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कन्यया स्वपितरं प्रति सुदर्शनेन सह विवाहार्थकथनम् -
राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजितका क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना -
व्यास उवाच सुबाहुरपि तच्छ्रुत्वा युक्तमुक्तं तया तदा । चिन्ताविष्टो बभूवाशु किं कर्तव्यमतः परम् ॥ १ ॥ सङ्गताः पृथिवीपालाः ससैन्याः सपरिग्रहाः । उपविष्टाश्च मञ्चेषु योद्धुकामा महाबलाः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] महाराज सुबाहु पुत्रीके द्वारा कही गयी युक्तिसंगत बातें सुनकर इस चिन्तामें पड़ गये कि अब आगे क्या किया जाय ? अपने-अपने सैनिकों तथा सेवकोंके साथ यहाँ आये हुए और युद्धकी इच्छावाले अनेक महाबली नरेश मंचोंपर बैठे हुए हैं ॥ १-२ ॥
यदि ब्रवीमि तान्सर्वान्सुता नायाति साम्प्रतम् । तथापि कोपसंयुक्ता हन्युर्मा दुष्टबुद्धयः ॥ ३ ॥
इस समय यदि मैं उन सभीसे यह कहूँ कि कन्या नहीं आ रही है, तो दुष्ट बुद्धिवाले वे राजा क्रोधित होकर मुझे मार ही डालेंगे ॥ ३ ॥
न मे सैन्यबलं तादृङ्न दुर्गबलमद्भुतम् । येनाहं नृपतीन्सर्वान् प्रत्यादेष्टुमिहोत्सहे ॥ ४ ॥
मेरे पास न तो वैसा सैन्यबल है और न तो सुरक्षार्थ अद्भुत किला ही है, जिससे मैं इस समय उन सभीको पराजित कर सकूँ ॥ ४ ॥
यह बालक सुदर्शन भी निस्सहाय, निर्धन तथा अकेला है । मैं तो हर तरहसे दुःखसागरमें डूब चुका हूँ । अब मुझे इस समय क्या करना चाहिये ? ॥ ५ ॥
इति चिन्तापरो राजा जगाम नृपसन्निधौ । प्रणम्य तानुवाचाथ प्रश्रयावनतो नृपः ॥ ६ ॥ किं कर्तव्यं नृपाः कामं नैति मे मण्डपे सुता । बहुशः प्रेर्यमाणाऽपि सा मात्राऽपि मयाऽपि च ॥ ७ ॥
इस प्रकार चिन्ताकुल राजा सुबाहु राजाओंके पास गये और उन सबको प्रणाम करके अत्यन्त विनीतभावसे उन्होंने कहा हे महाराजाओ ! अब मैं क्या करूँ ? मेरे तथा अपनी माताके द्वारा बहुत प्रेरित किये जानेपर भी मेरी पुत्री मण्डपमें नहीं आ रही है ॥ ६-७ ॥
मैं आपलोगोंका हर तरहसे सेवक हूँ, अतएव आपलोग मुझपर कृपा करें । आप सभी लोग मेरी इस पुत्रीको अपनी ही पुत्री समझें ॥ १२ ॥
व्यास उवाच श्रुत्वा सुबाहुवचनं नोचुः केचन भूमिपाः । युधाजित्क्रोधताम्राक्षस्तमुवाच रुषान्वितः ॥ १३ ॥ राजन्मूर्खोऽसि किं ब्रूषे कृत्वा कार्य सुनिन्दितम् । स्वयंवरः कथं मोहाद्रचितः संशये सति ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] सुबाहुका वचन सुनकर अन्य राजागण तो नहीं बोले, किंत क्रोधसे आँखें लाल करके युधाजित्ने उनसे रोषपूर्वक कहाहे राजन् ! आप तो बड़े मूर्ख हैं । ऐसा निन्दनीय कृत्य करनेके बाद भी आप कैसे इस प्रकारकी बात बोल रहे हैं ? यदि संशयकी स्थिति थी तो आपने अज्ञानतावश स्वयंवरका आयोजन ही क्यों किया ? ॥ १३-१४ ॥
सेना तथा वाहनोंसे सम्पन्न इन राजाओंको छोड़कर इस समय आप सुदर्शनको अपना जामाता क्यों बनाना चाहते हैं ? ॥ १८ ॥
अहं त्वां हन्मि पापिष्ठं तथा पश्चात्सुदर्शनम् । दौहित्रायाद्य ते कन्यां दास्यामीति विनिश्चयः ॥ १९ ॥
[उसने क्रोधपूर्वक आगे कहा-] मैं तुझ पापीको अभी मार डालूँगा और बादमें सुदर्शनका भी वध कर दूंगा । तत्पश्चात् तुम्हारी कन्याका विवाह अपने नाती शत्रुजित्से कर दूंगा; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ १९ ॥
यह सुदर्शन पूर्वमें जब भारद्वाजमुनिके आश्रममें था तभी मैं उसे मार डालता, किंतु मुनिके कहनेसे मैंने उसे छोड़ दिया था । किंतु आज किसी भी तरह इस बालकके प्राण नहीं छोड़ेगा ॥ २१ ॥
तस्माद्विचार्य सम्यक्त्वं पुत्र्या च भार्यया सह । दौहित्राय प्रियां कन्यां देहि मे सुभ्रुवं किल ॥ २२ ॥ सम्बन्धी भव दत्त्वा त्वं पुत्रीमेतां मनोरमाम् । उच्चाश्रयः प्रकर्तव्यः सर्वदा शुभमिच्छता ॥ २३ ॥
अब तुम अपनी स्त्री और पुत्रीके साथ भलीभाँति विचार-विमर्श करके सुन्दर भौंहोंवाली अपनी कन्या मेरे दौहित्र शत्रुजित्को प्रदान कर दो । इस प्रकार अपनी इस सुन्दर पुत्रीको देकर तुम मेरे सम्बन्धी हो जाओ; क्योंकि अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको सर्वदा बड़ोंसे ही सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये ॥ २२-२३ ॥
तुम अकेले और राज्यहीन सुदर्शनको अपनी प्राणप्रिय, सुन्दर कन्या देकर क्या सुख चाहते हो ? (वरके कुल, धन, बल, रूप, राज्य, दुर्ग और सगे-सम्बन्धियोंको देखनेके बाद ही उसे अपनी कन्या देनी चाहिये, अन्यथा सुख नहीं मिलता है) तुम धर्म तथा शाश्वत राजनीतिपर सम्यक विचार कर लो, तत्पश्चात् यथोचित कार्य करो; इसके विपरीत कोई दूसरा विचार मत करो ॥ २४-२५ ॥
सुहृदसि ममात्यर्थं हितं ते प्रब्रवीम्यहम् । समानय सुतां राजन् मण्डपे तां सखीवृताम् ॥ २६ ॥
तुम मेरे परम मित्र हो, इसलिये तुम्हारे हितकी बात बता देता हूँ । अब तुम अपनी कन्याको उसकी सखियोंसहित स्वयंवर-मण्डपमें ले आओ ॥ २६ ॥
सुदर्शनमृते चेयं वरिष्यति यदाऽप्यसौ । विग्रहो मे तदा न स्याद्विवाहोऽस्तु तवेप्सितः ॥ २७ ॥ अन्ये नृपतयः सर्वे कुलीनाः सबलाः समाः । विरोधः कीदृशस्त्वेनं वृणोद्यदि नृपोत्तम ॥ २८ ॥ अन्यथाऽहं हरिष्येऽद्य बलात्कन्यामिमां शुभाम् । मा विरोधं सुदुःसाध्यं गच्छ पार्थिवसत्तम ॥ २९ ॥
यदि वह सुदर्शनको छोड़कर किसी दूसरेका वरण कर लेगी तो इसमें मुझे विरोध नहीं होगा । आप अपने इच्छानुसार उसके साथ विवाह कर दीजियेगा । हे राजेन्द्र ! अन्य सभी नरेश कुलीन, शक्तिशाली एवं हर तरहसे समान हैं । अतः यदि इनमेंसे किसीको भी वह कन्या चुन लेती है तो विरोध ही क्या है ? अन्यथा मैं बलपूर्वक आज ही इस सुन्दर कन्याका हरण कर लूँगा । हे नृपश्रेष्ठ ! जाओ, इस कार्यको सुसम्पन्न करो और इस असाध्य कलहमें मत पड़ो ॥ २७-२९ ॥
व्यास उवाच युधाजिता समादिष्टः सुबाहुः शोकसंयुतः । निःश्वसन्भवनं गत्वा भार्यां प्राह शुचावृतः ॥ ३० ॥ पुत्रीं ब्रूहि सुधर्मज्ञे कलहे समुपस्थिते । किं कर्त्तव्यं मया शक्यं त्वद्वशोऽस्मि सुलोचने ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले- उस समय युधाजित्का यह आदेश पाकर सुबाहु शोकाकुल हो उठे और दीर्घ श्वास लेते हुए महलमें जाकर दुःखित हो अपनी पत्नीसे कहने लगे-हे सुधर्मज्ञे ! हे सुनयने ! अब पुत्रीसे कहो-'स्वयंवर-सभामें इस समय घोर कलह उपस्थित हो जानेपर मुझे क्या करना चाहिये ? मैं स्वयं कुछ नहीं कर सकता; क्योंकि मैं तो तुम्हारे वशमें हूँ' ॥ ३०-३१ ॥
व्यासजी बोले-पतिकी यह बात सुनकर रानी अपनी पुत्रीके पास जाकर बोली-पत्रि ! तुम्हारे पिता राजा सुबाहु इस समय अत्यन्त दुःखी हैं । तुम्हारे लिये आये हुए नरेशोंमें भयंकर कलह उत्पन्न हो गया है, इसलिये हे सुश्रोणि ! तुम सुदर्शनको छोड़कर अन्य किसी राजकुमारका वरण कर लो ॥ ३२-३३ ॥
हे वत्से ! यदि तुम हठ करके सुदर्शनका ही वरण करोगी तो सैन्यबलयुक्त, प्रतापी तथा बलशाली वह युधाजित् तुमको, सुदर्शनको और हमलोगोंको मार डालेगा । तत्पश्चात् कलह हो जानेपर कोई दूसरा ही तुम्हारा पति होगा । अतः हे मृगलोचने ! यदि तुम मेरा और अपना हित चाहती हो तो सुदर्शनको छोड़कर किसी अन्य श्रेष्ठ राजाका वरण कर लो ॥ ३४-३५.५ ॥
सुखमिच्छसि चेन्मह्यं तुभ्यं वा मृगलोचने । इति मात्रा बोधितां तां पश्चाद्राजाप्यबोधयत् ॥ ३६ ॥
इस प्रकार माताके समझानेके बाद पिताने भी उसे समझाया । उन दोनोंकी बातें सुनकर कन्या शशिकला निर्भय होकर कहने लगी ॥ ३६ ॥
उभयोर्वचनं श्रुत्वा निर्भयोवाच कन्यका कन्योवाच सत्यमुक्तं नृपश्रेष्ठ जानासि च व्रतं मम ॥ ३७ ॥ नान्यं वृणोमि भूपाल सुदर्शनमृते क्वचित् । बिभेषि यदि राजेन्द्र नृपेभ्यः किल कातरः ॥ ३८ ॥ सुदर्शनाय दत्त्वा मां विसर्जय पुराद्बहिः । स मां रथे सामारोप्य निर्गमिष्यति ते पुरात् ॥ ३९ ॥ भवितव्यं तु पश्चाद्वै भविष्यति न चान्यथा । नात्र चिन्ता त्वया कार्या भवितव्ये नृपोत्तम ॥ ४० ॥ यद्भावि तद्भवत्येव सर्वथात्र न संशयः ।
कन्या बोली-हे नृपश्रेष्ठ ! आप ठीक कह रहे हैं किंतु आप मेरे प्रणको तो जानते ही हैं । हे राजन् ! मैं सुदर्शनको छोड़कर और किसीका भी वरण नहीं कर सकती । हे राजेन्द्र ! यदि आप राजाओंसे डरते हैं और बहुत घबड़ाये हुए हैं तो मुझे सुदर्शनको सौंपकर नगरसे बाहर कर दीजिये । वे मुझे रथपर बैठाकर आपके नगरसे बाहर निकल जायगे । हे नृपश्रेष्ठ ! जो होना है वह तो बादमें अवश्य होगा; इसके विपरीत नहीं होगा । अब आप होनीके विषयमें चिन्ता न करें: क्योंकि जो होना है वह तो निश्चितरूपसे होता ही है । इसमें संशय नहीं है । ३७-४०.५ ॥
राजोवाच न पुत्रि साहसं कार्यं मतिमद्भिः कदाचन ॥ ४१ ॥ बहुभिर्न विरोद्धव्यमिति वेदविदो विदुः । विस्रक्ष्यामि कथं कन्यां दत्त्वा राजसुताय च ॥ ४२ ॥ राजानो वरसंयुक्ताः किं न कुर्युरसाम्प्रतम् । यदि ते रोचते वत्से पणं संविदधाम्यहम् ॥ ४३ ॥ जनकेन यथा पूर्वं कृतः सीतास्वयंवरे । शैवं धनुर्यथा तेन धृतं कृत्वा पणं तथा ॥ ४४ ॥ तथाहमपि तन्वङ्गि करोम्यद्य दुरासदम् । विवादो येन राज्ञां वै कृते सति शमं व्रजेत् ॥ ४५ ॥ पालयिष्यति यः कामं स ते भर्ता भविष्यति । सुदर्शनस्तथाऽन्यो वा यः कश्चिद्बलवत्तरः ॥ ४६ ॥ पालयित्वा पणं त्वां वै वरयिष्यति सर्वथा । एवं कृते नृपाणां तु विवादः शमितो भवेत् ॥ ४७ ॥ सुखेनाहं विवाहं ते करिष्यामि ततः परम् ।
राजा बोले-हे पुत्रि ! बुद्धिमानोंको कभी ऐसा साहस नहीं करना चाहिये । वेदज्ञोंने कहा है कि बहुतोंसे विरोध नहीं करना चाहिये । पुत्रीको उस राजकुमारको सौंपकर कैसे विदा कर दूँ ? मुझसे वैर साधे हुए ये राजागण न जाने कौन-सा अनिष्ट कर डालेंगे । इसलिये हे पुत्रि ! यदि तुम पसन्द करो तो मैं कोई शर्त रख दूं, जैसा कि पूर्वकालमें राजा जनकने सीतास्वयंवरमें किया था । हे तन्वंगि ! जैसे उन्होंने शिव-धनुष तोड़नेकी शर्त रख दी थी, वैसे ही मैं भी कोई ऐसी कठोर शर्त रख दूँ जिससे ऐसा कर देनेपर राजाओंका विवाद ही समाप्त हो जाय । जो उस प्रतिज्ञाको पूरा करेगा, वही तुम्हारा पति होगा । सुदर्शन हो अथवा कोई दूसरा-जो भी अधिक बलशाली होगा, वह मेरी प्रतिज्ञा पूरी करके तुम्हारा वरण कर लेगा । ऐसा करनेसे राजाओंमें उत्पन्न कलह निश्चितरूपसे शान्त हो जायगा और उसके बाद मैं आनन्दपूर्वक तुम्हारा विवाह कर दूंगा ॥ ४१-४७.५ ॥
कन्या बोली-मैं इस सन्दिग्ध कार्यमें नहीं पड़ेंगी; क्योंकि यह मूखौका काम है । मैंने अपने मनमें सुदर्शनका पहलेसे ही वरण कर लिया है, अब दूसरेको स्वीकार नहीं कर सकती । हे महाराज ! पुण्य तथा पापका कारण तो मन ही है । इसलिये हे पिताजी ! मनसे वरण किये गये सुदर्शनको छोड़कर मैं दूसरेका वरण कैसे करूँ ? हे महाराज ! दूसरी बात यह भी है कि पणस्वयंवर करनेमें मुझे सबके अधीन रहना पड़ेगा । हे तात ! यदि इनमेंसे एक, दो या अनेकने आपका प्रण पूरा कर दिया तब उस समय विवादकी स्थिति उत्पन्न हो जानेपर आप क्या करेंगे ? अतः मैं किसी संशयात्मक कार्यमें पड़ना नहीं चाहती । हे राजेन्द्र ! आप चिन्ता न करें और विधिपूर्वक मेरा विवाह करके मुझे सुदर्शनको सौंप दीजिये । जिनके नामका संकीर्तन करनेसे समस्त दु:खराशि विलीन हो जाती है, वे भगवती चण्डिका अवश्य कल्याण करेंगी । अब आप उन्हीं महाशक्तिका स्मरण करके पूरी तत्परताके साथ यह कार्य कीजिये ॥ ४८-५३ ॥
अभी जा करके दोनों हाथ जोड़कर आप उन राजाओंसे कहिये कि आप सभी राजागण इस स्वयंवरमें कल पधारें । ऐसा कहकर सम्पूर्ण राजसमुदायको शीघ्र ही विसर्जित करके वैदिक रीतिसे सदर्शनके साथ रातमें मेरा विवाह कर दीजिये । हे राजन् ! तत्पश्चात् उन्हें यथोचित उपहार देकर विदा कर दीजिये ॥ ५४-५६ ॥
तदनन्तर महाराज ध्रुवसन्धिके पुत्र सुदर्शन मुझे साथ लेकर चले जायेंगे । इससे कुपित हुए राजा यदि युद्ध करनेको उद्यत होंगे तो उस समय भगवती हमारी सहायता करेंगी, जिससे वे राजकुमार सुदर्शन भी उन लोगोंके साथ संग्राम करनेमें अवश्य समर्थ होंगे । दैवयोगसे यदि वे युद्धमें मारे गये तो मैं प्राण त्याग दूंगी । आपका कल्याण हो । आप मुझे सुदर्शनको सौंपकर अपनी सेनाके साथ महलमें सुखपूर्वक रहें । मैं भी विहार करनेकी कामनासे उनके साथ अकेली ही चली जाऊँगी ॥ ५७-५९.५ ॥
व्यास उवाच इति तस्या वचः श्रुत्वा राजाऽसौ कृतनिश्चयः । मतिं चक्रे तथा कर्तुं विश्वासं प्रतिपद्य च ॥ ६० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उस शशिकलाका वचन सुनकर दृढ़प्रतिज्ञ राजा सुबाहुने उसे पूर्णरूपसे विश्वस्त करके ठीक वैसा ही करनेका निश्चय कर लिया ॥ ६० ॥
इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कन्यया स्वपितरं प्रति सुदर्शनेन सह विवाहार्थकथनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥