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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
अष्टादशोऽध्यायः

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शशिकलया मातरं प्रति संदेशप्रेषणम् -
राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना -


व्यास उवाच
श्रुत्वा तद्वचनं श्यामा प्रेमयुक्ता बभूव ह ।
प्रतस्थे ब्राह्मणस्तस्मात्स्थानादुक्त्वा समाहितः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-उस ब्राह्मणका वचन सुनकर सुन्दरी शशिकला प्रेमविभोर हो गयी और वह ब्राह्मण इतना कहकर शान्तभावसे उस स्थानसे चला गया । ॥ १ ॥

सा तु पूर्वानुरागाद्वै मग्ना प्रेम्णाऽतिचञ्चला ।
कामबाणहतेवास गते तस्मिन्द्विजोत्तमे ॥ २ ॥
उस श्रेष्ठ ब्राह्मणके चले जानेपर वह सुन्दरी पूर्व अनुरागसे तथा विप्रकी बातोंसे प्रेमातिरेकके कारण अत्यधिक अधीर हो उठी ॥ २ ॥

अथ कामार्दिता प्राह सखीं छन्दोऽनुवर्तिनीम् ।
विकारश्‍च समुत्पन्नो देहे यच्छ्रवणादनु ॥ ३ ॥
अज्ञातरसविज्ञानं कुमारं कुलसम्भवम् ।
दुनोति मदनः पापः किं करोमि क्व यामि च ॥ ४ ॥
तदनन्तर उस शशिकलाने अपनी इच्छाके अनुसार चलनेवाली एक सखीसे कहा कि रससे अनभिज्ञ तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न उस राजकुमारके विषयमें सुनकर मेरे शरीरमें विकार उत्पन्न हो गया है । इस समय कामदेव मुझे अत्यधिक पीड़ा दे रहा है । अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? ॥ ३-४ ॥

स्वप्नेषु वा मया दृष्टः पञ्चबाण इवापरः ।
तपते मे मनोऽत्यर्थं विरहाकुलितं मृदु ॥ ५ ॥
जबसे मैंने स्वप्नमें दूसरे कामदेवके सदृश उस राजकुमारको देखा है, तभीसे विरहसे आकुल हुआ मेरा कोमल मन अत्यधिक सन्तप्त हो रहा है ॥ ५ ॥

चन्दनं देहलग्नं मे विषवद्‌भाति भामिनि ।
स्रगियं सर्पवच्चैव चन्द्रपादाश्‍च वह्निवत् ॥ ६ ॥
हे भामिनि ! इस समय मेरे शरीरमें लगा हुआ चन्दन विषके समान, यह माला सर्पके तुल्य तथा चन्द्रमाकी किरणें अग्निसदृश प्रतीत हो रही हैं ॥ ६ ॥

न च हर्म्ये वने शं मे दीर्घिकायां न पर्वते ।
न दिवा न निशायां वा न सुखं सुखसाधनैः ॥ ७ ॥
इस समय महलमें, वनमें, बावलीमें तथा पर्वतपर-कहीं भी मेरे चित्तको शान्ति नहीं मिल पा रही है । नानाविध सुख-साधनोंसे दिनमें अथवा रातमें किसी भी समय सुखकी अनुभूति नहीं हो रही है ॥ ७ ॥

न शय्या न च ताम्बूलं न गीतं न च वादनम् ।
प्रीणयन्ति मनो मेऽद्य न तृप्ते मम लोचने ॥ ८ ॥
शय्या, ताम्बूल, गायन तथा वादन-इनमें कोई भी चीजें मेरे मनको प्रसन्न नहीं कर पा रही हैं और न तो मेरे नेत्रोंको कोई भी वस्तु तृप्त ही कर पा रही है ॥ ८ ॥

प्रयाम्यद्य वने तत्र यत्रासौ वर्तते शठः ।
भीतास्मि कुललज्जायाः परतन्त्रा पितुस्तथा ॥ ९ ॥
[जी करता है] उसी वनमें चली जाऊँ जहाँ वह निष्ठुर विद्यमान है, किंतु कुलकी लज्जाके कारण भयभीत हूँ, और फिर अपने पिताके अधीन भी हूँ ॥ ९ ॥

स्वयंवरं पिता मेऽद्य न करोति करोमि किम् ।
दास्यामि राजपुत्राय कामं सुदर्शनाय वै ॥ १० ॥
क्या करूँ, मेरे पिता अभी मेरा स्वयंवर भी नहीं आयोजित कर रहे हैं । [यदि स्वयंवर हुआ तो] मैं इच्छापूर्वक अपनेको सुदर्शनको समर्पित कर दूंगी ॥ १० ॥

सन्त्यन्ये पृथिवीपालाः शतशः सम्भृतर्द्धयः ।
रमणीया न मे तेऽद्य राज्यहीनोऽप्यसौ मतः ॥ ११ ॥

यद्यपि दूसरे सैकड़ों समृद्धिशाली नरेश हैं, परंतु वे मुझे रमणीय नहीं लगते । राज्यहीन होते हुए भी इस सुदर्शनको मैं अधिक रमणीय मानती हूँ ॥ ११ ॥

व्यास उवाच
एकाकी निर्धनश्‍चैव बलहीनः सुदर्शनः ।
वनवासी फलाहारस्तस्याश्‍चित्ते सुसंस्थिता ॥ १२ ॥
वाग्बीजस्य जपात्सिद्धिस्तस्या एषाप्युपस्थिता ।
सोपि ध्यानपरोऽत्यन्तं जजाप मन्त्रमुत्तमम् ॥ १३ ॥
व्यासजी बोले-अकेला, निर्धन, बलहीन, वनवासी तथा फलका आहार करनेवाला होते हुए भी सुदर्शन उस शशिकलाके हृदयमें पूर्णरूपसे बस गया था । भगवतीके वाग्बीजमन्त्रके जपसे सुदर्शनको वह सिद्धि प्राप्त हो गयी थी । वह पूर्णरूपसे ध्यानमग्न होकर उस सर्वोत्तम मन्त्रका निरन्तर जप करता रहता था ॥ १२-१३ ॥

स्वप्ने पश्यत्यसौ देवीं विष्णुमायामखण्डिताम् ।
विश्‍वमातरमव्यक्तां सर्वसम्पत्कराम्बिकाम् ॥ १४ ॥
एक बार स्वप्नमें सुदर्शनने उन अव्यक्त, पूर्ण ब्रह्मस्वरूपा, जगज्जननी, विष्णुमाया तथा सभी सम्पदा प्रदान करानेवाली भगवती अम्बिकाका दर्शन किया ॥ १४ ॥

शृङ्गवेरपुराध्यक्षो निषादः समुपेत्य तम् ।
ददौ रथवरं तस्मै सर्वोपस्करसंयुतम् ॥ १५ ॥
चतुर्भिस्तुरगैर्युक्तं पताकावरमण्डितम् ।
जैत्रं राजसुतं ज्ञात्वा ददौ चोपायनं तदा ॥ १६ ॥
सोऽपि जग्राह तं प्रीत्या मित्रत्वेन सुसंस्थितम् ।
वन्यैर्मूलफलैः सम्यगर्चयामास शम्बरम् ॥ १७ ॥
उसी समय शृंगवेरपुरके अधिपति निषादने सुदर्शनके पास आकर उसे सब प्रकारकी सामग्रियोंसे परिपूर्ण उत्तम रथ प्रदान किया । उस रथमें चार घोड़े जुते हए थे और वह सुन्दर पताकासे सुशोभित था । निषादराजने राजकुमार सुदर्शनको विजयशाली समझकर उसे भेंटस्वरूप वह रथ दिया था । सुदर्शनने भी प्रेमपूर्वक उसे स्वीकार कर लिया और मित्ररूपमें आये हुए उस निषादका वन्य फल मूलोंसे भलीभाँति सत्कार किया ॥ १५-१७ ॥

कृतातिथ्ये गते तस्मिन्निषादाधिपतौ तदा ।
मुनयः प्रीतियुक्तास्ते तमूचुस्तापसा मिथः ॥ १८ ॥
राजपुत्र ध्रुवं राज्यं प्राप्स्यसि त्वं च सर्वथा ।
स्वल्पैरहोभिरव्यग्रः प्रतापान्नात्र संशयः ॥ १९ ॥
प्रसन्ना तेऽम्बिका देवी वरदा विश्‍वमोहिनी ।
सहायस्तु सुसम्पन्नो न चिन्तां कुरु सुव्रत ॥ २० ॥
तब आतिथ्य स्वीकार करके उस निषादराजके चले जानेपर वहाँके तपस्वी मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर सुदर्शनसे कहने लगे-हे राजकुमार ! आप धैर्यवान् हैं; भगवतीकी कृपासे थोड़े ही दिनोंमें निश्चय ही अपना राज्य प्राप्त करेंगे । इसमें सन्देह नहीं है । हे सुव्रत ! विश्वमोहिनी और वरदायिनी भगवती अम्बिका आपके ऊपर प्रसन्न हैं । अब आपको उत्तम सहायक भी मिल गया है, आप चिन्ता न करें ॥ १८-२० ॥

मनोरमां तथोचुस्ते मुनयः संशितव्रताः ।
पुत्रस्तेऽद्य धराधीशो भविष्यति शुचिस्मिते ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् उन व्रतधारी मुनियोंने मनोरमासे कहा-हे शुचिस्मिते ! अब आपका पुत्र सुदर्शन शीघ्र ही भूमण्डलका राजा होगा ॥ २१ ॥

सा तानुवाच तन्वङ्गी वचनं वोऽस्तु सत्फलम् ।
दासोऽयं भवतां विप्राः किं चित्रं सदुपासनात् ॥ २२ ॥
न सैन्यं सचिवाः कोशो न सहायश्‍च कश्‍चन ।
केन योगेन पुत्रो मे राज्यं प्राप्तुमिहार्हति ॥ २३ ॥
आशीर्वादैश्‍च वो नूनं पुत्रोऽयं मे महीपतिः ।
भविष्यति न सन्देहो भवन्तो मन्त्रवित्तमाः ॥ २४ ॥
तब उस कोमलांगी मनोरमाने उनसे कहाआपलोगोंका वचन सफल हो । हे विप्रगण ! यह सुदर्शन आपलोगोंका सेवक है । सच्ची उपासनासे सब कुछ सम्भव हो जाता है, इसमें आश्चर्य ही क्या ? [किंतु] उसके पास न सेना है, न मन्त्री हैं, न कोश है और न कोई सहायक ही है । [ऐसी दशामें] किस उपायसे मेरा पुत्र राज्य पानेके योग्य बन सकता है ? आपलोग मन्त्रके पूर्णवेत्ता हैं, अत: आपलोगोंके आशीर्वचनोंसे मेरा यह पुत्र निश्चय ही राजा होगा । इसमें सन्देह नहीं है ॥ २२-२४ ॥

व्यास उवाच
रथारूढः स मेधावी यत्र याति सुदर्शनः ।
अक्षौहिणीसमावृत्त इवाभाति स तेजसा ॥ २५ ॥
प्रतापो मन्त्रबीजस्य नान्यः कश्‍चन भूपते ।
एवं वै जपतस्तस्य प्रीतियुक्तस्य सर्वथा ॥ २६ ॥
व्यासजी बोले-स्थपर सवार होकर मेधावी सुदर्शन जहाँ भी जाता था, वहाँ वह अपने तेजसे एक अक्षौहिणी सेनासे आवृत प्रतीत होता था । हे भूप ! यह उस बीजमन्त्रका ही प्रभाव था, दूसरा कोई कारण नहीं; क्योंकि वह सुदर्शन सर्वदा प्रसन्नतापूर्वक उसी मन्त्रका जप किया करता था ॥ २५-२६ ॥

सम्प्राप्य सद्‌गुरोर्बीजं कामराजाख्यमद्‌भुतम् ।
जपेद्यस्तु शुचिः शान्तः सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ २७ ॥
जो मनुष्य किसी सद्गुरुसे कामराज नामक अद्भुत बीजमन्त्र ग्रहण करके शान्त होकर पवित्रतापूर्वक उसका जप करता है, वह अपनी सभी कामनाएँ पूर्ण कर लेता है ॥ २७ ॥

न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि वापि सुदुर्लभम् ।
प्रसन्नायाः शिवायाश्‍च यदप्राप्यं नृपोत्तम ॥ २८ ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! भूतलपर अथवा स्वर्गमें भी कोई ऐसा अत्यन्त दुर्लभ पदार्थ नहीं है, जो कल्याणकारिणी भगवतीके प्रसन्न होनेपर न मिल सके ॥ २८ ॥

ते मन्दास्तेऽतिदुर्भाग्या रोगैस्ते समभिद्रुताः ।
येषां चित्ते न विश्‍वासो भवेदम्बार्चनादिषु ॥ २९ ॥
वे महान् मूर्ख, भाग्यहीन तथा रोगोंसे व्यथित होते हैं, जिनके मनमें जगदम्बाके अर्चन आदिमें विश्वास नहीं होता ॥ २९ ॥

या माता सर्वदेवानां युगादौ परिकीर्तिता ।
आदिमातेति विख्याता नाम्ना तेन कुरूद्वह ॥ ३० ॥
बुद्धिः कीर्तिर्धृतिर्लक्ष्मीः शक्तिः श्रद्धा मतिः स्मृतिः ।
सर्वेषां प्राणिनां सा वै प्रत्यक्षं वै विभासते ॥ ३१ ॥
हे कुरुनन्दन ! जो भगवती युगके आदिमें सब देवताओंकी माता कही गयी थी, इसी कारण आदिमाताइस नामसे विख्यात हैं; वे ही बुद्धि, कीर्ति, धृति, लक्ष्मी, शक्ति, श्रद्धा, मति और स्मृति आदि रूपोंसे समस्त प्राणियों में प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं ॥ ३०-३१ ॥

न जानन्ति नरा ये वै मोहिता मायया किल ।
न भजन्ति कुतर्कज्ञा देवीं विश्‍वेश्‍वरीं शिवाम् ॥ ३२ ॥
जो लोग मायासे मोहित हैं, वे उन्हें नहीं जान पाते । कुतर्क करनेवाले मनुष्य उन भुवनेश्वरी भगवती शिवाका भजन नहीं करते ॥ ३२ ॥

ब्रह्मा विष्णुस्तथा शम्भुर्वासवो वरुणो यमः ।
वायुरग्निः कुबेरश्च त्वष्टा पूषाश्विनौ भगः ॥ ३३ ॥
आदित्या वसवो रुद्रा विश्‍वेदेवा मरुद्‌गणाः ।
सर्वे ध्यायन्ति तां देवीं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणीम् ॥ ३४ ॥
ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, वरुण, यम, वायु, अग्नि, कुबेर, त्वष्टा, पूषा, दोनों अश्विनीकुमार, भग, आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव एवं मरुद्गण-ये सभी देवता सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाली उन भगवतीका ध्यान करते हैं ॥ ३३-३४ ॥

को न सेवेत विद्वान्वै तां शक्तिं परमात्मिकाम् ।
सुदर्शनेन सा ज्ञाता देवी सर्वार्थदा शिवा ॥ ३५ ॥
कौन ऐसा विद्वान् है, जो उन परमात्मिका शक्तिकी आराधना न करता हो ? सुदर्शनने सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली उन्हीं कल्याणकारिणी भगवतीको जान लिया था ॥ ३५ ॥

ब्रह्मैव साऽतिदुष्प्राप्या विद्याविद्यास्वरूपिणी ।
योगगम्या परा शक्तिर्मुमुक्षूणां च वल्लभा ॥ ३६ ॥
वे विद्या तथा अविद्यास्वरूपा भगवती ही ब्रा हैं और अत्यन्त दुष्प्राप्य हैं । वे पराशक्ति योगद्वारा ही अनुभवगम्य हैं और मोक्ष चाहनेवाले लोगोंको विशेष प्रिय हैं ॥ ३६ ॥

परमात्मस्वरूपं को वेत्तुमर्हति तां विना ।
या सृष्टिं त्रिविधां कृत्वा दर्शयत्यखिलात्मने ॥ ३७ ॥
सुदर्शनस्तु तां देवीं मनसा परिचिन्तयन् ।
राज्यलाभात्परं प्राप्य सुखं वै कानने स्थितः ॥ ३८ ॥
उन भगवतीके बिना परमात्माका स्वरूप जानने में कौन समर्थ है ? जो तीन प्रकारकी सृष्टि करके सर्वात्मा भगवान्को दिखलाती हैं, उन्हीं भगवतीका मनसे सम्यक् चिन्तन करता हुआ राजकुमार सुदर्शन राज्य प्राप्तिसे भी अधिक सुखका अनुभव करके वनमें रहता था ॥ ३७-३८ ॥

सापि चन्द्रकलात्यर्थं कामबाणप्रपीडिता ।
नानोपचारैरनिशं दधार दुःखितं वपुः ॥ ३९ ॥
उधर, वह शशिकला भी कामसे निरन्तर अत्यधिक पीड़ित रहती हुई नानाविध उपचारोंसे किसी प्रकार अपना दु:खित शरीर धारण किये हुए थी ॥ ३९ ॥

तावत्तस्याः पिता ज्ञात्वा कन्यां पुत्रवरार्थिनीम् ।
सुबाहुः कारयामास स्वयंवरमतन्द्रितः ॥ ४० ॥
इसी बीच उसके पिता सुबाहुने कन्या शशिकलाको वरकी अभिलाषिणी जानकर बड़ी सावधानीके साथ स्वयंवर आयोजित कराया ॥ ४० ॥

स्वयंवरस्तु त्रिविधो विद्वद्‌भिः परिकीर्तितः ।
राज्ञां विवाहयोग्यौ वै नान्येषां कथितः किल ॥ ४१ ॥
इच्छास्वयंवरश्‍चैको द्वितीयश्‍च पणाभिधः ।
यथा रामेण भग्नं वै त्र्यम्बकस्य शरासनम् ॥ ४२ ॥
तृतीयः शौर्यशुल्कश्‍च शूराणां परिकीर्तितः ।
इच्छास्वयंवरं तत्र चकार नृपसत्तमः ॥ ४३ ॥
विद्वानोंने स्वयंवरके तीन प्रकार बताये हैं । वह क्षत्रिय राजाओंके विवाहहेतु उचित कहा गया है, अन्यके लिये नहीं । उनमें प्रथम इच्छास्वयंवर है, जिसमें कन्या अपने इच्छानुसार पति स्वीकार करती है । दूसरा पणस्वयंवर है, जिसमें किसी प्रकारका पण (शर्त) रखा जाता है । जैसे भगवान श्रीरामने [जानकीके स्वयंवरमें] शिवधनुष तोड़ा था । तीसरा स्वयंवर शौर्यशुल्क है, जो शूरवीरोंके लिये कहा गया है । नृपश्रेष्ठ सुबाहुने उनमें इच्छास्वयंवरका आयोजन किया ॥ ४१-४३ ॥

शिल्पिभिः कारिता मञ्चाः शुभैरास्तरणैर्युताः ।
ततश्च विविधाकाराः सु्क्लृप्ताः सभ्यमण्डपाः ॥ ४४ ॥
शिल्पियोंद्वारा बहुत-से मंच बनवाये गये और उनपर सुन्दर आसन बिछाये गये । तत्पश्चात् राजाओंके बैठनेयोग्य विविध आकार-प्रकारके सभामण्डप बनवाये गये ॥ ४४ ॥

एवं कृतेऽतिसम्भारे विवाहार्थं सुविस्तरे ।
सखीं शशिकला प्राह दुःखिता चारुलोचना ॥ ४५ ॥
इदं मे मातरं ब्रूहि त्वमेकान्ते वचो मम ।
मया वृतः पतिश्चित्ते ध्रुवसन्धिसुतः शुभः ॥ ४६ ॥
नान्यं वरं वरिष्यामि तमृते वै सुदर्शनम् ।
स मे भर्ता नृपसुतो भगवत्या प्रतिष्ठितः ॥ ४७ ॥
इस प्रकार विवाहके लिये सम्पूर्ण सामग्री जुट जानेपर सुन्दर नेत्रोंवाली शशिकलाने दुःखित होकर अपनी सखीसे कहा-एकान्तमें जाकर तुम मेरी मातासे मेरा यह वचन कह दो कि मैंने अपने मनमें ध्रुवसन्धिके सुन्दर पुत्रका पतिरूपमें वरण कर लिया है । उन सुदर्शनके अतिरिक्त मैं किसी दूसरेको पति नहीं बनाऊँगी; क्योंकि स्वयं भगवतीने राजकुमार सुदर्शनको मेरा पति निश्चित कर दिया है । ४५-४७ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्ता सा सखी गत्वा मातरं प्राह सत्वरा ।
वैदर्भीं विजने वाक्यं मधुरं मञ्जुभाषिणी ॥ ४८ ॥
पुत्री ते दुःखिता प्राह साध्वी त्वां मन्मुखेन यत् ।
शृणु त्वं कुरु कल्याणि तद्धितं त्वरिताऽधुना ॥ ४९ ॥
भारद्वाजाश्रमे पुण्य़े ध्रुवसन्धिसुतोऽस्ति यः ।
स मे भर्ता वृतश्‍चित्ते नान्यं भूपं वृणोम्यहम् ॥ ५० ॥
व्यासजी बोले-उसके ऐसा कहनेपर उस मृदुभाषिणी सखीने शशिकलाकी माता विदर्भसुताके पास शीघ्र जाकर एकान्तमें उनसे मधुर वाणीमें कहा 'हे साध्वि ! आपकी पुत्रीने अत्यन्त दुःखित होकर मेरे मुखसे आपको जो कहलाया है, उसे आप सुन लें और हे कल्याणि ! इस समय शीघ्र ही उसका हित-साधन करें' । [उसका कथन है कि] भारद्वाजमुनिके आश्रममें जो ध्रुवसन्धिके पुत्र सुदर्शन रहते हैं, उनका मैं अपने मनमें पतिरूपमें वरण कर चुकी हूँ । अतः मैं किसी दूसरे राजाका वरण नहीं करूंगी ॥ ४८-५० ॥

व्यास उवाच
राज्ञी तद्वचनं श्रुत्वा स्वपतौ गृहमागते ।
निवेदयामास तदा पुत्रीवाक्यं यथातथम् ॥ ५१ ॥
व्यासजी बोले-वह वचन सुनकर रानीने राजाके आनेपर पुत्रीकी सारी बातें ज्यों-की-त्यों उनको बतायीं ॥ ५१ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं राजा विस्मितः प्रहसन्मुहुः ।
भार्यामुवाच वैदर्भीं सुबाहुस्तु ऋतं वचः ॥ ५२ ॥
उसे सुनकर राजा सुबाहु आश्चर्यमें पड़ गये और बार-बार मुसकराते हुए वे अपनी भार्या विदर्भराजकुमारीसे यथार्थ बात कहने लगे- ॥ ५२ ॥

सुभ्रु जानासि बालोऽसौ राज्यान्निष्कासितो वने ।
एकाकी सह मात्रा वै वसते निर्जने वने ॥ ५३ ॥
तत्कृते निहतो राजा वीरसेनो युधाजिता ।
स कथं निर्धनो भर्ता योग्यः स्याच्चारुलोचने ॥ ५४ ॥
हे सुभ्र ! तुम तो यह जानती ही हो कि वह बालक राज्यसे निकाल दिया गया है और निर्जन वनमें अकेले ही अपनी माताके साथ रहता है । उसीके लिये राजा वीरसेन युधाजित्के द्वारा मार डाले गये । हे सुनयने ! वह निर्धन योग्य पति कैसे हो सकता है ? ॥ ५३-५४ ॥

ब्रूहि पुत्रीं ततो वाक्यं कदाचिदपि विप्रियम् ।
आगमिष्यन्ति राजानः स्थितिमन्तः स्वयंवरे ॥ ५५ ॥
तुम यह बात पुत्री शशिकलासे कह दो कि बड़े-से-बड़े प्रतिष्ठित राजा इस स्वयंवरमें आनेवाले हैं । अत: उनके प्रति ऐसी अप्रिय बात वह कभी भी न बोले ॥ ५५ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
शशिकलया मातरं प्रति संदेशप्रेषणं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥
अध्याय अठारवाँ समाप्त


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