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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
सप्तविंशोऽध्यायः

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देवीपूजामहत्त्ववर्णनम् -
कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंगमें सुशील नामक वणिक्‌की कथा -


व्यास उवाच
हीनाङ्गीं वर्जयेत्कन्यां कुष्ठयुक्तां व्रणाङ्‌किताम् ।
गन्धस्फुरितहीनाङ्गीं विशालकुलसम्भवाम् ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् !] जो कन्या किसी अंगसे हीन हो, कोढ़ तथा घावयुक्त हो, जिसके शरीरके किसी अंगसे दुर्गन्ध आती हो और जो विशाल कुलमें उत्पन्न हुई हो-ऐसी कन्याका पूजामें परित्याग कर देना चाहिये ॥ १ ॥

जात्यन्धां केकरां काणां कुरूपां बहुरोमशाम् ।
सन्त्यजेद्‌रोगिणीं कन्यां रक्तपुष्पादिनाङ्‌किताम् ॥ २ ॥
जन्मसे अन्धी, तिरछी नजरसे देखनेवाली, कानी, कुरूप, बहुत रोमवाली, रोगी तथा रजस्वला कन्याका पूजामें परित्याग कर देना चाहिये ॥ २ ॥

क्षामां गर्भसमुद्‌भूतां गोलकां कन्यकोद्‌भवाम् ।
वर्जनीयाः सदा चैताः सर्वपूजादिकर्मसु ॥ ३ ॥
अत्यन्त दुर्बल, समयसे पूर्व ही गर्भसे उत्पन्न, विधवा स्त्रीसे उत्पन्न तथा कन्यासे उत्पन्न-ये सभी कन्याएँ पूजा आदि सभी कार्योंमें सर्वथा त्याज्य हैं ॥ ३ ॥

अरोगिणीं सुरूपाङ्गीं सुन्दरीं व्रणवर्जिताम् ।
एकवंशसमुद्‌भूतां कन्यां सम्यक्प्रपूजयेत् ॥ ४ ॥
रोगसे रहित, रूपवान् अंगोंवाली, सौन्दर्यमयी, व्रणरहित तथा एक वंशमें (अपने माता-पितासे) उत्पन्न कन्याकी ही विधिवत् पूजा करनी चाहिये ॥ ४ ॥

ब्राह्मणी सर्वकार्येषु जयार्थे नृपवंशजा ।
लाभार्थे वैश्यवंशोत्था मता वा शूद्रवंशजा ॥ ५ ॥
समस्त कार्योंकी सिद्धिके लिये ब्राह्मणकी कन्या, विजय-प्राप्तिके लिये राजवंशमें उत्पन्न कन्या तथा धन-लाभके लिये वैश्यवंश अथवा शूद्रवंशमें उत्पन्न कन्या पूजनके योग्य मानी गयी है ॥ ५ ॥

ब्राह्मणैर्ब्रह्मजाः पूज्या राजन्यैर्ब्रह्मवंशजाः ।
वैश्यैस्त्रिवर्गजाः पूज्याश्चतस्रः पादसम्भवैः ॥ ६ ॥
कारुभिश्चैव वंशोत्था यथायोग्यं प्रपूजयेत् ।
नवरात्रविधानेन भक्तिपूर्वं सदैव हि ॥ ७ ॥
अशक्तो नियतं पूजां कर्तुञ्चेन्नवरात्रके ।
अष्टम्यां च विशेषेण कर्तव्यं पूजनं सदा ॥ ८ ॥
ब्राहाणको ब्राह्मणवर्णमें उत्पन्न कन्याकी; क्षत्रियोंको भी ब्राह्मणवर्णमें उत्पन्न कन्याकी; वैश्योंको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-तीनों वर्गों में उत्पन्न कन्याकी तथा शूद्रको चारों वर्गों में उत्पन्न कन्याकी पूजा करनी चाहिये । शिल्पकर्ममें लगे हुए मनुष्योंको यथायोग्य अपने-अपने वंशमें उत्पन्न कन्याओंकी पूजा करनी चाहिये । नवरात्र-विधिसे भक्तिपूर्वक निरन्तर पूजाकी जानी चाहिये । यदि कोई व्यक्ति नवरात्रपर्यन्त प्रतिदिन पूजा करने में असमर्थ है, तो उसे अष्टमी तिथिको विशेषरूपसे अवश्य पूजन करना चाहिये ॥ ६-८ ॥

पुराऽष्टम्यां भद्रकाली दक्षयज्ञविनाशिनी ।
प्रादुर्भूता महाघोरा योगिनी कोटिभिः सह ॥ ९ ॥
प्राचीन कालमें दक्षके यज्ञका विध्वंस करनेवाली महाभयानक भगवती भद्रकाली करोड़ों योगिनियोंसहित अष्टमी तिथिको ही प्रकट हुई थीं ॥ ९ ॥

अतोऽष्टम्यां विशेषेण कर्तव्यं पूजनं सदा ।
नानाविधोपहारैश्च गन्धमाल्यानुलेपनैः ॥ १० ॥
पायसैरामिषैर्होमैर्ब्राह्मणानां च भोजनैः ।
फलपुष्पोपहारैश्च तोषयेज्जगदम्बिकाम् ॥ ११ ॥
अत: अष्टमीको विशेष विधानसे सदा भगवतीकी पूजा करनी चाहिये । उस दिन विविध प्रकारके उपहारों, गन्ध, माला, चन्दनके अनुलेप, पायस आदिके हवन, ब्राह्मण-भोजन तथा फल-पुष्पादि उपहारोंसे भगवतीको प्रसन्न करना चाहिये ॥ १०-११ ॥

उपवासे ह्यशक्तानां नवरात्रव्रते पुनः ।
उपोषणत्रयं प्रोक्तं यथोक्तफलदं नृप ॥ १२ ॥
हे राजन् ! पूरे नवरात्रभर उपवास करनेमें असमर्थ लोगोंके लिये तीन दिनका उपवास भी यथोक्त फल प्रदान करनेवाला बताया गया है ॥ १२ ॥

सप्तम्यां च तथाऽष्टम्यां नवम्यां भक्तिभावतः ।
त्रिरात्रकरणात्सर्वं फलं भवति पूजनात् ॥ १३ ॥
भक्तिभावसे केवल सप्तमी, अष्टमी और नवमी-इन तीन रात्रियोंमें देवीकी पूजा करनेसे सभी फल सुलभ हो जाते हैं ॥ १३ ॥

पूजाभिश्चैव होमैश्च कुमारिपूजनैस्तथा ।
सम्पूर्णं तद्‌व्रतं प्रोक्तं विप्राणां चैव भोजनैः ॥ १४ ॥
पूजन, हवन, कुमारी-पूजन तथा ब्राह्मण-भोजनइनको सम्पन्न करनेसे वह नवरात्र-व्रत पूरा हो जाता है-ऐसा कहा गया है ॥ १४ ॥

व्रतानि यानि चान्यानि दानानि विविधानि च ।
नवरात्रव्रतस्यास्य नैव तुल्यानि भूतले ॥ १५ ॥
धनधान्यप्रदं नित्यं सुखसन्तानवृद्धिदम् ।
आयुरारोग्यदं चैव स्वर्गदं मोक्षदं तथा ॥ १६ ॥
इस पृथ्वीलोकमें जितने भी प्रकारके व्रत एवं दान हैं, वे इस नवरात्रव्रतके तुल्य नहीं हैं; क्योंकि यह व्रत सदा धन-धान्य प्रदान करनेवाला, सुख तथा सन्तानकी वृद्धि करनेवाला, आयु तथा आरोग्य प्रदान करनेवाला और स्वर्ग तथा मोक्ष देनेवाला है ॥ १५-१६ ॥

विद्यार्थी वा धनार्थी वा पुत्रार्थी वा भवेन्नरः ।
तेनेदं विधिवत्कार्यं व्रतं सौभाग्यदं शिवम् ॥ १७ ॥
अतएव विद्या, धन अथवा पुत्र-इनमेंसे मनुष्य किसीकी भी कामना करता हो, उसे इस सौभाग्यदायक तथा कल्याणकारी व्रतका विधिपूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये ॥ १७ ॥

विद्यार्थी सर्वविद्यां वै प्राप्नोति व्रतसाधनात् ।
राजभ्रष्टो नृपो राज्यं समवाप्नोति सर्वदा ॥ १८ ॥
इस व्रतका अनुष्ठान करनेसे विद्या चाहनेवाला मनुष्य समस्त विद्या प्राप्त कर लेता है और अपने राज्यसे वंचित राजा फिरसे अपना राज्य प्राप्त कर लेता है ॥ १८ ॥

पूर्वजन्मनि यैर्नूनं न कृतं व्रतमुत्तमम् ।
ते व्याधिनो दरिद्राश्च भवन्ति पुत्रवर्जिताः ॥ १९ ॥
पूर्वजन्ममें जिन लोगोंद्वारा यह उत्तम व्रत नहीं किया गया है, वे इस जन्ममें रोगग्रस्त, दरिद्र तथा सन्तानरहित होते हैं ॥ १९ ॥

वन्ध्या च या भवेन्नारी विधवा धनवर्जिता ।
अनुमा तत्र कर्तव्या नेयं कृतवती व्रतम् ॥ २० ॥
जो स्त्री बन्ध्या, विधवा अथवा धनहीन है; उसके विषयमें यह अनुमान कर लेना चाहिये कि उसने [अवश्य ही पूर्वजन्ममें] यह व्रत नहीं किया था ॥ २० ॥

नवरात्रव्रतं प्रोक्तं न कृतं येन भूतले ।
स कथं विभवं प्राप्य मोदते च तथा दिवि ॥ २१ ॥
इस पृथ्वीलोकमें जिस प्राणीने उक्त नवरात्रव्रतका अनुष्ठान नहीं किया, वह इस लोकमें वैभव प्राप्त करके स्वर्गमें आनन्द कैसे प्राप्त कर सकता है ? ॥ २१ ॥

रक्तचन्दनसंमिश्रैः कोमलैर्बिल्वपत्रकैः ।
भवानी पूजिता येन स भवेन्नृपतिः क्षितौ ॥ २२ ॥
जिसने लाल चन्दनमिश्रित कोमल बिल्वपत्रोंसे भवानी जगदम्बाकी पूजा की है, वह इस पृथ्वीपर राजा होता है ॥ २२ ॥

नाराधिता येन शिवा सनातनी
     दुःखार्तिहा सिद्धिकरी जगद्वरा ।
दुःखावृतः शत्रुयुतश्च भूतले
     नूनं दरिद्रो भवतीह मानवः ॥ २३ ॥
जिस मनुष्यने दुःख तथा सन्तापका नाश करनेवाली, सिद्धियाँ देनेवाली, जगत्में सर्वश्रेष्ठ, शाश्वत तथा कल्याणस्वरूपिणी भगवतीकी उपासना नहीं की; वह इस पृथ्वीतलपर सदा ही अनेक प्रकारके कष्टोंसे ग्रस्त, दरिद्र तथा शत्रुओंसे पीड़ित रहता है । ॥ २३ ॥

यां विष्णुरिन्द्रो हरपद्मजौ तथा
     वह्निः कुबेरो वरुणो दिवाकरः ।
ध्यायन्ति सर्वार्थसमाप्तिनन्दिता-
     स्तां किं मनुष्या न भजन्ति चण्डिकाम् ॥ २४ ॥
विष्णु, इन्द्र, शिव, ब्रह्मा, अग्नि, कुबेर, वरुण तथा सूर्य समस्त कामनाओंसे परिपूर्ण होकर हर्षके साथ जिन भगवतीका ध्यान करते हैं, उन देवी चण्डिकाका ध्यान मनुष्य क्यों नहीं करते ? ॥ २४ ॥

स्वाहा स्वधा नाम मनुप्रभावै-
     स्तृप्यन्ति देवाः पितरस्तथैव ।
यज्ञेषु सर्वेषु मुदा हरन्ति
     यन्नाम युग्मश्रुतिभिर्मुनीन्द्राः ॥ २५ ॥
देवगण इनके 'स्वाहा' नाममन्त्रके प्रभावसे तथा पितृगण 'स्वधा' नाममन्त्रके प्रभावसे तृप्त होते हैं । इसीलिये महान् मुनिजन प्रसन्नतापूर्वक सभी यज्ञों तथा श्राद्धकार्यों में मन्त्रोंके साथ 'स्वाहा' एवं 'स्वधा' नामोंका उच्चारण करते हैं ॥ २५ ॥

यस्येच्छया सृजति विश्वमिदं प्रजेशो
     नानावतारकलनं कुरुते हरिश्च ।
नूनं करोति जगतः किल भस्म शम्भु-
     स्तां शर्मदां न भजते नु कथं मनुष्यः ॥ २६ ॥
जिनकी इच्छासे ब्रह्मा इस विश्वका सृजन करते हैं, भगवान् विष्णु अनेकविध अवतार लेते हैं और शंकरजी जगत्को भस्मसात करते हैं, उन कल्याणकारिणी भगवतीको मनुष्य क्यों नहीं भजता ? ॥ २६ ॥

नैकोऽस्ति सर्वभुवनेषु तया विहीनो
     देवो नरोऽथ विहगः किल पन्नगो वा ।
गन्धर्वराक्षसपिशाचनगेषु नूनं
     यः स्पन्दितुं भवति शक्तियुतो यथेच्छम् ॥ २७ ॥
सभी भुवनोंमें कोई भी ऐसा देवता, मनुष्य, पक्षी, सर्प, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच एवं पर्वत नहीं है; जो उन भगवतीकी शक्तिके बिना अपनी इच्छासे शक्तिसम्पन्न होकर स्पन्दित होने में समर्थ हो ॥ २७ ॥

तां न सेवेत कश्चण्डीं सर्वकामार्थदां शिवाम् ।
व्रतं तस्या न कः कुर्याद्वाञ्छन्नर्थचतुष्टयम् ॥ २८ ॥
सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली उन कल्याणदायिनी चण्डिकाकी सेवा भला कौन नहीं करेगा ? चारों प्रकारके पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष)-को चाहनेवाला कौन प्राणी उन भगवतीके नवरात्रव्रतका अनुष्ठान नहीं करेगा ? ॥ २८ ॥

महापातकसंयुक्तो नवरात्रव्रतं चरेत् ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो नात्र कार्या विचारणा ॥ २९ ॥
यदि कोई महापापी भी नवरात्रव्रत करे तो वह समस्त पापोंसे मुक्ति पा लेता है, इसमें लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिये ॥ २९ ॥

पुरा कश्चिद्वणिग्दीनो धनहीनः सुदुःखितः ।
कुटुम्बी चाभवत्कश्चित् कोसले नृपसत्तम ॥ ३० ॥
हे नृपश्रेष्ठ ! पूर्वकालमें कोसलदेशमें दीन, धनहीन, अत्यन्त दुःखी एवं विशाल कुटुम्बवाला एक वैश्य रहता था ॥ ३० ॥

अपत्यानि बहून्यस्याभवन्क्षुत्पीडितानि च ।
भक्ष्यं किञ्चित्तु सायाह्ने प्रापुस्तस्य च बालकाः ॥ ३१ ॥
भुङ्क्ते स्म कार्यकर्ताऽसौ परस्याथ बुभुक्षितः ।
कुटुम्बभरणं तत्र चकारातिनिराकुलः ॥ ३२ ॥
उसकी अनेक सन्तानें थीं, जो धनाभावके कारण क्षुधासे पीड़ित रहा करती थीं; सायंकालमें उसके लड़कोंको खानेके लिये कुछ मिल जाता था तथा वह भी कुछ खा लेता था । इस प्रकार वह वणिक् भूखा रहते हुए सर्वदा दूसरोंका काम करके धैर्यपूर्वक परिवारका पालन-पोषण कर रहा था ॥ ३१-३२ ॥

सदा धर्मरतः शान्तः सदाचारश्च सत्यवाक् ।
अक्रोधनश्च धृतिमान्निर्मदश्चानसूयकः ॥ ३३ ॥
वह सर्वदा धर्मपरायण, शान्त, सदाचारी, सत्यवादी, क्रोध न करनेवाला, धैर्यवान्, अभिमानरहित तथा ईर्ष्याहीन था ॥ ३३ ॥

सम्पूज्य देवता नित्यं पितॄनप्यतिथींस्तथा ।
भुञ्जाने पोष्यवर्गेऽथ कृतवान्भोजनं वणिक् ॥ ३४ ॥
प्रतिदिन देवताओं, पितरों तथा अतिथियोंकी पूजा करके वह अपने परिवारजनोंके भोजन कर लेनेके उपरान्त स्वयं भोजन करता था ॥ ३४ ॥

एवं गच्छति काले वै सुशिलो नामतो गुणैः ।
दारिद्र्यार्तो द्विजं शान्तं पप्रच्छातिबुभुक्षितः ॥ ३५ ॥

इस प्रकार कुछ समय बीतनेपर गुणोंके कारण सुशील नामसे ख्यातिप्राप्त उस वणिक्ने दरिद्रता तथा क्षुधा-पीड़ासे अत्यन्त व्याकुल होकर एक शान्तस्वभाव ब्राह्मणसे पूछा ॥ ३५ ॥

सुशील उवाच
भो भूदेव कृपां कृत्वा वदस्वाद्य महामते ।
कथं दारिद्र्यनाशः स्यादिति मे निश्चयेन वै ॥ ३६ ॥
सुशील बोला-हे महाबुद्धिसम्पन्न ब्राह्मणदेवता ! आज मुझपर कृपा करके यह बताइये कि मेरी दरिद्रताका नाश निश्चितरूपसे कैसे हो सकता है ? ॥ ३६ ॥

धनैषणा मे नैवास्ति धनी स्यामिति मानद ।
कुटुम्बभरणार्थं वै पृच्छामि त्वां द्विजोत्तम ॥ ३७ ॥
हे मानद ! मुझे धनकी अभिलाषा तो नहीं है; किंतु हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं आपसे कोई ऐसा उपाय पूछ रहा हूँ, जिससे मैं कुटुम्बके भरण-पोषणमात्रके लिये धनसम्पन्न हो जाऊँ ॥ ३७ ॥

पुत्री सुतस्तु मे बालो भक्षार्थी रोदते भृशम् ।
तावन्मात्रं गृहे नान्नं मुष्टिमेकां ददाम्यहम् ॥ ३८ ॥
मेरी पुत्री और पुत्र [क्षुधासे पीड़ित होकर] भोजनके लिये बहुत रोते हैं और मेरे घरमें इतना भी अन्न नहीं रहता कि मैं उन्हें एक मुट्ठीभर अन्न दे सकूँ ॥ ३८ ॥

विसर्जितो यतो गेहाद्‌गतो बालो रुदन्मया ।
अतो मे दह्यतेऽत्यर्थं किं करोमि धनं विना ॥ ३९ ॥
रोते हुए बालकको मैंने घरसे निकाल दिया और वह चला गया । इसलिये मेरा हृदय शोकाग्निमें जल रहा है । धनके अभावमें मैं क्या करूं ? ॥ ३९ ॥

विवाहोऽस्ति सुताया मे नास्ति वित्तं करोमि किम् ।
दशवर्षाधिकायास्तु दानकालोऽपि यात्यलम् ॥ ४० ॥
मेरी पुत्री विवाहके योग्य हो चुकी है, किंतु मेरे पास धन नहीं है । अब मैं क्या करूँ ? वह दस वर्षसे अधिककी हो गयी है । इस प्रकार कन्यादानका समय बीता जा रहा है ॥ ४० ॥

तेन शोचामि विप्रेन्द्र सर्वज्ञोऽसि दयानिधे ।
तपो दानं व्रतं किञ्चिद्‌ब्रूहि मन्त्रजपं तथा ॥ ४१ ॥
येनाहं पोष्यवर्गस्य करोमि द्विज पोषणम् ।
तावन्मे स्याद्धनप्राप्तिर्नाधिकं प्रार्थये किल ॥ ४२ ॥
हे विप्रेन्द्र ! इसीलिये मैं अत्यधिक चिन्तित हैं । हे दयानिधान ! आप तो सर्वज्ञ हैं, अतएव मुझे कोई ऐसा तप, दान, व्रत, मन्त्र तथा जप बताइये, जिससे मैं अपने आश्रितजनोंका भरण-पोषण करनेमें समर्थ हो जाऊँ । हे द्विज ! बस मुझे उतना ही धन मिल जाय और मैं उससे अधिक धनके लिये प्रार्थना नहीं करता ॥ ४१-४२ ॥

त्वत्प्रसादात्कुटुम्बं मे सुखितं प्रभवेदिह ।
तत्कुरुष्व महाभाग ज्ञानेन परिचिन्त्य च ॥ ४३ ॥

हे महाभाग ! आपकी कृपासे मेरा परिवार अवश्य सुखी हो सकता है । अतएव आप अपने ज्ञानबलसे भलीभाँति विचार करके वह उपाय बताइये ॥ ४३ ॥

व्यास उवाच
इति पृष्टस्तथा तेन ब्राह्मणः संशितव्रतः ।
उवाच परमप्रीतस्तं वैश्यं नृपसत्तम ॥ ४४ ॥
व्यासजी बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! उसके इस प्रकार पूछनेपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले उस ब्राह्मणने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक उस वैश्यसे कहा- ॥ ४४ ॥

वैश्यवर्य कुरुष्वाद्य नवरात्रव्रतं शुभम् ।
पूजनं भगवत्याश्च हवनं भोजनं तथा ॥ ४५ ॥
वेदपारायणं शक्तिजपहोमादिकं तथा ।
कुरुष्वाद्य यथाशक्ति तव कार्यं भविष्यति ॥ ४६ ॥
हे वैश्यवर्य ! अब तुम पवित्र नवरात्रव्रतका अनुष्ठान करो । इसमें तुम भगवतीकी पूजा, हवन, ब्राह्मणभोजन, वेदपाठ, उनके मन्त्रका जप और होम आदि यथाशक्ति सम्पन्न करो । इससे तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध होगा ॥ ४५-४६ ॥

एतस्मादपरं किञ्चिद्‌व्रतं नास्ति धरातले ।
नवरात्राभिधं वैश्य पावनं सुखदं तथा ॥ ४७ ॥
हे वैश्य ! नवरात्र नामक इस पवित्र तथा सुखदायक व्रतसे बढ़कर इस पृथ्वीतलपर अन्य कोई भी व्रत नहीं है ॥ ४७ ॥

ज्ञानदं मोक्षदं चैव सुखसन्तानवर्धनम् ।
शत्रुनाशकरं कामं नवरात्रव्रतं सदा ॥ ४८ ॥
यह नवरात्रव्रत सर्वदा ज्ञान तथा मोक्षको देनेवाला, सुख तथा सन्तानकी वृद्धि करनेवाला एवं शत्रुओंका पूर्णरूपसे विनाश करनेवाला है ॥ ४८ ॥

राज्यभ्रष्टेन रामेण सीताविरहितेन च ।
किष्किन्धायां व्रतं चैतत्कृतं दुःखातुरेण वै ॥ ४९ ॥
प्रतप्तेनापि रामेण सीताविरहवह्निना ।
विधिवत्पूजिता देवी नवरात्रव्रतेन वै ॥ ५० ॥
राज्यसे च्युत तथा सीताके वियोगसे अत्यन्त दुःखित श्रीरामने किष्किन्धापर्वतपर इस व्रतको किया था । सीताकी विरहाग्निसे अत्यधिक सन्तप्त श्रीरामने उस समय नवरात्रव्रतके विधानसे भगवती जगदम्बाकी भलीभाँति पूजा की थी ॥ ४९-५० ॥

तेन प्राप्ताऽथ वैदेही कृत्वा सेतुं महार्णवे ।
हत्वा मन्दोदरीनाथं कुम्भकर्णं महाबलम् ॥ ५१ ॥
मेघनादं सुतं हत्वा कृत्वा भूपं बिभीषणम् ।
पश्चादयोध्यामागत्य प्राप्तं राज्यमकण्टकम् ॥ ५२ ॥
इसी व्रतके प्रभावसे उन्होंने महासागरपर सेतकी रचनाकर महाबली मन्दोदरीपति रावण, कुम्भकर्ण तथा रावणपुत्र मेघनादका संहार करके सीताको प्राप्त किया । विभीषणको लंकाका राजा बनाकर पुनः अयोध्या लौटकर उन्होंने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया था ॥ ५१-५२ ॥

नवरात्रव्रतस्यास्य प्रभावेण विशांवर ।
सुखं भूमितले प्राप्तं रामेणामिततेजसा ॥ ५३ ॥
हे वैश्यवर ! इस प्रकार अमित तेजवाले श्रीरामजीने इस नवरात्रव्रतके प्रभावसे पृथ्वीतलपर महान् सुख प्राप्त किया ॥ ५३ ॥

व्यास उवाच
इति विप्रवचः श्रुत्वा स वैश्यस्तं द्विजं गुरुम् ।
कृत्वा जग्राह सन्मन्त्रं मायाबीजाभिधं नृप ॥ ५४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! ब्राह्मणका यह वचन सुनकर उस वैश्यने उन्हें अपना गुरु मान लिया और उनसे मायाबीज नामक उत्तम मन्त्रकी दीक्षा प्राप्त की ॥ ५४ ॥

जजाप परया भक्त्या नवरात्रमतन्द्रितः ।
नानाविधोपहारैश्च पूजयामास सादरम् ॥ ५५ ॥
नवसंवत्सरं चैव मायाबीजपरायणः ।
नवमे वत्सरान्ते तु महाष्टम्यां महेश्वरी ॥ ५६ ॥
अर्धरात्रे तु सञ्जाते प्रत्यक्षं दर्शनं ददौ ।
नानावरप्रदानैश्च कृतकृत्यञ्चकार तम् ॥ ५७ ॥
तत्पश्चात् आलस्यहीन होकर अत्यन्त भक्तिपूर्वक पूरे नवरात्रभर उसने उस मन्त्रका जप किया और अनेकविध उपहारोंसे आदरपूर्वक भगवतीका पूजन किया । इस प्रकार मायाबीजपरायण उस वैश्यने नौ वर्पोतक यह अनुष्ठान किया । नौवें वर्षके अन्त में महाष्टमी तिथिको अर्धरात्रि आनेपर महेश्वरीने उसे अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया और अनेक प्रकारके वरदानोंसे कृतकृत्य कर दिया ॥ ५५-५७ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे देवीपूजामहत्त्ववर्णनं नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
अध्याय सत्ताइसवाँ समाप्त


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