Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
एकविंशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


कन्यया स्वपितरं प्रति सुदर्शनेन सह विवाहार्थकथनम् -
राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजितका क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना -


व्यास उवाच
सुबाहुरपि तच्छ्रुत्वा युक्तमुक्तं तया तदा ।
चिन्ताविष्टो बभूवाशु किं कर्तव्यमतः परम् ॥ १ ॥
सङ्गताः पृथिवीपालाः ससैन्याः सपरिग्रहाः ।
उपविष्टाश्‍च मञ्चेषु योद्धुकामा महाबलाः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] महाराज सुबाहु पुत्रीके द्वारा कही गयी युक्तिसंगत बातें सुनकर इस चिन्तामें पड़ गये कि अब आगे क्या किया जाय ? अपने-अपने सैनिकों तथा सेवकोंके साथ यहाँ आये हुए और युद्धकी इच्छावाले अनेक महाबली नरेश मंचोंपर बैठे हुए हैं ॥ १-२ ॥

यदि ब्रवीमि तान्सर्वान्सुता नायाति साम्प्रतम् ।
तथापि कोपसंयुक्ता हन्युर्मा दुष्टबुद्धयः ॥ ३ ॥
इस समय यदि मैं उन सभीसे यह कहूँ कि कन्या नहीं आ रही है, तो दुष्ट बुद्धिवाले वे राजा क्रोधित होकर मुझे मार ही डालेंगे ॥ ३ ॥

न मे सैन्यबलं तादृङ्न दुर्गबलमद्‌भुतम् ।
येनाहं नृपतीन्सर्वान् प्रत्यादेष्टुमिहोत्सहे ॥ ४ ॥
मेरे पास न तो वैसा सैन्यबल है और न तो सुरक्षार्थ अद्भुत किला ही है, जिससे मैं इस समय उन सभीको पराजित कर सकूँ ॥ ४ ॥

सुदर्शनस्तथैकाकी ह्यसहायोऽधनः शिशुः ।
किं कर्तव्यं निमग्नोऽहं सर्वथा दुःखसागरे ॥ ५ ॥
यह बालक सुदर्शन भी निस्सहाय, निर्धन तथा अकेला है । मैं तो हर तरहसे दुःखसागरमें डूब चुका हूँ । अब मुझे इस समय क्या करना चाहिये ? ॥ ५ ॥

इति चिन्तापरो राजा जगाम नृपसन्निधौ ।
प्रणम्य तानुवाचाथ प्रश्रयावनतो नृपः ॥ ६ ॥
किं कर्तव्यं नृपाः कामं नैति मे मण्डपे सुता ।
बहुशः प्रेर्यमाणाऽपि सा मात्राऽपि मयाऽपि च ॥ ७ ॥
इस प्रकार चिन्ताकुल राजा सुबाहु राजाओंके पास गये और उन सबको प्रणाम करके अत्यन्त विनीतभावसे उन्होंने कहा हे महाराजाओ ! अब मैं क्या करूँ ? मेरे तथा अपनी माताके द्वारा बहुत प्रेरित किये जानेपर भी मेरी पुत्री मण्डपमें नहीं आ रही है ॥ ६-७ ॥

मूर्घ्ना पतामि पादेषु राज्ञां दासोऽस्मि साम्प्रतम् ।
पूजादिकं गृहीत्वाऽद्य व्रजन्तु सदनानि वः ॥ ८ ॥
मैं आपलोगोंका दास हूँ और सभी राजाओंके चरणोंपर अपना सिर रखकर निवेदन करता हूँ कि आपलोग पूजा-सत्कार ग्रहण करके इस समय अपने-अपने घर लौट जायें ॥ ८ ॥

ददामि बहुरत्‍नानि वस्त्राणि च गजान् रथान् ।
गृहीत्वाऽद्य कृपां कृत्वा व्रजन्तु भवनान्युत ॥ ९ ॥
मैं आपलोगोंको बहुत-से रन, वस्त्र, हाथी तथा रथ देता हूँ । इन्हें स्वीकारकर कृपा करके आपलोग अपने-अपने भवन चले जायें ॥ ९ ॥

न वशे मे सुता बाला म्रियते यदि खेदिता ।
तदा मे स्यान्महद्‍दुःखं तेन चिन्तातुरोऽस्म्यहम् ॥ १० ॥
मेरी पुत्री मेरे वशमें नहीं है । यदि वह बेचारी खिन्न होकर मर गयी तो मुझे महान् दु:ख होगा । इसीसे मैं अत्यन्त चिन्तित हूँ ॥ १० ॥

भवन्तः करुणावन्तो महाभाग्या महौजसः ।
किं मे तया दुहित्रा तु मन्दया दुर्विनीतया ॥ ११ ॥
आपलोग बड़े दयालु, भाग्यवान् तथा महान् तेजस्वी हैं तो फिर मेरी इस मन्द बुद्धिवाली अविनीत कन्यासे आपलोगोंको क्या लाभ होगा ? ॥ ११ ॥

अनुग्राह्योऽस्मि वः कामं दासोऽहमिति सर्वथा ।
सुता सुतेव मन्तव्या भवद्‌भिः सर्वथा मम ॥ १२ ॥

मैं आपलोगोंका हर तरहसे सेवक हूँ, अतएव आपलोग मुझपर कृपा करें । आप सभी लोग मेरी इस पुत्रीको अपनी ही पुत्री समझें ॥ १२ ॥

व्यास उवाच
श्रुत्वा सुबाहुवचनं नोचुः केचन भूमिपाः ।
युधाजित्क्रोधताम्राक्षस्तमुवाच रुषान्वितः ॥ १३ ॥
राजन्मूर्खोऽसि किं ब्रूषे कृत्वा कार्य सुनिन्दितम् ।
स्वयंवरः कथं मोहाद्‌रचितः संशये सति ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] सुबाहुका वचन सुनकर अन्य राजागण तो नहीं बोले, किंत क्रोधसे आँखें लाल करके युधाजित्ने उनसे रोषपूर्वक कहाहे राजन् ! आप तो बड़े मूर्ख हैं । ऐसा निन्दनीय कृत्य करनेके बाद भी आप कैसे इस प्रकारकी बात बोल रहे हैं ? यदि संशयकी स्थिति थी तो आपने अज्ञानतावश स्वयंवरका आयोजन ही क्यों किया ? ॥ १३-१४ ॥

मिलिता भूभुजः सर्वे त्वयाहूताः स्वयंवरे ।
कथमद्य नृपा गन्तुं योग्यास्ते स्वगृहान्प्रति ॥ १५ ॥
आपके बुलानेपर ही सभी राजा स्वयंवरमें पधारे हुए हैं तो फिर वे सुयोग्य राजागण यों ही अपनेअपने घर कैसे चले जायें ? ॥ १५ ॥

अवमान्य नृपान्सर्वांस्त्वं किं सुदर्शनाय वै ।
दातुमिच्छसि पुत्रीञ्च किमनार्यमतः परम् ॥ १६ ॥
क्या आप सभी राजाओंका अपमान करके सुदर्शनको अपनी कन्या देना चाहते हैं ? इससे बढ़कर नीचताकी और क्या बात होगी ? ॥ १६ ॥

विचार्य पुरुषेणादौ कार्यं वै शुभमिच्छता ।
आरब्धव्यं त्वया तत्तु कृतं राजन्नजानता ॥ १७ ॥
अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्यको पहले ही सोच-समझकर कोई कार्य प्रारम्भ करना चाहिये । किंतु हे राजन् ! आपने तो बिना सोचे-समझे ही यह आयोजन कर डाला ॥ १७ ॥

एतान्विहाय नृपतीन्बलवाहनसंयुतान् ।
वरं सुदर्शनं कर्तुं कथमिच्छसि साम्प्रतम् ॥ १८ ॥
सेना तथा वाहनोंसे सम्पन्न इन राजाओंको छोड़कर इस समय आप सुदर्शनको अपना जामाता क्यों बनाना चाहते हैं ? ॥ १८ ॥

अहं त्वां हन्मि पापिष्ठं तथा पश्‍चात्सुदर्शनम् ।
दौहित्रायाद्य ते कन्यां दास्यामीति विनिश्‍चयः ॥ १९ ॥
[उसने क्रोधपूर्वक आगे कहा-] मैं तुझ पापीको अभी मार डालूँगा और बादमें सुदर्शनका भी वध कर दूंगा । तत्पश्चात् तुम्हारी कन्याका विवाह अपने नाती शत्रुजित्से कर दूंगा; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ १९ ॥

मयि तिष्ठति कोऽन्योस्ति यः कन्यां हर्तुमिच्छति ।
सुदर्शनः कियानद्य निर्धनो निर्बलः शिशुः ॥ २० ॥
ऐसा दूसरा कौन व्यक्ति है जो मेरे रहते कन्याके हरणकी इच्छातक कर ले और सुदर्शन तो अत्यन्त निर्धन, बलहीन तथा बच्चा है ॥ २० ॥

भारद्वाजाश्रमे पूर्वं मुक्तो मुनिकृते मया ।
नाद्याहं मोचयिष्यामि सर्वथा जीवितं शिशोः ॥ २१ ॥
यह सुदर्शन पूर्वमें जब भारद्वाजमुनिके आश्रममें था तभी मैं उसे मार डालता, किंतु मुनिके कहनेसे मैंने उसे छोड़ दिया था । किंतु आज किसी भी तरह इस बालकके प्राण नहीं छोड़ेगा ॥ २१ ॥

तस्माद्विचार्य सम्यक्त्वं पुत्र्या च भार्यया सह ।
दौहित्राय प्रियां कन्यां देहि मे सुभ्रुवं किल ॥ २२ ॥
सम्बन्धी भव दत्त्वा त्वं पुत्रीमेतां मनोरमाम् ।
उच्चाश्रयः प्रकर्तव्यः सर्वदा शुभमिच्छता ॥ २३ ॥
अब तुम अपनी स्त्री और पुत्रीके साथ भलीभाँति विचार-विमर्श करके सुन्दर भौंहोंवाली अपनी कन्या मेरे दौहित्र शत्रुजित्को प्रदान कर दो । इस प्रकार अपनी इस सुन्दर पुत्रीको देकर तुम मेरे सम्बन्धी हो जाओ; क्योंकि अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषको सर्वदा बड़ोंसे ही सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये ॥ २२-२३ ॥

सुदर्शनाय दत्त्वा त्वं पुत्रीं प्राणप्रियां शुभाम् ।
एकाकिनेऽप्यराज्याय किं सुखं प्राप्तुमिच्छसि ॥ २४ ॥
( कुलं वित्तं बलं रूपं राज्यं दुर्गं सुहृज्जनम् ।
दृष्ट्वा कन्या प्रदातव्या नान्यथा सुखमृच्छति) ॥
परिचिन्तय धर्मं त्वं राजनीतिञ्च शाश्‍वतीम् ।
कुरु कार्यं यथायोग्यं मा कृथा मतिमन्यथा ॥ २५ ॥
तुम अकेले और राज्यहीन सुदर्शनको अपनी प्राणप्रिय, सुन्दर कन्या देकर क्या सुख चाहते हो ? (वरके कुल, धन, बल, रूप, राज्य, दुर्ग और सगे-सम्बन्धियोंको देखनेके बाद ही उसे अपनी कन्या देनी चाहिये, अन्यथा सुख नहीं मिलता है) तुम धर्म तथा शाश्वत राजनीतिपर सम्यक विचार कर लो, तत्पश्चात् यथोचित कार्य करो; इसके विपरीत कोई दूसरा विचार मत करो ॥ २४-२५ ॥

सुहृदसि ममात्यर्थं हितं ते प्रब्रवीम्यहम् ।
समानय सुतां राजन् मण्डपे तां सखीवृताम् ॥ २६ ॥
तुम मेरे परम मित्र हो, इसलिये तुम्हारे हितकी बात बता देता हूँ । अब तुम अपनी कन्याको उसकी सखियोंसहित स्वयंवर-मण्डपमें ले आओ ॥ २६ ॥

सुदर्शनमृते चेयं वरिष्यति यदाऽप्यसौ ।
विग्रहो मे तदा न स्याद्विवाहोऽस्तु तवेप्सितः ॥ २७ ॥
अन्ये नृपतयः सर्वे कुलीनाः सबलाः समाः ।
विरोधः कीदृशस्त्वेनं वृणोद्यदि नृपोत्तम ॥ २८ ॥
अन्यथाऽहं हरिष्येऽद्य बलात्कन्यामिमां शुभाम् ।
मा विरोधं सुदुःसाध्यं गच्छ पार्थिवसत्तम ॥ २९ ॥

यदि वह सुदर्शनको छोड़कर किसी दूसरेका वरण कर लेगी तो इसमें मुझे विरोध नहीं होगा । आप अपने इच्छानुसार उसके साथ विवाह कर दीजियेगा । हे राजेन्द्र ! अन्य सभी नरेश कुलीन, शक्तिशाली एवं हर तरहसे समान हैं । अतः यदि इनमेंसे किसीको भी वह कन्या चुन लेती है तो विरोध ही क्या है ? अन्यथा मैं बलपूर्वक आज ही इस सुन्दर कन्याका हरण कर लूँगा । हे नृपश्रेष्ठ ! जाओ, इस कार्यको सुसम्पन्न करो और इस असाध्य कलहमें मत पड़ो ॥ २७-२९ ॥

व्यास उवाच
युधाजिता समादिष्टः सुबाहुः शोकसंयुतः ।
निःश्‍वसन्भवनं गत्वा भार्यां प्राह शुचावृतः ॥ ३० ॥
पुत्रीं ब्रूहि सुधर्मज्ञे कलहे समुपस्थिते ।
किं कर्त्तव्यं मया शक्यं त्वद्वशोऽस्मि सुलोचने ॥ ३१ ॥
व्यासजी बोले- उस समय युधाजित्का यह आदेश पाकर सुबाहु शोकाकुल हो उठे और दीर्घ श्वास लेते हुए महलमें जाकर दुःखित हो अपनी पत्नीसे कहने लगे-हे सुधर्मज्ञे ! हे सुनयने ! अब पुत्रीसे कहो-'स्वयंवर-सभामें इस समय घोर कलह उपस्थित हो जानेपर मुझे क्या करना चाहिये ? मैं स्वयं कुछ नहीं कर सकता; क्योंकि मैं तो तुम्हारे वशमें हूँ' ॥ ३०-३१ ॥

व्यास उवाच
सा श्रुत्वा पतिवाक्यं तु गत्वा प्राह सुतान्तिकम् ।
वत्से राजातिदुःखार्तः पिता तेऽद्यापि वर्तते ॥ ३२ ॥
त्वदर्थे विग्रहः कामं समुत्पन्नोऽद्य भूभृताम् ।
अन्यं वरय सुश्रोणि सुदर्शनमृते नृपम् ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले-पतिकी यह बात सुनकर रानी अपनी पुत्रीके पास जाकर बोली-पत्रि ! तुम्हारे पिता राजा सुबाहु इस समय अत्यन्त दुःखी हैं । तुम्हारे लिये आये हुए नरेशोंमें भयंकर कलह उत्पन्न हो गया है, इसलिये हे सुश्रोणि ! तुम सुदर्शनको छोड़कर अन्य किसी राजकुमारका वरण कर लो ॥ ३२-३३ ॥

यदि सुदर्शनं वत्से हठात्त्वं वै वरिष्यसि ।
युधाजित्त्वां च मां चैव हनिष्यति बलान्वितः ॥ ३४ ॥
सुदर्शनं च राजाऽसौ बलमत्तः प्रतापवान् ।
द्वितीयस्ते पतिः पश्‍चाद्‌भविता कलहे सति ॥ ३५ ॥
तस्मात्सुदर्शनं त्यक्त्वा वरयान्यं नृपोत्तमम् ।
हे वत्से ! यदि तुम हठ करके सुदर्शनका ही वरण करोगी तो सैन्यबलयुक्त, प्रतापी तथा बलशाली वह युधाजित् तुमको, सुदर्शनको और हमलोगोंको मार डालेगा । तत्पश्चात् कलह हो जानेपर कोई दूसरा ही तुम्हारा पति होगा । अतः हे मृगलोचने ! यदि तुम मेरा और अपना हित चाहती हो तो सुदर्शनको छोड़कर किसी अन्य श्रेष्ठ राजाका वरण कर लो ॥ ३४-३५.५ ॥

सुखमिच्छसि चेन्मह्यं तुभ्यं वा मृगलोचने ।
इति मात्रा बोधितां तां पश्‍चाद्‌राजाप्यबोधयत् ॥ ३६ ॥
इस प्रकार माताके समझानेके बाद पिताने भी उसे समझाया । उन दोनोंकी बातें सुनकर कन्या शशिकला निर्भय होकर कहने लगी ॥ ३६ ॥

उभयोर्वचनं श्रुत्वा निर्भयोवाच कन्यका
कन्योवाच
सत्यमुक्तं नृपश्रेष्ठ जानासि च व्रतं मम ॥ ३७ ॥
नान्यं वृणोमि भूपाल सुदर्शनमृते क्वचित् ।
बिभेषि यदि राजेन्द्र नृपेभ्यः किल कातरः ॥ ३८ ॥
सुदर्शनाय दत्त्वा मां विसर्जय पुराद्‌बहिः ।
स मां रथे सामारोप्य निर्गमिष्यति ते पुरात् ॥ ३९ ॥
भवितव्यं तु पश्‍चाद्वै भविष्यति न चान्यथा ।
नात्र चिन्ता त्वया कार्या भवितव्ये नृपोत्तम ॥ ४० ॥
यद्‌भावि तद्‌भवत्येव सर्वथात्र न संशयः ।
कन्या बोली-हे नृपश्रेष्ठ ! आप ठीक कह रहे हैं किंतु आप मेरे प्रणको तो जानते ही हैं । हे राजन् ! मैं सुदर्शनको छोड़कर और किसीका भी वरण नहीं कर सकती । हे राजेन्द्र ! यदि आप राजाओंसे डरते हैं और बहुत घबड़ाये हुए हैं तो मुझे सुदर्शनको सौंपकर नगरसे बाहर कर दीजिये । वे मुझे रथपर बैठाकर आपके नगरसे बाहर निकल जायगे । हे नृपश्रेष्ठ ! जो होना है वह तो बादमें अवश्य होगा; इसके विपरीत नहीं होगा । अब आप होनीके विषयमें चिन्ता न करें: क्योंकि जो होना है वह तो निश्चितरूपसे होता ही है । इसमें संशय नहीं है । ३७-४०.५ ॥

राजोवाच
न पुत्रि साहसं कार्यं मतिमद्‌भिः कदाचन ॥ ४१ ॥
बहुभिर्न विरोद्धव्यमिति वेदविदो विदुः ।
विस्रक्ष्यामि कथं कन्यां दत्त्वा राजसुताय च ॥ ४२ ॥
राजानो वरसंयुक्ताः किं न कुर्युरसाम्प्रतम् ।
यदि ते रोचते वत्से पणं संविदधाम्यहम् ॥ ४३ ॥
जनकेन यथा पूर्वं कृतः सीतास्वयंवरे ।
शैवं धनुर्यथा तेन धृतं कृत्वा पणं तथा ॥ ४४ ॥
तथाहमपि तन्वङ्‌गि करोम्यद्य दुरासदम् ।
विवादो येन राज्ञां वै कृते सति शमं व्रजेत् ॥ ४५ ॥
पालयिष्यति यः कामं स ते भर्ता भविष्यति ।
सुदर्शनस्तथाऽन्यो वा यः कश्चिद्‌बलवत्तरः ॥ ४६ ॥
पालयित्वा पणं त्वां वै वरयिष्यति सर्वथा ।
एवं कृते नृपाणां तु विवादः शमितो भवेत् ॥ ४७ ॥
सुखेनाहं विवाहं ते करिष्यामि ततः परम् ।
राजा बोले-हे पुत्रि ! बुद्धिमानोंको कभी ऐसा साहस नहीं करना चाहिये । वेदज्ञोंने कहा है कि बहुतोंसे विरोध नहीं करना चाहिये । पुत्रीको उस राजकुमारको सौंपकर कैसे विदा कर दूँ ? मुझसे वैर साधे हुए ये राजागण न जाने कौन-सा अनिष्ट कर डालेंगे । इसलिये हे पुत्रि ! यदि तुम पसन्द करो तो मैं कोई शर्त रख दूं, जैसा कि पूर्वकालमें राजा जनकने सीतास्वयंवरमें किया था । हे तन्वंगि ! जैसे उन्होंने शिव-धनुष तोड़नेकी शर्त रख दी थी, वैसे ही मैं भी कोई ऐसी कठोर शर्त रख दूँ जिससे ऐसा कर देनेपर राजाओंका विवाद ही समाप्त हो जाय । जो उस प्रतिज्ञाको पूरा करेगा, वही तुम्हारा पति होगा । सुदर्शन हो अथवा कोई दूसरा-जो भी अधिक बलशाली होगा, वह मेरी प्रतिज्ञा पूरी करके तुम्हारा वरण कर लेगा । ऐसा करनेसे राजाओंमें उत्पन्न कलह निश्चितरूपसे शान्त हो जायगा और उसके बाद मैं आनन्दपूर्वक तुम्हारा विवाह कर दूंगा ॥ ४१-४७.५ ॥

कन्योवाच
सन्देहे नैव मज्जामि मूर्खकृत्यमिदं यतः ॥ ४८ ॥
मया सुदर्शनः पूर्वं धृतश्चेतसि नान्यथा ।
कारणं पुण्यपापानां मन एव महीपते ॥ ४९ ॥
मनसा विधृतं त्यक्त्वा कथमन्यं वृणे पितः ।
कृते पणे महाराज सर्वेषां वशगा ह्यहम् ॥ ५० ॥
एकः पालयिता द्वौ वा बहवो वा भवन्ति चेत् ।
किं कर्तव्यं तदा तात विवादे समुपस्थिते ॥ ५१ ॥
संशयाधिष्ठिते कार्ये मतिं नाहं करोम्यतः ।
मा चिन्तां कुरु राजेन्द्र देहि सुदर्शनाय माम् ॥ ५२ ॥
विवाहं विधिना कृत्वा शं विधास्यति चण्डिका ।
यन्नामकीर्तनादेव दुःखौघो विलयं व्रजेत् ॥ ५३ ॥
कन्या बोली-मैं इस सन्दिग्ध कार्यमें नहीं पड़ेंगी; क्योंकि यह मूखौका काम है । मैंने अपने मनमें सुदर्शनका पहलेसे ही वरण कर लिया है, अब दूसरेको स्वीकार नहीं कर सकती । हे महाराज ! पुण्य तथा पापका कारण तो मन ही है । इसलिये हे पिताजी ! मनसे वरण किये गये सुदर्शनको छोड़कर मैं दूसरेका वरण कैसे करूँ ? हे महाराज ! दूसरी बात यह भी है कि पणस्वयंवर करनेमें मुझे सबके अधीन रहना पड़ेगा । हे तात ! यदि इनमेंसे एक, दो या अनेकने आपका प्रण पूरा कर दिया तब उस समय विवादकी स्थिति उत्पन्न हो जानेपर आप क्या करेंगे ? अतः मैं किसी संशयात्मक कार्यमें पड़ना नहीं चाहती । हे राजेन्द्र ! आप चिन्ता न करें और विधिपूर्वक मेरा विवाह करके मुझे सुदर्शनको सौंप दीजिये । जिनके नामका संकीर्तन करनेसे समस्त दु:खराशि विलीन हो जाती है, वे भगवती चण्डिका अवश्य कल्याण करेंगी । अब आप उन्हीं महाशक्तिका स्मरण करके पूरी तत्परताके साथ यह कार्य कीजिये ॥ ४८-५३ ॥

तां स्मृत्वा परमां शक्तिं कुरु कार्यमतन्द्रितः ।
गत्वा वद नृपेभ्यस्त्वं कृताञ्जलिपुटोऽद्य वै ॥ ५४ ॥
आगन्तव्यञ्च श्वः सर्वैरिह भूपैः स्वयंवरे ।
इत्युक्त्वा त्वं विसृज्याशु सर्वं नृपतिमण्डलम् ॥ ५५ ॥
विवाहं कुरु रात्रौ मे वेदोक्तविधिना नृप ।
पारिबर्हं यथायोग्यं दत्त्वा तस्मै विसर्जय ॥ ५६ ॥
अभी जा करके दोनों हाथ जोड़कर आप उन राजाओंसे कहिये कि आप सभी राजागण इस स्वयंवरमें कल पधारें । ऐसा कहकर सम्पूर्ण राजसमुदायको शीघ्र ही विसर्जित करके वैदिक रीतिसे सदर्शनके साथ रातमें मेरा विवाह कर दीजिये । हे राजन् ! तत्पश्चात् उन्हें यथोचित उपहार देकर विदा कर दीजिये ॥ ५४-५६ ॥

गमिष्यति गृहीत्वा मां ध्रुवसन्धिसुतः किल ।
कदाचित्ते नृपाः क्रुद्धाः सङ्ग्रामं कर्त्तुमुद्यताः ॥ ५७ ॥
भविष्यति तदा देवी साहाय्यं नः करिष्यति ।
सोऽपि राजसुतस्तैस्तु सङ्ग्रामं संविधास्यति ॥ ५८ ॥
दैवान्मृधे मृते तस्मिन्मरिष्याम्यहमप्युत ।
स्वस्ति तेस्तु गृहे तिष्ठ दत्त्वा मां सहसैन्यकः ॥ ५९ ॥
एकैवाहं गमिष्यामि तेन सार्धं रिरंसया ।
तदनन्तर महाराज ध्रुवसन्धिके पुत्र सुदर्शन मुझे साथ लेकर चले जायेंगे । इससे कुपित हुए राजा यदि युद्ध करनेको उद्यत होंगे तो उस समय भगवती हमारी सहायता करेंगी, जिससे वे राजकुमार सुदर्शन भी उन लोगोंके साथ संग्राम करनेमें अवश्य समर्थ होंगे । दैवयोगसे यदि वे युद्धमें मारे गये तो मैं प्राण त्याग दूंगी । आपका कल्याण हो । आप मुझे सुदर्शनको सौंपकर अपनी सेनाके साथ महलमें सुखपूर्वक रहें । मैं भी विहार करनेकी कामनासे उनके साथ अकेली ही चली जाऊँगी ॥ ५७-५९.५ ॥

व्यास उवाच
इति तस्या वचः श्रुत्वा राजाऽसौ कृतनिश्चयः ।
मतिं चक्रे तथा कर्तुं विश्वासं प्रतिपद्य च ॥ ६० ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उस शशिकलाका वचन सुनकर दृढ़प्रतिज्ञ राजा सुबाहुने उसे पूर्णरूपसे विश्वस्त करके ठीक वैसा ही करनेका निश्चय कर लिया ॥ ६० ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे
कन्यया स्वपितरं प्रति सुदर्शनेन सह विवाहार्थकथनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥
अध्याय एक्किसवाँ समाप्त


GO TOP