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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
एकादशोऽध्यायः

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सत्यव्रताख्यानवर्णनम् -
सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएं प्रदान करना -


लोमश उवाच
न वेदाध्ययनं किञ्चिज्जानाति न जपं तथा ।
ध्यानं न देवतानाञ्च न चैवाराधनं तथा ॥ १ ॥
नासनं वेद विप्रोऽसो प्राणायामं तथा पुनः ।
प्रत्याहारं तु नो वेद भूतशुद्धिञ्च कारणम् ॥ २ ॥
न मन्त्रकीलकं जाप्यं गायत्रीञ्च न वेद सः ।
शौचं स्नानविधिञ्चैव तथाचमनकं पुनः ॥ ३ ॥
प्राणाग्निहोत्रं नो वेद बलिदानं न चातिथिम् ।
न सन्ध्यां समिधो होमं विवेद च तथा मुनिः ॥ ४ ॥
लोमश बोले-[हे जमदग्ने !] वह उतथ्य वेदाध्ययन, जप, ध्यान तथा देवताओंकी आराधना आदि कुछ भी नहीं जानता था । वह ब्राह्मण आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार भी नहीं जानता था । वह भूतशुद्धि तथा कारणके विषयमें भी कुछ नहीं जानता था । वह कीलक मन्त्र, जप, गायत्री नहीं जानता था । उसे सम्यक् रूपसे शौच, स्नान-विधि तथा आचमनतकका ज्ञान नहीं था । वह ब्राह्मण प्राणाग्निहोत्र, वैश्वदेव, अतिथि सत्कार, सन्ध्या-वन्दन, समिधा तथा होम आदिके विषयमें भी नहीं जानता था ॥ १-४ ॥

सोऽकरोत्प्रातरुत्थाय यत्किञ्चिद्दन्तधावनम् ।
स्नानं च शूद्रवत्तत्र गंगायां मन्त्रवर्जितम् ॥ ५ ॥
फलान्यादाय वन्यानि मध्यान्हेऽपि यदृच्छया ।
भक्ष्याभक्ष्यपरिज्ञानं न जानाति शठस्तथा ॥ ६ ॥
प्रातःकाल उठकर वह किसी तरह सामान्य रूपसे दन्तधावन कर लेता था, तत्पश्चात् शूद्रकी भाँति बिना मन्त्र बोले ही गंगामें स्नान कर लिया करता था । दोपहरके समय वह अपनी इच्छासे वन्य फल लाकर उन्हें खा लिया करता था । उस मूर्खको भक्ष्य तथा अभक्ष्यका भी ज्ञान नहीं था ॥ ५-६ ॥

सत्यं ब्रूते स्थितस्तत्र नानृतं वदते पुनः ।
जनैः सत्यतपा नाम कृतमस्य द्विजस्य वै ॥ ७ ॥
वहाँ निवास करता हुआ वह ब्राह्मण सदैव सत्यभाषण करता था और झूठ कभी नहीं बोलता था । [उसकी इस सत्यनिष्ठासे प्रभावित होकर] लोगोंने इस ब्राह्मणका नाम 'सत्यतपा' रख दिया ॥ ७ ॥

नाहितं कस्यचित्कुर्यान्न तथाऽविहितं क्वचित् ।
सुखं स्वपिति तत्रैव निर्भयश्‍चिन्तयन्निति ॥ ८ ॥
कदा मे मरणं भावि दुःखं जीवामि कानने ।
जीवितं धिक्च मूर्खस्य तरसा मरणं ध्रुवम् ॥ ९ ॥
वह न तो कभी किसीका अहित करता था और न अविहित कार्य ही करता था । वह यही सोचता हुआ निडर होकर उस कुटीमें सोता था कि मेरी मृत्यु कब होगी ? मैं इस वनमें दुःखपूर्वक जी रहा हूँ । मुझ मूर्खके जीवनको धिक्कार है, अतः अब मेरा शीघ्र मर जाना ही उत्तम है । ८-९ ॥

दैवेनाहं कृतो मूर्खो नान्योऽत्र कारणं मम ।
प्राप्य चैवोत्तमं जन्म वृथा जातं ममाधुना ॥ १० ॥
दैवने ही मुझे मूर्ख बनाया है, इसके अतिरिक्त कोई अन्य कारण मुझे जान नहीं पड़ता । उत्तम कुलमें जन्म-ग्रहण करके भी मैंने अपना जीवन व्यर्थ गवा दिया ॥ १० ॥

यथा वन्ध्या सुरूपा च यथा वा निष्फलो द्रुमः ।
अदुग्धदोहा धेनुश्‍च तथाऽहं निष्फलः कृतः ॥ ११ ॥
किं नु निन्दाम्यहं दैवं नूनं कर्म ममेदृशम् ।
न दत्तं पुस्तकं कृत्वा ब्राह्मणाय महात्मने ॥ १२ ॥
न वै विद्या मया दत्ता पूर्वजन्मनि निर्मला ।
तेनाहं कर्मयोगेन शठोऽस्मि च द्विजाधमः ॥ १३ ॥
जैसे रूपसम्पन्न वन्ध्या स्त्री, फलरहित वृक्ष तथा दूध न देनेवाली गाय-ये सब निरर्थक होते हैं, उसी प्रकार मैं भी निष्फल कर दिया गया हूँ ॥ ११ ॥

न च तीर्थे तपस्तप्तं सेविता न च साधवः ।
न द्विजाः पूजिता द्रव्यैस्तेन जातोऽस्मि दुष्टधीः ॥ १४ ॥
मैं दैवको दोष क्यों हूँ ? निश्चित रूपसे मेरा कर्म ही ऐसा था । मैंने पुस्तक लिखकर उसे किसी महात्मा ब्राह्मणको दान नहीं दिया । मैंने पूर्वजन्ममें उत्तम विद्याका भी दान नहीं किया, इसीलिये प्रारब्धवश इस जन्ममें मूर्ख और अधम ब्राह्मण हुआ हूँ । मैंने किसी तीर्थमें तप नहीं किया और न साधुओंकी सेवा ही की । धन-दानसे मैंने ब्राह्मणोंकी पूजा भी नहीं की । इसी कारण मैं ऐसा दुर्बुद्धि हुआ ॥ १२-१४ ॥

वर्तन्ते मुनिपुत्राश्‍च वेदशास्त्रार्थपारगाः ।
अहं सुमूढः सञ्जातो दैवयोगेन केनचित् ॥ १५ ॥
[मेरे साथके] बहुत-से मुनिकुमार वेदशास्त्रमें पारंगत हो गये, किंतु मैं न जाने किस दुर्विपाकसे महामूर्ख रह गया ॥ १५ ॥

न जानामि तपस्तप्तुं किं करोमि सुसाधनम् ।
मिथ्यायं मेऽत्र सङ्कल्पो न मे भाग्यं शुभं किल ॥ १६ ॥
मैं तप करना भी नहीं जानता, तब कौन-सी साधना करूँ ? अब तो मेरा यह सब सोचना भी व्यर्थ है; क्योंकि मेरा भाग्य ही अच्छा नहीं है ॥ १६ ॥

दैवमेव परं मन्ये धिक्पौरुषमनर्थकम् ।
वृथा श्रमकृतं कार्यं दैवाद्‌भवति सर्वथा ॥ १७ ॥
मैं भाग्यको ही सर्वोपरि मानता हूँ । निरर्थक पुरुषार्थको धिक्कार है; क्योंकि परिश्रमसे किया गया कार्य भी प्रारब्धवश सर्वथा विफल हो जाता है ॥ १७ ॥

ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च शक्राद्याः किल देवताः ।
कालस्य वशगाः सर्वे कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १८ ॥
ब्रह्मा, विष्णु शिव तथा इन्द्र आदि सभी देवता भी कालके वशमें रहते हैं । इसलिये काल सर्वथा अजेय है ॥ १८ ॥

एवंविधान्वितर्कांस्तु कुर्वाणोऽहर्निशं द्विजः ।
स्थितस्तत्राश्रमे तीरे जान्हव्याः पावने स्थले ॥ १९ ॥
दिन-रात इस प्रकारके अनेक तर्क-वितर्क करता हुआ वह द्विज गंगाके तटपर स्थित उस पावन आश्रममें रहता था ॥ १९ ॥

विरक्तः स तु सञ्जातः स्थितस्तत्राश्रमे द्विजः ।
कालातिवाहनं शान्तश्‍चकार विजने वने ॥ २० ॥
अब वह ब्राह्मण सर्वथा विरक्त हो गया और उस निर्जन वनमें स्थित आश्रममें रहता हुआ शान्तचित्त होकर समय बिताने लगा ॥ २० ॥

एवं स्थितस्य तु वने विमलोदके वै
     वर्षाणि तत्र नवपञ्च गतानि कामम् ।
नाराधनं न च जपं न विवेद मन्त्रं
     कालातिवाहनमसौ कृतवान् वने वै ॥ २१ ॥
इस प्रकार निर्मल जलवाले उस वनमें रहते हुए उस ब्राह्मणके चौदह वर्ष बीत गये; पर उसने न कोई जप किया, न आराधना की और न कोई मन्त्र ही वह जान सका, केवल उसने वनमें रहकर कालक्षेप ही किया ॥ २१ ॥

जानाति तस्य विततं व्रतमेव लोकः
     सत्यं वदत्यपि मुनिः किल नामजातम् ।
जातं यशश्‍च सकलेषु जनेषु कामं
     सत्यव्रतोऽयमनिशं न मृषाभिभाषी ॥ २२ ॥
वहाँके लोग केवल उसके इस प्रसिद्ध व्रतको जानते थे कि यह मुनि सदा सत्य बोलता है । अत: सब लोगोंमें उसका यह सुयश फैल गया कि यह सदा सत्यव्रती है और मिथ्याभाषी नहीं ॥ २२ ॥

तत्रैकदा तु मृगयां रममाण एव
     प्राप्तो निषादनिशठो धृतचापबाणः ।
क्रीडन् वनेऽतिविपुले यमतुल्यदेहः
     क्रूराकृतिर्हननकर्मणि चातिदक्षः ॥ २३ ॥
एक दिन आखेट करता हुआ एक महान् मूर्ख निषाद हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए उसी गहन वनमें आ पहुँचा । यमराजके समान शरीर तथा भीषण आकृतिवाला वह निषाद आखेट करते समय वधकार्यमें बड़ा ही कुशल जान पड़ता था ॥ २३ ॥

तेनातिकृष्टेन शरेण विद्धः
     कोलः किरातेन धनुर्धरेण ।
पलायमानो भयविह्वलश्‍च
     मुनेः समीपं विद्रुतो जगाम ॥ २४ ॥
उस धनुर्धारी किरातने एक सूअरको लक्ष्य करके बड़े जोरसे खींचकर बाण चलाया । तब बाणसे बिंधा हुआ वह सूअर भयभीत होकर भागता हुआ उस मुनिके समीप जा पहुँचा ॥ २४ ॥

विकंपमानो रुधिरार्द्रदेहो
     यदा जगामाश्रममण्डलं वै ।
कालस्तदातीव दयार्द्रभावं
     प्राप्तो मुनिस्तत्र समीक्ष्य दीनम् ॥ २५ ॥
अग्रे व्रजन्तं रुधिरार्द्रदेहं
     दृष्ट्वा मुनिः सूकरमाशु विद्धम् ।
दयाभिवेशादतिकम्पमानः
     सारस्वतं बीजमथोच्चचार ॥ २६ ॥
जब वह सूअर आश्रम-परिधिमें पहुँचा तो भयसे काँप रहा था और उसका शरीर रक्तसे लथपथ था । उस बेचारेको इस दशामें देखकर उस समय सत्यव्रतमुनि अत्यन्त दयाचित्त हो गये । रक्तसे सराबोर शरीरवाले उस आहत सूअरको अपने आगेसे जाते देखकर दयाके अतिरेकसे काँपते हुए मुनिने बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण किया ॥ २५-२६ ॥

अज्ञातपूर्वं च तथाश्रुतञ्च
     दैवान्मुखे वै समुपागतञ्च ।
न ज्ञातवान्बीजमसौ विमूढो
     ममज्ज शोके स मुनिर्महात्मा ॥ २७ ॥
उन्हें इसके पूर्व न तो इस मन्त्रका ज्ञान था और न उन्होंने कभी इसे सुना ही था; दैवयोगसे ही उनके मुखसे यह मन्त्र निकल पड़ा । अब भी उन विमूढ़को नहीं मालूम था कि यह सारस्वत बीजमन्त्र है । वे महात्मा सत्यव्रतमुनि तो उस घायल सूअरके शोकमें डूबे हुए थे ॥ २७ ॥

कोलः प्रविश्याश्रममण्डलं तद्
     गतो निकुञ्जे प्रविलीय गूढम् ।
अप्राप्तमार्गो दृढनिर्विण्णचेताः
     प्रवेपमानः शरपीडितत्वात् ॥ २८ ॥
इसी बीच बाणकी पीड़ाके कारण अत्यन्त सन्तप्तचित्त तथा काँपते हुए शरीरवाला वह सूअर कोई दूसरा मार्ग न पाकर सत्यव्रतके आश्रममण्डलमें प्रविष्ट होकर कहीं झाड़ीमें छिप गया ॥ २८ ॥

ततः क्षणादाकरणान्तकृष्टं
     चापं दधानोऽतिकरालदेहः ।
प्राप्तस्तदन्ते स च मृग्यमाणो
     निषादराजः किल काल एव ॥ २९ ॥
थोड़ी देर बाद कानतक खींचे धनुषको धारण किये हुए दूसरे कालके समान विकराल देहवाला वह निषादराज भी उस सूअरको खोजता हुआ मुनिके निकट आ पहुँचा । ॥ २९ ॥

दृष्ट्वा मुनिं तत्र कुशासने स्थितं
     नाम्ना तु सत्यव्रतमद्वितीयम् ।
व्याधः प्रणम्य प्रमुखे स्थितोऽसौ
     पप्रच्छ कोलः क्व गतो द्विजेश ॥ ३० ॥
वहाँ कुशासनपर बैठे हुए अद्वितीय सत्यव्रतमुनिको देखकर वह व्याध प्रणाम करके उनके सामने खड़ा हो गया और पूछने लगा-हे द्विजराज ! वह सूअर कहाँ गया ? ॥ ३० ॥

जानामि तेऽहं सुव्रतं प्रसिद्धं
     तेनाद्य पृच्छे मम बाणविद्धः ।
क्षुधार्दितं मे सकलं कुटुम्बं
     विभर्तुकामः किल आगतोऽस्मि ॥ ३१ ॥
मैं आपके सत्यभाषणके प्रसिद्ध व्रतको जानता हूँ इसीलिये पूछता हूँ कि मेरे बाणसे घायल हुआ वह सूअर किधर गया ? मेरा सारा परिवार भूखसे पीड़ित है । मैं उनकी क्षुधा-शान्तिकी इच्छासे ही यहाँ आया हूँ ॥ ३१ ॥

वृत्तिर्ममैषा विहिता विधात्रा
     नान्याऽस्ति विप्रेन्द्र ऋतं ब्रवीमि ।
भर्तव्यमेवेह कुटुम्बमञ्जसा
     केनाप्युपायेन शुभाशुभेन ॥ ३२ ॥
हे विप्रेन्द्र ! विधाताने मेरी यही जीविका निर्धारित की है । इसके अतिरिक्त मेरा दूसरा कोई साधन नहीं है, यह मैं सत्य कहता हूँ । अच्छे-बुरे किसी भी उपायसे अपने परिवारका पालन-पोषण तो निश्चितरूपसे करना ही चाहिये ॥ ३२ ॥

सत्यं ब्रवीत्वद्य सत्यव्रतोऽसि
     क्षुधातुरो वर्तते पोष्यवर्गः ।
क्वासो गतः सूकरो बाणविद्धः
     पृच्छाम्यहं वाडव ब्रूहि तूर्णम् ॥ ३३ ॥
आप सत्यव्रत हैं, अतः मुझे अब सच-सच बता दीजिये । मेरा सारा कुटुम्ब भूखसे व्याकुल है । अत: हे विप्र ! मैं आपसे पुनः पूछ रहा हूँ कि मेरे बाणसे घायल वह सूअर किधर गया है ? आप मुझे शीघ्र बता दें ॥ ३३ ॥

तेनेति पृष्टः स मुनिर्महात्मा
     वितर्कमग्नः प्रबभूव कामम् ।
सत्यव्रतं मेऽद्य भवेन्न भग्नं
     न दृष्ट इत्युच्चरितेन किं वै ॥ ३४ ॥
उस व्याधके इस प्रकार बार-बार पूछनेपर महात्मा सत्यव्रतमुनि बड़े असमंजसमें पड़ गये और मनमें सोचने लगे कि अब मैं क्या करूँ ? जिससे मेरा सत्यव्रत नष्ट न हो और मुझे यह भी न कहना पड़े कि 'मैंने उसे नहीं देखा है' ॥ ३४ ॥

गतोऽत्र कोलः शरविद्धदेहः
     कथं ब्रवीम्यद्य मृषाऽमृषा वा ।
क्षुधार्दितोऽयं परिपृच्छतीव
     दृष्ट्वा हनिष्यत्यपि सूकरं वै ॥ ३५ ॥
'तुम्हारे बाणसे घायल वह सूअर भाग गया । ' यह मिथ्या मैं कैसे कहूँ ? और यदि इसे सच बता देता हूँ तो यह क्षुधासे आतुर होकर बार-बार सूअरको पूछ रहा है, अत: उसे खोजकर अवश्य ही मार डालेगा ॥ ३५ ॥

सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिंसा
     दयान्वितं चानृतमेव सत्यम् ।
हितं नराणां भवतीह येन
     तदेव सत्यं न तथाऽन्यथैव ॥ ३६ ॥
वह सत्य वास्तविक सत्य नहीं है जिससे किसी जीवकी हिंसा होती हो तथा वह असत्य भी सत्य ही है, जो दयासे युक्त हो । जिसके द्वारा प्राणियोंका कल्याण हो, वही सत्य है और जो इसके विपरीत है, वह असत्य है ॥ ३६ ॥

हितं कथं स्यादुभयोर्विरुद्धयो-
     स्तदुत्तरं किं न यथा मृषा वचः ।
विचारयन्वाडव धर्मसङ्कटे
     न प्राप वक्तुं वचनं यथोचितम् ॥ ३७ ॥
इन परस्पर विरोधी प्रसंगोंमें मेरा हित कैसे हो ! मैं क्या उत्तर दूं, जिससे मेरी बात झूठी न हो । [लोमशमुनिने कहा]-हे ब्राह्मण ! ऐसा विचार करत हुए वे सत्यव्रतमुनि धर्मसंकटमें पड़ गये और व्याधको यथोचित उत्तर नहीं दे सके ॥ ३७ ॥

बाणाहतं वीक्ष्य दयान्वितञ्च
     कोलं तदन्ते समुदाहृतं वचः ।
तेन प्रसन्ना निजबीजतः शिवा
     विद्यां दुरापां प्रददौ च तस्मै ॥ ३८ ॥
बाणसे आहत सूअरको देखकर मुनि सत्यव्रतके द्वारा जो करुणायुक्त 'ऐ-ऐ' शब्द उच्चरित हो गया था; उस अपने बीजमन्त्रसे प्रसन्न होकर भगवती शिवाने उन्हें दुर्लभ विद्या दे दी ॥ ३८ ॥

बीजोच्चारणतो देव्या विद्या प्रस्फुरिताखिला ।
वाल्मीकेश्‍च यथापूर्वं तथा स ह्यभवत्कविः ॥ ३९ ॥
देवीके बीजमन्त्रका उच्चारण करते ही मुनि सत्यव्रतके हृदयमें समस्त विद्याएँ प्रस्फुटित हो गयीं और वे उसी प्रकार कवि हो गये, जिस प्रकार पूर्वकालमें महर्षि वाल्मीकि ॥ ३९ ॥

तमुवाच द्विजो व्याधं सम्मुखस्थं धनुर्धरम् ।
सत्यकामस्तु धर्मात्मा श्लोकमेकं दयापरः ॥ ४० ॥
या पश्यति न सा ब्रूते या ब्रूते सा न पश्यति ।
अहो व्याध स्वकार्यार्थिन् किं पृच्छसि पुनः पुनः ॥ ४१ ॥
तत्पश्चात् सत्यकाम, धर्मात्मा तथा दयालु ब्राह्मण सत्यव्रतने अपने सामने खड़े उस धनुर्धारी व्याधसे एक श्लोक इस प्रकार कहा-जो (आँख) देखती है, वह बोलती नहीं है और जो (वाणी) बोलती है, वह देखती नहीं । अतः अपने ही प्रयोजनकी सिद्धिमें तत्पर हे व्याध ! तुम बार-बार क्यों पूछ रहे हो ? ॥ ४०-४१ ॥

इत्युक्तस्तु तदा तेन गतोऽसौ पशुहा पुनः ।
निराशः सूकरे तस्मिन्परावृत्तो निजालये ॥ ४२ ॥
उस मुनिके ऐसा कहनेपर पशुओंका वध करनेवाला वह व्याध उस सूअरसे निराश होकर अपने घर लौट गया ॥ ४२ ॥

ब्राह्मणस्तु कविर्जातः प्राचेतस इवापरः ।
प्रसिद्धः सर्वलोकेषु नाम्ना सत्यव्रतो द्विजः ॥ ४३ ॥
इस प्रकार वे सत्यव्रत नामक ब्राह्मण दूसरे वाल्मीकिके समान कवि हो गये और समस्त लोकोंमें प्रख्यात हो गये ॥ ४३ ॥

सारस्वतं ततो बीजं जजाप विधिपूर्वकम् ।
पण्डितश्‍चातिविख्यातो द्विजोऽसौ धरणीतले ॥ ४४ ॥
तत्पश्चात् उन सत्यव्रतब्राह्मणने सारस्वत बीजमन्त्रका विधिपूर्वक जप किया और वे पृथ्वीतलपर पण्डितके रूपमें अत्यधिक विख्यात हो गये ॥ ४४ ॥

प्रतिपर्वसु गायन्ति ब्राह्मणा यद्यशः सदा ।
आख्यानं चातिविस्तीर्ण स्तुवन्ति मुनयः किल ॥ ४५ ॥
अब ब्राह्मणलोग प्रत्येक पर्वपर उनका यशोगान करने लगे और मुनिगण उनके विस्तृत आख्यानकी निरन्तर प्रशंसा करने लगे ॥ ४५ ॥

तच्छ्रुत्वा सदनं तस्य समागम्य तदाश्रमे ।
येन त्यक्तः पुरा तेन गृहं नीतोऽतिमानितः ॥ ४६ ॥
उनका महान् यश सुनकर उनके परिवारके वे ही लोग, जिन्होंने उन्हें पहले त्याग दिया था, उनके आश्रममें आकर विशेष आदर-सम्मानके साथ उन्हें घर ले गये ॥ ४६ ॥

तस्माद्‌राजन्सदा सेव्या पूजनीया च भक्तितः ।
आदिशक्तिः परा देवी जगतां कारणं हि सा ॥ ४७ ॥
अतः हे राजन् ! उन आदिशक्ति तथा जगत्की कारणस्वरूपा परादेवीकी सदा भक्तिपूर्वक सेवा तथा पूजा करनी चाहिये ॥ ४७ ॥

तस्या यज्ञं महाराज कुरु वेदविधानतः ।
सर्वकामप्रदं नित्यं निश्‍चयं कथितं पुरा ॥ ४८ ॥
हे महाराज ! आप मेरे द्वारा पहले ही बताये गये सर्वकामप्रदायक अम्बामखका अनुष्ठान वैदिक विधिके अनुसार नित्य नियमपूर्वक कीजिये ॥ ४८ ॥

स्मृता सम्पूजिता भक्त्या ध्याता चोच्चारिता स्तुता ।
ददाति वाञ्छितानर्थान्कार्यदा तेन कीर्त्यते ॥ ४९ ॥
वे भगवती स्मरण करने, पूजा करने, श्रद्धापूर्वक ध्यान करने, नामोच्चारण करने तथा स्तुति करनेसे [परम प्रसन्न होकर] सभी इच्छित मनोरथोंको पूर्ण कर देती हैं । इसीलिये वे 'कामदा' कही जाती हैं ॥ ४९ ॥

अनुभावमिदं राजन् कर्तव्यं सर्वथा बुधैः ।
दृष्ट्वा रोगयुतान्दीनान्क्षुधितान्निर्धनाञ्छठान् ॥ ५० ॥
जनानार्तांस्तथा मूर्खान्पीडितान्वैरिभिः सदा ।
दासानाज्ञाकरान्क्षुद्रान्विकलान्विह्वलानथ ॥ ५१ ॥
अतृप्तान्भोजने भोगे सदार्तानजितेन्द्रियान् ।
तृष्णाधिकानशक्तांश्‍च सदाधिपरिपीडितान् ॥ ५२ ॥
तथा विभवसम्पन्नान् पुत्रपौत्रविवर्धनान् ।
पुष्टदेहांश्‍च सम्भोगैः संयुतान्वेदवादिनः ॥ ५३ ॥
राजलक्ष्म्या युताञ्छूरान्वशीकृतजनानथ ।
स्वजनैरवियुक्तांश्‍च सर्वलक्षणलक्षितान् ॥ ५४ ॥
व्यतिरेकान्वयाभ्यां च विचेतव्यं विचक्षणैः ।
एभिर्न पूजिता देवी सर्वार्थफलदा शिवा ॥ ५५ ॥
समाराधिता च तथा नृभिरेभिः सदाम्बिका ।
यतोऽमी सुखिनः सर्वे संसारेऽस्मिन्न संशयः ॥ ५६ ॥
हे राजन् ! रुग्ण, दीन, क्षुधापीड़ित, धनहीन, शठ, दुःखी, मूर्ख, शत्रुओंसे सदा प्रताड़ित, आज्ञाके अधीन रहनेवाले दास, क्षुद्र, विकल, अशान्त, भोजन तथा भोगसे अतृप्त, सदा कष्टमें रहनेवाले, अजितेन्द्रिय, अधिक तृष्णायुक्त, शक्तिहीन तथा सदैव मानसिक रोगोंसे पीड़ित रहनेवाले प्राणियोंको देखकर बुद्धिमानोंको यह अनुमान कर लेना चाहिये कि इन लोगोंने भगवतीकी सम्यक् उपासना नहीं की है । इसी प्रकार वैभवयुक्त, पुत्र-पौत्रादिसे सम्पन्न, हृष्ट-पुष्ट शरीरवाले, भोगयुक्त, वेदवादी, राजलक्ष्मीसे सम्पन्न, पराक्रमी, लोगोंको अपने वशमें रखनेवाले, स्वजनोंके साथ आनन्दपूर्वक रहनेवाले और समस्त उत्तम लक्षणोंसे युक्त लोगोंको देखकर यह अनुमान कर लेना चाहिये कि इन लोगोंने भगवतीकी उपासना की है । इस प्रकार पण्डितजनोंको व्यतिरेक-अन्वयके क्रमसे यह जान लेना चाहिये कि उपर्युक्त [दीन आदि] लोगोंने सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली शिवाकी पूजा नहीं की है तथा उपर्युक्त [विभवयुक्त] लोगोंने भगवती अम्बाकी सर्वदा विधिपूर्वक आराधना की है, जिससे ये सभी लोग इस संसारमें सुखी हैं । इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है । ५०-५६ ॥

व्यास उवाच
इति राजञ्छ्रुतं तत्र मया मुनिसमागमे ।
लोमशस्य मुखात्कामं देवीमाहात्म्यमुत्तमम् ॥ ५७ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! मैंने नैमिषारण्यतीर्थमें मुनियोंके समाजमें लोमशऋषिके मुखसे भगवतीका यह अत्युत्तम माहात्म्य सुना । ५७ ॥

इति सञ्चिन्त्य राजेन्द्र कर्तव्यं च सदार्चनम् ।
भक्त्या परमया देव्याः प्रीत्या च पुरुषर्षभ ॥ ५८ ॥
हे राजेन्द्र ! हे पुरुषश्रेष्ठ ! इसपर सम्यक् विचार करके परम भक्तिके साथ प्रेमपूर्वक भगवतीकी सदा अर्चना करनी चाहिये ॥ ५८ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सत्यव्रताख्यानवर्णनं नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
अध्याय ग्यारहवाँ समाप्त


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