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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
दशमोऽध्यायः

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सत्यव्रताख्यानवर्णनम् -
देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान -


जनमेजय उवाच
कोऽसौ सत्यव्रतो नाम ब्राह्मणो द्विजसत्तमः ।
कस्मिन्देशे समुत्पन्नः कीदृशश्च वदस्व मे ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-वह द्विजश्रेष्ठ सत्यव्रत नामक ब्राह्मण कौन था, वह किस देशमें पैदा हुआ था तथा कैसा था ? यह मुझे बताइये ॥ १ ॥

कथं तेन श्रुतः शब्दः कथमुच्चारितः पुनः ।
सिद्धिश्च कीदृशी जाता तस्य विप्रस्य तत्क्षणात् ॥ २ ॥
कथं तुष्टा भवानी सा सर्वज्ञा सर्वसंस्थिता ।
विस्तरेण वदस्वाद्य कथामेतां मनोरमाम् ॥ ३ ॥
उस ब्राह्मणने 'ऐ' शब्द कैसे सुना और फिर स्वयं भी कैसे उसका उच्चारण किया ? उच्चारण करते ही उसी क्षण उस ब्राह्मणको कैसी सिद्धि प्राप्त हुई ? सर्वत्र विराजमान रहनेवाली तथा सब कुछ जाननेवाली वे भवानी उसपर किस प्रकार प्रसन्न हो गयीं ? अब आप यह मनोरम कथा विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये ॥ २-३ ॥

सूत उवाच
इति पृष्टस्तदा राज्ञा व्यासः सत्यवतीसुतः ।
उवाच परमोदारं वचनं रसवच्छुचि ॥ ४ ॥
सूतजी बोले-राजा जनमेजयके यह पूछनेपर सत्यवतीसुत व्यासजी सरस, पवित्र एवं परम उदार वचन कहने लगे ॥ ४ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि कथां पौराणिकीं शुभाम् ।
श्रुता मुनिसमाजेषु मया पूर्वं कुरूद्वह ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, मैं वह पवित्र पौराणिक कथा कह रहा हूँ । हे कुरुनन्दन ! पूर्वकालमें मुनियोंके समाजमें मैंने यह कथा सुनी थी ॥ ५ ॥

एकदाऽहं कुरुश्रेष्ठ कुर्वंस्तीर्थाटनं शुचि ।
सम्प्राप्तो नैमिषारण्यं पावनं मुनिसेवितम् ॥ ६ ॥
प्रणम्याहं मुनीन्सर्वान् स्थितस्तत्र वराश्रमे ।
विधिपुत्रास्तु यत्रासञ्जीवन्मुक्ता महाव्रताः ॥ ७ ॥
हे कुरुश्रेष्ठ ! एक बार तीर्थाटन करता हुआ मैं मुनियोंद्वारा सेवित पवित्र क्षेत्र नैमिषारण्यमें जा पहुँचा । वहाँ सभी मुनियोंको प्रणाम करके मैं एक उत्तम आश्रममें ठहर गया, जहाँ ब्रह्माके पुत्र महाव्रती एवं जीवन्मुक्त मुनि निवास कर रहे थे ॥ ६-७ ॥

कथाप्रसंग एवासीत्तत्र विप्रसमागमे ।
जमदग्निस्तु पप्रच्छ मुनीनेवं समास्थितः ॥ ८ ॥
उस ब्राह्मणसमाजमें कथाका ही प्रसंग चल रहा था । सभामें उपस्थित महर्षि जमदग्निने सब मुनियोंसे यह पूछा- ॥ ८ ॥

जमदग्निरुवाच
सन्देहोऽस्ति महाभागा मम चेतसि तापसाः ।
समाजेषु मुनीनां वै निःसन्देहो भवाम्यहम् ॥ ९ ॥
ब्रह्मा विष्णुस्तथा रुद्रो मघवा वरुणोऽनलः ।
कुबेरः पवनस्त्वष्टा सेनानीश्च गणाधिपः ॥ १० ॥
सूर्योऽश्विनौ भगः पूषा निशानाथो ग्रहास्तथा ।
आराधनीयतमः कोऽत्र वाञ्छितार्थफलप्रदः ॥ ११ ॥
सुखसेव्यश्च सततं चाशुतोषश्च मानदाः ।
ब्रुवन्तु मुनयः शीघ्रं सर्वज्ञाः संशितव्रताः ॥ १२ ॥
जमदग्नि बोले-हे महाभाग तपस्वियो ! मेरे मनमें एक शंका है । निश्चय ही इस मुनिसमाजमें मैं शंकारहित हो जाऊँगा । ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्र, वरुण, अग्नि, कुबेर, वायु, विश्वकर्मा, कार्तिकेय, गणेश, सूर्य, दोनों अश्विनीकुमार, भग, पूषा, चन्द्रमा और सभी ग्रह-इन सबमें सबसे अधिक आराधनीय तथा अभीष्ट फल प्रदान करनेवाला कौन है ? उनमें कौन देवता सदा सेव्य और शीघ्र प्रसन्न होनेवाला है ? हे मानद ! हे सर्वज्ञ ! हे व्रतधारी मुनिगण ! आप हमें शीघ्र बतायें ॥ ९-१२ ॥

एवं प्रश्ने कृते तत्र लोमशो वाक्यमब्रवीत् ।
जमदग्ने शृणुष्वैतद्यत्पृष्टं वै त्वयाऽधुना ॥ १३ ॥
सेवनीयतमा शक्तिः सर्वेषां शुभमिच्छताम् ।
परा प्रकृतिराद्या च सर्वगा सर्वदा शिवा ॥ १४ ॥
देवानां जननी सैव ब्रह्मादीनां महात्मनाम् ।
आदिप्रकृतिमूलं सा संसारपादपस्य वै ॥ १५ ॥
इस प्रकार जमदग्निके प्रश्न करनेपर लोमशऋषिने कहा-हे जमदग्ने ! आपने इस समय जो पूछा है, उसे सुनिये । अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवाले सभी लोगोंके लिये वे एकमात्र महाशक्ति ही आराधनीय हैं । वे ही परा-प्रकृति आदिस्वरूपा, सर्वगामिनी, सर्वदायिनी और कल्याणकारिणी हैं । वे ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवताओंकी जननी हैं और वे ही संसाररूपी वृक्षकी मूलरूपिणी आदिप्रकृति हैं ॥ १३-१५ ॥

स्मृता चोच्चारिता देवी ददाति किल वाञ्छितम् ।
सर्वदैवार्द्रचित्ता सा वरदानाय सेविता ॥ १६ ॥
वे भगवती केवल नामका उच्चारण तथा स्मरण करते ही निश्चितरूपसे अभीष्ट फल प्रदान करती हैं । जो लोग उनकी उपासना करते हैं, उन्हें वरदान देनेके लिये वे सर्वदा दयालुचित्त रहती हैं ॥ १६ ॥

इतिहासं प्रवक्ष्यामि शृण्वन्तु मुनयः शुभम् ।
अक्षरोच्चारणादेव यथा प्राप्तं द्विजेन वै ॥ १७ ॥
हे मुनिगण ! उनके नामाक्षरके उच्चारणमात्रसे ही एक ब्राह्मणने जिस प्रकार सिद्धि प्राप्त की थी, वह पवित्र वृत्तान्त मैं आपलोगोंसे कहता हूँ, सुनिये- ॥ १७ ॥

कोसलेषु द्विजः कश्चिद्देवदत्तेति विश्रुतः ।
अनपत्यश्चकारेष्टिं पुत्राय विधिपूर्वकम् ॥ १८ ॥
कोसलदेशमें देवदत्त नामक एक विद्वान् ब्राह्मण रहता था । वह निःसन्तान था, इसलिये उसने पुत्रप्राप्तिके लिये विधिपूर्वक यज्ञ किया ॥ १८ ॥

तमसातीरमास्थाय कृत्वा मण्डपमुत्तमम् ।
द्विजानाहूय वेदज्ञान्सत्रकर्मविशारदान् ॥ १९ ॥
कृत्वा वेदीं विधानेन स्थापयित्वा विभावसून् ।
पुत्रेष्टिं विधिवत्तत्र चकार द्विजसत्तमः ॥ २० ॥
तमसानदीके तटपर पहुंचकर उसने उत्तम यज्ञमण्डप बनवाया और वेदज्ञ तथा यज्ञकर्ममें निपुण ब्राह्मणोंको आमन्त्रित करके विधिपूर्वक यज्ञवेदी बनवाकर तथा अग्नि-स्थापन करके उस श्रेष्ठ ब्राह्मणने विधिवत् पुत्रेष्टि यज्ञ आरम्भ कर दिया । १९-२० ॥

ब्रह्माणं कल्पयामास सुहोत्रं मुनिसत्तमम् ।
अध्वर्युं याज्ञवल्क्यं च होतारं च बृहस्पतिम् ॥ २१ ॥
प्रस्तोतारं तथा पैलमुद्‌गातारं च गोभिलम् ।
सभ्यानन्यान्मुनीन्कृत्वा विधिवत्प्रददौ वसु ॥ २२ ॥
उसने उस यज्ञमें मुनिवर सुहोत्रको “ब्रह्मा', याज्ञवल्क्यको 'अध्वर्यु' तथा बृहस्पतिको 'होता', पैलमुनिको 'प्रस्तोता' तथा गोभिलको 'उद्गाता' बनाया एवं अन्यान्य उपस्थित मुनियोंको यज्ञका सभासद् बनाकर उन्हें विधिवत् प्रचुर धन प्रदान किया ॥ २१-२२ ॥

उद्‌गाता सामगः श्रेष्ठः सप्तस्वरसमन्वितम् ।
रथन्तरमगायत्तु स्वरितेन समन्वितम् ॥ २३ ॥
सामवेदका गान करनेवाले श्रेष्ठ उद्गाता गोभिलमुनि सातों स्वरोंसे युक्त तथा स्वरितसे समन्वित रथन्तर सामका गान करने लगे ॥ २३ ॥

तदाऽस्य स्वरभङ्गोऽभूत्कृते श्वासे मुहुर्मुहुः ।
देवदत्तश्चुकोपाशु गोभिलं प्रत्युवाच ह ॥ २४ ॥
मूर्खोऽसि मुनिमुख्याद्य स्वरभङ्गस्त्वया कृतः ।
काम्यकर्मणि सञ्जाते पुत्रार्थं यजतश्च मे ॥ २५ ॥
बार-बार श्वास लेनेके कारण गोभिलका स्वर भंग हो गया । तब देवदत्तको क्रोध आ गया और उसने तुरंत गोभिलमुनिसे कहा-हे मुनिमुख्य ! तुम मूर्ख हो, तुमने आज मेरेद्वारा पुत्रप्राप्तिके लिये किये जाते हुए इस काम्यकर्ममें स्वरभंग कर दिया ॥ २४-२५ ॥

गोभिलस्तु तदोवाच देवदत्तं सुकोपितः ।
मूर्खस्ते भविता पुत्रः शठः शब्दविवर्जितः ॥ २६ ॥
सर्वप्राणिशरीरे तु श्वासोच्छ्‌वासः सुदुर्ग्रहः ।
न मेऽत्र दूषणं किंचित्स्वरभङ्गे महामते ॥ २७ ॥
तब गोभिलमुनि अत्यन्त क्रोधित होकर देवदत्तसे कहने लगे-[इस यज्ञके फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाला] तुम्हारा पुत्र मूर्ख, शठ और गूंगा होगा । हे महामते ! सभी प्राणियोंके शरीरमें श्वास आताजाता रहता है । इसे रोक पाना बड़ा कठिन है । अत: ऐसी स्थितिमें स्वरभंग हो जानेमें मेरा कुछ भी दोष नहीं है ॥ २६-२७ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य गोभिलस्य महात्मनः ।
शापाद्‌भीतो देवदत्तस्तमुवाचातिदुःखितः ॥ २८ ॥
कथं क्रुद्धोऽसि विप्रेन्द्र वृथा मयि निरागसि ।
अक्रोधना हि मुनयो भवन्ति सुखदाः सदा ॥ २९ ॥
महात्मा गोभिलका यह वचन सुनकर शापसे भयभीत देवदत्तने अत्यन्त दुःखी होकर उनसे कहा-हे विप्रवर ! आप मुझ निर्दोषपर व्यर्थ ही क्यों कुद्ध है ? मुनिलोग तो सदा क्रोधरहिता और सुखदायक होते हैं । २८-२९ ॥

स्वल्पेऽपराधे विप्रेन्द्र कथं शप्तस्त्वया ह्यहम् ।
अपुत्रोऽहं सुतप्तः प्राक् तापयुक्तः पुनः कृतः ॥ ३० ॥
मूर्खपुत्रादपुत्रत्वं वरं वेदविदो विदुः ।
तथापि ब्राह्मणो मूर्खः सर्वेषां निन्द्य एव हि ॥ ३१ ॥
पशुवच्छूद्रवच्चैव न योग्यः सर्वकर्मसु ।
किं करोमीह मूर्खेण पुत्रेण द्विजसत्तम ॥ ३२ ॥
हे विप्र ! थोड़ेसे अपराधपर आपने मुझे शाप क्यों दे दिया ? पुत्रहीन होनेके कारण मैं तो पहलेसे ही बहुत दुःखी था, उसपर भी शाप देकर आपने मुझे और भी दुःखी कर दिया । वेदके विद्वानोंने कहा है कि मूर्ख पुत्रकी अपेक्षा पुत्रहीन रहना अच्छा है । उसपर भी मूर्ख ब्राह्मण तो सबके लिये निन्दनीय होता है । वह पशु एवं शूद्रके समान सभी कार्योंमें अयोग्य माना जाता है । अतः हे विप्रवर ! मूर्ख पुत्रको लेकर मैं क्या करूँगा ? ॥ ३०-३२ ॥

यथा शूद्रस्तथा मूर्खो ब्राह्मणो नात्र संशयः ।
न पूजार्हो न दानार्हो निन्द्यश्च सर्वकर्मसु ॥ ३३ ॥
मूर्ख ब्राह्मण शूद्रतुल्य होता है । इसमें सन्देह नहीं है; क्योंकि वह न तो पूजाके योग्य होता है और न दान लेनेका पात्र ही होता है । वह सब कार्योमें निन्द्य होता है । ॥ ३३ ॥

देशे वै वसमानश्च ब्राह्मणो वेदवर्जितः ।
करदः शूद्रवच्चैव मन्तव्यः स च भूभुजा ॥ ३४ ॥
किसी देशमें रहता हुआ वेदशास्त्रविहीन ब्राह्मण कर देनेवाले शूद्रकी भाँति एक राजाके द्वारा समझा जाना चाहिये ॥ ३४ ॥

नासने पितृकार्येषु देवकार्येषु स द्विजः ।
मूर्खः समुपवेश्यश्च कार्यश्च फलमिच्छता ॥ ३५ ॥
फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको चाहिये कि देव तथा पितृकार्योंके अवसरपर उस मूर्ख ब्राह्मणको आसनपर न बैठाये ॥ ३५ ॥

राज्ञा शूद्रसमो ज्ञेयो न योज्यः सर्वकर्मसु ।
कर्षकस्तु द्विजः कार्यो ब्राह्मणो वेदवर्जितः ॥ ३६ ॥
राजा भी वेदविहीन ब्राह्मणको शूद्रके समान समझे और उसे शुभ कार्यों में नियुक्त न करे, बल्कि उसे कृषिके काममें लगा दे ॥ ३६ ॥

विना विप्रेण कर्तव्यं श्राद्धं कुशचटेन वै ।
न तु विप्रेण मूर्खेण श्राद्धं कार्यं कदाचन ॥ ३७ ॥
ब्राह्मणके अभावमें कुशके चटसे स्वयं श्राद्धकार्य कर लेना ठीक है, किंतु मूर्ख ब्राह्मणसे कभी भी श्राद्धकार्य नहीं कराना चाहिये ॥ ३७ ॥

आहारादधिकं चान्नं न दातव्यमपण्डिते ।
दाता नरकमाप्नोति ग्रहीता तु विशेषतः ॥ ३८ ॥
मूर्ख ब्राह्मणको भोजनसे अधिक अन्न नहीं देना चाहिये; क्योंकि देनेवाला व्यक्ति नरकमें जाता है और लेनेवाला तो विशेषरूपसे नरकगामी होता है ॥ ३८ ॥

धिग्राज्यं तस्य राज्ञो वै यस्य देशेऽबुधा जनाः ।
पूज्यन्ते ब्राह्मणा मूर्खा दानमानादिकैरपि ॥ ३९ ॥
आसने पूजने दाने यत्र भेदो न चाण्वपि ।
मूर्खपण्डितयोर्भेदो ज्ञातव्यो विबुधेन वै ॥ ४० ॥
उस राजाके राज्यको धिक्कार है, जिसके राज्यमें मूर्खलोग निवास करते हैं और मूर्ख ब्राह्मण भी दान, सम्मान आदिसे पूजित होते हैं, साथ ही जहाँ मूर्ख और पण्डितके बीच आसन, पूजन और दानमें रंचमात्र भी भेद नहीं माना जाता । अतः विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह मूर्ख और पण्डितकी जानकारी अवश्य कर ले ॥ ३९-४० ॥

मूर्खा यत्र सुगर्विष्ठा दानमानपरिग्रहैः ।
तस्मिन्देशे न वस्तव्यं पण्डितेन कथञ्चन ॥ ४१ ॥
असतामुपकाराय दुर्जनानां विभूतयः ।
पिचुमन्दः फलाढ्योऽपि काकैरेवोपभुज्यते ॥ ४२ ॥
जहाँ दान, मान तथा परिग्रहसे मूर्खलोग महान् गौरवशाली माने जाते हैं, उस देशमें पण्डितजनको किसी प्रकार भी नहीं रहना चाहिये । दर्जन व्यक्तियोंकी सम्पत्तियाँ दुर्जनोंके उपकारके लिये ही होती हैं । जैसे अधिक फलोंसे लदे हुए नीमके वृक्षका उपभोग केवल कौए ही करते हैं ॥ ४१-४२ ॥

भुक्त्वान्नं वेदविद्विप्रो वेदाभ्यासं करोति वै ।
क्रीडन्ति पूर्वजास्तस्य स्वर्गे प्रमुदिताः किल ॥ ४३ ॥
वेदज्ञ ब्राह्मण जिसका अन्न खाकर वेदाभ्यास करता है, उसके पूर्वज परम प्रसन्न होकर स्वर्गमें विहार करते हैं ॥ ४३ ॥

गोभिलातः विमुक्तं वै त्वया वेदविदुत्तम ।
संसारे मूर्खपुत्रत्वं मरणादतिगर्हितम् ॥ ४४ ॥
अतएव हे वेदज्ञोंमें श्रेष्ठ गोभिल मुने ! आपने यह क्या कह दिया । इस संसारमें मूर्ख पुत्रका पिता होना तो मृत्युसे भी बढ़कर कष्टप्रद होता है ॥ ४४ ॥

कृपां कुरु महाभाग शापस्यानुग्रहं प्रति ।
दीनोद्धारणशक्तोऽसि पतामि तव पादयोः ॥ ४५ ॥

हे महाभाग ! अब आप इस शापसे मेरा उद्धार करनेकी कृपा कीजिये । आप दीनोंका उद्धार करने में समर्थ हैं । मैं आपके पैरोंपर पड़ता हूँ ॥ ४५ ॥

लोमश उवाच
इत्युक्त्वा देवदत्तस्तु पतितस्तस्य पादयोः ।
स्तुवन्दीनहृदत्यर्थं कृपणः साश्रुलोचनः ॥ ४६ ॥
लोमश बोले-यह कहकर देवदत्त अत्यन्त दीनहृदय तथा असहाय होकर नेत्रोंमें आँसू भरकर स्तुति करता हुआ मुनिके पैरोंपर गिर पड़ा ॥ ४६ ॥

गोभिलस्तु तदा तत्र दृष्ट्वा तं दीनचेतसम् ।
क्षणकोपा महान्तो वै पापिष्ठाः कल्पकोपनाः ॥ ४७ ॥
जलं स्वभावतः शीतं पावकातपयोगतः ।
उष्णं भवति तच्छीघ्रं तद्विना शिशिरं भवेत् ॥ ४८ ॥
दयावान्गोभिलस्त्वाह देवदत्तं सुदुःखितम् ।
मूर्खो भूत्वा सुतस्ते वै विद्वानपि भविष्यति ॥ ४९ ॥
तब उस दीनहदय देवदत्तको देखकर गोभिलमुनिको दया आ गयी । महात्मालोग क्षणभरके लिये ही कोप करते हैं, किंतु पापियोंका कोप कल्यपर्यन्त बना रहता है । जल स्वभावत: शीतल होता है । वही जल अग्नि तथा धूपके संयोगसे गर्म हो जाता है, किंतु पुनः उनका संयोग हटते ही वह शीघ्र शीतल हो जाता है । तब दयालु गोभिलमुनिने अत्यन्त दुःखित देवदत्तसे कहा-तुम्हारा पुत्र मूर्ख होकर भी बादमें विद्वान् हो जायगा ॥ ४७-४९ ॥

इति दत्तवरः सोऽथ मुदितोऽभूद्‌द्विजर्षभः ।
इष्टिं समाप्य विप्रान्वै विससर्ज यथाविधि ॥ ५० ॥
इस प्रकार वर पा लेनेपर द्विजवर देवदत्त प्रसन्न हो गये । उन्होंने विधिवत् पुत्रेष्टि यज्ञ समाप्त करके ब्राह्मणोंको विदा किया ॥ ५० ॥

कालेन कियता तस्य भार्या रूपमती सती ।
गर्भं दधार काले सा रोहिणी रोहिणीसमा ॥ ५१ ॥
कुछ समय बीतनेपर देवदत्तकी पतिव्रता तथा रूपवती भार्या रोहिणी जो रोहिणीके समान शुभ लक्षणोंवाली थी, उसने यथासमय गर्भधारण किया ॥ ५१ ॥

गर्भाधानादिकं कर्म चकार विधिवद्‌द्विजः ।
पुंसवनविधानञ्च शृङ्गारकरणं तथा ॥ ५२ ॥
सीमन्तोन्नयनञ्चैव कृतं वेदविधानतः ।
ददौ दानानि मुदितो मत्वेष्टिं सफलां तथा ॥ ५३ ॥
देवदत्तने विधि-विधानके साथ गर्भाधान आदि कर्म किये । तत्पश्चात् पुंसवन, शृंगारकरण तथा सीमन्तोन्नयन-संस्कार वेद विधिके साथ सम्पन्न किये । उस समय अपने यज्ञको सफल जानकर प्रसन मनसे उन्होंने बहुत-से दान दिये ॥ ५२-५३ ॥

शुभेऽह्नि सुषुवे पुत्रं रोहिणी रोहिणीयुते ।
दिने लग्ने शुभेऽत्यर्थं जातकर्म चकार सः ॥ ५४ ॥
पुत्रदर्शनकं कृत्वा नामकर्म चकार च ।
उतथ्य इति पुत्रस्य कृतं नाम पुराविदा ॥ ५५ ॥
रोहिणी नक्षत्रयुक्त शुभ दिनमें रोहिणीने पुत्रको जन्म दिया । देवदत्तने शुभ दिन और मुहर्तमें नवजात शिशुका जातकर्म-संस्कार किया और पुत्रदर्शन करके यथासमय उसका नामकरण भी कर दिया । पूर्व बातोंको जाननेवाले देवदत्तने अपने पुत्रका नाम 'उतथ्य' रखा ॥ ५४-५५ ॥

स चाष्टमे तथा वर्षे शुभे वै शुभवासरे ।
तस्योपनयनं कर्म चकार विधिवत्पिता ॥ ५६ ॥
आठवें वर्षमें शुभ योग तथा शुभ दिनमें पिता देवदत्तने अपने उस पुत्रका विधिवत् उपनयन-संस्कार सम्पन्न किया ॥ ५६ ॥

वेदमध्यापयामास गुरुस्तं वै व्रते स्थितम् ।
नोच्चचार तथोतथ्यः संस्थितो मुग्धवत्तदा ॥ ५७ ॥
ब्रह्मचर्यव्रतमें स्थित उतथ्यको आचार्य वेद पढ़ाने लगे, किंतु वह एक शब्दका भी उच्चारण नहीं कर सका, मूहकी भाँति चुपचाप बैठा रहा ॥ ५७ ॥

बहुधा पाठितः पित्रा न दधार मतिं शठः ।
मूढवत्तिष्ठतेऽत्यर्थं तं शुशोच पिता तदा ॥ ५८ ॥
उसके पिताने उसे अनेक प्रकारसे पढ़ानेका प्रयल किया, किंतु उस मुर्खकी बुद्धि उस ओर प्रवृत्त नहीं होती थी । वह मूर्खके समान पड़ा रहता था । इससे उसके पिता देवदत्त उसके लिये बहुत चिन्तित हुए ॥ ५८ ॥

एवं कुर्वन्सदाऽभ्यासं जातो द्वादशवार्षिकः ।
न वेद विधिवत्कर्तुं सन्ध्यावन्दनकं विधिम् ॥ ५९ ॥
इस प्रकार निरन्तर वेदाभ्यास करते हुए वह बालक बारह वर्षका हो गया, किंतु भलीभांति सन्ध्यावन्दन करनेतककी विधि भी न जान पाया ॥ ५९ ॥

मूर्खोऽभूदिति लोकेषु गता वार्ताऽतिविस्तरा ।
ब्राह्मणेषु च सर्वेषु तापसेष्वितरेषु च ॥ ६० ॥
सभी ब्राह्मणों, तपस्वियों तथा अन्यान्य लोगोंमें यह बात विस्तृतरूपसे फैल गयी कि देवदत्तका पुत्र महामूर्ख निकल गया । ६० ॥

जहास लोकस्तं विप्रं यत्र तत्र गतं मुने ।
पिता माता निनिन्दाथ मूर्खं तमतिभर्त्सयन् ॥ ६१ ॥
हे मुने ! वह जहाँ कहीं जाता, लोग उसकी हँसी उड़ाते थे । यहाँतक कि उसके माता-पिता भी उस मूर्खको कोसते हुए उसकी निन्दा किया करते थे ॥ ६१ ॥

निन्दितोऽथ जनैः कामं पितृभ्यामथ बान्धवैः ।
वैराग्यमगमद्विप्रो जगाम वनमप्यसौ ॥ ६२ ॥
इस प्रकार जब सभी लोग, माता-पिता तथा बन्धु-बान्धव उसकी निन्दा करने लगे, तब उस ब्राह्मणबालकके मनमें वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह वनमें चला गया । ६२ ॥

अन्धो वरस्तथा पङ्गुर्न मूर्खस्तु वरः सुतः ।
इत्युक्तोऽसौ पितृभ्यां वै विवेश काननं प्रति ॥ ६३ ॥
अन्धा या पंगु पुत्र ठीक है, किंतु मूर्ख पुत्र ठीक नहीं है-माता-पिताके ऐसा कहनेपर वह वनमें चला गया ॥ ६३ ॥

गंगातीरे शुभे स्थाने कृत्वोटजमनुत्तमम् ।
वन्यां वृत्तिं च सङ्कल्प्य स्थितस्तत्र समाहितः ॥ ६४ ॥
गंगाके किनारे एक उत्तम स्थानपर सुन्दर पर्णकुटी बनाकर वह वनवासीका जीवन व्यतीत करते हुए एकनिष्ठ होकर वहीं रहने लगा ॥ ६४ ॥

नियमं च परं कृत्वा नासत्यं प्रब्रवीम्यहम् ।
स्थितस्तत्राश्रमे रम्ये ब्रह्मचर्यव्रतो हि सः ॥ ६५ ॥
मैं असत्य नहीं बोलूंगा'-ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा करके ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए वह उसी सुन्दर आश्रममें रहने लगा ॥ ६५ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सत्यव्रताख्यानवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
अध्याय दसवाँ समाप्त


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