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रामचरित्रवर्णनम् -
श्रीरामचरित्रवर्णन -
जनमेजय उवाच कथं रामेण तच्चीर्णं व्रतं देव्याः सुखप्रदम् । राज्यभ्रष्टः कथं सोऽथ कथं सीता हृता पुनः ॥ १ ॥
जनमेजय बोले-श्रीरामने भगवती जगदम्बाके इस सुखप्रदायक व्रतका अनुष्ठान किस प्रकार किया, वे राज्यच्युत कैसे हुए और फिर सीता-हरण किस प्रकार हुआ ? ॥ १ ॥
व्यास उवाच राजा दशरथः श्रीमानयोध्याधिपतिः पुरा । सूर्यवंशधरश्चासीद्देवब्राह्मणपूजकः ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-पूर्वकालमें श्रीमान् महाराज दशरथ अयोध्यापुरीमें राज्य करते थे । वे सूर्यवंशमें श्रेष्ठ राजाके रूपमें प्रतिष्ठित थे और वे देवताओं तथा ब्राह्मणोंका पूजन किया करते थे ॥ २ ॥
चत्वारो जज्ञिरे तस्य पुत्रा लोकेषु विश्रुताः । रामलक्ष्मणशत्रुघ्ना भरतश्चेति नामतः ॥ ३ ॥ राज्ञः प्रियकराः सर्वे सदृशा गुणरूपतः । कौसल्यायाः सुतो रामः कैकेय्या भरतः स्मृतः ॥ ४ ॥ सुमित्रातनयौ जातौ यमलौ द्वौ मनोहरौ । ते जाता वै किशोराश्च धनुर्बाणधराः किल ॥ ५ ॥
उनके चार पुत्र उत्पन्न हुए; जो लोकमें राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न नामसे विख्यात हुए । गुण तथा रूपमें पूर्ण समानता रखनेवाले वे सभी महाराज दशरथको अत्यन्त प्रिय थे । उनमें राम महारानी कौसल्याके तथा भरत महारानी कैकेयीके पुत्र कहे गये । रानी सुमित्राके लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न नामवाले जुड़वाँ पुत्र उत्पन्न हुए । वे चारों किशोरावस्थामें ही धनुष-बाणधारी हो गये ॥ ३-५ ॥
महाराज दशरथने सुख बढ़ानेवाले अपने चारों पुत्रोंके संस्कार भी सम्पन्न कर दिये । तब एक समय महर्षि विश्वामित्र ने दशरथके यहाँ आकर उनसे रघुनन्दन रामको माँगा ॥ ६ ॥
महाराज दशरथने यज्ञकी रक्षाके लिये लक्ष्मणसहित सोलहवर्षीय पुत्र रामको विश्वामित्रको समर्पित कर दिया ॥ ७ ॥
तौ समेत्य मुनिं मार्गे जग्मतुश्चारुदर्शनौ । ताटका निहता मार्गे राक्षसी घोरदर्शना ॥ ८ ॥ रामेणैकेन बाणेन मुनीनां दुःखदा सदा । यज्ञरक्षा कृता तत्र सुबाहुर्निहतः शठः ॥ ९ ॥ मारीचोऽथ मृतप्रायो निक्षिप्तो बाणवेगतः । एवं कृत्वा महत्कर्म यज्ञस्य परिरक्षणम् ॥ १० ॥ गतास्ते मिथिलां सर्वे रामलक्ष्मणकौशिकाः । अहल्या मोचिता शापान्निष्पापा सा कृताऽबला ॥ ११ ॥
प्रियदर्शन वे दोनों भाई मुनिके साथ मार्गमें चल दिये । रामचन्द्रजीने मुनियोंको सदा पीड़ित करनेवाली तथा अत्यन्त भयानक रूपवाली ताटकाको रास्तेमें ही मात्र एक बाणसे मार डाला । उन्होंने दुष्ट सुबाहुका वध किया तथा मारीचको अपने बाणसे दूर फेंककर उसे मृतप्राय कर दिया और यज्ञ-रक्षा की । इस प्रकार यज्ञ-रक्षाका महान् कृत्य सम्पन्न करके राम, लक्ष्मण तथा विश्वामित्रने मिथिलापुरीके लिये प्रस्थान किया । जाते समय मार्गमें रामने अबला अहल्याको शापसे मुक्ति प्रदान करके उसे पापरहित कर दिया । ८-११ ॥
विदेहनगरे तौ तु जग्मतुर्मुनिना सह । बभञ्ज शिवचापञ्च जनकेन पणीकृतम् ॥ १२ ॥ उपयेमे ततः सीतां जानकीञ्च रमांशजाम् । लक्ष्मणाय ददौ राजा पुत्रीमेकां तथोर्मिलाम् ॥ १३ ॥
इसके बाद वे दोनों भाई मुनि विश्वामित्रके साथ जनकपुर पहुँच गये और वहाँ श्रीरामने जनकजीद्वारा प्रतिज्ञाके रूपमें रखे शिव-धनुषको तोड़ दिया और लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न जनकनन्दिनी सीताके साथ विवाह किया । राजा जनकने दूसरी पुत्री उर्मिलाका विवाह लक्ष्मणके साथ कर दिया ॥ १२-१३ ॥
कुशध्वजसुते कन्ये प्रापतुर्भ्रातरावुभौ । तथा भरतशत्रुघ्नौ सुशिलौ शुभलक्षणौ ॥ १४ ॥
शीलसम्पन्न तथा शुभलक्षणोंसे युक्त दोनों भाई भरत तथा शत्रुघ्नने कुशध्वजकी दो पुत्रियों [माण्डवी तथा श्रुतकीर्ति]-को पत्नीरूपमें प्राप्त किया ॥ १४ ॥
एवं दारक्रियास्तेषां भ्रातॄणां चाभवन्नृप । चतुर्णां मिथिलायां तु यथाविधि विधानतः ॥ १५ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार उन चारों भाइयोंका विवाह मिथिलापुरीमें ही विधि-विधानसे सम्पन्न हुआ ॥ १५ ॥
राज्ययोग्यं सुतं दृष्ट्वा राजा दशरथस्तदा । राघवाय धुरं दातुं मनश्चक्रे निजाय वै ॥ १६ ॥
तत्पश्चात् महाराज दशरथने अपने बड़े पुत्र रामको राज्य करनेयोग्य देखकर उन्हें राज्य-भार सौंपनेका मनमें निश्चय किया ॥ १६ ॥
राम भी बिना कुछ सोचे-समझे लक्ष्मणको सीताके रक्षार्थ वहीं छोड़कर धनुष तथा बाण लेकर उस मृगके पीछे-पीछे दौड़ पड़े ॥ ३० ॥
सारङ्गोऽपि हरिं दृष्ट्वा मायाकोटिविशारदः । दृश्यादृश्यो बभूवाथ जगाम च वनान्तरम् ॥ ३१ ॥
करोड़ों प्रकारकी माया रचनेका ज्ञान रखनेवाला मृगरूपधारी वह मारीच भी रामको अपने पीछे दौड़ता देखकर कभी दिखायी पड़ते हुए तथा कभी आँखोंसे ओझल होते हुए एक वनसे दूसरे वनमें बहुत दूर चला गया ॥ ३१ ॥
उसके गगन-भेदी चीत्कारकी ध्वनिको सीताने सुन लिया । यह तो रामकी पुकार है'-ऐसा मानकर उन्होंने दुःखी होकर देवर लक्ष्मणसे कहा-हे लक्ष्मण ! ऐसा प्रतीत होता है कि वे रघुनन्दन राम आहत हो गये हैं । अतः तुम शीघ्र जाओ । हे सुमित्रानन्दन ! वे तुम्हें पुकार रहे हैं; वहाँ शीघ्र ही पहुँचकर उनकी सहायता करो ॥ ३४-३५ ॥
तब लक्ष्मणजीने सीतासे कहा-हे माता ! रामका वध ही क्यों न हो; मैं आपको इस आश्रममें इस समय असहाय छोड़कर वहाँ नहीं जा सकता । हे जनकनन्दिनि ! मुझे रामकी आज्ञा है कि तुम इसी आश्रममें रहना । उनकी आज्ञाका उल्लंघन करने में मैं डरता हूँ । अत: आपका सामीप्य नहीं छोड़ सकता । हे शुचिस्मिते ! वह मायावी भगवान् श्रीरामको बहुत दूर दौड़ा ले गया है-यह जान करके मैं आपको छोड़कर यहाँसे एक पग भी नहीं जा सकता । आप धैर्य धारण कीजिये । मैं तो ऐसा मानता हूँ कि इस समय सम्पूर्ण पृथ्वीलोकमें श्रीरामको मारनेमें कोई समर्थ नहीं है । रामके आदेशका उल्लंघन करके तथा आपको यहाँ छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा ॥ ३६-३९ ॥
व्यास उवाच रुदती सुदती प्राह ते तदा विधिनोदिता । अक्रूरा वचनं क्रूरं लक्ष्मणं शुभलक्षणम् ॥ ४० ॥
व्यासजी बोले-तत्पश्चात् सुन्दर दाँतोंवाली तथा सौम्य स्वभाववाली सीताने देवसे प्रेरित होकर शुभ लक्षणसम्पन्न लक्ष्मणसे रोते हुए यह कठोर वचन कहा- ॥ ४० ॥
अहं जानामि सौमित्रे सानुरागं च मां प्रति । प्रेरितं भरतेनैव मदर्थमिह सङ्गतम् ॥ ४१ ॥
हे सुमित्रातनय ! अब मैं जान गयी कि तुम मेरे प्रति अनुरागयुक्त हो और भरतकी प्रेरणासे मेरे प्रयोजनसे यहाँ आये हो ॥ ४१ ॥
सीताका वह वचन सुनकर लक्ष्मणके मनमें अत्यधिक कष्ट हुआ । रुदनके कारण रुंधे कण्ठसे उन्होंने जनकनन्दिनी सीतासे कहा- ॥ ४५ ॥
किमात्थ क्षितिजे वाक्यं मयि क्रूरतरं किल । किं वदस्यत्यनिष्टं ते भावि जाने धिया ह्यहम् ॥ ४६ ॥
हे भूनिकन्ये ! आप इस प्रकारके अति कठोर वचन मेरे लिये क्यों कह रही हैं ? मेरा मन तो यह कह रहा है कि आपके समक्ष कोई अनिष्टकर परिस्थिति उत्पन्न होनेवाली है ॥ ४६ ॥
[व्यासजीने कहा-] हे महाराज जनमेजय ! ऐसा कहकर अत्यधिक विलाप करते हुए वीर लक्ष्मण सीताको वहीं छोड़कर चल दिये और अत्यधिक शोकाकुल होकर बड़े भाई रामको चारों ओर देखते हुए आगेकी ओर बढ़ते गये ॥ ४७ ॥
जानकी उस दुष्टात्मा रावणको संन्यासी समझकर आदरपूर्वक वन्य सामग्रियोंका अर्घ्य प्रदान करके भिक्षा देने लगीं ॥ ४९ ॥
तां पप्रच्छ स दुष्टात्मा नम्रपूर्वं मृदुस्वरम् । काऽसि पद्मपलाशाक्षि वने चैकाकिनी प्रिये ॥ ५० ॥
तब उस दुरात्माने अत्यन्त विनम्र भावसे मधुर वाणीमें सीताजीसे पूछा-हे पद्मपत्रके समान नेत्रोंवाली प्रिये ! तुम कौन हो और इस वनमें अकेली क्यों रह रही हो ? ॥ ५० ॥
हे प्रिये ! इस निर्जन वनमें क्यों रह रही हो ? तुम तो महलोंमें निवास करनेयोग्य हो । देवकन्याके समान कान्तिवाली तुम एक मुनिपलीकी भाँत इस कुटियामें क्यों रह रही हो ? ॥ ५२ ॥
संन्यासी विष्णुस्वरूप होता है, इसीलिये मैंने आपकी पूजा की है । राक्षसोंके समुदायद्वारा सेवित इस भयंकर जंगलमें यह आश्रम बना हुआ है । इसलिये मैं आपसे यह पूछती हूँ कि त्रिदण्डीके रूपमें इस वनमें पधारे हुए आप कौन हैं ? आप मेरे समक्ष सत्य कहिये ॥ ६०-६१ ॥
रावण बोला-हे हंसनयने ! मैं मन्दोदरीका पति तथा लंकाका नरेश श्रीमान् रावण हूँ । हे सुन्दर आकृतिवाली ! तुम्हारे लिये ही मैंने इस प्रकारका वेष बनाया है ॥ ६२ ॥
तुम मेरी बात मानकर मन्दोदरीसे भी बड़ी पटरानी बन जाओ, मैं सत्य कहता हूँ । हे तन्वंगि ! मैं तुम्हारा दास हूँ । हे भामिनि ! तुम मेरी स्वामिनी हो जाओ ॥ ६५ ॥
समस्त लोकपालोंपर विजय प्राप्त करनेवाला मैं तुम्हारे चरणोंपर पड़ता हूँ । हे जनकनन्दिनि ! तुम इस समय मेरा हाथ पकड़ लो और मुझे सनाथ कर दो ॥ ६६ ॥
पिता ते याचितः पूर्वं मया वै त्वत्कृतेऽबले । जनको मामुवाचेत्थं पणबन्धो मया कृतः ॥ ६७ ॥
हे अवले ! मैंने पहले भी तुम्हारे पिता जनकसे तुम्हें प्राप्त करनेके लिये याचना की थी, किंतु उस समय उन्होंने मुझसे यह कहा था कि मैं [धनुषभंगकी] शर्त रख चुका हूँ ॥ १७ ॥