युधाजितका अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठ-विश्वामित्र-प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजितका वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना -
व्यास उवाच इत्याकर्ण्य वचस्तस्य मुनेस्तत्रावनीपतिः । मन्त्रिवृद्धं समाहूय पप्रच्छ तमतन्द्रितः ॥ १ ॥ किं कर्तव्यं सुबुद्धेऽत्र मयाऽद्य वद सुव्रत । बलान्नयामि तां कामं सपुत्राञ्च सुभाषिणीम् ॥ २ ॥ रिपुरल्पोऽपि नोपेक्ष्यः सर्वथा शुभमिच्छता । राजयक्ष्मेव संवृद्धो मृत्यवे परिकल्पयेत् ॥ ३ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] भारद्वाजमुनिका यह वचन सुनकर राजा युधाजित्ने अपने प्रधान अमात्यको बुलाकर बड़ी सावधानीसे उनसे पूछाहे सुबुद्धे ! आप बतायें कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? हे सुव्रत ! क्या मधुर वचन बोलनेवाली मनोरमाको पुत्रसहित बलपूर्वक ले चलूँ ? अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको चाहिये कि वह तुच्छ शत्रुकी भी उपेक्षा न करे, क्योंकि वह राजयक्ष्मा रोगके समान बढ़कर मृत्युका कारण बन जाता है ॥ १-३ ॥
नात्र सैन्यं न योद्धास्ति यो मामत्र निवारयेत् । गृहीत्वा हन्मि तं तत्र दौहित्रस्य रिपुं किल ॥ ४ ॥ निष्कण्टकं भवेद्राज्यं यताम्यद्य बलादहम् । हते सुदर्शने नूनं निर्भयोऽसौ भवेदिति ॥ ५ ॥
यहाँ न कोई सेना है और न कोई योद्धा ही है जो मुझे रोक सके । अतः मैं अपने दौहित्रके शत्रु उस सुदर्शनको पकड़कर अभी मार डालूँगा । यदि मैं बलपूर्वक इस प्रयत्नमें सफल हो जाता हूँ तो उसका राज्य निष्कंटक हो जायगा । सुदर्शनके मर जानेपर निश्चय ही वह निर्भय हो जायगा ॥ ४-५ ॥
प्रधान उवाच साहसं न हि कर्तव्यं श्रुतं राजन् मुनेर्वचः । विश्वामित्रस्य दृष्टान्तः कथितस्तेन मारिष ॥ ६ ॥
प्रधान अमात्यने कहा-हे राजन् ! ऐसा दुःसाहस नहीं करना चाहिये । अभी आपने भारद्वाजमुनिका वचन सुना ही है । हे मान्य ! उन्होंने [इस सम्बन्धमें] विश्वामित्रका दृष्टान्त दिया है ॥ ६ ॥
पुरा गाधिसुतः श्रीमान्विश्वामित्रोऽतिविश्रुतः । विचरन्स नृपश्रेष्ठो वसिष्ठाश्रममभ्यगात् ॥ ७ ॥
प्राचीन समयमें गाधितनय विश्वामित्र एक समृद्धिशाली तथा प्रसिद्ध राजा थे । एक बार वे महाराज घूमते हुए महर्षि वसिष्ठके आश्रममें जा पहुँचे ॥ ७ ॥
नमस्कृत्य च तं राजा विश्वामित्रः प्रतापवान् । उपविष्टो नृपश्रेष्ठो मुनिना दत्तविष्टरः ॥ ८ ॥ निमन्त्रितो वसिष्ठेन भोजनाय महात्मना । ससैन्यश्च स्थितो राजा गाधिपुत्रो महायशाः ॥ ९ ॥
प्रतापी राजाओंमें श्रेष्ठ वे महाराज विश्वामित्र उन्हें प्रणाम करके मुनिद्वारा प्रदत्त आसनपर बैठ गये । उसके बाद महात्मा वसिष्ठजीने उन्हें भोजनके लिये निमन्त्रित किया, तब वे महायशस्वी गाधिपुत्र विश्वामित्र अपने सैनिकोंसहित उपस्थित हो गये । ८-९ ॥
नन्दिन्याऽऽसादितं सर्वं भक्ष्यभोज्यादिकं च यत् । भुक्त्वा राजा ससैन्यश्च वाञ्छितं तत्र भोजनम् ॥ १० ॥ प्रतापं तञ्च नन्दिन्याः परिज्ञाय स पार्थिवः । ययाचे नन्दिनीं राजा वसिष्ठं मुनिसत्तमम् ॥ ११ ॥
उस समय भक्ष्य तथा भोज्य आदि जो भी आवश्यक हुआ, वह सब उनकी नन्दिनी गाने उपस्थित कर दिया । सेनासमेत राजा विश्वामित्र मनोवांछित भोजन करके इसे नन्दिनी गौका प्रभाव समझकर वे राजा उन मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजीसे नन्दिनी गौ माँगने लगे ॥ १०-११ ॥
विश्वामित्र उवाच मुने धेनुसहस्रं ते घटोध्नीनां ददाम्यहम् । नन्दिनीं देहि मे धेनुं प्रार्थयामि परन्तप ॥ १२ ॥
विश्वामित्र बोले-हे मुने ! मैं आपको पर्याप्त दूध देनेवाली हजारों गौएँ दूंगा; आप मुझे यह अपनी नन्दिनी गौ दे दीजिये । हे परन्तप ! मैं यही प्रार्थना कर रहा हूँ ॥ १२ ॥
वसिष्ठ बोले-हे राजन् ! यह गौ होमके लिये हविष्य प्रदान करती है । अतः मैं इसे किसी प्रकार भी नहीं दे सकता । आपकी हजार गौएँ आपके ही पास रहें ॥ १३ ॥
विश्वामित्र उवाच अयुतं वाथ लक्ष्यं वा ददामि मनसेप्सितम् । द्देहि मे नन्दिनीं साधो ग्रहीष्यामि बलादथ ॥ १४ ॥
विश्वामित्र बोले-हे साधो ! मैं आपकी इच्छाके अनुसार दस हजार अथवा एक लाख गौएँ दे रहा हूँ, आप नन्दिनी मुझे दे दीजिये, नहीं तो मैं इसे बलपूर्वक ग्रहण कर लूँगा ॥ १४ ॥
वसिष्ठ उवाच कामं गृहाण नृपते बलादद्य यथारुचि । नाहं ददामि ते राजन्स्वेच्छया नन्दिनीं गृहात् ॥ १५ ॥
वसिष्ठ बोले-हे नृपते ! जैसी आपकी रुचि हो, आप इसे बलपूर्वक अभी ले लीजिये, किंतु हे राजन् ! मैं तो इस नन्दिनीको स्वेच्छासे अपने आश्रमसे आपको नहीं दूंगा ॥ १५ ॥
यह सुनकर राजा विश्वामित्रने अपने महाबली अनुचरोंको आदेश दिया कि तुमलोग इस नन्दिनी गौको ले चलो । तब बलके अभिमानमें चूर उन अनुचरोंने आक्रमण करके उस धेनुको बलपूर्वक बाँधकर पकड़ लिया ॥ १६ ॥
ते भृत्या जगृहुस्तां तु हठादाक्रम्य यन्त्रिताम् । वेपमाना मुनिं प्राह सुरभिः साश्रुलोचना ॥ १७ ॥
तब आँखोंमें आँसू भरकर काँपती हुई उस नन्दिनीने मुनिसे कहा-हे मुने ! आप मुझे क्यों त्याग रहे हैं ? ये सब मुझे बाँधकर खींच रहे हैं ॥ १७ ॥
वसिष्ठजीने उससे कहा-हे उत्तम दूध देनेवाली नन्दिनी ! मैं तुम्हें त्याग नहीं रहा हूँ । ये राजा तुम्हें बलपूर्वक ले जा रहे हैं । जबकि मैंने अभी इनका स्वागत किया है । हे शुभे ! मैं क्या करूँ ? मैं अपने : मनसे तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता ॥ १८-१९ ॥
उसी समय उसके शरीरसे महाभयंकर दैत्य 'ठहरो-ठहरो'-ऐसा कहते हुए निकल पड़े । वे शस्त्र धारण किये हुए थे और उनका शरीर कवचसे ढंका हुआ था ॥ २१ ॥
सैन्यं सर्वं हतं तैस्तु नन्दिनी प्रतिमोचिता । एकाकी निर्गतो राजा विश्वामित्रोऽतिदुःखितः ॥ २२ ॥ हन्त पापोऽतिदीनात्मा निन्दन् क्षात्रबलं महत् । ब्राह्मं बलं दुराराध्यं मत्वा तपसि संस्थितः ॥ २३ ॥ तप्त्वा बहूनि वर्षाणि तपो घोरं महावने । ऋषित्वं प्राप गाधेयस्त्यक्त्वा क्षात्रं विधिं पुनः ॥ २४ ॥
उन्होंने सारी सेनाका संहार कर दिया और नन्दिनीको उनसे छुड़ा लिया । तब अत्यन्त व्यथित होकर राजा विश्वामित्र अकेले ही घर लौट गये । वे अपने मनमें सोचने लगे-] हाय ! मैं कितना पापी एवं दीनात्मा हूँ । क्षत्रियबलकी निन्दा करते हुए वे विश्वामित्र ब्राह्मणके बलको महान् तथा दुराराध्य समझकर तप करने लगे । महावनमें अनेक वर्षांतक कठोर तपस्या करके विश्वामित्रने क्षात्रधर्मका त्याग करके अन्तमें ऋषित्व प्राप्त कर लिया ॥ २२-२४ ॥
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र मा कृथा वैरमद्भुतम् । कुलनाशकरं नूनं तापसैः सह संयुगम् ॥ २५ ॥
अतः हे राजेन्द्र ! आप भी ऐसा अद्भुत वैर न करें; क्योंकि तपस्वियोंके साथ किया जानेवाला युद्ध निश्चित ही कुलका नाश करनेवाला होता है ॥ २५ ॥
अतः आप तपोनिधि मुनिवर भारद्वाजके पास अभी जाइये और उन्हें आश्वासन दीजिये । हे राजेन्द्र ! सुदर्शनको यहीं छोड़ दीजिये, जिससे वह आनन्दपूर्वक रह सके ॥ २६ ॥
बालोऽयं निर्धनः किं ते करिष्यति नृपाहितम् । वृथा ते वैरभावोऽयमनाथे दुर्बले शिशौ ॥ २७ ॥
हे राजन् ! यह दीन बालक आपका क्या अहित कर सकेगा ? ऐसे दुर्बल एवं अनाथ बालकके प्रति आपका यह वैरभाव व्यर्थ है ॥ २७ ॥
दया सर्वत्र कर्तव्या दैवाधीनमिदं जगत् । ईर्ष्यया किं नृपश्रेष्ठ यद्भाव्यं तद्भविष्यति ॥ २८ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! सर्वत्र दया करनी चाहिये । यह संसार सदा दैवके अधीन रहता है । ईर्ष्या करनेसे क्या लाभ ? जो होनी होगी, वह तो होकर ही रहेगी ॥ २८ ॥
वज्रं तृणायते राजन् दैवयोगान्न संशयः । तृणं वज्रायते क्वापि समये दैवयोगतः ॥ २९ ॥ शशको हन्ति शार्दूलं मशको वै तथा गजम् । साहसं मुञ्च मेधाविन् कुरु मे वचनं हितम् ॥ ३० ॥
हे राजन् ! दैवयोगसे कभी वज्र तृण बन जाता है और किसी समय तृण वज़ बन जाता है । इसमें सन्देह नहीं है । दैवयोगसे ही खरगोश सिंहको और मच्छर हाथीको मार देता है । अतः हे मेधाविन् ! आप दुःसाहस छोड़िये तथा मेरा हितकर वचन मानिये ॥ २९-३० ॥
व्यासजी बोले-[हे जनमेजय !] मन्त्रीकी यह बात सुनकर नृपश्रेष्ठ राजा युधाजित् भारद्वाजमुनिको सिर झुकाकर प्रणाम करके अपने पुरको चले गये । तब रानी मनोरमा भी निश्चिन्त हो गयीं और उस आश्रममें रहती हुई अपने सत्यव्रती पुत्र सुदर्शनका पालन करने लगीं ॥ ३१-३२ ॥
अब वह सुन्दर कुमार मुनिबालकोंके साथ सर्वत्र निर्भय होकर क्रीड़ा करता हुआ दिनोंदिन बढ़ने लगा । एक दिन सुदर्शनके पास आये हुए विदल्लको किसी मुनिकुमारने 'क्लीब' इस नामसे पुकारा ॥ ३३-३४ ॥
सुदर्शनस्तु तच्छ्रुत्वा दधारैकाक्षरं स्फुटम् । अनुस्वारयुतं तच्च प्रोवाचापि पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
उसे सुनकर सुदर्शनने उसके एकाक्षर 'क्ली' शब्दको स्पष्टरूपसे धारण कर लिया और उस अनुस्वारविहीन अक्षरका ही वह बार-बार उच्चारण करने लगा ॥ ३५ ॥
बालकने इस कामराज नामक बीजमन्त्रको मनसे ग्रहण कर लिया और उसे हृदयंगम करके आदरपूर्वक जपना प्रारम्भ कर दिया । हे महाराज ! दैवयोगसे ही उस बालक सुदर्शनको यह कामराज नामक अद्भुत बीजमन्त्र स्वयमेव प्राप्त हो गया ॥ ३६-३७ ॥
उस समय केवल पाँच वर्षकी अवस्थामें ही वह ऋषि तथा छन्दसे विहीन और ध्यान तथा न्यासरहित मन्त्र प्राप्तकर मन-ही-मन उसे जपता हुआ खेलता तथा सोता था; उस मन्त्रको स्वयं सबका सार समझकर वह सुदर्शन उसे कभी नहीं भूलता था ॥ ३८-३९ ॥
वर्षे चैकादशे प्राप्ते कुमारोऽसौ नृपात्मजः । मुनिना चोपनीतोऽथ वेदमध्यापितस्तथा ॥ ४० ॥ धनुर्वेदं तथा साङ्गं नीतिशास्त्रं विधानतः । अभ्यस्ताः सकला विद्यास्तेन मन्त्रबलादिना ॥ ४१ ॥
मुनिने ग्यारहवें वर्ष उस राजकुमारका उपनयन संस्कार किया और उसे वेद पढ़ाया एवं सांगोपांग धनुर्वेद तथा नीतिशास्त्रकी विधिवत् शिक्षा दी । उस बालकने उसी मन्त्रके प्रभावसे समस्त विद्याओंका सम्यक् अभ्यास कर लिया ॥ ४०-४१ ॥
एक बार उसने देवीके रूपका प्रत्यक्ष दर्शन भी किया । उस समय वे लाल वस्त्र धारण किये थीं, उनके विग्रहका रंग भी लाल था और उनके सभी अंगोंमें रक्तवर्णके ही आभूषण सुशोभित हो रहे थे । [इस प्रकारका दिव्य स्वरूप धारणकर] वाहन गरुडपर विराजमान उन अद्भुत वैष्णवी शक्तिको देखकर राजकुमार सुदर्शनके मुखमण्डलपर प्रसन्नता छा गयी ॥ ४२-४३ ॥
इस प्रकार समस्त विद्याओंका रहस्य जाननेवाला वह सुदर्शन उस वनमें रहकर जगदम्बाकी उपासना करता हुआ नदीतटपर विचरण करने लगा । उसी वनमें भगवती जगदम्बाने उसे धनुष, अनेक तीक्ष्ण बाण, तूणीर तथा कवच प्रदान किये ॥ ४४-४५ ॥
इसी समय सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त 'शशिकला' नामसे विख्यात काशिराजकी परम प्रिय पुत्रीने उस वनमें रहनेवाले समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न, पराक्रमी तथा दूसरे कामदेवके समान प्रतीत होनेवाले राजकुमार सुदर्शनके विषयमें सुना ॥ ४६-४७ ॥
[उसी दिन] आधी रातको जगदम्बा स्वप्नमें शशिकलाके पास आकर स्थित हो गयीं और उसे आश्वस्त करके यह वचन बोलीं-'हे सुश्रोणि ! सुदर्शन मेरा भक्त है, तुम उसीको अपना पति स्वीकार कर लो । हे भामिनि ! मेरी आज्ञासे वह तुम्हारी सब कामनाएँ पूर्ण करेगा' ॥ ४९-५० ॥
स्वप्नका बार-बार स्मरण करके प्रसन्नतासे युक्त होकर वह जोरसे हँस पड़ती थी । तब उसने अपनी एक अन्य सखीसे स्वप्नका सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कह दिया ॥ ५३ ॥
किसी दिन वह विशालनयनी शशिकला अपनी सखीके साथ चम्पाके वृक्षोंसे सुशोभित एक सुन्दर उपवनमें विहारके लिये गयी । वहाँ पुष्प चुनती हुई वह कुमारी एक चम्पावृक्षके नीचे खड़ी हो गयी । तभी उसने मार्गमें शीघ्रतापूर्वक आते हुए किसी ब्राह्मणको देखा । उस ब्राह्मणको प्रणाम करके सुन्दरी शशिकलाने मधुर वाणीमें कहा-हे महाभाग ! आप किस देशसे आये हैं ? ॥ ५४-५६ ॥