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तत्त्वनिरूपणवर्णनम् -
ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण-क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन -
ब्रह्मोवाच एवंप्रभावा सा देवी मया दृष्टाथ विष्णुना । शिवेनापि महाभाग तास्ता देव्यः पृथक्पृथक् ॥ १ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महाभाग ! [नारद !] मैंने, विष्णु तथा शंकरने इस प्रकारके प्रभाववाली उन देवीको तथा अन्य सभी देवियोंको पृथक्-पृथक् देखा ॥ १ ॥
व्यास उवाच इत्याकर्ण्य पितुर्वाक्यं नारदो मुनिसत्तमः । पप्रच्छ परमप्रीतः प्रजापतिमिदं वचः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-पिताका यह वचन सुनकर मुनिवर नारदने परम प्रसन्न होकर प्रजापति ब्रह्माजीसे यह बात पूछी ॥ २ ॥
नारद उवाच पुमानाद्योऽविनाशी यो निर्गुणोऽच्युतिरव्ययः । दृष्टश्चैवानुभूतश्च तद्वदस्व पितामह ॥ ३ ॥
नारदजी बोले-हे पितामह ! आपने जिन आदि, अविनाशी, निर्गुण, अच्युत तथा अव्यय परमपुरुषका दर्शन तथा अनुभव किया, उनके विषयमें बताइये ॥ ३ ॥
त्रिगुणा वीक्षिता शक्तिर्निर्गुणा कीदृशी पितः । तस्याः स्वरूपं मे ब्रूहि पुरुषस्य च पद्मज ॥ ४ ॥
हे पिताजी ! आपने त्रिगुणसम्पन्ना देवीका दर्शन तो कर लिया है । निर्गुणा शक्ति कैसी होती हैं ? हे कमलोद्भव ! अब आप मुझे उन शक्तिका तथा परमपुरुषका स्वरूप बताइये ॥ ४ ॥
यदर्थञ्च मया तप्तं श्वेतद्वीपे महातपः । दृष्टाः सिद्धा महात्मानस्तापसा गतमन्यवः ॥ ५ ॥ परमात्मा न सम्प्राप्तो मयाऽसौ दृष्टिगोचरः । पुनः पुनस्तपस्तीव्रं कृतं तत्र प्रजापते ॥ ६ ॥
जिनके लिये मैंने श्वेतद्वीपमें महान् तपश्चर्या की और क्रोधशून्य सिद्धपुरुषों, महात्माओं तथा तपस्वियोंके दर्शन किये; वे परमात्मा मुझे दृष्टिगोचर नहीं हुए । हे प्रजापते ! इसके बाद भी [उनके दर्शनार्थ] मैंने वहाँ बार-बार घोर तपस्या की ॥ ५-६ ॥
भवता सगुणा शक्तिर्दृष्टा तात मनोरमा । निर्गुणा निर्गुणश्चैव कीदृशौ तौ वदस्व मे ॥ ७ ॥
हे तात ! आपने मनोरमा सगुणा शक्तिका दर्शन किया है । आप मुझे बताइये कि निर्गुणा शक्ति और निर्गुण परमात्मा कैसे हैं ? ॥ ७ ॥
व्यास उवाच इति पृष्ठः पिता तेन नारदेन प्रजापतिः । उवाच वचनं तथ्यं स्मितपूर्वं पितामहः ॥ ८ ॥
व्यासजी बोले-नारदजीने अपने पिता प्रजापति ब्रह्मासे ऐसा पूछा, तब उन पितामहने मुसकराते हुए रहस्यपूर्ण वचन कहा ॥ ८ ॥
ब्रह्मोवाच निर्गुणस्य मुने रूपं न भवेद्दृष्टिगोचरम् । दृश्यञ्च नश्वरं यस्मादरूपं दृश्यते कथम् ॥ ९ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे मुने ! निर्गुणतत्त्वका रूप दृष्टिगोचर नहीं हो सकता; क्योंकि जो दिखायी पड़ता है, वह तो नाशवान् होता है । जो रूपरहित है, | वह दृष्टिगोचर कैसे हो सकता है ? ॥ ९ ॥
निर्गुणा दुर्गमा शक्तिर्निर्गुणश्च तथा पुमान् । ज्ञानगम्यौ मुनीनां तु भावनीयौ तथा पुनः ॥ १० ॥
निर्गुणा शक्तिको जान पाना अत्यन्त दुरूह है और उसी प्रकार निर्गुण परमपुरुषका साक्षात्कार भी अति दुष्कर है । ये दोनों केवल मुनिजनोंके द्वारा ज्ञानसे प्राप्त तथा अनुभूत किये जा सकते हैं ॥ १० ॥
अनादिनिधनौ विद्धि सदा प्रकृतिपूरुषौ । विश्वासेनाभिगम्यौ तौ नाविश्वासेन कर्हिचित् ॥ ११ ॥
आप प्रकृति तथा पुरुष दोनोंको आदि-अन्तसे सर्वदा रहित जानिये । ये दोनों विश्वाससे जाने जा सकते हैं । अविश्वाससे कभी नहीं ॥ ११ ॥
हे नारद ! सभी प्राणियोंमें जो चैतन्य विद्यमान है, उसे ही परमात्मस्वरूप जानो । तेजःस्वरूप वे परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं तथा सदा विराजमान हैं ॥ १२ ॥
तञ्च ताञ्च महाभाग व्यापकौ विद्धि सर्वगौ । ताभ्यां विहीनं संसारे न किञ्चिद्वस्तु विद्यते ॥ १३ ॥
हे महाभाग ! उन परमपुरुष तथा प्रकृतिको सर्वव्यापी तथा सर्वगामी समझिये । इस संसारमें कोई भी पदार्थ उन दोनोंसे रहित नहीं है ॥ १३ ॥
तौ विचिन्त्यौ सदा देहे मिश्रीभूतौ सदाव्ययौ । एकरूपौ चिदात्मानौ निगुणौ निर्मलावुभौ ॥ १४ ॥
सर्वदा अव्यय, एकरूप, चिदात्मा, निर्गुण तथा निर्मल-उन दोनों (प्रकृति-पुरुष)-को एक ही शरीरमें सम्मिश्रित मानकर सदा इनका चिन्तन करना चाहिये ॥ १४ ॥
या शक्तिः परमात्माऽसौ सा योऽसौ सा परमा मता । अन्तरं नैतयोः कोऽपि सूक्ष्मं वेद च नारद ॥ १५ ॥
हे नारद ! जो शक्ति हैं, वे ही परमात्मा हैं और जो परमात्मा हैं, वे ही परमशक्ति मानी गयी हैं । इन दोनोंमें विद्यमान सूक्ष्म अन्तरको कोई भी नहीं जान सकता ॥ १५ ॥
अधीत्य सर्वशास्त्राणि वेदान्साङ्गांश्च नारद । न जानाति तयोः सूक्ष्ममन्तरं विरतिं विना ॥ १६ ॥
हे नारद ! कोई भी व्यक्ति समस्त शास्त्रों तथा अंगोंसहित वेदोंका अध्ययन करके भी विरक्तिके बिना उन दोनोंके सूक्ष्म अन्तरको नहीं जान पाता है ॥ १६ ॥
अहङ्कारकृतं सर्वं विश्वं स्थावरजङ्गमम् । कथं तद्रहितं पुत्र भवेत्कल्पशतैरपि ॥ १७ ॥
हे पुत्र ! जड-चेतनरूप यह सारा जगत् अहंकारसे निर्मित है; ऐसी स्थितिमें सैकड़ों कल्पोंमें भी यह अहंकारसे रहित कैसे हो सकता है ? ॥ १७ ॥
निर्गुणं सगुणः पुत्र कथं पश्यति चक्षुषा । सगुणं च महाबुद्धे चेतसा संविचारय ॥ १८ ॥
हे पुत्र ! सगुण मनुष्य निर्गुणको नेत्रसे कैसे देख सकता है ? अतः हे महाबुद्धे ! उन परमात्माके सगुण रूपका मनसे सम्यक् ध्यान करते रहो ॥ १८ ॥
पित्तेनाच्छादिता जिह्वा चक्षुश्च मुनिसत्तम । कटु पित्तं विजानाति रसं रूपं न तत्तथा ॥ १९ ॥ गुणैः समावृतं चेतः कथं जानाति निर्गुणम् । अहङ्कारोद्भवं तच्च तद्विहीनं कथं भवेत् ॥ २० ॥ यावन्न गुणविच्छेदस्तावत्तद्दर्शनं कुतः । तं पश्यति तदा चित्ते यदाऽहङ्कारवर्जितः ॥ २१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! पित्तसे आच्छादित जिह्वा जिस प्रकार यथार्थ रसका अनुभव न करके केवल कदरसका अनुभव करती है तथा पित्ताच्छादित नेत्र यथार्थ रूप न देखकर केवल पीले रंगको ही देखता है, उसी प्रकार गुणोंसे आच्छादित मन उस निर्गुण परमात्माको कैसे जान पायेगा ? क्योंकि मन भी तो अहंकारसे उत्पन्न हुआ है, तब वह मन अहंकारसे रहित कैसे हो सकता है ? जबतक अन्त:करण गुणोंसे रहित नहीं होता तबतक परमात्माका दर्शन कैसे सम्भव है ? जब मनुष्य अहंकारविहीन हो जाता है, तब वह अपने हृदयमें उनका साक्षात्कार कर लेता है ॥ १९-२१ ॥
नारद उवाच स्वरूपं देवदेवेश त्रयाणामेव विस्तरात् । गुणानां यत्स्वरूपोऽस्ति ह्यहङ्कारस्त्रिरूपकः ॥ २२ ॥ सात्त्विको राजसश्चैव तामसश्च तथापरः । विभेदेन स्वरूपाणि वदस्व पुरुषोत्तम ॥ २३ ॥ यज्ज्ञात्वा विप्रमुच्येऽहं ज्ञानं तद्वद मे प्रभो । गुणानां लक्षणान्येव विततानि विभागशः ॥ २४ ॥
नारदजी बोले-हे देवदेवेश ! तीनों गुणोंका जो स्वरूप है, उसका विस्तारपूर्वक विवेचन कीजिये और त्रिगुणात्मक अहंकारके स्वरूपका भी वर्णन कीजिये । हे पुरुषोत्तम ! सात्त्विक, राजस तथा तीसरे तामस अहंकारके स्वरूप-भेदको बताइये । इस प्रकार गुणोंके विस्तृत लक्षणोंको विभागपूर्वक मुझको बताइये । हे प्रभो ! मुझे ऐसा ज्ञान दीजिये जिसे जानकर मैं पूर्णरूपेण मुक्त हो जाऊँ ॥ २२-२४ ॥
ब्रह्मोवाच त्रयाणां शक्तयस्तिस्त्रस्तद्ब्रवीमि तवानघ । ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिरर्थशक्तिस्तथापरा ॥ २५ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे निष्पाप ! इस त्रिविध अहंकारकी तीन शक्तियाँ हैं, मैं उन्हें बताता हूँ । वे हैं-ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति तथा तीसरी अर्थशक्ति ॥ २५ ॥
उनमें सात्त्विक अहंकारकी ज्ञानशक्ति, राजसकी क्रियाशक्ति और तामसकी द्रव्यशक्ति-ये तीन शक्तियाँ आपको बता दी ॥ २६ ॥
तेषां कार्याणि वक्ष्यामि शृणु नारद तत्त्वतः । तामस्या द्रव्यशक्तेश्च शब्दस्पर्शसमुद्भवः ॥ २७ ॥ रूपं रसश्च गन्धश्च तन्मात्राणि प्रचक्षते । शब्दैकगुणमाकाशं वायुः स्पर्शगुणस्तथा ॥ २८ ॥ सुरूपैकगुणोऽग्निश्च जलं रसगुणात्मकम् । पृथ्वी गन्धगुणा ज्ञेया सूक्ष्माण्येतानि नारद ॥ २९ ॥
हे नारद ! अब मैं उनके कार्योंको सम्यक् रूपसे बताऊँगा, सुनिये । तामसी द्रव्यशक्ति (अर्थशक्ति)-से उत्पन्न शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-ये तन्मात्राएँ कही गयी हैं । आकाशका एकमात्र गुण शब्द, वायुका गुण स्पर्श, अग्निका गुण रूप, जलका गुण रस तथा पृथ्वीका गुण गन्ध है-ऐसा जानना चाहिये । हे नारद ! ये तन्मात्राएँ अत्यन्त सूक्ष्म हैं ॥ २७-२९ ॥
द्रव्यशक्तिसे युक्त इन दसों (पाँच तन्मात्राओं तथा उनके पाँच गुणों)-से मिलकर तामस अहंकारकी अनुवृत्तिसे सृष्टिकी रचना होती है ॥ ३० ॥
राजस्याश्च क्रियाशक्तेरुत्पन्नानि शृणुष्व मे । श्रोत्रं त्वग्रसना चक्षुर्घ्राणं चैव च पञ्चमम् ॥ ३१ ॥ ज्ञानेन्द्रियाणि चैतानि तथा कर्मेन्द्रियाणि च । वाक्पाणिपादपायुश्च गुह्यान्तानि च पञ्च वै ॥ ३२ ॥ प्राणोऽपानश्च व्यानश्च समानोदानवायवः । पञ्चदश मिलित्वैव राजसः सर्ग उच्यते ॥ ३३ ॥ साधनानि किलैतानि क्रियाशक्तिमयानि च । उपादानं किलैतेषां चिदनुवृत्तिरुच्यते ॥ ३४ ॥
अब राजसी क्रियाशक्तिसे उत्पन्न होनेवाली इन्द्रियोंके विषयमें मुझसे सुनिये । श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र और नासिका-ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा वाणी, हाथ, पैर, गुदा और गृह्यांग-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ उससे उत्पन्न हैं । प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदानये पाँच वायु होती हैं । इन पन्द्रह (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच वायु)-से मिलकर होनेवाली सृष्टि राजसी सृष्टि कही जाती है । ये सभी साधन क्रियाशक्तिसे सदा युक्त रहते हैं और इनके उपादानकारणको चित्| अनुवृत्ति कहा जाता है ॥ ३१-३४ ॥
दिशाएँ, वायु, सूर्य, वरुण और दोनों अश्विनीकुमार ज्ञानशक्तिसे युक्त हैं और ये सात्त्विक अहंकारसे उत्पन्न हुए हैं । पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंके ये ही पाँच अधिष्ठातृदेवता हैं । इसी प्रकार बुद्धि आदि अन्त:करणचतुष्टयके चन्द्रमा, ब्रह्मा, रुद्र तथा क्षेत्रज्ञ-ये अधिदेव हैं । ये चारों अधिष्ठातृदेवता कहे गये हैं । मनसहित ये सब पन्द्रह होते हैं । यह सात्त्विक अहंकारकी सृष्टि है और 'सात्त्विकी सृष्टि' कही गयी है ॥ ३५-३८ ॥
मेरा यह शरीर सूत्रसंज्ञक है । अब मैं उस परब्रह्म परमात्माके स्थूल विराट् स्वरूपका वर्णन करूंगा । हे नारद ! आप उसे सुनें, जिसे सावधानीसे सुनकर मनुष्य मुक्त हो जाता है । इसके पहले मैंने गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द-इन पंच तन्मात्राओं तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश-इन सूक्ष्म पंच महाभूतोंका वर्णन विस्तारसे कर दिया है ॥ ४१-४२ ॥
उसी प्रकार अवशिष्ट चार भूतोंके भी दो-दो भाग करके, उसमेंसे आधे भागको पृथक् कर ले । शेष आधे अंशको चार प्रकारसे अलग करके आधे भागसे रहित उन अंशोंमें मिला दे । रस तन्मात्राको आधे भाग जलमें मिलाकर अवशिष्टभूत तन्मात्राके आधेको चारों भागोंमें मिश्रित कर दे । ऐसा करनेसे जब रसमय स्थूल जल हो जाय तब अन्य चार भूतोंके पंचीकरणका विभाग करे । उन पंचीकृत पंचभूतोंमें अधिष्ठानताके कारण उनके प्रतिबिम्बरूपसे जब चैतन्य प्रविष्ट हो जाता है, तब उस पंचभूतात्मक शरीरमें 'अहम्' भावरूप संशय उत्पन्न हो जाता है । वह संशय स्पष्टरूपसे जब भासित होने लगता है, तब उस स्थूल शरीरमें देहाभिमानके साथ चैतन्य जाग्रत् होने लगता है, वही दिव्य चैतन्य आदिनारायण भगवान्, परमात्मा आदि नामोंसे पुकारा जाता है ॥ ४५-४७ ॥
इस प्रकार पंचीकरणसे सभी भूतोंका विभाग स्पष्ट हो जाने पर आकाश आदि सभी पंचभूत पूर्वोक्त तन्मात्राओंके कारण अपने-अपने विशेष गुणोंसे वृद्धिको प्राप्त होते हैं और एक-एक गुणकी वृद्धिसे एक-एक भूत उत्पन्न हो जाता है ॥ ४८ ॥
आकाशस्य गुणश्चैकः शब्द एव न चापरः । शब्दस्पर्शौ च वायोश्च द्वौ गुणौ परिकीर्तितौ ॥ ४९ ॥ अग्नेः शब्दश्च स्पर्शश्च रूपमेते त्रयो गुणाः । शब्दस्पर्शरूपरसाश्चत्वारो वै जलस्य च ॥ ५० ॥ स्पर्शशब्दरसा रूपं गन्धश्च पृथिवीगुणाः । एवं मिलितयोगैश्च ब्रह्माण्डोत्पत्तिरुच्यते ॥ ५१ ॥ सर्वे जीवा मिलित्वैव ब्रह्माण्डांशसमुद्भवाः । चतुरशीतिलक्षाश्च प्रोक्ता वै जीवजातयः ॥ ५२ ॥
आकाशका केवल एकमात्र गुण शब्द है, दूसरा नहीं । वायुके शब्द और स्पर्श-ये दो गुण कहे गये हैं । शब्द, स्पर्श और रूप-ये तीन गुण अग्निके हैं । शब्द, स्पर्श, रूप और रस-ये चार गुण जलके हैं । शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये पाँच गुण पृथ्वीके हैं । इस प्रकार इन पंचीकृत महाभूतोंके योगसे ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति कही जाती है । ब्रह्माण्डके अंशसे उत्पन्न सभी जीवोंको मिलाकर चौरासी लाख जीवयोनियाँ कही गयी हैं ॥ ४९-५२ ॥
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे तत्त्वनिरूपणवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥