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शङ्करशरणगमनवर्णनम् -
महिषासुरको अवध्य जानकर त्रिदेवोंका अपने-अपने लोक लौट जाना, देवताओंकी पराजय तथा महिषासुरका स्वर्गपर आधिपत्य, इन्द्रका ब्रह्मा और शिवजीके साथ विष्णुलोकके लिये प्रस्थान -
व्यास उवाच असुरान्महिषो दृष्ट्वा विषण्णमनसस्तदा । त्यक्त्वा तन्माहिषं रूपं बभूव मृगराडसौ ॥ १ ॥
व्यासजी बोले-[हे महाराज जनमेजय ! महिषासुरने समस्त दानवोंको खिन्नमनस्क देखकर महिषका वह रूप छोड़कर तत्काल सिंहका रूप धारण कर लिया ॥ १ ॥
कृत्वा नादं महाघोरं विस्तार्य च महासटाम् । पपात सुरसेनायां त्रासयन्नखदर्शनैः ॥ २ ॥
तत्पश्चात् भयानक गर्जन करके गर्दनके बाल (अयाल) फैलाकर अपने तीक्ष्ण नख दिखाकर देवताओंको भयभीत करता हुआ वह देवसेनापर टूट पड़ा ॥ २ ॥
गरुडञ्च नखाघातैः कृत्वा रुधिरविप्लुतम् । जघान च भुजे विष्णुं नखाघातेन केसरी ॥ ३ ॥
उसने गरुडके ऊपर अपने नाखूनोंसे आघात करके उन्हें रक्तसे लथपथ कर दिया । पुनः सिंहरूपधारी उस दानवने विष्णुको भुजापर अपने नखोंसे प्रहार किया । ॥ ३ ॥
भगवान् विष्णुने उस महिषासुरपर ज्यों ही अपने चक्रसे तेज प्रहार किया त्यों ही वह महान् शक्तिशाली महिषका रूप धारणकर भगवान् विष्णुको अपनी सींगोंसे मारने लगा ॥ ५ ॥
वक्षःस्थलपर सींगके आघातसे व्याकुल होकर भगवान् विष्णु बड़े वेगसे भागकर अपने लोक चले गये । विष्णुको पलायित देखकर शंकरजी भी बहुत भयभीत हो गये और उसे सर्वथा अवध्य मानकर कैलासपर्वतपर चले गये । ब्रह्माजी भी उसके डरसे तत्काल अपने लोक चले गये ॥ ६-७.५ ॥
महाबली इन्द्र वज्र धारण किये हुए समरांगणमें डटे रहे । वरुणदेव अपना पाशास्त्र लेकर धैर्यपूर्वक खड़े रहे । यमराज अपना दण्ड धारण किये युद्ध करनेके लिये सावधान होकर खड़े थे । यक्षाधिपति कुवेर युद्ध करनेके लिये पूर्णरूपसे उद्यत थे और अग्निदेव बछी लेकर युद्ध करनेके विचारसे स्थित थे । नक्षत्रोंके नायक चन्द्रमा तथा भगवान् सूर्य-दोनों एक साथ युद्ध करने के लिये खड़े हो गये और उस दानवश्रेष्ठ महिषासुरको देखकर उन्होंने युद्ध करनेका निश्चय कर लिया ॥ ८-११ ॥
एतस्मिन्नन्तरे क्रुद्धं दैत्यसैन्यं समभ्यगात् । विसृजन्बाणजालानि क्रूराहिसदृशानि च ॥ १२ ॥
इतनेमें क्रूर सौके समान बाण-समूहोंकी वर्षा करती हुई क्रुद्ध दानवी सेना वहाँ आ गयी ॥ १२ ॥
कृत्वा हि माहिषं रूपं भूपतिः संस्थितस्तदा । देवदानवयोधानां निनादस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥
वह दानवराज महिषका रूप धारण करके खड़ा था । उस समय देवता तथा असुर-पक्षके योद्धाओंका भीषण गर्जन होने लगा ॥ १३ ॥
ज्याघातश्च तलाघातो मेघनादसमोऽभवत् । संग्रामे सुमहाघोरे देवदानवसेनयोः ॥ १४ ॥
देवताओं तथा दानवोंके बीच हो रहे महाभयानक संग्राममें धनुषकी टंकार तथा ताल ठोंकनेकी ध्वनि मेघ-गर्जना जैसी प्रतीत हो रही थी ॥ १४ ॥
शृङ्गाभ्यां पार्वताञ्छृङ्गांश्चिक्षेप च महाबलः । जघान सुरसङ्घांश्च दानवो मदगर्वितः ॥ १५ ॥
अभिमानमें चूर महाबली दैत्य महिषासुर अपनी सींगोंसे पर्वत-शिखर फेंक-फेंककर देवसमूहपर प्रहार कर रहा था ॥ १५ ॥
खुराघातैस्तथा देवान्पुच्छस्य भ्रमणेन च । स जघान रुषाविष्टो महिषः परमाद्भुतः ॥ १६ ॥
क्रोधमें भरे हुए उस परम अद्भुत महिषासुरने अपने खुरोंके आघातसे तथा पूँछ घुमाकर बहुत-से देवताओंपर प्रहार किया ॥ १६ ॥
महिषासुर भी अपनी जीत मानकर अपने घर चला गया । इन्द्रके भाग जानेके बाद उनके द्वारा त्यक्त ऐरावत हाथी, सूर्यका उच्चैःश्रवा घोड़ा तथा दूध देनेवाली कामधेनु गौको उसने हस्तगत कर लिया । तत्पश्चात् उसने शीघ्र ही सेनाको साथमें लेकर स्वर्ग जानेका मनमें निश्चय किया ॥ १९-२० ॥
तरसा देवसदनं गत्वा स महिषासुरः । जग्राह सुरराज्यं वै त्यक्तं देवैर्भयातुरैः ॥ २१ ॥
इसके बाद शीघ्र ही देवलोक पहुँचकर महिषासुरने भयाक्रान्त देवताओंके द्वारा पहलेसे ही छोड़ दिये गये उनके राज्यपर आधिपत्य कर लिया ॥ २१ ॥
इन्द्रासने तथा रम्ये दानवः समुपाविशत् । दानवान्स्थापयामास देवानां स्थानकेषु सः ॥ २२ ॥
इसके बाद उस रमणीय इन्द्रासनपर महिषासुर आसीन हुआ और उसने राज्य संचालनार्थ देवताओंके स्थानपर दानवोंको स्थापित कर दिया ॥ २२ ॥
एवं वर्षशतं पूर्णं कृत्वा युद्धं सुदारुणम् । अवापैन्द्रपदं कामं दानवो मदगर्वितः ॥ २३ ॥
इस प्रकार पूरे सौ वर्षतक भीषण युद्ध करके अभिमानमें चूर उस दैत्यने इन्द्रपद प्राप्त किया ॥ २३ ॥
निर्जरा निर्गता नाकात्तेन सर्वेऽतिपीडिताः । एवं बहूनि वर्षाणि बभ्रमुर्गिरिगह्वरे ॥ २४ ॥
सभी देवता उस महिषासुरसे प्रताड़ित होकर स्वर्गसे निकल गये और बहुत वर्षांतक पर्वतकी गुफाओंमें घूमते-फिरते रहे ॥ २४ ॥
हे राजन् ! तब थके हुए सभी देवतागण ब्रह्माजीकी शरणमें गये । उस महिषासुरके भयसे त्रस्त वे सभी देवता समस्त वेद-वेदांगोंके पारगामी विद्वान्, शान्त स्वभाववाले और स्वयं ब्रह्माके मनसे उत्पन्न मरीचि आदि प्रमुख मुनियों एवं सिद्धों, किन्नरों, गन्धर्वो, चारणों, उरगों तथा पन्नोद्वारा निरन्तर सेवित, रजोगुणसे सम्पन्न, चार मुखवाले, जगन्नाथ, प्रजापति, वेदगर्भ, कमलके आसनपर विराजमान तथा समस्त संसारके गुरु देवाधिदेव ब्रह्माजीकी स्तुति करने लगे ॥ २५-२७ ॥
देवा ऊचुः धातः किमेतदखिलार्तिहराम्बुजन्म जन्माभिवीक्ष्य न दयां कुरुषे सुरान् यत् । सम्पीडितान् रणजितानसुराधिपेन स्थानच्युतान् गिरिगुहाकृतसन्निवासान् ॥ २८ ॥
देवता बोले-हे सम्पूर्ण दु:ख दूर करनेवाले पायोनि ब्रह्माजी ! इस समय सभी देवता संग्राममें दानवेन्द्र महिषासुरसे पराजित होकर गिरि-कन्दराओंमें कालक्षेप कर रहे हैं । स्थानच्युत हो जानेके कारण उन्हें महान् कष्ट उठाना पड़ रहा है । हमारी ऐसी दशा देखकर भी क्या आपको दया नहीं आती, यह कैसी विचित्र बात है ! ॥ २८ ॥
क्या निर्लोभी पिता सैकड़ों अपराधोंसे युक्त अपने पुत्रोंको त्यागकर उन्हें कष्टमें पड़े रहना देख सकता है ? तब फिर दैत्योंद्वारा सताये गये असहाय देवताओंकी, जो आपके चरणकमलकी भक्तिमें लगे रहते हैं, उपेक्षा आज आप क्यों कर रहे हैं ? ॥ २९ ॥
[दुष्ट] महिषासुर देवलोकका साम्राज्य भोग रहा है । ब्राह्मणोंद्वारा यज्ञमें दी हुई पवित्र हविको वह स्वयं ले लेता है । वह दुष्टात्मा असुर स्वर्गके पारिजातपुष्पोंको अपने उपभोगमें लाता है तथा समुद्रकी निधिस्वरूपा उस कामधेनु गौका भी उपयोग कर रहा है ॥ ३० ॥
किं वा गृणीमः सुरकार्यमद्भुतं जानासि देवेश सुरारिचेष्टितम् । ज्ञानेन सर्वं त्वमशेषकार्यवि- त्तस्मात्प्रभो ते प्रणताः स्म पादयोः ॥ ३१ ॥
हे देवेश ! हमलोग देवताओंकी विषम स्थितिका वर्णन कहाँतक करें ? आप तो अपने ज्ञानसे दैत्योंकी सारी कुचेष्टा जानते हैं; आप सम्पूर्ण कार्योको जाननेवाले हैं । अतः हे प्रभो ! हम सभी देवता आपके चरणोंमें आ पड़े हैं ॥ ३१ ॥
हे देवेश ! देवता जहाँ कहीं भी जाते हैं [वहीं पहुँचकर विविध चरित्रोंवाला, पापमय विचारोंवाला तथा दुष्ट आचरणवाला वह महिषासुर उन्हें पीड़ित करने लगता है । हे विभो ! अब आप ही हमारे रक्षक हैं; हमारा कल्याण कीजिये ॥ ३२ ॥
। यदि आप हमारी रक्षा नहीं करेंगे तो दैत्योंके भीषण अत्याचाररूपी दावानलसे पीड़ित हमलोग आप सदृश शान्तिदाता, अनन्त तेजस्वी, प्रजापति, देवताओंके पूज्य, आदिपिता तथा कल्याणकारी प्रभुको छोड़कर किसकी शरणमें जायें ? ॥ ३३ ॥
व्यासजी बोले-इस प्रकार स्तुति करके सम्पूर्ण देवता हाथ जोड़कर प्रजापति ब्रह्माको प्रणाम करने लगे । उन सबके मुखपर अत्यन्त उदासी छायी हुई थी । तब उन्हें इस प्रकार दुःखी देखकर लोकपितामह ब्रह्माजी उन्हें सुख पहुँचाते हुए मधुर वाणीमें कहने लगे- ॥ ३४-३५ ॥
ब्रह्मोवाच किं करोमि सुराः कामं दानवो वरदर्पितः । स्त्रीवध्योऽसौ न पुंवध्यो विधेयं तत्र किं पुनः ॥ ३६ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे देवताओ ! मैं क्या करूँ ? वर पानेके कारण वह दैत्य अभिमानी हो गया है । उसका वध कोई स्त्री ही कर सकती है, पुरुष नहीं । ऐसी परिस्थितिमें मैं क्या कर सकता हूँ ? ॥ ३६ ॥
हे देवताओ ! हम सबलोग पर्वतश्रेष्ठ कैलासपर चलें । [वहाँ विराजमान] सम्पूर्ण कर्मोक ज्ञाता भगवान् शंकरको आगे करके वहाँसे वैकुण्ठधामको चलें, जहाँ भगवान् विष्णु रहते हैं । उनसे मिलकर हमलोग देवताओंके कार्यके विषयमें विशेषरूपसे विचार करेंगे ॥ ३७-३८ ॥
शिवजी वहाँ सभी देवताओंको पृथक्-पृथक आसन देकर सबके यथास्थान बैठ जानेपर स्वयं भी अपने आसनपर बैठ गये । तब ब्रह्माजीसे कुशल-प्रश्न करके भगवान् शिवने देवताओंसे कैलास आनेका कारण पूछा ॥ ४२-४३ ॥
शिव उवाच किमत्रागमनं ब्रह्मन् कृतं देवैः सवासवैः । भवता च महाभाग ब्रूहि तत्कारणं किल ॥ ४४ ॥
शिवजी बोले-हे ब्रह्मन् ! इन्द्र आदि देवताओंके साथ आपके यहाँ आनेका क्या प्रयोजन है ? हे महाभाग ! वह कारण अवश्य बताइये ॥ ४४ ॥
ब्रह्माजी बोले-हे सुरेशान ! महिषासुर स्वर्गमें रहनेवाले इन्द्रादि देवताओंको महान् कष्ट दे रहा है और उसके भयसे त्रस्त होकर ये देवगण पर्वतोंकी कन्दराओंमें घूम रहे हैं ॥ ४५ ॥
महिषासुर यज्ञ-भाग स्वयं ग्रहण कर रहा है । अन्य अनेक दैत्य भी देवताओंके शत्रु बन गये हैं । उन सबसे पीड़ित होकर ये सभी लोकपाल आपकी शरणमें आये हुए हैं । हे शम्भो ! इसी गुरुतर कार्यके लिये मैंने इन देवताओंको आपके भवनपर पहुँचा दिया है । अतः हे सुरेश्वर ! अब इनके कार्यके विषयमें जो उचित जान पड़े, वह आप करें । हे भूतभावन ! सम्पूर्ण देवताओंका भार अब आपपर है । ४६-४७.५ ॥
व्यास उवाच इति तद्वचनं श्रुत्वा शङ्करः प्रहसन्निव ॥ ४८ ॥ वचनं श्लक्ष्णया वाचा प्रोवाच पद्मजं प्रति ।
व्यासजी बोले-ब्रह्माजीका यह वचन सुनकर भगवान् शंकर मुसकराते हुए कोमल वाणीमें ब्रह्माजीसे यह वचन कहने लगे- ॥ ४८.५ ॥
शिवजी बोले-हे विभो ! आपने ही तो पूर्वकालमें [महिषासुरको] वरदान देकर देवताओंके लिये ऐसा अनर्थकारी कार्य किया है । अब इसके बाद हमें क्या करना चाहिये ? [आपके वरके प्रभावसे ही] वह इतना बली, पराक्रमी तथा सभी देवताओंके लिये भयदायक हो गया है ॥ ४९-५० ॥
का समर्था वरा नारी तं हन्तुं मददर्पितम् । न मे भार्या न ते भार्या संग्रामं गन्तुमर्हति ॥ ५१ ॥ गत्वैव ते महाभागे युयुधाते कथं पुनः । इन्द्राणी च महाभागा न युद्धकुशलास्ति हि ॥ ५२ ॥ कान्या हन्तुं समर्थास्ति तं पापं मददर्पितम् ।
अभिमानमें चूर रहनेवाले उस दानवको मारनेमें कौन श्रेष्ठ स्त्री समर्थ हो सकती है ? न तो मेरी भार्या 'रुद्राणी' और न आपकी भार्या ब्रह्माणी' ही संग्राममें जानेयोग्य हैं । महाभाग्यवती ये देवियाँ संग्रामभूमिमें जाकर भी भला युद्ध किस प्रकार करेंगी ? इन्द्रकी पत्नी महाभागा इन्द्राणी भी युद्धकलामें कुशल नहीं हैं । तब दूसरी कौन-सी देवांगना उस मदोन्मत्त पापीको मारने में समर्थ है ? ॥ ५१-५२.५ ॥
अतः मेरा तो यह विचार है कि हमलोग इसी समय भगवान् विष्णुके पास चलकर और उनकी स्तुति करके देवताओंका कार्य करनेके लिये उन्हींको शीघ्रतापूर्वक प्रेरित करें । परम बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ वे विष्ण सम्पूर्ण कार्योको सिद्ध करनेमें कुशल हैं । उन्हीं वासुदेवसे मिलकर इस कार्यके सम्बन्धमें विचार करना चाहिये । वे किसी प्रपंच अथवा बुद्धिसे कार्य सिद्ध होनेका उपाय बना देंगे ॥ ५३-५५ ॥
व्यासजी बोले-भगवान् शंकरकी यह बात सुनकर ब्रह्मा आदि समस्त श्रेष्ठ देवता 'यह ठीक है'-ऐसा कहकर उठ खड़े हुए और वे सब अपनेअपने वाहनोंपर सवार हो शिवजीके साथ तुरन्त वैकुण्ठकी ओर चल दिये । उस समय कार्यसिद्धिके सूचक अनेक शुभ शकुन देखकर वे सब अत्यन्त प्रसन्न हुए । शुभ सूचना देनेवाली शीतल, मन्द तथा सुगन्धित हवाएँ चलने लगी और पवित्र पक्षी सर्वत्र मार्गमें मंगलमयी बोली बोलने लगे । आकाश निर्मल हो गया और दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं । इस प्रकार देवताओंकी यात्रामें मानो सब मंगल ही मंगल हो गया ॥ ५६-५९ ॥
इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे पराजितदेवतानां शङ्करशरणगमनवर्णनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥