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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
पञ्चदशोऽध्यायः

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मनोरमया भारद्वाजाश्रमं प्रति गमनम् -
राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना -


व्यास उवाच
संयुगे च सति तत्र भूपयोराहवाय समुपात्तशस्त्रयोः ।
क्रोधलोभवशयोः समं ततः सम्बभूव तुमुलस्तु विमर्दः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] युद्ध आरम्भ हो जानेपर क्रोध एवं लोभके वशीभूत उन दोनों राजाओंने लड़नेके लिये शस्त्र उठा लिये और तब उनके बीच भयानक संग्राम आरम्भ हो गया ॥ १ ॥

संस्थितः स समरे धृतचापः पार्थिवः पृथुलबाहुयुधाजित् ।
संयुतः स्वबलवाहनादिकैराहवाय कृतनिश्‍चयो नृपः ॥ २ ॥
युद्धके लिये कृतसंकल्प वे विशालबाहु राजा युधाजित् धनुष धारण करके अपनी सेना तथा वाहन आदिके साथ रणभूमिमें डट गये ॥ २ ॥

वीरसेन इह सैन्यसंयुतः क्षात्रधर्ममनुसृत्य सङ्गरे ।
पुत्रिकात्मजहिताय पार्थिवः संस्थितः सुरपतेः समतेजाः ॥ ३ ॥
इधर इन्द्रके समान तेजस्वी राजा वीरसेन भी क्षत्रियोचित धर्मका अनुसरण करते हुए अपने दौहित्रके हित-साधनहेतु विशाल सेनाके साथ रणक्षेत्रमें उपस्थित हो गये ॥ ३ ॥

स बाणवृष्टिं विससर्ज पार्थिवो
     युधाजितं वीक्ष्य रणे स्थितञ्च ।
गिरिं तडित्वानिव तोयवृष्टिभिः
     क्रोधान्वितः सत्यपराक्रमोऽसौ ॥ ४ ॥
सत्यपराक्रमी राजा वीरसेनने युधाजित्को समरांगणमें उपस्थित देखकर क्रोधयुक्त होकर इस प्रकार बाणोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी, मानो पर्वतपर मेघ जल बरसा रहा हो ॥ ४ ॥

तं वीरसेनो विशिखैः शिलाशितैः
     समावृणोदाशुगमैरजिह्मगैः ।
चिच्छेद बाणैश्‍च शिलीमुखानसौ
     तेनैव मुक्तानतिवेगपातिनः ॥ ५ ॥
राजा वीरसेनने पत्थरपर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये, द्रुतगामी तथा सीधे प्रवेश करनेवाले बाणोंसे युधाजित्को आच्छादित कर दिया और युधाजितके द्वारा छोड़े गये अत्यन्त तीव्रगामी बाणोंको उन्होंने अपने बाणोंसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया ॥ ५ ॥

गजरथतुरगाणां सम्बभूवातियुद्धं
     सुरनरमुनिसङ्घैर्वीक्षितञ्चातिघोरम् ।
विततविहगवृन्दैरावृतं व्योम सद्यः
     पिशितमशितुकामैः कामगृध्रादिभिश्‍च ॥ ६ ॥
इस प्रकार हाथियों, रथों तथा घोड़ोंसे अतिभयंकर युद्ध होने लगा जिसे देवता, मनुष्य तथा मुनिगण देख रहे थे । मांसभक्षणकी लालसावाले कौए, गीध आदि पक्षियोंके विस्तृत समूहसे शीघ्र ही वहाँका आकाशमण्डल ढक गया ॥ ६ ॥

तत्राद्‌भुता क्षतजसिन्धुरुवाह घोरा
     वृन्देभ्य एव गजवीरतुरङ्गमाणाम् ।
त्रासावहा नयनमार्गगता नराणां
     पापात्मनां रविजमार्गभवेव कामम् ॥ ७ ॥
उस युद्धभूमिमें हाथियों, घोड़ों तथा सैन्यसमूहोंके शरीरसे निकले रक्तसे अद्भुत तथा भयंकर नदी बह चली, जो लोगोंको उसी प्रकार दिखायी पड़ रही थी, जैसे यमलोकके मार्गमें प्रवाहित वैतरणी पापियोंको भयावह दीखती है ॥ ७ ॥

कीर्णानि भिन्नपुलिने नरमस्तकानि
     केशावृतानि च विभान्ति यथैव सिन्धौ ।
तुम्बीफलानि विहितानि विहर्तुकामै-
     र्बालैर्यथा रविसुताप्रभवैश्‍च नूनम् ॥ ८ ॥
(तीव्र धारके वेगसे] कटे हुए तटवाली उस नदीमें मनुष्योंके केशयुक्त इधर-उधर बिखरे मस्तक, खेलनेमें तत्पर बालकोंद्वारा यमुनामें फेंके गये तुम्बीफलोंके समान प्रतीत हो रहे थे ॥ ८ ॥

वीरं मृतं भुवि गतं पतितं रथाद्वै
     गृध्रः पलार्थमुपरि भ्रमतीति मन्ये ।
जीवोऽप्यसौ निजशरीरमवेक्ष्य कान्तं
     काङ्क्षत्यहोऽतिविवशोऽपि पुनः प्रवेष्टुम् ॥ ९ ॥
रथसे गिरे हुए किसी मृत वीरको पृथ्वीपर पड़ा हुआ देखकर मांसकी इच्छासे गीध उसके ऊपर मँडराने लगता था, इससे ऐसा प्रतीत होता था मानो उस वीरका जीव अपने शरीरको अति सुन्दर देखकर अत्यन्त विवश हो उसमें पुनः प्रवेश करनेकी इच्छा कर रहा हो ॥ ९ ॥

आजौ हतोऽपि नृवरः सुविमानरूढः
     स्वाङ्के स्थितां सुरवधूं प्रवदत्यभीष्टम् ।
पश्याधुना मम शरीरमिदं पृथिव्यां
     बाणाहतं निपतितं करभोरु कान्तम् ॥ १० ॥
युद्धभूमिमें हत कोई वीर योद्धा सुन्दर विमानमें आरूढ़ होकर अपनी गोदमें बैठी हुई किसी देवांगनासे अपना मनोभाव इस प्रकार व्यक्त करता था-हे करभोरु ! इस समय बाणोंसे आहत होकर धरतीपर पड़े हुए मेरे इस कान्तियुक्त शरीरको देखो ॥ १० ॥

एको हतस्तु रिपुणैव गतोऽन्तरिक्षं
     देवाङ्गनां समधिगम्य युतो विमाने ।
तावत्प्रिया हुतवहे सुसमर्प्य देहं
     जग्राह कान्तमबला सबला स्वकीया ॥ ११ ॥
शत्रुके द्वारा मारा गया एक वीर ज्यों ही अन्तरिक्षमें पहुँचा और अप्सराके पास जाकर विमानमें बैठा, त्यों ही उसकी अपनी प्रिय स्त्री अपना शरीर अग्निको भलीभांति समर्पित करके पुनः दिव्य शरीर पाकर अपने पतिके पास जा पहुंची ॥ ११ ॥

युद्धे मृतौ च सुभटौ दिवि सङ्गतौ ता-
     वन्योन्यशस्त्रनिहतौ सह सम्प्रयातौ ।
तत्रैव जघ्नतुरलं परमाहितास्त्रा-
     वेकाप्सरोऽर्थविहतौ कलहाकुलौ च ॥ १२ ॥
उस युद्धमें दो वीर परस्पर एक-दूसरेके शस्त्रप्रहारसे आहत होकर मर गये और साथ-साथ ही स्वर्गलोकमें पहुँचे । वहाँपर भी एक अप्सराको प्राप्त करनेके लिये वे दोनों वीर शस्त्रयुक्त होकर एकदूसरेको मारनेहेतु युद्ध करने लगे ॥ १२ ॥

कश्‍चिद्युवा समधिगम्य सुराङ्गनां वै
     रूपाधिकां गुणवतीं किल भक्तियुक्तः ।
स्वीयान् गुणान्प्रविततान्प्रवदंस्तदाऽसौ
     तां प्रेमदामनुचकार च योगयुक्तः ॥ १३ ॥
कोई अनुरागमय युवा वीर अतिशय रूपवती तथा गुणवती अप्सराको प्राप्त करके अत्यन्त बढ़ा-चढ़ाकर अपने गुणोंका वर्णन करते हुए उसके प्रति भक्तिपरायण होकर प्रयत्नपूर्वक उस प्रेमदायिनीके गुण आदिका अनुकरण करने लगा ॥ १३ ॥

भौ‌मं रजोऽतिविततं दिवि संस्थितञ्च
     रात्रिं चकार तरणिञ्च समावृणोद्यत् ।
मग्नं तदेव रुधिराम्बुनिधावकस्मात्
     प्रादुर्बभूव रविरप्यतिकान्तियुक्तः ॥ १४ ॥
घोर युद्धके कारण रणभूमिसे उड़ी हुई अत्यधिक धूलने अन्तरिक्षस्थित सूर्यको ढक दिया और दिनमें ही रात हो गयी । पुनः वही धूल जब अथाह रक्तसिन्धुमें विलीन हो जाती तब अत्यन्त प्रभावाले सूर्य अचानक प्रकट हो जाते ॥ १४ ॥

कश्‍चिद्‍गतस्तु गगनं किल देवकन्यां
     सम्प्राप्य चारुवदनां किल भक्तियुक्ताम् ।
नाङ्गीचकार चतुरो व्रतनाशभीतो
     यास्यत्ययं मम वृथा ह्यनुकूलशब्दः ॥ १५ ॥
कोई युवक वीर युद्धमें मरकर स्वर्ग पहुँचा तो उसे एक सुन्दर रूपवाली देवकन्या मिली, जो उसके ऊपर आसक्त हो गयी । किंतु ब्रह्मचर्यव्रतके नाश होनेसे भयभीत उस चतुर वीरने उसे स्वीकार नहीं किया; [उसने सोचा कि ऐसा करनेसे] मेरे अनुरूप यह ब्रह्मचारी शब्द व्यर्थ हो जायगा ॥ १५ ॥

सङ्ग्रामे संवृते तत्र युधाजित्पृथिवीपतिः ।
जघान वीरसेनं तं बाणैस्तीव्रैः सुदारुणैः ॥ १६ ॥
तदनन्तर घोर संग्राम छिड़ जानेपर राजा युधाजित्ने अपने तीक्ष्ण तथा अत्यन्त भीषण बाणोंसे वीरसेनको मार डाला ॥ १६ ॥

निहतः स पपातोर्व्यां छिन्नमूर्धा महीपतिः ।
प्रभग्नं तद्‍बलं सर्वं निर्गतं च चतुर्दिशम् ॥ १७ ॥
इस प्रकार कटे मस्तकवाले महाराज वीरसेन पृथ्वीपर गिर पड़े । उनकी सम्पूर्ण सेना नष्ट हो गयी और चारों दिशाओंमें भाग गयी ॥ १७ ॥

मनोरमा हतं श्रुत्वा पितरं रणमूर्धनि ।
भयत्रस्ताथ सञ्जाता पितुर्वैरमनुस्मरन् ॥ १८ ॥
हनिष्यति युधाजिद्वै पुत्रं मम दुराशयः ।
राज्यलोभेन पापात्मा सेति चिन्तापराभवत् ॥ १९ ॥
_अपने पिता वीरसेनको समरांगणमें मारा गया सुनकर तथा अपने पिताके वैरका स्मरण करते हुए मनोरमा भयसे व्याकुल हो गई । वह इस चिन्तामें पड़ गई कि बुरे विचारोंवाला वह पापी युधाजित् राज्यके लोभसे मेरे पुत्रको अवश्य ही मार डालेगा ॥ १८-१९ ॥

किं करोमि क्व गच्छामि पिता मे निहतो रणे ।
भर्ता चापि मृतोऽद्यैव पुत्रोऽयं मम बालकः ॥ २० ॥
अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? मेरे पिताजी युद्ध में मारे गये तथा पतिदेव भी मर चुके हैं और मेरा यह पुत्र अभी बालक ही है ॥ २० ॥

लोभोऽतीव च पापिष्ठस्तेन को न वशीकृतः ।
किं न कुर्यात्तदाविष्टः पापं पार्थिवसत्तमः ॥ २१ ॥
पितरं मातरं भ्रातॄन्गुरून्स्वजनबान्धवान् ।
हन्ति लोभसमाविष्टो जनो नात्र विचारणा ॥ २२ ॥
अभक्ष्यभक्षणं लोभादगम्यागमनं तथा ।
करोति किल तृष्णार्तो धर्मत्यागं तथा पुनः ॥ २३ ॥
लोभ बड़ा ही पापी होता है, इसने किसको अपने वशमें नहीं किया । लोभसे ग्रस्त हो जानेपर श्रेष्ठ राजा भी कौन-सा पाप नहीं कर सकता । लोभसे अभिभूत मनुष्य अपने माता-पिता, भाई, गुरु तथा बन्धु-बान्धवोंको भी मार डालता है । इसमें सन्देह नहीं है । लोभके कारण मनुष्य अभक्ष्यका भक्षण तथा अगम्या स्त्रीके साथ गमन भी कर लेता है; यहाँतक कि लोभसे व्याकुल होकर वह धर्मका त्याग भी कर देता है ॥ २१-२३ ॥

न सहायोऽस्ति मे कश्‍चिन्नगरेऽत्र महाबलः ।
यदाधारे स्थिता चाहं पालयामि सुतं शुभम् ॥ २४ ॥
अब इस नगरमें कोई बलवान् पुरुष मुझे सहायता देनेवाला भी नहीं रह गया, जिसके आश्रयमें रहकर मैं अपने सुन्दर पुत्रका पालन कर सकूँ ॥ २४ ॥

हते पुत्रे नृपेणाद्य किं करिष्याम्यहं पुनः ।
न मे त्राताऽस्ति भुवने येन वै सुस्थिता ह्यहम् ॥ २५ ॥
यदि राजा युधाजित् मेरे पुत्रको मार डाले, तो मैं फिर क्या करूँगी ? इस संसारमें मेरा कोई रक्षक नहीं है, जिसके सहारे मैं निश्चिन्त रह सकूँ ? ॥ २५ ॥

सापि वैरयुता कामं सपत्‍नी सर्वदा भवेत् ।
लीलावती न मे पुत्रे भविष्यति दयावती ॥ २६ ॥
मेरी सौत लीलावती भी सदा मुझसे वैरभाव रखती है, अत: वह भी मेरे पुत्रपर दया नहीं करेगी ॥ २६ ॥

युधाजिति समायाते न मे निःसरणं भवेत् ।
ज्ञात्वा बालं सुतं सोऽद्य कारागारं नयिष्यति ॥ २७ ॥
युधाजित्के रणभूमिसे लौटकर आ जानेपर मेरा यहाँसे निकल भागना सम्भव नहीं हो सकेगा; वह मेरे पुत्रको बालक जानकर उसे कारागारमें डाल देगा ॥ २७ ॥

श्रूयते हि पुरेन्द्रेण मातुर्गर्भगतः शिशुः ।
कृन्तितः सप्तधा पश्‍चात्कृतास्ते सप्त सप्तधा ॥ २८ ॥
प्रविश्य चोदरं मातुः करे कृत्वाल्पकं पविम् ।
एकोनपञ्चाशदपि तेऽभवन्मरुतो दिवि ॥ २९ ॥
सुना जाता है कि पूर्वकालमें इन्द्रने अपने वजको अत्यन्त छोटा बनाकर अपनी सौतेली माता दितिके गर्भ में प्रवेश करके गर्भस्थ शिशुको काटकर उसके सात टुकड़े कर दिये थे । इसके बाद उसने पुनः एक-एक टुकड़ेके सात-सात खण्ड कर दिये थे । वे ही आगे चलकर देवलोकमें उनचास मरुत्के रूपमें प्रतिष्ठित हुए । २८-२९ ॥

सपत्‍न्यै गरलं दत्तं सपत्‍न्या नृपभार्यया ।
गर्भनाशार्थमुद्दिश्य पुरैतद्वै मया श्रुतम् ॥ ३० ॥
जातस्तु बालकः पश्‍चाद्देहे विषयुतः किल ।
तेनासौ सगरो नाम विख्यातो भुवि मण्डले ॥ ३१ ॥
मैंने यह भी सुना है कि पूर्वकालमें एक राजाकी किसी रानीने अपनी सौतके गर्भको नष्ट करनेके उद्देश्यसे उसे विष दे दिया था । कुछ समय बीतनेपर वह बालक विषके साथ उत्पन्न हुआ, इसीसे वह भूमण्डलपर 'सगर' नामसे प्रसिद्ध हो गया । ३०-३१ ॥

जीवमानोऽथ भर्ता वै कैकेय्या नृपभार्यया ।
रामः प्रव्राजितो ज्येष्ठो मृतो दशरथो नृपः ॥ ३२ ॥
महाराज दशरथकी भार्या कैकेयीने पतिके जीवनकालमें ही उनके ज्येष्ठ पुत्र रामचन्द्रको वनवास दे दिया था, जिसके फलस्वरूप राजा दशरथकी मृत्यु भी हो गयी ॥ ३२ ॥

मन्त्रिणस्त्ववशाः कामं ये मे पुत्रं सुदर्शनम् ।
राजानं कर्तुकामा वै युधाजिद्वशगाश्‍च ते ॥ ३३ ॥
न मे भ्राता तथा शूरो यो मां बन्धात्प्रमोचयेत् ।
महत्कष्टञ्च सम्प्राप्तं मया वै दैवयोगतः ॥ ३४ ॥
उद्यमः सर्वथा कार्यः सिद्धिर्दैवाद्धि जायते ।
उपायं पुत्ररक्षार्थं करोम्यद्य त्वरान्विता ॥ ३५ ॥
जो मन्त्री मेरे पुत्र सुदर्शनको राजा बनाना चाहते थे, वे भी अब विवश होकर युधाजित्के अधीन हो गये हैं । मेरा भाई भी ऐसा योद्धा नहीं है, जो मुझे बन्धनसे छुड़ा सके । दैवयोगसे मैं महान् संकटमें पड़ गयी हूँ । फिर भी उद्योग तो सर्वथा करना ही चाहिये, सफलता तो दैवके आधीन है । अतः अब मैं अपने पुत्रकी रक्षाके लिये शीघ्र ही कोई उपाय करूँगी ॥ ३३-३५ ॥

इति सञ्चिन्त्य सा बाला विदल्लं चातिमानिनम् ।
निपुणं सर्वकार्येषु चिन्त्यं मन्त्रिवरोत्तमम् ॥ ३६ ॥
समाहूय तमेकान्ते प्रोवाच बहुदुःखिता ।
गृहीत्वा बालकं हस्ते रुदती दीनमानसा ॥ ३७ ॥
पिता मे निहतः संख्ये पुत्रोऽयं बालकस्तथा ।
युधाजिद्‌बलवान् राजा किं विधेयं वदस्व मे ॥ ३८ ॥
ऐसा सोचकर वह रानी अतिसम्मानित, सभी कार्योंमें दक्ष तथा विचार-कुशल श्रेष्ठ मन्त्रिप्रवर विदल्लको बुलवाकर उन्हें एकान्तमें ले गयी और बालकको हाथमें लेकर रोती हुई दीन मनवाली उस मनोरमाने अत्यन्त दुःखित होकर उनसे कहामेरे पिता युद्ध में मारे गये और मेरा यह पुत्र अभी अबोध बालक है । राजा युधाजित् बलवान् हैं । [ऐसी परिस्थितिमें] मुझे क्या करना चाहिये ? मुझे बतायें ॥ ३६-३८ ॥

तामुवाच विदल्लोऽसौ नात्र स्थातव्यमेव च ।
गमिष्यामो वने कामं वाराणस्याः पुनः किल ॥ ३९ ॥
तत्र मे मातुलः श्रीमान्वर्तते बलवत्तरः ।
सुबाहुरिति विख्यातो रक्षिता स भविष्यति ॥ ४० ॥
तब विदल्लने उससे कहा-अब यहाँ नहीं रहना चाहिये, हमलोग यहाँसे वाराणसीके वनमें चलेंगे । वहाँ सुबाहु नामसे विख्यात मेरे मामा रहते हैं । वे समृद्धिशाली तथा महाबलशाली हैं; वे ही हमारे रक्षक होंगे ॥ ३९-४० ॥

युधाजिद्दर्शनोत्कण्ठमनसा नगराद्‌बहिः ।
निर्गत्य रथमारुह्य गन्तव्यं नात्र संशयः ॥ ४१ ॥
मनमें युधाजितके दर्शनकी लालसासे नगरसे बाहर निकल चलना चाहिये और रथपर सवार हो प्रस्थान कर देना चाहिये । इसमें शंकाकी आवश्यकता नहीं है ॥ ४१ ॥

इत्युक्ता तेन सा राज्ञी गत्वा लीलावतीं प्रति ।
उवाच पितरं द्रष्टुं गच्छाम्यद्य सुलोचने ॥ ४२ ॥
विदल्लके ऐसा कहनेपर रानी मनोरमा लीलावतीके पास गयी और बोली-हे सुनयने ! मैं [तुम्हारे] पिताजीका दर्शन करने जा रही हूँ ॥ ४२ ॥

इत्युक्त्वा रथमारुह्य सैरन्ध्रीसंयुता तदा ।
विदल्लेन च संयुक्ता निःसृता नगराद्‌बहिः ॥ ४३ ॥
त्रस्ता ह्यार्तातिकृपणा पितुः शोकसमाकुला ।
दृष्ट्वा युधाजितं भूपं पितरं गतजीवितम् ॥ ४४ ॥
संस्कार्य च त्वरायुक्ता वेपमाना भयाकुला ।
दिनद्वयेन सम्प्राप्ता राज्ञी भागीरथीतटम् ॥ ४५ ॥
ऐसा कहकर मनोरमा एक दासी और मन्त्री विदल्लको साथ लेकर रथपर सवार हो नगरसे बाहर निकल गयी । उस समय बहुत डरी हुई, दुःखित, अत्यन्त दीन तथा पिताके मृत्युजन्य शोकसे व्याकुल वह मनोरमा राजा युधाजित्से मिलकर तत्काल अपने मृत पिताका दाहसंस्कार कराकर भयसे त्र्याकुल हो काँपती हुई दो दिनोंमें गंगाजीके तटपर पहुँच गयी ॥ ४३-४५ ॥

निषादैलुण्ठिता तत्र गृहीतं सकलं वसु ।
रथञ्चापि गृहीत्वा ते निर्गता दस्यवः शठाः ॥ ४६ ॥
रुदती सुतमादाय चारुवस्त्रा मनोरमा ।
निर्ययौ जाह्नवीतीरे सैरन्ध्रीकरलम्बिता ॥ ४७ ॥
आरुह्य च भयाच्छीघ्रमुडुपं सा भयाकुला ।
तीर्त्वा भागीरथीं पुण्यां ययौ त्रिकूटपर्वतम् ॥ ४८ ॥
वहाँके निपादोंने उसे लूट लिया तथा उसका सारा धन और रथ छीन लिया । सब कुछ लेकर वे धूर्त दस्यु चले गये । तब वह रोती हुई अपने पुत्रको लेकर सैरंध्रीके हाथका सहारा लेकर किसी प्रकार गंगाके तटपर गयी और एक छोटी-सी नौकापर डरती हुई बैठकर पवित्र गंगाको पार करके वह भयाक्रान्त मनोरमा त्रिकूटपर्वतपर पहुँच गयी ॥ ४६-४८ ॥

भारद्वाजाश्रमं प्राप्ता त्वरया च भयाकुला ।
संवीक्ष्य तापसांस्तत्र सञ्जाता निर्भया तदा ॥ ४९ ॥
मुनिना सा ततः पृष्टा काऽसि कस्य परिग्रहः ।
कष्टेनात्र कथं प्राप्ता सत्यं ब्रूहि शुचिस्मिते ॥ ५० ॥
देवी वा मानुषी वासि बालपुत्रा वने कथम् ।
राज्यभ्रष्टेव वामोरु भासि त्वं कमलेक्षणे ॥ ५१ ॥
वह भयभीत मनोरमा भारद्वाजमुनिके आश्रममें शीघ्रतासे पहुंची । तब वहाँ तपस्वियोंको देखकर वह निर्भय हो गयी । तदनन्तर भारद्वाजमनिने पूछा-हे शुचिस्मिते ! तुम कौन हो, किसकी पत्नी हो ? इतने कष्टसे तुम यहाँ कैसे आ गयी हो ? मुझसे सत्य कहो । तुम कोई देवी हो अथवा मानवी हो । अपने इस बालक पुत्रके साथ वनमें क्यों विचरण कर रही हो ? हे सुन्दरि ! हे कमलनयने ! तुम राज्यभ्रष्ट-जैसी प्रतीत हो रही हो । ४९-५१ ॥

एवं सा मुनिना पृष्टा नोवाच वरवर्णिनी ।
रुदती दुःखसन्तप्ता विदल्लं च समादिशत् ॥ ५२ ॥
मुनिके पूछनेपर उस रूपवती रानीने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और दुःखसे सन्तप्त होकर रोती हुई उसने अपने मन्त्री विदल्लको सारी बातें बतानेके लिये संकेत किया ॥ ५२ ॥

विदल्लस्तमुवाचेदं ध्रुवसन्धिर्नृपोत्तमः ।
तस्य भार्या धर्मपत्‍नी नाम्ना चेयं मनोरमा ॥ ५३ ॥
तब विदल्लने मुनिसे कहा-ध्रुवसन्धि एक श्रेष्ठ नरेश थे । ये उन्हींकी मनोरमा नामवाली धर्मपत्नी हैं ॥ ५३ ॥

सिंहेन निहतो राजा सूर्यवंशी महाबलः ।
पुत्रोऽयं नृपतेस्तस्य नाम्ना चैव सुदर्शनः ॥ ५४ ॥
सूर्यवंशमें उत्पन्न उन महाबली महाराजको सिंहने मार डाला । सुदर्शन नामका यह बालक उन्हीं राजाका पुत्र है ॥ ५४ ॥

अस्याः पितातिधर्मात्मा दौहित्रार्थं मृतो रणे ।
युधाजिद्‌भयसन्त्रस्ता सम्प्राप्ता विजने वने ॥ ५५ ॥
इनके अत्यन्त धर्मात्मा पिता अपने इसी दौहित्रके लिये संग्राममें मारे गये । अतएव युधाजित्के भयसे संत्रस्त होकर ये इस निर्जन वनमें आयी हुई हैं ॥ ५५ ॥

त्वामेव शरणं प्राप्ता बालपुत्रा नृपात्मजा ।
त्राता भव महाभाग त्वमस्या मुनिसत्तम ॥ ५६ ॥
हे महाभाग ! हे मुनिश्रेष्ठ ! अबोध पुत्रवाली ये राजपुत्री अब आपकी शरणमें आयी हैं । अतः आप इनकी रक्षा कीजिये ॥ ५६ ॥

आर्तस्य रक्षणे पुण्यं यज्ञाधिकमुदाहृतम् ।
भयतस्तस्य दीनस्य विशेषफलदं स्मृतम् ॥ ५७ ॥

किसी दु:खी प्राणीकी रक्षा करने में यज्ञ करनेसे भी अधिक पुण्य बताया गया है । भयभीत तथा दीनकी रक्षाको तो और भी अधिक फलदायक कहा गया है । ५७ ॥

ऋषिरुवाच
निर्भया वस कल्याणि पुत्रं पालय सुव्रते ।
न ते भयं विशालाक्षि कर्तव्यं शत्रुसम्भवम् ॥ ५८ ॥
पालयस्व सुतं कान्तं राजा तेऽयं भविष्यति ।
नात्र दुःखं तथा शोकः कदाचित्सम्भविष्यति ॥ ५९ ॥
ऋषि बोले-हे कल्याणि ! तुम यहाँ भयरहित होकर निवास करो; हे सुव्रते ! अपने पुत्रका पालनपोषण करो । हे विशालनयने ! यहाँ तुम्हें शत्रुओंसे उत्पन्न होनेवाला किसी प्रकारका भी भय नहीं करना चाहिये । तुम अपने इस कान्तिमान् पुत्रका पालन करो, तुम्हारा यह पुत्र आगे चलकर राजा होगा । यहाँ तुम लोगोंको कभी भी कोई दुःख तथा शोक नहीं होगा ॥ ५८-५९ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्ता मुनिना राज्ञी स्वस्था सा सम्बभूव ह ।
उटजे मुनिना दत्ते वीतशोका तदावसत् ॥ ६० ॥
व्यासजी बोले-मुनिके इस प्रकार कहनेपर महारानी मनोरमा निश्चिन्त हो गयीं और मुनिके द्वारा प्रदान की गयी एक कुटियामें वे शोकरहित होकर निवास करने लगीं ॥ ६० ॥

सैरन्ध्रीसहिता तत्र विदल्लेन च संयुता ।
सुदर्शनं पालयाना न्यवसत्सा मनोरमा ॥ ६१ ॥
इस प्रकार सुदर्शनका पालन-पोषण करती हुई वे मनोरमा अपनी दासी तथा मन्त्री विदल्लके साथ वहाँ रहने लगीं ॥ ६१ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
मनोरमया भारद्वाजाश्रमं प्रति गमनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
अध्याय पंद्रहवाँ समाप्त


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