ब्राह्मणोंके वेदपाठों, बन्दीजनोंके स्तुतिगान तथा मंगलकारी जयघोषसे अयोध्यानगरी प्रफुल्लितसी दिखायी दे रही थी ॥ ५ ॥
हृष्टपुष्टजनाकीर्णा स्तुतिवादित्रनिःस्वना । नवे तस्मिन्महीपाले पूर्बभौ नूतनेव सा ॥ ६ ॥
हृष्ट-पुष्टजनोंसे भरी-पूरी और स्तुतियों तथा वाद्योंकी ध्वनिसे निनादित वह अयोध्या उस नये नरेशके अभिषिक्त होनेपर नवीन पुरीकी भांति सुशोभित हो रही थी ॥ ६ ॥
केचित्साधुजना ये वै चक्रुः शोकं गृहे स्थिताः । सुदर्शनं विचिन्त्याद्य क्व गतोऽसौ नृपात्मजः ॥ ७ ॥ मनोरमातिसाध्वी सा क्व गता सुतसंयुता । पिताऽस्या निहतः संख्ये राज्यलोभेन वैरिणा ॥ ८ ॥
उस नगरीमें जो कोई भी सज्जनलोग थे, उन्होंने अपने घरमें ही रहकर शोक मनाया । वे सुदर्शनके विषयमें सोचते हुए कह रहे थे कि वह राजकुमार कहाँ चला गया ? महान् पतिव्रता वह मनोरमा अपने पुत्रके साथ कहाँ चली गयी ? राज्यलोभी शत्रु युधाजित्ने युद्ध में उसके पिताको मार डाला ॥ ७-८ ॥
इत्येवं चिन्त्यमानास्ते साधवः समबुद्धयः । अतिष्ठन्दुःखितास्तत्र शत्रुजिद्वशवर्तिनः ॥ ९ ॥
ऐसा विचार करते हुए सबमें समान बुद्धि रखनेवाले वे साधुजन शत्रुजित्के अधीन होकर दु:खी मनसे रहने लगे ॥ ९ ॥
युधाजिदपि दौहित्रं स्थापयित्वा विधानतः । राज्यञ्च मन्त्रिसात्कृत्वा चलितः स्वां पुरीं प्रति ॥ १० ॥
इस प्रकार युधाजित् भी विधानपूर्वक अपने दौहित्रको राजसिंहासनपर बैठाकर तथा राज्यभार मन्त्रियोंको सौंपकर अपनी नगरीको प्रस्थान कर गया ॥ १० ॥
श्रुत्वा सुदर्शनं तत्र मुनीनामाश्रमे स्थितम् । हन्तुकामो जगामाशु चित्रकूटं स पर्वतम् ॥ ११ ॥
सुदर्शन मुनियोंके आश्रममें रह रहा है-ऐसा सुनकर युधाजित् उसे मार डालनेकी इच्छासे तत्काल ही चित्रकूट-पर्वतकी ओर चल पड़ा ॥ ११ ॥
निषादाधिपतिं शूरं पुरस्कृत्य बलाभिधम् । दुर्दर्शाख्यमगादाशु शृङ्गवेरपुराधिपम् ॥ १२ ॥
वह दुर्दर्श नामक शृंगवेरपुरके राजाके यहाँ पहुँचा और उस विशाल सेनासम्पन्न तथा पराक्रमी निषादराजको अगुआ बनाकर उसने शीघ्र ही आगेकी ओर प्रस्थान किया ॥ १२ ॥
अत्यन्त शोकसन्तप्त वह मनोरमा आँखोंमें आँसू भरकर मुनि भारद्वाजसे बोली कि युधाजित् यहाँ भी आ पहुँचा; अब मैं क्या करूँ तथा कहाँ जाऊँ ? ॥ १४ ॥
पिता मे निहतोऽनेन दौहित्रो भूपतिः कृतः । सुतं मे हन्तुकामोऽत्र समायाति बलान्वितः ॥ १५ ॥
इसने मेरे पिताका वध कर दिया तथा अपने दौहित्रको राजा बना दिया । अब वह विशाल सेनाके साथ मेरे पुत्रके वधकी कामनासे यहाँ आ रहा है ॥ १५ ॥
पुरा श्रुतं मया स्वामिन्पाण्डवा वै वने स्थिताः । मुनीनामाश्रमे पुण्ये पाञ्चाल्या सहितास्तदा ॥ १६ ॥ गतास्ते मृगयां पार्था भ्रातरः पञ्च एव ते । द्रौपदी संस्थिता तत्र मुनीनामाश्रमे शुभे ॥ १७ ॥
हे स्वामिन् ! मैंने सुना है कि पूर्वकालमें जब मुनियोंके पवित्र आश्रममें द्रौपदीके साथ पाण्डव निवास कर रहे थे, उसी समय एक दिन वे पाँचों भाई आखेटके लिये चले गये और द्रौपदी वहींपर मुनियोंके उस पावन आश्रममें रह गयी थी ॥ १६-१७ ॥
धौम्योऽत्रिर्गालवः पैलो जावालिर्गौतमो भृगुः । च्यवनश्चात्रिगोत्रश्च कण्वश्चैव जतुः क्रतुः ॥ १८ ॥ वीतिहोत्रः सुमन्तुश्च यज्ञदत्तोऽथ वत्सलः । राशासनः कहोडश्च यवक्रीर्यज्ञकृत्क्रतुः ॥ १९ ॥ एते चान्ये च मुनयो भारद्वाजादयः शुभाः । वेदपाठयुताः सर्वे संस्थिताश्चाश्रमे स्थिताः ॥ २० ॥
धौम्य, अत्रि, गालव, पैल, जाबालि, गौतम, भृगु, च्यवन, अत्रिगोत्रज कण्व, जतु, क्रतु, वीतिहोत्र, सुमन्तु, यज्ञदत्त, वत्सल, राशासन, कहोड, यवक्री, यज्ञकृत् क्रतु-ये सब और भारद्वाज आदि अन्य पुण्यात्मा मुनिगण उस पावन आश्रममें विराजमान थे । वे सभी वेदपाठ कर रहे थे ॥ १८-२० ॥
जब वह अपने दो भृत्योंके साथ आगे बढ़ा तो मुनियोंको वेदपाठमें संलग्न देखकर वहींपर बैठ गया । हे स्वामिन् ! राजा जयद्रथ हाथ जोड़कर कुछ देरतक बैठा रहा । इसके बाद वह मुनियोंसे भरे हुए उस आश्रममें प्रविष्ट हुआ ॥ २५-२६ ॥
तत्रोपविष्टं राजानं द्रष्टुकामाः स्त्रियस्तदा । आययुर्मुनिभार्याश्च कोऽयमित्यब्रुवन्नृपम् ॥ २७ ॥
तत्पश्चात् मुनियोंकी पत्नियाँ तथा अन्य स्त्रियाँ वहाँ बैठे हुए राजा जयद्रथको देखनेकी इच्छासे वहाँ आ गयीं और लोगोंसे पूछने लगीं-यह कौन है ? ॥ २७ ॥
तासां मध्ये वरारोहा याज्ञसेनी समागता । जयद्रथेन दृष्टा सा रूपेण श्रीरिवापरा ॥ २८ ॥
उन्हीं स्त्रियोंके साथ परम सुन्दरी द्रौपदी भी आयी थी । जयद्रथकी दृष्टि दूसरी लक्ष्मीके समान प्रतीत हो रही उस द्रौपदीपर पड़ गयी ॥ २८ ॥
दूसरी देवकन्याकी भाँति प्रतीत हो रही उस श्याम नेत्रोंवाली द्रौपदीको देखकर राजा जयद्रथने ऋषि धौम्यसे पूछा कि यह सुन्दर मुखवाली युवती कौन है ? ॥ २९ ॥
भार्या कस्य सुता कस्य नाम्ना का वरवर्णिनी । रूपलावण्यसंयुक्ता शचीव वसुधाङ्गता ॥ ३० ॥
यह किसकी पली है, किसकी पुत्री है और इस परम सुन्दरीका नाम क्या है ? रूप तथा सौन्दर्यसे सम्पन्न यह स्त्री तो धरापर उतरकर आयी हुई साक्षात् इन्द्राणीकी भाँति प्रतीत हो रही है ॥ ३० ॥
धौम्य बोले-हे सिन्धुराजेन्द्र ! समस्त शुभ लक्षणोंवाली यह पाण्डवोंकी प्रिय भार्या तथा पांचालनरेशकी पुत्री द्रौपदी है । यह इसी पवित्र आश्रममें निवास करती है ॥ ३३ ॥
धौम्य बोले-पाँचों पाण्डव इस समय रथपर आरूढ़ होकर आखेटके लिये वनमें गये हुए हैं । वे राजागण मध्याह्नकालमें मृगोंको लेकर आ जायँगे ॥ ३५ ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य उदतिष्ठदसौ नृपः । द्रौपदीसन्निधौ गत्वा प्रगम्येदमुवाच ह ॥ ३६ ॥ कुशलं ते वरारोहे क्व गताः पतयश्च ते । एकादश गतान्यद्य वर्षाणि च वने किल ॥ ३७ ॥
मुनिका यह वचन सुनकर वह राजा जयद्रथ अपने आसनसे उठा और द्रौपदीके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार बोला-हे परम सुन्दरि ! आप सकुशल तो हैं न, आपके पतिगण कहाँ गये हुए हैं ? आपको वनमें निवास करते हुए आज ग्यारह वर्ष बीत चुके हैं ॥ ३६-३७ ॥
तत्पश्चात् द्रौपदीने कहा-हे राजकुमार ! आपका कल्याण हो । अभी थोड़ी ही देरमें पाण्डव आ जायेंगे, तबतक आप आश्रमके समीप ही विश्राम कीजिये ॥ ३८ ॥
एवं ब्रुवन्त्यां तस्यां तु लोभाविष्टः स भूपतिः । जहार द्रौपदीं वीरोऽनादृत्य मुनिसत्तमान् ॥ ३९ ॥
उसके ऐसा कहनेपर लोभसे आक्रान्त उस वीर जयद्रथने मुनिवरोंकी अवहेलना करके द्रौपदीका हरण कर लिया ॥ ३९ ॥
कस्यचिन्नैव विश्वासः कर्तव्यः सर्वथा बुधैः । कुर्वन्दुःखमवाप्नोति दृष्टान्तस्त्वत्र वै बलिः ॥ ४० ॥ वैरोचनसुतः श्रीमान्धर्मिष्ठः सत्यसङ्गरः । यज्ञकर्ता च दाता च शरण्यः साधुसंमतः ॥ ४१ ॥
[मनोरमाने कहा-हे स्वामिन् !] अतएक बुद्धिमान् लोगोंको चाहिये कि वे किसीपर में विश्वास न करें, ऐसा करनेवाला व्यक्ति दुःख प्राप्त करता है । इस विषयमें राजा बलि उदाहरण हैं । विरोचनपुत्र राजा बलि वैभवसम्पन्न, धर्मपरायण. सत्यप्रतिज्ञ, यज्ञकर्ता, दानी, शरणदाता तथा साधुजनोंक सम्मान्य थे ॥ ४०-४१ ॥
नाधर्मे निरतः क्वापि प्रल्हादस्य च पौत्रकः । एकोनशतयज्ञान्वै स चकार सदक्षिणान् ॥ ४२ ॥ सत्त्वमूर्त्तिः सदा विष्णुः सेव्यः स योगिनामपि । निर्विकारोऽपि भगवान्देवकार्यार्थसिद्धये ॥ ४३ ॥ कश्यपाच्च समुद्भूतो विष्णुः कपटवामनः । राज्यं छलेन हृतवान्महीं चैव ससागराम् ॥ ४४ ॥
प्रह्लादके पौत्र वे राजा बलि कभी अधर्मक आचरण नहीं करते थे । उन्होंने दक्षिणायुक्त निन्यानवे यज्ञ किये थे, फिर भी सत्त्वगुणकी साक्षात् मूर्ति, योगियोंद्वारा सदा आराधित तथा विकारोंसे रहित भगवान् विष्णु भी देवताओंका प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये कश्यपसे उत्पन्न हुए और उन्होंने वामनक कपटवेष धारण करके छलपूर्वक उनका राज्य तथा सागरसमेत पृथ्वी ले ली ॥ ४२-४४ ॥
लोभसे नष्ट हुए चित्तवाले प्राणी दूसरोंका धन हड़पनेके लिये मन, वचन तथा कर्मसे सम्यक् तत्पर रहते हैं । ४९ ॥
देवानाराध्य सततं वाञ्छन्ति च धनं नराः । न देवास्तत्करे कृत्वा समर्था दातुमञ्जसा ॥ ५० ॥
देवताओंकी निरन्तर आराधना करके मनुष्य उनसे धनकी कामना करते हैं । यह निश्चित है कि वे देवता अपने हाथोंसे धन उठाकर उन्हें देने में पूरी तरहसे समर्थ नहीं हैं ॥ ५० ॥
किंतु व्यवसाय, दान, चोरी अथवा बलपूर्वक लूट आदि किसी भी माध्यमसे मनुष्यका अभिलषित धन [उन देवताओंके द्वारा] दूसरेके पाससे ला करके उन्हें दे दिया जाता है ॥ ५१ ॥
विक्रय करनेके लिये पर्याप्त धान्य तथा वस्त्र आदिका संग्रह करके वैश्य इस भावनासे देवताओंकी पूजा करता है कि 'मेरे पास विपुल धन हो जाय । ' हे परन्तप ! क्या इस व्यापारके द्वारा दूसरोंका धन ग्रहण करनेकी उन्हें इच्छा नहीं होती ? वस्तुका संग्रह करनेके बादसे ही वह भाव महँगा होनेकी इच्छा करने लगता है ॥ ५२-५३ ॥
एवं हि प्राणिनः सर्वे परस्वादानतत्पराः । वर्तन्ते सततं ब्रह्मन् विश्वासः कीदृशः पुनः ॥ ५४ ॥
हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार सभी प्राणी दूसरोंका धन ले लेनेके लिये निरन्तर तत्पर रहते हैं तो फिर विश्वास कैसा ? ॥ ५४ ॥
मनोरमाके ऐसा कहनेपर तेजस्वी भारद्वाजमुनि राजा युधाजित्के पास जाकर उनसे बोले-हे राजन् ! हे नृपश्रेष्ठ ! अपने इच्छानुसार आप अपने नगरको चले जायें । छोटे बालकवाली यह मनोरमा बड़ी दुःखी है; वह नहीं आ रही है ॥ ५७-५८ ॥
युधाजिदुवाच मुने मुञ्च हठं सौम्य विसर्जय मनोरमाम् । न च यास्याम्यहं मुक्त्वा नेष्याम्यद्य बलात्पुनः ॥ ५९ ॥
युधाजित् बोला-हे सौम्य मुने ! आप हठ छोड़ दीजिये और मनोरमाको विदा कीजिये, इसे छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा, [यदि आप नहीं मानेंगे तो] मैं इसे अभी बलपूर्वक ले जाऊँगा ॥ ५९ ॥
ऋषिरुवाच नयस्व यदि शक्तिस्ते बलेनाद्य ममाश्रमात् । विश्वामित्रो यथा धेनुं वसिष्ठस्य मुनेः पुरा ॥ ६० ॥
ऋषि बोले-जैसे प्राचीन कालमें विश्वामित्र वसिष्ठमुनिकी गौ ले जानेके लिये उद्यत हुए थे, उसी प्रकार यदि आपमें शक्ति हो तो आज मेरे आश्रमसे इसे बलपूर्वक ले जाइये ॥ ६० ॥
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे युधाजिद्भारद्वाजयोः संवादवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥