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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
विंशोऽध्यायः

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स्वपितरं प्रति शशिकलावाक्यम् -
राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना -


व्यास उवाच
इतिवादिनि भूपाले केरलाधिपतौ तदा ।
प्रत्युवाच महाभाग युधाजिदपि पार्थिवः ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे महाभाग ! तब महाराज केरलनरेशके ऐसा कहनेपर राजा युधाजित्ने कहा- ॥ १ ॥

नीतिरेषा महीपाल यद्‌ब्रवीति भवानिह ।
समाजे पार्थिवानां वै सत्यवाग्विजितेन्द्रियः ॥ २ ॥
हे पृथ्वीपते ! आपने अभी-अभी जो कहा है, क्या यही नीति है ? राजाओंके समाजमें आप तो सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय माने जाते हैं ॥ २ ॥

योग्येषु वर्तमानेषु कन्यारत्‍नं कुलोद्वह ।
अयोग्योऽर्हति भूपाल न्यायोऽयं तव रोचते ॥ ३ ॥
हे कुलोद्वह ! हे राजन् ! योग्य राजाओंके रहते हुए एक अयोग्य व्यक्ति कन्यारत्नको प्राप्त कर ले, क्या यही न्याय आपको अच्छा लगता है ? ॥ ३ ॥

भागं सिंहस्य गोमायुर्भोक्तुमर्हति वा कथम् ।
तथा सुदर्शनोऽयं वै कन्यारत्‍नं किमर्हति ॥ ४ ॥
एक सियार सिंहके भागको खानेका अधिकारी कैसे हो सकता है ? उसी प्रकार क्या यह सुदर्शन इस कन्यारलको पानेकी योग्यता रखता है ? ॥ ४ ॥

बलं वेदो हि विप्राणां भूभुजां चापजं बलम् ।
किमन्याय्यं महाराज ब्रवीम्यहमिहाधुना ॥ ५ ॥
ब्राह्मणोंका बल वेद है और राजाओंका बल धनुष । हे महाराज ! क्या मैं इस समय अन्यायपूर्ण बात कह रहा हूँ ? ॥ ५ ॥

बलं शुल्कं यथा राज्ञां विवाहे परिकीर्तितम् ।
बलवानेव गृह्णातु नाबलस्तु कदाचन ॥ ६ ॥
राजाओंके विवाहमें बलको ही शुल्क कहा गया है । यहाँ जो भी बलशाली हो, वह कन्यारत्नको प्राप्त कर ले; बलहीन इसे कदापि नहीं पा सकता ॥ ६ ॥

तस्मात्कन्यापणं कृत्वा नीतिरत्र विधीयताम् ।
अन्यथा कलहः कामं भविष्यति महीभुजाम् ॥ ७ ॥
अतएव कन्याके लिये कोई शर्त निर्धारित करके ही राजकुमारीका विवाह हो-यही नीति इस अवसरपर अपनायी जानी चाहिये; अन्यथा राजाओंमें परस्पर घोर कलहकी स्थिति उत्पन्न हो जायगी ॥ ७ ॥

एवं विवादे संवृत्ते राज्ञां तत्र परस्परम् ।
आहूतस्तु सभामध्ये सुबाहुर्नृपसत्तमः ॥ ८ ॥
इस प्रकार वहाँ राजाओंमें परस्पर विवाद उत्पन्न हो जानेपर नृपश्रेष्ठ सुबाहु सभामें बुलाये गये ॥ ८ ॥

समाहूय नृपाः सर्वे तमूचुस्तत्त्वदर्शिनः ।
राजन्नीतिस्त्वया कार्या विवाहेऽत्र समाहिता ॥ ९ ॥
किं ते चिकीर्षितं राजंस्तद्वदस्व समाहितः ।
पुत्र्याः प्रदानं कस्मै ते रोचते नृप चेतसि ॥ १० ॥
उन्हें बुलवाकर तत्त्वदर्शी राजाओंने उनसे कहा हे राजन् ! इस विवाहमें आप राजोचित नीतिका अनुसरण करें । हे राजन् ! आप क्या करना चाहते हैं, उसे सावधान होकर बतायें । हे नृप ! आप अपने मनसे इस कन्याको किसे प्रदान करना पसन्द करते हैं ? ॥ ९-१० ॥

सुबाहुरुवाच
पुत्र्या मे मनसा कामं वृतः किल सुदर्शनः ।
मया निवारितोऽत्यर्थं न सा प्रत्येति मे वचः ॥ ११ ॥
किं करोमि सुताया मे न वशे वर्तते मनः ।
सुदर्शनस्तथैकाकी सम्प्राप्तोऽस्ति निराकुलः ॥ १२ ॥
सुबाहु बोले- मेरी पुत्रीने मन-ही-मन सुदर्शनका वरण कर लिया है । इसके लिये मैंने उसे बहुत रोका, किंतु वह मेरी बात नहीं मानती । मैं क्या करूं ? मेरी पुत्रीका मन वशमें नहीं है और यह सुदर्शन भी निर्भीक होकर यहाँ अकेले आ गया है ॥ ११-१२ ॥

व्यास उवाच
सम्पन्ना भूभुजः सर्वे समाहूय सुदर्शनम् ।
ऊचुः समागतं शान्तमेकाकिनमतन्द्रिताः ॥ १३ ॥
राजपुत्र महाभाग केनाहूतोऽसि सुव्रत ।
एकाकी यः समायातः समाजे भूभृतामिह ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-तत्पश्चात् सभी वैभवशाली राजाओंने सुदर्शनको बुलवाया । उस शान्तस्वभाव सुदर्शनसे राजाओंने सावधान होकर पूछा-हे राजपुत्र ! हे महाभाग ! हे सुव्रत ! तुम्हें यहाँ किसने बुलाया है, जो तुम इस राजसमाजमें अकेले ही चले आये हो ? ॥ १३-१४ ॥

न वै सैन्यं न सचिवा न कोशो न बृहद्‌बलम् ।
किमर्थञ्च समायातस्तत्त्वं ब्रूहि महामते ॥ १५ ॥
तुम्हारे पास न सेना है, न मन्त्री हैं, न कोश है और न अधिक बल ही है । हे महामते ! तुम यहाँ किसलिये आये हो ? उसे बताओ । १५ ॥

युद्धकामा नृपतयो वर्तन्तेऽत्र समागमे ।
कन्यार्थं सैन्यसम्पन्नाः किं त्वं कर्तुमिहेच्छसि ॥ १६ ॥
युद्धकी अभिलाषा रखनेवाले बहुत-से राजागण इस कन्याको प्राप्त करनेकी इच्छासे अपनी-अपनी सेनासहित इस समाजमें विद्यमान हैं । यहाँ तुम क्या करना चाहते हो ? ॥ १६ ॥

भ्राता ते सुबलः शूरः सम्प्राप्तोऽस्ति जिघृक्षया ।
युधाजिच्च महाबाहुः साहाय्यं कर्तुमागतः ॥ १७ ॥
तुम्हारा शूरवीर भाई शत्रुजित् भी एक महान् सेनाके साथ राजकुमारीको प्राप्त करनेकी इच्छासे यहाँ आया हुआ है और उसकी सहायता करनेके लिये महाबाहु युधाजित् भी आये हैं ॥ १७ ॥

गच्छ वा तिष्ठ राजेन्द्र याथातथ्यमुदाहृतम् ।
त्वयि सैन्यविहीने च यथेष्टं कुरु सुव्रत ॥ १८ ॥
हे राजेन्द्र ! तुम जाओ अथवा रहो । हमने तो सारी वास्तविकता तुम्हें बतला दी । क्योंकि तुम सेना-विहीन हो । हे सुव्रत ! अब तुम्हारी जो इच्छा हो, वह करो ॥ १८ ॥

सुदर्शन उवाच
न बलं न सहायो मे न कोशो दुर्गसंश्रयः ।
न मित्राणि न सौहार्दी न नृपा रक्षका मम ॥ १९ ॥
सुदर्शन बोला- मेरे पास न सेना है, न कोई सहायक है, न खजाना है, न सुरक्षित किला है, न मित्र हैं, न सुहद् हैं तथा न तो मेरी रक्षा करनेवाले कोई राजा ही हैं ॥ १९ ॥

अत्र स्वयंवरं श्रुत्वा द्रष्टुकाम इहागतः ।
स्वप्ने देव्या प्रेरितोऽस्मि भगवत्या न संशयः ॥ २० ॥
यहाँपर स्वयंवर होनेका समाचार सुनकर उसे देखनेके लिये मैं यहाँ आया हूँ । देवी भगवतीने स्वप्नमें मुझे यहाँ आनेकी प्रेरणा दी है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २० ॥

नान्यच्चिकीर्षितं मेऽद्य मामाह जगदीश्‍वरी ।
तया यद्विहितं तच्च भविताऽद्य न संशयः ॥ २१ ॥
मेरी अन्य कोई अभिलाषा नहीं है । मुझे यहाँ आनेके लिये जगज्जननी भगवतीने आदेश दिया है । उन्होंने जो विधान रच दिया होगा, वह होकर ही रहेगा । इसमें कोई संशय नहीं है ॥ २१ ॥

न शत्रुरस्ति संसारे कोऽप्यत्र जगतीश्‍वराः ।
सर्वत्र पश्यतो मेऽद्य भवानीं जगदम्बिकाम् ॥ २२ ॥
हे राजागण ! इस संसारमें मेरा कोई शत्रु नहीं है । मैं सर्वत्र भवानी जगदम्बाको विराजमान देख रहा हूँ ॥ २२ ॥

यः करिष्यति शत्रुत्वं मया सह नृपात्मजाः ।
शास्ता तस्य महाविद्या नाहं जानामि शत्रुताम् ॥ २३ ॥
हे राजकुमारो ! जो कोई भी प्राणी मुझसे शत्रुता करेगा, उसे महाविद्या जगदम्बा दण्डित करेंगी; मैं तो वैर-भाव जानता ही नहीं ॥ २३ ॥

यद्‌भावि तद्वै भविता नान्यथा नृपसत्तमाः ।
का चिन्ता ह्यत्र कर्तव्या दैवाधीनोऽस्मि सर्वथा ॥ २४ ॥
हे श्रेष्ठ राजाओ ! जो होना है, वह अवश्य ही होगा; उसके विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता । अतः इस विषयमें क्या चिन्ता की जाय ? मैं तो सदा प्रारब्धपर भरोसा करता हूँ ? ॥ २४ ॥

देवभूतमनुष्येषु सर्वभूतेषु सर्वदा ।
सर्वेषां तत्कृता भक्तिर्नान्यथा नृपसत्तमाः ॥ २५ ॥
हे श्रेष्ठ राजाओ ! देवताओं, दानवों, मनुष्यों तथा सभी प्राणियोंमें एकमात्र जगदम्बाकी शक्ति ही विद्यमान है । उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है ॥ २५ ॥

सा यं चिकीर्षते भूपं तं करोति नृपाधिपाः ।
निर्धनं वा नरं कामं का चिन्ता वै तदा मम ॥ २६ ॥
हे महाराजाओ ! वे जिस मनुष्यको राजा बनाना चाहती हैं, उसे राजा बना देती हैं और जिसे निर्धन बनाना चाहती हैं, उसे निर्धन बना देती हैं । तब मुझे किस बातकी चिन्ता ? ॥ २६ ॥

तामृते परमां शक्तिं ब्रह्मविष्णुहरादयः ।
न शक्ताः स्पन्दितुं देवाः का चिन्ता मे तदा नृपाः ॥ २७ ॥
हे राजाओ ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता भी उन महाशक्तिके बिना हिलने-डुलने में भी समर्थ नहीं हैं, तब मुझे क्या चिन्ता ? ॥ २७ ॥

अशक्तो वा सशक्तो वा यादृशस्तादृशस्त्वहम् ।
तदाज्ञया नृपाद्यैव सम्प्राप्तोऽस्मि स्वयंवरे ॥ २८ ॥
मैं शक्तिसम्पन्न हूँ या शक्तिहीन, जैसा भी हूँ वैसा आपके समक्ष हूँ । हे राजाओ ! मैं उन्हीं भगवतीकी आज्ञासे ही इस स्वयंवरमें आया हुआ हूँ ॥ २८ ॥

सा यदिच्छति तत्कुर्यान्मम किं चिन्तनेन वै ।
नात्र शंका प्रकर्तव्या सत्यमेतद्‌ब्रवीम्यहम् ॥ २९ ॥
वे भगवती जो चाहेंगीं, सो करेंगीं । मेरे सोचनेसे क्या होगा ? मैं यह सत्य कह रहा हूँ, इस विषयमें शंका नहीं करनी चाहिये ॥ २९ ॥

जये पराजये लज्जा न मेऽत्राण्वपि पार्थिवाः ।
भगवत्यास्तु लज्जास्ति तदधीनोऽस्मि सर्वथा ॥ ३० ॥
हे राजाओ ! जय अथवा पराजयमें मुझे अणुमात्र भी लज्जा नहीं है । लज्जा तो उन भगवतीको होगी; क्योंकि मैं तो सर्वथा उन्हींके अधीन हूँ ॥ ३० ॥

व्यास उवाच
इति तस्य तदाकर्ण्य वचनं राजसत्तमाः ।
ऊचुः परस्परं प्रेक्ष्य निश्‍चयज्ञा नराधिपाः ॥ ३१ ॥
सत्यमुक्तं त्वया साधो न मिथ्या कर्हिचिद्‌भवेत् ।
तथाप्युज्जयनीनाथस्त्वां हन्तुं परिकाङ्क्षति ॥ ३२ ॥
त्वत्कृते न दयादिष्टा त्वां ब्रवीमो महामते ।
यद्युक्तं तत्त्वया कार्यं विचार्य मनसाऽनघ ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उस सुदर्शनको यह बात सुनकर सभी श्रेष्ठ राजागण उसके निश्चयको जान गये और एक-दूसरेको देखकर उन राजाओंने सुदर्शनसे कहा-हे साधो ! आपने सत्य कहा है, आपका कथन कभी मिथ्या नहीं हो सकता । तथापि उज्जयिनीपति महाराज युधाजित् आपको मार डालना चाहते हैं । हे महामते ! हमें आपके ऊपर दया आ रही है, इसीलिये हमने आपको यह सब बता दिया । हे अनघ ! अब आपको जो उचित जान पड़े, वैसा मनसे खूब सोच-समझकर कीजिये ॥ ३१-३३ ॥

सुदर्शन उवाच
सत्यमुक्तं भवद्‌भिश्‍च कृपावद्‌भिः सुहृज्जनैः ।
किं ब्रवीमि पुनर्वाक्यमुक्त्वा नृपतिसत्तमाः ॥ ३४ ॥
सुदर्शन बोला-आप सब बड़े कृपालु एवं सहदय-जनोंने सत्य ही कहा है, किंतु हे श्रेष्ठ राजागण ! अब में अपनी पूर्वकथित बात फिरसे क्या दोहराऊँ ! ॥ ३४ ॥

न मृत्युः केनचिद्‌भाव्यः कस्यचिद्वा कदाचन ।
दैवाधीनमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ ३५ ॥
किसीकी भी मृत्यु किसीसे भी कभी भी नहीं हो सकती क्योंकि यह सम्पूर्ण चराचर जगत् तो दैवके अधीन है ॥ ३५ ॥

स्ववशोऽयं न जीवो‍ऽस्ति स्वकर्मवशगः सदा ।
तत्कर्म त्रिविधं प्रोक्तं विद्वद्‌भिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ३६ ॥
सञ्चितं वर्तमानञ्च प्रारब्धञ्च तृतीयकम् ।
कालकर्मस्वभावैश्‍च ततं सर्वमिदं जगत् ॥ ३७ ॥
यह जीव भी स्वयं अपने वशमें नहीं है । यह सदा अपने कर्मके अधीन रहता है । तत्त्वदर्शी विद्वानोंने उस कर्मके तीन प्रकार बतलाये हैंसंचित, वर्तमान तथा प्रारब्ध । यह सम्पूर्ण जगत् काल, कर्म तथा स्वभावसे व्याप्त है । ३६-३७ ॥

न देवो मानुषं हन्तुं शक्तः कालागमं विना ।
हतं निमित्तमात्रेण हन्ति कालः सनातनः ॥ ३८ ॥
बिना कालके आये देवता भी किसी मनुष्यको मारनेमें समर्थ नहीं हो सकते । किसीको भी मारनेवाला तो निमित्तमात्र होता है । वास्तविकता यह है कि सभीको अविनाशी काल ही मारता है ॥ ३८ ॥

यथा पिता मे निहतः सिंहेनामित्रकर्षणः ।
तथा मातामहोऽप्येवं युद्धे युधाजिता हतः ॥ ३९ ॥
जैसे शत्रुओंका शमन करनेवाले मेरे पिताको सिंहने मार डाला । वैसे ही मेरे नानाको भी युद्धमें युधाजित्ने मार डाला ॥ ३९ ॥

यत्‍नकोटिं प्रकुर्वाणो हन्यते दैवयोगतः ।
जीवेद्वर्षसहस्राणि रक्षणेन विना नरः ॥ ४० ॥
प्रारब्ध पूरा हो जानेपर करोड़ों प्रयत्न करनेपर भी अन्ततः मनुष्य मर ही जाता है और दैवके अनुकूल रहनेपर बिना किसी रक्षाके ही वह हजारों वर्षांतक जीवित रहता है ॥ ४० ॥

नाहं बिभेमि धर्मिष्ठाः कदाचिच्च युधाजितः ।
दैवमेव परं मत्वा सुस्थितोऽस्मि सदा नृपाः ॥ ४१ ॥
हे धर्मनिष्ठ राजाओ ! मैं युधाजित्से कभी नहीं डरता । मैं दैवको ही सर्वोपरि मानकर पूर्णरूपसे निश्चिन्त रहता हूँ ॥ ४१ ॥

स्मरणं सततं नित्यं भगवत्याः करोम्यहम् ।
विश्‍वस्य जननी देवी कल्याणं सा करिष्यति ॥ ४२ ॥
मैं नित्य-निरन्तर भगवतीका स्मरण करता रहता हैं । विश्वको जननी वे भगवती ही कल्याण करेंगी ॥ ४२ ॥

पूर्वार्जितं हि भोक्तव्यं शुभं वाप्यशुभं तथा ।
स्वकृतस्य च भोगेन कीदृक्शोको विजानताम् ॥ ४३ ॥
पूर्वजन्ममें किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मोका फल प्राणीको भोगना ही पड़ता है; तो फिर अपने द्वारा किये गये कर्मका फल भोगनेमें विवेकी पुरुषोंको शोक कैसा ? ॥ ४३ ॥

स्वकर्मफलयोगेन प्राप्य दुःखमचेतनः ।
निमित्तकारणे वैरं करोत्यल्पमतिः किल ॥ ४४ ॥
अपने द्वारा उपार्जित कर्मफल भोगनेमें दुःख प्राप्त होनेके कारण अज्ञानी तथा अल्पबुद्धिवाला प्राणी निमित्त कारणके प्रति शत्रुता करने लगता है ॥ ४४ ॥

न तथाऽहं विजानामि वैरं शोकं भयं तथा ।
निःशङ्कमिह सम्प्राप्तः समाजे भूभृतामिह ॥ ४५ ॥
उनकी भाँति मैं वैर, शोक तथा भयको नहीं जानता । अतः मैं राजाओंके इस समाजमें भयरहित होकर आया हुआ हूँ ॥ ४५ ॥

एकाकी द्रष्टुकामोऽहं स्वयंवरमनुत्तमम् ।
भविष्यति च यद्‌भाव्यं प्राप्तोऽस्मि चण्डिकाज्ञया ॥ ४६ ॥
जो होना है, वह तो होकर ही रहेगा । मैं तो भगवतीके आदेशसे इस उत्कृष्ट स्वयंवरको देखनेकी अभिलाषासे यहाँ अकेला ही आया हूँ ॥ ४६ ॥ ।

भगवत्याः प्रमाणं मे नान्यं जानामि संयतः ।
तत्कृतञ्च सुखं दुःखं भविष्यति च नान्यथा ॥ ४७ ॥
मैं भगवतीके वचनको ही प्रमाण मानता हूँ और उनकी आज्ञाके अधीन रहता हुआ मैं अन्य किसीको नहीं जानता । उन्होंने सुख-दुःखका जो विधान कर दिया है, वहीं प्राप्त होगा, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं ॥ ४७ ॥

युधाजित्सुखमाप्नोतु न मे वैरं नृपोत्तमाः ।
यः करिष्यति मे वैरं स प्राप्स्यति फलं तथा ॥ ४८ ॥
हे श्रेष्ठ राजाओ ! युधाजित् सुखी रहें । मेरे मनमें उनके प्रति वैरभाव नहीं है । जो मुझसे शत्रुता करेगा, वह उसका फल पायेगा ॥ ४८ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तास्ते तथा तेन सन्तुष्टा भूभुजः स्थिताः ।
सोऽपि स्वमाश्रमं प्राप्य सुस्थितः सम्बभूव ह ॥ ४९ ॥
व्यासजी बोले-उस सुदर्शनके इस प्रकार कहनेपर वहाँ उपस्थित सभी राजा अत्यन्त प्रसन्न हो गये । वह भी अपने निवासमें आकर शान्तभावसे बैठ गया ॥ ४९ ॥

अपरेऽह्नि शुभे काले नृपाः सम्मन्त्रिताः किल ।
सुबाहुना नृपेणाथ रुचिरे वै स्वमण्डपे ॥ ५० ॥
तदनन्तर दूसरे दिन शुभ मुहूर्तमें राजा सुबाहुने अपने भव्य मण्डपमें सभी राजाओंको बुलाया ॥ ५० ॥

दिव्यास्तरणयुक्तेषु मञ्चेषु रचितेषु च ।
उपविष्टाश्‍च राजानः शुभालङ्करणैर्युताः ॥ ५१ ॥
उस मण्डपमें दिव्य आसनोंसे सुशोभित पूर्णरूपसे सजाये गये मंचोंपर मनोहारी आभूषणोंसे अलंकृत राजागण विराजमान हुए ॥ ५१ ॥

दिव्यवेषधराः कामं विमानेष्वमरा इव ।
दीप्यमानाः स्थितास्तत्र स्वयंवरदिदृक्षया ॥ ५२ ॥
स्वयंवर देखनेकी इच्छासे वहाँ मंचोंपर विराजमान वे दिव्य वेषधारी देदीप्यमान राजागण विमानपर बैठे हुए देवताओंकी भाँति प्रतीत हो रहे थे ॥ ५२ ॥

इति चिन्तापराः सर्वे कदा साप्यागमिष्यति ।
भाग्यवन्तं नृपश्रेष्ठं श्रुतपुण्यं वरिष्यति ॥ ५३ ॥
सभी राजा इस बातके लिये बहुत चिन्तित थे कि वह राजकुमारी कब आयेगी और किस पुण्यवान् तथा भाग्यशाली श्रेष्ठ नरेशका वरण करेगी ? ॥ ५३ ॥

यदा सुदर्शनं दैवात्स्रजा सम्भूषयेदिह ।
विवादो वै नृपाणां च भविता नात्र संशयः ॥ ५४ ॥
संयोगवश यदि राजकुमारीने सुदर्शनके गले में माला डाल दी तो राजाओंमें परस्पर कलह होने लगेगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५४ ॥

इत्येवं चिन्त्यमानास्ते भूपा मञ्चेषु संस्थिताः ।
वादित्रघोषः सुमहानुत्थितो नृपमण्डपे ॥ ५५ ॥
मंचोंपर विराजमान राजालोग ऐसा सोच ही रहे थे तभी राजा सुबाहुके भवनमें वाद्योंकी ध्वनि होने लगी ॥ ५५ ॥

अथ काशीपतिः प्राह सुतां स्नातां स्वलङ्कृताम् ।
मधूकमालासंयुक्तां क्षौमवासोविभूषिताम् ॥ ५६ ॥
विवाहोपस्करैर्युक्तां दिव्यां सिन्धुसुतोपमाम् ।
चिन्तापरां सुवसनां स्मितपूर्वमिदं वचः ॥ ५७ ॥
तत्पश्चात् स्नान करके भलीभाँति अलंकृत, मधूक पुष्पकी माला धारण किये, रेशमी वस्त्रसे सुशोभित, विवाहके अवसरपर धारणीय सभी पदार्थोंसे युक्त, लक्ष्मीके सदृश दिव्य स्वरूपवाली, चिन्तामग्न तथा सुन्दर वस्त्रोंवाली शशिकलासे मुसकराकर महाराज सुबाहुने यह वचन कहा- ॥ ५६-५७ ॥

उत्तिष्ठ पुत्रि सुनसे करे धृत्वा शुभां स्रजम् ।
व्रज मण्डपमध्येऽद्य समाजं पश्य भूभुजाम् ॥ ५८ ॥
हे सुन्दर नासिकावाली पुत्रि ! उठो और हाथमें यह सुन्दर माला लेकर मण्डपमें चलो और वहाँपर विराजमान राजाओंके समुदायको देखो ॥ ५८ ॥

गुणवान् रूपसम्पन्नः कुलीनश्‍च नृपोत्तमः ।
तव चित्ते वसेद्यस्तु तं वृणुष्व सुमध्यमे ॥ ५९ ॥
हे सुमध्यमे ! उन राजाओंमें जो गुणसम्पन्न, रूपवान् और उत्तम कुलमें उत्पन्न श्रेष्ठ राजा तुम्हारे मनमें बस जाय, उसका वरण कर लो ॥ ५९ ॥

देशदेशाधिपाः सर्वे मञ्चेषु रचितेषु च ।
संविष्टाः पश्य तन्वङ्‌गि वरयस्व यथारुचि ॥ ६० ॥
देश-देशान्तरके सभी राजागण सम्यक् रूपसे सजाये गये मंचोंपर विराजमान हैं । हे तन्वंगि ! इन्हें देखो और अपनी इच्छाके अनुसार वरण कर लो ॥ ६० ॥

व्यास उवाच
तं तथा भाषमाणं वै पितरं मितभाषिणी ।
उवाच वचनं बाला ललितं धर्मसंयुतम् ॥ ६१ ॥

व्यासजी बोले-तब ऐसा कहते हुए अपने पितासे मितभाषिणी उस कन्या शशिकलाने लालित्यपूर्ण एवं धर्मसंगत बात कही ॥ ६१ ॥

शशिकलोवाच
नाहं दृष्टिपथे राज्ञां गमिष्यामि पितः किल ।
कामुकानां नरेशानां गच्छन्त्यन्याश्च योषितः ॥ ६२ ॥
शशिकला बोली-हे पिताजी ! मैं इन राजाओंके सम्मुख बिलकुल नहीं जाऊँगी । ऐसे कामासक्त राजाओंके सामने अन्य प्रकारकी स्त्रियाँ ही जाती हैं । ६२ ॥

धर्मशास्त्रे श्रुतं तात मयेदं वचनं किल ।
एक एव वरो नार्या निरीक्ष्यः स्यान्न चापरः ॥ ६३ ॥
हे तात ! मैंने धर्मशास्त्रोंमें यह वचन सुना है कि नारीको एक ही वरपर दृष्टि डालनी चाहिये, किसी दूसरेपर नहीं ॥ ६३ ॥

सतीत्वं निर्गतं तस्या या प्रयाति बहूनथ ।
सङ्कल्पयन्ति ते सर्वे दृष्ट्वा मे भवतात्त्विति ॥ ६४ ॥
जो स्त्री अनेक पुरुषोंके समक्ष उपस्थित होती है, उसका सतीत्व विनष्ट हो जाता है; क्योंकि उसे देखकर वे सभी अपने मनमें यही संकल्प कर लेते हैं कि यह स्त्री किसी तरहसे मेरी हो जाय ॥ ६४ ॥

स्वयंवरे स्रजं धृत्वा यदागच्छति मण्डपे ।
सामान्या सा तदा जाता कुलटेवापरा वधूः ॥ ६५ ॥
कोई स्त्री अपने हाथमें जयमाल लेकर जब स्वयंवरमण्डपमें आती है तो वह एक साधारण स्त्री हो जाती है और उस समय वह एक व्यभिचारिणी स्त्रीकी भाँति प्रतीत होती है ॥ ६५ ॥

वारस्त्री विपणे गत्वा यथा वीक्ष्य नरांस्थितान् ।
गुणागुणपरिज्ञानं करोति निजमानसे ॥ ६६ ॥
नैकभावा यथा वेश्या वृथा पश्यति कामुकम् ।
तथाऽहं मण्डपे गत्वा कुर्वे वारस्त्रिया कृतम् ॥ ६७ ॥
जिस प्रकार एक वारांगना बाजारमें जाकर वहाँ स्थित पुरुषोंको देखकर अपने मनमें उनके गुणदोषोंका आकलन करती है और जैसे अनेक प्रकारके चंचल भावोंसे युक्त वह वेश्या किसी कामी पुरुषको बिना किसी प्रयोजनके व्यर्थ ही देखती रहती है, उसी प्रकार स्वयंवर-मण्डपमें जाकर मुझे भी उसीके सदृश व्यवहार करना पड़ेगा ॥ ६६-६७ ॥

वृद्धैरेतैः कृतं धर्मं न करिष्यामि साम्प्रतम् ।
पत्‍नीव्रतं तथा कामं चरिष्येऽहं धृतव्रता ॥ ६८ ॥
इस समय मैं अपने कुलके वृद्धजनोंद्वारा स्थापित किये गये इस स्वयंवरनियमका पालन नहीं करूंगी । मैं अपने संकल्पपर अटल रहती हुई पत्नीव्रत-धर्मका पूर्णरूपसे आचरण करूँगी ॥ ६८ ॥

सामान्या प्रथमं गत्वा कृत्वा सङ्कल्पितं बहु ।
वृणोति चैकं तद्वद्वै वृणोमि कथमद्य वै ॥ ६९ ॥
सामान्य कन्या स्वयंवर-मण्डपमें पहुँचकर पहले अनेक संकल्प विकल्प करनेके पश्चात् अन्ततः किसी एकका वरण कर लेती है; उसके समान मैं भी पतिका वरण क्यों करूँ ? ॥ ६९ ॥

सुदर्शनो मया पूर्वं वृतः सर्वात्मना पितः ।
तमृते नान्यथा कर्तुमिच्छामि नृपसत्तम ॥ ७० ॥
हे पिताजी ! मैंने पूरे मनसे सुदर्शनका पहले ही वरण कर लिया है । हे महाराज ! उस सुदर्शनके अतिरिक्त मैं किसी अन्यको पतिके रूपमें स्वीकार नहीं कर सकती ॥ ७० ॥

विवाहविधिना देहि कन्यादानं शुभे दिने ।
सुदर्शनाय नृपते यदीच्छसि शुभं मम ॥ ७१ ॥
हे राजन् ! यदि आप मेरा हित चाहते हैं तो किसी शुभ दिनमें वैवाहिक विधि-विधानसे कन्यादान करके मुझे सुदर्शनको सौंप दीजिये ॥ ७१ ॥

इति श्रीदेवीभागवत महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
स्वपितरं प्रति शशिकलावाक्यं नामविंशोध्यायः ॥ २० ॥
अध्याय बीसवाँ समाप्त


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