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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
नवमोऽध्यायः

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गुणानां गुणपरिज्ञानवर्णनम् -
गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा -


नारद उवाच
गुणानां लक्षणं तात भवता कथितं किल ।
न तृप्तोऽस्मि पिबन्मिष्टं त्वन्मुखात्प्रच्युतं रसम् ॥ १ ॥
नारदजी बोले-हे तात ! आपने गुणोंके लक्षणोंका वर्णन किया, किंतु आपके मुखसे निःसृत वाणीरूपी मधुर रसका पान करता हुआ मैं अभी भी तृप्त नहीं हुआ हूँ ॥ १ ॥

गुणानां तु परिज्ञानं यथावदनुवर्णय ।
येनाहं परमां शान्तिमधिगच्छामि चेतसि ॥ २ ॥
अतएव अब आप इन गुणोंके सूक्ष्म ज्ञानका यथावत् वर्णन कीजिये, जिससे मैं अपने हृदयमें परम शान्तिका अनुभव कर सकूँ ॥ २ ॥

व्यास उवाच
इति पृष्टस्तु पुत्रेण नारदेन महात्मना ।
उवाच च जगत्कर्ता रजोगुणसमुद्‌भवः ॥ ३ ॥

व्यासजी बोले-अपने पुत्र महात्मा नारदके इस प्रकार पूछनेपर रजोगुणसे आविर्भूत सृष्टिनिर्माता ब्रह्माजीने कहा ॥ ३ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु नारद वक्ष्यामि गुणानां परिवर्णनम् ।
सम्यङ्‌ नाहं विजानामि यथामति वदामि ते ॥ ४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे नारद ! सुनिये, अब मैं गुणोंका विस्तृत वर्णन करूँगा; यद्यपि मैं इस विषयमें सम्यक् ज्ञान नहीं रखता फिर भी अपनी बुद्धिके अनुसार आपसे वर्णन कर रहा हूँ ॥ ४ ॥

सत्त्वं तु केवलं नैव कुत्रापि परिलक्ष्यते ।
मिश्रीभावात्तु तेषां वै मिश्रत्वं प्रतिभाति वै ॥ ५ ॥
केवल सत्वगुण कहीं भी परिलक्षित नहीं होता है । गुणोंका परस्पर मिश्रीभाव होनेके कारण वह सत्त्वगुण भी मिश्रित दिखायी देता है ॥ ५ ॥

यथा काचिद्वरा नारी सर्वभूषणभूषिता ।
हावभावयुता कामं भर्तुः प्रीतिकरी भवेत् ॥ ६ ॥
मातापित्रोस्तथा सैव बन्धुवर्गस्य प्रीतिदा ।
दुःखं मोहं सपत्‍नीषु जनयत्यपि सैव हि ॥ ७ ॥
एवं सत्त्वेन तेनैव स्त्रीत्वमापादितेन च ।
रजसस्तमसश्चैव जनिता वृत्तिरन्यथा ॥ ८ ॥
रजसा स्त्रीकृतेनैव तमसा च तथा पुनः ।
अन्योन्यस्य समायोगादन्यथा प्रतिभाति वै ॥ ९ ॥
जिस प्रकार सब भूषणोंसे विभूषित तथा हावभावसे युक्त कोई सुन्दरी स्त्री अपने पतिको विशेष प्रिय होती है तथा माता-पिता एवं बन्धु-बान्धवोंके लिये भी प्रीतिकर होती है, किंतु वही स्त्री अपनी सौतोंके मनमें दुःख और मोह उत्पन्न करती है । इसी प्रकार सत्त्वगुणके स्त्रीभावापन्न होनेपर रजोगुण और तमोगुणसे मिलनेपर भिन्न वृत्ति उत्पन्न होती है । ऐसे ही रजोगुण तथा तमोगुणके स्त्रीभावापन्न होनेपर एक-दूसरेके परस्पर संयोगके कारण विपरीत भावना प्रतीत होती है ॥ ६-९ ॥

अवस्थानात्स्वभावेषु न वै जात्यन्तराणि च ।
लक्ष्यते विपरीतानि योगान्नारद कुत्रचित् ॥ १० ॥
हे नारद ! यदि ये तीनों गुण परस्पर मिश्रित न होते तो उनके स्वभावमें एक-सी ही प्रवृत्ति रहती, किंतु तीनों गुणोंमें मिश्रण होनेके कारण ही विभिन्नताएँ दिखायी देती हैं ॥ १० ॥

यथा रूपवती नारी यौवनेन विभूषिता ।
लज्जामाधुर्ययुक्ता च तथा विनयसंयुता ॥ ११ ॥
कामशास्त्रविधिज्ञा च धर्मशास्त्रेऽपि सम्मता ।
भर्तुःप्रीतिकरी भूत्वा सपत्‍नीनां च दुःखदा ॥ १२ ॥
जैसे कोई रूपवती स्त्री यौवन, लज्जा, माधुर्य तथा विनयसे युक्त हो, साथ ही वह धर्मशास्त्रके अनुकूल हो तथा कामशास्त्रको जाननेवाली हो, तो वह अपने पतिके लिये प्रीतिकर होती है; किंतु सौतोंके लिये कष्ट देनेवाली होती है ॥ ११-१२ ॥

मोहदुःखस्वभावस्था सत्त्वस्थेत्युच्यते जनैः ।
तथा सत्त्वं विकुर्वाणमन्यभावं विभाति वै ॥ १३ ॥
[सौतोंके लिये] मोह तथा दुःख देनेवाली होनेपर भी कुछ लोगोंके द्वारा वह सत्वगुणी कही जाती है और सत्त्वगुणके अनेक शुभ कार्य करनेपर भी वह सौतोंको विपरीत भाववाली प्रतीत होती है ॥ १३ ॥

चोरैरुपद्रुतानां हि साधूनां सुखदा भवेत् ।
दुःखा मूढा च दस्यूनां सैव सेना तथागुणा ॥ १४ ॥
जैसे राजाकी सेना चोरोंसे पीड़ित सज्जनोंके लिये सुख देनेवाली होती है, किंतु वही सेना चोरोंके लिये दु:खदायिनी, मूढ़ तथा गुणहीन होती है ॥ १४ ॥

विपरीतप्रतीतिं वै वर्जयन्ति स्वभावतः ।
यथा च दुर्दिनं जातं महामेघघनावृतम् ॥ १५ ॥
विद्युत्स्तनितसंयुक्तं तिमिरेणावगुण्ठितम् ।
सिंचद्‌भूमिं प्रवर्षद्वै तमोरूपमुदाहृतम् ॥ १६ ॥
यदेतत्कर्षकाणां वै तदेवातीव दुर्दिनम् ।
बीजोपस्करयुक्तानां सुखदं प्रभवत्युत ॥ १७ ॥
अप्रच्छन्नगृहाणां च दुर्भगानां विशेषतः ।
तृणकाष्ठगृहीतानां दुःखदं गृहमेधिनाम् ॥ १८ ॥
प्रोषितभर्तृकाणां वै मोहदं प्रवदन्त्यपि ।
स्वभावस्था गुणाः सर्वे विपरीता विभान्ति वै ॥ १९ ॥
इससे प्रकट होता है कि स्वाभाविक गुण भी विपरीत लक्षणोंवाले दीख पड़ते हैं । जैसे किसी दिन जब चारों ओर काले-काले मेघ घिर आये हों, बिजली चमक रही हो, मेघ गरज रहे हों, अन्धकारसे आच्छादित हो और घनघोर वर्षाके कारण सूखी भूमि सिंच रही हो, तब भी लोग उसे तमोरूप गाढ़ान्धकारसे व्याप्त दुर्दिन नामसे ही पुकारते हैं । एक ओर वही दुर्दिन किसानोंको खेत जोतने तथा बीज बोनेकी सुविधा देनेके कारण सुखदायी प्रतीत होता है, किंतु दूसरी ओर वही दुर्दिन उन अभागे गृहस्थोंके लिये दुःखदायी हो जाता है, जिनके घर अभी छाये नहीं जा सके हैं और जो तृण, काष्ठ आदिके संग्रहमें व्यस्त हैं । साथ ही वही दुर्दिन उन स्त्रियोंके हदयमें शोक उत्पन्न करता है, जिनके पति परदेश गये हों । उसी प्रकार ये सत्त्वादि गुण अपनी स्वाभाविक परिस्थितिमें रहते हुए भी अन्य गुणोंसे मिलनेपर विपरीत दृष्टिगोचर होते हैं ॥ १५-१९ ॥

लक्षणानि पुनस्तेषां शृणु पुत्र ब्रवीम्यहम् ।
लघुप्रकाशकं सत्त्वं निर्मलं विशदं सदा ॥ २० ॥
यदाङ्गानि लघून्येव नेत्रादीनीन्द्रियाणि च ।
निर्मलं च तथा चेतो गृह्णाति विषयान्न तान् ॥ २१ ॥
तदा सत्त्वं शरीरे वै मन्तव्यञ्च समुत्कटम् ।
जृम्भां स्तम्भं च तन्द्रां च चलञ्चैव रजः पुनः ॥ २२ ॥
यदा तदुत्कटं जातं देहे यस्य च कस्यचित् ।
कलिं मृगयते कर्तुं गन्तुं ग्रामान्तरं तथा ॥ २३ ॥
चलचित्तस्य सोऽत्यर्थं विवादे चोद्यतस्तथा ।
गुरुमावरणं कामं तमो भवति तद्यदा ॥ २४ ॥
तदाङ्गानि गुरूण्याशु प्रभवन्त्यावृतानि च ।
इन्द्रियाणि मनः शून्यं निद्रां नैवाभिवाञ्छति ॥ २५ ॥
हे पुत्र ! अब मैं उन गुणोंके लक्षण पुनः बता रहा हूँ; सुनो । सत्त्वगुण सूक्ष्म, प्रकाशक, स्वच्छ, निर्मल एवं व्यापक होता है । जब मानवके सम्पूर्ण अंग और नेत्र आदि इन्द्रियाँ हल्के हों, मन निर्मल हो तथा वह उन राजस एवं तामस विषयोंको न ग्रहण करता हो, तब यह समझ लेना चाहिये कि शरीरमें अब सत्त्वगुण प्रधानरूपसे विद्यमान है । जब जिस किसीकी देहमें रजोगुण प्रधानरूपसे विद्यमान रहता है तब यह बार-बार जम्हाई, स्तम्भन, तन्द्रा तथा चंचलता उत्पन्न करता है । इसी प्रकार जब अत्यन्त कलह करनेका मन चाहता हो, अन्यत्र जानेकी इच्छा हो, चित्त चंचल हो और वाद-विवादमें उलझनेकी प्रवृत्ति हो, मनमें काम भावनाका गहरा परदा पड़ जाय, तब यह समझ ले कि शरीरमें तमोगुणकी प्रधानता है । उस समय शरीरके अंग भारी हो जाते हैं, इन्द्रियाँ तामसिक भावोंके वशीभूत रहती हैं, चित्त विमुह रहता है और वह निद्राकी इच्छा नहीं करता । हे नारद ! इस प्रकार सभी गुणोंके लक्षण समझना चाहिये ॥ २०-२५ ॥

गुणानां लक्षणान्येवं विज्ञेयानीह नारद ।
नारद उवाच
विभिन्नलक्षणाः प्रोक्ताः पितामह गुणास्त्रयः ॥ २६ ॥
कथमेकत्र संस्थाने कार्यं कुर्वन्ति शाश्वतम् ।
परस्परं मिलित्वा हि विभिन्नाः शत्रवः किल ॥ २७ ॥
एकत्रस्थाः कथं कार्यं कुर्वन्तीति वदस्व मे ।
नारदजी बोले-हे पितामह ! आपने तीनों गुणोंको भिन्न-भिन्न लक्षणोंवाला बताया, तो फिर ये एक स्थानमें होकर निरन्तर कार्य कैसे करते हैं ? विपरीत होते हुए भी शत्रुरूप ये गुण एकत्र होकर परस्पर मिल करके किस प्रकार कार्य करते हैं; यह मुझे बताइये ॥ २६-२७.५ ॥

ब्रह्मोवाच
शृणु पुत्र प्रवक्ष्यामि गुणास्ते दीपवृत्तयः ॥ २८ ॥
प्रदीपश्च यथा कार्यं प्रकरोत्यर्थदर्शनम् ।
वर्तिस्तैलं यथार्चिश्च विरुद्धाश्च परस्परम् ॥ २९ ॥
विरुद्धं हि तथा तैलमग्निना सह सङ्गतम् ।
तैलं वर्तिविरोध्येव पावकोऽपि परस्परम् ॥ ३० ॥
एकत्रस्थाः पदार्थानां प्रकुर्वन्ति प्रदर्शनम् ।
ब्रह्माजी बोले-हे पुत्र ! सुनो, मैं बताता हूँ । उन तीनों गुणोंका स्वभाव दीपकके समान है । जैसे दीपकमें तेल, बत्ती और अग्निशिखा तीनों परस्पर विरोधी धर्मवाले हैं, परंतु तीनोंके सहयोगसे ही दीपक वस्तुओं आदिका दर्शन कराता है । यद्यपि आगके साथ मिला हुआ तेल आगका विरोधी है और तेल बत्ती तथा अग्निका विरोधी है तथापि वे एकत्र होकर वस्तुओंका दर्शन कराते हैं ॥ २८-३०.५ ॥

नारद उवाच
एवं प्रकृतिजाः प्रोक्ता गुणाः सत्यवतीसुत ॥ ३१ ॥
नारदजी बोले-हे सत्यवतीसुत व्यासजी ! ये सत्त्वादि तीनों गुण भी प्रकृतिसे उत्पन्न कहे गये हैं और ये जगत्के कारण हैं, जैसा मैंने पहले भी सुना है ॥ ३१ ॥

विश्वस्य कारणं ते वै मया पूर्वं यथा श्रुतम् ।
व्यास उवाच
इत्युक्तं नारदेनाथ मम सर्वं सविस्तरम् ॥ ३२ ॥
गुणानां लक्षणं सर्वं कार्यं चैव विभागशः ।
आराध्या परमा शक्तिर्यया सर्वमिदं ततम् ॥ ३३ ॥
सगुणा निर्गुणा चैव कार्यभेदे सदैव हि ।
अकर्ता पुरुषः पूर्णो निरीहः परमोऽव्ययः ॥ ३४ ॥
करोत्येषा महामाया विश्वं सदसदात्मकम् ।
ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रःसूर्यश्चन्द्रः शचीपतिः ॥ ३५ ॥
अश्विनौ वसवस्त्वष्टा कुबेरो यादसां पतिः ।
वह्निर्वायुस्तथा पूषा सेनानीश्च विनायकः ॥ ३६ ॥
सर्वे शक्तियुताः शक्ताः कर्तुं कार्याणि स्वानि च ।
अन्यथा तेऽप्यशक्ता वै प्रस्पन्दितुमनीश्वराः ॥ ३७ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] इस प्रकार नारदजीने विस्तारपूर्वक गुणोंके लक्षण और उनके विभागोंके सहित कार्योंको भी मुझे बतलाया है । सर्वदा उन्हीं परमशक्तिकी आराधना करनी चाहिये, जिनसे यह समस्त संसार व्याप्त है । वे भगवती कार्यभेदसे सगुणा और निर्गुणा दोनों हैं । वह परमपुरुष तो अकर्ता, पूर्ण, निःस्पृह तथा परम अविनाशी है; ये महामाया ही सत् और असद्रूप जगत्की रचना करती हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्र, इन्द्र, दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, विश्वकर्मा, कुबेर, वरुण, अग्नि, वायु, पूषा, कुमार कार्तिकेय और गणपतिये सभी देवता उन्हीं महामायाकी शक्तिसे युक्त होकर अपने-अपने कार्य करने में समर्थ होते हैं । हे मुनीश्वरो ! यदि ऐसा न हो तो वे हिलने-डुलनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ ३२-३७ ॥

सा चैव कारणं राजन् जगतः परमेश्वरी ।
समाराधय तां भूप कुरु यज्ञं जनाधिप ॥ ३८ ॥
पूजनं परया भक्त्या तस्या एव विधानतः ।
महालक्ष्मीर्महाकाली तथा महासरस्वती ॥ ३९ ॥
ईश्वरी सर्वभूतानां सर्वकारणकारणम् ।
सर्वकामार्थदा शान्ता सुखसेव्या दयान्विता ॥ ४० ॥
हे राजन् ! वे परमेश्वरी ही इस जगत्की परम कारण हैं, अतः हे नरपते ! अब आप उन्हींकी आराधना करें, उन्हींका यज्ञ करें और परम भक्तिके साथ विधिवत् उन्हींका पूजन करें । वे ही महालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती हैं । वे सब जीवोंकी अधीश्वरी, समस्त कारणोंकी एकमात्र कारण, सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली, शान्तस्वरूपिणी, सुखपूर्वक सेवनीय तथा दयासे परिपूर्ण हैं ॥ ३८-४० ॥

नामोच्चारणमात्रेण वाञ्छितार्थफलप्रदा ।
देवैराराधिता पूर्वं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरैः ॥ ४१ ॥
मोक्षकामैश्च विविधैस्तापसैर्विजितात्मभिः ।
अस्पष्टमपि यन्नाम प्रसङ्गेनापि भाषितम् ॥ ४२ ॥
ददाति वाञ्छितानर्थान्दुर्लभानपि सर्वथा ।
ये भगवती नामोच्चारणमात्रसे ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं । पूर्वकालमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवताओं तथा मोक्षकी कामना करनेवाले अनेक जितेन्द्रिय तपस्वियोंने उनकी आराधना की थी । किसी प्रसंगवश अस्पष्टरूपसे ही उच्चारित किया गया उनका नाम सर्वथा दुर्लभ मनोरथोंको भी पूर्ण कर देता है ॥ ४१-४२.५ ॥

ऐ ऐ इति भयार्तेन दृष्ट्वा व्याघ्रादिकं वने ॥ ४३ ॥
बिन्दुहीनमपीत्युक्तं वाञ्छितं प्रददाति वै ।
तत्र सत्यव्रतस्यैव दृष्टान्तो नृपसत्तम ॥ ४४ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! इस सम्बन्धमें एक दृष्टान्त हैसत्यव्रत नामके एक मुनिने वनमें व्याघ्रादि हिंसक पशुओंको देखकर भयसे पीड़ित होकर 'ऐ-ऐ' शब्दका उच्चारण किया था । उस बिन्दुरहित बीजमन्त्र (ऐं) का उच्चारण करनेके फलस्वरूप उसे भगवतीने मनोवांछित फल प्रदान कर दिया था । यह दृष्टान्त हम पुण्यात्मा मुनियोंके लिये प्रत्यक्ष ही है ॥ ४३-४४ ॥

प्रत्यक्ष एव चास्माकं मुनीनां भावितात्मनाम् ।
ब्राह्मणानां समाजेषु तस्योदाहरणं बुधैः ॥ ४५ ॥
कथ्यमानं मया राजञ्छ्रुतं सर्वं सविस्तरम् ।
अनक्षरो महामूर्खो नाम्ना सत्यव्रतो द्विजः ॥ ४६ ॥
श्रुत्वाऽक्षरं कोलमुखात्समुच्चार्य स्वयं ततः ।
बिन्दुहीनं प्रसंगेन जातोऽसौ विबुधोत्तमः ॥ ४७ ॥
ऐकारोच्चारणाद्देवी तुष्टा भगवती तदा ।
चकार कविराजं तं दयार्द्रा परमेश्वरी ॥ ४८ ॥
हे राजन् ! ब्राह्मणोंकी सभामें विद्वानोंके द्वारा उदाहरणके रूपमें उस सत्यव्रतके कहे जाते हुए सम्पूर्ण आख्यानको मैंने विस्तारपूर्वक सुना था । सत्यव्रत नामवाले उस निरक्षर तथा महामूर्ख ब्राह्मणने वह 'ऐ-ऐ' शब्द एक कोलके मुखसे सुनकर स्वयं भी उसका उच्चारण किया । बिन्दुरहित 'ऐं' बीजका उचारण करनेसे भी वह श्रेष्ठ विद्वान् हो गया । ऐकारके उच्चारणमात्रसे भगवती प्रसन्न हो गयीं और दयार्द्र होकर उन परमेश्वरीने उसे कविराज बना दिया ॥ ४५-४८ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे गुणपरिज्ञानवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
अध्याय नववाँ समाप्त


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