वे धर्मात्मा, सत्यनिष्ठ तथा वर्णाश्रमधर्मकी रक्षाके लिये सदा तत्पर रहते थे । पवित्र व्रतधारी वे ध्रुवसन्धि वैभवशालिनी अयोध्यानगरीमें राज्य करते थे ॥ ५ ॥
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्चान्ये तथा द्विजाः । स्वां स्वां वृत्तिं समास्थाय तद्राज्ये धर्मतोऽभवन् ॥ ६ ॥ न चौराः पिशुना धूर्तास्तस्य राज्ये च कुत्रचित् । दम्भाः कृतघ्ना मूर्खाश्च वसन्ति किल मानवाः ॥ ७ ॥
उनके राज्यमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, द्विजगण तथा अन्य सभी अपनी-अपनी जीविकामें तत्पर रहकर धर्मपूर्वक आचरण करते थे । उनके राज्यमें कहीं भी चोर, निन्दक, धूर्त, पाखण्डी, कृतघ्न तथा मूर्ख मनुष्य निवास नहीं करते थे । ६-७ ॥
एवं वै वर्तमानस्य नृपस्य कुरुसत्तम । द्वे पत्न्यौ रूपसम्पन्ने ह्यासतुः कामभोगदे ॥ ८ ॥ मनोरमा धर्मपत्नी सुरूपाऽतिविचक्षणा । लीलावती द्वितीया च साऽपि रूपगुणान्विता ॥ ९ ॥
हे कुरुश्रेष्ठ ! इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य करते हुए उन राजाकी रूपवती तथा आनन्दोपभोग प्रदान करनेवाली दो पत्नियाँ थीं । उनकी धर्मपत्नी मनोरमा थी, जो सुन्दर रूपवाली तथा परम विदुषी थी और दूसरी पत्नी लीलावती थी; वह भी रूप तथा गुणोंसे सम्पन्न थी ॥ ८-९ ॥
विजहार सपत्नीभ्यां गृहेषूपवनेषु च । क्रीडागिरौ दीर्घिकासु सौधेषु विविधेषु च ॥ १० ॥
महाराज ध्रुवसन्धि उन दोनों पत्नियोंके साथ राजभवनों, उपवनों, क्रीड़ापर्वत, बावलियों तथा विभिन्न महलोंमें विहार करते थे ॥ १० ॥
महाराज ध्रुवसन्धिने उन दोनों बालकोंका जातकर्म आदि संस्कार किया तथा पुत्र-जन्मसे प्रमुदित एवं उल्लसित होकर उन्होंने ब्राह्मणोंको नानाविध दान दिये ॥ १३ ॥
प्रीतिं तयोः समां राजा चकार सुतयोर्नृप । नृपश्चकार सौहार्देष्वन्तरं न कदाचन ॥ १४ ॥
हे राजन् ! महाराज ध्रुवसन्धि उन दोनों पुत्रोंपर समान प्रीति रखते थे । वे उन दोनोंके प्रति अपने प्रेमभावमें कभी भी अन्तर नहीं आने देते थे ॥ १४ ॥
उसके मधुरभाषी तथा अत्यन्त सुन्दर होनेके कारण राजा उससे अधिक प्रेम करने लगे और उसी तरहसे वह प्रजाजनों तथा मन्त्रियोंका भी प्रियपात्र बन गया ॥ १८ ॥
तथा तस्मिन्नृपः प्रीतिञ्चकार गुणयोगतः । मन्दभाग्यान्मन्दभावो न तथा वै सुदर्शने ॥ १९ ॥
शत्रुजित्के गुणोंके कारण राजाका जैसा प्रेम उसपर हो गया, वैसा प्रेम सुदर्शनके प्रति नहीं था । वे सुदर्शनके प्रति मन्दभाग्य होनेके कारण कम अनुराग रखने लगे ॥ १९ ॥
एवं गच्छति काले तु ध्रुवसन्धिर्नृपोत्तमः । जगाम वनमध्येऽसौ मृगयाभिरतः सदा ॥ २० ॥
इस प्रकार कुछ समय बीतनेपर आखेटके प्रति सदा तत्पर रहनेवाले नृपश्रेष्ठ ध्रुवसन्धि आखेटके लिये वनमें गये ॥ २० ॥
निघ्नन्मृगान् रुरून्कम्बून्सूकरान्गवयाञ्छशान् । महिषाञ्छरभान्खड्गांश्चिक्रीड नृपतिर्वने ॥ २१ ॥
वे राजा ध्रुवसन्धि वनमें रुरु मृगों, बनैले सूअरों, गवयों, खरगोशों, भैंसों, शरभों तथा गैंडोंको मारते हुए आखेट करने लगे ॥ २१ ॥
उसे अपने ऊपर झपटते देखकर राजाने खड्गसे उसपर प्रहार किया । उस सिंहने भी राजाके समीप आकर अपने भयानक तथा तीक्ष्ण नखोंसे राजाको क्षत-विक्षत कर डाला ॥ २८ ॥
स नखैराहतो राजा पपात च ममार वै । चुक्रुशुः सैनिकास्ते तु निर्जघ्नुर्विशिखैस्तदा ॥ २९ ॥ मृतः सिंहोऽपि तत्रैव भूपतिश्च तथा मृतः । सैनिकैर्मन्त्रिमुख्याश्च तत्रागत्य निवेदिताः ॥ ३० ॥
नखोंके प्रहारसे आहत होकर राजा गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गयी । इससे सभी सैनिक और भी क्रोधित हो उठे; तब वे बाणोंसे सिंहपर भीषण प्रहार करने लगे । इस प्रकार राजा ध्रुवसन्धि तथा वह सिंह दोनों मर गये । तदनन्तर सैनिकोंने आकर मन्त्रिप्रवरोंको यह समाचार बताया ॥ २९-३० ॥
परलोकगतं भूपं श्रुत्वा ते मन्त्रिसत्तमाः । संस्कारं कारयामासुर्गत्वा तत्र वनान्तिके ॥ ३१ ॥
राजाके परलोकगमनका समाचार सुनकर उन श्रेष्ठ मन्त्रियोंने उस वनमें जाकर उनका दाहसंस्कार करवाया ॥ ३१ ॥
श्रेष्ठ मन्त्रियोंने कहा कि सुदर्शन महाराजकी धर्मपत्नी मनोरमाके पुत्र हैं, शान्त स्वभाववाले पुरुष हैं तथा सभी लक्षणोंसे सम्पन्न हैं, अतः ये राजसिंहासनके योग्य हैं ॥ ३४ ॥
गुरु वसिष्ठने भी वही बात कही कि महाराजका यह पुत्र सुदर्शन राजपदके योग्य है; क्योंकि बालक होते हुए भी धर्मपरायण राजकुमार ही राजसिंहासनका अधिकारी होता है ॥ ३५ ॥
अपने-अपने स्वार्थके वशीभूत उन दोनों राजाओंमें वहाँ विवाद होने लगा । अब उस महासंकटकी परिस्थितिमें उनके सन्देहका समाधान करनेमें कौन समर्थ हो सकता था ? ॥ ४३ ॥
मैंने आप लोगोंका यह विचार तो आप सबकी भाव-भंगिमासे पहले ही जान लिया था । शत्रुजित् सुदर्शनसे अधिक बलवान् है, अतः आप लोगोंकी सम्मति तो यह होनी चाहिये कि शत्रुजित् ही राजसिंहासनपर आसीन होनेयोग्य है ॥ ४५ ॥ .
उसी समय महाराज ध्रुवसन्धिकी मृत्युका समाचार सुनकर श्रृंगवेरपुरमें रहनेवाले निषादगण राजकोष लूटनेके लिये वहाँ आ गये । दोनों राजकुमार अभी बालक हैं तथा वे आपसमें कलह कर रहे हैं-यह सुनकर देशदेशान्तरके चोर-लुटेरे भी वहाँ आ गये ॥ ५१-५२ ॥