ब्रह्माजी बोले-हे तात ! आपने जो मुझसे पूछा था, वह सृष्टिका वर्णन मैंने कर दिया । अब गुणोंका स्वरूप कहता हूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥ १ ॥
सत्त्वं प्रीत्यात्मकं ज्ञेयं सुखात्प्रीतिसमुद्भवः । आर्जवं च तथा सत्यं शौचं श्रद्धा क्षमा धृतिः ॥ २ ॥ अनुकम्पा तथा लज्जा शान्तिः सन्तोष एव च । एतैः सत्त्वप्रतीतिश्च जायते निश्चला सदा ॥ ३ ॥
सत्त्वगुणको प्रीतिस्वरूप समझना चाहिये, वह प्रीति सुखसे उत्पन्न होती है । सरलता, सत्य, शौच, श्रद्धा, क्षमा, धैर्य, कृपा, लज्जा, शान्ति और सन्तोष-इन लक्षणोंसे सदैव निश्चल सत्त्वगुणकी प्रतीति होती है ॥ २-३ ॥
श्वेतवर्णं तथा सत्त्वं धर्मे प्रीतिकरः सदा । सच्छ्रद्धोत्पादकं नित्यमसच्छ्रद्धानिवारकम् ॥ ४ ॥
सत्त्वगुणका वर्ण श्वेत है, यह सर्वदा धर्मके प्रति प्रीति उत्पन्न करता है, सत्-श्रद्धाका आविर्भाव करता है तथा असत्-श्रद्धाको समाप्त करता है ॥ ४ ॥
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी च तथापरा । श्रद्धा तु त्रिविधा प्रोक्ता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ५ ॥
तत्त्वदर्शी मुनियोंने तीन प्रकारकी श्रद्धा बतलायी है-सात्त्विकी, राजसी एवं तीसरी तामसी ॥ ५ ॥
रक्तवर्णं रजः प्रोक्तमप्रीतिकरमद्भुतम् । अप्रीतिर्दुःखयोगत्वाद्भवत्येव सुनिश्चिता ॥ ६ ॥
रजोगुण रक्तवर्णवाला कहा गया है । यह आश्चर्य एवं अप्रीतिको उत्पन्न करता है । दुःखसे योगके कारण ही निश्चितरूपसे अप्रीति उत्पन्न होती है ॥ ६ ॥
प्रद्वेषोऽथ तथा द्रोहो मत्सरः स्तम्भ एव च । उत्कण्ठा च तथा निद्रा श्रद्धा तत्र च राजसी ॥ ७ ॥
जहाँ ईर्ष्या, द्रोह, मत्सर, स्तम्भन, उत्कण्ठा एवं निद्रा होती है, वहाँ राजसी श्रद्धा रहती है ॥ ७ ॥
अभिमान, मद और गर्व-ये सब भी राजसी श्रद्धासे ही उत्पन्न होते हैं । अतः विद्वान् मनुष्योंको चाहिये कि वे इन लक्षणोंद्वारा राजसी श्रद्धा समझ लें ॥ ८ ॥
कृष्णवर्णं तमः प्रोक्तं मोहनं च विषादकृत् । आलस्यं च तथाऽज्ञानं निद्रा दैन्यं भयं तथा ॥ ९ ॥ विवादश्चैव कार्पण्यं कौटिल्यं रोष एव च । वैषम्यं वातिनास्तिक्यं परदोषानुदर्शनम् ॥ १० ॥ प्रत्येतव्यं तमस्त्वेतैर्लक्षणैः सर्वथा बुधैः । तामस्या श्रद्धया युक्तं परतापोपपादकम् ॥ ११ ॥
तमोगुणका वर्ण कृष्ण होता है । यह मोह और विषाद उत्पन्न करता है । आलस्य, अज्ञान, निद्रा, दीनता, भय, विवाद, कायरता, कुटिलता, क्रोध, विषमता, अत्यन्त नास्तिकता और दूसरोंके दोषको देखनेका स्वभाव-ये तामसिक श्रद्धाके लक्षण हैं । पण्डितजन इन लक्षणोंसे तामसी श्रद्धा जान लें; तामसी श्रद्धासे युक्त ये सभी लक्षण परपीड़ादायक हैं ॥ ९-११ ॥
सत्त्वं प्रकाशयितव्यं नियन्तव्यं रजः सदा । संहर्तव्यं तमः कामं जनेन शुभमिच्छता ॥ १२ ॥
आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवालेको अपनेमें निरन्तर सत्त्वगुणका विकास करना चाहिये, रजोगुणपर नियन्त्रण रखना चाहिये तथा तमोगुणका नाश कर डालना चाहिये ॥ १२ ॥
अन्योन्याभिभवाच्चैते विरुध्यन्ति परस्परम् । तथोऽन्योन्याश्रयाः सर्वे न तिष्ठन्ति निराश्रयाः ॥ १३ ॥
ये तीनों गुण एक-दूसरेका उत्कर्ष होनेकी दशामें परस्पर विरोध करने लगते हैं । ये सब एकदूसरेके आश्रित हैं, निराश्रय होकर नहीं रहते ॥ १३ ॥
सत्त्वं न केवलं क्वापि न रजो न तमस्तथा । मिलिताश्च सदा सर्वे तेनान्योन्याश्रयाः स्मृताः ॥ १४ ॥
सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुणमेंसे कोई एक अकेला कभी नहीं रह सकता; ये सभी सदैव मिलकर रहते हैं, इसीलिये ये अन्योन्याश्रय सम्बन्धवाले कहे गये हैं ॥ १४ ॥
अन्योन्यमिथुनाच्चैव विस्तारं कथयाम्यहम् । शृणु नारद यज्ज्ञात्वा मुच्यते भवबन्धनात् ॥ १५ ॥ सन्देहोऽत्र न कर्तव्यो ज्ञात्वेत्युक्तं मया वचः । ज्ञातं तदनुभूतं यत्परिज्ञातं फले सति ॥ १६ ॥
हे नारद ! ध्यानसे सुनिये, अब मैं इनके अन्योन्याश्रय-सम्बन्धसे होनेवाले विस्तारका वर्णन करता हूँ, जिसे जानकर मनुष्य भव-बन्धनसे छुटकारा | प्राप्त कर लेता है । इसमें आपको किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये । सम्यक् प्रकारसे जानकर ही मैंने यह बात कही है । मैंने पहले इसे जाना, तत्पश्चात् इसका अनुभव किया और पुनः परिणाम देखकर इसका परिज्ञान प्राप्त किया है ॥ १५-१६ ॥
श्रवणाद्दर्शनाच्चैव सपद्येव महामते । संस्कारानुभवाच्चैव परिज्ञातं न जायते ॥ १७ ॥
हे महामते ! मात्र देख लेने, सुन लेने अथवा संस्कारजनित अपने अनुभवसे ही किसी भी वस्तुका तत्काल परिज्ञान नहीं हो जाता ॥ १७ ॥
श्रुतं तीर्थं पवित्रञ्च श्रद्धोत्पन्ना च राजसी । निर्गतस्तत्र तीर्थे वै दृष्टं चैव यथाश्रुतम् ॥ १८ ॥ स्नातस्तत्र कृतं कृत्यं दत्तं दानं च राजसम् । स्थितस्तत्र कियत्कालं रजोगुणसमावृतः ॥ १९ ॥ रागद्वेषान्न निर्मुक्तः कामक्रोधसमावृतः । पुनरेव गृहं प्राप्तो यथापूर्वं तथा स्थितः ॥ २० ॥
जैसे किसी पवित्र तीर्थक विषयमें सुनकर किसी व्यक्तिके हृदयमें राजसी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी और वह उस तीर्थमें चला गया । वहाँ पहुँचकर उसने वही देखा जैसा पहले सुना था । उस तीर्थ में उसने स्नान करके तीर्थकृत्य किया और राजसी दान भी किया । रजोगुणसे युक्त रहकर उस व्यक्तिने कुछ समयतक वहाँ तीर्थवास भी किया । किंतु ऐसा करके भी वह राग-द्वेषसे मुक्त नहीं हो पाया और काम-क्रोध आदि विकारोंसे आच्छादित ही रहा । पुनः अपने घर लौट आया और वह पूर्वकी भाँति वैसे ही रहने लगा ॥ १८-२० ॥
श्रुतं च नानुभूतं वै तेन तीर्थं मुनीश्वर । न प्राप्तं च फलं यस्मादश्रुतं विद्धि नारद ॥ २१ ॥
हे मुनीश्वर ! उस व्यक्तिने तीर्थकी महिमा तो सुनी थी, किंतु उसका सम्यक् अनुभव नहीं किया । इसी कारण उसे तीर्थयात्राका कोई फल नहीं प्राप्त हुआ । अतः हे नारद ! उसका सुनना न सुननेके बराबर समझें ॥ २१ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! आप यह जान लें कि तीर्थयात्राका फल पापसे छुटकारा प्राप्त करना है । यह वैसे ही है जैसे संसारमें कृषिका फल उत्पादित अन्नका भक्षण है ॥ २२ ॥
पापदेहविकारा ये कामक्रोधादयः परे । लोभो मोहस्तथा तृष्णा द्वेषो रागस्तथा मदः ॥ २३ ॥ असूयेर्ष्याक्षमाशान्तिः पापान्येतानि नारद । न निर्गतानि देहात्तु तावत्पापयुतो नरः ॥ २४ ॥
जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा, द्वेष, राग, मद, परदोषदर्शन, ईर्ष्या, सहनशीलताका अभाव और अशान्ति आदि हैं, वे पापमय शरीरके विकार हैं । हे नारद ! जबतक ये पाप शरीरसे नहीं निकलते, तबतक मनुष्य पापी ही रहता है ॥ २३-२४ ॥
कृते तीर्थे यदैतानि देहान्न निर्गतानि चेत् । निष्फलः श्रम एवैकः कर्षकस्य यथा तथा ॥ २५ ॥ श्रमेणापीडितं क्षेत्रं कृष्टा भूमिः सुदुर्घटा । उप्तं बीजं महार्घं च हिता वृत्तिरुदाहृता ॥ २६ ॥ अहोरात्रं परिक्लिष्टो रक्षणार्थं फलोत्सुकः । काले सुप्तस्तु हेमन्ते वने व्याघ्रादिभिर्भृशम् ॥ २७ ॥ भक्षितं शलभैः सर्वं निराशश्च कृतः पुनः । तद्वत्तीर्थश्रमः पुत्र कष्टदो न फलप्रदः ॥ २८ ॥
तीर्थयात्रा करनेपर भी यदि ये पाप देहसे नहीं निकले तो तीर्थाटन करनेका वह परिश्रम उसी प्रकार व्यर्थ है, जैसे किसी किसानका । उस किसानने परिश्रमपूर्वक खेतको खोदा, अत्यन्त कठोर भूमिको जोता, उसमें महँगा बीज बोया और अन्य आवश्यक कार्य किये तथा फलप्राप्तिको इच्छासे उसकी रक्षाके लिये दिन-रात अनेक कष्ट सहे, किंतु फल लगनेका समय हेमन्त-काल आनेपर वह सो गया, जिससे व्याघ्र आदि वन्य जन्तुओं तथा टिड्डियोंने उस फसलको खा लिया और अन्तमें वह किसान सर्वथा निराश हो गया । उसी प्रकार हे पुत्र ! तीर्थमें किया गया वह श्रम भी कष्टदायक ही सिद्ध होता है, उसका कोई फल नहीं मिलता ॥ २५-२८ ॥
हे नारद ! शास्त्रके अवलोकनसे सत्त्वगुण समुन्नत होता है तथा बड़ी तेजीसे बढ़ता है । उसका फल यह होता है कि तामस पदार्थोके प्रति वैराग्य हो जाता है ॥ २९ ॥
प्रसह्याभिभवत्येव तद्रजस्तमसी उभे । रजः समुत्कटं जातं प्रवृत्तं लोभयोगतः ॥ ३० ॥ तत्तथाभिभवत्येव तमःसत्त्वे तथा उभे । तमस्तथोत्कटं भूत्वा प्रवृद्धं मोहयोगतः ॥ ३१ ॥ तत्सत्त्वरजसी चोभे सङ्गम्याभिभवत्यपि । विस्तरं कथयाम्यद्य यथाभिभवतीति वै ॥ ३२ ॥
वह सत्त्वगुण रज और तम-इन दोनोंको बलपूर्वक दबा देता है, लोभके कारण रजोगुण अत्यन्त तीव्र हो जाता है, वह बढ़ा हुआ रजोगुण सत्त्व तथा तम-इन दोनोंको दबा देता है । उसी प्रकार तमोगुण मोहके कारण तीव्रताको प्राप्त होकर सत्त्वगुण तथा रजोगुण-इन दोनोंको दबा देता है । ये गुण जिस प्रकार एक-दूसरेको दबाते हैं ? उसे मैं यहाँपर विस्तारपूर्वक कह रहा हूँ ॥ ३०-३२ ॥
जब सत्त्वगुण बढ़ता है, उस समय बुद्धि धर्ममें स्थित रहती है । उस समय वह रजोगुण या तमोगुणसे उत्पन्न बाहा विषयोंका चिन्तन नहीं करती है ॥ ३३ ॥
अर्थं सत्त्वसमुद्भूतं गृह्णाति च न चान्यथा । अनायासकृतं चार्थं धर्मं यज्ञं च वाञ्छति ॥ ३४ ॥ सात्त्विकेष्वेव भोगेषु कामं वै कुरुते तदा । राजसेषु न मोक्षार्थं तामसेषु पुनः कुतः ॥ ३५ ॥
उस समय बुद्धि सत्त्वगुणसे उत्पन्न होनेवाले कार्यको अपनाती है । इसके अतिरिक्त वह अन्य कार्योंमें नहीं फँसती । बुद्धि बिना प्रयासके ही धर्म तथा यज्ञादि कर्ममें प्रवृत्त हो जाती है । मोक्षकी अभिलाषासे मनुष्य उस समय सात्त्विक पदार्थोंके भोगमें प्रवृत्त रहता है; वह राजसी भोगोंमें लिप्त नहीं होता, तब भला वह तमोगुणी कायोंमें क्यों लगेगा ? ॥ ३४-३५ ॥
एवं जित्वा रजः पूर्वं ततश्च तमसो जयः । सत्त्वं च केवलं पुत्र तदा भवति निर्मलम् ॥ ३६ ॥
इस प्रकार पहले रजोगुणको जीत करके वह तमोगुणको पराजित करता है । हे तात ! उस समय एकमात्र विशुद्ध सत्त्वगुण ही स्थित रहता है । ॥ ३६ ॥
रजोगुण बढ़नेसे धनकी वृद्धि होती है और भोग भी राजसी हो जाता है । उस दशामें सत्त्वगुण दूर चला जाता है और उससे तमोगुण भी दब जाता है ॥ ३८ ॥
यदा तमो विवृद्धं स्यादुत्कटं सम्बभूव ह । तदा वेदे न विश्वासो धर्मशास्त्रे तथैव च ॥ ३९ ॥ श्रद्धां च तामसीं प्राप्य करोति च धनात्ययम् । द्रोहं सर्वत्र कुरुते न शान्तिमधिगच्छति ॥ ४० ॥ जित्वा सत्त्वं रजश्चैव क्रोधनो दुर्मतिः शठः । वर्तते कामचारेण भावेषु विततेषु च ॥ ४१ ॥
जब तमोगुणकी वृद्धि होती है और वह उत्कट हो जाता है, तब वेद तथा धर्मशास्त्र में विश्वास नहीं रह जाता । उस समय मनुष्य तामसी श्रद्धा प्राप्त करके धनका दुरुपयोग करता है, सबसे द्रोह करने लगता है तथा उसे शान्ति नहीं मिलती । वह क्रोधी, दुर्बुद्धि तथा दुष्ट मनुष्य सत्त्व तथा रजोगुणको दबाकर अनेकविध तामसिक विचारोंमें लीन रहता हुआ मनमाना आचरण करने लगता है ॥ ३९-४१ ॥
हे पुरुष श्रेष्ठ ! रजोगुणके बिना सत्वगुण और सत्त्वगुणके बिना रजोगुण कदापि रह नहीं सकते । इसी प्रकार तमोगुणके बिना ये दोनों गुण नहीं रह सकते । इस प्रकार ये गुण परस्पर स्थित रहते हैं । सत्त्वगुण तथा रजोगुणके बिना तमोगुण नहीं रहता; क्योंकि इन मिश्रित धर्मवाले सभी गुणोंकी स्थिति कार्य-कारणभावसे विभिन्न प्रकारको होती है ॥ ४३-४४ ॥
सत्त्वगुण कभी रजोगुणको और कभी तमोगुणको उत्पन्न करता है । इसी तरह रजोगुण कभी सत्त्वगुणको तथा कभी तमोगुणको उत्पन्न करता है । इसी प्रकार तमोगुण कभी सत्त्वगुणको एवं कभी रजोगुणको भी उत्पन्न करता है । ये तीनों गुण आपसमें एक-दूसरेको उसी प्रकार उत्पन्न कर देते हैं, जिस प्रकार मिट्टीका लोंदा घड़ेको उत्पन्न कर देता है ॥ ४६-४७ ॥
मनुष्योंकी बुद्धिमें स्थित ये तीनों गुण परस्पर कामनाओंको उसी प्रकार जाग्रत् करते हैं; जैसे देवदत्त, विष्णुमित्र और यज्ञदत्त आदि मिलकर काम करते हैं ॥ ४८ ॥
यथा स्त्रीपुरुषश्चैव मिथुनौ च परस्परम् । तथा गुणाः समायान्ति युग्मभावं परस्परम् ॥ ४९ ॥
जिस प्रकार स्त्री और पुरुष आपसमें मिथुनभावको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार ये तीनों गुण परस्पर युग्म-भावको प्राप्त रहते हैं । ४९ ॥
रजसो मिथुने सत्त्वं सत्त्वस्य मिथुने रजः । उभे ते सत्त्वरजसी तमसो मिथुने विदुः ॥ ५० ॥
रजोगुणका युग्म-भाव होनेपर सत्त्वगुण, सत्त्वगुणका युग्म-भाव होनेपर रजोगुण और तमोगुणके युग्म-भावसे सत्त्वगुण तथा रजोगुण-ये दोनों उत्पन्न होते हैं-ऐसा कहा गया है ॥ ५० ॥