ॥ ३१ ॥
श्रमं येऽष्टधा योगमार्गे प्रवृत्ताः प्रकुर्वन्ति मूढाः समाधौ स्थिता वै । न जानन्ति ते नाम मोक्षप्रदं वा समुच्चारितं जातु मातर्मिषेण ॥ ३२ ॥
जो लोग अष्टांगयोगका आश्रय लेते हैं और समाधि लगाकर व्यर्थ श्रम करते हैं, वे अज्ञानी हैं । हे माता ! वे यह नहीं जानते कि किसी भी बहाने आपके नामोच्चारणमात्रसे ही उन्हें मुक्ति प्राप्त हो सकती है ॥ ३२ ॥
विचारे परे तत्त्वसंख्याविधाने पदे मोहिता नाम ते संविहाय । न किं ते विमूढा भवाब्धौ भवानि त्वमेवासि संसारमुक्तिप्रदा वै ॥ ३३ ॥
कुछ लोग (सांख्यवादी) तो आपके नामका आश्रय छोड़कर विमोहित हो तत्त्वोंकी संख्याके फेरमें पड़ जाते हैं; क्या वे इस भवसागरमें मूर्ख नहीं हैं ? हे भवानि ! संसारसे मुक्ति प्रदान करनेवाली तो आप ही हैं ॥ ३३ ॥
परं तत्त्वविज्ञानमाद्यैर्जनैर्यै- रजे चानुभूतं त्यजन्त्येव ते किम् । निमेषार्धमात्रं पवित्रं चरित्रं शिवा चाम्बिका शक्तिरीशेति नाम ॥ ३४ ॥
हे अजे ! जिन विष्णु-शिव आदिने परम तत्त्वज्ञानका अनुभव कर लिया है, वे क्या आधे निमेषमात्रके लिये भी आपके पवित्र चरित्र तथा शिवा, अम्बिका, शक्ति, ईश्वरी आदि नामोंको विस्मृत करते हैं ? ॥ ३४ ॥
क्या आप विश्वकी रचना करने में समर्थ नहीं हैं ? हे आदिसर्गे ! आपके दृष्टिनिक्षेपमात्रसे ही यह सम्पूर्ण विश्व चार प्रकारके (अंडज, स्वेदज, उद्भिज्ज, पिण्डज-जरायुज) जीवोंके रूपमें शीघ्र ही विभक्त हुआ है । इस प्रकार मुझ ब्रह्माकी सृष्टि तो आप अपने मनोविनोदके लिये करके पुनः स्वतन्त्र भावसे जो चाहती हैं, वह करती हैं ॥ ३५ ॥
हरिः पालकः किं त्वयाऽसौ मधोर्वा तथा कैटभाद्रक्षितः सिन्धुमध्ये । हरः संहृतः किं त्वयाऽसौ न काले कथं मे भ्रुवोर्मध्यदेशात्स जातः ॥ ३६ ॥
[महाप्रलयकी स्थितिमें] यदि महासागरमें आप मधु-कैटभसे विष्णुकी रक्षा न करती तो वे सृष्टिपालक कैसे बन पाते और यदि आप सबके संहारक शिवका संहार न करतीं तो वे मेरे भ्रूमध्यसे कैसे प्रकट होते ? ॥ ३६ ॥
न ते जन्म कुत्रापि दृष्टं श्रुतं वा कुतः सम्भवस्ते न कोऽपीह वेद । किलाद्यासि शक्तिस्त्वमेका भवानि स्वतन्त्रैः समस्तैरतो बोधिताऽसि ॥ ३७ ॥
आपका जन्म कहाँ हुआ-इसे न तो किसीने देखा और न सुना और कोई यह भी नहीं जान पाया कि आपकी उत्पत्ति कहाँ हुई ? हे भवानि ! एकमात्र आप ही आद्या शक्ति हैं, अतएव वेदोंने इसी रूपमें आपका वर्णन किया है ॥ ३७ ॥
हे अम्ब ! आपकी ही शक्तिसे प्रेरित होकर मैं सृष्टि करनेमें, विष्णु पालन करनेमें तथा शिव संहार करने में समर्थ होते हैं । आपकी शक्तिसे विलग रहकर अब हमलोग कुछ भी करने में सक्षम नहीं हैं ॥ ३८ ॥
यथाऽहं हरिः शङ्करः किं तथाऽन्ये न जाता न सन्तीह नो वाऽभविष्यन् । न मुह्यन्ति केऽस्मिंस्तवात्यन्तचित्रे विनोदे विवादास्पदेऽल्पाशयानाम् ॥ ३९ ॥
जिस प्रकार मैं (ब्रह्मा), विष्णु और शिव उत्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार क्या अन्य प्राणी उत्पन्न नहीं हुए, अथवा विद्यमान नहीं हैं या उत्पन्न नहीं होंगे ? किंतु अल्प बुद्धिवाले प्राणियोंके लिये विवादास्पद तथा अत्यन्त विचित्र आपके इस लीलाविनोदसे कौन भ्रमित नहीं हो जाते ? ॥ ३९ ॥
वे आदिदेव ईश्वर अकर्ता, गुणोंसे स्फुट होनेवाले, निष्काम, उपाधिरहित तथा निर्गुण हैं, फिर भी वे आपके विस्तृत लीला-विनोदको भलीभाँति देखते रहते हैं-ज्ञानीजन ऐसा ही कहते हैं ॥ ४० ॥
मूर्त और अमूर्त भेदोंसे युक्त इस संसार में आपसे पूर्व वे ही परमपुरुष थे; ज्ञान-तत्त्वपर सम्यक् प्रकारसे विचार करनेपर यह सर्वथा सिद्ध होता है कि अन्य तीसरा कोई भी नहीं है ॥ ४१ ॥
[यह सिद्धान्त है कि] वेद-वाक्यको कभी मिथ्या नहीं समझना चाहिये । वेद ब्रह्मको अद्वितीय और एक बताते हैं तो फिर आप क्या हैं और वह ब्रह्म क्या है ? यह विरोध मेरे हृदयमें महान् शंका उत्पन्न करता है । आप मेरे इस सन्देहका निवारण करें ॥ ४२-४३ ॥
निःसंशयं न मे चेतः प्रभवत्यविशङ्कितम् । द्वित्वैकत्वविचारेऽस्मिन्निमग्नं क्षुल्लकं मनः ॥ ४४ ॥
इस प्रकार द्वैत-अद्वैतके इस विचारमें डूबा हुआ मेरा क्षुद्र मन निश्चितरूपसे शंकारहित नहीं हो पा रहा है ॥ ४४ ॥
अब आप ही स्वयं अपने मुखसे मेरी इस शंकाका निवारण करनेकी कृपा करें; क्योंकि [अनेक जन्मोंके] पुण्ययोगसे ही आपके चरणोंका यह सांनिध्य मुझे प्राप्त हुआ है ॥ ४५ ॥