जनमेजय बोले-हे पितामह ! उस बालकने ऐसा कौन-सा पापकर्म किया था, जिससे जन्म लेते ही उसको दुष्टात्मा कंसने मार डाला ? ॥ १ ॥
नारदोऽपि मुनिश्रेष्ठो ज्ञानवान्धर्मतत्परः । कथमेवंविधं पापं कृतवान्ब्रह्मवित्तमः ॥ २ ॥ कर्ता कारयिता पापे तुल्यपापौ स्मृतौ बुधैः । स कथं प्रेरयामास मुनिः कंसं खलं तदा ॥ ३ ॥
महान् ज्ञानी, धर्मपरायण तथा ब्रह्मवेत्ता होते हुए भी मुनिश्रेष्ठ नारदने इस प्रकारका पाप क्यों किया ? विद्वज्जनोंने पाप करने तथा करानेवालेइन दोनोंको समान पापी बताया है; तो फिर उन देवर्षि नारदने इस पापकर्मके लिये दुष्ट कंसको प्रेरित क्यों किया ? ॥ २-३ ॥
इस विषयमें मुझे यह महान् सन्देह हो गया है । जिस कर्मफलसे वह बालक मारा गया, उसके बारेमें मुझे सब कुछ विस्तारपूर्वक बताइये ॥ ४ ॥
व्यास उवाच नारदः कौतुकप्रेक्षी सर्वदा कलहप्रियः । देवकार्यार्थमागत्य सर्वमेतच्चकार ह ॥ ५ ॥
व्यासजी बोले-देवर्षि नारदको कौतुक करना तथा कलह करा देना अत्यन्त प्रिय है । अत: देवताओंका कार्य साधनेके लिये ही उन्होंने उपस्थित होकर यह सब किया था ॥ ५ ॥
न मिथ्याभाषणे बुद्धिर्मुनेस्तस्य कदाचन । सत्यवक्ता सुराणां स कर्तव्ये निरतः शुचिः ॥ ६ ॥
उन मुनि नारदकी बुद्धि झूठ बोलने में कभी भी प्रवृत्त नहीं हो सकती । सत्यवादी तथा पवित्र हृदयवाले वे सदा देवताओंका कार्य सिद्ध करनेमें तत्पर रहते हैं ॥ ६ ॥
एवं षड् बालकास्तेन जाता जाता निपातिताः । षड् गर्भाः शापयोगेन सम्भूय मरणं गताः ॥ ७ ॥
इस प्रकार कंसने देवकीके छ: पुत्रोंको बारीबारीसे जन्म लेते ही मार डाला । पूर्वजन्ममें प्राप्त शापके कारण वे छ: बालक जन्म लेते ही मृत्युको प्राप्त हो गये ॥ ७ ॥
हे राजन् ! सुनिये, अब मैं उनके शापका कारण बताऊँगा । स्वायम्भुव मन्वन्तरमें मरीचिकी भार्या ऊणकि गर्भसे छः अत्यन्त बलशाली पुत्र उत्पन्न हुए; ये धर्मशास्त्रमें पूर्णरूपसे निष्णात थे ॥ ८.५ ॥
ब्रह्माणं जहसुर्वीक्ष्य सुतां यभितुमुद्यतम् ॥ ९ ॥ शशाप तांस्तदा ब्रह्मा दैत्ययोनिं विशन्त्वधः । कालनेमिसुता जातास्ते षड्गर्भा विशाम्पते ॥ १० ॥
एक बार ब्रह्माजीको अपनी पुत्री सरस्वतीके साथ समागमके लिये उद्यत देखकर वे हंस पड़े थे । तब ब्रह्माजीने उन्हें शाप दे दिया कि तुमलोगोंका पतन हो जाय और तुम सब दैत्ययोनिमें जन्म लो । हे महाराज ! इस प्रकार वे छहों पुत्र कालनेमिके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए । ९-१० ॥
अवतारे परे ते तु हिरण्यकशिपोः सुताः । जातास्ते ज्ञानसंयुक्ताः पूर्वशापभयान्नृप ॥ ११ ॥ तस्मिञ्जन्मनि शान्ताश्च तपश्चक्रुः समाहिताः । तेषां प्रीतोऽभवद् ब्रह्मा षड्गर्भाणां वरान्ददौ ॥ १२ ॥
हे राजन् ! अगले जन्ममें वे हिरण्यकशिपुके पुत्र हुए । उनका पूर्वज्ञान अभी बना हुआ था । अतः वे सब पूर्वशापसे भयभीत होकर उस जन्ममें समाहितचित्त हो शान्तभावसे तप करने लगे । इससे ब्रह्माजीने अत्यधिक प्रसन्न होकर उन छहोंको वरदान दे दिया ॥ ११-१२ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे महाभाग पुत्रो ! मैंने क्रोधमें आकर उस समय तुम लोगोंको शाप दे दिया था । मैं तुम सभीपर परम प्रसन्न हूँ: अतएव अपना अभिलषित वर माँगो ॥ १३ ॥
व्यास उवाच ते तु श्रुत्वा वचस्तस्य ब्रह्मणः प्रीतमानसाः । ब्रह्माणमब्रुवन्कामं सर्वे कार्यार्थतत्पराः ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-उन ब्रह्माका वचन सुनकर उनके मनमें अत्यधिक प्रसन्नता हुई । अपना कार्य सिद्ध करनेमें तत्पर उन सबने ब्रह्माजीसे वर माँग लिया ॥ १४ ॥
बालक बोले-हे पितामह ! यदि आज आप हमपर प्रसन्न हैं तो हमें मनोवांछित वरदान दीजिये । हमलोगोंको सभी देवता, मानव और महानाग न मार सकें । हे पितामह ! यहाँतक कि गन्धर्व तथा बडे-सेबड़े सिद्ध पुरुषोंसे भी हमारा वध न हो सके ॥ १५ ॥
गन्धर्वसिद्धपतिभिर्वधो माभूत्पितामह । व्यास उवाच तानुवाच ततो ब्रह्मा सर्वमेतद्भविष्यति ॥ १६ ॥ गच्छन्तु वो महाभागाः सत्यमेव न संशयः । दत्त्वा वरं गतो ब्रह्मा मुदितास्ते तदाभवन् ॥ १७ ॥
व्यासजी बोले-तब ब्रह्माजीने उनसे कहा कि यह सब पूर्ण होगा । हे महाभाग्यशाली बालको ! अब तुमलोग जाओ । यह सत्य होकर रहेगा; इसमें सन्देह नहीं है । जब ब्रह्माजी वरदान देकर चले गये, तब वे सब परम प्रसन्न हुए ॥ १६-१७ ॥
हे कुरुश्रेष्ठ ! [वरदानकी बात जानकर] हिरण्यकशिपु कुपित होकर उनसे बोला-हे पुत्रो ! तुमलोगोंने मेरी उपेक्षा करके अपनी तपस्यासे ब्रह्माको प्रसन्न किया है । उनसे प्रार्थना करके वरदान पाकर तुमलोग अत्यधिक बलशाली हो गये हो । तुम सभीने अपने पिताके स्नेहको अपमानित किया है; अतएव मैं तुमलोगोंका परित्याग करता हूँ ॥ १८-१९ ॥
यूयं व्रजन्तु पाताले षड्गर्भा विश्रुता भुवि । पाताले निद्रयाविष्टास्तिष्ठन्तु बहुवत्सरान् ॥ २० ॥ ततस्तु देवकीगर्भे वर्षे वर्षे पुनः पुनः । पिता वः कालनेमिस्तु तत्र कंसो भविष्यति ॥ २१ ॥ स एव जातमात्रान्वो वधिष्यति सुदारुणः ।
अब तुमलोग पाताललोक चले जाओ । इस पृथ्वीपर तुमलोग 'षड्गर्भ' नामसे विख्यात होओगे । पाताललोकमें तुमलोग बहुत वर्षांतक निद्राके वशीभूत रहोगे । तत्पश्चात् तुमलोग क्रमसे प्रतिवर्ष देवकीके गर्भसे उत्पन्न होते रहोगे और पूर्वजन्मका तुम्हारा पिता कालनेमि उस समय कंस नामसे उत्पन्न होगा । वह अत्यन्त क्रूर कंस तुमलोगोंको उत्पन्न होते ही मार डालेगा ॥ २०-२१.५ ॥
व्यास उवाच एवं शप्तांस्तदा तेन गर्भे जातान्पुनः पुनः ॥ २२ ॥ जघान देवकीपुत्रान्षड्गर्भाञ्छापनोदितः । शेषांशः सप्तमस्तत्र देवकीगर्भसंस्थितः ॥ २३ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार हिरण्यकशिपुसे शापित होकर वे क्रमसे एक-एक करके देवकीके गर्भमें आते गये और कंस पूर्वशापसे प्रेरित होकर उन षड्गर्भरूप देवकीके पुत्रोंका वध करता गया । इसके बाद शेषनागके अंशावतार बलभद्रजी देवकीके सातवें गर्भमें आये ॥ २२-२३ ॥
इसी बीच लोगोंको यह बात मालूम हो गयी कि पाँचवें महीनेमें ही देवकीका गर्भस्राव हो गया । कंस भी देवकीके गर्भपातका समाचार जान गया । अपने लिये यह सुखप्रद समाचार सुनकर वह दुरात्मा कंस बहुत प्रसन्न हुआ ॥ २५ ॥
मुदं प्राप स दुष्टात्मा श्रुत्वा वार्तां सुखावहाम् । अष्टमे देवकीगर्भे भगवान्सात्वतां पतिः ॥ २६ ॥
उधर देवताओंके कार्यको सिद्ध करने तथा पृथ्वीका भार उतारनेके लिये जगत्पति भगवान् विष्णु देवकीके आठवें गर्भमें विराजमान हो गये ॥ २६ ॥
उवास देवकार्यार्थं भारावतरणाय च । राजोवाच वसुदेवः कश्यपांशः शेषांशश्च तदाभवत् ॥ २७ ॥ हरेरंशस्तथा प्रोक्तो भवता मुनिसत्तम । अन्ये च येंऽशा देवानां तत्र जातास्तु तान्वद ॥ २८ ॥ भाराववतारणार्थं वै क्षितेः प्रार्थनयानघ ।
राजा बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! आपने यह बता दिया कि वसुदेवजी महर्षि कश्यपके अंशावतार थे और उनके यहाँ शेषनाग तथा भगवान् विष्णु अपने-अपने अंशोंसे उत्पन्न हुए । हे अनघ ! देवताओंके अन्य जोजो अंशावतार पृथ्वीकी प्रार्थनापर उसका भार उतारनेके लिये हुए हैं, उन्हें भी बताइये ॥ २७-२८.५ ॥
व्यास उवाच सुराणामसुराणां च ये येंऽशा भुवि विश्रुताः ॥ २९ ॥ तानहं सम्प्रवक्ष्यामि संक्षेपेण शृणुष्व तान् । वसुदेवः कश्यपांशो देवकी च तथादितिः ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! देवताओं तथा असुरोंके जो-जो अंश लोकमें विख्यात हुए हैं, उनके विषयमें मैं संक्षिप्तरूपमें बता रहा हूँ । आप उन्हें सुनिये-वसुदेव कश्यपके अंशसे तथा देवकी अदितिके अंशसे उत्पन्न थीं ॥ २९-३० ॥
बलदेवस्त्वनन्तांशो वर्तमानेषु तेषु च । योऽसौ धर्मसुतः श्रीमान्नारायण इति श्रुतः ॥ ३१ ॥ तस्यांशो वासुदेवस्तु विद्यमाने मुनौ तदा । नरस्तस्यानुजो यस्तु तस्यांशोऽर्जुन एव च ॥ ३२ ॥
बलदेवजी शेषनागके अंश थे । इन सभीके अवतरित हो जानेपर जिन धर्मपुत्र श्रीमान् नारायणके विषयमें कहा जा चुका है, उन्हींके अंशसे ही साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने अवतार लिया । मुनिवर नारायणके श्रीकृष्णरूपमें प्रकट हो जानेपर उनके नर नामक जो छोटे भाई हैं, उनके अंशस्वरूप अर्जुनका प्राकट्य हुआ । ३१-३२ ॥
विद्वानोंका मानना है कि समुद्रके अंशसे महाराज शन्तनु तथा गंगाके अंशसे उनकी भार्या उत्पन्न हुई थीं । पुराणप्रसिद्ध गन्धर्वराजके अंशसे महाराज देवक उत्पन्न हुए थे ॥ ३५ ॥
कृपाचार्यको किसी एक मरुद्गणका अंश तथा कृतवर्माको किसी दूसरे मरुद्गणका अंश बताया गया है । [हे राजन् !] दुर्योधनको कलिका अंश तथा शकुनिको द्वापरका अंश समझिये ॥ ३७ ॥
द्रौपदीके पाँचों पुत्र विश्वेदेवके अंशसे उत्पन्न माने गये हैं । कन्ती सिद्धिके अंशसे, मादी धृतिके अंशसे तथा गान्धारी मतिके अंशसे उत्पन्न हुई थीं ॥ ४० ॥