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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
चतुर्थः स्कन्धः
चतुर्विंशोऽध्यायः

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देव्या कृष्णशोकायनोदनम् -
श्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना -


व्यास उवाच
प्रातर्नन्दगृहे जातः पुत्रजन्ममहोत्सवः ।
किंवदन्त्यथ कंसेन श्रुता चारमुखादपि ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे राजन् !] प्रात:काल नन्दजीके घरमें पुत्रजन्मका बड़ा भारी समारोह सम्पन्न हुआ, यह बात चारों ओर फैल गयी और कंसने भी किसी दूतके मुखसे यह सुन लिया ॥ १ ॥

जानाति वसुदेवस्य दारास्तत्र वसन्ति हि ।
पशवो दासवर्गश्च सर्वे ते नन्दगोकुले ॥ २ ॥
तेन शङ्कासमाविष्टो गोकुलं प्रति भारत ।
नारदेनापि तत्सर्वं कथितं कारणं पुरा ॥ ३ ॥
गोकुले ये च नन्दाद्यास्तत्पत्‍न्यश्च सुरांशजाः ।
देवकीवसुदेवाद्याः सर्वे ते शत्रवः किल ॥ ४ ॥
कंस यह पहलेसे ही जानता था कि वसुदेवकी अन्य भार्या, पशु तथा सेवकगण-सब-के-सब गोकुलमें नन्दके यहाँ रह रहे हैं । हे भारत ! इस कारणसे गोकुलके प्रति कंसका सन्देह और बढ़ गया । नारदजीने भी सभी कारण पहले ही बता दिये थे । उन्होंने कह दिया था कि गोकुलमें नन्द आदि गोप, उनकी पलियाँ, देवकी तथा वसुदेव आदि जो भी लोग हैं, वे सब देवताओंके अंशसे उत्पन्न हुए हैं । इसलिये वे निश्चितरूपसे तुम्हारे शत्रु हैं ॥ २-४ ॥

इति नारदवाक्येन बोधितोऽसौ कुलाधमः ।
जातः कोपमना राजन् कंसः परमपापकृत् ॥ ५ ॥
हे राजन् ! देवर्षि नारदने जब यह बात बतायी थी तो बड़े-से-बड़े पापकर्मोंमें प्रवृत्त रहनेवाला वह कुलकलंकी कंस अत्यधिक कुपित हो गया था ॥ ५ ॥

पूतना निहता तत्र कृष्णेनामिततेजसा ।
बको वत्सासुरश्चापि धेनुकश्च महाबलः ॥ ६ ॥
प्रलम्बो निहतस्तेन तथा गोवर्धनो धृतः ।
श्रुत्वैतत्कर्म कंसस्तु मेने मरणमात्मनः ॥ ७ ॥
अपरिमित तेजवाले श्रीकृष्णने पूतना, बकासुर, वत्सासुर, महाबली धेनुकासुर तथा प्रलम्बासुरको मार डाला और गोवर्धनपर्वतको उठा लिया-इस अद्भुत कर्मको सुनकर कंसने यह अनुमान लगा लिया कि मेरा भी मरण अब सुनिश्चित है ॥ ६-७ ॥

तथा विनिहतः केशी ज्ञात्वा कंसोऽतिदुर्मनाः ।
धनुर्यागमिषेणाशु तावानेतुं प्रचक्रमे ॥ ८ ॥
[महान् बलशाली] केशी भी मार डाला गया यह जानकर कंस अत्यधिक खिन्नमनस्क हो गया, तब उसने धनुष-यज्ञके बहाने [कृष्ण तथा बलराम] दोनोंको शीघ्र ही मथुरामें बुलानेकी योजना बनायी ॥ ८ ॥

अक्रूरं प्रेषयामास क्रूरः पापमतिस्तदा ।
आनेतुं रामकृष्णौ च वधायामितविक्रमौ ॥ ९ ॥
निर्दयी तथा पापबुद्धि कंसने असीम पराक्रमी श्रीकृष्ण तथा बलरामका वध करनेके उद्देश्यसे उन्हें बुलानेके लिये अक्रूरको भेजा ॥ ९ ॥

रथमारोप्य गोपालौ गोकुलाद्‌ गान्दिनीसुतः ।
आगतो मथुरायां तु कंसादेशे स्थितः किल ॥ १० ॥
तदनन्तर कंसका आदेश मानकर गान्दिनीपुत्र अक्रूर गोकुल गये और दोनों गोपालों-श्रीकृष्ण तथा बलरामको रथपर बैठाकर गोकुलसे मथुरा लौट आये ॥ १० ॥

तावागत्य तदा तत्र धनुर्भङ्गञ्च चक्रतुः ।
हत्वाथ रजकं कामं गजं चाणूरमुष्टिकम् ॥ ११ ॥
शलं च तोशलं चैव निजघान हरिस्तदा ।
जघान कंसं देवेशः केशेष्वाकृष्य लीलया ॥ १२ ॥
वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण तथा बलरामने धनुषको तोड़ा । पुनः रजक, कुवलयापीड हाथी, चाणूर और मुष्टिकका संहार करके भगवान् श्रीकृष्णने शल तथा तोशलका वध किया । तत्पश्चात् देवेश श्रीकृष्णने कंसके बाल पकड़कर लीलापूर्वक उसको भी मार डाला ॥ ११-१२ ॥

पितरौ मोचयित्वाथ गतदुःखौ चकार ह ।
उग्रसेनाय राज्यं तद्ददावरिनिषूदनः ॥ १३ ॥
। तदनन्तर शत्रुविनाशक श्रीकृष्णने अपने मातापिताको कारागारसे मुक्त कराकर उनका कष्ट दूर किया और उग्रसेनको उनका राज्य वापस दिला दिया ॥ १३ ॥

वसुदेवस्तयोस्तत्र मौञ्जीबन्धनपूर्वकम् ।
कारयामास विधिवद्‌ व्रतबन्धं महामनाः ॥ १४ ॥
तदनन्तर महामना वसुदेवने उन दोनोंका मौंजीबन्धन तथा उपनयन-संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न करवाया ॥ १४ ॥

उपनीतौ तदा तौ तु गतौ सान्दीपनालयम् ।
विद्याः सर्वाः समभ्यस्य मथुरामागतौ पुनः ॥ १५ ॥
उपनयन-संस्कार हो जानेके पश्चात् वे दोनों सान्दीपनिऋषिके आश्रममें विद्याध्ययनके लिये गये और समस्त विद्याओंका अध्ययन करके पुनः मथुरा लौट आये ॥ १५ ॥

जातौ द्वादशवर्षीयौ कृतविद्यौ महाबलौ ।
मथुरायां स्थितौ वीरौ सुतावानकदुन्दुभेः ॥ १६ ॥
आनकदुन्दुभि (वसुदेवजी)-के पुत्र कृष्ण और बलराम बारह वर्षकी अवस्थामें ही सम्पूर्ण विद्याओंमें निष्णात तथा महान् बलशाली होकर मथुरामें ही निवास करने लगे ॥ १६ ॥

मागधस्तु जरासन्धो जामातृवधदुःखितः ।
कृत्वा सैन्यसमाजं स मथुरामागतः पुरीम् ॥ १७ ॥
उधर अपने जामाता कंसके वधसे मगधनरेश जरासन्ध अत्यन्त दुःखित हुआ और उसने विशाल सेना संगठितकर मथुरापुरीपर आक्रमण कर दिया ॥ १७ ॥

स सप्तदशवारं तु कृष्णेन कृतबुद्धिना ।
जितः संग्राममासाद्य मधुपुर्यां निवासिना ॥ १८ ॥
किंतु मधुपुरी (मथुरा)-में निवास करनेवाले बुद्धिमान् श्रीकृष्णने समरांगणमें उपस्थित होकर सत्रह बार उसे पराजित किया ॥ १८ ॥

पश्चाच्च प्रेरितस्तेन स कालयवनाभिधः ।
सर्वम्लेच्छाधिपः शूरो यादवानां भयङ्करः ॥ १९ ॥
इसके बाद जरासन्धने यादव-समुदायके लिये भयदायक तथा सम्पूर्ण म्लेच्छोंके अधिपति कालयवन नामक योद्धाको श्रीकृष्णका सामना करनेके लिये प्रेरित किया ॥ १९ ॥

श्रुत्वा यवनमायान्तं कृष्णः सर्वान् यदूत्तमान् ।
आनाय्य च तथा राममुवाच मधुसूदनः ॥ २० ॥
भयं नोऽत्र समुत्पन्नं जरासन्धान्महाबलात् ।
किं कर्तव्यं महाभाग यवनः समुपैति वै ॥ २१ ॥
कालयवनको आता सुनकर मधुसूदन श्रीकृष्णने सभी प्रसिद्ध यादवों तथा बलरामको बुलाकर कहामहाबलशाली जरासन्धसे हमलोगोंको यहाँ बराबर भय बना हुआ है । [उसीकी प्रेरणासे] कालयवन यहाँ आ रहा है । हे महाभाग ! ऐसी स्थितिमें हमलोगोंको क्या करना चाहिये ? ॥ २०-२१ ॥

प्राणत्राणं प्रकर्तव्यं त्यक्त्वा गेहं बलं धनम् ।
सुखेन स्थीयते यत्र स देशः खलु पैतृकः ॥ २२ ॥
इस समय घर, सेना और धन छोड़कर हमें प्राण बचा लेना चाहिये । जहाँ भी सुखपूर्वक रहनेका प्रबन्ध हो जाय, वही पैतृक देश होता है ॥ २२ ॥

सदोद्वेगकरः कामं किं कर्तव्यः कुलोचितः ।
शैलसागरसान्निध्ये स्थातव्यं सुखमिच्छता ॥ २३ ॥
इसके विपरीत उत्तम कुलके निवास करनेयोग्य पैतृक भूमिमें भी यदि सदा अशान्ति बनी रहती हो तो ऐसे स्थानपर रहनेसे क्या लाभ ? अतः सुखकी कामना करनेवालेको पर्वत या समुद्रके पास निवास कर लेना चाहिये ॥ २३ ॥

यत्र वैरिभयं न स्यात्स्थातव्यं तत्र पण्डितैः ।
शेषशय्यां समाश्रित्य हरिः स्वपिति सागरे ॥ २४ ॥
तथैव च भयाद्‌भीतः कैलासे त्रिपुरार्दनः ।
तस्मान्नात्रैव स्थातव्यमस्माभिः शत्रुतापितैः ॥ २५ ॥
द्वारवत्यां गमिष्यामः सहिताः सर्व एव वै ।
कथिता गरुडेनाद्य रम्या द्वारवती पुरी ॥ २६ ॥
रैवताचलसानिध्ये सिन्धुकूले मनोहरा ।
जिस स्थानपर शत्रुओंका भय नहीं रहता, ऐसे स्थानपर ही विज्ञजनोंको रहना चाहिये । भगवान् विष्णु शेषशय्याका आश्रय लेकर समुद्र में शयन करते हैं और इसी प्रकार त्रिपुरदमन भगवान् शंकर भी कैलासपर्वतपर निवास करते हैं । अतएव शत्रुओंद्वारा निरन्तर सन्तप्त किये गये हमलोगोंको अब यहाँ नहीं रहना चाहिये । अब हम सभी लोग एक साथ द्वारकापुरी चलेंगे । गरुडने मुझसे बताया है कि द्वारकापुरी अत्यन्त रमणीक तथा मनोहर है, जो समुद्रके तटपर तथा रैवतपर्वतके समीप विराजमान है ॥ २४-२६.५ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं तथ्यं सर्वे यादवपुङ्गवाः ॥ २७ ॥
गमनाय मतिं चक्रुः सकुटुम्बाः सवाहनाः ।
शकटानि तथोष्ट्राश्च वाम्यश्च महिषास्तथा ॥ २८ ॥
धनपूर्णानि कृत्वा ते निर्ययुर्नगराद्‌बहिः ।
रामकृष्णौ पुरस्कृत्य सर्वे ते सपरिच्छदाः ॥ २९ ॥
अग्रे कृत्वा प्रजाः सर्वाश्चेलुः सर्वे यदूत्तमाः ।
कतिचिद्दिवसैः प्रापुः पुरीं द्वारवतीं किल ॥ ३० ॥
व्यासजी बोले-श्रीकृष्णकी यह युक्तिपूर्ण बात सुनकर सभी श्रेष्ठ यादवोंने अपने परिवारजनों तथा वाहनोंके साथ जानेका निश्चय कर लिया । गाड़ियों, ऊँटों, घोड़ियों और भैंसोंपर धन-सामग्री लादकर तथा श्रीकृष्ण और बलरामको आगे करके वे सभी यादव श्रेष्ठ अपने परिजनोंको साथ लेकर नगरसे बाहर हो गये । समस्त प्रजाजनोंको आगे-आगे करके सभी श्रेष्ठ यादव चल पड़े । वे सब कुछ ही दिनोंमें द्वारकापुरी पहुँच गये ॥ २७-३० ॥

शिल्पिभिः कारयामास जीर्णोद्धारं हि माधवः ।
संस्थाप्य यादवांस्तत्र तावेतौ बलकेशवौ ॥ ३१ ॥
तरसा मथुरामेत्य संस्थितौ निर्जनां पुरीम् ।
तदा तत्रैव सम्प्राप्तो बलवान् यवनाधिपः ॥ ३२ ॥
ज्ञात्वैनमागतं कृष्णो निर्ययौ नगराद्‌बहिः ।
पदातिरग्रे तस्याभूद्यवनस्य जनार्दनः ॥ ३३ ॥
पीताम्बरधरः श्रीमान्प्राहसन्मधुसूदनः ।
श्रीकृष्णने कुशल शिल्पकारोंसे द्वारकापुरीका जीर्णोद्धार कराया, सभी यादोंको वहाँ बसाकर वे श्रीकृष्ण और बलराम तत्काल मथुरा लौटकर उस निर्जन पुरीमें रहने लगे । उसी समय शक्तिशाली कालयवन भी वहाँ आ गया । कालयवनको आया जानकर वे पीताम्बरधारी तथा ऐश्वर्यसम्पन्न मधुसूदन भगवान् जनार्दन नगरसे बाहर निकल पड़े और जोरजोर हंसते हुए उसके आगे-आगे पैदल ही चलने लगे ॥ ३१-३३.५ ॥

तं दृष्ट्वा पुरतो यान्तं कृष्णं कमललोचनम् ॥ ३४ ॥
यवनोऽपि पदातिः सन्पृष्ठतोऽनुगतः खलः ।
प्रसुप्तो यत्र राजर्षिर्मुचुकुन्दो महाबलः ॥ ३५ ॥
प्रययौ भगवांस्तत्र सकालयवनो हरिः ।
तत्रैवान्तर्दधे विष्णुर्मुचुकुन्दं समीक्ष्य च ॥ ३६ ॥
उन कमललोचन श्रीकृष्णको अपने आगे जाता देखकर वह दुष्ट कालयवन उनके पीछे-पीछे पैदल ही चलता रहा । तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण कालयवनसहित वहाँ पहुँच गये, जहाँ महाबली राजर्षि मुचुकुन्द शयन कर रहे थे । मुचकुन्दको देखकर भगवान् कृष्ण वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३४-३६ ॥

तत्रैव यवनः प्राप्तः सुप्तभूतमपश्यत ।
मत्वा तं वासुदेवं स पादेनाताडयन्नृपम् ॥ ३७ ॥
वह कालयवन भी वहीं पहुँच गया । उसने देखा कि कोई सो रहा है । राजर्षि मुचुकुन्दको कृष्ण समझकर कालयवनने उनके ऊपर पैरसे प्रहार किया ॥ ३७ ॥

प्रबुद्धः क्रोधरक्ताक्षस्तं ददाह महाबलः ।
तं दग्ध्वा मुचुकुन्दोऽथ ददर्श कमलेक्षणम् ॥ ३८ ॥
वासुदेवं सुदेवेशं प्रणम्य प्रस्थितो वनम् ।
जगाम द्वारकां कृष्णो बलदेवसमन्वितः ॥ ३९ ॥
[कालयवनद्वारा पाद-प्रहार किये जानेसे] वे जग गये और क्रोधसे आँखें लाल किये हुए महाबली मुचुकुन्दने [उसकी ओर दृष्टिपात करके] उसे भस्म कर दिया । उसे जलानेके बाद मुचुकुन्दने अपने समक्ष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णको उपस्थित देखा । तदनन्तर देवाधिदेव वासुदेवको प्रणाम करके वे वनकी ओर प्रस्थान कर गये । भगवान् श्रीकृष्ण भी बलरामको साथ लेकर द्वारकापुरी चले गये । ३८-३९ ॥

उग्रसेनं नृपं कृत्वा विजहार यथारुचि ।
अहरद्‌रुक्मिणी कामं शिशुपालस्वयंवरात् ॥ ४० ॥
राक्षसेन विवाहेन चक्रे दारविधिं हरिः ।
ततो जाम्बवतीं सत्यां मित्रविन्दाञ्च भामिनीम् ॥ ४१ ॥
कालिन्दीं लक्षणां भद्रां तथा नाग्नजितीं शुभाम् ।
पृथक्पृथक्समानीयाप्युपयेमे जनार्दनः ॥ ४२ ॥
अष्टावेव महीपाल पत्‍न्यः परमशोभनाः ।
प्रासूत रुक्मिणी पुत्रं प्रद्युम्नं चारुदर्शनम् ॥ ४३ ॥
इस प्रकार उग्रसेनको पुनः राजा बनाकर वे इच्छापूर्वक विहार करने लगे । इसके बाद शिशुपालके साथ रुक्मिणीके सुनिश्चित किये गये विवाहहेतु आयोजित स्वयंवरसे भगवान् श्रीकृष्णने रुक्मिणीका हरण कर लिया और उसके साथ राक्षसविधिसे विवाह कर लिया । तत्पश्चात् जाम्बवती, सत्यभामा, मित्रविन्दा, कालिन्दी, लक्ष्मणा, भद्रा तथा नाग्नजिती-इन दिव्य सुन्दरियोंको बारी-बारीसे ले आकर श्रीकृष्णने उनके साथ भी पाणिग्रहण किया । हे भूपाल ! श्रीकृष्णकी ये ही परम सुन्दर आठ पत्लियाँ थीं । इनमें रुक्मिणीने देखनेमें परम सुन्दर पुत्र प्रद्युम्नको जन्म दिया ॥ ४०-४३ ॥

जातकर्मादिकं तस्य चकार मधुसूदनः ।
हृतोऽसौ सूतिकागेहाच्छम्बरेण बलीयसा ॥ ४४ ॥
नीतश्च स्वपुरीं बालो मायावत्यै समर्पितः ।
मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्णने उस बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये । महाबली शम्बरासुरने प्रसवगृहसे उस बालकका हरण कर लिया और उसे अपनी नगरीमें ले जाकर मायावतीको सौंप दिया ॥ ४४.५ ॥

वासुदेवो हृतं दृष्ट्वा पुत्रं शोकसमन्वितः ॥ ४५ ॥
जगाम शरणं देवीं भक्तियुक्तेन चेतसा ।
वृत्रासुरादयो दैत्या लीलयैव यया हताः ॥ ४६ ॥
उधर, अपने पुत्रका हरण देखकर शोक-सन्तप्त वासुदेव श्रीकृष्णने भक्तिभावयुक्त हृदयसे उन भगवती योगमायाकी शरण ली, जिन्होंने वृत्रासुर आदि दैत्योंका लीलामात्रसे वध कर दिया था ॥ ४५-४६ ॥

ततोऽसौ योगमायायाश्चकार परमां स्मृतिम् ।
वचोभिः परमोदारैरक्षरैः स्तवनैः शुभैः ॥ ४७ ॥
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त सारगर्भित अक्षरों तथा वाक्योंसे युक्त मंगलमय स्तवनोंके द्वारा योगमायाका पुण्य-स्मरण करने लगे ॥ ४७ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
मातर्मयातितपसा परितोषिता त्वं
     प्राग्जन्मनि प्रसुमनादिभिरर्चितासि ।
धर्मात्मजेन बदरीवनखण्डमध्ये
     किं विस्मृतो जननि ते त्वयि भक्तिभावः ॥ ४८ ॥
श्रीकृष्ण बोले-हे माता ! पूर्वकालमें मैंने धर्मपुत्र नारायणके रूपमें बदरिकाश्रममें घोर तपस्या करके तथा पुष्प आदिसे आपकी विधिवत् पूजा करके आपको प्रसन्न किया था । हे जननि ! क्या अपने प्रति मेरे उस भक्तिभावको आपने विस्मृत कर दिया ? ॥ ४८ ॥

सूतीगृहादपहृतः किमु बालको मे
     केनापि दुष्टमनसाप्यथ कौतुकाद्वा ।
मानापहारकरणाय ममाद्य नूनं
     लज्जा तवाम्ब खलु भक्तजनस्य युक्ता ॥ ४९ ॥
किस कुत्सित हृदयवाले दुराचारीने प्रसूतिगृहसे मेरे पुत्रका हरण कर लिया ? अथवा किसीने मेरा अभिमान दूर करनेके लिये कौतूहलवश यह प्रपंच रच दिया है । हे अम्ब ! चाहे जो हो, किंतु आज अपने भक्तजनकी लाज रखना आपका परमोचित कर्तव्य है ॥ ४९ ॥

दुर्गो महानतितरां नगरी सुगुप्ता
     तत्रापि मेऽस्ति सदनं किल मध्यभागे ।
अन्तःपुरे च पिहितं ननु सूतिगेहं
     बालो हृतः खलु तथापि ममैव दोषात् ॥ ५० ॥
चारों ओर दुस्तर खाइयोंसे अति सुरक्षित मेरी नगरी है, उसमें भी मेरा भवन मध्य भागमें स्थित है और उस भवनके अन्तःपुरमें प्रसूतिगृह स्थित है, जिसके दरवाजे बन्द रहते हैं । फिर भी मेरे पुत्रका हरण हो गया । यह तो मेरे दोषके ही कारण हुआ ॥ ५० ॥

नाहं गतः परपुरं न च यादवाश्च
     रक्षावतीव नगरी किल वीरवर्यैः ।
माया तवैव जननि प्रकटप्रभावा
     मे बालकः परिहृतः कुहकेन केन ॥ ५१ ॥
मैं द्वारकापुरी छोड़कर किसी अन्य नगरमें नहीं गया और यादवगण भी वहाँसे कहीं नहीं गये थे । महान् वीरोंके द्वारा नगरीकी पूर्ण सुरक्षा की गयी थी । हे माता ! इसमें तो मुझे आपकी ही मायाका प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित हो रहा है, जिसकी प्रेरणासे किसी मायावीने मेरे पुत्रका हरण कर लिया है ॥ ५१ ॥

नो वेद्म्यहं जननि ते चरितं सुगुप्तं
     को वेद मन्दमतिरल्पविदेव देही ।
क्वासौ गतो मम भटैर्न च वीक्षितो वा
     हर्ताम्बिके जवनिका तव कल्पितेयम् ॥ ५२ ॥
हे माता ! जब मैं आपके अत्यन्त गुप्त चरित्रको नहीं जान पाया तो फिर मन्दबुद्धि तथा अल्पज्ञ ऐसा कौन प्राणी होगा, जो आपके चरित्रको जान सकता है । मेरे पुत्रका हरण करनेवाला कहाँ चला गया, जिसे मेरे सैनिक देखतक नहीं पाये, हे अम्बिके ! यह आपकी ही रची हुई मायाका प्रभाव है ॥ ५२ ॥

चित्रं न तेऽत्र पुरतो मम मातृगर्भो
     नीतस्त्वयार्धसमये किल माययासौ ।
यं रोहिणी हलधरं सुषुवे प्रसिद्धं
     दूरे स्थिता पतिपरा मिथुनं विनापि ॥ ५३ ॥
आपके लिये यह कोई विचित्र बात नहीं हैं: क्योंकि मेरे प्रकट होनेके पूर्व आपने अपनी मायाके प्रभावसे माता देवकीके पाँच महीनेके गर्भको खींचकर [माता रोहिणीके गर्भमें] स्थापित कर दिया था । वसुदेवजी कारागारमें निरुद्ध थे; उनसे दूर रहती हुई पतिपरायणा माता रोहिणीने सम्पर्कके बिना ही उसे जन्म दिया, जो हलधर नामसे प्रसिद्ध हुआ ॥ ५३ ॥

सृष्टिं करोषि जगतामनुपालनं च
     नाशं तथैव पुनरप्यनिशं गुणैस्त्वम् ।
को वेद तेऽम्ब चरितं दुरितान्तकारि
     प्रायेण सर्वमखिलं विहितं त्वयैतत् ॥ ५४ ॥
हे अम्ब ! आप सत्त्व, रज तथा तम-इन तीनों गुणोंके द्वारा जगत्का सृजन, पालन तथा संहार निरन्तर करती रहती हैं । हे जननि ! आपके पापनाशक चरित्रको कौन जान सकता है ? वास्तविकता तो यह है कि यह सम्पूर्ण जगत्प्रपंच आपके ही द्वारा विरचित है ॥ ५४ ॥

उत्पाद्य पुत्रजननप्रभवं प्रमोदं
     दत्त्वा पुनर्विरहजं किल दुःखभारम् ।
त्वं क्रीडसे सुललितैः खलु तैर्विहारै-
     र्नो चेत्कथं मम सुताप्तिरतिर्वृथा स्यात् ॥ ५५ ॥
आप पहले प्राणियोंके समक्ष पुत्र-जन्मसे होनेवाले असीम आनन्दको उपस्थित करके पुनः पुत्र-वियोगजनित दुःखका भार उनके ऊपर ला देती हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि उन सुललित प्रपंचोंकी रचना करके आप अपना मनोरंजन करती हैं । यदि ऐसा न होता तो पुत्रप्राप्तिजनित मेरा आनन्द व्यर्थ क्यों होता ? ॥ ५५ ॥

मातास्य रोदिति भृशं कुररीव बाला
     दुःखं तनोति मम सन्निधिगा सदैव ।
कष्टं न वेत्सि ललितेऽप्रमितप्रभावे
     मातस्त्वमेव शरणं भवपीडितानाम् ॥ ५६ ॥
हे अमित प्रभाववाली भगवति ! इस बालककी माता कररी पक्षीकी भाँति रो रही है । वह बेचारी सदा मेरे पास ही रहती है, जिसे देखकर मेरा दुःख और भी बढ़ जाता है । हे माता ! आप ही तो भवव्याधिसे पीड़ित प्राणियोंकी एकमात्र शरण हैं; हे ललिते ! आप उसका दुःख क्यों नहीं समझ रही हैं ? ॥ ५६ ॥

सीमा सुखस्य सुतजन्म तदीयनाशो
     दुःखस्य देवि भवने विबुधा वदन्ति ।
तत्किं करोमि जननि प्रथमे प्रनष्टे
     पुत्रे ममाद्य हृदयं स्फुटतीव मातः ॥ ५७ ॥
हे देवि ! विद्वज्जन कहते हैं कि पुत्र-जन्मके अवसरपर सुखकी कोई सीमा नहीं रहती तथा उसके नष्ट हो जानेपर दुःखकी भी सीमा नहीं रहती । हे जननि ! अब मैं क्या करूँ ? हे माता ! अपने प्रथम पुत्रके विनष्ट हो जानेपर मेरा हृदय अब विदीर्ण होता जा रहा है ॥ ५७ ॥

यज्ञं करोमि तव तुष्टिकरं व्रतं वा
     दैवं च पूजनमथाखिलदुःखहा त्वम् ।
मातः सुतोऽत्र यदि जीवति दर्शयाशु
     त्वं वै क्षमा सकलशोकविनाशनाय ॥ ५८ ॥
मैं आपको प्रसन्न करनेवाला अम्बायज्ञ करूँगा, नवरात्रव्रत करूँगा और विधि-विधानसे आपका पूजन करूँगा; क्योंकि आप सम्पूर्ण दु:खोंका नाश करनेवाली हैं । हे माता ! यदि मेरा पुत्र जीवित हो तो आप मुझे शीघ्र उसे दिखा दीजिये; क्योंकि आप समस्त प्रकारके शोकोंका शमन करने में समर्थ हैं ॥ ५८ ॥

व्यास उवाच
एवं स्तुता तदा देवी कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा ।
प्रत्यक्षदर्शना भूत्वा तमुवाच जगद्‌गुरुम् ॥ ५९ ॥
व्यासजी बोले-असाध्य-से-असाध्य कार्योंको भी सहज भावसे कर सकनेमें समर्थ भगवान् श्रीकृष्णके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती उन जगद्गुरु वासुदेवके सामने प्रत्यक्ष प्रकट होकर बोलीं- ॥ ५९ ॥

श्रीदेव्युवाच
शोकं मा कुरु देवेश शापोऽयं ते पुरातनः ।
तस्य योगेन पुत्रस्ते शम्बरेण हृतो बलात् ॥ ६० ॥
श्रीदेवी बोलीं-हे देवेश ! आप शोक न करें । यह आपका पूर्वजन्मका शाप है; उसीके परिणामस्वरूप शम्बरासुरने आपके पुत्रका बलपूर्वक हरण कर लिया है ॥ ६० ॥

अतस्ते षोडशे वर्षे हत्वा तं शम्बरं बलात् ।
आगमिष्यति पुत्रस्ते मत्प्रसादान्न संशयः ॥ ६१ ॥
सोलह वर्षका हो जानेपर वह पुत्र मेरी कृपासे उस शम्बरासुरका संहार करके स्वयं ही घर आ जायगा; इसमें सन्देह नहीं है । ६१ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी चण्डिका चण्डविक्रमा ।
भगवानपि पुत्रस्य शोकं त्यक्त्वाभवत्सुखी ॥ ६२ ॥
व्यासजी बोले-ऐसा कहकर प्रचण्ड पराक्रमसे सम्पन्न भगवती चण्डिका अन्तर्धान हो गयीं और भगवान् श्रीकृष्ण भी पुत्र-शोक त्यागकर प्रसन्न हो गये ॥ ६२ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे देव्या कृष्णशोकापनोदनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
अध्याय चोबीसवाँ समाप्त ॥ २४ ॥


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