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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
त्रयोविंशोऽध्यायः

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कंसं प्रति योगमायावाक्यम् -
कंसके कारागारमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार, वसुदेवजीका उन्हें गोकुल पहुँचाना और वहाँसे योगमायास्वरूपा कन्याको लेकर आना, कंसद्वारा कन्याके वधका प्रयास, योगमायाद्वारा आकाशवाणी करनेपर कंसका अपने सेवकोंद्वारा नवजात शिशुओंका वध कराना -


व्यास उवाच
हतेषु षट्सु पुत्रेषु देवक्या औग्रसेनिना ।
सप्तमे पतिते गर्भे वचनान्नारदस्य च ॥ १ ॥
अष्टमस्य च गर्भस्य रक्षणार्थमतन्द्रितः ।
प्रयत्‍नमकरोद्राजा मरणं स्वं विचिन्तयन् ॥ २ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् !] उग्रसेनपुत्र कंसके द्वारा देवकीके छः पुत्रोंका वध कर दिये जानेपर तथा सातवाँ गर्भ गिर जानेके पश्चात् वह राजा कंस नारदजीके कथनानुसार अपनी मृत्युके सम्बन्धमें भलीभाँति विचार करते हुए सावधानीपूर्वक आठवें गर्भको [गिरनेसे] बचानेका प्रयत्न करने लगा ॥ १-२ ॥

समये देवकीगर्भे प्रवेशमकरोद्धरिः ।
अंशेन वसुदेवे तु समागत्य यथाक्रमम् ॥ ३ ॥
उचित समय आनेपर भगवान् श्रीहरि अपने अंशके साथ वसुदेवमें प्रविष्ट होकर देवकीके गर्भ में विराजमान हो गये ॥ ३ ॥

तदेयं योगमाया च यशोदायां यथेच्छया ।
प्रवेशमकरोद्देवी देवकार्यार्थसिद्धये ॥ ४ ॥
उसी समय देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके उद्देश्यसे भगवती योगमायाने अपनी इच्छासे यशोदाके गर्भमें प्रवेश किया ॥ ४ ॥

रोहिण्यास्तनयो रामो गोकुले समजायत ।
यतः कंसभयोद्विग्ना संस्थिता सा च कामिनी ॥ ५ ॥
कंसके भयसे उद्विग्न होकर गोकुलमें कालक्षेप कर रही वसुदेव-भार्या रोहिणीके गर्भसे पुत्ररूपमें बलरामजी प्रकट हो चुके थे ॥ ५ ॥

कारागारे ततः कंसो देवकीं देवसंस्तुताम् ।
स्थापयामास रक्षार्थं सेवकान्समकल्पयत् ॥ ६ ॥
तदनन्तर कंसने देववन्दिता देवकीको कारागारमें बन्द कर दिया और उनकी रखवालीके लिये बहुतसे सेवक नियुक्त कर दिये ॥ ६ ॥

वसुदेवस्तु कामिन्याः प्रेमतन्तुनियन्त्रितः ।
पुत्रोत्पत्तिं च सञ्चिन्त्य प्रविष्टः सह भार्यया ॥ ७ ॥
अपनी पत्नी देवकीके पुत्र-प्रसवकी बातको ध्यानमें रखते हुए तथा उनके प्रेमपाशमें आबद्ध रहनेके कारण वसुदेवजी भी उनके साथ कारागारमें ही रहने लगे ॥ ७ ॥

देवकीगर्भगो विष्णुर्देवकार्यार्थसिद्धये ।
संस्तुतोऽमरसङ्घैश्च व्यवर्धत यथाक्रमम् ॥ ८ ॥
देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये देवकीके गर्भमें विराजमान भगवान् विष्णु देवसमुदायद्वारा स्तूयमान होते हुए धीरे-धीरे वृद्धिको प्राप्त होने लगे ॥ ८ ॥

सञ्जाते दशमे तत्र मासेऽथ श्रावणे शुभे ।
प्राजापत्यर्क्षसंयुक्ते कृष्णपक्षेऽष्टमीदिने ॥ ९ ॥
कंसस्तु दानवान्सर्वानुवाच भयविह्वलः ।
रक्षणीया भवद्‌भिश्च देवकी गर्भमन्दिरे ॥ १० ॥
श्रावणमासमें दसवाँ महीना पूर्ण हो जानेपर (भाद्रपद मासके) कृष्णपक्षमें रोहिणी नक्षत्रयुक्त शुभ अष्टमी तिथिके उपस्थित होनेपर भयसे व्याकुल कंसने सभी दानवोंसे कहा कि आपलोग इस समय गर्भकक्षमें विद्यमान देवकीकी रखवाली करें ॥ ९-१० ॥

अष्टमो देवकीगर्भः शत्रुर्मे प्रभविष्यति ।
रक्षणीयः प्रयत्नेन मृत्युरूपः स बालकः ॥ ११ ॥
देवकीके आठवें गर्भसे उत्पन्न बालक मेरा शत्रु होगा । अतएव आपलोगोंको मेरे कालरूप उस बालककी यत्नपूर्वक रखवाली करनी चाहिये ॥ ११ ॥

हत्वैनं बालकं दैत्याः सुखं स्वप्स्यामि मन्दिरे ।
निवृत्तिवर्जिते दुःखे नाशिते चाष्टमे सुते ॥ १२ ॥
हे दैत्यो ! इस समय मैं अत्यन्त उद्वेगकारी तथा दुःखदायी आठवें गर्भसे उत्पन्न होनेवाले इस बालकका वध कर लेनेके बाद ही अपने महलमें सुखपूर्वक सो सकूँगा ॥ १२ ॥

खड्गप्रासधराः सर्वे तिष्ठन्तु धृतकार्मुकाः ।
निद्रातन्द्राविहीनाश्च सर्वत्र निहितेक्षणाः ॥ १३ ॥

आप सभी लोग अपने हाथोंमें तलवार, भाला और धनुष धारण करके निद्रा तथा आलस्यसे रहित होकर चारों ओर दृष्टि रखियेगा ॥ १३ ॥

व्यास उवाच
इत्यादिश्यासुरगणान् कृशोऽतिभयविह्वलः ।
मन्दिरं स्वं जगामाशु न लेभे दानवः सुखम् ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-उन दैत्योंको यह आज्ञा देकर भयाकुल तथा [चिन्ताके कारण] अति दुर्बल दानव कंस तत्काल अपने महलमें चला गया, किंतु वहाँ भी वह सुखकी नींद नहीं सो पा रहा था ॥ १४ ॥

निशीथे देवकी तत्र वसुदेवमुवाच ह ।
किं करोमि महाराज प्रसवावसरो मम ॥ १५ ॥
तत्पश्चात् मध्यरात्रिमें देवकीने वसुदेवजीसे कहा-महाराज ! मेरे प्रसवका समय आ गया है, अब मैं क्या करूँ ? ॥ १५ ॥

बहवो रक्षपालाश्च तिष्ठन्त्यत्र भयानकाः ।
नन्दपत्‍न्या मया सार्धं कृतोऽस्ति समयः पुरा ॥ १६ ॥
प्रेषितव्यस्त्वया पुत्रो मन्दिरे मम मानिनि ।
पालयिष्याम्यहं तत्र तवातिमनसा किल ॥ १७ ॥
अपत्यं ते प्रदास्यामि कंसस्य प्रत्ययाय वै ।
किं कर्तव्यं प्रभो चात्र विषमे समुपस्थिते ॥ १८ ॥
व्यत्ययः सन्ततेः शौरे कथं कर्तुं क्षमो भवेः ।
दूरे तिष्ठस्व कान्ताद्य लज्जा मेऽतिदुरत्यया ॥ १९ ॥
यहाँपर बहुतसे भयंकर रक्षक नियुक्त हैं । यहाँ आनेके पूर्व नन्दकी पत्नी यशोदासे मेरी यह बात निश्चित हुई थी । [उन्होंने कहा था-] 'हे मानिनि ! तुम अपने पुत्रको मेरे घर भेज देना, मैं मन लगाकर तुम्हारे पुत्रका पालन-पोषण करूँगी । कंसको विश्वास दिलानेके लिये मैं तुम्हें इसके बदले अपनी सन्तान दे दूंगी । ' अतः हे प्रभो ! इस विषम परिस्थितिमें अब हमें क्या करना चाहिये ? हे शूरतनय ! आप इन दोनों सन्तानोंकी अदला-बदली करनेमें कैसे समर्थ हो सकेंगे ? हे कान्त ! आप अपना मुख फेरकर मुझसे दूर होकर बैठिये; क्योंकि दुस्तर लज्जाके कारण मैं संकोचमें पड़ रही हूँ । हे स्वामिन् ! इसके अतिरिक्त यहाँ कुछ विशेष कर ही क्या सकती हूँ ॥ १६-१९ ॥

परावृत्य मुखं स्वामिन्नन्यथा किं करोम्यहम् ।
इत्युक्त्वा तं महाभागं देवकी देवसम्मतम् ॥ २० ॥
बालकं सुषुवे तत्र निशीथे परमाद्‌भुतम् ।
तं दृष्ट्वा विस्मयं प्राप देवकी बालकं शुभम् ॥ २१ ॥
देवतुल्य महाभाग वसुदेवसे ऐसा कहकर देवकीने उसी अर्धरात्रिकी शुभ वेलामें एक परम अद्भुत बालकको जन्म दिया । उस सुन्दर बालकको देखकर देवकीको महान् आश्चर्य हुआ ॥ २०-२१ ॥

पतिं प्राह महाभागा हर्षोत्कुल्लकलेवरा ।
पश्य पुत्रमुखं कान्त दुर्लभं हि तव प्रभो ॥ २२ ॥
अद्यैनं कालरूपोऽसौ घातयिष्यति भ्रातृजः ।
वसुदेवस्तथेत्युक्त्वा तमादाय करे सुतम् ॥ २३ ॥
अपश्यच्चाननं तस्य सुतस्याद्‌भुतकर्मणः ।
वीक्ष्य पुत्रमुखं शौरिश्चिन्ताविष्टो बभूव ह ॥ २४ ॥
किं करोमि कथं न स्याद्दुःखमस्य कृते मम ।
[पुत्रप्राप्तिके कारण] हर्षातिरेकसे प्रफुल्लित अंग-प्रत्यंगोंवाली महाभागा देवकीने पतिसे कहाहे कान्त ! अपने पुत्रका मुख तो देख लीजिये; क्योंकि हे प्रभो ! इसका दर्शन आपके लिये फिर सर्वथा दुर्लभ हो जायगा । कालरूपी मेरा भाई कंस आज ही इसका वध कर डालेगा । तब ठीक है'-ऐसा कहकर वसुदेवजी उस पुत्रको अपने हाथोंमें लेकर अद्भुत कर्मशाली अपने उस पुत्रका मुख निहारने लगे । तत्पश्चात् अपने पुत्रका मुख देखकर वसुदेवजी इस चिन्तासे आकल हो गये कि मैं कौन-सा उपाय करूँ, जिससे इस बालकके लिये मुझे विषाद न हो । २२-२४.५ ॥

एवं चिन्तातुरे तस्मिन्वागुवाचाशरीरिणी ॥ २५ ॥
वसुदेवं समाभाष्य गगने विशदाक्षरा ।
वसुदेव गृहीत्वैनं गोकुलं नय सत्वरः ॥ २६ ॥
रक्षपालास्तथा सर्वे मया निद्राविमोहिताः ।
विवृतानि कृतान्यष्ट कपाटानि च शृङ्खलाः ॥ २७ ॥
मुक्त्वैनं नन्दगेहे त्वं योगमायां समानय ।
वसुदेवजीके इस प्रकार चिन्तामग्न होनेपर उन्हें सम्बोधित करके आकाशमें स्पष्ट शब्दोंमें आकाशवाणी हुई-हे वसुदेव ! तुम इस बालकको लेकर तत्काल गोकुल पहुँचा दो । सभी रक्षकगण मेरे द्वारा निद्रासे अचेत कर दिये गये हैं, आठों फाटकोंको खोल दिया गया है तथा जंजीरें तोड़ दी गयी हैं । इस बालकको नन्दके घर छोड़कर वहाँसे तुम योगमायाको उठा लाओ ॥ २५-२७.५ ॥

श्रुत्वैवं वसुदेवस्तु तस्मिन्कारागृहे गतः ॥ २८ ॥
विवृतं द्वारमालोक्य बभूव तरसा नृप ।
तमादाय ययावाशु द्वारपालैरलक्षितः ॥ २९ ॥
यह वाणी सुनकर उस कारागृहमें निरुद्ध वसुदेवजी बाहरकी ओर गये । हे राजन् ! इस प्रकार वसुदेवजी फाटकोंको खुला हुआ देखकर बड़ी शीघ्रतापूर्वक उस बालकको लेकर द्वारपालोंको दृष्टिसे बचते हुए तत्काल कारागारसे निकल पड़े ॥ २८-२९ ॥

कालिन्दीतटमासाद्य पूरं दृष्ट्वा सुनिश्चितम् ।
तदैव कटिदघ्नी सा बभूवाशु सरिद्वरा ॥ ३० ॥
यमुनाके किनारे पहुंचकर उन्होंने देखा कि इस पारसे उस पार अगाध जल आप्लावित हो रहा है । उनका गोकुल जाना भी सुनिश्चित था । उनके जलमें उतरते ही नदियोंमें श्रेष्ठ यमुनाजीमें कमरभर पानी हो गया ॥ ३० ॥

योगमायाप्रभावेण ततारानकदुन्दुभिः ।
गत्वा तु गोकुलं शौरिर्निशीथे निर्जने पथि ॥ ३१ ॥
योगमायाके प्रभावसे वसुदेवजीने सहजतापूर्वक यमुनाजीको पार कर लिया और वे उस आधी रातमें सुनसान मार्गपर चलते हुए गोकुलमें पहुँचकर नन्दके द्वारपर विपुल गौ-सम्पदा देखते हुए वहाँ स्थित हो गये ॥ ३१ ॥

नन्दद्वारे स्थितः पश्यन्विभूतिं पशुसंज्ञिताम् ।
तदैव तत्र सञ्जाता यशोदा गर्भसम्भवा ॥ ३२ ॥
योगमायांशजा देवी त्रिगुणा दिव्यरूपिणी ।
जातां तां बालिकां दिव्यां गृहीत्वा करपङ्कजे ॥ ३३ ॥
तत्रागत्य ददौ देवी सैरन्ध्रीरूपधारिणी ।
वसुदेवः सुतं दत्त्वा सैरन्ध्रीकरपङ्कजे ॥ ३४ ॥
तामादाय ययौ शीघ्रं बालिकां मुदिताशयः ।
उसी समय योगमायाके अंशसे जायमान दिव्यरूपमयी त्रिगुणात्मिका भगवतीने यशोदाके गर्भसे अवतार लिया था । तदनन्तर सैरन्ध्रीका रूप धारण करके स्वयं भगवतीने उत्पन्न उस अलौकिक बालिकाको अपने करकमलमें ग्रहण करके वहाँ जाकर वसुदेवजीको दे दिया । वसुदेवजी भी अपने पुत्रको देवीरूपा सैरन्ध्रीके करकमलमें रखकर योगमायास्वरूपा उस बालिकाको लेकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे तत्काल चल पड़े ॥ ३२-३४.५ ॥

कारागारे ततो गत्वा देवक्याः शयने सुताम् ॥ ३५ ॥
निःक्षिप्य संस्थितः पार्श्वे चिन्ताविष्टो भयातुरः ।
कारागारमें पहुँचकर उन्होंने देवकीकी शय्यापर बालिकाको लिटा दिया और भय तथा चिन्तासे युक्त होकर वे पासहीमें एक ओर जाकर बैठ गये । ३५.५ ॥

रुरोद सुस्वरं कन्या तदैवागतसंज्ञकाः ॥ ३६ ॥
उत्तस्थुः सेवका राज्ञः श्रुत्वा तद्‌रुदितं निशि ।
तमूचुर्भूपतिं गत्वा त्वरितास्तेऽतिविह्वलाः ॥ ३७ ॥
देवक्याश्च सुतो जातः शीघ्रमेहि महामते ।
इतने में कन्याने उच्च स्वरमें रोना आरम्भ किया । तब प्रसवकालको सूचित करनेके लिये नियुक्त कंसके सेवकगण रातमें रोनेकी वह ध्वनि सुनकर जाग पड़े । आनन्दसे विहल वे सेवक तत्काल उसी समय जाकर राजासे बोले-हे महामते ! देवकीका पुत्र उत्पन्न हो गया, आप शीघ्र चलिये ॥ ३६-३७.५ ॥

तदाकर्ण्य वचस्तेषां शीघ्रं भोजपतिर्ययौ ॥ ३८ ॥
प्रावृतं द्वारमालोक्य वसुदेवमथाह्वयत् ।
उनका यह वचन सुनते ही भोजपति कंस तत्काल जा पहुँचा और वहाँपर दरवाजा खुला हुआ देखकर कंसने वसुदेवजीको बुलवाया ॥ ३८.५ ॥

कंस उवाच
सुतमानय देवक्या वसुदेव महामते ॥ ३९ ॥
मृत्युर्मे चाष्टमो गर्भस्तन्निहन्मि रिपुं हरिम् ।
कंस बोला-हे महामतिसम्पन्न वसुदेव । देवकोंक पुत्रको यहाँ ले आओ । देवकीका आठवाँ गर्भ मेरे मृत्यु है, अतः मैं उस विष्णुरूप अपने शत्रुका वध करूँगा ॥ ३९.५ ॥

व्यास उवाच
श्रुत्वा कंसवचः शौरिर्भयत्रस्तविलोचनः ॥ ४० ॥
तामादाय सुतां पाणौ ददौ चाशु रुदन्निव ।
दृष्ट्वाथ दारिकां राजा विस्मयं परमं गतः ॥ ४१ ॥
व्यासजी बोले-कंसका वचन सुनकर भयसे सन्त्रस्त नयनोंवाले वसुदेवजीने शीघ्र ही उस कन्याको ले जाकर कंसके हाथोंमें रोते हुए रख दिया । उस बालिकाको देखकर राजा कंस बड़ विस्मित हुआ ॥ ४०-४१ ॥

देववाणी वृथा जाता नारदस्य च भाषितम् ।
वसुदेवः कथं कुर्यादनृतं सङ्कटे स्थितः ॥ ४२ ॥
रक्षपालाश्च मे सर्वे सावधाना न संशयः ।
कुतोऽत्र कन्यका कामं क्व गतः स सुतः किल ॥ ४३ ॥
सन्देहोऽत्र न कर्तव्यः कालस्य विषमा गतिः ।
आकाशवाणी तथा नारदजीका वचन-दोन ही मिथ्या सिद्ध हुए और यहाँ संकटकी स्थितिमें पड़ा हुआ यह वसुदेव भी झूठी बात भला कैसे बना सकता है ? मेरे सभी रक्षक भी सावधान थे; इसमें कोई सन्देह नहीं है । तब यह बालिका कहाँसे आ गयी और वह बालक कहाँ चला गया ? कालकी बड़ी विषम गति होती है, अतएव इसके सम्बन्धमें अब किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ४२-४३.५ ॥

इति सञ्चिन्त्य तां बालां गृहीत्वा पादयोः खलः ॥ ४४ ॥
पोथयामास पाषाणे निर्घृणः कुलपांसनः ।
सा करान्निःसृता बाला ययावाकाशमण्डलम् ॥ ४५ ॥
दिव्यरूपा तदा भूत्वा तमुवाच मृदुस्वना ।
किं मया हतया पाप जातस्ते बलवान् रिपुः ॥ ४६ ॥
हनिष्यति दुराराध्यः सर्वथा त्वां नराधमम् ।
इत्युक्त्वा सा गता कन्या गगनं कामगा शिवा ॥ ४७ ॥
ऐसा सोचकर उस दुष्ट, निर्मम तथा कुलकलंकी कंसने बालिकाके दोनों पैर पकड़कर पत्थरपर पटका । किंतु वह कन्या कंसके हाथसे छूटकर आकाशमें चली गयी । वहाँ दिव्य रूप धारण करके उस कन्याने मधुर स्वरमें उससे कहा-'अरे पापी ! मुझे मारनेसे तुम्हारा क्या लाभ होगा; तेरा महाबलशाली शत्रु तो जन्म ले चुका है । वे दुराराध्य परमपुरुष तुझ नराधमका वध अवश्य करेंगे । ' ऐसा कहकर स्वेच्छाविहारिणी तथा कल्याणकारिणी भगवतीस्वरूपा वह कन्या आकाशमें चली गयी ॥ ४४-४७ ॥

कंसस्तु विस्मयाविष्टो गतो निजगृहं तदा ।
आनाय्य दानवान्सर्वानिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४८ ॥
बकधेनुकवत्सादीन्क्रोधाविष्टो भयातुरः ।
गच्छन्तु दानवाः सर्वे मम कार्यार्थसिद्धये ॥ ४९ ॥
जातमात्राश्च हन्तव्या बालका यत्र कुत्रचित् ।
पूतनैषा व्रजत्वद्य बालघ्नी नन्दगोकुलम् ॥ ५० ॥
जातमात्रान्विनिघ्नन्ती शिशूंस्तत्र ममाज्ञया ।
धेनुको वत्सकः केशी प्रलम्बो बक एव च ॥ ५१ ॥
सर्वे तिष्ठन्तु तत्रैव मम कार्यचिकीर्षया ।
यह सुनकर आश्चर्यसे युक्त कंस अपने महलके लिये प्रस्थान कर गया । वहाँ बकासुर, धेनुकासुर तथा वत्सासुर आदि दानवोंको बुलवाकर अत्यन्त कुपित तथा भयाक्रान्त कंसने उनसे कहा-हे दानवो ! मेरा कार्य सिद्ध करनेके लिये तुम सभी यहाँसे अभी प्रस्थान करो और जहाँ कहीं भी तुमलोगोंको नवजात शिशु मिलें, उन्हें अवश्य मार डालना । बालघातिनी यह पूतना अभी नन्दराजके गोकुलमें चली जाय । वहाँ सद्यः प्रसूत जितने बालक मिलें, उन्हें यह पूतना मेरी आज्ञासे मार डाले । धेनुक, वत्सक, केशी, प्रलम्ब और बक-ये समस्त असुर मेरा कार्य सिद्ध करनेकी इच्छासे वहाँ निरन्तर विद्यमान रहें । ४८-५१.५ ॥

इत्याज्ञाप्यासुरान्कंसो ययौ निजगृहं खलः ॥ ५२ ॥
चिन्ताविष्टोऽतिदीनात्मा चिन्तयित्वैव तं पुनः ॥ ५३ ॥
इस प्रकार सभी दैत्योंको आदेश देकर वह दुष्ट कंस अपने भवनमें चला गया । अपने शत्रुरूप उस बालकके विषयमें बार-बार सोचकर वह अत्यन्त चिन्तातुर तथा खिन्नमनस्क हो गया ॥ ५२-५३ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे कंसं प्रति योगमायावाक्यं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
अध्याय तेईसवाँ समाप्त ॥ २३ ॥


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