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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
द्वादशोऽध्यायः

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अम्बायज्ञविधिवर्णनम् -
सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन; मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी-यज्ञके लिये प्रेरित करना -


राजोवाच
वद यज्ञविधिं सम्यग्देव्यास्तस्याः समन्ततः ।
श्रुत्वा करोम्यहं स्वामिन्यथाशक्ति ह्यतन्द्रितः ॥ १ ॥
राजा बोले-हे स्वामिन् ! अब आप उन देवीके यज्ञकी विधिका पूर्णरूपसे सम्यक् वर्णन कीजिये । उसे सुनकर मैं यथाशक्ति प्रमादरहित होकर वह यज्ञ करूँगा ॥ १ ॥

पूजाविधिं च मन्त्रांश्‍च होमद्रव्यमसंशयम् ।
ब्राह्मणाः कतिसंख्याश्च दक्षिणाश्चतथा पुनः ॥ २ ॥

उस यज्ञकी पूजा विधि, उसके मन्त्र, होमद्रव्य, उसमें कितने ब्राह्मण हों और दक्षिणा-इन सभीके बारेमें नि:संकोच बताइये ॥ २ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि देव्या यज्ञं विधानतः ।
त्रिविधं तु सदा ज्ञेयं विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ३ ॥
सात्त्विकं राजसं चैव तामसं च तथापरम् ।
मुनीनां सात्त्विकं प्रोक्तं नृपाणां राजसं स्मृतम् ॥ ४ ॥
तामसं राक्षसानां वै ज्ञानिनां तु गुणोज्झितम् ।
विमुक्तानां ज्ञानमयं विस्तरात्प्रब्रवीमि ते ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! सुनिये, अब मैं आपसे देवीके यज्ञका विधानपूर्वक वर्णन करूँगा । अनुष्ठानमें विहित कर्मके अनुसार यह यज्ञ सात्त्विक, राजस तथा तामस भेदसे सदा तीन प्रकारका समझा जाना चाहिये । मुनियोंके लिये सात्त्विक यज्ञ, राजाओंके लिये राजस यज्ञ, राक्षसोंके लिये तामस यज्ञ, ज्ञानियोंके लिये निर्गुण यज्ञ और वैराग्ययुक्त लोगोंके लिये ज्ञानमय यज्ञ कहा गया है; मैं आपसे विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ ॥ ३-५ ॥

देशः कालस्तथा द्रव्यं मन्त्राश्‍च ब्राह्मणास्तथा ।
श्रद्धा च सात्वकी यत्र तं यज्ञं सात्त्विकं विदुः ॥ ६ ॥
जिस यज्ञमें देश, काल, द्रव्य, मन्त्र, ब्राह्मण तथा श्रद्धा-ये सब सात्त्विक हों; उसे सात्त्विक यज्ञ कहा गया है ॥ ६ ॥

द्रव्यशुद्धिः क्रियाशुद्धिर्मन्त्रशुद्धिश्‍च भूमिप ।
भवेद्यदि तदा पूर्णं फलं भवति नान्यथा ॥ ७ ॥
हे भूपाल ! यदि द्रव्यशुद्धि, क्रियाशुद्धि और मन्त्रशुद्धिके साथ यज्ञ सम्पन्न होता है, तब पूर्ण फलकी प्राप्ति अवश्य होती है; अन्यथा नहीं होती ॥ ७ ॥

अन्यायोपार्जितेनैव कर्तव्यं सुकृतं कृतम् ।
न कीर्तिरिह लोके च परलोके न तत्फलम् ॥ ८ ॥
तस्मान्न्यायार्जितेनैव कर्तव्यं सुकृतं सदा ।
यशसे परलोकाय भवत्येव सुखाय च ॥ ९ ॥
अन्यायके द्वारा उपार्जित किये गये धनसे यदि पुण्य-कार्य किया जाता है तो इस लोकमें यशकी प्राप्ति नहीं होती और परलोकमें उसका कोई फल भी नहीं मिलता है, इसलिये न्यायपूर्वक उपार्जित धनसे ही सदा पुण्यकार्य करना चाहिये । ऐसा कार्य इस लोकमें कीर्ति तथा परलोकमें आनन्दके लिये होता है ॥ ८-९ ॥

प्रत्यक्षं तव राजेन्द्र पाण्डवैस्तु मखः कृतः ।
राजसूयः क्रतुवरः समाप्तवरदक्षिणः ॥ १० ॥
यत्र साक्षाद्धरिः कृष्णो यादवेन्द्रो महामनाः ।
ब्राह्मणाः पूर्णविद्याश्‍च भारद्वाजादयस्तथा ॥ ११ ॥
कृत्वा यज्ञं सुसम्पूर्णं मासमात्रेण पाण्डवैः ।
प्राप्तं महत्तरं कष्टं वनवासश्‍च दारुणः ॥ १२ ॥
हे राजेन्द्र ! आपके सामने इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है । पाण्डवोंने यज्ञोंमें उत्तम राजसूय यज्ञ किया था, जिसकी समाप्तिपर उन्होंने श्रेष्ठ दक्षिणा भी दी थी, जिसमें महामनस्वी यादवेन्द्र साक्षात् भगवान् कृष्ण विद्यमान थे और भारद्वाज आदि पूर्णतः विद्यानिष्ठ ब्राह्मणोंने जिस यज्ञका सम्पादन किया था, उस यज्ञको विधिवत् सम्पन्न करनेके पश्चात् एक मासके भीतर ही पाण्डवोंको महान् कष्ट प्राप्त हुआ तथा कठोर वनवास भोगना पड़ा ॥ १०-१२ ॥

पीडनञ्चैव पाञ्चाल्यास्तथा द्यूते पराजयः ।
वनवासो महत्कष्टं क्व गतं मखजं फलम् ॥ १३ ॥
द्रौपदीका अपमान हुआ, युधिष्ठिरकी जुएमें पराजय हुई, पाण्डवोंको वनवास हुआ और उन्हें तरह-तरहका घोर कष्ट मिला, तब यज्ञसे होनेवाला फल कहाँ चला गया ? ॥ १३ ॥

दासत्वञ्च विराटस्य कृतं सर्वमहात्मभिः ।
कीचकेन परिक्लिष्टा द्रौपदी च प्रमद्वरा ॥ १४ ॥
आशीर्वादा द्विजातीनां क्व गताः शुद्धचेतसाम् ।
भक्तिर्वा वासुदेवस्य क्व गता तत्र संकटे ॥ १५ ॥
महामनस्वी पाण्डवोंको राजा विराटकी दासता करनी पड़ी और नारियोंमें श्रेष्ठ द्रौपदीको कीचकने प्रताड़ित किया । उस संकटकालमें विशुद्ध हृदयवाले ब्राह्मणोंके आशीर्वाद कहाँ चले गये थे और कृष्णकी भक्ति कहाँ चली गयी थी ? ॥ १४-१५ ॥

न रक्षिता तदा बाला केनापि द्रुपदात्मजा ।
प्राप्तकेशग्रहा काले साध्वी च वरवर्णिनी ॥ १६ ॥
जिस समय परम सुन्दरी पतिव्रता द्रौपदीको बाल पकड़कर घसीटा जा रहा था, उस समय उस बेचारीकी रक्षा किसीने भी नहीं की ॥ १६ ॥

किमत्र चिन्तनीयं वै धर्मवैगुण्यकारणम् ।
केशवे सति देवेशे धर्मपुत्रे युधिष्ठिरे ॥ १७ ॥
जिस यज्ञमें देवाधीश भगवान् श्रीकृष्ण रहे हों और जिस यज्ञके कर्ता धर्मराज युधिष्ठिर हों, उस यज्ञका विपरीत फल मिलनेका कारण अवश्य ही धर्मानुष्ठानमें कोई कमी रही होगी-ऐसा समझना चाहिये ॥ १७ ॥

भवितव्यमिति प्रोक्ते निष्फलः स्यात्तदागमः ।
वेदमन्त्रास्तथान्ये च वितथाः स्युरसंशयम् ॥ १८ ॥
साधनं निष्फलं सर्वमुपायश्च निरर्थकः ।
भवितव्यं भवत्येव वचने प्रतिपादके ॥ १९ ॥
आगमोऽप्यर्थवादः स्यात्क्रियाः सर्वा निरर्थकाः ।
स्वर्गार्थञ्च तपो व्यर्थं वर्णधर्मश्‍च वै तथा ॥ २० ॥
सर्वं प्रमाणं व्यर्थं स्याद्‌भवितव्ये कृते हृदि ।
उभयञ्चापि मन्तव्यं दैवं चोपाय एव च ॥ २१ ॥
यदि कहा जाय कि प्रारब्ध ही ऐसा था तो सभी शास्त्र निष्फल हो जायेंगे और वेद-मन्त्र तथा अन्य धर्मग्रन्थ निरर्थक सिद्ध होंगे । इसमें संशय नहीं है । प्रारब्ध तो अवश्यम्भावी है, इस कथनको यदि स्वीकार कर लिया जाय तो सभी साधन निष्फल और सभी उपाय व्यर्थ हो जायेंगे सभी वेद-शास्त्र अर्थवादके रूपमें परिणत हो जायेंगे, सभी क्रियाएँ निरर्थक हो जायेंगी और स्वर्गप्राप्तिके लिये तप तथा वर्ण-धर्म सब व्यर्थ हो जायेंगे । केवल प्रारब्धको ही हदयमें धारण करनेसे सभी प्रमाण व्यर्थ हो जायँगे । अतएव भाग्य तथा उपाय दोनोंको मानना चाहिये ॥ १८-२१ ॥

कृते कर्मणि चेत्सिद्धिर्विपरिता यदा भवेत् ।
वैगुण्यं कल्पनीयं स्यात्प्राज्ञैः पण्डितमौलिभिः ॥ २२ ॥
कर्म करनेपर भी यदि विपरीत परिणाम प्राप्त होता है तो पण्डितशिरोमणि विद्वानोंको सोचना चाहिये कि कार्य करनेमें कोई कमी अवश्य रह गयी थी ॥ २२ ॥

तत्कर्म बहुधा प्रोक्तं विद्वद्‌भिः कर्मकारिभिः ।
कर्तृभेदान्मन्त्रभेदाद्‌द्रव्यभेदात्तथा पुनः ॥ २३ ॥
कर्मशील विद्वानोंने कर्तृभेद, मन्त्रभेद तथा द्रव्यभेदसे उस कर्मको अनेक प्रकारवाला बताया है ॥ २३ ॥

यथा मघवता पूर्वं विश्वरूपो वृतो गुरुः ।
विपरीतं कृतं तेन कर्म मातृहिताय वै ॥ २४ ॥
देवेभ्यो दानवेभ्यस्तु स्वस्तीत्युक्त्वा पुनः पुनः ।
असुरा मातृपक्षीयाः कृतं तेषाञ्च रक्षणम् ॥ २५ ॥
दैत्यान् दृष्ट्वातिसम्पुष्टांश्‍चुकोप मघवा तदा ।
शिरांसि तस्य वज्रेण चिच्‍छेद तरसा हरिः ॥ २६ ॥
पूर्वकालमें इन्द्रने यज्ञमें आचार्यक रूपमें विश्वरूपका वरण किया था । उस विश्वरूपने अपने मातृपक्षके दानवोंके हितार्थ विपरीत कार्य किया । देवताओं तथा दानवों दोनोंका कल्याण हो-ऐसा बार-बार कहकर उसने मातृपक्षके जो असुर थे, उनकी भी रक्षा की । तदनन्तर दानवोंको अत्यन्त हष्ट-पुष्ट देखकर इन्द्र कुपित हो उठे और उन्होंने वज्रसे तत्काल उस विश्वरूपके सिर काट दिये ॥ २४-२६ ॥

क्रियावैगुण्यमत्रैव कर्तृभेदादसंशयम् ।
नोचेत्पञ्चालराजेन रोषेणापि कृता क्रिया ॥ २७ ॥
भारद्वाजविनाशाय पुत्रस्योत्पादनाय च ।
धृष्टद्युम्नः समुत्पन्नो वेदिमध्याच्च द्रौपदी ॥ २८ ॥
इससे यह निस्सन्देह सिद्ध हो जाता है कि कतकि भेदसे विपरीत फल हो जाता है । यदि इसे न मानें तो ठीक नहीं; क्योंकि पञ्चालनरेश द्रुपदने रोषपूर्वक द्रोणाचार्यके नाशके निमित्त एक पुत्र उत्पन्न होनेके लिये यज्ञ किया था । [इसके परिणामस्वरूप] यज्ञवेदीके मध्यभागसे धृष्टद्युम्न तथा द्रौपदीये दोनों उत्पन्न हुए ॥ २७-२८ ॥

पुरा दशरथेनापि पुत्रेष्टिस्तु कृता यदा ।
अपुत्रस्य सुतास्तस्य चत्वारः सम्प्रजज्ञिरे ॥ २९ ॥
पूर्वकालमें जब महाराज दशरथने पुत्रेष्टि-यज्ञ किया तो उन पुत्रहीन राजा दशरथके भी चार पुत्र उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥

अतः क्रिया कृता युक्त्या सिद्धिदा सर्वथा भवेत् ।
अयुक्त्या विपरिता स्यात्सर्वथा नृपसत्तम ॥ ३० ॥
अतः हे नृपश्रेष्ठ ! युक्तिपूर्वक किया गया कोई भी कार्य हर प्रकारसे सिद्धि प्रदान करनेवाला होता है और युक्तिपूर्वक न किया गया कार्य सर्वथा विपरीत फल प्रदान करनेवाला होता है ॥ ३० ॥

पाण्डवानां यथा यज्ञे किञ्चिद्वैगुण्ययोगतः ।
विपरीतं फलं प्राप्तं निर्जितास्ते दुरोदरे ॥ ३१ ॥
सत्यवादी तथा राजन् धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।
द्रौपदी च तथा साध्वी तथान्येप्यनुजाः शुभाः ॥ ३२ ॥
कुद्रव्ययोगाद्वैगुण्यं समुत्पन्नं मखेऽथवा ।
साभिमानैः कृताद्वापि दूषणं समुपस्थितम् ॥ ३३ ॥
जैसे पाण्डवॉक यज्ञमें किसी दोषके कारण ही उन्हें विपरीत फल मिला और जुएमें वे हार गये । हे राजन् ! युधिष्ठिर सत्यवादी तथा धर्मपुत्र थे, द्रौपदी भी एक पतिव्रता स्त्री थी एवं युधिष्ठिरके अन्य छोटे भाई भी पुण्यात्मा थे, किंतु अन्यायोपार्जित द्रव्योंके प्रयोगके कारण उस यज्ञमें वैगुण्य उत्पन्न हुआ अथवा उन्होंने अभिमानपूर्वक यज्ञ किया था, जिससे दोष उत्पन्न हुआ । ३१-३३ ॥

सात्त्विकस्तु महाराज दुर्लभो वै मखः स्मृतः ।
वैखानसमुनीनां हि विहितोऽसौ महामखः ॥ ३४ ॥
हे महाराज ! सात्त्विक यज्ञ तो अत्यन्त दुर्लभ माना गया है । वह महायज्ञ केवल वानप्रस्थ मुनियोंक लिये ही विहित है ॥ ३४ ॥

सात्त्विकं भोजनं ये वै नित्यं कुर्वन्ति तापसाः ।
न्यायार्जितञ्च वन्यञ्च तथा ऋष्यं सुसंस्कृतम् ॥ ३५ ॥
पुरोडाशपरा नित्यं वियूपा मन्त्रपूर्वकाः ।
श्रद्धाधिका मखा राजन् सात्त्विकाः परमाः स्मृताः ॥ ३६ ॥
हे राजन् ! तपमें तत्पर जो लोग नित्य न्यायपूर्वक अर्जित किये गये द्रव्य-पदार्थ, वन्य फल-मूल तथा ऋषियोंका सुसंस्कृत सात्त्विक आहार ग्रहण करते हैं-ऐसे तपस्वियोंद्वारा नित्य अतिश्रद्धाक साथ पुरोडाशसे सम्पादित किये जानेवाले समन्त्रक तथा यूपविहीन यज्ञ परम सात्विक यज्ञ कहे गये हैं ॥ ३५-३६ ॥

राजसा द्रव्यबहुलाः सयूपाश्‍च सुसंस्कृताः ।
क्षत्रियाणां विशाञ्चैव साभिमानाश्‍च वै मखाः ॥ ३७ ॥
जिस यज्ञमें अधिक धन व्यय किया जाता है. जिसमें पशु-बलिके लिये सुन्दर यूप गाड़े जाते हैं तथा जो अभिमानके साथ किये जाते हैं-क्षत्रियों तथा वैश्योंद्वारा सम्पादित किये जानेवाले वे यज्ञ राजस यज्ञ कहे गये हैं ॥ ३७ ॥ ।

तामसा दानवानां वै सक्रोधा मदवर्धकाः ।
सामर्षाः संस्कृताः क्रूरा मखाः प्रोक्ता महात्मभिः ॥ ३८ ॥
महात्माओंने दानवोंद्वारा किये जानेवाले यज्ञोंक तामस यज्ञ कहा है । ऐसे यज्ञ क्रोधभावनाके साथ किये जाते हैं, अहंकारको बढ़ानेवाले होते हैं. ईर्ष्यापूर्वक किये जाते हैं और बड़ी साज-सज्जा तथा क्रूरताके साथ सम्पन्न किये जाते हैं ॥ ३८ ॥

मुनीनां मोक्षकामानां विरक्तानां महात्मनाम् ।
मानसस्तु स्मृतो यागः सर्वसाधनसंयुतः ॥ ३९ ॥
मोक्षकी कामना करनेवाले विरक्त मुनि-महात्माओंक लिये सर्वसाधनसम्पन्न मानस-यज्ञ बताया गया है ॥ ३९ ॥

अन्येषु सर्वयज्ञेषु किञ्चिन्न्यूनं भवेदपि ।
द्रव्येण श्रद्धया वाऽपि क्रियया ब्राह्मणैस्तथा ॥ ४० ॥
देशकालपृथग्द्रव्यसाधनैः सकलैस्तथा ।
नान्यो भवति पूर्णे वै तथा भवति मानसः ॥ ४१ ॥
अन्य सभी यज्ञोंमें कुछ कमी हो भी सकती है: क्योंकि वे द्रव्य, श्रद्धा, कर्म, ब्राह्मण, देश, काल तथा अन्य द्रव्यसाधनोंसे सम्पन्न किये जाते हैं । अत: अन्य यज्ञ वैसा पूर्ण नहीं होता, जैसा मानस-यज्ञ सदैव पूर्ण हो जाता है । ४०-४१ ॥

प्रथमं तु मनः शोध्यं कर्तव्यं गुणवर्जितम् ।
शुद्धे मनसि देहो वै शुद्ध एव न संशयः ॥ ४२ ॥
[इस यज्ञके लिये] सर्वप्रथम मनको परिशुद्ध तथा गुणसे रहित बनाना चाहिये । मनके शुद्ध हो जानेपर शरीरकी शुद्धि स्वतः हो जाती है, इसमें संशय नहीं है ॥ ४२ ॥

इन्द्रियार्थपरित्यक्तं यदा जातं मनः शुचि ।
तदा तस्य मखस्यासौ प्रभवेदधिकारवान् ॥ ४३ ॥
जब मनुष्यका मन इन्द्रियोंके विषयोंका परित्याग करके पवित्र हो जाता है, तभी वह उस मानसयज्ञको करनेका अधिकारी होता है ॥ ४३ ॥

तदाऽसौ मण्डपं कृत्वा बहुयोजनविस्तृतम् ।
स्तम्भैश्‍च विपुलैः श्लक्ष्णैर्यज्ञियद्रुमसम्भवैः ॥ ४४ ॥
वेदीं च विशदां तत्र मनसा परिकल्पयेत् ।
अग्नयोऽपि तथा स्थाप्या विधिवन्मनसा किल ॥ ४५ ॥
तत्पश्चात् वह अपने मनमें पवित्र यज्ञीय वृक्षोंसे निर्मित, अनेक सुन्दर-सुन्दर स्तम्भोंसे अलंकृत तथा अनेक योजन विस्तारवाले यज्ञमण्डपकी रचना करके उसमें मन-ही-मन एक विशाल यज्ञवेदीकी कल्पना करे और उसपर मानसिक अग्निकी विधिपूर्वक स्थापना करे ॥ ४४-४५ ॥

ब्राह्मणानाञ्च वरणं तथैव प्रतिपाद्य च ।
ब्रह्माध्वर्युस्तथा होता प्रस्तोता विधिपूर्वकम् ॥ ४६ ॥
उद्‌गाता प्रतिहर्ता च सभ्याश्‍चान्ये यथाविधि ।
पूजनीयाः प्रयत्‍नेन मनसैव द्विजोत्तमाः ॥ ४७ ॥
उसी प्रकार [मनमें] ब्राह्मणोंका वरण करके ब्रह्मा, अध्वर्यु, होता, प्रस्तोता, उद्गाता, प्रतिहर्ता तथा अन्य सभासदोंको नियुक्त करके यथोचित रूपसे प्रयत्नपूर्वक मनसे उनकी पूजा करनी चाहिये ॥ ४६-४७ ॥

प्राणोऽपानस्तथा व्यानः समानोदान एव च ।
पावकाः पञ्च एवैते स्थाप्या वेद्यां विधानतः ॥ ४८ ॥
प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान-इन पाँचों अग्नियोंको यज्ञवेदीपर विधानपूर्वक स्थापित करना चाहिये ॥ ४८ ॥

गार्हपत्यस्तदा प्राणोऽपानश्‍चाहवनीयकः ।
दक्षिणाग्निस्तथा व्यानः समानश्‍चावसथ्यकः ॥ ४९ ॥
सभ्योदानः स्मृता ह्येते पावकाः परमोत्कटाः ।
द्रव्यञ्च मनसा भाव्यं निर्गुणं परमं शुचि ॥ ५० ॥
उनमें प्राणको गार्हपत्य अग्नि, अपानको आहवनीय अग्नि, व्यानको दक्षिणाग्नि, समानको आवसथ्य अग्नि तथा उदानको सभ्य अग्नि कहा गया है । ये पाँचों परम तेजस्वी हैं । इस यज्ञमें मानसिक रूपसे ही दोषरहित तथा परम पवित्र सामग्रियोंकी भी कल्पना करनी चाहिये ॥ ४९-५० ॥

मन एव तदा होता यजमानस्तथैव तत् ।
यज्ञाधिदेवता ब्रह्म निर्गुणं च सनातनम् ॥ ५१ ॥
इस यजमें होता तथा यजमान दोनोंके रूपमें मन ही होता है । निर्गुण तथा अविनाशी ब्रह्म इस यज्ञमें अधिदेवता होते हैं ॥ ५१ ॥

फलदा निर्गुणा शक्तिः सदा निर्वेददा शिवा ।
ब्रह्मविद्याखिलाधारा व्याप्य सर्वत्र संस्थिता ॥ ५२ ॥
निर्गुणा पराशक्ति सभी फलोंको प्रदान करनेवाली हैं । उन वैराग्यदायिनी, कल्याणकारिणी, ब्रह्मविद्या, समस्त जगत्की आधारस्वरूपा तथा जगत्को व्याप्त करके सर्वत्र विराजमान रहनेवाली आदिशक्तिस्वरूपा भगवतीको प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे द्विजको मनःकल्पित हवन-सामग्रियोंकी आहुति अपने प्राणरूपी अग्निमें देनी चाहिये ॥ ५२ ॥

तदुद्देशेन तद्‌द्रव्यं हुनेत्प्राणाग्निषु द्विजः ।
पश्‍चाच्चित्तं निरालम्बं कृत्वा प्राणानपि प्रभो ॥ ५३ ॥
हे प्रभो ! मानस हवनके पश्चात् अपने मनको आलम्बनरहित करके कुण्डलिनीके मुखमार्गसे अर्थात् सुषुम्ना रन्ध्रद्वारा शाश्वत ब्रह्ममें अपने प्राणोंकी भी आहुति दे देनी चाहिये ॥ ५३ ॥

कुण्डलीमुखमार्गेण हुनेद्‌ब्रह्मणि शाश्‍वते ।
स्वानुभूत्या स्वयं साक्षात्स्वात्मभूतां महेश्वरीम् ॥ ५४ ॥
अपनी अनुभूतिसे स्वयंका साक्षात्कार करके तथा महेश्वरीको अपनी आत्मस्वरूपा जानकर समाधियोगसे शान्तचित्त होकर ध्यान करना चाहिये ॥ ५४ ॥

समाधिनैव योगेन ध्यायेच्चेतस्यनाकुलः ।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ॥ ५५ ॥
यदा पश्यति भूतात्मा तदा पश्यति तां शिवाम् ।
दृष्ट्वा तां ब्रह्मविद्‌भूयात्सच्चिदानन्दरूपिणीम् ॥ ५६ ॥
तदा मायादिकं सर्वं दग्धं भवति भूमिप ।
प्रारब्धं कर्ममात्रं तु यावद्देहं च तिष्ठति ॥ ५७ ॥
इस प्रकार जब वह साधक सभी प्राणियोंमें अपने-आपको तथा अपनेमें सभी प्राणियोंको देखने लगता है, तब वह भूतात्मा उन कल्याणस्वरूपा भगवतीका दर्शन प्राप्त कर लेता है और उन सच्चिदानन्दस्वरूपिणीका दर्शन करके ब्रह्मज्ञानी हो जाता है । हे भूपाल ! तब उसका सब मायाजनित प्रपंच जलकर भस्म हो जाता है और केवल प्रारब्धकर्मका भोग करनेके लिये ही शरीर रहता है । ५५-५७ ॥

जीवन्मुक्तस्तदा जातो मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।
कृतकृत्यो भवेत्तात यो भजेज्जगदम्बिकाम् ॥ ५८ ॥
तस्मात्सर्वप्रयत्‍नेन ध्येया श्रीभुवनेश्‍वरी ।
श्रोतव्या चैव मन्तव्या गुरुवाक्यानुसारतः ॥ ५९ ॥
हे तात ! तब वह जीवन्मुक्त हो जाता है और मृत्युके उपरान्त मोक्ष प्राप्त करता है । जो भगवतीको भजता है, वह सब प्रकारसे कृतकृत्य हो जाता है । इसलिये गुरुके वचनोंके अनुसार सम्पूर्ण प्रयत्नके साथ श्रीभुवनेश्वरी भगवतीका ध्यान, उनके चरित्रका श्रवण तथा मनन करना चाहिये ॥ ५८-५९ ॥

राजन्नेवं कृतो यज्ञो मोक्षदो नात्र संशयः ।
अन्ये यज्ञाः सकामास्तु प्रभवन्ति क्षयोन्मुखाः ॥ ६० ॥
हे राजन् ! इस प्रकार किया हुआ यज्ञ मोक्षप्रद होता है । इसमें सन्देह नहीं । इसके अतिरिक्त अन्य सकाम यज्ञ विनाशोन्मुख होते हैं ॥ ६० ॥

अग्निष्टोमेन विधिवत्स्वर्गकामो यजेदिति ।
वेदानुशासनं चैतत्प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ ६१ ॥
क्षीणे पुण्ये मृत्युलोकं विशन्ति च यथामति ।
तस्मात्तु मानसः श्रेष्ठो यज्ञोऽप्यक्षय एव सः ॥ ६२ ॥
मनीषी विद्वान् यह वेदानुशासन बताते हैं कि स्वर्गकी इच्छावालेको विधिपूर्वक अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिये । मेरी समझसे पुण्य क्षीण होनेपर पुनः उन्हें मृत्युलोकमें आना ही पड़ता है, अतः अक्षय फलवाला वह मानस-यज्ञ ही श्रेष्ठ है ॥ ६१-६२ ॥

न राज्ञा साधितुं योग्यो मखोऽसौ जयमिच्छता ।
तामसस्तु कृतः पूर्वं सर्पयज्ञस्त्वयाधुना ॥ ६३ ॥
वैरं निर्वाहितं राजंस्तक्षकस्य दुरात्मनः ।
यत्कृते निहताः सर्पास्त्वया‍ऽग्नौ कोटिशः परे ॥ ६४ ॥
विजयकी इच्छा रखनेवाला राजा इस मानसयज्ञको सम्पन्न नहीं कर सकता । हे राजन् ! अभी कुछ ही समय पूर्व आपने तामस सर्पयज्ञ किया था, जिसमें आपने दुरात्मा तक्षकसे वैरका बदला चुकाया था और उसमें आपने करोड़ों सपौंको अग्निमें जलाकर मार डाला था । ६३-६४ ॥

देवीयज्ञं कुरुष्वाद्य विततं विधिपूर्वकम् ।
विष्णुना यः कृतः पूर्वं सृष्ट्यादौ नृपसत्तम ॥ ६५ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! अब आप विधिपूर्वक विस्तृत देवीयज्ञ कीजिये, जिसे पूर्वकालमें सृष्टिके आरम्भमें भगवान् विष्णुने किया था ॥ ६५ ॥

तथा त्वं कुरु राजेन्द्र विधिं ते प्रब्रवीम्यहम् ।
ब्राह्मणाः सन्ति राजेन्द्र विधिज्ञा वेदवित्तमाः ॥ ६६ ॥
देवीबीजविधानज्ञा मन्त्रमार्गविचक्षणाः ।
याजकास्ते भविष्यन्ति यजमानस्त्वमेव हि ॥ ६७ ॥
हे राजेन्द्र ! मैं आपको उसकी विधि बता रहा हूँ, आप वैसा कीजिये । हे राजेन्द्र ! आपके यहाँ वेदोंके पूर्ण ज्ञाता, विधिको जाननेवाले, देवीके बीजमन्त्रके विधानके जानकार तथा मन्त्रमार्गके विद्वान् अनेक ब्राहाण हैं, वे ही उस यज्ञमें आपके याजक होंगे और आप यजमान बनेंगे ॥ ६६-६७ ॥

कृत्वा यज्ञं विधानेन दत्त्वा पुण्य़ं मखार्जितम् ।
समुद्धर महाराज पितरं दुर्गतिङ्गतम् ॥ ६८ ॥
हे महाराज ! इस प्रकार आप विधिवत् देवीयज्ञ करके उस यज्ञसे मिले हुए पुण्यको अर्पित करके अपने दुर्गतिप्राप्त पिताका उद्धार कीजिये ॥ ६८ ॥

विप्रावमानजं पापं दुर्घटं नरकप्रदम् ।
तथैव शापजो दोषः प्राप्तः पित्रा तवानघ ॥ ६९ ॥
तथा दुर्मरणं प्राप्तं सर्पदंशेन भूभुजा ।
अन्तराले तथा मृत्यूर्न भूमौ कुशसंस्तरे ॥ ७० ॥
न सङ्ग्रामे न गङ्गायां स्नानदानादिवर्जितम् ।
मरणं ते पितुस्तत्र सौधे जातं कुरूद्वह ॥ ७१ ॥
ब्राह्मणके अपमानसे होनेवाला पाप बड़ा भयंकर और नरकदायक होता है । हे अनघ ! आपके पिता वैसे ही शापजनित दोषसे ग्रस्त हो चुके हैं । साथ ही साँपके काटनेसे महाराजकी अकालमृत्यु हुई है और भूमिपर बिछे कुशासनपर नहीं अपितु आकाशमें उनका मरण हुआ है, उनकी मृत्यु न रणस्थलमें हुई है और न गंगातटपर ही अपितु हे कुरुश्रेष्ठ ! आपके पिता बिना स्नान-दान आदि किये ही महलमें मर गये ॥ ६९-७१ ॥

कृपणानि च सर्वाणि नरकस्य नृपोत्तम ।
तत्रैकं कारणं तस्य न जातं चातिदुर्लभम् ॥ ७२ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! ये सब कुत्सित साधन नरकके हेतु हैं । राजाके लिये नरकसे बचनेका एक उपाय था; किंतु वह अत्यन्त दुर्लभ उपाय भी उनसे न बन सका ॥ ७२ ॥

यत्र यत्र स्थितःप्राणो ज्ञात्वा कालं समागतम् ।
साधनानामभावेऽपि ह्यवशश्‍चातिसङ्कटे ॥ ७३ ॥
यदा निर्वेदमायाति मनसा निर्मलेन वै ।
पञ्चभूतात्मको देहो मम किञ्चात्र दुःखदम् ॥ ७४ ॥
जहाँ कहीं भी प्राणी स्थित रहे, कालको समीप आया जानकर साधनोंके अभावमें भी अत्यन्त कष्टके कारण विवश हुआ वह जब हृदयमें वैराग्य-भाव आ जाय, तब निर्मल मनसे यह सोचने लगे कि यह शरीर तो पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु-इन पंचभूतोंसे निर्मित है, तब फिर यह मेरे लिये क्या दुःखदायी हो सकता है ! ॥ ७३-७४ ॥

पतत्वद्य यथाकामं मुक्तोऽहं निर्गुणोऽव्ययः ।
नाशात्मकानि तत्त्वानि तत्र का परिदेवना ॥ ७५ ॥
ब्रह्मैवाहं न संसारी सदा मुक्तः सनातनः ।
देहेन मम सम्बन्धः कर्मणा प्रतिपादितः ॥ ७६ ॥
तानि सर्वाणि मुक्तानि शुभानि चेतराणि च ।
मनुष्यदेहयोगेन सुखदुःखानुसाधनात् ॥ ७७ ॥
विमुक्तोऽतिभयाद्‌घोरादस्मात्संसारसङ्कटात् ।
इत्येवं चिन्त्यमानस्तु स्नानदानविवर्जितः ॥ ७८ ॥
मरणं चेदवाप्नोति स मुच्च्येज्जन्मदुःखतः ।
एषा काष्ठा परा प्रोक्ता योगिनामपि दुर्लभा ॥ ७९ ॥
यह देह अभी नष्ट हो जाय; मैं तो मुक्त, निर्गुण तथा अविनाशी हूँ । ये पंचतत्त्व तो विनाशशील हैं, तब इनके लिये मुझे चिन्ता ही क्या ! मैं तो सदा मुक्त और सनातन ब्रह्म हँ: संसारी जीव नहीं हूँ । इस देहसे मेरा सम्बन्ध केवल कर्मभोगके कारण ही है । शरीरद्वारा किये गये उन सभी शुभाशुभ कर्मोंका मेरा बन्धन तो छूट चुका है; क्योंकि मनुष्यशरीरसे मैंने दु:ख तथा सुख भोग लिया है और इस अत्यन्त भयानक, घोर तथा भीषण सांसारिक कष्टसे मैं सर्वथा विमुक्त हूँ, इस प्रकारका चिन्तन करता हुआ पुरुष यदि स्नान-दानरहित भी मृत्यु प्राप्त करता है तो भी वह पुनः जन्म लेनेके दुःखसे छूट जाता है । यह सर्वोत्कृष्ट साधन कहा गया है, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है ॥ ७५-७९ ॥

पिता ते नृपशार्दूल श्रुत्वा शापं द्विजोदितम् ।
देहे ममत्वं कृतवान्न निर्वेदमवाप्तवान् ॥ ८० ॥
हे नृपसत्तम ! आपके पिताने ब्राह्मणके द्वारा दिये गये उस शापको सुनकर भी अपने शरीरके प्रति मोह रखा और वैराग्यका आश्रय नहीं लिया ॥ ८० ॥

नीरोगो मम देहोऽयं राज्यं निहतकण्टकम् ।
कथं जीवाम्यहं कामं मन्त्रज्ञानानयन्तु वै ॥ ८१ ॥
उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि मेरा यह शरीर सदा निरोग रहे, मैं निष्कंटक राज्य करता रहूँ और चिरकालतक कैसे जीता रहूँ, [-इस भावनासे उन्होंने सचिवोंको आज्ञा दी कि सर्पविष उतारनेका] मन्त्र जाननेवालोंको बुलाओ ॥ ८१ ॥

औषधं मणिमन्त्रं च यन्त्रं परमकं तथा ।
आरोहणं तथा सौधे कृतवान्नृपतिस्तदा ॥ ८२ ॥
न स्नानं न कृतं दानं न देव्याः स्मरणं कृतम् ।
न भूमौ शयनं चैव दैवं मत्वा परं तथा ॥ ८३ ॥
राजाने औषध, मणि, मन्त्र तथा उत्तमोत्तम यन्त्रोंका संग्रह किया और वे एक ऊँचे महलपर आरूढ़ हो गये । उस समय उन्होंने न स्नान किया, न दान दिया और न भगवतीका स्मरण ही किया । दैवको प्रधान मानकर वे भूमिपर भी नहीं सोये ॥ ८२-८३ ॥

मग्नो मोहार्णवे घोरे मृतः सौधेऽहिना हतः ।
कृत्वा पापं कलेर्योगात्तापसस्यावमानजम् ॥ ८४ ॥
अवश्यमेव नरकं एतैराचरणैर्भवेत् ।
तस्मात्तं पितरं पापात्समुद्धर नृपोत्तम ॥ ८५ ॥
कलिके प्रभावके कारण एक तपस्वीके प्रति अपमानजन्य पाप करके घोर मोहरूपी सागरमें डूबकर महलके ऊपर सर्पके डंसनेसे वे मर गये । ऐसे आचरणोंसे अवश्य ही नरक होता है । इसलिये हे नृपश्रेष्ठ ! अपने उन पिताका पापसे उद्धार कीजिये ॥ ८४-८५ ॥

सूत उवाच
इति श्रुत्वा वचस्तस्य व्यासस्यामिततेजसः ।
साश्रुकण्ठोऽतिदुःखार्तो बभूव जनमेजयः ॥ ८६ ॥
धिगिदं जीवितं मेऽद्य पिता मे नरके स्थितः ।
तत्करोमि यथैवाद्य स्वर्गं यात्युत्तरासुतः ॥ ८७ ॥
सूतजी बोले-[हे ऋषिगण !] अमित तेजस्वी व्यासजीका यह वचन सुनकर महाराज जनमेजय बड़े दुःखी हुए और अश्रुप्रवाहके कारण उनका कण्ठ ऊँध गया । [मनमें पश्चात्ताप करते हुए वे कहने लगे-] आज मेरे इस जीवनको धिक्कार है जो कि मेरे पिता नरकमें पड़े हैं । इसलिये अब मैं ऐसा उपाय करता हूँ, जिससे उत्तरातनय राजा परीक्षित् स्वर्ग चले जायें ॥ ८६-८७ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे अम्बायज्ञविधिवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
अध्याय बारहवाँ समाप्त


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