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सत्यव्रताख्यानवर्णनम् -
सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएं प्रदान करना -
लोमश उवाच न वेदाध्ययनं किञ्चिज्जानाति न जपं तथा । ध्यानं न देवतानाञ्च न चैवाराधनं तथा ॥ १ ॥ नासनं वेद विप्रोऽसो प्राणायामं तथा पुनः । प्रत्याहारं तु नो वेद भूतशुद्धिञ्च कारणम् ॥ २ ॥ न मन्त्रकीलकं जाप्यं गायत्रीञ्च न वेद सः । शौचं स्नानविधिञ्चैव तथाचमनकं पुनः ॥ ३ ॥ प्राणाग्निहोत्रं नो वेद बलिदानं न चातिथिम् । न सन्ध्यां समिधो होमं विवेद च तथा मुनिः ॥ ४ ॥
लोमश बोले-[हे जमदग्ने !] वह उतथ्य वेदाध्ययन, जप, ध्यान तथा देवताओंकी आराधना आदि कुछ भी नहीं जानता था । वह ब्राह्मण आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार भी नहीं जानता था । वह भूतशुद्धि तथा कारणके विषयमें भी कुछ नहीं जानता था । वह कीलक मन्त्र, जप, गायत्री नहीं जानता था । उसे सम्यक् रूपसे शौच, स्नान-विधि तथा आचमनतकका ज्ञान नहीं था । वह ब्राह्मण प्राणाग्निहोत्र, वैश्वदेव, अतिथि सत्कार, सन्ध्या-वन्दन, समिधा तथा होम आदिके विषयमें भी नहीं जानता था ॥ १-४ ॥
सोऽकरोत्प्रातरुत्थाय यत्किञ्चिद्दन्तधावनम् । स्नानं च शूद्रवत्तत्र गंगायां मन्त्रवर्जितम् ॥ ५ ॥ फलान्यादाय वन्यानि मध्यान्हेऽपि यदृच्छया । भक्ष्याभक्ष्यपरिज्ञानं न जानाति शठस्तथा ॥ ६ ॥
प्रातःकाल उठकर वह किसी तरह सामान्य रूपसे दन्तधावन कर लेता था, तत्पश्चात् शूद्रकी भाँति बिना मन्त्र बोले ही गंगामें स्नान कर लिया करता था । दोपहरके समय वह अपनी इच्छासे वन्य फल लाकर उन्हें खा लिया करता था । उस मूर्खको भक्ष्य तथा अभक्ष्यका भी ज्ञान नहीं था ॥ ५-६ ॥
सत्यं ब्रूते स्थितस्तत्र नानृतं वदते पुनः । जनैः सत्यतपा नाम कृतमस्य द्विजस्य वै ॥ ७ ॥
वहाँ निवास करता हुआ वह ब्राह्मण सदैव सत्यभाषण करता था और झूठ कभी नहीं बोलता था । [उसकी इस सत्यनिष्ठासे प्रभावित होकर] लोगोंने इस ब्राह्मणका नाम 'सत्यतपा' रख दिया ॥ ७ ॥
नाहितं कस्यचित्कुर्यान्न तथाऽविहितं क्वचित् । सुखं स्वपिति तत्रैव निर्भयश्चिन्तयन्निति ॥ ८ ॥ कदा मे मरणं भावि दुःखं जीवामि कानने । जीवितं धिक्च मूर्खस्य तरसा मरणं ध्रुवम् ॥ ९ ॥
वह न तो कभी किसीका अहित करता था और न अविहित कार्य ही करता था । वह यही सोचता हुआ निडर होकर उस कुटीमें सोता था कि मेरी मृत्यु कब होगी ? मैं इस वनमें दुःखपूर्वक जी रहा हूँ । मुझ मूर्खके जीवनको धिक्कार है, अतः अब मेरा शीघ्र मर जाना ही उत्तम है । ८-९ ॥
दैवेनाहं कृतो मूर्खो नान्योऽत्र कारणं मम । प्राप्य चैवोत्तमं जन्म वृथा जातं ममाधुना ॥ १० ॥
दैवने ही मुझे मूर्ख बनाया है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य कारण मुझे जान नहीं पड़ता । उत्तम कुलमें जन्म-ग्रहण करके भी मैंने अपना जीवन व्यर्थ गवा दिया ॥ १० ॥
यथा वन्ध्या सुरूपा च यथा वा निष्फलो द्रुमः । अदुग्धदोहा धेनुश्च तथाऽहं निष्फलः कृतः ॥ ११ ॥ किं नु निन्दाम्यहं दैवं नूनं कर्म ममेदृशम् । न दत्तं पुस्तकं कृत्वा ब्राह्मणाय महात्मने ॥ १२ ॥ न वै विद्या मया दत्ता पूर्वजन्मनि निर्मला । तेनाहं कर्मयोगेन शठोऽस्मि च द्विजाधमः ॥ १३ ॥
जैसे रूपसम्पन्न वन्ध्या स्त्री, फलरहित वृक्ष तथा दूध न देनेवाली गाय-ये सब निरर्थक होते हैं, उसी प्रकार मैं भी निष्फल कर दिया गया हूँ ॥ ११ ॥
न च तीर्थे तपस्तप्तं सेविता न च साधवः । न द्विजाः पूजिता द्रव्यैस्तेन जातोऽस्मि दुष्टधीः ॥ १४ ॥
मैं दैवको दोष क्यों हूँ ? निश्चित रूपसे मेरा कर्म ही ऐसा था । मैंने पुस्तक लिखकर उसे किसी महात्मा ब्राह्मणको दान नहीं दिया । मैंने पूर्वजन्ममें उत्तम विद्याका भी दान नहीं किया, इसीलिये प्रारब्धवश इस जन्ममें मूर्ख और अधम ब्राह्मण हुआ हूँ । मैंने किसी तीर्थमें तप नहीं किया और न साधुओंकी सेवा ही की । धन-दानसे मैंने ब्राह्मणोंकी पूजा भी नहीं की । इसी कारण मैं ऐसा दुर्बुद्धि हुआ ॥ १२-१४ ॥
दिन-रात इस प्रकारके अनेक तर्क-वितर्क करता हुआ वह द्विज गंगाके तटपर स्थित उस पावन आश्रममें रहता था ॥ १९ ॥
विरक्तः स तु सञ्जातः स्थितस्तत्राश्रमे द्विजः । कालातिवाहनं शान्तश्चकार विजने वने ॥ २० ॥
अब वह ब्राह्मण सर्वथा विरक्त हो गया और उस निर्जन वनमें स्थित आश्रममें रहता हुआ शान्तचित्त होकर समय बिताने लगा ॥ २० ॥
एवं स्थितस्य तु वने विमलोदके वै वर्षाणि तत्र नवपञ्च गतानि कामम् । नाराधनं न च जपं न विवेद मन्त्रं कालातिवाहनमसौ कृतवान् वने वै ॥ २१ ॥
इस प्रकार निर्मल जलवाले उस वनमें रहते हुए उस ब्राह्मणके चौदह वर्ष बीत गये; पर उसने न कोई जप किया, न आराधना की और न कोई मन्त्र ही वह जान सका, केवल उसने वनमें रहकर कालक्षेप ही किया ॥ २१ ॥
वहाँके लोग केवल उसके इस प्रसिद्ध व्रतको जानते थे कि यह मुनि सदा सत्य बोलता है । अत: सब लोगोंमें उसका यह सुयश फैल गया कि यह सदा सत्यव्रती है और मिथ्याभाषी नहीं ॥ २२ ॥
एक दिन आखेट करता हुआ एक महान् मूर्ख निषाद हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए उसी गहन वनमें आ पहुँचा । यमराजके समान शरीर तथा भीषण आकृतिवाला वह निषाद आखेट करते समय वधकार्यमें बड़ा ही कुशल जान पड़ता था ॥ २३ ॥
उस धनुर्धारी किरातने एक सूअरको लक्ष्य करके बड़े जोरसे खींचकर बाण चलाया । तब बाणसे बिंधा हुआ वह सूअर भयभीत होकर भागता हुआ उस मुनिके समीप जा पहुँचा ॥ २४ ॥
जब वह सूअर आश्रम-परिधिमें पहुँचा तो भयसे काँप रहा था और उसका शरीर रक्तसे लथपथ था । उस बेचारेको इस दशामें देखकर उस समय सत्यव्रतमुनि अत्यन्त दयाचित्त हो गये । रक्तसे सराबोर शरीरवाले उस आहत सूअरको अपने आगेसे जाते देखकर दयाके अतिरेकसे काँपते हुए मुनिने बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण किया ॥ २५-२६ ॥
अज्ञातपूर्वं च तथाश्रुतञ्च दैवान्मुखे वै समुपागतञ्च । न ज्ञातवान्बीजमसौ विमूढो ममज्ज शोके स मुनिर्महात्मा ॥ २७ ॥
उन्हें इसके पूर्व न तो इस मन्त्रका ज्ञान था और न उन्होंने कभी इसे सुना ही था; दैवयोगसे ही उनके मुखसे यह मन्त्र निकल पड़ा । अब भी उन विमूढ़को नहीं मालूम था कि यह सारस्वत बीजमन्त्र है । वे महात्मा सत्यव्रतमुनि तो उस घायल सूअरके शोकमें डूबे हुए थे ॥ २७ ॥
इसी बीच बाणकी पीड़ाके कारण अत्यन्त सन्तप्तचित्त तथा काँपते हुए शरीरवाला वह सूअर कोई दूसरा मार्ग न पाकर सत्यव्रतके आश्रममण्डलमें प्रविष्ट होकर कहीं झाड़ीमें छिप गया ॥ २८ ॥
ततः क्षणादाकरणान्तकृष्टं चापं दधानोऽतिकरालदेहः । प्राप्तस्तदन्ते स च मृग्यमाणो निषादराजः किल काल एव ॥ २९ ॥
थोड़ी देर बाद कानतक खींचे धनुषको धारण किये हुए दूसरे कालके समान विकराल देहवाला वह निषादराज भी उस सूअरको खोजता हुआ मुनिके निकट आ पहुँचा । ॥ २९ ॥
वहाँ कुशासनपर बैठे हुए अद्वितीय सत्यव्रतमुनिको देखकर वह व्याध प्रणाम करके उनके सामने खड़ा हो गया और पूछने लगा-हे द्विजराज ! वह सूअर कहाँ गया ? ॥ ३० ॥
जानामि तेऽहं सुव्रतं प्रसिद्धं तेनाद्य पृच्छे मम बाणविद्धः । क्षुधार्दितं मे सकलं कुटुम्बं विभर्तुकामः किल आगतोऽस्मि ॥ ३१ ॥
मैं आपके सत्यभाषणके प्रसिद्ध व्रतको जानता हूँ इसीलिये पूछता हूँ कि मेरे बाणसे घायल हुआ वह सूअर किधर गया ? मेरा सारा परिवार भूखसे पीड़ित है । मैं उनकी क्षुधा-शान्तिकी इच्छासे ही यहाँ आया हूँ ॥ ३१ ॥
हे विप्रेन्द्र ! विधाताने मेरी यही जीविका निर्धारित की है । इसके अतिरिक्त मेरा दूसरा कोई साधन नहीं है, यह मैं सत्य कहता हूँ । अच्छे-बुरे किसी भी उपायसे अपने परिवारका पालन-पोषण तो निश्चितरूपसे करना ही चाहिये ॥ ३२ ॥
आप सत्यव्रत हैं, अतः मुझे अब सच-सच बता दीजिये । मेरा सारा कुटुम्ब भूखसे व्याकुल है । अत: हे विप्र ! मैं आपसे पुनः पूछ रहा हूँ कि मेरे बाणसे घायल वह सूअर किधर गया है ? आप मुझे शीघ्र बता दें ॥ ३३ ॥
तेनेति पृष्टः स मुनिर्महात्मा वितर्कमग्नः प्रबभूव कामम् । सत्यव्रतं मेऽद्य भवेन्न भग्नं न दृष्ट इत्युच्चरितेन किं वै ॥ ३४ ॥
उस व्याधके इस प्रकार बार-बार पूछनेपर महात्मा सत्यव्रतमुनि बड़े असमंजसमें पड़ गये और मनमें सोचने लगे कि अब मैं क्या करूँ ? जिससे मेरा सत्यव्रत नष्ट न हो और मुझे यह भी न कहना पड़े कि 'मैंने उसे नहीं देखा है' ॥ ३४ ॥
गतोऽत्र कोलः शरविद्धदेहः कथं ब्रवीम्यद्य मृषाऽमृषा वा । क्षुधार्दितोऽयं परिपृच्छतीव दृष्ट्वा हनिष्यत्यपि सूकरं वै ॥ ३५ ॥
'तुम्हारे बाणसे घायल वह सूअर भाग गया । ' यह मिथ्या मैं कैसे कहूँ ? और यदि इसे सच बता देता हूँ तो यह क्षुधासे आतुर होकर बार-बार सूअरको पूछ रहा है, अत: उसे खोजकर अवश्य ही मार डालेगा ॥ ३५ ॥
वह सत्य वास्तविक सत्य नहीं है जिससे किसी जीवकी हिंसा होती हो तथा वह असत्य भी सत्य ही है, जो दयासे युक्त हो । जिसके द्वारा प्राणियोंका कल्याण हो, वही सत्य है और जो इसके विपरीत है, वह असत्य है ॥ ३६ ॥
हितं कथं स्यादुभयोर्विरुद्धयो- स्तदुत्तरं किं न यथा मृषा वचः । विचारयन्वाडव धर्मसङ्कटे न प्राप वक्तुं वचनं यथोचितम् ॥ ३७ ॥
इन परस्पर विरोधी प्रसंगोंमें मेरा हित कैसे हो ! मैं क्या उत्तर दूं, जिससे मेरी बात झूठी न हो । [लोमशमुनिने कहा]-हे ब्राह्मण ! ऐसा विचार करत हुए वे सत्यव्रतमुनि धर्मसंकटमें पड़ गये और व्याधको यथोचित उत्तर नहीं दे सके ॥ ३७ ॥
बाणसे आहत सूअरको देखकर मुनि सत्यव्रतके द्वारा जो करुणायुक्त 'ऐ-ऐ' शब्द उच्चरित हो गया था; उस अपने बीजमन्त्रसे प्रसन्न होकर भगवती शिवाने उन्हें दुर्लभ विद्या दे दी ॥ ३८ ॥
बीजोच्चारणतो देव्या विद्या प्रस्फुरिताखिला । वाल्मीकेश्च यथापूर्वं तथा स ह्यभवत्कविः ॥ ३९ ॥
देवीके बीजमन्त्रका उच्चारण करते ही मुनि सत्यव्रतके हृदयमें समस्त विद्याएँ प्रस्फुटित हो गयीं और वे उसी प्रकार कवि हो गये, जिस प्रकार पूर्वकालमें महर्षि वाल्मीकि ॥ ३९ ॥
तमुवाच द्विजो व्याधं सम्मुखस्थं धनुर्धरम् । सत्यकामस्तु धर्मात्मा श्लोकमेकं दयापरः ॥ ४० ॥ या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रूते सा न पश्यति । अहो व्याध स्वकार्यार्थिन् किं पृच्छसि पुनः पुनः ॥ ४१ ॥
तत्पश्चात् सत्यकाम, धर्मात्मा तथा दयालु ब्राह्मण सत्यव्रतने अपने सामने खड़े उस धनुर्धारी व्याधसे एक श्लोक इस प्रकार कहा-जो (आँख) देखती है, वह बोलती नहीं है और जो (वाणी) बोलती है, वह देखती नहीं । अतः अपने ही प्रयोजनकी सिद्धिमें तत्पर हे व्याध ! तुम बार-बार क्यों पूछ रहे हो ? ॥ ४०-४१ ॥
वे भगवती स्मरण करने, पूजा करने, श्रद्धापूर्वक ध्यान करने, नामोच्चारण करने तथा स्तुति करनेसे [परम प्रसन्न होकर] सभी इच्छित मनोरथोंको पूर्ण कर देती हैं । इसीलिये वे 'कामदा' कही जाती हैं ॥ ४९ ॥
हे राजन् ! रुग्ण, दीन, क्षुधापीड़ित, धनहीन, शठ, दुःखी, मूर्ख, शत्रुओंसे सदा प्रताड़ित, आज्ञाके अधीन रहनेवाले दास, क्षुद्र, विकल, अशान्त, भोजन तथा भोगसे अतृप्त, सदा कष्टमें रहनेवाले, अजितेन्द्रिय, अधिक तृष्णायुक्त, शक्तिहीन तथा सदैव मानसिक रोगोंसे पीड़ित रहनेवाले प्राणियोंको देखकर बुद्धिमानोंको यह अनुमान कर लेना चाहिये कि इन लोगोंने भगवतीकी सम्यक् उपासना नहीं की है । इसी प्रकार वैभवयुक्त, पुत्र-पौत्रादिसे सम्पन्न, हृष्ट-पुष्ट शरीरवाले, भोगयुक्त, वेदवादी, राजलक्ष्मीसे सम्पन्न, पराक्रमी, लोगोंको अपने वशमें रखनेवाले, स्वजनोंके साथ आनन्दपूर्वक रहनेवाले और समस्त उत्तम लक्षणोंसे युक्त लोगोंको देखकर यह अनुमान कर लेना चाहिये कि इन लोगोंने भगवतीकी उपासना की है । इस प्रकार पण्डितजनोंको व्यतिरेक-अन्वयके क्रमसे यह जान लेना चाहिये कि उपर्युक्त [दीन आदि] लोगोंने सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली शिवाकी पूजा नहीं की है तथा उपर्युक्त [विभवयुक्त] लोगोंने भगवती अम्बाकी सर्वदा विधिपूर्वक आराधना की है, जिससे ये सभी लोग इस संसारमें सुखी हैं । इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है । ५०-५६ ॥