[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]
राजसंवादवर्णनम् -
माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजितद्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना -
व्यास उवाच भर्त्रा साऽभिहिता बालां पुत्रीं कृत्वाङ्कसंस्थिताम् । उवाच वचनं श्लक्ष्णं समाश्वास्य शुचिस्मिताम् ॥ १ ॥ किं वृथा सुदति त्वं हि विप्रियं मम भाषसे । पिता ते दुःखमाप्नोति वाक्येनानेन सुव्रते ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-पतिके ऐसा कहनेपर रानीने सुन्दर मुसकानवाली उस कन्याको अपनी गोदमें बैठाकर उसे आश्वासन दे करके यह मधुर वचन कहा-हे सुदति ! तुम मुझसे ऐसी अप्रिय एवं निष्प्रयोजन बात क्यों कह रही हो ? हे सुव्रते ! इस कथनसे तुम्हारे पिता बहुत दुःखित हो रहे हैं ॥ १-२ ॥
सुदर्शनोऽतिदुर्भाग्यो राज्यभ्रष्टो निराश्रयः । बलकोशविहीनश्च परित्यक्तस्तु बान्धवैः ॥ ३ ॥ मात्रा सह वनं प्राप्तः फलमूलाशनः कृशः । न ते योग्यो वरोऽयं वै वनवासी च दुर्भगः ॥ ४ ॥
वह सुदर्शन बड़ा ही अभागा, राजच्युत, आश्रयहीन और सेना तथा कोशसे विहीन है; बन्धु-बान्धवोंने उसका परित्याग कर दिया है । वह अपनी माताके साथ वनमें रहकर फल-मूल खाता है और अत्यन्त दुर्बल है । इसलिये वह मन्दभाग्य एवं वनवासी बालक सर्वथा तुम्हारे योग्य वर नहीं है ॥ ३-४ ॥
राजपुत्राः कृतप्रज्ञा रूपवन्तः सुसम्मताः । तवार्हाः पुत्रि सन्त्यन्ये राजचिह्नैरलङ्कृताः ॥ ५ ॥ भ्राताऽस्य वर्तते कान्तः स राज्यं कोसलेषु वै । करोति रूपसम्पन्नः सर्वलक्षणसंयुतः ॥ ६ ॥
हे पुत्रि ! तुम्हारे योग्य अनेक राजकुमार यहाँ उपस्थित हैं; जो बुद्धिमान्, रूपवान्, सम्माननीय और राजचिह्नोंसे अलंकृत हैं । इसी सुदर्शनका एक कान्तिमान्, रूपसम्पन्न तथा सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त भाई भी है, जो इस समय कोसलदेशमें राज्य करता है ॥ ५-६ ॥
हे सुभ्र ! इसके अतिरिक्त मैंने एक और जो बात सुनी है, तुम उसे सुनो-राजा युधाजित् उस सुदर्शनका वध करनेके लिये सतत प्रयत्नशील रहता है ॥ ७ ॥
दौहित्रः स्थापितस्तेन राज्ये कृत्वाऽतिसङ्गरम् । वीरसेनं नृपं हत्वा सम्मन्त्र्य सचिवैः सह ॥ ८ ॥ भारद्वाजाश्रमं प्राप्तं हन्तुकामः सुदर्शनम् । मुनिना वारितः पश्चाज्जगाम निजमन्दिरम् ॥ ९ ॥
उसने घोर संग्राम करके [इसके नाना] राजा वीरसेनको मारकर पुनः मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणा करके अपने दौहित्र शत्रुजित्को राज्यपर अभिषिक्त कर दिया है । इसके बाद भारद्वाजमुनिके आश्रममें शरणलिये उस सुदर्शनको मारनेकी इच्छासे वह वहाँ भी पहुँचा, किंतु मुनिके मना करनेपर अपने घर लौट गया ॥ ८-९ ॥
शशिकलोवाच मातर्ममेप्सितः कामं वनस्थोऽपि नृपात्मजः । शर्यातिवचनेनैव सुकन्या च पतिव्रता ॥ १० ॥ च्यवनञ्च यथा प्राप्य पतिशुश्रूषणे रता । भर्तृशुश्रूषणं स्त्रीणां स्वर्गदं मोक्षदं तथा ॥ ११ ॥ अकैतवकृतं नूनं सुखदं भवति स्त्रियाः ।
शशिकला बोली-हे माता ! मुझे तो वह वनवासी राजकुमार ही अत्यन्त अभीष्ट है । [पूर्वकालमें] शर्यातिकी आज्ञासे ही उनकी पतिव्रता पुत्री सुकन्या च्यवनमुनिके पास जाकर उनकी सेवामें तत्पर हो गयी थी । उसी प्रकार मैं पतिसेवा करूँगी; पतिकी सेवा-शुश्रूषा स्त्रियोंके लिये स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली होती है । अपने पतिके लिये कपटरहित व्यवहार स्त्रियोंके लिये निश्चित रूपसे सुखदायक होता है ॥ १०-११.५ ॥
भगवत्या समादिष्टं स्वप्ने वरमनुत्तमम् ॥ १२ ॥ तमृतेऽहं कथं चान्यं संश्रयामि नृपात्मजम् । मच्चित्तभित्तौ लिखितो भगवत्या सुदर्शनः ॥ १३ ॥ तं विहाय प्रियं कान्तं करिष्येऽहं न चापरम् ।
स्वयं भगवती उस सर्वश्रेष्ठ वरका वरण करनेके लिये मुझे स्वप्नमें आज्ञा दे चुकी हैं । अतः उनको छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमारका वरण कैसे करूँ ? स्वयं भगवतीने मेरे चित्तकी भित्तिपर सुदर्शनको ही अंकित कर दिया है । अत: उस प्रिय सुदर्शनको छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमारको पति नहीं बनाऊँगी ॥ १२-१३.५ ॥
व्यास उवाच प्रत्यादिष्टाऽथ वैदर्भी तया बहुनिदर्शनैः ॥ १४ ॥ भर्तारं सर्वमाचष्ट पुत्र्योक्तं वचनं भृशम् ।
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उस समय उस शशिकलाने अनेक प्रमाणोंके द्वारा विदर्भराजकुमारी अपनी माताको समझा दिया । तत्पश्चात् पुत्रीके द्वारा कही गयी सभी बातोंको महारानीने अपने पतिसे बताया ॥ १४.५ ॥
विवाहस्य दिनादर्वागाप्तं श्रुतसमन्वितम् ॥ १५ ॥ द्विजं शशिकला तत्र प्रेषयामास सत्वरम् । यथा न वेद मे तातस्तथा गच्छ सुदर्शनम् ॥ १६ ॥
उधर शशिकलाने विवाहके कुछ दिनों पूर्व ही एक विश्वस्त तथा वेदनिष्ठ ब्राह्मणको शीघ्र ही वहाँ भेज दिया । [जाते समय उसने ब्राह्मणसे कहा कि] आप सुदर्शनके पास इस प्रकार जायँ, जिसे मेरे पिता न जान पायें ॥ १५-१६ ॥
भारद्वाजाश्रमे ब्रूहि मद्वाक्यात्तरसा विभो । पित्रा मे सम्भृतः कामं मदर्थेन स्वयंवरः ॥ १७ ॥ आगमिष्यन्ति राजानो बलयुक्ता ह्यनेकशः । मया त्वं वै वृतश्चित्ते सर्वथा प्रीतिपूर्वकम् ॥ १८ ॥ भगवत्या समादिष्टः स्वप्ने मम सुरोपम । विषमद्मि हुताशे वा प्रपतामि प्रदीपिते ॥ १९ ॥ वरये त्वदृते नान्यं पितृभ्यां प्रेरिताऽपि वा । मनसा कर्मणा वाचा संवृतस्त्वं मया वरः ॥ २० ॥ भगवत्याः प्रसादेन शर्मावाभ्यां भविष्यति । आगन्तव्यं त्वयात्रैव दैवं कृत्वा परं बलम् ॥ २१ ॥ यदधीनं जगत्सर्वं वर्तते सचराचरम् । भगवत्या यदादिष्टं न तन्मिथ्या भविष्यति ॥ २२ ॥ यद्वशे देवताः सर्वा वर्तन्ते शङ्करादयः । वक्तव्योऽसौ त्वया ब्रह्मन्नेकान्ते वै नृपात्मजः ॥ २३ ॥ यथा भवति मे कार्यं तत्कर्तव्यं त्वयानघ ।
हे विभो ! आप बहुत शीघ्र ही भारद्वाजके आश्रम पहुँचकर सुदर्शनको मेरी औरसे कहिये कि मेरे पिताने मेरे विवाहार्थ एक स्वयंवर आयोजित किया है । उसमें अनेक बलवान् राजा आयेंगे, किंतु मैं तो मनसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक हर तरहसे आपका वरण कर चुकी हूँ । हे देवोपम राजकुमार ! मुझे भगवतीने स्वप्नमें आपको वरण करनेका आदेश दिया है । मैं विष खा लूँगी अथवा जलती हुई अग्निमें कूद पड़ेंगी, किंतु माता-पिताके द्वारा बहुत प्रेरित किये जानेपर भी मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्यका वरण नहीं करूँगी; क्योंकि मैं मन, वचन तथा कर्मसे आपको अपना पति मान चुकी हूँ । भगवतीकी कृपासे हम दोनोंका कल्याण होगा । प्रारब्धको प्रबल मानकर आप इस स्वयंवरमें अवश्य आयें । यह सम्पूर्ण चराचर जगत् जिनके अधीन है तथा शंकर आदि सभी देवगण जिनके वशमें रहते हैं, उन भगवतीने जो आदेश दिया है, वह कभी भी असत्य नहीं होगा । हे ब्रह्मन् ! आप उस राजकुमारसे यह सब एकान्तमें बताइयेगा । हे निष्पाप ! आप वही कीजियेगा, जिससे मेरा काम बन जाय ॥ १७-२३.५ ॥
ऐसा कहकर और दक्षिणा देकर शशिकलाने उस ब्राह्मणको भेज दिया । वह ब्राह्मण सुदर्शनसे सारी बातें कहकर शीघ्र ही वापस आ गया । उन बातोंको जानकर राजकुमार सुदर्शनने स्वयंवरमें जानेका निश्चय कर लिया; उन भारद्वाजमुनिने भी उसे आदरपूर्वक भेज दिया ॥ २४-२५.५ ॥
व्यास उवाच गमनायोद्यतं पुत्रं तमुवाच मनोरमा ॥ २६ ॥ वेपमानाऽतिदुःखार्ता जातत्रासाऽश्रुलोचना । कुत्र गच्छसि पुत्राद्य समाजे भूभृतां किल ॥ २७ ॥ एकाकी कृतवैरश्च किं विचिन्त्य स्वयंवरे । युधाजिद्धन्तुकामस्त्वां समेष्यति महीपतिः ॥ २८ ॥ न तेऽन्योऽस्ति सहायश्च तस्मान्मा व्रज पुत्रक । एकपुत्रातिदीनास्मि तवाधारा निराश्रया ॥ २९ ॥ नार्हसि त्वं महाभाग निराशां कर्तुंमद्य माम् । पिता ते निहतो येन सोऽपि तत्रागतो नृपः ॥ ३० ॥ एकाकिनं गतं तत्र युधाजित्त्वां हनिष्यति ।
व्यासजी बोले-तब अत्यधिक दुःखसे व्याकुल, काँपती हुई तथा भयभीत मनोरमा गमनके लिये तत्पर अपने पुत्र सुदर्शनसे आँखोंमें आँसू भरकर बोली-पुत्र ! तुम इस समय राजाओंके उस समाजमें कहाँ जा रहे हो ? तुम अकेले हो और तुमसे शत्रुता रखनेवाला राजा युधाजित् तुम्हें मारनेकी इच्छासे उस स्वयंवरमें अवश्य आयेगा, फिर तुम क्या सोचकर वहाँ जा रहे हो ? तुम्हारा कोई सहायक भी नहीं है । इसलिये हे पुत्र ! वहाँ मत जाओ । तुम ही मेरे एकमात्र पुत्र हो और मैं अति दीन हूँ तथा मुझ आश्रयहीनके लिये तुम्ही एकमात्र आधार हो । हे महाभाग ! इस समय तुम मुझे निराश मत करो । जिसने मेरे पिताका वध कर दिया है, वह राजा युधाजित् भी वहाँ आयेगा और वहाँ तुझ अकेले गये हुएको मार डालेगा ॥ २६-३०.५ ॥
सुदर्शन उवाच भवितव्यं भवत्येव नात्र कार्या विचारणा ॥ ३१ ॥ आदेशाच्च जगन्मातुर्गच्छाम्यद्य स्वयंवरे । मा शोकं कुरु कल्याणि क्षत्रियाऽसि वरानने ॥ ३२ ॥ न बिभेमि प्रसादेन भगवत्या निरन्तरम् ।
सुदर्शन बोला-होनी तो होकर रहती है, इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये । हे कल्याणि ! जगज्जननीके आदेशसे मैं आज स्वयंवरमें जा रहा हूँ । हे वरानने ! तुम क्षत्राणी हो, अत: इस विषयमें चिन्ता मत करो । भगवतीकी सदा अपने ऊपर कृपा रहनेके कारण मैं किसीसे भी भयभीत नहीं होता ॥ ३१-३२.५ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर रथपर आरूढ़ होकर स्वयंवरमें जानेके लिये उद्यत पुत्र सुदर्शनको देखकर मनोरमाने इन आशीर्वादोंसे उसका अनुमोदन किया-भगवती अम्बिका आगेसे, पार्वती पीछेसे, (पार्वती दोनों पार्श्वभागमें तथा शिवा सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करें । ) विषम मार्गमें वाराही, किसी भी प्रकारके दुर्गम स्थानोंमें दुर्गा और भयानक संग्राममें परमेश्वरी कालिका तुम्हारी रक्षा करें । उस मण्डपमें देवी मातंगी, स्वयंवरमें भगवती सौम्या तथा भव-बन्धनसे मुक्त करनेवाली भवानी राजाओंके बीचमें तुम्हारी रक्षा करें । इसी प्रकार पर्वतीय दुर्गम स्थानोंमें गिरिजा, चौराहोंपर देवी चामुण्डा तथा वनोंमें सनातनी कामगादेवी तुम्हारी रक्षा करें । हे रघूहह ! विवादमें भगवती वैष्णवी तुम्हारी रक्षा करें । हे सौम्य ! शत्रुओंके साथ युद्धमें भैरवी तुम्हारी रक्षा करें । जगत्को धारण करनेवाली सच्चिदानन्दस्वरूपिणी महामाया भुवनेश्वरी सभी स्थानोंपर सर्वदा तुम्हारी रक्षा करें ॥ ३३-३९ ॥
व्यास उवाच इत्युक्त्वा तं तदा माता वेपमाना भयाकुला । उवाचाहं त्वया सार्धमागमिष्यामि सर्वथा ॥ ४० ॥ निमिषार्धं विना त्वां वै नाहं स्थातुमिहोत्सहे । सहैव नय मां वत्स यत्र ते गमने मतिः ॥ ४१ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर भयसे व्याकुल तथा काँपती हुई उसकी माता मनोरमाने उससे कहा-मैं भी तुम्हारे साथ अवश्य चलूँगी । हे पुत्र ! मैं तुम्हारे बिना आधे क्षण भी यहाँ नहीं रह सकती, अतएव तुम्हारी जहाँ जानेकी इच्छा है, वहीं मुझे भी अपने साथ ले चलो । ४०-४१ ॥
इसके बाद वह रघुवंशी सुदर्शन एक रथपर आरूढ़ होकर वाराणसी पहुंचा । राजा सुबाहुको उसके आनेकी जानकारी होनेपर उन्होंने आदरसम्मान आदिके द्वारा उसका सत्कार किया । उन लोगोंके निवासके लिये भवन तथा अन्न-जल आदिकी व्यवस्था कर दी तथा उनकी सेवा-शुश्रूषाहेतु सेवकको भी नियुक्त कर दिया ॥ ४३-४४ ॥
उस समय सभी राजकुमार आपसमें मिलकर कहने लगे कि राजकुमार सुदर्शन भी निश्चिन्त होकर यहाँ आया है । वह महाबुद्धिमान् सूर्यवंशी सुदर्शन अपनी माताके साथ इस समय अकेला ही रथपर चढ़कर विवाहके लिये यहाँ आ पहुँचा है । सैन्यशक्तिसे सम्पन्न तथा शस्त्रास्त्रसे सुसजित इन राजकुमारोंको छोड़कर क्या वह राजकुमारी बड़ी भुजाओंवाले इस सुदर्शनका वरण करेगी ? ॥ ५०-५२ ॥
तब महान् नीतिज्ञ केरलनरेशने उस युधाजित्से कहा-हे राजन् ! इच्छास्वयंवरमें युद्ध नहीं करना चाहिये । यह शुल्कस्वयंवर भी नहीं है, अत: कन्याका बलपूर्वक हरण भी नहीं किया जाना चाहिये । इसमें तो कन्याकी इच्छासे पति चुनना निर्धारित है; तो फिर इसमें विवाद कैसा ? ॥ ५४-५५ ॥
धर्मकी जय होती है, अधर्मकी नहीं । सत्यकी जय होती है, असत्यकी नहीं । अतएव हे राजेन्द्र ! आप अन्याय न कीजिये और इस प्रकारके पापमय विचारका सर्वथा परित्याग कर दीजिये ॥ ५९ ॥
दौहित्रस्तव सम्प्राप्तः सोऽपि रूपसमन्वितः । राज्ययुक्तस्तथा श्रीमान्कथं तं न वरिष्यति ॥ ६० ॥
आपका दौहित्र यहाँ आया ही है । वह भी अत्यन्त रूपवान् और राज्य तथा लक्ष्मीसे सम्पन्न है; तब भला कन्या उसका वरण क्यों नहीं करेगी ? ॥ ६० ॥