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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
त्रयोदशोऽध्यायः

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विष्णुनानुष्ठानवर्णनम् -
देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्याशक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना -


राजोवाच
हरिणा तु कथं यज्ञः कृतः पूर्वं पितामह ।
जगत्कारणरूपेण विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १ ॥
के सहायास्तु तत्रासन्ब्राह्मणाः के महामते ।
ऋत्विजो वेदतत्त्वज्ञास्तन्मे ब्रूहि परन्तप ॥ २ ॥
पश्‍चात्करोम्यहं यज्ञं विधिदृष्टेन कर्मणा ।
श्रुत्वा विष्णुकृतं यागमम्बिकायाः समाहितः ॥ ३ ॥
राजा बोले-हे पितामह ! जगत्के कारणस्वरूप तथा परम शक्तिशाली भगवान् विष्णुने पूर्वकालमें वह यज्ञ कैसे किया ? हे महामते ! उस यज्ञमें कौन-कौन ब्राह्मण सहायक थे और कौन-कौन वेदतत्त्वज्ञ विद्वान् ऋत्विज थे ? हे परन्तप ! यह सब आप मुझे बतायें । भगवान् विष्णुके द्वारा किये गये अम्बायज्ञको सुनकर बादमें मैं भी सावधान होकर उसी विहित कर्मके अनुसार यज्ञ करूँगा ॥ १-३ ॥

व्यास उवाच
राजञ्छृणु महाभाग विस्तरं परमाद्‌भुतम् ।
यथा भगवता यज्ञः कृतश्च विधिपूर्वकः ॥ ४ ॥
व्यासजी बोले-हे महाभाग ! हे राजन् ! भगवान् विष्णुने जिस तरह विधिपूर्वक देवीयज्ञ किया था, उस परम अद्भुत प्रसंगको आप विस्तारसे सुनें ॥ ४ ॥

विसर्जिता यदा देव्या दत्त्वा शक्तीश्‍च तास्त्रयः ।
काजेशाः पुरुषा जाता विमानवरमास्थिताः ॥ ५ ॥
प्राप्ता महार्णवं घोरं त्रयस्ते विबुधोत्तमाः ।
चक्रुः स्थानानि वासार्थं समुत्पाद्य धरां स्थिताः ॥ ६ ॥
उस समय जब आदिशक्तिने उन्हें विभिन्न शक्तियाँ प्रदान करके विदा कर दिया, तब श्रेष्ठ विमानपर स्थित वे तीनों ब्रह्मा, विष्णु और महेश पुनः पुरुषके रूपमें हो गये । [वहाँसे चलकर] वे तीनों श्रेष्ठ देवगण घोर महासागरमें पहुँच गये । वहाँ उन्होंने पृथ्वी उत्पन्न करके उसपर रहनेके लिये स्थान बनाया और वहीं रहने लगे ॥ ५-६ ॥

आधारशक्तिरचला मुक्ता देव्या स्वयं ततः ।
तदाधारा स्थिता जाता धरा मेदःसमन्विता ॥ ७ ॥
उसी समय देवीने अचल आधारशक्तिको मुक्त किया, जिसके आश्रयसे वह मेदयुक्त पृथ्वी टिक गयी ॥ ७ ॥

मधुकैटभयोर्मेदः संयोगान्मेदिनी स्मृता ।
धारणाच्च धरा प्रोक्ता पृथ्वी विस्तारयोगतः ॥ ८ ॥
मधु-कैटभके मेदका संयोग होनेके कारण पृथ्वीको 'मेदिनी' कहा गया है । धारण करनेकी शक्ति होनेके कारण उसे 'धरा' तथा विस्तृत होनेके कारण उसे 'पृथ्वी' कहा गया है ॥ ८ ॥

मही चापि महीयस्त्वाद्धृता सा शेषमस्तके ।
गिरयश्‍च कृताः सर्वे धारणार्थ प्रविस्तराः ॥ ९ ॥
लोहकीलं यथा काष्टे तथा ते गिरयः कृताः ।
महीधरो महाराज प्रोच्यते विबुधैर्जनैः ॥ १० ॥
यह पृथ्वी महनीय होनेके कारण 'मही' कही जाती है । यह शेषनागके मस्तकपर स्थित है । इसको यथास्थान स्थित रखनेके लिये सभी विशाल पर्वत रचे गये । जिस प्रकार काठमें लौह कीलें जड़ दी जाती हैं, उसी प्रकार पृथ्वीको सुस्थिर रखनेके लिये विशाल पर्वत बनाये गये । इसी कारण विद्वान्लोग उन पर्वतोंको 'महीधर' कहते हैं ॥ ९-१० ॥

जातरूपमयो मेरुर्बहुयोजनविस्तरः ।
कृतो मणिमयैः शृङ्गैः शोभितः परमाद्‌भुतः ॥ ११ ॥
परम अद्धत सुमेरुपर्वत सोनेका बना हुआ है, वह मणिमय चोटियोंसे सुशोभित है तथा अनेक योजन विस्तारवाला है ॥ ११ ॥

मरीचिर्नारदोऽत्रिश्‍च पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः ।
दक्षो वसिष्ठ इत्येते ब्रह्मणः प्रथिताः सुताः ॥ १२ ॥
मरीचेः कश्यपो जातो दक्षकन्यास्त्रयोदश ।
ताभ्यो देवाश्‍च दैत्याश्‍च समुत्पन्ना ह्यनेकशः ॥ १३ ॥
[उस समय सृष्टिका विकास इस प्रकार हुआ-] सर्वप्रथम ब्रह्माके विख्यात मानसिक पुत्र मरीचि, नारद, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, दक्ष और वसिष्ठ आदि हुए । तत्पश्चात् मरीचिके पुत्र कश्यप हुए । दक्षप्रजापतिको तेरह कन्याएँ हुई । उन्हीं कन्याओंसे अनेक देवता एवं दैत्य उत्पन्न हुए ॥ १२-१३ ॥

ततस्तु काश्यपी सृष्टिः प्रवृत्ता चातिविस्तरा ।
मनुष्यपशुसर्पादिजातिभेदैरनेकधा ॥ १४ ॥
उसके बाद काश्यपी सृष्टि संसारमें फैल गयी । उस सृष्टिमें मनुष्य, पशु और सर्प आदि योनिभेदोंसे अनेक जीव उत्पन्न हुए ॥ १४ ॥

ब्रह्मणश्‍चार्धदेहात्तु मनुः स्वायम्भुवोऽभवत् ।
शतरूपा तथा नारी सञ्जाता वामभागतः ॥ १५ ॥
ब्रह्माके दाहिने आधे शरीरसे स्वायम्भुव मनु उत्पन्न हुए तथा बायें भागसे स्त्रीके रूपमें शतरूपा उत्पन्न हुई ॥ १५ ॥

प्रियव्रतोत्तानपादौ सुतौ तस्या बभूवतुः ।
तिस्त्रः कन्या वरारोहा ह्यभवन्नतिसुन्दरीः ॥ १६ ॥
उन्हीं शतरूपासे प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए तथा तीन अत्यन्त सुन्दर और उत्तम गुणोंवाली पुत्रियाँ उत्पन्न हुई ॥ १६ ॥

एवं सृष्टिं समुत्पाद्य भगवान्कमलोद्‌भवः ।
चकार ब्रह्मलोकञ्च मेरुशृङ्गे मनोहरम् ॥ १७ ॥
इस प्रकार सृष्टिरचना करके कमलसे उत्पन्न भगवान् ब्रह्माजीने सुमेरुपर्वतके शिखरपर एक सुन्दर ब्रह्मलोक बनाया ॥ १७ ॥

वैकुण्ठं भगवान्विष्णू रमारमणमुत्तमम् ।
क्रीडास्थानं सुरम्यञ्च सर्वलोकोपरिस्थितम् ॥ १८ ॥
भगवान् विष्णुने भी लक्ष्मीजीके विहार करनेयोग्य वैकुण्ठलोक बनाया । वह अत्यन्त रमणीय तथा उत्तम क्रीडास्थान सभी लोकोंके ऊपर विराजमान है ॥ १८ ॥

शिवोऽपि परमं स्थानं कैलासाख्यं चकार ह ।
समासाद्य भूतगणं विजहार यथारुचि ॥ १९ ॥
शिवजीने भी कैलास नामक एक उत्तम स्थान बना लिया, जिसमें वे भूतगणोंको साथ लेकर इच्छानुसार विहार करने लगे ॥ १९ ॥

स्वर्गस्त्रिविष्टपो मेरुशिखरोपरि कल्पितः ।
तच्च स्थानं सुरेन्द्रस्य नानारत्‍नविराजितम् ॥ २० ॥
सुमेरुपर्वतके एक शिखरपर देवलोक स्वर्गकी रचना हुई । वह इन्द्रलोक अनेक प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित तथा इन्द्रका निवास था ॥ २० ॥

समुद्रमथनात्प्राप्तः पारिजातस्तरुत्तमः ।
चतुर्दन्तस्तथा नागः कामधेनुश्‍च कामदा ॥ २१ ॥
उच्चैःश्रवास्तथाश्‍वो वै रम्भाद्यप्सरसस्तथा ।
इन्द्रेणोपात्तमखिलं जातं वै स्वर्गभूषणम् ॥ २२ ॥
धन्वन्तरिश्‍चन्द्रमाश्‍च सागराच्च समुद्‌बभौ ।
स्वर्गस्थितौ विराजेते देवौ बहुगणैर्वृतौ ॥ २३ ॥
समुद्रमन्थनसे सर्वोत्तम वृक्ष पारिजात, चार दाँतोंवाला ऐरावत हाथी, कामना पूर्ण करनेवाली कामधेनु, उच्चैःश्रवा घोड़ा और रम्भा आदि अनेक अप्सराएँ निकलीं । इन्द्रने स्वर्गको सुशोभित करनेवाले इन सबको अपने पास रख लिया । धन्वन्तरिवैद्य तथा चन्द्रमा भी समुद्रसे निकले वे दोनों देव अनेक गुणोंसे युक्त होकर स्वर्गमें रहते हुए शोभा पाने लगे ॥ २१-२३ ॥

एवं सृष्टिः समुत्पन्ना त्रिविधा नृपसत्तम ।
देवतिर्यङ्‍मनुष्यादिभेदैर्विविधकल्पिता ॥ २४ ॥
अण्डजाः स्वेदजाश्‍चैव चोद्‌भिज्जाश्‍च जरायुजाः ।
चतुर्भेदैः समुत्पन्ना जीवाः कर्मयुताः किल ॥ २५ ॥
एवं सृष्टिं समासाद्य ब्रह्मविष्णुमहेश्‍वराः ।
विहारं स्वेषु स्थानेषु चक्रुः सर्वे यथेप्सितम् ॥ २६ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! इस तरह तीन प्रकारकी सृष्टि हुई । देवता, पशु-पक्षी और मानव आदि अनेक भेदोंसे यह सृष्टि कल्पित है । अण्डज, स्वेदज, उद्भिज तथा जरायुज-इन चार भेदोंसे अनेक जीवोंकी सृष्टि हुई । उन सभी जीवोंके साथ कर्मका बन्धन लगा हुआ है । इस प्रकार सृष्टि करके ब्रह्मा, विष्णु और महेश-ये सब अपने-अपने लोकोंमें इच्छापूर्वक विहार करने लगे ॥ २४-२६ ॥

एवं प्रवर्तिते सर्गे भगवान्प्रभुरच्युतः ।
महालक्ष्म्या समं तत्र चिक्रीड भुवने स्वके ॥ २७ ॥
इस प्रकार सृष्टिके विस्तृत हो जानेपर अच्युत भगवान् विष्णु अपने लोकमें लक्ष्मीके साथ विराजमान होकर आनन्द करने लगे ॥ २७ ॥

एकस्मिन्समये विष्णुर्वैकुण्ठे संस्थितः पुरा ।
सुधासिन्धुस्थितं द्वीपं सस्मार मणिमण्डितम् ॥ २८ ॥
यत्र दृष्ट्वा महामायां मन्त्रश्‍चासादितः शुभः ।
स्मृत्वा तां परमां शक्तिं स्त्रीभावं गमितो यथा ॥ २९ ॥
यज्ञं कर्तुं मनश्‍चक्रे अम्बिकाया रमापतिः ।
एक समयकी बात है-भगवान् विष्णु वैकुण्ठमें विराजमान थे । उन्हें एकाएक अमृतसागरमें विद्यमान तथा मणियोंसे सुशोभित उस द्वीपका स्मरण हो आया, जहाँ महामायाका दर्शन करके उन्होंने शुभ मन्त्र प्राप्त किया था । तदनन्तर जिन भगवतीके द्वारा वे पुरुषसे स्त्री बना दिये गये थे, उन परमशक्तिका स्मरण करके लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णुने अम्बायज्ञ करनेका मनमें निश्चय कर लिया ॥ २८-२९.५ ॥

उत्तीर्य भुवनात्तस्मात्समाहूय महेश्‍वरम् ॥ ३० ॥
ब्रह्माणं वरुणं शक्रं कुबेरं पावकं यमम् ।
वसिष्ठं कश्यपं दक्षं वामदेवं बृहस्पतिम् ॥ ३१ ॥
सम्भारं कल्पयामास यज्ञार्थं चातिविस्तरम् ।
महाविभवसंयुक्तं सात्त्विकञ्च मनोहरम् ॥ ३२ ॥
इसके बाद अपने धामसे उतरकर उन्होंने शिव, ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, कुबेर, अग्नि, यम, वसिष्ठ, कश्यप, दक्ष, वामदेव तथा बृहस्पतिको आमन्त्रित करके अत्यन्त विस्तारके साथ यज्ञ सम्पन्न करनेके लिये अत्यधिक मूल्यवाली, सात्त्विक तथा मनोरम बहुत-सी सामग्रियाँ एकत्र की । ३०-३२ ॥

मण्डपं विततं तत्र कारयामास शिल्पिभिः ।
ऋत्विजो वरयामास सप्तविंशतिसुव्रतान् ॥ ३३ ॥
चितिञ्च कारयामास वेदीश्‍चैव सुविस्तराः ।
प्रजेपुर्ब्राह्मणा मन्त्रान्देव्या बीजसमन्वितान् ॥ ३४ ॥
उन्होंने शिल्पियोंद्वारा विशाल यज्ञमण्डप बनवाया और सत्ताईस महान् व्रती ऋत्विजोंका वरण किया । तत्पश्चात् अग्निस्थापनके लिये बड़ी-बड़ी वेदियाँ बनायी गयीं । ब्राहाणगण वीजसहित देवीमन्त्रोंका जप करने लगे ॥ ३३-३४ ॥

जुहुवुस्ते हविः कामं विधिवत्परिकल्पिते ।
कृते तु वितते होमे वागुवाचाशरीरिणी ॥ ३५ ॥
विष्णुं तदा समाभाष्य सुस्वरा मधुराक्षरा ।
विष्णो त्वं भव देवानां हरे श्रेष्ठतमः सदा ॥ ३६ ॥
मान्यश्‍च पूजनीयश्‍च समर्थश्‍च सुरेष्वपि ।
सर्वे त्वामर्चयिष्यन्ति ब्रह्माद्याश्‍च सवासवाः ॥ ३७ ॥
विधिवत् प्रज्वलित की गयी अग्निमें वे ब्राह्मण यथेच्छ हव्य-पदार्थकी आहुति देने लगे । इस प्रकार विस्तृत होमकृत्य सम्पन्न होते ही भगवान् विष्णुको सम्बोधित करके मधुर अक्षरों तथा स्पष्ट स्वरोंसे युक्त आकाशवाणी हुई । हे हरे ! हे विष्णो ! आप सदा देवताओंमें श्रेष्ठतम होंगे । सभी देवगणोंमें आप मान्य, पूज्य तथा समर्थ होंगे । संसारमें इन्द्रसहित ब्रह्मा आदि सभी देवता आपकी अर्चना करेंगे ॥ ३५-३७ ॥

प्रभविष्यन्ति भो भक्त्या मानवा भुवि सर्वतः ।
वरदस्त्वं च सर्वेषां भविता मानवेषु वै ॥ ३८ ॥
हे विष्णो ! पृथ्वीपर सभी मानव आपकी भक्तिसे युक्त होकर रहेंगे और आप सभी मनुष्योंको वर देनेवाले होंगे ॥ ३८ ॥

कामदः सर्वदेवानां परमः परमेश्‍वरः ।
सर्वयज्ञेषु मुख्यस्त्वं पूज्यः सर्वैश्‍च याज्ञिकैः ॥ ३९ ॥
आप सभी देवताओंको वांछित फल प्रदान करनेवाले महान् परमेश्वर होंगे । सभी यजोंमें प्रधानरूपसे सभी याज्ञिकोंके द्वारा आप ही पूजे जायेंगे ॥ ३९ ॥

त्वां जनाः पूजयिष्यन्ति वरदस्त्वं भविष्यसि ।
श्रयिष्यन्ति च देवास्त्वां दानवैरतिपीडिताः ॥ ४० ॥
शरणस्त्वञ्च सर्वेषां भविता पुरुषोत्तम ।
पुराणेषु च सर्वेषु वेदेषु विततेषु च ॥ ४१ ॥
त्वं वै पूज्यतमः कामं कीर्तिस्तव भविष्यति ।
लोग आपकी पूजा करेंगे और आप उनके लिये वरदाता होंगे । राक्षसोंके द्वारा अत्यधिक प्रताड़ित किये जानेपर देवगण आपका आश्रय ग्रहण करेंगे । हे पुरुषोत्तम ! आप सभीके शरणदाता होंगे । अत्यन्त विस्तारवाले वेदों तथा सभी पुराणोंमें आप ही पूज्यतम होंगे और आपकी महान् कीर्ति होगी । ४०-४१.५ ॥

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भूतले ॥ ४२ ॥
तदांशेनावतीर्याशु कर्तव्यं धर्मरक्षणम् ।
अवताराः सुविख्याताः पृथिव्यां तव भागशः ॥ ४३ ॥
भविष्यन्ति धरायां वै माननीया महात्मनाम् ।
अवतारेषु सर्वेषु नानायोनिषु माधव ॥ ४४ ॥
विख्यातः सर्वलोकेषु भविता मधुसूदन ।
अवतारेषु सर्वेषु शक्तिस्ते सहचारिणी ॥ ४५ ॥
भविष्यति ममांशेन सर्वकार्यप्रसाधिनी ।
वाराही नारसिंही च नानाभेदैरनेकधा ॥ ४६ ॥
इस पृथ्वीतलपर जब-जब धर्मका ह्रास होगा तब-तब आप शीघ्र अपने अंशसे अवतार लेकर धर्मकी रक्षा करेंगे । आपके अंशसे उत्पन्न वे समस्त अवतार पृथ्वीपर अत्यन्त प्रसिद्ध होंगे और महात्मागण आपके उन अवतारोंका सम्मान करेंगे । हे माधव ! नानाविध योनियोंमें आपके द्वारा लिये गये अवतारोंमें आप सभी लोकोंमें विख्यात होंगे । हे मधुसूदन ! उन सभी अवतारों में मेरे अंशसे उत्पन्न शक्ति सदा आपकी सहचारिणी होगी और आपके समस्त कार्योंको सम्पन्न करेगी । वह शक्ति वाराही, नारसिंही आदि भेदोंसे अनेक प्रकारकी होगी । ४२-४६ ॥

नानायुधाः शुभाकाराः सर्वाभरणमण्डीताः ।
ताभिर्युक्तः सदा विष्णो सुरकार्याणि माधव ॥ ४७ ॥
साधयिष्यसि तत्सर्वं मद्दत्तवरदानतः ।
तास्त्वया नावमन्तव्याः सर्वदा गर्वलेशतः ॥ ४८ ॥
पूजनीयाः प्रयत्‍नेन माननीयाश्‍च सर्वथा ।
वे शक्तियाँ सभी प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत, भव्य स्वरूपवाली एवं नानाविध शस्त्रास्त्रोंसे सज्जित होंगी । हे विष्णो ! आप उन शक्तियोंसे सदैव युक्त रहेंगे । हे माधव ! मेरे द्वारा प्रदत्त वरदानके प्रभावसे आप देवताओंके समस्त कार्य सिद्ध करेंगे । आप लेशमात्र भी अभिमान करके उन शक्तियोंका कभी अपमान न कीजियेगा, अपितु हर प्रकारसे प्रयत्नपूर्वक उन शक्तियोंका पूजन तथा सम्मान कीजियेगा ॥ ४७-४८.५ ॥

नूनं ता भारते खण्डे शक्तयः सर्वकामदाः ॥ ४९ ॥
भविष्यन्ति मनुष्याणां पूजिताः प्रतिमासु च ।
तासां तव च देवेश कीर्तिः स्यान्दखिलेष्वपि ॥ ५० ॥
द्वीपेषु सप्तस्वपि च विख्याता भुवि मण्डले ।
समस्त कामनाओंको प्रदान करनेवाली वे शक्तियाँ भारतवर्षमें मनुष्योंद्वारा विविध प्रतिमाओंमें प्रतिष्ठित होकर पूजी जायेंगी । हे देवेश ! उन शक्तियोंकी तथा आपकी कीर्ति पृथ्वीमण्डल तथा समस्त सातों द्वीपोंमें प्रसिद्ध होगी ॥ ४९-५०.५ ॥

ताश्‍च त्वां वै महाभाग मानवा भुवि मण्डले ॥ ५१ ॥
अर्चयिष्यन्ति वाञ्छार्थं सकामाः सततं हरे ।
अर्चासु चोपहारैश्‍च नानाभावसमन्विताः ॥ ५२ ॥
पूजयिष्यन्ति वेदोक्तैर्मन्त्रैर्नामजपैस्तथा ।
महिमा तव भूर्लोके स्वर्गे च मधुसूदन ॥ ५३ ॥
पूजनाद्देवदेवेश वृद्धिमेष्यति मानवैः ।
हे महाभाग ! भूमण्डलपर सकाम मनुष्य अपने मनोरथोंको पूर्ण करनेके लिये आपकी तथा उन शक्तियोंकी निरन्तर उपासना करेंगे । हे हरे ! वे लोग अर्चनाओंमें अनेक भावोंसे युक्त होकर नानाविध उपहारों, वैदिक मन्त्रों तथा नामजपसे आपकी आराधना करेंगे । हे मधुसूदन ! हे देवदेवेश ! मनुष्योंके द्वारा सुपूजित होनेके कारण आपकी महिमा पृथ्वीलोक तथा स्वर्गलोकमें वृद्धिको प्राप्त होगी ॥ ५१-५३.५ ॥

व्यास उवाच
इति दत्त्वा वरान्वाणी विरराम खसम्भवा ॥ ५४ ॥
भगवानपि प्रीतात्मा ह्यभवच्छ्रवणादिव ।
समाप्य विधिवद्यज्ञं भगवान्हरिरीश्‍वरः ॥ ५५ ॥
विसर्जयित्वा तान्देवान्ब्रह्मपुत्रान्मुनीनथ ।
जगामानुचरैः सार्धं वैकुण्ठं गरुडध्वजः ॥ ५६ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार भगवान् विष्णुको वरदान देकर वह आकाशवाणी चुप हो गयी । उसे सुनते ही भगवान् विष्णु भी प्रसन्नचित्त हो गये । तत्पश्चात् यज्ञका विधिपूर्वक समापन करके तथा उन देवताओं, ब्रह्मपुत्रों और मुनियोंको विदा करके सर्वसमर्थ गरुडध्वज भगवान् विष्णु अपने अनुचरोंके साथ वैकुण्ठलोकको चले गये ॥ ५४-५६ ॥

स्वानि स्वानि च धिष्ण्यानि पुनः सर्वे सुरास्ततः ।
मुनयो विस्मिता वार्तां कुर्वन्तस्ते परस्परम् ।५७ ॥
ययुः प्रमुदिताः कामं स्वाश्रमान्पावनानथ ॥ ५८ ॥
तदनन्तर विस्मयके साथ यज्ञविषयक वार्ता करते हुए वे समस्त देवता अपने-अपने लोकोंको तथा मुनिजन अपने-अपने पवित्र आश्रमोंको अति प्रसन्नतापूर्वक चले गये ॥ ५७-५८ ॥

श्रुत्वा वाणीं परमविशदां व्योमजां श्रोत्ररम्यां
     सर्वेषां वै प्रकृतिविषये भक्तिभावश्‍च जातः ।
चक्रुः सर्वे द्विजमुनिगणाः पूजनं भक्तियुक्ता-
     स्तस्याः कामं निखिलफलदं चागमोक्तं मुनीन्द्राः ॥ ५९ ॥
आकाशसे प्रादुर्भूत उस कर्णप्रिय तथा परम विशद वाणीको सुनकर सबके हृदयमें परा प्रकृतिके प्रति भक्तिभाव उत्पन्न हो गया । हे मुनीन्द्रो ! अतएव वे सभी ब्राह्मण तथा मुनिजन भक्तिपरायण होकर उन भगवतीका पूजन करने लगे, जो वेदशास्त्रोंमें वर्णित है तथा सम्पूर्ण वांछित फलोंको प्रदान करनेवाला है । ५९ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
अम्बिकामखस्य विष्णुनानुष्ठानवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
अध्याय तेरहवाँ समाप्त


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