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श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
पञ्चमः स्कन्धः
अष्टमोऽध्यायः

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देव्याः स्वरूपोद्‌भववर्णनम् -
ब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओंके शरीरसे तेज:पुंजका निकलना और उस तेजोराशिसे भगवतीका प्राकट्य -


व्यास उवाच
तरसा तेऽथ सम्प्राप्य वैकुण्ठं विष्णुवल्लभम् ।
ददृशुः सर्वशोभाढ्यं दिव्यसद्मविराजितम् ॥ १ ॥
सरोवापीसरिद्‌भिश्च संयुतं सुखदं शुभम् ।
हंससारसचक्राह्वैः कूजद्‌भिश्च विराजितम् ॥ २ ॥
चम्पकाशोककह्लारमन्दारबकुलावृतैः ।
मल्लिकातिलकाम्रातयुतैः कुरबकादिभिः ॥ ३ ॥
कोकिलारावसन्नादैः शिखण्डैर्नृत्यरञ्जितैः ।
भ्रमरारावरम्यैश्च दिव्यैरुपवनैर्युतम्॥ ४ ॥
सुनन्दनन्दनाद्यैश्च पार्षदैर्भक्तितत्परैः ।
संस्तुवद्‌भिर्युतं भक्तैरनन्यभववृत्तिभिः ॥ ५ ॥
प्रासादै रत्‍नखचितैः काञ्चनैश्चित्रमण्डितैः ।
अभ्रंलिहैर्विराजद्‌भिः संयुतं शुभसद्मकैः ॥ ६ ॥
गायद्‌भिर्देवगन्धर्वैर्नृत्यद्‌भिरप्सरोगणैः ।
रञ्जितं किन्नरैः शश्वद्‌रक्तकण्ठेर्मनोहरैः ॥ ७ ॥
मुनिभिश्च तथा शान्तैर्वेदपाठकृतादरैः ।
स्तुवद्‌भिः श्रुतिसूक्तैश्च मण्डितं सदनं हरेः ॥ ८ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! उन देवताओंने शीघ्रतापूर्वक भगवान विष्णुके प्रिय धाम वैकुण्ठमें पहुँचकर वहाँ उन श्रीहरिका विशाल सदन देखा, जो सम्पूर्ण शोभाओंसे युक्त तथा दिव्य महलोंसे सुशोभित था । सुन्दर तथा सुखदायक वह भवन सरोवर, बावली एवं नदियोंसे सुशोभित था, जिनमें हंस, सारस, चक्रवाक आदि पक्षी कलरव कर रहे थे । उस भवनके चारों और सुशोभित हो रहे दिव्य उपवनोंमें चम्पा, अशोक, कहार, मन्दार, मौलसिरी, मालती, तिलक, आमड़ा और कुरबक आदि विविध प्रकारके वृक्ष लगे हुए थे । उपवनोंमें चारों ओर कोयलोंकी कूक सुनायी दे रही थी, मोर नृत्य कर रहे थे और भौरे गुंजार कर रहे थे । नन्द-सुनन्द आदि भक्तिपरायण पार्षद तथा त्याग-वृत्तिसम्पन्न अनन्य भक्त भगवान् विष्णुकी स्तुति कर रहे थे । वहाँ रत्नजटित महल बने हुए थे, जिनपर सुनहरे चित्र बने हुए थे; सुन्दर-सुन्दर कक्षोंसे सुशोभित वे महल ऊँचाईमें आकाशको छू रहे थे । वहाँ देवता और गन्धर्व गा रहे थे, अप्सराएँ नाच रही थीं और वह मनको मुग्ध करनेवाले तथा मधुर कण्ठध्वनिवाले किन्नरोंसे मण्डित था । वैदिक सूक्तोंके द्वारा आदरपूर्वक भगवान् विष्णुकी स्तुति करते हुए शान्त स्वभाववाले वेदपाठपरायण मुनियोंसे वह भवन अत्यन्त सुशोभित हो रहा था ॥ १-८ ॥

ते च विष्णुगृहं प्राप्य द्वारपालौ शुभाकृती ।
वीक्ष्योचुर्जयविजयौ हेमयष्टिधरौ स्थितौ ॥ ९ ॥
गत्वैकोऽप्युभयोर्मध्ये निवेदयतु सङ्गतान् ।
द्वारस्थान् ब्रह्मरुद्रादीन्विष्णुदर्शनलालसान् ॥ १० ॥
भगवान् विष्णुके भवनपर पहुँचकर देवताओंने सुन्दर स्वरूपवाले तथा हाथमें स्वर्णकी छड़ी धारण किये हुए जय-विजय नामक द्वारपालोंको देखकर उनसे कहा कि आप दोनोंमेंसे कोई एक जाकर भगवान् विष्णुसे कह दे कि आपके दर्शनकी अभिलाषासे ब्रह्मा, रुद्र आदि देवता द्वारपर खड़े हैं ॥ ९-१० ॥

व्यास उवाच
विजयस्तद्वचः श्रुत्वा गत्वाथ विष्णुसन्निधौ ।
सर्वान्समागतान्देवान्प्रणम्योवाच सत्वरः ॥ ११ ॥
व्यासजी बोले-उनकी बात सुनकर विजयने तुरन्त भगवान् विष्णुके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके सभी देवताओंके आगमनकी बात उनको बतायी ॥ ११ ॥

विजय उवाच
देवदेव महाराज रमाकान्त सुरारिहन् ।
समागताः सुराः सर्वे द्वारि तिष्ठन्ति वै विभो ॥ १२ ॥
ब्रह्मा रुद्रस्तथेन्द्रश्च वरुणः पावको यमः ।
स्तुवन्ति वेदवाक्यैस्त्वाममरा दर्शनार्थिनः ॥ १३ ॥
विजयने कहा-हे देवाधिदेव ! हे महाराज ! हे दैत्योंका दमन करनेवाले लक्ष्मीकान्त ! हे विभो ! इस समय सभी देवता आये हुए हैं और वे द्वारपर खड़े हैं । आपके दर्शनके इच्छुक ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, वरुण, अग्नि, यम आदि देवता वेदवाक्योंसे आपकी स्तुति कर रहे हैं ॥ १२-१३ ॥

व्यास उवाच
तच्छ्रुत्वा वचनं विष्णर्विजयस्य रमापतिः ।
निर्जगाम गृहात्तूर्णं सुरान्समधिकोत्सवः ॥ १४ ॥
व्यासजी बोले-लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु विजयकी बात सुनकर देवोंसे मिलनेहेतु अत्यधिक उत्साहित होकर शीघ्रतापूर्वक अपने भवनसे बाहर निकल आये ॥ १४ ॥

गत्वा वीक्ष्य हरिर्देवान्द्वारस्थाञ्छ्रमकर्शितान् ।
प्रीतिप्रवणया दृष्ट्या प्रीणयामास दुःखितान् ॥ १५ ॥
वहाँ जाकर भगवान् विष्णुने द्वारपर स्थित उन देवताओंको थकानसे व्याकुल तथा दुःखित देखकर अपनी प्रेमभरी दृष्टिसे उन्हें आनन्दित किया ॥ १५ ॥

प्रणेमुस्ते सुराः सर्वे देवदेवं जनार्दनम् ।
तुष्टुवुश्च सुरारिघ्नं वाग्भिर्वेदविनिश्चितम् ॥ १६ ॥
उन सभी देवताओंने दैत्योंका संहार करनेवाले तथा वेदोंके द्वारा सुनिश्चित किये गये (तत्त्वस्वरूप) देवाधिदेव भगवान् विष्णुको प्रणाम किया और मधुर वाणीमें उनकी स्तुति की ॥ १६ ॥

देवा ऊचुः
देवदेव जगन्नाथ सृष्टिस्थित्यन्तकारक ।
दयासिन्धो महाराज त्राहि नः शरणागतान् ॥ १७ ॥
देवता बोले-हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले ! हे दयासिन्धी हे महाराज ! हम शरणागतोंकी रक्षा कीजिये ॥ १७ ॥

विष्णुरुवाच
विशन्तु निर्जराः सर्वे कुशलं कथयन्तु वः ।
आसनेषु किमर्थं वै मिलिताः समुपागताः ॥ १८ ॥
चिन्तातुराः कथं जाता विषण्णा दीनमानसाः ।
ब्रह्मरुद्रेण सहिताः कार्यं प्रब्रूत सत्वरम् ॥ १९ ॥
विष्णु बोले-हे देवताओ ! आप सभी लोग आसनोंपर बैठ जाइये और फिर अपना कुशल-क्षेम बताइये । आपलोग एक साथ मिलकर यहाँ किसलिये आये हुए हैं ? ब्रह्मा तथा शिवसहित आप सभी देवता चिन्तामग्न, दुःखित और उदास क्यों हो गये हैं ? आपलोग अपना प्रयोजन शीघ्र बताएँ ॥ १८-१९ ॥

देवा ऊचुः
महिषेण महाराज पीडिताः पापकर्मणा ।
असाध्येनातिदुष्टेन वरदृप्तेन पापिना ॥ २० ॥
देवता बोले-हे महाराज ! पापकर्ममें संलग्न, अजेय, महादुष्ट, वरदान पाकर अभिमानमें चूर तथा पापी महिषासुरसे हमलोग पीड़ित हैं ॥ २० ॥

यज्ञभागानसौ भुंक्ते ब्राह्मणैः प्रतिपादितान् ।
अमरा गिरिदुर्गेषु भ्रमन्ति च भयातुराः ॥ २१ ॥
ब्राह्मणोंद्वारा देवताओंको दिये गये यज्ञभागोंको वह स्वयं ग्रहण कर लेता है । हम सभी देवता उससे भयभीत होकर पर्वतोंकी कन्दराओंमें भटकते फिरते हैं ॥ २१ ॥

वरदानेन धातुः स दुर्जयो मधुसूदन ।
तस्मात्त्वां शरणं प्राप्ता ज्ञात्वा तत्कार्यगौरवम् ॥ २२ ॥
समर्थोऽसि समुद्धर्तुं दैत्यमायाविशारद ।
कुरु कृष्ण वधोपायं तस्य दानवमर्दन ॥ २३ ॥
हे मधुसूदन ! ब्रह्माजीके वरदानसे वह अजेय बन गया है, अतः इस कार्यको अत्यन्त गुरुतर जानकर हमलोग आपकी शरणमें आये हैं । दानवोंकी मायाको जाननेवाले तथा दानवोंका वध करनेवाले हे कृष्ण ! आप ही देवताओंका उद्धार करनेमें समर्थ हैं, अतः उसके वधका कोई उपाय कीजिये ॥ २२-२३ ॥

धात्रा तस्मै वरो दत्तो ह्यवध्योऽसि नरैः किल ।
का स्त्री त्वेवंविधा बाला या हन्यात्तं शठं रणे ॥ २४ ॥
विधाताने उसे वर दे दिया है कि तुम पुरुषमात्रसे सदा अवध्य रहोगे । तब ऐसी कौन स्त्री होगी जो रणमें उस शठको मार सके ? ॥ २४ ॥

उमा मा वा शची विद्या का समर्थास्य घातने ।
महिषस्यातिदुष्टस्य वरदानबलादपि ॥ २५ ॥
विचिन्त्य बुद्ध्या यत्सर्वं मरणस्यास्य कारणम् ।
कुरु कार्यं च देवानां भक्तवत्सल भूधर ॥ २६ ॥
क्या भगवती पार्वती, लक्ष्मी, इन्द्राणी अथवा सरस्वती भी इस अत्यन्त दुष्ट तथा वरदानके कारण अत्यन्त अभिमानी महिषासुरका वध करने में समर्थ होंगी ? अतएव हे भक्तवत्सल ! हे भूधर ! आप अपनी बुद्धिसे भलीभाँति विचार करके उसके मरणका जो भी उपाय हो उसके द्वारा हमलोगोंका यह कार्य सम्पन्न कर दीजिये ॥ २५-२६ ॥

व्यास उवाच
श्रुत्वा तद्वचनं विष्णुस्तानुवाच हसन्निव ।
युद्धं कृतं पुरास्माभिस्तथापि न मृतो ह्यसौ ॥ २७ ॥
व्यासजी बोले-यह बात सुनकर भगवान् विष्णु मुसकराते हुए उनसे कहने लगे-पहले भी हमलोगोंने महिषासुरसे युद्ध किया था, किंतु वह नहीं मारा जा सका ॥ २७ ॥

अद्य सर्वसुराणां वै तेजोभी रूपसम्पदा ।
उत्पन्ना चेद्वरारोहा सा हन्यात्तं रणे बलात् ॥ २८ ॥
हयारिं वरदृप्तञ्च मायाशतविशारदम् ।
हन्तुं योग्या भवेन्नारी शक्त्यंशैर्निर्मिता हि नः ॥ २९ ॥
अब एक ही उपाय है कि यदि सभी देवताओंके तेजसे कोई श्रेष्ठ रूपवती सुन्दरी उत्पन्न की जाय तो वही समरांगणमें उसे अपने पराक्रमसे मार सकती है । हम सबकी शक्तिके अंशोंसे निर्मित कोई वीर नारी ही सैकड़ों प्रकारकी माया रचनेमें निपुण और वरप्राप्तिके कारण अभिमानमें चूर उस महिषासुरका वध करनेमें समर्थ होगी ॥ २८-२९ ॥

प्रार्थयन्तु च तेजोंऽशान्स्त्रियोऽस्माकं तथा पुनः ।
उत्पन्नैस्तैश्च तेजोंऽशैस्तेजोराशिर्भवेद्यथा ॥ ३० ॥
अब आप सभी देवतागण तेजांशोंसे प्रार्थना करें; साथ ही हमारी स्त्रियाँ भी प्रार्थना करें, जिससे कि उन आविर्भूत तेजांशोंके द्वारा एक तेजोराशि उत्पन्न हो जाय ॥ ३० ॥

आयुधानि वयं दद्मः सर्वे रुद्रपुरोगमाः ।
तस्यै सर्वाणि दिव्यानि त्रिशूलादीनि यानि च ॥ ३१ ॥
सर्वायुधधरा नारी सर्वतेजःसमन्विता ।
हनिष्यति दुरात्मानं तं पापं मदगर्वितम् ॥ ३२ ॥
उस समय रुद्र आदि हम सब मुख्य देवतागण त्रिशूल आदि जो भी दिव्य आयुध हैं, वह सब उसे दे देंगे । तत्पश्चात् सभी प्रकारके आयुध धारण करनेवाली तथा सम्पूर्ण तेजसे सम्पन्न वह देवी उस दुराचारी, पापी तथा मदोन्मत्त दानवको मार डालेगी ॥ ३१-३२ ॥

व्यास उवाच
इत्युक्तवति देवेशे ब्रह्मणो वदनात्ततः ।
स्वयमेवोद्‌बभौ तेजोराशिश्चातीव दुःसहः ॥ ३३ ॥
रक्तवर्णं शुभाकारं पद्मरागमणिप्रभम् ।
किञ्चिच्छीतं तथा चोष्णं मरीचिजालमण्डितम् ॥ ३४ ॥
निःसृतं हरिणा दृष्टं हरेण च महात्मना ।
विस्मितौ तौ महाराज बभूवतुरुरुक्रमौ ॥ ३५ ॥
व्यासजी बोले-भगवान् विष्णुके ऐसा कहते ही ब्रह्माजीके मुखसे अपने आप एक अत्यन्त असा तेज:पुंज निकल पड़ा । वह तेज लाल रंगका था, उसकी आकृति सुन्दर थी, वह पद्मराग मणिके समान प्रभावाला था । उसमें कुछ शीतलता एवं ऊष्णता भी थी और वह अनेक किरणोंसे सुशोभित था । हे महाराज ! भगवान् विष्णु और शिवने भी उस निःसृत तेजको देखा । [उसे देखकर] अमित पराक्रमवाले वे दोनों आश्चर्यचकित हो गये ॥ ३३-३५ ॥

शङ्करस्य शरीरात्तु निःसृतं महदद्‌भुतम् ।
रौप्यवर्णमभूत्तीव्रं दुर्दर्शं दारुणं महत् ॥ ३६ ॥
भयङ्करञ्च दैत्यानां देवानां विस्मयप्रदम् ।
घोररूपं गिरिप्रख्यं तमोगुणमिवापरम् ॥ ३७ ॥
तत्पश्चात् शंकरजीके शरीरसे भी चाँदीके सदृश वर्णवाला, अत्यन्त अद्भुत, तीव्र, देखने में असह्य तथा महाप्रचण्ड तेज निकला जो दैत्योंको भयभीत कर देनेवाला तथा देवताओंको आश्चर्यमें डाल देनेवाला था । वह भयानक रूपवाला, पर्वतके समान विशाल तथा साक्षात् दूसरे तमोगुण जैसा था ॥ ३६-३७ ॥

ततो विष्णुशरीरात्तु तेजोराशिमिवापरम् ।
नीलं सत्त्वगुणोपेतं प्रादुरास महाद्युति ॥ ३८ ॥
तदनन्तर भगवान् विष्णुके शरीरसे सत्त्वगुणसम्पन्न, नीलवर्ण और अत्यन्त दीप्तिमान् दूसरी तेजोराशि प्रकट हुई ॥ ३८ ॥

ततश्चेन्द्रशरीरात्तु चित्ररूपं दुरासदम् ।
आविरासीत्सुसंवृत्तं तेजः सर्वगुणात्मकम् ॥ ३९ ॥
इसके बाद इन्द्रके शरीरसे विचित्र आकारवाला, असह्य, पूर्ण गोलाकार और सर्वगुणात्मक तेज प्रादुर्भूत हुआ ॥ ३९ ॥

कुबेरयमवह्नीनां शरीरेभ्यः समन्ततः ।
निश्चक्राम महत्तेजो वरुणस्य तथैव च ॥ ४० ॥
अन्येषां चैव देवानां शरीरेभ्योऽतिभास्वरम् ।
निर्गतं तन्महातेजोराशिरासीन्महोज्ज्वलः ॥ ४१ ॥
कुबेर, यम, अग्नि तथा वरुणके भी शरीरोंसे सभी ओर महान् तेज निकलने लगा । इसी प्रकार अन्य देवताओंके शरीरोंसे भी अतिशय प्रदीप्त तेज निकला । वह महान् तेजोराशि अत्यन्त दीप्तिमान् थी ॥ ४०-४१ ॥

तं दृष्ट्वा विस्मिताः सर्वे देवा विष्णुपुरोगमाः ।
तेजोराशिं महादिव्यं हिमाचलमिवापरम् ॥ ४२ ॥
दूसरे हिमालयपर्वतके सदृश उस महादिव्य तेजोराशिको देखकर विष्णु आदि सभी प्रधान देवता आश्चर्यचकित हो गये ॥ ४२ ॥

पश्यतां तत्र देवानां तेजःपुञ्जसमुद्‌भवा ।
बभूवातिवरा नारी सुन्दरी विस्मयप्रदा ॥ ४३ ॥
उसी क्षण वहाँ सभी देवताओंके देखते-देखते उस तेज:पुंजसे अत्यन्त श्रेष्ठ, सुन्दर तथा सबको विस्मित कर देनेवाली एक स्त्री प्रकट हो गयी ॥ ४३ ॥

त्रिगुणा सा महालक्ष्मीः सर्वदेवशरीरजा ।
अष्टादशभुजा रम्या त्रिवर्णा विश्वमोहिनी ॥ ४४ ॥
श्वेतानना कृष्णनेत्रा संरक्ताधरपल्लवा ।
ताम्रपाणितला कान्ता दिव्यभूषणभूषिता ॥ ४५ ॥
सभी देवताओंके शरीरसे आविर्भूत वह नारी त्रिगुणात्मिका, अठारह भुजाओंवाली, मनोहर, त्रिवर्णा तथा विश्वको मोहमें डाल देनेवाली साक्षात् महालक्ष्मी थीं । वे उज्ज्वल मुखवाली, कृष्णवर्णके नेत्रोंवाली, अत्यन्त लाल अधरोष्ठसे सुशोभित, ताम्रवर्णकी हथेलीसे सुन्दर लगनेवाली, कान्तिसे सम्पन्न तथा दिव्य आभूषणोंसे अलंकृत थीं ॥ ४४-४५ ॥

अष्टादशभुजा देवी सहस्रभुजमण्डिता ।
सम्भूतासुरनाशाय तेजोराशिसमुद्‌भवा ॥ ४६ ॥
देवताओंके शरीरसे उत्पन्न तेजोराशिसे प्रकट वे अठारह भुजाओंवाली भगवती असुरोंका विनाश करनेके लिये हजारों भुजाओंसे सुशोभित हो गयीं ॥ ४६ ॥

जनमेजय उवाच
कृष्ण देव महाभाग सर्वज्ञ मुनिसत्तम ।
विस्तरं ब्रूहि तस्यास्त्वं शरीरस्य समुद्‌भवम् ॥ ४७ ॥
एकीभूतं च सर्वेषां तेजः किं वा पृथक् स्थितम् ।
अङ्गानि चैव तस्यास्तु सर्वतेजोमयानि वा ॥ ४८ ॥
भिन्नभागविभागेन जातान्यङ्गानि यानि तु ।
मुखनासाक्षिभेदेन सर्वत्रैकभवानि च ॥ ४९ ॥
ब्रूहि तद्विस्तरं व्यास शरीराङ्गसमुद्‌भवम् ।
बभूव यस्य देवस्य तेजसोऽङ्गं यदद्‌भुतम् ॥ ५० ॥
जनमेजय बोले-हे कृष्णद्वैपायन ! हे महाभाग ! हे सर्वज्ञ ! हे मुनिवर ! अब आप उन भगवतीके शरीरकी उत्पत्तिका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । उन सब देवताओंके शरीरसे निकला हुआ तेज बादमें एकत्र हो गया अथवा पृथक्-पृथक् ही रहा ? उनके अंग-प्रत्यंग विभिन्न देवताओंके तेजसे सम्पन्न थे अथवा नहीं ? उनके शरीरके विभिन्न अंग-मुख, नासिका, नेत्र आदि अलग-अलग देवताओंके तेजसे निर्मित थे अथवा सब तेज एक साथ मिलकर बने थे ? हे व्यासजी ! उनके शरीरके अंगोंकी उत्पत्तिके विषयमें विस्तारपूर्वक बताइये । जिस देवताके तेजसे उनका जो-जो अद्भुत अंग बना, वह सब मुझे बताइये ॥ ४७-५० ॥

आयुधाभरणादीनि दत्तानि यैर्यथा यथा ।
तत्सर्वं श्रोतुकामोऽस्मि त्वन्मुखाम्बुजनिर्गतम् ॥ ५१ ॥
न हि तृप्याम्यहं ब्रह्मन् सुधामयरसं पिबन् ।
चरितञ्च महालक्ष्यास्त्वन्मुखाम्भोजनिःसृतम् ॥ ५२ ॥
जिन-जिन देवताओंने उन भगवतीको जो-जो आयुध तथा आभूषण आदि समर्पित किये, आपके मुखारविन्दसे निकली सारी बात मैं सुनना चाहता हूँ । हे ब्रह्मन् ! आपके मुखकमलसे निकले महालक्ष्मीके चरित्ररूपी अमृतमय रसका पान करते हुए मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ ५१-५२ ॥

सूत उवाच
इति तस्य वचः श्रुत्वा राज्ञः सत्यवतीसुतः ।
उवाच मधुरं वाक्यं प्रीणयन्निव भूपतिम् ॥ ५३ ॥
सूतजी बोले-[हे मुनिवृन्द !] उन राजा जनमेजयका यह वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र श्रीव्यासजी उन्हें प्रसन्न करते हुए यह मधुर वचन कहने लगे ॥ ५३ ॥

व्यास उवाच
शृणु राजन्महाभाग विस्तरेण ब्रवीमि ते ।
यथामति कुरुश्रेष्ठ तस्या देहसमुद्‌भवम् ॥ ५४ ॥
व्यासजी बोले-हे राजन् ! हे महाभाग ! हे कुरुश्रेष्ठ ! सुनिये, मैं अपनी बुद्धिके अनुसार उनके शरीरकी उत्पत्तिके विषयमें विस्तारपूर्वक आपसे कहता हूँ ॥ ५४ ॥

न ब्रह्मा न हरिः साक्षान्न रुद्रो न च वासवः ।
याथातथ्येन तद्‌रूपं वक्तुमीशः कदाचन ॥ ५५ ॥
कथं जानाम्यहं देव्या यद्‌रूपं यादृशं यतः ।
वाचारम्भणमात्रं तदुत्पन्नेति ब्रवीमि यत् ॥ ५६ ॥
स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र भी भगवतीके यथार्थ रूपको बता पानेमें कभी भी समर्थ नहीं हैं तब देवीका जो रूप है, जैसा है और जिस उद्देश्यसे बना है, उसे मैं कैसे जान सकता हूँ ? बस, मेरी वाणी इतना ही कह सकती है कि वे भगवती प्रकट हुईं ॥ ५५-५६ ॥

सा नित्या सर्वदैवास्ते देवकार्यार्थसिद्धये ।
नानारूपा त्वेकरूपा जायते कार्यगौरवात् ॥ ५७ ॥
वे देवी नित्यस्वरूपा हैं और सदा ही सर्वत्र विराजमान रहती हैं । वे एक होती हुई भी गुरुतर कार्य पड़नेपर देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये नाना प्रकारके रूप धारण कर लेती हैं ॥ ५७ ॥

यथा नटो रङ्गगतो नानारूपो भवत्यसौ ।
एकरूपस्वभावोऽपि लोकरञ्जनहेतवे ॥ ५८ ॥
तथैषा देवकार्यार्थमरूपापि स्वलीलया ।
करोति बहुरूपाणि निर्गुणा सगुणानि च ॥ ५९ ॥
कार्यकर्मानुसारेण नामानि प्रभवन्ति हि ।
धात्वर्थगुणयुक्तानि गौणानि सुबहून्यपि ॥ ६० ॥
जिस प्रकार नाटकका कोई नट एक होता हुआ भी रंगमंचपर जाकर लोगोंके मनोरंजनहेतु अनेक रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार रूपरहित तथा निर्गुणा होती हुई भी ये भगवती देवताओंका कार्य सम्पन्न करनेके लिये अपनी लीलासे अनेक सगुण रूप धारण कर लिया करती हैं और किये जानेवाले कर्मक अनुसार धात्वर्थ-गुणसंयुक्त उनके अनेक गौण नाम पड़ जाते हैं । ५८-६० ॥

तद्वै बुद्ध्यनुसारेण प्रब्रवीमि नराधिप ।
यथा तेजःसमुद्‌भूतं रूपं तस्या मनोहरम् ॥ ६१ ॥
हे राजन् ! देवताओंके तेजसमूहसे उन भगवतीका मनोहर रूप जिस प्रकार उत्पन्न हुआ, उसे मैं अपनी बुद्धिके अनुसार बता रहा हूँ ॥ ६१ ॥

शङ्करस्य च यत्तेजस्तेन तन्मुखपङ्कजम् ।
श्वेतवर्णं शुभाकारमजायत महत्तरम् ॥ ६२ ॥
भगवान् शंकरका जो तेज था, उससे उन भगवतीका गौरवर्ण, सुन्दर आकारवाला तथा अत्यन्त विशाल मुखकमल निर्मित हुआ ॥ ६२ ॥

केशास्तस्यास्तथा स्निग्धा याम्येन तेजसाभवन् ।
वक्राग्राश्चातिदीर्घा वै मेघवर्णा मनोहराः ॥ ६३ ॥
यमराजके तेजसे उनके कोमल, धुंधराले, बहुत लम्बे, मेघके समान कृष्ण वर्णवाले और मनोहर केश बने ॥ ६३ ॥

नयनत्रितयं तस्या जज्ञे पावकतेजसा ।
कृष्णं रक्तं तथा श्वेतं वर्णत्रयविभूषितम् ॥ ६४ ॥
अग्निके तेजसे उन भगवतीके तीनों नेत्र बने । तीन प्रकारके वर्णोंसे सुशोभित वे नेत्र काले, लाल तथा श्वेत थे ॥ ६४ ॥

वक्रे स्निग्धे कृष्णवर्णे सन्ध्ययोस्तेजसा भ्रुवौ ।
जाते देव्याः सुतेजस्के कामस्य धनुषीव ते ॥ ६५ ॥
उनकी भौंहें दोनों सन्ध्याओंके तेजसे बनीं । वे टेढ़ी, चिकनी, काले रंगकी, अत्यन्त तेजोमय तथा कामदेवके धनुषकी भौँत प्रतीत हो रही थीं ॥ ६५ ॥

वायोश्च तेजसा शस्तौ श्रवणौ सम्बभूवतुः ।
नातिदीर्घो नातिह्रस्वौ दोलाविव मनोभुवः ॥ ६६ ॥
तिलपुष्पसमाकारा नासिका सुमनोहरा ।
सञ्जाता स्निग्धवर्णा वै धनदस्य च तेजसा ॥ ६७ ॥
उनके दोनों उत्तम कान वायुके तेजसे बने, जो न बहुत बड़े तथा न बहुत छोटे थे । वे कामदेवके झूलेके सदृश प्रतीत हो रहे थे । तिलके फूलके समान आकृतिवाली, अत्यन्त मनोहर और स्निग्ध नाक कुबेरके तेजसे उत्पन्न हुई । ६६-६७ ॥

दन्ताः शिखरिणः श्लक्ष्णाः कुन्दाग्रसदृशाः समाः ।
सञ्जाताः सुप्रभा राजन् प्राजापत्येन तेजसा ॥ ६८ ॥
हे राजन् ! उन देवीके नुकीले, चिकने, चमकीले, कुन्दके अग्रभागके सदृश तथा समान दाँत प्रजापतिके तेजसे उत्पन्न हुए ॥ ६८ ॥

अधरश्चातिरक्तोऽस्याः सञ्जातोऽरुणतेजसा ।
उत्तरोष्ठस्तथा रम्यः कार्तिकेयस्य तेजसा ॥ ६९ ॥
उनका रक्तवर्ण अधरोष्ठ अरुणके तेजसे उत्पन्न हुआ तथा ऊपरका अत्यन्त मनोहर उत्तरोष्ठ (ऊपरका ओष्ठ) कार्तिकेयके तेजसे उत्पन्न हुआ ॥ ६९ ॥

अष्टादशभुजाकारा बाहवो विष्णुतेजसा ।
वसूनां तेजसाङ्गुल्यो रक्तवर्णास्तथाभवन् ॥ ७० ॥
सौम्येन तेजसा जातं स्तनयोर्युग्ममुत्तमम् ।
ऐन्द्रेणास्यास्तथा मध्यं जातं त्रिवलिसंयुतम् ॥ ७१ ॥
जङ्घोरू वरुणस्याथ तेजसा सम्बभूवतुः ।
नितम्बः स तु सञ्जातो विपुलस्तेजसा भुवः ॥ ७२ ॥
उन देवीकी अठारह भुजाएँ विष्णुके तेजसे प्रकट हुई तथा उनकी रक्तवर्णकी अंगुलियाँ वसुओंके तेजसे उत्पन्न हुई । उनके दोनों उत्तम स्तन चन्द्रमाके तेजसे आविर्भूत हुए तथा तीन रेखाओंसे युक्त उनका मध्यभाग इन्द्रके तेजसे उत्पन्न हुआ । उनकी जाँघे तथा ऊरुप्रदेश वरुणके तेजसे उत्पन्न हुए तथा उनका विशाल नितम्ब पृथ्वीके तेजसे उत्पन्न हुआ ॥ ७०-७२ ॥

एवं नारी शुभाकारा सुरूपा सुस्वरा भृशम् ।
समुत्पन्ना तथा राजंस्तेजोराशिसमुद्‌भवा ॥ ७३ ॥
हे राजन् ! इस प्रकार उस तेजोराशिसे सुन्दर आकारवाली, दिव्य रूपसे सम्पन्न तथा मधुर स्वरवाली भगवती नारी-रूपमें प्रकट हुईं ॥ ७३ ॥

तां दृष्ट्वा सुष्ठुसर्वाङ्गीं सुदतीं चारुलोचनाम् ।
मुदं प्रापुः सुराः सर्वे महिषेण प्रपीडिताः ॥ ७४ ॥
मनोहर अंग-प्रत्यंगवाली, सुन्दर दाँतोंवाली तथा भव्य नेत्रोंवाली उन देवीको देखकर महिषासुरसे पीडित समस्त देवता अत्यन्त आनन्दित हो उठे ॥ ७४ ॥

विष्णुस्त्वाह सुरान्सर्वान्भूषणान्यायुधानि च ।
प्रयच्छन्तु शुभान्यस्यै देवाः सर्वाणि साम्प्रतम् ॥ ७५ ॥
स्वायुधेभ्यः समुत्पाद्य तेजोयुक्तानि सत्वराः ।
समर्पयन्तु सर्वेऽद्य देव्यै नानायुधानि वै ॥ ७६ ॥
उसी समय भगवान विष्णुने सभी देवताओंसे कहाहे देवताओ ! अब आपलोग अपने-अपने सभी शुभ भूषण एवं आयुध इन देवीको प्रदान करें । अपने-अपने आयुधोंसे नानाविध तेजस्वी शस्त्रास्त्र उत्पन्न करके सभी लोग शीघ्र ही देवीको अर्पित कर दें । ७५-७६ ॥

इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां
संहितायां पञ्चमस्कन्धे देव्याः
स्वरूपोद्‌भववर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
अध्याय आठवाँ समाप्त ॥ ८ ॥


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