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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
षष्ठोऽध्यायः

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ब्रह्मणे श्रीदेव्या उपदेशवर्णनम् -
भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना -


ब्रह्मोवाच
इति पृष्टा मया देवी विनयावनतेन च ।
उवाच वचनं श्लक्ष्णमाद्या भगवती हि सा ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले- अत्यन्त नम्र भावसे मेरे पूछनेपर वे आद्या भगवती मधुर वचन कहने लगीं ॥ १ ॥

देव्युवाच
सदैकत्वं न भेदोऽस्ति सर्वदैव ममास्य च ।
योऽसौ साहमहं योऽसौ भेदोऽस्ति मतिविभ्रमात् ॥ २ ॥
देवी बोलीं-मैं और परब्रह्म सदा एक ही हैं । कोई भेद नहीं है; क्योंकि जो वे हैं, वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ, वही वे हैं । बुद्धिभ्रमसे ही हम दोनोंमें भेद दिखायी पड़ता है ॥ २ ॥

आवयोरन्तरं सूक्ष्मं यो वेद मतिमान्हि सः ।
विमुक्तः स तु संसारान्मुच्यते नात्र संशयः ॥ ३ ॥
इसलिये हम दोनोंमें विद्यमान सूक्ष्म अन्तरको जो बुद्धिमान् जानता है, वह संसारके बन्धनसे छूटकर सदाके लिये मुक्त हो जाता है । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३ ॥

एकमेवाद्वितीयं वै ब्रह्म नित्यं सनातनम् ।
द्वैतभावं पुनर्याति काल उत्पित्सुसंज्ञके ॥ ४ ॥
ब्रह्म अद्वितीय, एक, नित्य एवं सनातन है: केवल सृष्टि-रचनाके समय वह पुनः द्वैतभावको प्राप्त होता है ॥ ४ ॥

यथा दीपस्तथोपाधेर्योगात्सञ्जायते द्विधा ।
छायेवादर्शमध्ये वा प्रतिबिम्बं तथावयोः ॥ ५ ॥
जिस प्रकार एक ही दीपक उपाधिभेदसे दो प्रकारका दिखायी देता है अथवा दर्पणमें पड़ती हुई छाया दर्पणभेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीत होती है, उसी प्रकार मैं और ब्रह्म एक होते हुए भी उपाधिभेदसे अनेक हो जाते हैं ॥ ५ ॥

भेद उत्पत्तिकाले वै सर्गार्थं प्रभवत्यज ।
दृश्यादृश्यविभेदोऽयं द्वैविध्ये सति सर्वथा ॥ ६ ॥
हे अज ! जगत्का निर्माण करनेके लिये सृष्टिकालमें भेद दिखता ही है । तब दृश्यादृश्यकी प्रतीति होना अनिवार्य ही है; क्योंकि बिना दोके सृष्टि होना असम्भव है ॥ ६ ॥

नाहं स्त्री न पुमांश्चाहं न क्लीबं सर्गसंक्षये ।
सर्गे सति विभेदः स्यात्कल्पितोऽयं धिया पुनः ॥ ७ ॥
सृष्टिके प्रलयकालमें मैं न स्त्री हूँ, न पुरुष हूँ और न ही नपुंसक हूँ । परंतु जब पुनः सृष्टि होने लगती है, तब पूर्ववत् यह भेद बुद्धिके द्वारा उत्पन्न हो जाता है ॥ ७ ॥

अहं बुद्धिरहं श्रीश्च धृतिः कीर्तिः स्मृतिस्तथा ।
श्रद्धा मेधा दया लज्जा क्षुधा तृष्णा तथा क्षमा ॥ ८ ॥
कान्तिः शान्तिः पिपासा च निद्रा तन्द्रा जराजरा ।
विद्याविद्या स्पृहा वाञ्छा शक्तिश्चाशक्तिरेव च ॥ ९ ॥
वसा मज्जा च त्वक्चाहं दृष्टिर्वागनृतानृता ।
परा मध्या च पश्यन्ती नाड्योऽहं विविधाश्च याः ॥ १० ॥
मैं ही बुद्धि, श्री, धृति, कीर्ति, स्मृति, श्रद्धा, मेधा, दया, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, कान्ति, शान्ति, पिपासा, निद्रा, तन्द्रा, जरा, अजरा, विद्या, अविद्या, स्पृहा, वाञ्छा, शक्ति, अशक्ति, वसा, मज्जा, त्वचा, दृष्टि, सत्यासत्य वाणी, परा, मध्या, पश्यन्ती आदि वाणीके भेद और जो विभिन्न प्रकारकी नाड़ियाँ हैंवह सब मैं ही हूँ ॥ ८-१० ॥

किं नाहं पश्य संसारे मद्वियुक्तं किमस्ति हि ।
सर्वमेवाहमित्येवं निश्चयं विद्धि पद्मज ॥ ११ ॥
हे पायोने ! आप यह देखिये कि इस संसारमें मैं क्या नहीं हूँ और मुझसे पृथक् कौन-सी वस्तु है ? इसलिये आप यह निश्चितरूपसे जान लीजिये कि सब कुछ मैं ही हूँ ॥ ११ ॥

एतैर्मे निश्चितै रूपैर्विहीनं किं वदस्व मे ।
तस्मादहं विधे चास्मिन्सर्गे वै वितताभवम् ॥ १२ ॥
हे विधे । मेरे इन निश्चित रूपोंके अतिरिक्त यदि कुछ हो तो मुझे बतायें, अतः इस सृष्टिमें सर्वत्र मैं ही व्याप्त हूँ ॥ १२ ॥

नूनं सर्वेषु देवेषु नानानामधरा ह्यहम् ।
भवामि शक्तिरूपेण करोमि च पराक्रमम् ॥ १३ ॥
गौरी ब्राह्मी तथा रौद्री वाराही वैष्णवी शिवा ।
वारूणी चाथ कौबेरी नारसिंही च वासवी ॥ १४ ॥
उत्पन्नेषु समस्तेषु कार्येषु प्रविशामि तान् ।
करोमि सर्वकार्याणि निमित्तं तं विधाय वै ॥ १५ ॥
निश्चित ही मैं समस्त देवताओंमें भिन्न-भिन्न नामोंसे विराजती हैं तथा शक्तिरूपसे प्रकट होती हूँ और पराक्रम करती हूँ । मैं ही गौरी, ब्राह्मी, रौद्री, वाराही, वैष्णवी, शिवा, वारुणी, कौबेरी, नारसिंही और वासवी शक्तिके रूपमें विद्यमान हूँ । सब काकि उपस्थित होनेपर मैं उन देवताओंमें प्रविष्ट हो जाती हूँ और देवविशेषको निमित्त बनाकर सब कार्य सम्पन्न कर देती हूँ ॥ १३-१५ ॥

जले शीतं तथा वह्नावौष्ण्यं ज्योतिर्दिवाकरे ।
निशानाथे हिमा कामं प्रभवामि यथा तथा ॥ १६ ॥
जलमें शीतलता, अग्निमें उष्णता, सूर्यमें प्रकाश और चन्द्रमा ज्योत्स्नाके रूपमें मैं ही यथेच्छ प्रकट होती हूँ ॥ १६ ॥

मया त्यक्तं विधे नूनं स्पन्दितुं न क्षमं भवेत् ।
जीवजातं च संसारे निश्चयोऽयं ब्रुवे त्वयि ॥ १७ ॥
अशक्तः शङ्करो हन्तुं दैत्यान्किल मयोज्झितः ।
शक्तिहीनं नरं ब्रूते लोकश्चैवातिदुर्बलम् ॥ १८ ॥
हे विधे ! इस संसारका कोई भी जीव मुझसे रहित होकर स्पन्दन भी करनेमें समर्थ नहीं हो सकता । यह मेरा निश्चय है । इसे मैं आपको बता दे रही हूँ । इसी प्रकार यदि मैं शिवको छोड़ दूं तो वे शक्तिहीन होकर दैत्योंका संहार करने में समर्थ नहीं हो सकते । इसीलिये तो संसारमें भी अत्यन्त दुर्बल पुरुषको लोग शक्तिहीन कहते हैं ॥ १७-१८ ॥

रुद्रहीनं विष्णुहीनं न वदन्ति जनाः किल ।
शक्तिहीनं यथा सर्वे प्रवदन्ति नराधमम् ॥ १९ ॥
पतितः स्खलितो भीतः शान्तः शत्रुवशं गतः ।
अशक्तः प्रोच्यते लोके नारुद्रः कोऽपि कथ्यते ॥ २० ॥
लोग अधम मनुष्यको विष्णुहीन या रुद्रहीन नहीं कहते बल्कि उसे शक्तिहीन ही कहते हैं । जो गिर गया हो, स्खलित हो गया हो, भयभीत हो, निश्चेष्ट हो गया हो अथवा शत्रुके वशीभूत हो गया हो-वह संसारमें अरुद्र नहीं कहा जाता, अपितु अशक्त ही कहा जाता है ॥ १९-२० ॥

तद्विद्धि कारणं शक्तिर्यथा त्वं च सिसृक्षसि ।
भविता च यदा युक्तः शक्त्या कर्ता तदाखिलम् ॥ २१ ॥
[हे ब्रह्मन् !] आप ही जब सृष्टि करना चाहते हैं तब उसमें शक्ति ही कारण है, ऐसा जानिये । जब आप शक्तिसे युक्त होते हैं तभी सृष्टिकर्ता हो पाते हैं ॥ २१ ॥

तथा हरिस्तथा शंभुस्तथेन्द्रोऽथ विभावसुः ।
शशी सूर्यो यमस्त्वष्टा वरुणः पवनस्तथा ॥ २२ ॥
इसी प्रकार विष्णु, शिव, इन्द्र, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, यम, विश्वकर्मा, वरुण और वायुदेवता भी शक्ति-सम्पन्न होकर ही अपना-अपना कार्य सम्पादित करते हैं ॥ २२ ॥

धरा स्थिरा तदा धर्तुं शक्तियुक्ता यदा भवेत् ।
अन्यथा चेदशक्ता स्यात्परमाणोश्च धारणे ॥ २३ ॥
तथा शेषस्तथा कूर्मो येऽन्ये सर्वे च दिग्गजाः ।
मद्युक्ता वै समर्थाश्च स्वानि कार्याणि साधितुम् ॥ २४ ॥
पृथ्वी भी जब शक्तिसे युक्त होती है, तब स्थिर होकर सबको धारण करनेमें समर्थ होती है । यदि वह शक्तिहीन हो जाय तो एक परमाणुको भी धारण करनेमें समर्थ न हो सकेगी । शेषनाग, कच्छप एवं दसों दिग्गज मेरी शक्ति पाकर ही अपने-अपने कार्य सम्पन्न करनेमें समर्थ हो पाते हैं ॥ २३-२४ ॥

जलं पिबामि सकलं संहरामि विभावसुम् ।
पवनं स्तम्भयाम्यद्य यदिच्छामि तथाचरम् ॥ २५ ॥
यदि मैं चाहूँ तो सम्पूर्ण संसारका जल पी जाऊँ, अग्निको नष्ट कर दूँ और वायुकी गति रोक हूँ मैं जैसा चाहती हूँ, वैसा करती हूँ ॥ २५ ॥

तत्त्वानां चैव सर्वेषां कदापि कमलोद्‌भव ।
असतां भावसन्देहः कर्तव्यो न कदाचन ॥ २६ ॥
कदाचित्प्रागभावः स्यात्प्रध्वंसाभाव एव वा ।
मृत्पिण्डेषु कपालेषु घटाभावो यथा तथा ॥ २७ ॥
हे कमलोद्भव ! सभी तत्त्वोंके अभावका सन्देह अब आप कभी न कीजिये; क्योंकि कभी-कभी किसी वस्तुविशेषका प्रागभाव (जिसका आदि न हो, पर अन्त हो) तथा प्रध्वंसाभाव (जिसका आदि हो, किंतु अन्त न हो) उसी प्रकार हो जाता है, जिस प्रकार मिट्टीके पिण्डोंमें और कपालोंमें घटाभाव प्रतीत होता है ॥ २६-२७ ॥

अद्यात्र पृथिवी नास्ति क्व गतेति विचारणे ।
सञ्जाता इति विज्ञेया अस्यास्तु परमाणवः ॥ २८ ॥
आज यहाँ पृथ्वी नहीं है, तब वह कहाँ चली गयी ? इसपर विचार करनेपर वह पृथ्वी परमाणुरूपसे विद्यमान तो है ही-ऐसा जानना चाहिये ॥ २८ ॥

शाश्वतं क्षणिकं शून्यं नित्यानित्यं सकर्तुकम् ।
अहङ्काराग्रिमञ्चैव सप्तभेदैर्विवक्षितम् ॥ २९ ॥
गृहाणाज महतत्त्वमहङ्कारस्तदुद्‌भवः ।
ततः सर्वाणि भूतानि रचयस्व यथा पुरा ॥ ३० ॥
शाश्वत, क्षणिक, शून्य, नित्य, अनित्य, सकर्तक और अहंकार-इन सात भेदोंमें सृष्टिका वर्णन विवक्षित है । इसलिये हे अज ! अब आप उस महत्तत्त्वको ग्रहण कीजिये, जिससे अहंकारकी उत्पत्ति होती है । तत्पश्चात् आप पूर्वकी भाँति समस्त प्राणियोंकी रचना कीजिये ॥ २९-३० ॥

व्रजन्तु स्वानि धिष्ण्यानि विरच्य निवसन्तु वः ।
स्वानि स्वानि च कार्याणि कुर्वन्तु दैवभाविताः ॥ ३१ ॥
अब आपलोग जाइये तथा अपने-अपने लोकोंकी रचना करके निवास कीजिये और दैवका चिन्तन करते हुए अपने-अपने कार्य कीजिये ॥ ३१ ॥

गृहाणेमां विधे शक्तिं सुरूपां चारुहासिनीम् ।
महासरस्वतीं नाम्ना रजोगुणयुतां वराम् ॥ ३२ ॥
श्वेताम्बरधरां दिव्यां दिव्यभूषणभूषिताम् ।
वरासनसमारूढां क्रीडार्थं सहचारिणीम् ॥ ३३ ॥
हे विधे ! सुन्दर रूपवाली, दिव्य हासवाली, रजोगुणसे युक्त, श्रेष्ठ खेत वस्त्र धारण करनेवाली, अलौकिक, दिव्याभूषणोंसे विभूषित, उत्तम आसनपर विराजमान इस महासरस्वती नामक शक्तिको क्रीडाविहारके लिये अपनी सहचरीके रूपमें स्वीकार कीजिये ॥ ३२-३३ ॥

एषा सहचरी नित्यं भविष्यति वराङ्गना ।
मावमंस्था विभूतिं मे मत्वा पूज्यतमां प्रियाम् ॥ ३४ ॥
गच्छ त्वमनया सार्धं सत्यलोकं बताशु वै ।
बीजाच्चतुर्विधं सर्वं समुत्पादय साम्प्रतम् ॥ ३५ ॥
यह सुन्दरी सदा आपकी सहचरी बनकर रहेगी । इस पूज्यतम प्रेयसीको मेरी विभूति समझकर कभी भी इसका तिरस्कार न कीजियेगा । अब आप शीघ्र ही इसे साथ लेकर सत्यलोकमें प्रस्थान करें और तत्वबीजसे चार प्रकारकी समस्त सृष्टि करने में तत्पर हो जाय ॥ ३४-३५ ॥

लिङ्गकोशाश्च जीवैस्तैः सहिताः कर्मभिस्तथा ।
वर्तन्ते संस्थिताः काले तान्कुरु त्वं यथा पुरा ॥ ३६ ॥
कालकर्मस्वभावाख्यैः कारणैः सकलं जगत् ।
स्वभावस्वगुणैर्युक्तं पूर्ववत्सचराचरम् ॥ ३७ ॥
समस्त जीवों और कर्मोके साथ जो लिंगकोश हैं, उन्हें पूर्वकी भाँति आप प्रतिष्ठित कर दें । काल, कर्म और स्वभाव नामवाले-इन कारणोंसे समस्त चराचर सृष्टिको पूर्वकी भाँति अपने-अपने स्वभाव और गुणोंसे युक्त कर दीजिये । ३६-३७ ॥

माननीयस्त्वया विष्णुः पूजनीयश्च सर्वदा ।
सत्त्वगुणप्रधानत्वादधिकः सर्वतः सदा ॥ ३८ ॥
विष्णु आपके सदा माननीय और पूजनीय हैं; क्योंकि सत्त्वगुणकी प्रधानताके कारण वे सर्वदा सब प्रकारसे श्रेष्ठ हैं ॥ ३८ ॥

यदा यदा हि कार्यं वो भविष्यति दुरत्ययम् ।
करिष्यति पृथिव्यां वै अवतारं तदा हरिः ॥ ३९ ॥
जब-जब आपलोगोंका कोई कठिन कार्य उपस्थित होगा, उस समय भगवान् श्रीहरि पृथ्वीपर अवतार ग्रहण करेंगे ॥ ३९ ॥

तिर्यग्योनावथान्यत्र मानुषीं तनुमाश्रितः ।
दानवानां विनाशं वै करिष्यति जनार्दनः ॥ ४० ॥
कहीं तिर्यक्-योनिमें तथा कहीं मानवयोनिमें शरीर धारण करके ये भगवान् जनार्दन दानवोंका अवश्य विनाश करेंगे ॥ ४० ॥

भवोऽयं ते सहायश्च भविष्यति महाबलः ।
समुत्पाद्य सुरान्सर्वान्विहरस्व यथासुखम् ॥ ४१ ॥
ये महाबली शंकरजी भी आपकी सहायता करेंगे । अब आप समस्त देवताओंका सृजन करके स्वेच्छया सुखपूर्वक विहार कीजिये ॥ ४१ ॥

ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्या नानायज्ञैः सदक्षिणैः ।
यजिष्यन्ति विधानेन सर्वान्वः सुसमाहिताः ॥ ४२ ॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यलोग दक्षिणायुक्त नानाविध यज्ञोंसे विधिपूर्वक पूर्ण मनोयोगके साथ आप सबकी पूजा करेंगे ॥ ४२ ॥

मन्नामोच्चारणात्सर्वे मखेषु सकलेषु च ।
सदा तृप्ताश्च सन्तुष्टा भविष्यध्वं सुराः किल ॥ ४३ ॥
हे देवो ! सभी यज्ञोंमें मेरे नामका उच्चारण करते ही आप सभी लोग निश्चितरूपसे सदैव तृप्त एवं सन्तुष्ट हो जायँगे ॥ ४३ ॥ ।

शिवश्च माननीयो वै सर्वथा यत्तमोगुणः ।
यज्ञकार्येषु सर्वेषु पूजनीयः प्रयत्‍नतः ॥ ४४ ॥
आपलोग तमोगुणसम्पन्न शंकरजीका सब प्रकारसे सम्मान कीजियेगा और सभी यज्ञकार्योंमें प्रयत्नपूर्वक उनकी पूजा कीजियेगा ॥ ४४ ॥

यदा पुनः सुराणां वै भयं दैत्याद्‌भविष्यति ।
शक्तयो मे तदोत्पन्ना हरिष्यन्ति सुविग्रहाः ॥ ४५ ॥
वाराही वैष्णवी गौरी नारसिंही सदाशिवा ।
एताश्चान्याश्च कार्याणि कुरु त्वं कमलोद्‌भव ॥ ४६ ॥
जब कभी भी देवताओंके समक्ष दैत्योंसे भय उत्पन्न होगा, उस समय सुन्दर रूपोंवाली वाराही, वैष्णवी, गौरी, नारसिंही, सदाशिवा तथा अन्य देवियोंके रूपमें मेरी शक्तियाँ प्रकट होकर उनका भय दूर कर देंगी । अतः हे कमलोद्भव ! अब आप अपने कार्य करें ॥ ४५-४६ ॥

नवाक्षरमिमं मन्त्रं बीजध्यानयुतं सदा ।
जपन्सर्वाणि कार्याणि कुरु त्वं कमलोद्‌भव ॥ ४७ ॥
हे कमलोद्भव ! बीज तथा ध्यानसे युक्त मेरे इस नवाक्षर मन्त्रका जप करते हुए आप समस्त कार्य कीजिये । ४७ ॥

मन्त्राणामुत्तमोऽयं वै त्वं जानीहि महामते ।
हृदये ते सदा धार्यः सर्वकामार्थसिद्धये ॥ ४८ ॥
हे महामते ! आप इस मन्त्रको सभी मन्त्रोंसे श्रेष्ठ जानिये । सभी मनोरथोंकी सिद्धिके लिये आपको इस मन्त्रको सदा अपने हृदयमें धारण करना चाहिये ॥ ४८ ॥

इत्युक्त्वा मां जगन्माता हरिं प्राह शुचिस्मिता ।
विष्णो व्रज गृहाणेमां महालक्ष्मीं मनोहराम् ॥ ४९ ॥
मुझसे ऐसा कहकर पवित्र मुसकानवाली जगजननीने भगवान् विष्णुसे कहा-हे विष्णो ! अब आप इन मनोहर महालक्ष्मीको स्वीकार कीजिये और यहाँसे प्रस्थान कीजिये ॥ ४९ ॥

सदा वक्षःस्थले स्थाने भविता नात्र संशयः ।
क्रीडार्थं ते मया दत्ता शक्तिः सर्वार्थदा शिवा ॥ ५० ॥
ये आपके वक्षःस्थलमें सदा निवास करेंगी, इसमें सन्देह नहीं है । आपके लीलाविनोदके लिये मैंने आपको यह सभी मनोरथ प्रदान करनेवाली कल्याणमयी शक्ति अर्पित की है ॥ ५० ॥

त्वयेयं नावमन्तव्या माननीया च सर्वदा ।
लक्ष्मीनारायणाख्योऽयं योगो वै विहितो मया ॥ ५१ ॥
आप इनका सर्वदा सम्मान करते रहियेगा और कभी भी तिरस्कार न कीजियेगा । लक्ष्मीनारायण नामक यह संयोग मेरे द्वारा ही रचा गया है ॥ ५१ ॥

जीवनार्थं कृता यज्ञा देवानां सर्वथा मया ।
अविरोधेन सङ्गेन वर्तितव्यं त्रिभिः सदा ॥ ५२ ॥
मैंने देवताओंकी जीविकाके लिये ही यज्ञोंकी रचना की है । आप तीनों विरोधभावनासे रहित होकर व्यवहार कीजिये ॥ ५२ ॥

त्वं च वेधाः शिवस्त्वेते देवा मद्‌गुणसम्भवाः ।
मान्याः पूज्याश्च सर्वेषां भविष्यन्ति न संशयः ॥ ५३ ॥
आप (विष्णु), ब्रह्मा, शिव तथा ये सभी देवता मेरे ही प्रभावसे प्रादुर्भूत हुए हैं । अतएव निस्सन्देह आपलोग सभी प्राणियोंके मान्य एवं पूज्य होंगे ॥ ५३ ॥

ये विभेदं करिष्यन्ति मानवा मूढचेतसः ।
निरयं ते गमिष्यन्ति विभेदान्नात्र संशयः ॥ ५४ ॥
जो अज्ञानी मनुष्य इनमें भेदभाव करेंगे, वे इस विभेदके कारण नरकमें पड़ेंगे । इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५४ ॥

यो हरिः स शिवः साक्षाद्यः शिवः स स्वयं हरिः ।
एतयोर्भेदमातिष्ठन्नरकाय भवेन्नरः ॥ ५५ ॥
जो विष्णु हैं, वे ही साक्षात् शिव हैं और जो शिव हैं, वे ही स्वयं विष्णु हैं । इन दोनोंमें भेद रखनेवाला मनुष्य नरकगामी होता है ॥ ५५ ॥

तथैव द्रुहिणो ज्ञेयो नात्र कार्या विचारणा ।
अपरो गुणभेदोऽस्ति शृणु विष्णो ब्रवीमि ते ॥ ५६ ॥
ब्रह्माजीके सम्बन्धमें भी ऐसा ही जानिये; इसमें कोई सन्देह नहीं है । हे विष्णो ! गुणों के कारण इनमें जो भेद हैं; उन्हें आपको बता रही हूँ, आप सुनें ॥ ५६ ॥

मुख्यः सत्त्वगुणस्तेऽस्तु परमात्मविचिन्तने ।
गौणत्वेऽपि परौ ख्यातौ रजोगुणतमोगुणौ ॥ ५७ ॥
लक्ष्म्या सह विकारेषु नानाभेदेषु सर्वदा ।
रजोगुणयुतो भूत्वा विहरस्वानया सह ॥ ५८ ॥
परमात्म-चिन्तनकी दृष्टिसे आपका मुख्य गुण सत्त्वगुण है । दूसरे रजोगुण तथा तमोगुण आपके लिये गौण हैं । अतएव विभिन्न भेदयुक्त विकारोंमें रजोगुणसे सम्पन्न होकर आप इन लक्ष्मीके साथ विहार कीजिये ॥ ५७-५८ ॥

वाग्बीजं कामराजं च मायाबीजं तृतीयकम् ।
मन्त्रोऽयं त्वं रमाकान्त मद्दत्तः परमार्थदः ॥ ५९ ॥
गृहीत्वा जप तं नित्यं विहरस्व यथासुखम् ।
न ते मृत्युभयं विष्णो न कालप्रभवं भयम् ॥ ६० ॥
हे लक्ष्मीकान्त ! मेरे द्वारा आपको दिया गया वाग्वीज (ऐं), कामराज (क्ली) तथा तृतीय मायावीज (ह्रीं) इनसे युक्त यह मन्त्र परमार्थ प्रदान करनेवाला है । आप इसे ग्रहण करके निरन्तर इसका जप कीजिये तथा सुखपूर्वक विहार कीजिये । हे विष्णो ! ऐसा करनेसे आपको न तो मृत्युभय होगा और न कालजनित भय ही होगा ॥ ५९-६० ॥

यावदेष विहारो मे भविष्यति सुनिश्चयः ।
संहरिष्याम्यहं सर्वं यदा विश्वं चराचरम् ॥ ६१ ॥
भवन्तोऽपि तदा नूनं मयि लीना भविष्यथ ।
स्मर्तव्योऽयं सदा मन्त्रः कामदो मोक्षदस्तथा ॥ ६२ ॥
जबतक मैं विहार करती रहूँगी, तबतक यह सृष्टि निश्चितरूपसे रहेगी और जब मैं सम्पूर्ण चराचर जगत्का संहार कर दूंगी, उस समय आपलोग भी मुझमें समाहित हो जायेंगे । आपलोग समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले इस मन्त्रका अनवरत स्मरण करते रहें । ६१-६२ ॥

उद्‌गीथेन च संयुक्तः कर्तव्यः शुभमिच्छता ।
कारयित्वाथ वैकुण्ठं वस्तव्यं पुरुषोत्तम ॥ ६३ ॥
अपना कल्याण चाहनेवाले व्यक्तिको इस मन्त्रके साथ 'ओंकार' जोड़कर चतुरक्षर मन्त्रका जप करना चाहिये । हे पुरुषोत्तम ! अब आप वैकुण्ठका निर्माण कराकर उसीमें निवास कीजिये और मुझ सनातनीका सतत ध्यान करते हुए इच्छापूर्वक विहार कीजिये ॥ ६३ ॥

विहरस्व यथाकामं चिन्तयन्मां सनातनीम् ।

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा वासुदेवं सा त्रिगुणा प्रकृतिः परा ॥ ६४ ॥
निर्गुणा शङ्करं देवमवोचदमृतं वचः ।
ब्रह्माजी बोले-[हे नारद !] विष्णुसे ऐसा कहकर उस त्रिगुणात्मिका तथा निर्गुणा परा प्रकृतिने देवाधिदेव शंकरसे अमृतमय वचन कहा ॥ ६४.५ ॥

देव्युवाच
गृहाण हरगौरीं त्वं महाकालीं मनोहराम् ॥ ६५ ॥
कैलासं कारयित्वा च विहरस्व यथासुखम् ।
मुख्यस्तमोगुणस्तेऽस्तु गौणौ सत्त्वरजोगुणौ ॥ ६६ ॥
देवी बोलीं-हे हर ! आप इन मनोहरा महाकाली गौरीको अंगीकार कीजिये और कैलासशिखरकी रचना कराकर वहाँ सुखपूर्वक विहार कीजिये । तमोगुण आपमें प्रधानगुणके रूपमें विद्यमान रहेगा और सत्त्वगुण तथा रजोगुण आपमें गौणरूपसे व्याप्त रहेंगे ॥ ६५-६६ ॥

विहरासुरनाशार्थं रजोगुणतमोगुणौ ।
तपस्तप्तं तथा कर्तुं स्मरणं परमात्मनः ॥ ६७ ॥
सर्वसत्त्वगुणः शान्तो गृहीतव्यः सदानघ ।
सर्वथा त्रिगुणा यूयं सृष्टिस्थित्यन्तकारकाः ॥ ६८ ॥
रजोगुण और तमोगुणके द्वारा दैत्योंके विनाशके लिये आप वहाँ विहार करें और हे शर्व ! परमात्माका स्मरण-ध्यान करनेके लिये आप तप कर चुके हैं । आप शान्तिप्रधान सत्त्वगुणका अवलम्बन कीजिये । हे अनघ ! त्रिगुणात्मक आप तीनों देवता सृष्टि, पालन एवं संहार करनेवाले हैं ॥ ६७-६८ ॥

एभिर्विहीनं संसारे वस्तु नैवात्र कुत्रचित् ।
वस्तुमात्रं तु यद्‌‌दृश्यं संसारे त्रिगुणं हि तत् ॥ ६९ ॥
संसारमें कहीं भी कोई भी वस्तु इन तीनों गुणोंसे रहित नहीं है । जगत्की जितनी भी दृश्य वस्तुएँ हैं, वे सब त्रिगुणात्मिका हैं ॥ ६९ ॥

दृश्यं च निर्गुणं लोके न भूतं नो भविष्यति ।
निर्गुणः परमात्मासौ न तु दृश्यः कदाचन ॥ ७० ॥
इस संसारमें ऐसी कोई भी दृश्य वस्तु गुणरहित न तो हुई और न होगी । निर्गुण तो एकमात्र वह परमात्मा ही है और वह कभी दृष्टिगोचर नहीं होता ॥ ७० ॥

सगुणा निर्गुणा चाहं समये शङ्करोत्तमा ।
सदाहं कारणं शम्भो न च कार्यं कदाचन ॥ ७१ ॥
हे शंकर ! समय आनेपर मैं श्रेष्ठरूपा ही वह सगुणा या निर्गुणा हो जाती हूँ । हे शम्भो ! मैं सर्वदा कारण हूँ, कार्य कभी नहीं ॥ ७१ ॥

सगुणा कारणत्वाद्वै निर्गुणा पुरुषान्तिके ।
महत्तत्त्वमहङ्कारो गुणाः शब्दादयस्तथा ॥ ७२ ॥
कार्यकारणरूपेण संसरन्ते त्वहर्निशम् ॥
सदुद्‌भूतस्त्वहङ्कारस्तेनाहं कारणं शिवा ॥ ७३ ॥
किसी कारणविशेषसे मैं सगुणा होती हूँ तो उस परमपुरुषके सांनिध्यमें निर्गुणा रहती हूँ । महत्तत्त्व, अहंकार, तीनों गुण और शब्द आदि विषय कार्यकारणभावसे निरन्तर गतिशील रहते हैं । सत्से अहंकार उत्पन्न होता है । इसीलिये मैं शिवा सबका कारण हूँ ॥ ७२-७३ ॥

अहङ्कारश्च मे कार्यं त्रिगुणोऽसौ प्रतिष्ठितः ।
अहङ्कारान्महत्तत्त्वं बुद्धिः सा परिकीर्तिता ॥ ७४ ॥
अहंकार मेरा कार्य है और वह त्रिगुणात्मक रूपमें प्रतिष्ठित है । उस अहंकारसे महत्तत्त्व उत्पन्न होता है; उसीको बुद्धि कहा गया है ॥ ७४ ॥

महत्तत्त्वं हि कार्यं स्यादहङ्कारो हि कारणम् ।
तन्मात्राणि त्वहङ्कारादुत्पद्यन्ते सदैव हि ॥ ७५ ॥
कारणं पञ्चभूतानां तानि सर्वसमुद्‌भवे ।
कर्मेन्द्रियाणि पंचैव पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि च ॥ ७६ ॥
महाभूतानि पञ्चैव मनः षोडशमेव च ।
कार्यञ्च कारणञ्चैव गणोऽयं षोडशात्मकः ॥ ७७ ॥
वह महत्तत्त्व कार्य है तथा अहंकार उसका कारण है । इसी अहंकारसे तन्मात्राओंकी सदा उत्पत्ति होती है । वे तन्मात्राएँ [पृथ्वी, जल आदि] पंचमहाभूतोंका कारण हैं । सबके सृजनमें पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और सोलहवाँ मन-यह षोडशात्मक समूह कार्य और कारणरूप होता है । ७५-७७ ॥

परमात्मा पुमानाद्यो न कार्यं न च कारणम् ।
एवं समुद्‌भवः शम्भो सर्वेषामादिसम्भवे ॥ ७८ ॥
वह आदिपुरुष परमात्मा न कार्य है और न कारण । हे शिव ! सबकी प्रारम्भिक सृष्टिके उत्पत्तिका यही क्रम है ॥ ७८ ॥

संक्षेपेण मया प्रोक्तस्तव तत्र समुद्‌भवः ।
व्रजन्त्वद्य विमानेन कार्यार्थं मम सत्तमाः ॥ ७९ ॥
अभी मैंने आपलोगोंकी यह उत्पत्ति-परम्परा संक्षेपमें कही । इसलिये हे श्रेष्ठदेव ! अब आपलोग मेरा कार्य सम्पन्न करनेके लिये इस विमानसे प्रस्थान करें ॥ ७९ ॥

स्मरणाद्दर्शनं तुभ्यं दास्येऽहं विषमे स्थिते ।
स्मर्तव्याहं सदा देवाः परमात्मा सनातनः ॥ ८० ॥
उभयोः स्मरणादेव कार्यसिद्धिरसंशयम् ।
जब आपलोगोंपर कोई संकट आयेगा, तब मैं स्मरणमात्रसे तत्काल आपलोगोंको दर्शन दूंगी । अतः हे देवो ! आपलोग सर्वदा मेरा तथा सनातन परमात्माका स्मरण करते रहें । हम दोनोंके स्मरणसे ही निःसन्देह आपलोगोंकी कार्यसिद्धि होगी । ८०.५ ॥

ब्रह्मोवाच
इत्युक्त्वा विससर्जास्मान्दत्त्वा शक्तीः सुसंस्कृताः ॥ ८१ ॥
विष्णवेऽथ महालक्ष्मीं महाकालीं शिवाय च ।
महासरस्वतीं मह्यं स्थानात्तस्माद्विसर्जिताः ॥ ८२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! ऐसा कहकर भगवतीने अपनी अद्भुत शक्तियाँ प्रदानकर हमें विदा किया । विष्णुको महालक्ष्मी, शिवको महाकाली और मुझे महासरस्वती प्रदान करके उस स्थानसे विदा कर दिया ॥ ८१-८२ ॥

स्थलान्तरं समासाद्य ते जाताः पुरुषा वयम् ।
चिन्तयन्तः स्वरूपं तत्प्रभावं परमाद्‌भुतम् ॥ ८३ ॥
उनके स्वरूप तथा अत्यन्त अद्भुत प्रभावका स्मरण करते हुए अन्य स्थानपर पहुँचकर हमलोग पुनः पुरुषरूपमें हो गये ॥ ८३ ॥

विमानं तत्समासाद्य संरूढास्तत्र वै त्रयः ।
न द्वीपोऽसौ न सा देवी सुधासिन्धुस्तथैव च ॥
पुनर्दृष्टं विमानं वै तत्रास्माभिर्न चान्यथा ॥ ८४ ॥
तब लौटकर हम तीनों पुनः उसी विमानमें बैठ गये । [हमने देखा कि] वहाँ न तो वह मणिद्वीप है, न वे महामाया हैं और न वह सुधासागर है । उस समय वहाँ उस विमानके अतिरिक्त और कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता था ॥ ८४ ॥

आसाद्य तस्मिन्वितते विमाने
     प्राप्ता वयं पङ्कजसन्निधौ च ।
महार्णवे यत्र हतौ दुरत्ययौ
     मुरारिणा तौ मधुकैटभाख्यौ ॥ ८५ ॥
उस विशाल विमानमें बैठकर हम तीनों पुनः उसी महासागरमें विद्यमान उस कमलके निकट पहुँचे, जहाँ भगवान् विष्णुने मधु-कैटभ नामक दुर्धर्ष | दैत्योंका वध किया था ॥ ८५ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे ब्रह्मणे श्रीदेव्या उपदेशवर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
छठा अध्याय समाप्त


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