Menus in CSS Css3Menu.com



श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
तृतीयः स्कन्धः
अष्टाविंशोऽध्यायः

[ Right click to 'save audio as' for downloading Audio ]


रामचरित्रवर्णनम् -
श्रीरामचरित्रवर्णन -


जनमेजय उवाच
कथं रामेण तच्चीर्णं व्रतं देव्याः सुखप्रदम् ।
राज्यभ्रष्टः कथं सोऽथ कथं सीता हृता पुनः ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-श्रीरामने भगवती जगदम्बाके इस सुखप्रदायक व्रतका अनुष्ठान किस प्रकार किया, वे राज्यच्युत कैसे हुए और फिर सीता-हरण किस प्रकार हुआ ? ॥ १ ॥

व्यास उवाच
राजा दशरथः श्रीमानयोध्याधिपतिः पुरा ।
सूर्यवंशधरश्चासीद्देवब्राह्मणपूजकः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-पूर्वकालमें श्रीमान् महाराज दशरथ अयोध्यापुरीमें राज्य करते थे । वे सूर्यवंशमें श्रेष्ठ राजाके रूपमें प्रतिष्ठित थे और वे देवताओं तथा ब्राह्मणोंका पूजन किया करते थे ॥ २ ॥

चत्वारो जज्ञिरे तस्य पुत्रा लोकेषु विश्रुताः ।
रामलक्ष्मणशत्रुघ्ना भरतश्चेति नामतः ॥ ३ ॥
राज्ञः प्रियकराः सर्वे सदृशा गुणरूपतः ।
कौसल्यायाः सुतो रामः कैकेय्या भरतः स्मृतः ॥ ४ ॥
सुमित्रातनयौ जातौ यमलौ द्वौ मनोहरौ ।
ते जाता वै किशोराश्च धनुर्बाणधराः किल ॥ ५ ॥
उनके चार पुत्र उत्पन्न हुए; जो लोकमें राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न नामसे विख्यात हुए । गुण तथा रूपमें पूर्ण समानता रखनेवाले वे सभी महाराज दशरथको अत्यन्त प्रिय थे । उनमें राम महारानी कौसल्याके तथा भरत महारानी कैकेयीके पुत्र कहे गये । रानी सुमित्राके लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न नामवाले जुड़वाँ पुत्र उत्पन्न हुए । वे चारों किशोरावस्थामें ही धनुष-बाणधारी हो गये ॥ ३-५ ॥

सूनवः कृतसंस्कारा भूपतेः सुखवर्धकाः ।
कौशिकेन तदाऽऽगत्य प्रार्थितो रघुनन्दनः ॥ ६ ॥
महाराज दशरथने सुख बढ़ानेवाले अपने चारों पुत्रोंके संस्कार भी सम्पन्न कर दिये । तब एक समय महर्षि विश्वामित्र ने दशरथके यहाँ आकर उनसे रघुनन्दन रामको माँगा ॥ ६ ॥

राघवं मखरक्षार्थं सूनुं षोडशवार्षिकम् ।
तस्मै सोऽयं ददौ रामं कौशिकाय सलक्ष्मणम् ॥ ७ ॥
महाराज दशरथने यज्ञकी रक्षाके लिये लक्ष्मणसहित सोलहवर्षीय पुत्र रामको विश्वामित्रको समर्पित कर दिया ॥ ७ ॥

तौ समेत्य मुनिं मार्गे जग्मतुश्चारुदर्शनौ ।
ताटका निहता मार्गे राक्षसी घोरदर्शना ॥ ८ ॥
रामेणैकेन बाणेन मुनीनां दुःखदा सदा ।
यज्ञरक्षा कृता तत्र सुबाहुर्निहतः शठः ॥ ९ ॥
मारीचोऽथ मृतप्रायो निक्षिप्तो बाणवेगतः ।
एवं कृत्वा महत्कर्म यज्ञस्य परिरक्षणम् ॥ १० ॥
गतास्ते मिथिलां सर्वे रामलक्ष्मणकौशिकाः ।
अहल्या मोचिता शापान्निष्पापा सा कृताऽबला ॥ ११ ॥
प्रियदर्शन वे दोनों भाई मुनिके साथ मार्गमें चल दिये । रामचन्द्रजीने मुनियोंको सदा पीड़ित करनेवाली तथा अत्यन्त भयानक रूपवाली ताटकाको रास्तेमें ही मात्र एक बाणसे मार डाला । उन्होंने दुष्ट सुबाहुका वध किया तथा मारीचको अपने बाणसे दूर फेंककर उसे मृतप्राय कर दिया और यज्ञ-रक्षा की । इस प्रकार यज्ञ-रक्षाका महान् कृत्य सम्पन्न करके राम, लक्ष्मण तथा विश्वामित्रने मिथिलापुरीके लिये प्रस्थान किया । जाते समय मार्गमें रामने अबला अहल्याको शापसे मुक्ति प्रदान करके उसे पापरहित कर दिया । ८-११ ॥

विदेहनगरे तौ तु जग्मतुर्मुनिना सह ।
बभञ्ज शिवचापञ्च जनकेन पणीकृतम् ॥ १२ ॥
उपयेमे ततः सीतां जानकीञ्च रमांशजाम् ।
लक्ष्मणाय ददौ राजा पुत्रीमेकां तथोर्मिलाम् ॥ १३ ॥
इसके बाद वे दोनों भाई मुनि विश्वामित्रके साथ जनकपुर पहुँच गये और वहाँ श्रीरामने जनकजीद्वारा प्रतिज्ञाके रूपमें रखे शिव-धनुषको तोड़ दिया और लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न जनकनन्दिनी सीताके साथ विवाह किया । राजा जनकने दूसरी पुत्री उर्मिलाका विवाह लक्ष्मणके साथ कर दिया ॥ १२-१३ ॥

कुशध्वजसुते कन्ये प्रापतुर्भ्रातरावुभौ ।
तथा भरतशत्रुघ्नौ सुशिलौ शुभलक्षणौ ॥ १४ ॥
शीलसम्पन्न तथा शुभलक्षणोंसे युक्त दोनों भाई भरत तथा शत्रुघ्नने कुशध्वजकी दो पुत्रियों [माण्डवी तथा श्रुतकीर्ति]-को पत्नीरूपमें प्राप्त किया ॥ १४ ॥

एवं दारक्रियास्तेषां भ्रातॄणां चाभवन्नृप ।
चतुर्णां मिथिलायां तु यथाविधि विधानतः ॥ १५ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार उन चारों भाइयोंका विवाह मिथिलापुरीमें ही विधि-विधानसे सम्पन्न हुआ ॥ १५ ॥

राज्ययोग्यं सुतं दृष्ट्वा राजा दशरथस्तदा ।
राघवाय धुरं दातुं मनश्चक्रे निजाय वै ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् महाराज दशरथने अपने बड़े पुत्र रामको राज्य करनेयोग्य देखकर उन्हें राज्य-भार सौंपनेका मनमें निश्चय किया ॥ १६ ॥

सम्भारं विहितं दृष्ट्वा कैकेयी पूर्वकल्पितौ ।
वरौ सम्प्रार्थयामास भर्तारं वशवर्तिनम् ॥ १७ ॥
राजतिलक-सम्बन्धी सामग्रियोंका प्रबन्ध हुआ देखकर रानी कैकेयीने अपने वशीभूत महाराज दशरथसे पूर्वकल्पित दो वरदान माँगे ॥ १७ ॥

राज्यं सुताय चैकेन भरताय महात्मने ।
रामाय वनवासञ्च चतुर्दशसमास्तथा ॥ १८ ॥
उसने पहले वरदानके रूपमें अपने पुत्र भरतके लिये राज्य तथा दूसरे वरदानके रूपमें महात्मा रामको चौदह वर्षोंका वनवास माँगा ॥ १८ ॥

रामस्तु वचनात्तस्याः सीतालक्ष्मणसंयुतः ।
जगाम दण्डकारण्यं राक्षसैरुपसेवितम् ॥ १९ ॥
कैकेयीका वचन मानकर श्रीरामचन्द्रजी सीता तथा लक्ष्मणके साथ दण्डकवन चले गये, जहाँ राक्षस रहते थे ॥ १९ ॥

राजा दशरथः पुत्रविरहेण प्रपीडितः ।
जहौ प्राणानमेयात्मा पूर्वशापमनुस्मरन् ॥ २० ॥
तदनन्तर पुत्रके वियोगजनित शोकसे सन्तप्त पुण्यात्मा दशरथने पूर्वकालमें एक ऋषिद्वारा प्रदत्त शापका स्मरण करते हुए अपने प्राण त्याग दिये ॥ २० ॥

भरतः पितरं दृष्ट्वा मृतं मातृकृतेन वै ।
राज्यमृद्धं न जग्राह भ्रातुः प्रियचिकीर्षया ॥ २१ ॥
माता कैकेयीके कृत्यके कारण पिताजीकी मृत्यु देखकर भरतजीने भाई श्रीरामका हित करनेकी इच्छासे अयोध्याका समृद्ध राज्य स्वीकार नहीं किया ॥ २१ ॥

पञ्चवट्यां वसन् रामो रावणावरजां वने ।
शूर्पणखां विरूपां वै चकारातिस्मरातुराम् ॥ २२ ॥
उधर पंचवटीमें निवास करते हुए श्रीरामने रावणकी छोटी बहन अतिशय कामातुर शूर्पणखाको कुरूप बना दिया ॥ २२ ॥

खरादयस्तु तां दृष्ट्वा छिन्ननासां निशाचराः ।
चक्रुः सङ्ग्राममतुलं रामेणामिततेजसा ॥ २३ ॥
तब खर-दूषण आदि राक्षसोंने उसे कटी हुई नासिकावाली देखकर अमित तेजस्वी रामके साथ घोर संग्राम किया ॥ २३ ॥

स जघान खरादींश्च दैत्यानतिबलान्वितान् ।
मुनीनां हितमन्विच्छन् रामः सत्यपराक्रमः ॥ २४ ॥
उस संग्राममें सत्यपराक्रमी श्रीरामने मुनियोंका कल्याण करनेकी इच्छासे अत्यन्त बलशाली खर आदि राक्षसोंका संहार कर दिया ॥ २४ ॥

गत्वा शूर्पणखा लङ्कां खरदूषणघातनम् ।
दूषिता कथयामास रावणाय च राघवात् ॥ २५ ॥
तत्पश्चात् लंका जाकर उस दुष्ट शूर्पणखाने रामके द्वारा खर-दूषणकेसंहारका समाचार रावणसे बताया ॥ २५ ॥

सोऽपि श्रुत्वा विनाशं तं जातः क्रोधवशः खलः ।
जगाम रथमारुह्य मारीचस्याश्रमं तदा ॥ २६ ॥
वह दुष्ट रावण भी संहारके विषयमें सुनकर अत्यन्त क्रोधित हो उठा और तब रथपर सवार होकर वह मारीचके आश्रममें पहुँच गया ॥ २६ ॥

कृत्वा हेममृगं नेतुं प्रेषयामास रावणः ।
सीताप्रलोभनार्थाय मायाविनमसम्भवम् ॥ २७ ॥
सीता-हरणके उद्देश्यसे रावणने मायावी मारीचको असम्भव स्वर्ण-मृग बनाकर सीताको प्रलोभित करनेके लिये भेजा ॥ २७ ॥

सोऽथ हेममृगो भूत्वा सीतादृष्टिपथं गतः ।
मायावी चातिचित्राङ्गश्चरन्प्रबलमन्तिके ॥ २८ ॥
तत्पश्चात् वह मायावी मारीच अत्यन्त अद्भुत अंगोंवाला स्वर्ण-मृग बनकर चरते-चरते सीताजीके सन्निकट पहुँच गया और उन्होंने उसे देख लिया ॥ २८ ॥

तं दृष्ट्वा जानकी प्राह राघवं दैवनोदिता ।
चर्मानयस्व कान्तेति स्वाधीनपतिका यथा ॥ २९ ॥
उसे देखकर दैवी प्रेरणासे स्वाधीनपतिका स्त्रीकी भाँति सीताने श्रीरामसे कहा-हे कान्त ! आप इस मृगका चर्म ले आइये ॥ २९ ॥

अविचार्याथ रामोऽपि तत्र संस्थाप्य लक्ष्मणम् ।
सशरं धनुरादाय ययौ मृगपदानुगः ॥ ३० ॥
राम भी बिना कुछ सोचे-समझे लक्ष्मणको सीताके रक्षार्थ वहीं छोड़कर धनुष तथा बाण लेकर उस मृगके पीछे-पीछे दौड़ पड़े ॥ ३० ॥

सारङ्गोऽपि हरिं दृष्ट्वा मायाकोटिविशारदः ।
दृश्यादृश्यो बभूवाथ जगाम च वनान्तरम् ॥ ३१ ॥
करोड़ों प्रकारकी माया रचनेका ज्ञान रखनेवाला मृगरूपधारी वह मारीच भी रामको अपने पीछे दौड़ता देखकर कभी दिखायी पड़ते हुए तथा कभी आँखोंसे ओझल होते हुए एक वनसे दूसरे वनमें बहुत दूर चला गया ॥ ३१ ॥

मत्वा हस्तगतं रामः क्रोधाकृष्टधनुः पुनः ।
जघान चातितीक्ष्णेन शरेण कृत्रिमं मृगम् ॥ ३२ ॥
रामने अब उसे हस्तगत समझकर क्रोधपूर्वक धनुष खींचकर अत्यन्त तीक्ष्ण बाणसे उस कृत्रिम मृगको मार डाला ॥ ३२ ॥

स हतोऽतिबलात्तेन चुक्रोश भृशदुःखितः ।
हा लक्ष्मण हतोऽस्मीति मायावी नश्वरः खलः ॥ ३३ ॥
रामके प्रबल प्रहारसे आहत होकर वह मरणोन्मुख मायावी तथा नीच मृग चीख-चीखकर चिल्लाने लगा-हा लक्ष्मण ! अब मैं मारा गया ॥ ३३ ॥

स शब्दस्तुमुलस्तावज्जानक्या संश्रुतस्तदा ।
राघवस्येति सा मत्वा दीना देवरमब्रवीत् ॥ ३४ ॥
गच्छ लक्ष्मण तूर्णं त्वं हतोऽसौ रघुनन्दनः ।
त्वामाह्वयति सौ‌मित्रे साहाय्यं कुरु सत्वरम् ॥ ३५ ॥
उसके गगन-भेदी चीत्कारकी ध्वनिको सीताने सुन लिया । यह तो रामकी पुकार है'-ऐसा मानकर उन्होंने दुःखी होकर देवर लक्ष्मणसे कहा-हे लक्ष्मण ! ऐसा प्रतीत होता है कि वे रघुनन्दन राम आहत हो गये हैं । अतः तुम शीघ्र जाओ । हे सुमित्रानन्दन ! वे तुम्हें पुकार रहे हैं; वहाँ शीघ्र ही पहुँचकर उनकी सहायता करो ॥ ३४-३५ ॥

तत्राह लक्ष्मणः सीतामम्ब रामवधादपि ।
नाहं गच्छेऽद्य मुक्त्वा त्वामसहायामिहाश्रमे ॥ ३६ ॥
आज्ञा मे राघवस्यात्र तिष्ठेति जनकात्मजे ।
तदतिक्रमभीतोऽहं न त्यजामि तवान्तिकम् ॥ ३७ ॥
दूरं वै राघवं दृष्ट्वा वने मायाविना किल ।
त्यक्त्वा त्वां नाधिगच्छामि पदमेकं शुचिस्मिते ॥ ३८ ॥
कृरु धैर्यं न मन्येऽद्य रामं हन्तुं क्षमं क्षिप्तौ ।
नाहं त्यक्त्वा गमिष्यामि विलंघ्य रामभाषितम् ॥ ३९ ॥
तब लक्ष्मणजीने सीतासे कहा-हे माता ! रामका वध ही क्यों न हो; मैं आपको इस आश्रममें इस समय असहाय छोड़कर वहाँ नहीं जा सकता । हे जनकनन्दिनि ! मुझे रामकी आज्ञा है कि तुम इसी आश्रममें रहना । उनकी आज्ञाका उल्लंघन करने में मैं डरता हूँ । अत: आपका सामीप्य नहीं छोड़ सकता । हे शुचिस्मिते ! वह मायावी भगवान् श्रीरामको बहुत दूर दौड़ा ले गया है-यह जान करके मैं आपको छोड़कर यहाँसे एक पग भी नहीं जा सकता । आप धैर्य धारण कीजिये । मैं तो ऐसा मानता हूँ कि इस समय सम्पूर्ण पृथ्वीलोकमें श्रीरामको मारनेमें कोई समर्थ नहीं है । रामके आदेशका उल्लंघन करके तथा आपको यहाँ छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा ॥ ३६-३९ ॥

व्यास उवाच
रुदती सुदती प्राह ते तदा विधिनोदिता ।
अक्रूरा वचनं क्रूरं लक्ष्मणं शुभलक्षणम् ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-तत्पश्चात् सुन्दर दाँतोंवाली तथा सौम्य स्वभाववाली सीताने देवसे प्रेरित होकर शुभ लक्षणसम्पन्न लक्ष्मणसे रोते हुए यह कठोर वचन कहा- ॥ ४० ॥

अहं जानामि सौ‌मित्रे सानुरागं च मां प्रति ।
प्रेरितं भरतेनैव मदर्थमिह सङ्गतम् ॥ ४१ ॥
हे सुमित्रातनय ! अब मैं जान गयी कि तुम मेरे प्रति अनुरागयुक्त हो और भरतकी प्रेरणासे मेरे प्रयोजनसे यहाँ आये हो ॥ ४१ ॥

नाहं तथाविधा नारी स्वैरिणी कुहकाधम ।
मृते रामे पतिं त्वां न कर्तुमिच्छामि कामतः ॥ ४२ ॥
हे कुहकाधम ! मैं उस तरहकी स्वच्छन्द स्त्री नहीं हूँ । मैं रामके मृत हो जानेपर भी सूखके लिये तुम्हें अपना पति कभी नहीं बना सकती ॥ ४२ ॥

नागमिष्यति चेद्रामो जीवितं सन्त्यजाम्यहम् ।
विना तेन न जीवामि विधुरा दुःखिता भृशम् ॥ ४३ ॥
यदि राम नहीं लौटेंगे तो मैं अपना प्राण त्याग दूंगी; क्योंकि उनके बिना मैं विधवा होकर अत्यधिक दु:खी जीवन नहीं जी सकती ॥ ४३ ॥

गच्छ वा तिष्ठ सौ‍मित्रे न जानेऽहं तवेप्सितम् ।
क्व गतं तेऽद्य सौहार्दं ज्येष्ठे धर्मरते किल ॥ ४४ ॥
हे लक्ष्मण ! तुम जाओ या रहो । मुझे तुम्हारी वास्तविक इच्छाका पता नहीं है । धर्मपरायण ज्येष्ठ भाईके प्रति आपका प्रेम अब कहाँ चला गया ? ॥ ४४ ॥

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्या लक्ष्मणो दीनमानसः ।
प्रोवाच रुद्धकण्ठस्तु तां तदा जनकात्मजाम् ॥ ४५ ॥
सीताका वह वचन सुनकर लक्ष्मणके मनमें अत्यधिक कष्ट हुआ । रुदनके कारण रुंधे कण्ठसे उन्होंने जनकनन्दिनी सीतासे कहा- ॥ ४५ ॥

किमात्थ क्षितिजे वाक्यं मयि क्रूरतरं किल ।
किं वदस्यत्यनिष्टं ते भावि जाने धिया ह्यहम् ॥ ४६ ॥
हे भूनिकन्ये ! आप इस प्रकारके अति कठोर वचन मेरे लिये क्यों कह रही हैं ? मेरा मन तो यह कह रहा है कि आपके समक्ष कोई अनिष्टकर परिस्थिति उत्पन्न होनेवाली है ॥ ४६ ॥

इत्युक्त्वा निर्ययौ वीरस्तां त्यक्त्वा प्ररुदन्भृशम् ।
अग्रजस्य ययौ पश्यञ्छोकार्तः पृथिवीपते ॥ ४७ ॥
[व्यासजीने कहा-] हे महाराज जनमेजय ! ऐसा कहकर अत्यधिक विलाप करते हुए वीर लक्ष्मण सीताको वहीं छोड़कर चल दिये और अत्यधिक शोकाकुल होकर बड़े भाई रामको चारों ओर देखते हुए आगेकी ओर बढ़ते गये ॥ ४७ ॥

गतेऽथ लक्ष्मणे तत्र रावणः कपटाकृतिः ।
भिक्षुवेषं ततः कृत्वा प्रविवेश तदाश्रमे ॥ ४८ ॥
इस प्रकार लक्ष्मणके वहाँसे चले जानेपर कपट स्वभाववाले रावणने साधु-वेष धारणकर उस आश्रममें प्रवेश किया ॥ ४८ ॥

जानकी तं यतिं मत्वा दत्त्वार्घ्यं वन्यमादरात् ।
भैक्ष्यं समर्पयामास रावणाय दुरात्मने ॥ ४९ ॥
जानकी उस दुष्टात्मा रावणको संन्यासी समझकर आदरपूर्वक वन्य सामग्रियोंका अर्घ्य प्रदान करके भिक्षा देने लगीं ॥ ४९ ॥

तां पप्रच्छ स दुष्टात्मा नम्रपूर्वं मृदुस्वरम् ।
काऽसि पद्मपलाशाक्षि वने चैकाकिनी प्रिये ॥ ५० ॥
तब उस दुरात्माने अत्यन्त विनम्र भावसे मधुर वाणीमें सीताजीसे पूछा-हे पद्मपत्रके समान नेत्रोंवाली प्रिये ! तुम कौन हो और इस वनमें अकेली क्यों रह रही हो ? ॥ ५० ॥

पिता कस्तेऽथ वामोरु भ्राता कः कः पतिस्तव ।
मूढेवैकाकिनी चात्र स्थिताऽसि वरवर्णिनि ॥ ५१ ॥
हे वामोरु ! तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारे भाई तथा पति कौन हैं ? हे सुन्दरि ! तुम एक मूब स्त्रीकी भाँति यहाँ अकेली क्यों रह रही हो ? ॥ ५१ ॥

निर्जने विपिने किं त्वं सौधार्हा त्वमसि प्रिये ।
उटजे मुनिपत्‍नीवद्देवकन्यासमप्रभा ॥ ५२ ॥
हे प्रिये ! इस निर्जन वनमें क्यों रह रही हो ? तुम तो महलोंमें निवास करनेयोग्य हो । देवकन्याके समान कान्तिवाली तुम एक मुनिपलीकी भाँत इस कुटियामें क्यों रह रही हो ? ॥ ५२ ॥

व्यास उवाच
इति तद्वचनं श्रुत्वा प्रत्युवाच विदेहजा ।
दिव्यं दिष्ट्या यतिं ज्ञात्वा मन्दोदर्याः पतिं तदा ॥ ५३ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] उसका यह वचन सुनकर विदेहतनया सीताजीने मन्दोदरीके पति रावणको दैववश एक दिव्य संन्यासी समझकर उत्तर दिया ॥ ५३ ॥

राजा दशरथः श्रीमांश्चत्वारस्तस्य वै सुताः ।
तेषां ज्येष्ठः पतिर्मेऽस्ति रामनामेति विश्रुतः ॥ ५४ ॥
दशरथ नामक लक्ष्मीसम्पन्न एक राजा हैं, उनके चार पुत्र हैं । उनमें सबसे बड़े पुत्र जो 'राम' नामसे विख्यात हैं, वे ही मेरे पति हैं ॥ ५४ ॥

विवासितोऽथ कैकेय्या कृते भूपतिना वरे ।
चतुर्दश समा रामो वसतेऽत्र सलक्ष्मणः ॥ ५५ ॥
कैकेयीने महाराज दशरथसे वरदान माँगकर रामको चौदह वर्षके लिये वनवास दिला दिया । वे अपने भाई लक्ष्मणके साथ अब यहींपर रह रहे हैं ॥ ५५ ॥

जनकस्य सुता चाहं सीतानाम्नीति विश्रुता ।
भङ्क्त्वा शैवं धनुः कामं रामेणाहं विवाहिता ॥ ५६ ॥
मैं राजा जनककी पुत्री हूँ तथा 'सीता' नामसे विख्यात हूँ । शिवजीका धनुष तोड़कर श्रीरामने मेरा पाणिग्रहण किया है ॥ ५६ ॥

रामबाहुबलेनात्र वसामो निर्भया वने ।
काञ्चनं मृगमालोक्य हन्तुं मे निर्गतः पतिः ॥ ५७ ॥
उन्हीं रामके बाहुबलका आश्रय लेकर मैं निर्भीक होकर इस वनमें रहती हूँ । एक स्वर्ण-मृग देखकर उसे मारनेके लिये मेरे पति गये हुए हैं ॥ ५७ ॥

लक्ष्मणोऽपि पुनः श्रुत्वा रवं भ्रातुर्गतोऽधुना ।
तयोर्बाहुबलादत्र निर्भयाऽहं वसामि वै ॥ ५८ ॥
अपने भाईका शब्द सुनकर लक्ष्मण भी इस समय उधर ही गये हुए हैं । उन्हीं दोनोंके बाहुबलसे मैं यहाँ निडर होकर रहती हूँ ॥ ५८ ॥

मयेदं कथितं सर्वं वृत्तान्तं वनवासके ।
तेऽत्रागत्यार्हणां ते वै करिष्यन्ति यथाविधि ॥ ५९ ॥
मैंने आपको वनवास-सम्बन्धी अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त बता दिया । अब वे लोग यहाँ आकर आपका विधिपूर्वक सत्कार करेंगे ॥ ५९ ॥

यतिर्विष्णुस्वरूपोऽसि तस्मात्त्वं पूजितो मया ।
आश्रमो विपिने घोरे कृतोऽस्ति रक्षसां कुले ॥ ६० ॥
तस्मात्त्वां परिपृच्छामि सत्यं ब्रूहि ममाग्रतः ।
कोऽसि त्रिदण्डिरूपेण विपिने त्वं समागतः ॥ ६१ ॥

संन्यासी विष्णुस्वरूप होता है, इसीलिये मैंने आपकी पूजा की है । राक्षसोंके समुदायद्वारा सेवित इस भयंकर जंगलमें यह आश्रम बना हुआ है । इसलिये मैं आपसे यह पूछती हूँ कि त्रिदण्डीके रूपमें इस वनमें पधारे हुए आप कौन हैं ? आप मेरे समक्ष सत्य कहिये ॥ ६०-६१ ॥

रावण उवाच
लङ्केशोऽहं मरालाक्षि श्रीमान्मन्दोदरीपतिः ।
त्वत्कृते तु कृतं रूपं मयेत्थं शोभनाकृते ॥ ६२ ॥
रावण बोला-हे हंसनयने ! मैं मन्दोदरीका पति तथा लंकाका नरेश श्रीमान् रावण हूँ । हे सुन्दर आकृतिवाली ! तुम्हारे लिये ही मैंने इस प्रकारका वेष बनाया है ॥ ६२ ॥

आगतोऽहं वरारोहे भगिन्या प्रेरितोऽत्र वै ।
जनस्थाने हतौ श्रुत्वा भ्रातरौ खरदूषणौ ॥ ६३ ॥
हे सुन्दरि ! जनस्थानमें अपने भाई खर-दूषणके मारे जानेका समाचार सुनकर तथा अपनी बहन शूर्पणखाद्वारा प्रेरित किये जानेपर मैं यहाँ आया हूँ ॥ ६३ ॥

अङ्गीकुरु नृपं मां त्वं त्यक्त्वा तं मानुषं पतिम् ।
हृतराज्यं गतश्रीकं निर्बलं वनवासिनम् ॥ ६४ ॥
अब तुम उस राज्यच्युत, लक्ष्मीहीन, निर्बल, वनवासी तथा मानवयोनिवाले पतिको छोड़कर मुझ राजाको स्वीकार कर लो ॥ ६४ ॥

पट्टराज्ञी भव त्वं मे मन्दोदर्युपरि स्फुटम् ।
दासोऽस्मि तव तन्वङ्‌गि स्वामिनी भव भामिनि ॥ ६५ ॥
तुम मेरी बात मानकर मन्दोदरीसे भी बड़ी पटरानी बन जाओ, मैं सत्य कहता हूँ । हे तन्वंगि ! मैं तुम्हारा दास हूँ । हे भामिनि ! तुम मेरी स्वामिनी हो जाओ ॥ ६५ ॥

जेताऽहं लोकपालानां पतामि तव पादयोः ।
करं गृहाण मेऽद्य त्वं सनाथं कुरु जानकि ॥ ६६ ॥
समस्त लोकपालोंपर विजय प्राप्त करनेवाला मैं तुम्हारे चरणोंपर पड़ता हूँ । हे जनकनन्दिनि ! तुम इस समय मेरा हाथ पकड़ लो और मुझे सनाथ कर दो ॥ ६६ ॥

पिता ते याचितः पूर्वं मया वै त्वत्कृतेऽबले ।
जनको मामुवाचेत्थं पणबन्धो मया कृतः ॥ ६७ ॥
हे अवले ! मैंने पहले भी तुम्हारे पिता जनकसे तुम्हें प्राप्त करनेके लिये याचना की थी, किंतु उस समय उन्होंने मुझसे यह कहा था कि मैं [धनुषभंगकी] शर्त रख चुका हूँ ॥ १७ ॥

रुद्रचापभयान्नाहं सम्प्राप्तस्तु स्वयंवरे ।
मनो मे संस्थितं तावन्निमग्नं विरहातुरम् ॥ ६८ ॥
शंकरजीके धनुषके भयके कारण मैं उस समय स्वयंवरमें सम्मिलित नहीं हुआ था । उसी समयसे विरह-वेदनासे पीड़ित मेरा मन तुममें ही लगा हुआ है ॥ ६८ ॥

वनेऽत्र संस्थितां श्रुत्वा पूर्वानुरागमोहितः ।
आगतोऽस्म्यसितापाङ्‌गि सफलं कुरु मे श्रमम् ॥ ६९ ॥
हे श्याम नयनोंवाली ! तुम इस वनमें रह रही हो-यह सुनकर तुम्हारे प्रति पूर्व प्रेमके अधीन हुआ मैं यहाँ आया हूँ: अब तुम मेरा परिश्रम सार्थक कर दो ॥ ६९ ॥

इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे रामचरित्रवर्णनं नाम अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥
अध्याय अठ्ठाइसवाँ समाप्त


GO TOP